मनुस्मृति अष्टम अध्याय

मनुस्मृति अष्टम अध्याय  

मनुस्मृति अष्टम अध्याय के भाग-३ श्लोक ३०२ से ४२० में चोर दण्ड निर्णय, परस्त्रीगमन आदि, पुल-नदी का शुल्क का वर्णन किया गया है।

मनुस्मृति अष्टम अध्याय

मनुस्मृति आठवाँ अध्याय

Manu smriti chapter 8

मनुस्मृति अध्याय ८   

॥ श्री हरि ॥

॥ मनुस्मृति ॥

मनुस्मृति अष्टमोऽध्यायः

॥अथ अष्टमोऽध्यायः ॥

मनुस्मृति अध्याय ८ - चोर-दण्ड निर्णय

परमं यत्नमातिष्ठेत् स्तेनानां निग्रहे नृपः ।

स्तेनानां निग्रहादस्य यशो राष्ट्रं च वर्धते ॥ ॥ ३०२ ॥

राजा चोरों को दण्ड देने में सदा पूरा यत्न करना चाहिए क्योंकि चोरों निग्रह से राजा का यश और राज्य वृद्धि प्राप्त करता है ॥ ३०२ ॥

अभयस्य हि यो दाता स पूज्यः सततं नृपः ।

सत्तं हि वर्धते तस्य सदैवाभयदक्षिणम् ॥ ॥ ३०३ ॥

सर्वतो धर्मषड्भागो राज्ञो भवति रक्षतः ।

अधर्मादपि षड्भागो भवत्यस्य ह्यरक्षतः ॥ ॥ ३०४ ॥

यदधीते यद् यजते यद् ददाति यदर्चति ।

तस्य षड्भागभाग् राजा सम्यग् भवति रक्षणात् ॥ ॥३०५ ॥

रक्षन् धर्मेण भूतानि राजा वध्यांश्च घातयन् ।

यजतेऽहरहर्यज्ञैः सहस्रशतदक्षिणैः ॥३०६ ॥

योऽरक्षन् बलिमादत्ते करं शुल्कं च पार्थिवः ।

प्रतिभागं च दण्डं च स सद्यो नरकं व्रजेत् ॥ ॥३०७॥

अरक्षितारं राजानं बलिषड्भागहारिणम् ।

तमाहुः सर्वलोकस्य समग्रमलहारकम् ॥ ॥३०८ ॥

राजा चोरो से अभय देने वाला है, वह सदा पूज्य है। उस अभय- दक्षिणा देनेवाले राजा का राज्य खूब बढ़ता है। जो रक्षा करता है उस राजा को सबके धर्म से छठा भाग प्राप्त होता है और जो रक्षा नहीं करता उसको सबके अधर्म में से छठा भाग प्राप्त होता है। जो रक्षाशील हैं, वह प्रजा में देव पढ़ने-पढ़ाने वाले, यज्ञ करने वाले, दान देने वाले, पूजा पाठ करने वाले सभी के छठे भाग का फल प्राप्त करता है । प्रतिदिन प्राणियों की धर्म से रक्षा और दुष्टों को दण्ड देने से मानो राजा लाख रुपयों की दक्षिणा का यज्ञ कर रहा है। और जो राजा रक्षा न करते हुए भी, भेंट कर इत्यादि लेता हैं वह शीघ्र ही नरक गामी होता है। इस प्रकार का राज्ञा अन्न का छठा भाग लेता है वह सभी सब लोगों का 'पाप लेने वाला' कहलाता है ॥३०३-३०८॥

अनपेक्षितमर्यादं नास्तिकं विप्रलुंपकम् ।

अरक्षितारमत्तारं नृपं विद्यादधोगतिम् ॥ ॥३०९ ॥

अधार्मिकं त्रिभिर्न्यायैर्निगृह्णीयात् प्रयत्नतः ।

निरोधनेन बन्धेन विविधेन वधेन च ॥ ॥ ३१० ॥

धर्ममर्यादा से रहित, नास्तिक, प्रजा का धन ठगनेवाला और प्रजा की रक्षा नहीं करने वाला राजा नरकगामी होता हैं। अधर्मी को तीन उपायों से सदा वश में रखना चाहिए नज़रबंद, कैद और बेंत आदि से मारकर॥३०६-३१०॥

निग्रहेण हि पापानां साधूनां सङ्ग्रहेण च ।

द्विजातयइवैज्याभिः पूयन्ते सततं नृपाः ॥ ॥ ३११ ॥

क्षन्तव्यं प्रभुणा नित्यं क्षिपतां कार्यिणां नृणाम् ।

बालवृद्धातुराणां च कुर्वता हितमात्मनः ॥ ॥३१२ ॥

यः क्षिप्तो मर्षयत्यार्तैस्तेन स्वर्गे महीयते ।

यस्त्वैश्वर्यान्न क्षमते नरकं तेन गच्छति ॥ ॥ ३१३ ॥

राजा स्तेन गन्तव्यो मुक्तकेशेन धावता ।

आचक्षाणेन तत् स्तेयमेवङ्कर्माऽस्मि शाधि माम् ॥ ॥३१४ ॥

स्कन्धेनादाय मुसलं लगुडं वाऽपि खादिरम् ।

शक्तिं चोभयतस्तीक्ष्णामायसं दण्डमेव वा ॥ ॥३१५॥

शासनाद् वा विमोक्षाद् वा स्तेनः स्तेयाद् विमुच्यते ।

अशासित्वा तु तं राजा स्तेनस्याप्नोति किल्बिषम् ॥ ॥३१६ ॥

पापियों के निग्रह और साधु पुरुषों का संग्रह करने से राजा पवित्र होता है, जैसे यज्ञ करने से ब्राह्मण पवित्र होता है। कोई वादी- प्रतिवादी और बालक, वृद्ध और पीडित मनुष्य अपने दुःख से दुखी होकर कोई कुवचन कह दें तो राजा को उनको क्षमा कर देना चाहिए। जो आक्षेप वचनों को सहन कर लेता है वह राजा स्वर्ग गामी होता है और जो ऐश्वर्य के मद से नहीं सहता, वह नरकगामी होता है। चोर सिर के बाल खोले दौड़कर राजा के पास अपने अपराध को निवेदन करे अथवा खैर की लकड़ी का मूसल या लट्ठ अथवा जिसमें दोनों तरफ़ धार हो ऐसी बरछी या लोहे का दण्ड कंधे पर रखकर दण्ड के लिए प्रार्थना करे तो राजा के दण्ड देने अथवा छोड़ देने पर से चोर को चोरी का पाप नहीं लगता। परन्तु उसको दण्ड न करने से उसका पाप राजा को लगता है॥३११-३१६॥

