मनुस्मृति अध्याय ८
मनुस्मृति
अध्याय ८ के भाग-१ श्लोक १ से १७८ में व्यवहार निर्णय-विवाद आदि,
ऋण का
लेना-देना का वर्णन किया गया है।
मनुस्मृति आठवाँ अध्याय
Manu smriti chapter 8
मनुस्मृति अध्याय ८
॥ श्री हरि ॥
॥ मनुस्मृति ॥
मनुस्मृति अष्टमोऽध्यायः
॥अथ अष्टमोऽध्यायः
॥
मनुस्मृति
अध्याय ८ - व्यवहार-निर्णय- विवाद आदि
व्यवहारान्
दिदृक्षुस्तु ब्राह्मणैः सह पार्थिवः ।
मन्त्रज्ञैर्मन्त्रिभिश्चैव
विनीतः प्रविशेत् सभाम् ॥ ॥१॥
तत्रासीनः
स्थितो वाऽपि पाणिमुद्यम्य दक्षिणम् ।
विनीतवेषाभरणः
पश्येत् कार्याणि कार्यिणाम् ॥ ॥२॥
प्रत्यहं
देशदृष्टैश्च शास्त्रदृष्टैश्च हेतुभिः ।
अष्टादशसु
मार्गेषु निबद्धानि पृथक् पृथक् ॥ ॥३॥
तेषामाद्यं
ऋणादानं निक्षेपोऽस्वामिविक्रयः ।
संभूय च
समुत्थानं दत्तस्यानपकर्म च ॥ ॥४॥
वेतनस्यैव
चादानं संविदश्च व्यतिक्रमः ।
क्रयविक्रयानुशयो
विवादः स्वामिपालयोः ॥ ॥५॥
सीमाविवादधर्मश्च
पारुष्ये दण्डवाचिके ।
स्तेयं च
साहसं चैव स्त्रीसङ्ग्रहणमेव च ॥ ॥६॥
स्त्रीपुंधर्मो
विभागश्च द्यूतमाह्वय एव च ।
पदान्यष्टादशैतानि
व्यवहारस्थिताविह ॥ ॥७॥
राजा को
विद्वान् ब्राह्मण और राजनीति चतुर मन्त्रियों के साथ वादी और प्रतिवादियों के
विचारार्थ नम्रता से राजसभा में प्रवेश करना चाहिए। वहाँ जाकर,
दाहिना हाथ उठाकर, बैठ कर या खडे ही काम वालों के कार्यों को देखे । और वंश,
जाति आदि देशव्यवहार और शास्त्रोक्त साक्षी,
शपथ आदि के अनुसार अठारह प्रकार के विवाद-झगड़ों का अलग अलग
विचार- फैसला करे। उन अठारह विवादों के नाम इस प्रकार है । (१) ऋण लेकर न देना (२)
धरोहर (३) दूसरे की वस्तु को बेचना (४) साझे का व्यापार (५) दान दिया हुआ लौटा
लेना (६) नौकरी न देना (७) प्रतिज्ञा भंग करना (८) खरीद-बेच का झगड़ा (९) पशु
स्वामी और चरवाहे का झगड़ा (१०) सीमा की लड़ाई (११) बड़ी बात कहना (१२) मार पीट
(१३) चोरी (१४) अत्याचार (१५) पर स्त्री का हरण (१६) स्त्री और पुरुष के धर्म की
व्यवस्था (१७) जुआखोरी (१८) जानवरों की लड़ाई में हार जीत का दाँव करना है इस
संसार में ये १८ दावा होने के कारण हैं ॥१-७ ॥
एषु स्थानेषु
भूयिष्ठं विवादं चरतां नृणाम् ।
शाश्वतमाश्रित्य
कुर्यात् कार्यविनिर्णयम् ॥ ॥८॥
यदा स्वयं न
कुर्यात् तु नृपतिः कार्यदर्शनम् ।
तदा
नियुञ्ज्याद् विद्वांसं ब्राह्मणं कार्यदर्शने ॥ ॥९॥
सोऽस्य
कार्याणि सम्पश्येत् सभ्यैरेव त्रिभिर्वृतः ।
सभामेव
प्रविश्याग्र्यामासीनः स्थित एव वा ॥ ॥ १० ॥
यस्मिन् देशे
निषीदन्ति विप्रा वेदविदस्त्रयः ।
राज्ञश्चाधिकृतो
विद्वान् ब्रह्मणस्तां सभां विदुः ॥ ॥ ११ ॥
धर्मो
विद्धस्त्वधर्मेण सभां यत्रोपतिष्ठते ।
शल्यं चास्य न
कृन्तन्ति विद्धास्तत्र सभासदः ॥ ॥ १२ ॥
सभां वा न
प्रवेष्टव्यं वक्तव्यं वा समञ्जसम् ।
अब्रुवन्
विब्रुवन् वाऽपि नरो भवति किल्बिषी ॥ ॥ १३ ॥
यत्र धर्मो
ह्यधर्मेण सत्यं यत्रानृतेन च ।
हन्यते
प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः ॥ ॥ १४ ॥
इन विषयों में
झगड़ा करनेवालों का फ़ैसला राजा को सनातन धर्म के अनुसार करना चाहिए। जब स्वयं
किसी कारण वश काम न देख सके तो विद्वान् ब्राह्मण को सौंप दे। उस ब्राह्मण को तीन
सभासदों के साथ सभा में बैठकर या खड़े होकर ही राजा के खास कामों को देखना चाहिए।
जिस देश में वेदविशारद तीन ब्राह्मण राजसभा में निर्णयार्थ बैठते हैं और राजा का
अधिकार पाया हुआ एक विद्वान् ब्राह्मण रहता है वह ब्रह्मा की सभा मानी जाती है।
जिस सभा में धर्म, अधर्म से बींधा जाता है और उसे चुभे काँटे को सभासद
धर्मशरीर से बाहर नहीं निकालते तो वे सभासद् पाप भागी होते हैं। या तो सभा में
जाना नहीं चाहिए और यदि जाना हो तो केवल सत्यवचन कहना चाहिए। और जो जानकर भी कुछ न
कहे या झूठ कहे तो वह पातकी होता है, जिस सभा में अधर्म से धर्म और असत्य से सत्य की हत्या होती
उस सभा के सभासद् नष्ट हो जाते हैं ॥ ८-१४ ॥
धर्म एव हतो
हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्माद् धर्मो
न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ॥ ॥१५॥
वृषो हि
भगवान् धर्मस्तस्य यः कुरुते ह्यलम् ।
वृषलं तं
विदुर्देवास्तस्माद् धर्मं न लोपयेत् ॥ ॥ १६ ॥
एक एव सुहृद्
धर्मो निधानेऽप्यनुयाति यः ।
शरीरेण समं
नाशं सर्वमन्यद् हि गच्छति ॥ ॥ १७ ॥
धर्म का लोप
कर देने से वह उस पुरुष को नष्ट कर देता है और धर्म की रक्षा करने से वह भी रक्षा
करता है। इसलिए धर्म का नाश नहीं करना चाहिए जिसमें नष्ट धर्म हमारा नाश न करे ।
भगवान् धर्म को 'वृष' कहते हैं और जो उसका नाश करता है उस को देवता 'वृषल' कहते हैं। इस कारण मनुष्य को धर्म का लोप नहीं करना चाहिए।