अन्नादे भ्रूणहा मार्ष्टि पत्यौ भार्याऽपचारिणी ।

गुरौ शिष्यश्च याज्यश्च स्तेनो राजनि किल्बिषम् ॥ ॥३१७॥

राजभिः कृतदण्डास्तु कृत्वा पापानि मानवाः ।

निर्मलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा ॥ ॥३१८ ॥

भ्रूणहत्या करने वाले का पाप उसके अन्न खानेवाले को, व्यभिचारिणी स्त्री का पाप उसके पति को, शिष्य का पाप गुरु को और यश करने वाले का कराने वाले को क्षमा करने से लगता है। वैसे ही चोर का पाप छोड़ने से वह पाप राजा को लगता है । पाप करके भी राजदण्ड पाये हुए मनुष्य स्वर्ग को जाते हैं जैसे पुण्य करने पर साधु पुरुष जाते हैं ॥३१७-३१८॥

यस्तु रज्जुं घटं कूपाद्द हरेद् भिन्द्याच्च यः प्रपाम् ।

स दण्डं प्राप्नुयान् माषं तच्च तस्मिन् समाहरेत् ॥ ॥३१९॥

धान्यं दशभ्यः कुम्भेभ्यो हरतोऽभ्यधिकं वधः ।

शेषेऽप्येकादशगुणं दाप्यस्तस्य च तद् धनम् ॥ ॥३२० ॥

तथा धरिममेयानां शतादभ्यधिके वधः ।

सुवर्णरजतादीनामुत्तमानां च वाससाम् ॥ ॥३२१॥

पञ्चाशतस्त्वभ्यधिके हस्तच्छेदनमिष्यते ।

शेषे त्वेकादशगुणं मूल्याद् दण्डं प्रकल्पयेत् ॥ ॥ ३२२ ॥

पुरुषाणां कुलीनानां नारीणां च विशेषतः ।

मुख्यानां चैव रत्नानां हरणे वधमर्हति ॥ ॥ ३२३ ॥

जो पुरुष कुँए पर से रस्सी और घड़ा चुराये अथवा जो गोशाला को तोड़े उस पर एक माष का दण्ड करना चाहिए और उसे चुराई गई वास्तु वापस वहीं लाकर रख देने का आदेश देना चाहिए। बीस द्रोण का एक कुम्भ- ऐसे दस कुम्भ अन्न चुराने वाले को पीट-पीट कर मृत्युदण्ड देना चाहिए और इससे कम हो तो ग्यारह गुना जुर्माना करने के पश्च्यात चोरी का माल उसके स्वामी को वापस दिलवाना चाहिए। इसी प्रकार ही तराजू से तौलने लायक सोना, चांदी या वस्त्रादि चुराने पर यदि पदार्थ सौ (१००) पल से अधिक हो तो चोर को मृत्यु दंड दे देना चाहिए। और पचास पल से अधिक हो तो चोर के हाथ कटवा देने चाहिए। इससे कम हो तो माल से ग्यारह गुना जुर्माना करना चाहिए। किसी कुलीन पुरुष या स्त्री के बहुमूल्य जेवर, या जवाहरात चुराने वाला वध अथवा देह दण्ड के योग्य है॥३१६-३२३॥

महापशूनां हरणे शस्त्राणामौषधस्य च ।

कालमासाद्य कार्यं च दण्डं राजा प्रकल्पयेत् ॥ ॥३२४ ॥

गोषु ब्राह्मणसंस्थासु छुरिकायाश्च भेदने ।

पशूनां हरणे चैव सद्यः कार्योऽर्धपादिकः ॥ ॥ ३२५॥

सूत्रकार्पासकिण्वानां गोमयस्य गुडस्य च ।

दधः क्षीरस्य तक्रस्य पानीयस्य तृणस्य च ॥ ॥ ३२६ ॥

बड़े पशु शस्त्र और औषध चुराने पर समय और अपराध के अनुसार राजा को उचित दण्ड देना चाहिए। ब्राह्मण की गौओं की चोरी या छुरी से मारने पर तुरन्त आधा पैर कटवा देना चाहिए। सूत, कपास, मदिरा की गाद, गोबर, गुड़, दही, दूध, मट्ठा, जल और तृण चुराने पर मूल्य से दुगना दण्ड करना चाहिए॥३२४-३२६॥

वेणुवैदभाण्डानां लवणानां तथैव च ।

मृण्मयानां च हरणे मृदो भस्मन एव च ॥ ॥३२७॥

मत्स्यानां पक्षिणां चैव तैलस्य च घृतस्य च ।

मांसस्य मधुनश्चैव यच्चान्यत् पशुसंभवम् ॥ ॥३२८॥

अन्येषां चैवमादीनां मद्यानामोदनस्य च ।

पक्वान्नानां च सर्वेषां तन्मुल्याद् द्विगुणो दमः ॥ ॥ ३२९ ॥

पुष्पेषु हरिते धान्ये गुल्मवल्लीनगेषु च ।

अन्येष्वपरिपूतेषु दण्डः स्यात् पञ्चकृष्णलः ॥ ॥ ३३० ॥

परिपूतेषु धान्येषु शाकमूलफलेषु च ।

निरन्वये शतं दण्डः सान्वयेऽर्धशतं दमः ॥३३१ ॥

स्यात् साहसं त्वन्वयवत् प्रसभं कर्म यत् कृतम् ।

निरन्वयं भवेत् स्तेयं हृत्वाऽपव्ययते च यत् ॥ ॥ ३३२ ॥

यस्त्वेतान्युपकृप्तानि द्रव्याणि स्तेनयेन्नरः ।

तमाद्यं दण्डयेद् राजा यश्चाग्निं चोरयेद् गृहात् ॥ ॥३३३ ॥

येन येन यथाङ्गेन स्तेनो नृषु विचेष्टते ।

तत् तदेव हरेत् तस्य प्रत्यादेशाय पार्थिवः ॥ ॥ ३३४ ॥

इसी प्रकार बांस के पात्र, नमक, मट्टी के पात्र, मिट्टी, राख, मछली, चिड़िया, तेल, घी, मांस, मधु, पशुओं के सींग आदि और ऐसे ही दूसरे पदार्थ, मदिरा, भात और सभी प्रकार के पके अन्न चुराने पर इनके मूल्य से दुगना दाम दण्ड करना चाहिए । गुल्म, लता, वृक्ष और धान वगैरह चुराने पर, पाच कृष्णल' दण्ड करना चाहिए। पवित्र, शोधित धान्य, शाक, मूल और फलों का चोर यदि कुटुम्बी न हो तो सौ पण दण्ड करना चाहिए और सम्बन्धी हो तो पचास पण दण्ड करना चाहिए। जो पदार्थ जबरदस्ती स्वामी के सामने छीना हो वह साहस- लूट कहलाता है और जो पदार्थ स्वामी के पीछे लिया हो और स्वीकार न किया जाए तो वह चोरी है। ऊपर कहे पदार्थों को जो चुराए और जो घर से आग चुराए उन पर प्रथम साहस (२५० पण) का दण्ड राजा को करना चाहिए। चोर जिस जिस अंग से चोरी अथवा मार काट इत्यादि करें उसका वही अंग शिक्षा देने के लिए राजा को कटवा देना चाहिए ॥३२७-३३४॥

पिताऽचार्यः सुहृत्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः ।

नादण्ड्यो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति ॥ ॥ ३३५॥

कार्षापणं भवेद् दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः ।

तत्र राजा भवेद् दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा ॥ ३३६॥

अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्बिषम् ।

षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च ॥ ॥ ३३७ ॥

ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत् ।

द्विगुणा वा चतुःषष्टिस्तद्दोषगुणविद् हि सः ॥ ॥ ३३८ ॥

पिता, आचार्य, मित्र, माता, स्त्री, पुत्र और पुरोहित भी यदि अपने धर्म से न चले तो राजा के लिए अदंड्य नहीं है अर्थात राजा इनको भी दण्ड दे सकता है। साधारण मनुष्य को जिस अपराध के लिए एक पण दण्ड करना चाहिए, उस अपराध में राजा को अपने लिए हज़ार पण दण्ड करना चाहिए, यह मर्यादा है। चोरी करने में शुद्र को दोगुना, वैश्य को सोलह गुना और क्षत्रिय को बीस गुना पाप लगता है। ब्राह्मण को चौंसठ गुना अथवा पूरा सौ गुना पाप लगता है अथवा एक सौ अट्ठाईस इस गुना पाप लगता है, क्योंकि ब्राह्मण चोरी के दोष गुण को जानता है ॥३३५-३३८॥

वानस्पत्यं मूलफलं दार्वग्यर्थं तथैव च ।

तृणं च गोभ्यो ग्रासार्थमस्तेयं मनुरब्रवीत् ॥ ॥ ३३९ ॥

योऽदत्तादायिनो हस्तात्लिप्सेत ब्राह्मणो धनम् ।

याजनाध्यापनेनापि यथा स्तेनस्तथैव सः ॥ ॥ ३४० ॥

द्विजोऽध्वगः क्षीणवृत्तिर्द्वाविक्षू द्वे च मूलके ।

आददानः परक्षेत्रान दण्डं दातुमर्हति ॥ ॥३४१॥

असंदितानां संदाता संदितानां च मोक्षकः ।

दासाश्वरथहर्ता च प्राप्तः स्याच्चोरकिल्बिषम् ॥ ॥३४२ ॥

बिना बाडे के खेतों से फल, फूल, अग्निहोत्र के लिए काष्ठ, गौओं के लिए घास लेना चोरी नहीं है ऐसा मनुजी कहते हैं। जो ब्राह्मण परधन हरण करनेवाले को यज्ञ कराकर या शास्त्र पढ़ाकर उससे धन लेना चाहता है, वह ब्राह्मण भी चोर के समान ही है। जीविकाहीन द्विज मार्ग में जाता हुआ किसी के खेत से दो गन्ने या दो मूली ले ले तो दण्ड योग्य नहीं है। दूसरे के खुले पशुओं को बांधनेवाला और बँधों को खोलनेवाला, दास, घोड़ा, और रथ को हरने वाला चोरी का अपराधी होती है ॥३३९-३४२॥

अनेन विधिना राजा कुर्वाणः स्तेननिग्रहम् ।

यशोऽस्मिन् प्राप्नुयात्लोके प्रेत्य चानुत्तमं सुखम् ॥ ॥३४३ ॥

ऐन्द्रं स्थानमभिप्रेप्सुर्यशश्चाक्षयमव्ययम् ।

नोपेक्षेत क्षणमपि राजा साहसिकं नरम् ॥ ॥३४४ ॥

वाग्दुष्टात् तस्कराच्चैव दण्डेनैव च हिंसतः ।

साहसस्य नरः कर्ता विज्ञेयः पापकृत्तमः ॥ ॥ ३४५॥

साहसे वर्तमानं तु यो मर्षयति पार्थिवः ।

स विनाशं व्रजत्याशु विद्वेषं चाधिगच्छति ॥ ॥ ३४६॥

न मित्रकारणाद् राजा विपुलाद् वा धनागमात् ।

समुत्सृजेत् साहसिकान् सर्वभूतभयावहान् ॥ ॥३४७॥

इस प्रकार उक्त विधि से चोरों का निग्रह करने से राजा इस लोक में सुयश और अन्त में अक्षय सुख प्राप्त करता है। इन्द्रासन और 'सुयश चाहनेवाला राजा को लुटेरे मनुष्यों के निग्रह में क्षण मात्र भी विलम्ब नहीं करना चाहिए। कुवाच्य कहनेवाले, चोर और मार-पीट करने वालों की अपेक्षा लुटेरों को अधिक अपराधी जानना चाहिए । जो राजा लुटेरों को क्षमा करता है वह शीघ्र ही नष्ट होकर प्रजा का दुश्मन हो जाता है। राजा को किसी मित्र के कहने से अथवा धन मिलने की आशा से भयदायी लुटेरों को कभी नहीं छोड़ना चाहिए ॥३४३-३४७॥