मृत्युसमय में भी एकमात्र मित्र धर्म ही पीछे चलता है और सभी शरीर के साथ ही नाश
को प्राप्त हो जाता है ॥१५-१७ ॥
पादो ऽधर्मस्य
कर्तारं पादः साक्षिणं ऋच्छति ।
पादः सभासदः
सर्वान् पादो राजानमृच्छति ॥ ॥ १८ ॥
राजा
भवत्यनेनास्तु मुच्यन्ते च सभासदः ।
एनो गच्छति
कर्तारं निन्दाऽर्हो यत्र निन्द्यते ॥ ॥ १९ ॥
जातिमात्रोपजीवी
वा कामं स्याद् ब्राह्मणब्रुवः ।
धर्मप्रवक्ता
नृपतेर्न शूद्रः कथं चन ॥ ॥ २० ॥
यस्य
शूद्रस्तु कुरुते राज्ञो धर्मविवेचनम् ।
तस्य सीदति
तद् राष्ट्रं पङ्के गौरिव पश्यतः ॥ ॥२१॥
यद् राष्ट्रं
शूद्रभूयिष्ठं नास्तिकाक्रान्तमद्विजम् ।
विनश्यत्याशु
तत् कृत्स्नं दुर्भिक्षव्याधिपीडितम् ॥ ॥२२॥
एक धर्म ही
मित्र है जो मरने पर भी साथ चलता है अन्य सभी शरीर के साथ ही नाश को प्राप्त हो
जाता है। न्याय करते समय उसका एक चौथाई अधर्म अन्याय करने वाले को,
एक चौथाई झूठे गवाह को, एक चौथाई सभासद् और एक चौथाई राजा को अधर्म लगता है। जिस
सभा में अन्यायी पुरुष की ठीक ठीक निन्दा की जाती है,
वहां राजा और सभा सद् दोष से छूट जाते हैं। और उस अधर्मी को
ही पाप लगता है। जिसकी जातिमात्र से जीविका है कुछ विद्या,
योग्यता से नहीं चही चाहे न्यायकर्ता नियुक्त किया जाय,
पर शुद्र को कभी अधिकार न दे। जिस राजा का न्यायाधीश शूद्र
होता है। उसका राज्य कीचड़ में गौ की भांति फँसकर पीड़ा पाता है। जिस राज्य में
शूद्र और नास्तिक, अधिक हो, द्विज न हों वह सम्पूर्ण राज्य दुर्भिक्ष और व्याधि से पीड़ित
होकर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ॥१८-२२॥
धर्मासनमधिष्ठाय
संवीताङ्गः समाहितः ।
प्रणम्य
लोकपालेभ्यः कार्यदर्शनमारभेत् ॥ ॥ २३ ॥
अर्थानर्थावुभौ
बुद्ध्वा धर्माधर्मौ च केवलौ ।
वर्णक्रमेण
सर्वाणि पश्येत् कार्याणि कार्यिणाम् ॥ ॥२४॥
बाह्यैर्विभावयेत्लिङ्गैर्भावमन्तर्गतं
नृणाम् ।
स्वरवर्णैङ्गिताकारैश्चक्षुषा
चेष्टितेन च ॥ ॥ २५ ॥
आकारैरिङ्गितैर्गत्या
चेष्टया भाषितेन च ।
ने
वक्त्रविकारैश्च गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः ॥ ॥ २६ ॥
राजा न्यायासन
पर राजवस्त्र इत्यादि पहन कर बैठना चाहिए और आठ लोकपालों को प्रणाम करके सावधानी
से विचारकार्य का आरम्भ करना चाहिए। प्रजा की लाभ और हानि को,
धर्म और अधर्म को सोचकर वादियों के दावों को ब्राह्मणादि
वर्ण के क्रम से देखना शुरू करना चाहिए। मनुष्यों के बाहरी लक्षण,
स्वर, शरीर का वर्ण, नीचे ऊपर देखना, आकार रोमांच होना आदि, आँख, हाथ, पैर की चेष्टा वगैरह से भीतरी हाल पहचानना । आकार,
नीचे ऊपर देखना, गति, चेष्टा, बोली, आँख, मुँह के विकार से मन का भाव जाना जाता है ॥२३-२६॥
बालदायादिकं
रिक्थं तावद् राजाऽनुपालयेत् ।
यावत् स
स्यात् समावृत्तो यावत्वातीतशैशवः ॥ ॥ २७ ॥
वशाऽपुत्रासु
चैवं स्याद् रक्षणं निष्कुलासु च ।
पतिव्रतासु च
स्त्रीषु विधवास्वातुरासु च ॥ ॥२८॥
जीवन्तीनां तु
तासां ये तद् हरेयुः स्वबान्धवाः ।
तांशिष्यात्वौरदण्डेन
धार्मिकः पृथिवीपतिः ॥ ॥२९॥
प्रणष्टस्वामिकं
रिक्थं राजा त्र्यब्दं निधापयेत् ।
अर्वाक् त्र्यब्दाद्द्
हरेत् स्वामी परेण नृपतिर्हरेत् ॥ ॥३०॥
बालक के
दायेभाग का द्रव्य, तब तक राजा के अधीन में रहे जब तक वह समावर्तनवाला अर्थात्
पढ़ लिखकर चतुर न हो और बालिग़ न हो जाए। बन्ध्या स्त्री,
अपुत्रा, सपिण्डरहित, पतिव्रता, विधवा और बहुत दिन की रोगी स्त्री का भी धन राजा की रक्षा
में रहना चाहिए। इन जीती हुई स्त्रियों को भाई बन्धु हर लेना चाहें तो उनको चोर के
समान दण्ड देना चाहिए। जिसका स्वामी का ना पता हो उस लावारिस धन को राजा को तीन
साल तक रखना चाहिए उसके भीतर यदि उसका स्वामी आ जाय तो उसे ले जाए,
अन्यथा वह राजा का ही हो जाता है ॥२७-३०॥
मैदमिति यो
ब्रूयात् सोऽनुयोज्यो यथाविधि ।
संवाद्य
रूपसङ्ख्यादीन् स्वामी तद् द्रव्यमर्हति ॥ ॥३१॥
अवेदयानो
नष्टस्य देशं कालं च तत्त्वतः ।
वर्णं रूपं
प्रमाणं च तत्समं दण्डमर्हति ॥ ॥ ३२ ॥
आददीताथ
षड्भागं प्रनष्टाधिगतान्नृपः ।
दशमं द्वादशं
वाऽपि सतां धर्ममनुस्मरन् ॥ ॥३३॥
प्रणष्टाधिगतं
द्रव्यं तिष्ठेद् युक्तैरधिष्ठितम् ।
यांस्तत्र
चौरान् गृह्णीयात् तान् राजैभेन घातयेत् ॥ ॥३४॥
ममायमिति यो
ब्रूयान्निधिं सत्येन मानवः ।
तस्याददीत
षड्भागं राजा द्वादशमेव वा ॥ ॥ ३५॥
अनृतं तु वदन्
दण्ड्यः स्ववित्तस्यांशमष्टमम् ।
तस्यैव वा
निधानस्य सङ्ख्ययाऽल्पीयसीं कलाम् ॥ ॥३६॥
तीन वर्ष के
भीतर यदि उसका स्वामी आकर कहे कि यह मेरा धन है, तब राजा दावाकर्ता से ठीक प्रकार से पूछना चाहिए कि धन कैसा
है ?