शस्त्रं द्विजातिभिर्ग्राह्यं धर्मो यत्रोपरुध्यते ।

द्विजातीनां च वर्णानां विप्लवे कालकारिते ॥ ॥ ३४८ ॥

आत्मनश्च परित्राणे दक्षिणानां च सङ्गरे ।

स्त्रीविप्राभ्युपपत्तौ च घ्नन् धर्मेण न दुष्यति ॥ ॥ ३४९ ॥

गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम् ।

आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन् ॥ ॥३५० ॥

जिस समय यज्ञादि धर्म-कर्म रोका जाता हो, वर्णाश्रम धर्म का नाश होता हो, उस समय द्विज को अस्त्र ग्रहण करना चाहिए। अपनी रक्षा करने में, दक्षिणा की रक्षा में, स्त्री और ब्राह्मणों की विपत्ति में धर्मयुद्ध से मारनेवाला पाप का भागी नहीं होता। गुरु, बालक, बूढ़ा वेदज्ञ ब्राह्मण भी यदि आततायी बन कर मारने के किए आये तो बिना विचार उन पर प्रहार करना चाहिए ॥३४८-३५०॥

मनुस्मृति अध्याय ८ - परस्त्रीगमन आदि

नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन ।

प्रकाशं वाऽप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युमृच्छति ॥ ॥ ३५१ ॥

परदाराभिमर्शेषु प्रवृत्तान्नृन् महीपतिः ।

उद्वेजनकरैर्दण्डैश्छिन्नयित्वा प्रवासयेत् ॥ ॥३५२ ॥

तत्समुत्थो हि लोकस्य जायते वर्णसङ्करः ।

येन मूलहरो धर्मः सर्वनाशाय कल्पते ॥ ॥ ३५३ ॥

परस्य पत्न्या पुरुषः संभाषां योजयन् रहः ।

पूर्वमाक्षारितो दोषैः प्राप्नुयात् पूर्वसाहसम् ॥ ॥३५४॥

यस्त्वनाक्षारितः पूर्वमभिभाषते कारणात् ।

न दोषं प्राप्नुयात् किं चिन्न हि तस्य व्यतिक्रमः ॥ ॥३५५॥

परस्त्रियं योऽभिवदेत् तीर्थेऽरण्ये वनेऽपि वा ।

नदीनां वाऽपि संभेदे स सङ्ग्रहणमाप्नुयात् ॥ ॥३५६ ॥

उपचारक्रिया केलिः स्पर्शो भूषणवाससाम् ।

सह खट्वाऽसनं चैव सर्वं सङ्ग्रहणं स्मृतम् ॥ ॥३५७ ॥

स्त्रियं स्पृशेददेशे यः स्पृष्टो वा मर्षयेत् तया ।

परस्परस्यानुमते सर्वं सङ्ग्रहणं स्मृतम् ॥ ॥३५८॥

प्रकट या परोक्ष में मारनेवाले आततायी को मारने से कोई 'दोष नहीं होता, क्योंकि मारनेवाले का क्रोध दूसरे के क्रोध को बढ़ाता है। परस्त्री संभोग में लगे मनुष्यों की नाक इत्यादि काट कर अथवा अंग भंग करके देश से निकाल देना चाहिए। संसार में वर्णसङ्करता उसी से पैदा होती है, क्योंकि अधर्म जड काटता है, सर्वनाश कर डालता है । व्यभिचारी पुरुष परस्त्री से एकान्त में बातचीत करता हुआ - प्रथम साहस (२५० पण) दणड के योग्य होता है। पर साधारण पुरुष किसी परस्त्री से बातें करे तो वह अपराधी नहीं होता न ही दण्ड का भागी होता है। जो पुरुष तीर्थ, जंगल, वन और नदियों के संगमस्थान में परस्त्री से बातें करता है उसको संभोग दूषण ही लगता है। परस्त्री को पुष्पमाला, तेल आदि भेजना, हँसी करना, उसके गहने-वस्त्र छूना, एक पलंग पर बैठना, इन सब कामों को परस्त्री, संग्रहण जानना चाहिए जो आपस की सलाह से स्त्री के स्तनादि, उसका गुप्त स्थान छुए यह सब संग्रहण कहलाता है ॥३५१-३५८॥

अब्राह्मणः सङ्ग्रहणे प्राणान्तं दण्डमर्हति ।

चतुर्णामपि वर्णानां दारा रक्ष्यतमाः सदा ॥ ॥ ३५९ ॥

भिक्षुका बन्दिनश्चैव दीक्षिताः कारवस्तथा ।

संभाषणं सहस्त्रीभिः कुर्युरप्रतिवारिताः ॥ ३६० ॥

न संभाषां परस्त्रीभिः प्रतिषिद्धः समाचरेत् ।

निषिद्धो भाषमाणस्तु सुवर्णं दण्डमर्हति ॥ ॥३६१ ॥

नैष चारणदारेषु विधिर्नात्मोपजीविषु ।

सज्जयन्ति हि ते नारीर्निगूढाश्चारयन्ति च ॥ ॥३६२॥

किं चिदेव तु दाप्यः स्यात् संभाषां ताभिराचरन् ।

प्रैष्यासु चैकभक्तासु रहः प्रव्रजितासु च ॥ ॥३६३ ॥

ब्राह्मण को छोड़ कर अन्य कोई यदि परस्त्री संग्रहण करे तो मार डालने योग्य होता है, क्योंकि चारों वर्णवालों को सदा अपनी स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए। भिक्षुक, भाट, यज्ञ में दीक्षित, रसोईया और कारीगर स्त्रियों के साथ बिना रोक बातचीत की जा सकती है। जिसको निषेध है उसको परस्त्री के साथ बातचीत नहीं करनी चाहिए और बातचीत करने वाला एक सुवर्ण दण्ड के योग्य होता है। यह निषेध-मनादी नट, गवैया आदि की स्त्रिय के लिए नहीं है, क्योंकि वह अपने आप ही अपनी स्त्रियों को सजाकर पर पुरुषों से मिलाते हैं। परन्तु उनके साथ भी निर्जन में बातें करनी दण्डकारक है और एकभक्ता अथवा विरक्त स्त्री के साथ भी बातचीत करने से कुछ दण्ड का विधान करना चाहिए ॥३५६-३६३॥

योऽकामां दूषयेत् कन्यां स सद्यो वधमर्हति ।

सकामां दूषयंस्तुल्यो न वधं प्राप्नुयान्नरः ॥ ॥ ३६४ ॥

कन्यां भजन्तीमुत्कृष्टं न किं चिदपि दापयेत् ।

जघन्यं सेवमानां तु संयतां वासयेद् गृहे ॥ ॥ ३६५॥

उत्तमां सेवमानस्तु जघन्यो वधमर्हति ।

शुल्कं दद्यात् सेवमानः समामिच्छेत् पिता यदि ॥ ३६६॥

जो इच्छा न करनेवाली कन्या से गमन करे, वह उसी समय वध के योग्य है। परन्तु कन्या की इच्छा के साथ गमन करने वाला सजातीय पुरुष, वध योग्य नहीं होता। उत्तम जाति के पुरुष को सेवन करनेवाली कन्या पर कुछ भी दण्ड नहीं करना चाहिए परन्तु नीच जाति के साथ गमन करने वाली कन्या को घर में नजरबंद रखना चाहिए। नीच जाति का पुरुष उत्तम जाति की कन्या से भोग करे तो वध के योग्य है और समान जाति की कन्या को भोगता हो तो वह पुरुष कन्या के पिता को आज्ञा से मूल्य देकर विवाह भी कर सकता है ॥३६४-३६६॥

अभिषा तु यः कन्यां कुर्याद् दर्पेण मानवः ।

तस्याशु कर्त्ये अङ्गुल्यौ दण्डं चार्हति षट्शतम् ॥ ॥३६७ ॥

सकामां दूषयंस्तुल्यो नाङ्गुलिछेदमाप्नुयात् ।

द्वि शतं तु दमं दाप्यः प्रसङ्गविनिवृत्तये ॥ ॥३६८ ॥

कन्यैव कन्यां या कुर्यात् तस्याः स्याद् द्विशतो दमः ।

शुल्कं च द्विगुणं दद्यात्शिफाश्चैवाप्नुयाद् दश ॥ ॥ ३६९ ॥

या तु कन्यां प्रकुर्यात् स्त्री सा सद्यो मौण्ड्यमर्हति ।

अङ्गुल्योरेव वा छेदं खरेणोद्वहनं तथा ॥ ॥३७०॥

भर्तारं लङ्घयेद्या तु स्त्री ज्ञातिगुणदर्पिता ।

तां श्वभिः खादयेद् राजा संस्थाने बहुसंस्थिते ॥ ॥ ३७१ ॥

पुमांसं दाहयेत् पापं शयने तप्त आयसे ।

अभ्यादध्युश्च काष्ठानि तत्र दह्येत पापकृत् ॥ ॥३७२॥

जो मनुष्य अभिमान और बलात्कार से कन्या को उँगलियों से बिगाड़े उसकी दोनों उंगलियाँ कटवा दें और छः सौ पण दण्ड करे । समान जाति और सकामा कन्या को दूषित करनेवाले की अङ्गुलियां नहीं काटनी चाहिए, किन्तु प्रसंग की निवृति के लिए सिर्फ दो सौ पण का दण्ड करना चाहिए। कन्या ही कन्या को उँगलियों से बिगाड़े तो उस पर दो सौ पण दण्ड करे और उस कन्या के पिता से कहकर दुगना मूल्य दिलवाना चाहिए और दस कोड़े लगवाने चाहिए। यदि कोई स्त्री कन्या को उँगलियों से बिगाड़े तो उसका सिर मुंडवा कर तथा दो अंगुलियाँ काटकर, गधे पर चढ़ाकर घुमाना चाहिए। जो स्त्री अपने रुप, गुण के घमंड से पति का तिरस्कार कर व्यभिचार करे, उसको राजा को सब के सामने कुत्तों से नुचवाना चाहिए और जो व्यभिचारी पापी हो उसको तपाये हुए लोहे के पलंग पर सुलाकर ऊपर से काष्ठ रखकर जलवा देना चाहिए ॥३६७-३७२॥

संवत्सराभिशस्तस्य दुष्टस्य द्विगुणो दमः ।

व्रात्यया सह संवासे चाण्डाल्या तावदेव तु ॥ ॥३७३ ॥

शूद्रोगुप्तमगुप्तं वा द्वैजातं वर्णमावसन् ।

अगुप्तमङ्गसर्वस्वैर्गुप्तं सर्वेण हीयते ॥ ॥ ३७४ ॥

यदि कोई एक वर्ष तक व्यभिचार करता रहे तो उस दुष्ट को उक्त दण्ड दुगना होना चाहिए और व्रात्या तथा चाण्डाली के साथ व्यभिचार करने पर भी वही दण्ड देना चाहिए। शुद्र, ब्राह्मण स्त्री से गुप्त या प्रकट व्यभिचार करे तो उसका अंग कटवा डालना चाहिए तथा उसका सर्वस्व हरण कर लेना चाहिए ॥३७३-३७४॥

वैश्यः सर्वस्वदण्डः स्यात् संवत्सरनिरोधतः ।

सहस्रं क्षत्रियो दण्ड्यो मौण्ड्यं मूत्रेण चार्हति ॥ ॥ ३७५॥

ब्राह्मणीं यद्यगुप्तां तु गच्छेतां वैश्यपार्थिवौ ।

वैश्यं पञ्चशतं कुर्यात् क्षत्रियं तु सहस्रिणम् ॥ ॥ ३७६ ॥

उभावपि तु तावेव ब्राह्मण्या गुप्तया सह ।

वि प्लुतौ शूद्रवद् दण्ड्यौ दग्धव्यौ वा कटाग्निना ॥ ॥ ३७७ ॥

सहस्रं ब्राह्मणो दण्ड्यो गुप्तां विप्रां बलाद् व्रजन् ।

शतानि पञ्च दण्ड्यः स्यादिच्छन्त्या सह सङ्गतः ॥ ॥ ३७८ ॥

वैश्य रक्षित ब्राह्मणी से गमन करे तो एक वर्ष कैद करके उसका सर्वस्व हरण करना चाहिए। क्षत्रिय करे तो एक हज़ार पण दण्ड करना चाहिए और उसका सिर गधे के मूत से मुंडवा देना चाहिए। वैश्य और क्षत्रिय यदि अरक्षिता ब्राह्मणी से गमन करे तो वैश्य पर पाँच सौ और क्षत्रिय पर हज़ार पण दण्ड करना चाहिए। वह दोनों यदि रक्षित ब्राह्मणी से गमन करें, शुद्र की भांति दण्ड देना चाहिए अथवा उनको चटाई में लपेट कर जलवा देना चाहिए । रक्षित ब्राह्मणी से ज़बरदस्ती व्यभिचार करनेवाले ब्राह्मण पर हज़ार पण दण्ड करना चाहिए और स्त्री की इच्छा अनुसार गमन करे तो पाँच सौ पण दण्ड करना चाहिए। ॥३७५-३७८॥