कितना है? वह यदि रूप, रंग, संख्या सही-सही बता दे तो उसको वह धन दे देना चाहिए। अगर
खोई वस्तु का पता ठीक न बता सके तो उस पर उतने ही धन का जुर्माना करे। कोई खोई
वस्तु उसके स्वामी को वापस देते समय उसकी रक्षा के कारण उस धन का छठा दसवां या
बारहवां भाग राजा ले सकता है। किसी की कोई वस्तु खो जाए अथवा चोरी हो जाए और मिले
तो राजा को उसे पहरे में रखना चाहिए और वहां से चुरानेवाला पकड़ा जाए तो उसको हाथी
से मरवा देना चाहिए । जो पुरुष सच्चाई से कहे कि यह धन मेरा है तो उसके धन छठा
अथवा बारहवां भाग राजा को ग्रहण कर लेना चाहिए। यदि वह दूसरे का धन हथियाने की
इच्छा करे तो उस निधि का आठवां भाग अथवा निधि गिनकर उसका कुछ भाग दंड करना चाहिए
॥३१-३६॥
विद्वांस्तु
ब्राह्मणो दृष्ट्वा पूर्वोपनिहितं निधिम् ।
अशेषतोऽप्याददीत
सर्वस्याधिपतिर्हि सः ॥ ॥३७॥
यं तु
पश्येन्निधिं राजा पुराणं निहितं क्षितौ ।
तस्माद्
द्विजेभ्यो दत्त्वाऽर्धमर्धं कोशे प्रवेशयेत् ॥ ॥३८॥
यदि विद्वान्
ब्राह्मण को भूमि मे गडा प्राचीन धन मिले तो वह समस्त धन रख सकता है,
क्योंकि ब्राह्मण सबका स्वामी है और यदि भूमि पुराना राजा
को मिले तो उसका आधा वह द्विजों को बाँट दें और आधा अपने धन कोष में जमा करवा देना
चाहिए ॥ ३७-३८ ॥
निधीनां तु
पुराणानां धातूनामेव च क्षितौ ।
अर्धभाग्
रक्षणाद् राजा भूमेरधिपतिर्हि सः ॥ ॥३९॥
दातव्यं
सर्ववर्णेभ्यो राज्ञा चौरैर्हृतं धनम् ।
राजा
तदुपयुञ्जानश्चौरस्याप्नोति किल्बिषम् ॥ ॥ ४० ॥
जातिजानपदान्
धर्मान् श्रेणीधर्मांश्च धर्मवित् ।
समीक्ष्य
कुलधर्मांश्च स्वधर्मं प्रतिपादयेत् ॥ ॥४१॥
स्वानि
कर्माणि कुर्वाणा दूरे सन्तोऽपि मानवाः ।
प्रिया भवन्ति
लोकस्य स्वे स्वे कर्मण्यवस्थिताः ॥ ॥ ४२ ॥
नोत्पादयेत्
स्वयं कार्यं राजा नाप्यस्य पूरुषः ।
न च
प्रापितमन्येन ग्रसेदर्थं कथं चन ॥ ॥ ४३ ॥
भूमि का
स्वामी और रक्षक होने से राजा गड़े धन और धातु की खानों के आधे भाग का अधिकारी है।
चोरों का चुराया हुआ धन छीन कर जिस वर्ण का हो, वह सब उनको वापस दे देना चाहिए। यदि वह धन राजा स्वयं ग्रहण
करता है तो चोर के पाप का स्वयं भागी होता है। जातिधर्म,
देशधर्म, श्रेणीधर्म (व्यापार) और कुलधर्म के अनुसार राजा को राजधर्म
प्रचरित करना चाहिए। जाति, देश और कुलधर्म और अपने काम को करते लागे दूर रहते हुए भी
लोक में प्रिय होते हैं। राजा या राजपुरुष काम पर भी ऋण आदि का झगडा उत्पन्न नहीं
करना चाहिए और कोई अन्य विवाद प्रस्तुत करें तो उसकी अपेक्षा न करे ॥ ३९-४३ ॥
यथा
नयत्यसृक्पातैर्मृगस्य मृगयुः पदम् ।
नयेत्
तथाऽनुमानेन धर्मस्य नृपतिः पदम् ॥ ॥४४॥
सत्यमर्थं च
सम्पश्येदात्मानमथ साक्षिणः ।
देशं रूपं च
कालं च व्यवहारविधौ स्थितः ॥ ॥४५॥
सद्भिराचरितं
यत् स्याद् धार्मिकैश्च द्विजातिभिः ।
तद्
देशकुलजातीनामविरुद्धं प्रकल्पयेत् ॥ ॥४६॥
जैसे व्याल
भूमि पर गिरे रुधिर के बूंद से मारे हुए मृग का घर खोज लेता है। वैसे ही राजा को
अनुमान से मामलों की असलियत को खोज लेना चाहिए। सत्य का निर्णय करना चाहिए,
अन्याय से स्वयं डरना चाहिए और गवाहों के झूठ,
सत्य का एवं देश, काल और मामलों का विचार करना चाहिए। सज्जन पुरुष और धार्मिक
द्विज जैसा आचरण करते हों और देश, कुल, जाति के आचार से जो विरुद्ध न हो वैसा ही फैसला करना चाहिए
॥४४-४६ ॥
मनुस्मृति
अध्याय ८ - ऋण का लेना-देना
अधमर्णार्थसिद्ध्यर्थमुत्तमर्णेन
चोदितः ।
दापयेद्
धनिकस्यार्थमधमर्णाद् विभावितम् ॥ ॥४७॥
यैर्यैरुपायैरर्थं
स्वं प्राप्नुयादुत्तमर्णिकः ।
तैर्तैरुपायैः
सङ्गृह्य दापयेदधमर्णिकम् ॥ ॥४८॥
धर्मेण
व्यवहारेण छलेनाचरितेन च ।
प्रयुक्तं
साधयेदर्थं पञ्चमेन बलेन च ॥ ॥ ४९ ॥
यः स्वयं
साधयेदर्थमुत्तमर्णोऽधमर्णिकात् ।
न स
राज्ञाऽभियोक्तव्यः स्वकं संसाधयन् धनम् ॥ ॥५०॥
अर्थेऽपव्ययमानं
तु करणेन विभावितम् ।
दापयेद्
धनिकस्यार्थं दण्डलेशं च शक्तितः ॥ ॥५१॥
अधमर्ण-
कर्जदार से अपना क़र्जा वापस दिलाने के लिए उत्तमर्ण- महाजन कहे तो उसका धन राजा
को सबूत लेकर वापस दिला देना चाहिए। जिन उपायों से महाजन अपना धन वापस पा सके,
उन उपायों से दिलाने की कोशिश करनी चाहिए। महाजन धर्म से,
दावे से, कपट से, दबाव से और पाँचवें उचित बलात्कार से अपना धन वसूल कर सकता
है। यदि महाजन ऋणी से स्वयं अपना धन वसूल कर ले तो राजा को उस पर कोई अभियोग नहीं
चलाना चाहिए। धनी के धन को, क़र्जदार न क़बूल करे और महाजन साक्षी और लेख से साबित कर
दे तो राजा को उसका धन वापस दिलवाना चाहिए तथा ऋणी के ऊपर शक्ति के अनुसार दण्ड भी
करना चाहिए ॥४७-५१॥
अपह्नवेऽधमर्णस्य
देहीत्युक्तस्य संसदि ।
अभियोक्ता
दिशेद् देश्यं करणं वाऽन्यदुद्दिशेत् ॥ ॥ ५२ ॥
अदेश्यं यश्च
दिशति निर्दिश्यापह्नुते च यः ।
यश्चाधरोत्तरानर्थान्
विगीतान्नावबुध्यते ॥ ॥ ५३ ॥
अपदिश्यापदेश्यं
च पुनर्यस्त्वपधावति ।
सम्यक्
प्रणिहितं चार्थं पृष्टः सन्नाभिनन्दति ॥ ॥ ५४ ॥
राजसभा में ऋणी से कहा जाए -महाजन का क़र्जा अदा कर दो, यदि वह इन्कार कर दे तो राजा को साक्षी, दस्तावेज़ इत्यादि पेश करने की आज्ञा देनी चाहिए। जो झूठे गवाह अथवा काग़ज़ पत्र पेश करें, जो पेश करके इन्कार करे और जो पहले कही बातों का ध्यान न रक्खे। अथवा जो बात को उलटता है, स्वीकार करके भी पूछने पर इन्कार करता है॥५२-५४॥