मौण्ड्यं प्राणान्तिकं दण्डो ब्राह्मणस्य विधीयते ।

इतरेषां तु वर्णानां दण्डः प्राणान्तिको भवेत् ॥ ॥३७९ ॥

न जातु ब्राह्मणं हन्यात् सर्वपापेष्वपि स्थितम् ।

राष्ट्रानं बहिः कुर्यात् समग्रधनमक्षतम् ॥ ॥३८० ॥

न ब्राह्मणवधाद् भूयानधर्मो विद्यते भुवि ।

तस्मादस्य वधं राजा मनसाऽपि न चिन्तयेत् ॥ ॥३८१॥

वैश्यश्चेत् क्षत्रियां गुप्तां वैश्यां वा क्षत्रियो व्रजेत् ।

यो ब्राह्मण्यामगुप्तायां तावुभौ दण्डमर्हतः ॥ ॥ ३८२॥

ब्राह्मण का सिर मुंडवा देना ही प्राणान्त दण्ड देना है अन्य वर्णों को प्राणान्त दण्ड का विधान है। जैसा भी अपराध ब्राह्मण ने किया हो पर उसको प्राणान्त दण्ड कभी नहीं देना चाहिए अपितु उसको धन सहित देश से निकाल देना चाहिए। ब्राह्मण वध से अधिक कोई अधर्म नहीं है। राजा को ब्राह्मण वध का कभी मन में भी विचार नहीं करना चाहिए। वैश्य क्षत्रिया से और क्षत्रिय रक्षित वैश्या से व्यभिचार करे तो, इन दोनों को आरक्षित ब्राह्मणी से व्याभिचारवाला दण्ड देना चाहिए। ॥३७९ - ३८२॥

सहस्रं ब्राह्मणो दण्डं दाप्यो गुप्ते तु ते व्रजन् ।

शूद्रायां क्षत्रियविशोः साहस्रो वै भवेद् दमः ॥ ॥३८३ ॥

क्षत्रियायामगुप्तायां वैश्ये पञ्चशतं दमः ।

मूत्रेण मौण्ड्यमिच्छेत्तु क्षत्रियो दण्डमेव वा ॥ ॥ ३८४ ॥

अगुप्ते क्षत्रियावैश्ये शूद्रां वा ब्राह्मणो व्रजन् ।

शतानि पञ्च दण्ड्यः स्यात् सहस्रं त्वन्त्यजस्त्रियम् ॥ ॥३८५॥

यदि ब्राह्मण रक्षित क्षत्रिया वा वैश्या से गमन करे तो उस पर हज़ार पण दण्ड करना चाहिए और रक्षित शूद्रा से गमन करनेवाले क्षत्रिय और वैश्य पर भी हज़ार पण दण्ड करना चाहिए। अरक्षित क्षत्रिया गमन करने वाले वैश्य पर पाँच सौ पण भोर क्षत्रिय का सिर मूत्र से मुंडवाकर पाँच सौ पण दण्ड करना चाहिए। यदि ब्राह्मण, अरक्षित क्षत्रिया, वैश्य और शूद्रा से व्यभिचार करे तो पाँच सौ पण दण्ड करना चाहिए और चाण्डाली से गमन करने पर हज़ार पण दण्ड करना चाहिए ॥३८३-३८५॥

यस्य स्तेनः पुरे नास्ति नान्यस्त्रीगो न दुष्टवाक् ।

न साहसिकदण्डघ्नो स राजा शक्रलोकभाक् ॥३८६ ॥

एतेषां निग्रहो राज्ञः पञ्चानां विषये स्वके ।

सांराज्यकृत् सजात्येषु लोके चैव यशस्करः ॥ ॥३८७ ॥

ऋत्विजं यस्त्यजेद् याज्यो याज्यं चर्त्विक् त्यजेद् यदि ।

शक्तं कर्मण्यदुष्टं च तयोर्दण्डः शतं शतम् ॥ ॥३८८ ॥

न माता न पिता न स्त्री न पुत्रस्त्यागमर्हति ।

त्य जन्नपतितानेतान राज्ञा दण्ड्यः शतानि षट् ॥ ॥३८९ ॥

आश्रमेषु द्विजातीनां कार्ये विवदतां मिथः ।

न विब्रूयान्नृपो धर्मं चिकीर्षन् हितमात्मनः ॥ ॥३९०॥

जिस राजा के नगर में न चोर हैं, न व्यभिचारी हैं, न कुवाच्य कहनेवाले हैं, न लुटेरे हैं, और न मार-पीट करनेवाले हैं वह राजा स्वर्ग अथवा इन्द्रलोक को प्राप्त करता है। इन पाँचों का अपने राज्य में निग्रह करने से राजा के राज्य और यश में वृद्धि होती है। जो यजमान अपने कर्म करानेवाले निदोष ऋत्विज को त्याग देता है अथवा जो ऋत्विज् योग्य यजमान को छोड़ देता है उन दोनों पर राजा सौ सौ पण दण्ड करना चाहिए। माता, पिता, स्त्री और पुत्र त्याग के योग्य नहीं होते। जो इनको पतित न होने पर भी त्याग दे, उस पर राजा को छः सौ पण दण्ड करना चाहिए। आश्रम धर्म लिए झगड़नेवाले द्विजों का राजा कोई फैसला न करे। वह उसका फैसला स्वयं कर लेंगे अर्थात ऐसे कामों में राजा को बलपूर्वक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए ॥३८६-३९०॥