असंभाष्ये साक्षिभिश्च
देशे संभाषते मिथः ।
निरुच्यमानं
प्रश्नं च नेच्छेद् यश्चापि निष्पतेत् ॥ ॥५५॥
ब्रूहीत्युक्तश्च
न ब्रूयादुक्तं च न विभावयेत् ।
न च पूर्वापरं
विद्यात् तस्मादर्थात् स हीयते ॥ ॥५६॥
साक्षिणः
सन्ति मेत्युक्त्वा दिशेत्युक्तो दिशेन्न यः ।
धर्मस्थः
कारणैरेतैर्हीनं तमपि निर्दिशेत् ॥ ॥५७॥
अभियोक्ता न
चेद् ब्रूयाद् बध्यो दण्ड्यश्च धर्मतः ।
न चेत्
त्रिपक्षात् प्रब्रूयाद् धर्मं प्रति पराजितः ॥ ॥ ५८ ॥
निवीतार्थं
मिथ्या यावति वा वदेत् ।
तौ नृपेण
ह्यधर्मज्ञा दाप्यौ तद्दविगुणं दमम् ॥ ॥५९॥
पृष्टोऽपव्ययमानस्तु
कृतावस्थो धनेषिणा ।
त्र्यवरैः
साक्षिभिर्भाव्यो नृपब्राह्मणसंनिधौ ॥६० ॥
और जो एकान्त
मे गवाहों के साथ बातचीत करता है, जानते हुए भी प्रश्न का उत्तर नहीं देता,
पूछने पर कुछ नहीं कहता और जो कहता है वह दृढ़ता से नहीं
कहता,
जो पहले की बातों को नहीं जानता,
ऐसे पुरुष अपने अर्थ धन से हार जाते हैं। मेरे साक्षी
हाज़िर हैं, ऐसा कह कर जो मांगने पर हाज़िर न कर सके, न्यायाधीश को उसको भी हारा घोषित कर देना चाहिए। वादी अपने
दावे को सिद्ध न कर सके तो वह धर्मानुसार शिक्षा और दण्ड दोनों का पात्र होता है
और जो प्रतिवादी डेढ़ महीने के अन्दर झूठे दावे से हुई हानि की नालिश न कर सके तो
वह भी हारा समझा जाता है। प्रतिवादी जितने धन के लिए झूठ बोले और वादी जितने धन का
झूठा दावा करे, राजा को उन दोनों अधर्मियों को उसका दुगना दण्ड करना चाहिए। अगर राजा और
ब्राह्मण के सामने पूछने पर ऋणी इन्कार कर दे तो तीन गवाह देकर ऋण सत्य करवाना
चाहिए ॥५५-६०॥
यादृशाधनिभिः
कार्या व्यवहारेषु साक्षिणः ।
तादृशान्
सम्प्रवक्ष्यामि यथा वाच्यं ऋतं च तैः ॥ ॥ ६१ ॥
गृहिणः
पुत्रिणो मौलाः क्षत्रविद् शूद्रयोनयः ।
अर्युक्ताः
साक्ष्यमर्हन्ति न ये के चिदनापदि ॥ ॥६२॥
अब महाजनों को
तथा अन्य मनुष्यों को कैसे गवाह देने चाहिए और गवाहों को कैसे सच्ची गवाही देनी
चाहिए,
यह सब कहा जाता है । कुंटुम्वी,
पुत्रवान, उसी देश का वासी, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये लोग जब वादी बुलावें तो गवाही दे सकते हैं,
हर कोई नहीं। जब तक किसी को आपत्ति न हो ॥६१-६२॥
आप्ताः
सर्वेषु वर्णेषु कार्याः कार्येषु साक्षिणः ।
सर्वधर्मविदोऽलुब्धा
विपरीतांस्तु वर्जयेत् ॥ ॥६३॥
नार्थ
संबन्धिनो नाप्ता न सहाया न वैरिणः ।
न दृष्टदोषाः
कर्तव्या न व्याध्यार्ता न दूषिताः ॥६४ ॥
न साक्षी
नृपतिः कार्यो न कारुककुशीलवौ ।
न श्रोत्रियो
न लिङ्गस्थो न सङ्गेभ्यो विनिर्गतः ॥ ॥६५॥
नाध्यधीनो न
वक्तव्यो न दस्युर्न विकर्मकृत् ।
न वृद्धो न
शिशुर्नैको नान्त्यो न विकलेन्द्रियः ॥ ॥६६॥
नार्तो न
मत्तो नोन्मत्तो न क्षुत्तृष्णोपपीडितः ।
न श्रमार्तो न
कामार्तो न क्रुद्धो नापि तस्करः ॥ ॥६७॥
सभी वर्णों
में जो यथार्थ कहनेवाले और धर्मज्ञ हों अर्थात लोभी न हों,
उनको साक्षी करना चाहिए, किसी दुसरे को नहीं । दावे मे न धन को,
न सगे सम्बन्धी को, न मित्र को, न शत्रु को, न झूठ शपथ करने वाले को, न रोगी को और न अपराधी को गवाह करना चाहिए। राजा को,
कारीगर को नट को, वेदपाठी को, संन्यासी और त्यागी को पराधीन को,
क्रूर को, अधर्मी को, वृद्ध को, बालक को, एक ही मनुष्य को, चाण्डाल को, लूला-लंगड़ा को भी गवाह न करें। रोगों से दुखी,
नशा करने वाला, उन्मत्त, भूख-प्यास से दुखी, थका, काम पीड़ित, क्रोधी और चोर, यह भी साक्षी बनने योग्य नहीं हैं ॥६३-६७ ॥
स्त्रीणां
साक्ष्यं स्त्रियः कुर्युर्द्विजानां सदृशा द्विजाः ।
शूद्राश्च
सन्तः शूद्राणां अन्त्यानामन्त्ययोनयः ॥ ॥ ६८ ॥
अनुभावी तु यः
कश्चित् कुर्यात् साक्ष्यं विवादिनाम् ।
अन्तर्वेश्मन्यरण्ये
वा शरीरस्यापि चात्यये ॥ ॥ ६९ ॥
स्त्रियाऽप्यसंभावे
कार्यं बालेन स्थविरेण वा ।
शिष्येण
बन्धुना वाऽपि दासेन भृतकेन वा ॥ ॥ ७० ॥
स्त्रियों की
गवाही स्त्रियां, द्विजों की गवाही समान वर्ण के द्विज,
शद्रों की गवाही शूद्र और अन्त्य आदि की गवाही अन्त्य को
देनी चाहिए। घर के भीतर, वन में और शरीर के अंत (वध) में,
कोई भी जानने वाला पुरुष गवाह हो सकता है। कोई योग्य गवाह न
मिले तो स्त्री, बालक,
वृद्ध, शिष्य, सम्बन्धी, दास और नौकर चाकर भी गवाह हो सकते हैं ॥ ६८-७० ॥
बालवृद्धातुराणां
च साक्ष्येषु वदतां मृषा ।
जानीयादस्थिरां
वाचमुत्सिक्तमनसां तथा ॥ ॥ ७१ ॥
साहसेषु च
सर्वेषु स्तेयसङ्ग्रहणेषु च ।
वाग्दण्डयोश्च
पारुष्ये न परीक्षेत साक्षिणः ॥ ॥ ७२ ॥
बहुत्वं
परिगृह्णीयात् साक्षिद्वैधे नराधिपः ।
समेषु तु
गुणोत्कृष्टान् गुणिद्वैधे द्विजोत्तमान् ॥ ॥७३॥
समक्षदर्शनात्
साक्ष्यं श्रवणाच्चैव सिध्यति ।
तत्र सत्यं ब्रुवन्
साक्षी धर्मार्थाभ्यां न हीयते ॥ ॥७४॥
साक्षी
दृष्टश्रुतादन्यद् विब्रुवन्नार्यसंसदि ।
अवाङ्नरकमभ्येति
प्रेत्य स्वर्गाच्च हीयते ॥ ॥७५॥
यत्रानिबद्धोऽपीक्षेत
शृणुयाद् वाऽपि किं चन ।
पृष्टस्तत्रापि
तद् ब्रूयाद् यथादृष्टं यथाश्रुतम् ॥ ॥७६॥
एकोऽलुब्धस्तु
साक्षी स्याद् बह्व्यः शुच्योऽपि न स्त्रियः ।
स्त्रीबुद्धेरस्थिरत्वात्
तु दोषैश्चान्येऽपि ये वृताः ॥ ॥७७॥
स्वभावेनैव
यद् ब्रूयुस्तद् ग्राह्यं व्यावहारिकम् ।
अतो यदन्यद्
विब्रूयुर्धर्मार्थं तदपार्थकम् ॥ ॥७८॥
बालक,
बूढ़े और रोगियों के झूठ बोलने की सम्भावना रहती है,
इसलिए उनके कहने पर भरोसा नहीं करना चाहिए और चंचल चित्त
मनुष्य को भी विश्वासी नहीं मानना चाहिए। संपूर्ण साहस के काम खून,
डाका, आग लगा देना और चोरी, व्यभिचार, गाली और मारपीट में साक्षियों की अधिक परीक्षा- जांच न करे।
दोनों तरफ़ के गवाहों में यदि एक दूसरे के विपरीत कहे तो जिसको अधिक लोग कहें वहीं
बात मानी जानी चाहिए। और जहां दोनों विपरीत कहनेवाले समान हो वहां जिधर के गवाह
गुणवान् हों उधर की बात सही माने और दोनों ही तरफ़ गुणी हों तो धर्मात्मा द्विजों
की गवाही को प्रमाण समझना चाहिए। जिसने आँखों से देखा हो या,
जिसने स्वयं कानों से सुना हो,
उसकी गवाही प्रमाणित मानी जाती है। उसमें सच बोलने वाला
साक्षी धर्म, अर्थ से नहीं हारता । जो पुरुष आर्य की सभा में देखे सुने के विरुद्ध गवाही
देता है,
वह उलटे सिर नरक में पड़ता है और मरकर स्वर्ग से हीन हो
जाता है। जिस मामले गवाह न भी हों तो भी पूछने पर जैसा देखा,
सुना हो वहीं बयान करना चाहिए। लोभ रहित एक भी पुरुष गवाह
पर्याप्त होता है, पर बहुत सी पवित्र स्त्रियां भी गवाह नहीं हो सकतीं क्योंकि
स्त्री की बुद्धि स्थिर नहीं होती। निर्णय के समय, गवाह स्वाभाविक रीति से जो कुछ कहे,
उसको प्रमाण माने। और भय - लोभ आदि से जो विरुद्ध बात कहें,
वह बिलकुल व्यर्थ है ॥७१-७८॥
सभान्तः
साक्षिणः प्राप्तानर्थिप्रत्यर्थिसंनिधौ ।
प्राड्
विवाकोऽनुयुञ्जीत विधिनाऽनेन सान्त्वयन् ॥ ॥७९॥
यद्
द्वयोरनयोर्वेत्थ कार्येऽस्मिंश्चेष्टितं मिथः ।
तद् ब्रूत
सर्वं सत्येन युष्माकं ह्यत्र साक्षिता ॥ ॥८०॥
सत्यं
साक्ष्ये ब्रुवन् साक्षी लोकान् आप्नोत्यपुष्कलान् ।
इह चानुत्तमां
कीर्तिं वागेषा ब्रह्मपूजिता ॥ ॥ ८१ ॥
साक्ष्येऽनृतं
वदन् पाशैर्बध्यते वारुणैर्भृशम् ।
विवशः
शतमाजातीस्तस्मात् साक्ष्यं वदेद् ऋतम् ॥ ॥८२॥
सत्येन पूयते
साक्षी धर्मः सत्येन वर्धते ।
तस्मात् सत्यं
हि वक्तव्यं सर्ववर्णेषु साक्षिभिः ॥ ॥८३॥
आत्मैव
ह्यात्मनः साक्षी गतिरात्मा तथाऽत्मनः ।
माऽवमंस्थाः
स्वमात्मानं नृणां साक्षिणमुत्तमम् ॥ ॥ ८४ ॥
सभा में गवाह
आ ज्ञाने पर न्यायकर्ता वादी, प्रतिवादी के सामने इस प्रकार कार्यारम्भ करे - इस मामले
में आपस में जो कुछ हुआ है, वह जो तुम जानते हो सत्य कहो क्योंकि इसमें तुम्हारी गवाही
है। गवाह गवाही में सत्य बोलकर, उत्तम गति को पाता है और यहाँ कीर्ति पाता है,
सत्यवाणी की वेद में प्रशंसा की है। गवाही में झूठ बोलने
वाला सौ जन्मतक वरुण के पाशों से बाँधा जाता है। इसलिए साक्षी को सत्य बोलना
चाहिए। साक्षी सत्य से पवित्र होता है। सत्य से धर्मं बढ़ता है,
इस कारण सभी जाति के गवाहों को सदा सत्य बोलना चाहिए। अपना
आत्मा ही अपना साक्षी है, आत्मा ही अपने को सद्गति देता है। इसलिए मनुष्यों के उत्तम
साक्षी अपनी आत्मा का झूठ साक्षी से अपमान नहीं करना चाहिए ॥७६-८४॥
मन्यन्ते वै
पापकृतो न कश्चित् पश्यतीति नः ।
तांस्तु देवाः
प्रपश्यन्ति स्वस्यैवान्तरपूरुषः ॥ ॥८५॥
भूमिरापो
हृदयं चन्द्रार्काग्नियमानिलाः ।
रात्रिः
संध्ये च धर्मश्च वृत्तज्ञाः सर्वदेहिनाम् ॥ ॥८६॥
पापी लोग
समझते हैं कि- पाप करते हुए हमको कोई देखता नहीं, परन्तु उनको देवता और उनका अपना अन्तरात्मा देखता है। आकाश,
पृथ्वी, जल, हृदय, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, रात्रि, सन्ध्या और धर्म इन सभी के अधिष्ठात्री देवता सभी प्राणियों
के भले बुरे आचरणों को देखते हैं । ॥८५-८६॥
देवब्राह्मणसांनिध्ये
साक्ष्यं पृच्छेद् ऋतं द्विजान् ।
उदङ्मुखान्
प्राङ्मुखान् वा पूर्वाह्णे वै शुचिः शुचीन् ॥ ॥ ८७ ॥
' ब्रूहीति ब्राह्मणं पृच्छेत् सत्यं ब्रूहीति पार्थिवम् ।
गोबीजकाञ्चनैर्वैश्यं
शूद्रं सर्वैस्तु पातकैः ॥ ॥८८॥
ब्रह्मघ्न ये
स्मृता लोका ये च स्त्रीबालघातिनः ।
मित्रद्रुहः
कृतघ्नस्य ते ते स्युर्बुवतो मृषा ॥ ॥८९॥
जन्मप्रभृति
यत् किं चित् पुण्यं भद्र त्वया कृतम् ।
तत् ते सर्वं
शुनो गच्छेद् यदि ब्रूयास्त्वमन्यथा ॥ ॥९०॥
एकोऽहमस्मीत्यात्मानं
यस्त्वं कल्याण मन्यसे ।
नित्यं
स्थितस्ते हृद्येष पुण्यपापेक्षिता मुनिः ॥ ॥९१॥
यमो वैवस्वतो
देवो यस्तवैष हृदि स्थितः ।
तेन
चेदविवादस्ते मा गङ्गां मा कुरून् गमः ॥ ॥९२॥
नग्नो मुण्डः
कपालेन च भिक्षार्थी क्षुत्पिपासितः ।
अन्धः शत्रुकुलं
गच्छेद् यः साक्ष्यमनृतं वदेत् ॥ ॥९३॥
अवाक्षिरास्तमस्यन्धे
किल्बिषी नरकं व्रजेत् ।
यः प्रश्नं
वितथं ब्रूयात् पृष्टः सन् धर्मनिश्चये ॥ ॥९४॥
न्यायाधीश
स्नानादि से पवित्र होकर, देवता और ब्राह्मण के समीप में पवित्र द्विजातियों को पूर्व
या उत्तरमुख कराकर प्रातः काल सच सच वृत्तान्त पूंछे । ब्राह्मण से कहो'
ऐसा पूछे, क्षत्रिय से 'सच बोलो' इस प्रकार पूछना चाहिए। और 'गौ, बीज, सोना चुराने का पातक तुमको होगा '
ऐसा कहकर वैश्यों से पूछे। 'सब पाप तुमको लगेगा' यो कहकर शूद्र से साक्षी लेना चाहिए। ब्राह्मण,
स्त्री, बालक को मारनेवाले को और मित्रद्रोही,