यथार्हमेतानभ्यर्च्य ब्राह्मणैः सह पार्थिवः ।

सान्त्वेन प्रशमय्यादौ स्वधर्मं प्रतिपादयेत् ॥ ॥३९१ ॥

प्रतिवेश्यानुवेश्यौ च कल्याणे विंशतिद्विजे ।

अर्हावभेोजयन् विप्रो दण्डमर्हति माषकम् ॥ ॥३९२ ॥

श्रोत्रियः श्रोत्रियं साधुं भूतिकृत्येष्वभोजयन् ।

तदन्नं द्विगुणं दाप्यो हिरण्यं चैव माषकम् ॥ ॥३९३ ॥

अन्धो जडः पीठसप सप्तत्या स्थविरश्च यः ।

श्रोत्रियेषूपकुर्वंश्च न दाप्याः केन चित् करम् ॥ ॥ ३९४ ॥

श्रोत्रियं व्याधितार्तौ च बालवृद्धावकिञ्चनम् ।

महाकुलीनमार्यं च राजा सम्पूजयेत् सदा ॥ ॥ ३९५ ॥

किन्तु अपने सभासदों के साथ इनकी यथोचित पूजा करके पहले समझाने का प्रयास करे फिर स्वधर्म का आदेश करना चाहिए। यदि कोई उत्सव करवाए, जिसमे बीस ब्राह्मणों के भोजन का प्रबंध हो, और उस उत्सव मे पड़ोसी और घर आने जाने वाले अपने हितप्रिय लोगों को आमंत्रण न दे तो उस पुरुष पर एक माषक दण्ड करना चाहिए। किसी मंगलकार्य में वेदज्ञ ब्राह्मण, साधु आदि को भोजन न देने पर उसको दुगना अन्न और सोने का एक माषक देना चाहिए। अन्धा, बहिरा, लूला, सत्तर वर्ष के बूढ़े और श्रोत्रिय से राजा को कोई कर नहीं लेना चाहिए। श्रोत्रिय, रोगी, दुःखी, बालक, बूढा, निर्धन, महाकुलीन, और महात्मा पुरुष की ओर राजा को सदा आदर दृष्टि रखनी चाहिए ॥३९१-३९५॥

शाल्मलीफलके श्लक्ष्णे नेनिज्यान्नेजकः शनैः ।

न च वासांसि वासोभिर्निर्हरेन्न च वासयेत् ॥ ॥३९६ ॥

तन्तुवायो दशपलं दद्यादेकपलाधिकम् ।

अतोऽन्यथा वर्तमानो दाप्यो द्वादशकं दमम् ॥ ॥३९७ ॥

शुल्कस्थानेषु कुशलाः सर्वपण्यविचक्षणाः।

कुर्युर्धं यथापण्यं ततो विंशं नृपो हरेत् ॥ ॥३९८ ॥

धोबी को सेमर के चिकने पाट पर धीरे धीरे कपड़े धोने चाहिए, कपड़ों को बदलना नहीं चाहिए और न ही बहुत दिनों तक कपड़ों को अपने पास रखना चाहिए। जुलाहे को दस पल सूत लेकर ग्यारह पल कपड़ा तौल कर देना चाहिए। यदि विपरीत करे तो राजा को उस पर बारह पण दण्ड करना चाहिए। जो पुरुष चुंगी वगैरह कामों में चतुर और हर प्रकार के व्यापारों में प्रवीण हो, उन सौदागरों के लाभ का बीसवाँ भाग राजा को ग्रहण करना चाहिए ॥३६६-३६८॥

राज्ञः प्रख्यात भाण्डानि प्रतिषिद्धानि यानि च ।

ताणि निर्हरतो लोभात् सर्वहारं हरेन्नृपः ॥ ॥ ३९९ ॥

शुल्कस्थानं परिहरन्नकाले क्रयविक्रयी ।

मिथ्यावादी च सङ्ख्याने दाप्योऽष्टगुणमत्ययम् ॥ ॥४०० ॥

आगमं निर्गमं स्थानं तथा वृद्धिक्षयावुभौ ।

विचार्य सर्वपण्यानां कारयेत् क्रयविक्रयौ ॥ ॥ ४०१ ॥

पञ्चरात्रे पञ्चरात्रे पक्षे पक्षेऽथ वा गते ।

कुर्वीत चैषां प्रत्यक्षमर्घसंस्थापनं नृपः ॥ ॥ ४०२ ॥

तुलामानं प्रतीमानं सर्वं च स्यात् सुलक्षितम् ।

षट्सु षट्सु च मासेषु पुनरेव परीक्षयेत् ॥ ॥ ४०३ ॥

राजा अपने देश की जिन प्रसिद्ध वस्तुओं एवं पदार्थों को परदेश में व्यापारार्थ बेचने से निषेध घोषित करे उनको लोभ वश कोई ले जाए तो राजा को उसका सर्वस्व छीन लेना चाहिए। चुंगीघर से छिपानेवाला, असमय में खरीद-बेच करनेवाला, गिनती-तोल में झूठ बोलनेवाला वस्तु के मूल्य से आठ गुणा दण्ड के योग्य होता है। माल कहां ले आया है, कहां जाता है, कितने दिन पड़ा रहा है, उसमें हानि वा लाभ क्या होगा, यह सब विचार कर खरीदने बेचने का भाव तय करना चाहिए। पाँच पाँच दिन अथवा पक्ष बीतने पर राजा को माल का भाव व्यापारियों के सामने नियत करना चाहिए। तराजू के बाट और गज़ वगैरह पर अपनी मोहर लगाकर ठीक रखना चाहिए और छठे महीना उनकी जांच करनी चाहिए। ॥३६६-४०३॥

मनुस्मृति अध्याय ८ - पुल, नदी का शुल्क

पण यानं तरे दाप्यं पौरुषोऽर्धपणं तरे ।

पादं पशुश्च योषित्व पादार्धं रिक्तकः पुमान् ॥ ॥४०४॥

भाण्डपूर्णानि यानानि तार्यं दाप्यानि सारतः ।

रिक्तभाण्डानि यत् किं चित् पुमांसश्चपरिच्छदाः ॥४०५ ॥

दीर्घाध्वनि यथादेशं यथाकालं तरो भवेत् ।

नदीतीरेषु तद् विद्यात् समुद्रे नास्ति लक्षणम् ॥ ॥४०६ ॥

नदी पार करने में खाली गाड़ी का एक पण, भार सहित मनुष्यों का आधा पण, पशु और स्त्री का चौथाई पण और खाली मनुष्य से पण का आठवाँ भाग शुल्क के रूप में लेना चाहिए। मालभरी गाड़ी पार उतरने का शुल्क उसके वजन के अनुसार लेना चाहिए और खाली सवारी और गरीबों से थोड़ा सा लेना चाहिए। लम्बी उतराई का शुल्क देश काल के अनुसार तय करना चाहिए। यह नदी तट का नियम है। समुद्र के लिए कोई निश्चय नहीं हो सकता ॥४०४-४०६॥