कृताघन को जो जो लोक मिलते हैं वही लोक झूठ बोलनेवाले को
मिलते हैं। हे भद्र पुरुष ! जन्म से लेकर तूने जो पुण्य अभी तक किए हैं,
वह सब झूठी गवाही देगा तो, कुत्ते को पहुँचेगा। हे भद्र! तू यह जो मानता है कि,
मैं अकेला जीवात्मा समान । क्योंकि पुण्य,
पाप को देखनेवाला अन्तर्यामी नित्य हृदय में ही स्थित है।
यमरूप वैवस्वत देव हृदय में स्थित हैं, उसमें विश्वास रखने से गंगा जी और कुरुक्षेत्र जाने की
ज़रूरत नहीं है। जो झूठी गवाही देता हैं - उसको नग्न,
सिर मुंडाकर, भूखा प्यासा और अंधा होकर, हाथ में ठीकरा लेकर शत्रु के घर भीख मांगने जाना पड़ता है।
जो झूठ साक्षी पूछने पर देता है, वह पापी नीचे सिर होकर, अँधरे नरक में पड़ता है ॥८७-९४॥
अन्धो
मत्स्यानिवाश्नाति स नरः कण्टकैः सह ।
यो
भाषतेऽर्थवैकल्यमप्रत्यक्षं सभां गतः ॥ ॥९५॥
यस्य विद्वान्
हि वदतः क्षेत्रज्ञो नाभिशङ्कते ।
तस्मान्न
देवाः श्रेयांसं लोकेऽन्यं पुरुषं विदुः ॥ ॥९६॥
यावतो
बान्धवान् यस्मिन् हन्ति साक्ष्येऽनृतं वदन् ।
तावतः
सङ्ख्यया तस्मिन् शृणु सौम्यानुपूर्वशः ॥ ॥ ९७ ॥
पञ्च पश्वनृते
हन्ति दश हन्ति गवानृते ।
शतमश्वानृते
हन्ति सहस्रं पुरुषानृते ॥ ॥९८ ॥
हन्ति
जातानजातांश्च हिरण्यार्थेऽनृतं वदन् ।
सर्वं भूमि
अनृते हन्ति मा स्म भूमिअनृतं वदीः ॥ ॥ ९९ ॥
अप्सु
भूमिवादित्याः स्त्रीणां भोगे च मैथुने।
अब्जेषु चैव
रत्नेषु सर्वेष्वश्ममयेषु च ॥ ॥१००॥
जो सभा में
बिना देखी बात झूठी बनाकर बोलता है वह अंधा होकर कांटो सहित मछली खाता है। साक्षी
के समय जिसकी जीवात्मा असत्य की शंका नहीं करता, उससे अच्छा देवगण दूसरे को नहीं मानते। हे सौम्य,
जिस साक्षी में झूठ बोलनेवाला जितने बान्धवों के मारने का
फल पाता है वह इस प्रकार है - पशु के बारे में झूठ बोलने से पांच बान्धव की हत्या
का पातक पाता है। गौ के विषय में दस, घोड़े के सौ और पुरुष के लिए हज़ार की हत्या का पातक लगता
है। सुवर्ण के लिए झूठ बोलने से पैदा हुए या होनेवालों की हत्या के फल को पाता है
और भूमि के लिए असत्य कहने से संपूर्ण प्राणियों के वध का फल पाता है। इसलिए भूमि
के बारे में कभी झूठी साक्षी नहीं देनी चाहिए। सरोवर के जल,
स्त्रीसंभोग, जल से पैदा मोती और नीलम अदि रत्नों के लिए झूठी गवाही देने
से भूमि के सामान दोष होता है ॥९५-१००॥
एतान्
दोषानवेक्ष्य त्वं सर्वाननृतभाषणे ।
यथाश्रुतं
यथादृष्टं सर्वमेवाञ्जसा वद ॥ ॥ १०१ ॥
गोरक्षकान्
वाणिजिकांस्तथा कारुकुशीलवान् ।
प्रेष्यान्
वार्धुषिकांश्चैव विप्रान् शूद्रवदाचरेत् ॥ ॥ १०२ ॥
इन सभी झूठ
बोलने वाले पातकों को समझकर, जैसा देखा अथवा सुना है वही ठीक ठीक कहो । गोपालक,
बनिया, बढ़ई, लोहार, गाने बजाने का काम करनेवाले, नौकरी पेशा और ब्याजखोर ब्राह्मणों से गवाही लेते समय शुद्र
के समान प्रश्न करना चाहिए। ॥१०१-१०२॥
तद् वदन्
धर्मतोऽर्थेषु जानन्नप्यन्य्था नरः ।
न
स्वर्गाच्च्यवते लोकाद् देवीं वाचं वदन्ति ताम् ॥ ॥ १०३ ॥
शूद्रविड्
क्षत्रविप्राणां यत्रऋतोक्तौ भवेद् वधः ।
तत्र
वक्तव्यमनृतं तद् हि सत्याद् विशिष्यते ॥ ॥ १०४
वाग्दैवत्यैश्च
चरुभिर्यजेरंस्ते सरस्वतीम् ।
अनृतस्यैनसस्तस्य
कुर्वाणा निष्कृतिं पराम् ॥ ॥ १०५ ॥
कूष्माण्डैर्वाऽपि
जुहुयाद् घृतमग्नौ यथाविधि ।
उदित्य ऋचा वा
वारुण्या तृचेनाब्दैवतेन वा ॥ ॥१०६॥
त्रिपक्षादब्रुवन्
साक्ष्यं ऋणादिषु नरोऽगदः ।
तदृणं
प्राप्नुयात् सर्वं दशबन्धं च सर्वतः ॥ ॥१०७॥
यस्य दृश्येत
सप्ताहादुक्तवाक्यस्य साक्षिणः ।
ऋणं दाप्यो
दमं च सः ॥ ॥ १०८ ॥
असाक्षिकेषु
त्वर्थेषु मिथो विवदमानयोः।
अविन्दंस्तत्त्वतः
सत्यं शपथेनापि लम्भयेत् ॥ ॥ १०९ ॥
महर्षिभिश्च
देवैश्च कार्यार्थं शपथाः कृताः ।
वसिष्ठश्चापि
शपथं शेपे पैजवने नृपे ॥ ॥ ११० ॥
मनुष्य जानता
हुआ भी धर्मवश झूठ बोले तो वह स्वर्गलोक से पतित नहीं होता क्योंकि उस असत्य को
देववाणी कहते हैं। जिस मामले में शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मणों के प्राण जाते हों वहां साक्षी झूठ
बोल सकता है- क्योंकि झूठ भी सत्य से श्रेष्ठ है। झूठे गवाहों को उस पाप से
छुटकारा पाने के लिए वाणी देवता के लिए चरु बनाकर सरस्वती देवी का पूजन करना
चाहिए। अथवा कूष्माण्ड मन्त्रों (यजुर्वेद २० । १४ ) से हवन करे। या वरुण देवता के
(यजुर्वेद १२ । १२) मन्त्र से अथवा जल देवता के मन्त्र (यजुर्वेद ११ । ५०) से हवन
करे। ऋण की विषय में साक्षी निरोग होने पर, डेढ़ महीने तक न आये तो महाजन को अपना सब ऋण वापस मिलना
चाहिए और धन का दशांश गवाह पर दण्ड करना चाहिए। गवाह को सात दिन के अन्दर रोग,
अग्नि, स्त्री पुत्रादि के मृत्यु हो जाय तो उसको दण्ड नहीं करना
चाहिए। जिन वादी और प्रतिवादियों के गवाह न हों, उनका ठीक वृतांत ज्ञात न हो सके तो शपथ से भी निर्णय कर
लेना चाहिए। महर्षि और देवताओं ने भी शपथ की थी । विश्वामित्र ने वशिष्ठ पर हत्या
का आरोप लगाया था तब उन्होंने रांजा पैजवन के समीप शपथ ली थी ॥१०३-११०॥
न वृथा शपथं
कुर्यात् स्वल्पेऽप्यर्थे नरो बुधः ।
वृथा हि शपथं
कुर्वन् प्रेत्य चेह च नश्यति ॥ ॥ १११ ॥
कामिनीषु
विवाहेषु गवां भक्ष्ये तथेन्धने ।
ब्राह्मणाभ्युपपत्तौ
च शपथे नास्ति पातकम् ॥ ॥ ११२ ॥
सत्येन
शापयेद् विप्रं क्षत्रियं वाहनायुधैः ।
शूद्रं
सर्वैस्तु पातकैः ॥ ॥ ११३ ॥
अग्निं
वाऽहारयेदेनमप्सु चैनं निमज्जयेत् ।
पुत्रदारस्य
वाप्येनं शिरांसि स्पर्शयेत् पृथक् ॥ ॥ ११४॥
यमिद्धो न
दहत्यग्निरापो नोन्मज्जयन्ति च ।
न चार्तिं
ऋच्छति क्षिप्रं स ज्ञेयः शपथे शुचिः ॥ ॥ ११५ ॥
बुद्धिमान्
पुरुष को छोटी सी बात के लिए शपथ नहीं लेनी चाहिए। वृथा शपथ से लोक-परलोक दोनों
बिगड़ते हैं। स्त्रियों में, विवाह में, गौवों के कुछ नुक़सान करने में यज्ञार्थ काष्ठसंग्रह में और
ब्राह्मण की आपत्ति में झूठा शपथ करने से पाप नहीं लगता । ब्राह्मण सत्य की शपथ
दिलाएं,
क्षत्रिय को सवारी और शस्त्र की शपथ दिलाएं,
वैश्य को गौ, अन्न और सुवर्ण की और शूद्र को सब पातक लगने की शपथ दिलाएं।
अथवा अग्नि को साक्षी मान कर शपथ दिलाएं, जल में गोता लगवायें और उसके पुत्र या स्त्री के ऊपर हाथ रख
कर शपथ दिलाएं। जिसको अग्नि जलाये, जल में न डूबे और अचानक सिर पर आपत्ति न पड़ जाए उसको शपथ
में पवित्र जानना चाहिए ॥१११-११५॥
वत्सस्य
ह्यभिशस्तस्य पुरा भ्रात्रा यवीयसा ।
नाग्निर्ददाह
रोमापि सत्येन जगतः स्पशः ॥ ॥ ११६ ॥
यस्मिन्
यस्मिन् विवादे तु कौटसाक्ष्यं कृतं भवेत् ।
तत् तत्
कार्यं निवर्तेत कृतं चाप्यकृतं भवेत् ॥ ॥११७॥
लोभान्मोहाद्
भयात्मैत्रात् कामात् क्रोधात् तथैव च ।
अज्ञानाद्
बालभावात्व साक्ष्यं वितथमुच्यते ॥ ॥ ११८ ॥
पूर्व काल में
वत्सऋषि के ऊपर उनके छोटे भाई ने कलंक लगाया था कि तू शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न
हुआ है। तब वत्सऋषि ने अग्नि में प्रवेश किया था, पर सत्यवश अग्नि ने उनका एक रोम भी नहीं जलाया । जिन जिन
मुक़द्दमों में झूठी गवाही दी गयी है, ऐसा निश्चित हो उनको फिर से उलट कर परीक्षा करनी चाहिए। लोभ,
मोह, भय, मित्रता, काम, क्रोध, अज्ञान और लड़कपन से गवाही झूठी कही जाती है ॥११६-११८॥
एषामन्यतमे
स्थाने यः साक्ष्यमनृतं वदेत् ।
तस्य
दण्डविशेषांस्तु प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः ॥ ११९ ॥
लोभात् सहस्रं
दण्ड्यस्तु मोहात् पूर्वं तु साहसम् ।
भयाद् द्वौ
मध्यमौ दण्डौ मैत्रात् पूर्वं चतुर्गुणम् ॥ ॥१२०॥
कामाद्दशगुणं
पूर्वं क्रोधात् तु त्रिगुणं परम् ।
अज्ञानाद्
द्वे शते पूर्णे बालिश्यात्शतमेव तु ॥ ॥ १२१ ॥
एतानाहुः
कौटसाक्ष्ये प्रोक्तान् दण्डान् मनीषिभिः ।
धर्मस्याव्यभिचारार्थमधर्मनियमाय
च ॥ ॥ १२२ ॥
कौटसाक्ष्यं
तु कुर्वाणांस्त्रीन् वर्णान् धार्मिको नृपः ।
प्रवासयेद्
दण्डयित्वा ब्राह्मणं तु विवासयेत् ॥ ॥ १२३ ॥
दश स्थानानि
दण्डस्य मनुः स्वयंभुवोऽब्रवीत् ।
त्रिषु
वर्णेषु यानि स्युरक्षतो ब्राह्मणो व्रजेत् ॥ ॥ १२४ ॥
इनमें किसी एक
कारण से जो झूठी गवाही दे उसके, दण्ड का निर्धार क्रम से इस प्रकार है: लोभ से झूठी गवाही
देने पर हज़ार पण दण्ड, मोह से कहनेवाले पर प्रथम साहस अर्थात् २५० पण,
भय से गवाही देने वाले पर मध्यम साहस का दुगना और मित्रता
के कारण से प्रथम साहस का चौगुना अर्थात १००० पण दण्ड देना चाहिए। काम से झूठी
गवाही देने वाले पर प्रथम साहस का दस गुना (२५०० पण),
क्रोध से तिगुना मध्यम साहस, अज्ञान से पूरे २०० पण और मूर्खता से झूठ कहने पर १०० पण
दण्ड करना चाहिए। सत्य, धर्म की रक्षा और अधर्म को रोकने के लिए ऋषियों ने इन
दण्डों को कहा है। धार्मिक राजा झूठी गवाही देने वालों तीनों वर्णों को अपराध के
अनुसार दण्ड देकर देश से निकाल दे और ब्राह्मण को दण्ड न देकर देश निकाला ही करे।
स्वायम्भूमनु ने दण्ड देने जो दस स्थान आगे कहे हैं वह क्षत्रिय आदि अन्य वर्णों
के लिए हैं, ब्राह्मण को केवल देश निकाला देने का ही दण्ड है ॥११६-१२४॥
उपस्थमुदरं
जिह्वा हस्तौ पादौ च पञ्चमम् ।
चक्षुर्नासा च
कर्णौ च धनं देहस्तथैव च ॥ ॥ १२५ ॥
अनुबन्धं
परिज्ञाय देशकालौ च तत्त्वतः ।
सारापराधो
चालोक्य दण्डं दण्ड्येषु पातयेत् ॥ ॥ १२६ ॥
लिङ्ग,
पेट, जीभ, हाथ, पैर, आँख, नाक, कान, धन और शरीर ये दस दण्ड देने के स्थान हैं। अपराध और दण्ड
सहने की शक्ति और देश, काल का विचार करके अपराधियों को दण्ड देना चाहिए ॥१२५-१२६॥
अधर्मदण्डनं
लोके यशोघ्नं कीर्तिनाशनम् ।
अस्वर्ग्यं च
परत्रापि तस्मात् तत् परिवर्जयेत् ॥ ॥ १२७ ॥
अदण्ड्यान्
दण्डयन् राजा दण्ड्यांश्चैवाप्यदण्डयन् ।
अयशो
महदाप्नोति नरकं चैव गच्छति ॥ ॥ १२८ ॥
वाग्दण्डं
प्रथमं कुर्याद् धिग्दण्डं तदनन्तरम् ।
तृतीयं
धनदण्डं तु वधदण्डमतः परम् ॥ ॥ १२९ ॥
वधेनापि यदा
त्वेतान्निग्रहीतुं न शक्नुयात् ।
तदेषु
सर्वमप्येतत् प्रयुञ्जीत चतुष्टयम् ॥ ॥१३०॥
धर्म से दण्ड
देना,
इस लोक में यश और कीर्ति का नाशक है और परलोक में स्वर्ग
प्राप्ति का बाधक है, इसलिए अधर्म से दण्ड नहीं देना चाहिए। निरपराधियों को दण्ड
और अपराधियों को दण्ड़ न देने से राजा की बड़ी अकीर्ति होती है । अयश मिलता है और
वह नरक में गिरता है। प्रथम अपराध में वाग्दण्ड- डांट कर समझा दे और यदि दोबारा
अपराध करे तो धिक्कार दण्ड देना चाहिए। तीसरी बार अपराध करने पर वन दण्ड
(जुर्माना) करना चाहिए और यदि चौथी बार अपराध करे तो देहदंड देना चाहिए। यदि