गर्भिणी तु द्विमासादिस्तथा प्रव्रजितो मुनिः ।

ब्राह्मणा लिङ्गिनश्चैव न दाप्यास्तारिकं तरे ॥ ॥४०७ ॥

यन्नावि किं चिद् दाशानां विशीर्येतापराधतः ।

तद्दाशैरेव दातव्यं समागम्य स्वतोऽशतः ॥ ॥ ४०८ ॥

एष नौयायिनामुक्तो व्यवहारस्य निर्णयः ।

दाशापराधतस्तोये दैविके नास्ति निग्रहः ॥ ॥ ४०९ ॥

दो महीना से अधिक की गर्भिणी, वानप्रस्थ, संन्यासी और ब्राह्मण, ब्रह्मचारी को नदी पार जाने की उतराई नहीं देनी चाहिए। यदि नाव में मल्लाहों के दोष से कुछ हानि हो, वह मल्लाहों को इकट्ठा होकर अपने भाग में से देना चाहिए। यह नौका से नदी पार होने का निर्णय और जल में मल्लाहों के व्यवहार का निर्णय कहा है। यदि कोई दैवी विपत्ति आ पड़े तो उस में कोई दण्डविधान नहीं है ॥४०७-४०६॥

वाणिज्यं कारयेद् वैश्यं कुसीदं कृषिमेव च ।

पशूनां रक्षणं चैव दास्यं शूद्रं द्विजन्मनाम् ॥ ॥ ४१० ॥

क्षत्रियं चैव वैश्यं च ब्राह्मणो वृत्तिकर्शितौ ।

बिभृयादानृशंस्येन स्वानि कर्माणि कारयेत् ॥ ॥४११ ॥

दास्यं तु कारयन्लोभाद् ब्राह्मणः संस्कृतान् द्विजान् ।

अनिच्छतः प्राभवत्याद् राज्ञा दण्ड्यः शतानि षट् ॥ ॥४१२ ॥

शूद्रं तु कारयेद् दास्यं क्रीतमक्रीतमेव वा ।

दास्यायैव हि सृष्टोऽसौ ब्राह्मणस्य स्वयंभुवा ॥ ॥४१३ ॥

न स्वामिना निसृष्टोऽपि शूद्रो दास्याद् विमुच्यते ।

निसर्गजं हि तत् तस्य कस्तस्मात् तदपोहति ॥ ॥४१४ ॥

राजा को वैश्यों से व्यापार, ब्याज, खेती और पशुरक्षा का उद्यम करवाना चाहिए और शूद्रों से द्विजों की सेवा करवानी चाहिए। जीविका से रहित क्षत्रिय और वैश्यों से ब्राह्मण को अपना कर्म करवाते हुए उनका पालन पोषण करना चाहिए। यदि धनी ब्राह्मण लोभवश उत्तम द्विजों से सेवा कर्म करवाए तो राजा को उस पर छः सौ पण दण्ड करना चाहिए। खरीदे अथवा बिना खरीदे शुद्रों से सेवाकर्म ही करवाना चाहिए क्योंकि ब्रह्मा ने शूद्रों को दासकर्म के लिए ही उत्पन्न किया है। स्वामी से छुड़ाया हुआ शूद्र भी दास कर्म को छोड़ नहीं सकता क्योंकि वह उसका स्वाभाविक धर्म है। ॥४१०-४१४॥

ध्वजाहृतो भक्तदासो गृहजः क्रीतदत्त्रिमौ ।

पैत्रिको दण्डदासश्च सप्तैते दासयोनयः ॥ ॥४१५ ॥

भार्या पुत्रश्च दासश्च त्रय एवाधनाः स्मृताः ।

यत् ते समधिगच्छन्ति यस्य ते तस्य तद् धनम् ॥ ॥४१६ ॥

विस्रब्धं ब्राह्मणः शूद्राद् द्रव्योपादानमाचरेत् ।

न हि तस्यास्ति किं चित् स्वं भर्तृहार्यधनो हि सः ॥ ॥ ४१७ ॥

युद्ध में जीतकर लाया हुआ, भक्त दास, दासीपुत्र खरीदा हुआ, किसी का दिया हुआ, परंपरा से प्राप्त और दण्ड-शुद्धि के लिए जिसने दास भाव स्वीकार किया हो; यह सात प्रकार के दास होते हैं। भार्या, पुत्र और दास इन तीनों को मनु ने निर्धन कहा है, यह जो कुछ धन पाते हैं, वह उसका है जिसके अधीन यह होते हैं। ब्राह्मण को अपने दास शूद्र से बिना विचार धन ले लेना चाहिए उसका कुछ नहीं है क्योंकि दास के धन का स्वामी, उसका स्वामी ही होता है ॥४१५-४१७॥

वैश्यशूद्र प्रयत्नेन स्वानि कर्माणि कारयेत् ।

तौ हि च्युतौ स्वकर्मभ्यः क्षोभयेतामिदं जगत् ॥ ॥४१८ ॥

अहन्यहन्यवेक्षेत कर्मान्तान् वाहनानि च ।

आयव्ययौ च नियतावाकरान् कोशमेव च ॥ ॥४१९ ॥

एवं सर्वानिमान् राजा व्यवहारान् समापयन् ।

व्यपोह्य किल्बिषं सर्वं प्राप्नोति परमां गतिम् ॥ ॥ ४२० ॥

राजा को यत्न पूर्वक वैश्य और शूद्र से उनके कर्मों को करवाना चाहिए क्योंकि कर्म से हटकर संसार को उपद्रवों से दुखी करेंगे। राजा को प्रतिदिन प्रारम्भ किये कार्यों का, सवारियों का, नियत आय-व्यय का, खान और धन भण्डार का अवलोकन करना चाहिए। इस प्रकार राजा इन सभी व्यवहारों का निर्णय करता हुआ सब पापों का नाश करके परम गति को प्राप्त करता है ॥४१८-४२०॥

॥ इति मानवे धर्मशास्त्रे भृगुप्रोक्तायां स्मृतौ अष्टमोऽध्यायः समाप्तः॥८॥

॥ महर्षि भृगु द्वारा प्रवचित मानव धर्म शास्त्र स्मृति का आठवां अध्याय समाप्त ॥

आगे जारी..........मनुस्मृति अध्याय 9 

Post a Comment

0 Comments