देहदंड से भी अपराधी वश में न आये तो इन चारों दण्डों का प्रयोग करना चाहिए ॥१२७-१३०॥
लोकसंव्यवहारार्थं
याः संज्ञाः प्रथिता भुवि ।
ताम्ररूप्यसुवर्णानां
ताः प्रवक्ष्याम्यशेषतः ॥ ॥ १३१ ॥
जालान्तरगते
भानौ यत् सूक्ष्मं दृश्यते रजः ।
प्रथमं तत्
प्रमाणानां त्रसरेणुं प्रचक्षते ॥ ॥१३२॥
लोक में
व्यवहार के लिये सोना, चांदी' आदि की जो संज्ञा माप-तौल प्रसिद्ध है वह यहां कही जाती
है:- मकान के झरोखे से, आनेवाली सूर्य किरणों में जो छोटे छोटे धूल के कण,
दिखलाई देते हैं वह प्रथम मान है उसको त्रसरेणु कहते हैं
॥१३१-१३२॥
त्रसरेणवोऽष्टौ
विज्ञेया लिक्षैका परिमाणतः ।
ता
राजसर्षपस्तिस्रस्ते त्रयो गौरसर्षपः ॥ ॥ १३३ ॥
सर्षपाः षड्
यवो मध्यस्त्रियवं त्वेककृष्णलम् ।
पञ्चकृष्णलको
माषस्ते सुवर्णस्तु षोडश ॥ ॥ १३४ ॥
पलं
सुवर्णाश्चत्वारः पलानि धरणं दश ।
कृष्णले
समधृते विज्ञेयो रौप्यमाषकः ॥ ॥ १३५ ॥
ते षोडश
स्याद् धरणं पुराणश्चैव राजतः ।
कार्षापणस्तु
विज्ञेयस्ताम्रिकः कार्षिकः पणः ॥ ॥ १३६ ॥
धरणानि दश
ज्ञेयः शतमानस्तु राजतः ।
चतुः
सौवर्णिको निष्को विज्ञेयस्तु प्रमाणतः ॥ ॥ १३७ ॥
पणानां द्वे
शते सार्धे प्रथमः साहसः स्मृतः ।
मध्यमः पञ्च
विज्ञेयः सहस्रं त्वेव चोत्तमः ॥ ॥ १३८ ॥
८ त्रसरेणु =
१ लिक्षा । ३ लिक्षा = १ राई ।
३ राई = १
सफ़ेद सरसों । ६ सरसों = १ मध्यम यव ।
३ मध्यम यव =
१ कृष्णल । ५ कृष्णल = १ माष ।
१६ माष = १
सुवर्ण । ४ सुवर्ण = १ पल ।
१० पल = १ धरण
। ३ कृपल = १ चांदी का माषा ।
१६ चांदी भाषा
= १ रौप्य धरण, अथवा चांदी का पुराण ।
१० धरण = १
चांदी का शतमान ।
४ सुवर्ण = १
निष्क।
२५० पण =
प्रथम साहस । (साधारण दण्ड)
५०० पण =
मध्यम साहस ।
१००० पण =
उत्तम साहस ॥१३३-१३८॥
ऋणे देये
प्रतिज्ञाते पञ्चकं शतमर्हति ।
अपह्नवे तद्
द्विगुणं तन् मनोरनुशासनम् ॥ ॥१३९॥
वसिष्ठविहितां
वृद्धिं सृजेद् वित्तविवर्धिनीम् ।
अशीतिभागं गृह्णीयान्
मासाद् वार्धुषिकः शते ॥ ॥ १४० ॥
द्विकं शतं वा
गृह्णीयात् सतां धर्ममनुस्मरन् ।
द्विकं शतं हि
गृह्णानो न भवत्यर्थकिल्बिषी ॥ ॥ १४१ ॥
द्विकं त्रिकं
चतुष्कं च पञ्चकं च शतं समम् ।
मासस्य
वृद्धिं गृह्णीयाद् वर्णानामनुपूर्वशः ॥ ॥१४२॥
यदि ऋणी सभा
में महाजन का रुपया देना स्वीकार कर ले तो ५% दण्ड देने योग्य हैं। और इन्कार करे
परन्तु सभा में प्रमाणित हो जाए तो १०% दण्ड देने योग्य है,
ऐसी मनु की आज्ञा है । वशिष्ठ नियमानुसार वृद्धि (ब्याज)
१०० का अस्सीवाँ भाग - १.२५ प्रतिशत होना चाहिए । अथवा सात्पुरुषों के धर्म का
स्मरण कर २% ब्याज लेना चाहिए । २% तक ब्याज लेने से दोष नहीं होता । ब्राह्मण आदि
चारों वर्णों में क्रम से दो, तीन, चार और पांच % माहवारी व्याज ग्रहण करे ।।१३६-१४२॥
न त्वेवाधी
सोपकारे कौसीदीं वृद्धिमाप्नुयात् ।
न चाधेः
कालसंरोधात्निसर्गोऽस्ति न विक्रयः ॥ १४३ ॥
न भोक्तव्यो
बलादाधिर्भुञ्जानो वृद्धिमुत्सृजेत् ।
मूल्येन
तोषयेच्चैनमाधिस्तेनोऽन्यथा भवेत् ॥ ॥१४४॥
आधिश्चोपनिधिश्चोभौ
न कालात्ययमर्हतः ।
अवहार्यौ
भवेतां तौ दीर्घकालमवस्थितौ ॥ ॥ १४५ ॥
सम्प्रीत्या
भुज्यमानानि न नश्यन्ति कदा चन ।
धेनुरुष्टो
वहन्नश्वो यश्च दम्यः प्रयुज्यते ॥ ॥ १४६ ॥
यत् किं चिद्
दशवर्षाणि संनिधौ प्रेक्षते धनी ।
भुज्यमानं
परैस्तूष्णीं न स तत्लब्धुमर्हति ॥ ॥१४७॥
भूमि,
गौ, धन आदि भोग के पदार्थ यदि आधि (गिरवी) महाजन के यहाँ रखें
तो महाजन को ब्याज न मिले और नियमित समय में ऋणी छुड़ा सके तो महाजन को उस वस्तु
को बेचने अथवा किसी अन्य को दे देने का अधिकार नहीं है। आधि वस्तु को ऋणी की आज्ञा
के बिना उपयोग मे नहीं लाना चाहिए, यदि उपयोग में लाये तो ब्याज छोड़ देना चाहिए और यदि गिरवी
वस्तु टूट फूट जाय तो ऋणी को उसका बदला धन आदि देकर खुश करे नहीं तो चोर माना जाता
है। आधि और उपनिधि (अमानत) के पदार्थ बहुत दिन तक पड़े रहें। तब भी तत्व नष्ट नहीं
होता। उनका मालिक जब चाहे तब उन्हें वापिस ले सकता है। गौ,
ऊँट, घोड़ा वगैरह किसी ने प्रेम से उपयोग करने को दिए हो और चाहे
वह उपयोग में लाता हो तब भी उसके स्वामी का ही अधिकार बना रहता है। यदि किसी वस्तु
को अन्य लोग दस वर्षों तक उपयोग में लाते रहें और स्वामी चुपचाप देखा करे,
तो उसका अधिकार समाप्त हो जाता है। ॥१४३-१४७।।
अजडश्चेदपोगण्डो
विषये चास्य भुज्यते ।
भग्नं तद्
व्यवहारेण भोक्ता तद् द्रव्यमर्हति ॥ ॥१४८॥
आधिः सीमा
बालधनं निक्षेपोपनिधिः स्त्रियः ।
राजस्वं
श्रोत्रियस्वं च न भोगेन प्रणश्यति ॥ ॥ १४९ ॥
यः
स्वामिनाऽननुज्ञातमाधिं भुङ्क्तेऽविचक्षणः ।
तेनार्धवृद्धिर्मोक्तव्या
तस्य भोगस्य निष्कृतिः ॥ ॥ १५० ॥
वस्तु का
स्वामी पागल न हो और नादान न हो पर उसका वस्तु दूसरा भोगता रहें तो न्याय से उसका
अधिकार नहीं रहता और भोगने वाले का हो जाता है। गिरवी वस्तु,
सीमा, बालक का धन, धरोहर, प्रसन्नता से भोगार्थ दिया धन,
स्त्री और राजा का धन, श्रोत्रिय का धन इनको दूसरा भोगे तो भी स्वामी का अधिकार
नहीं जाता । जो चालाक मनुष्य आधि को बिना स्वामी के कहे भोगता है। उसको आधा ब्याज
छोड़ देना चाहिए क्योंकि उसका आधा ब्याज वस्तु को उपयोग मे लाने से घट जाता है
॥१४८-१५०॥
कुसीदवृद्धिर्द्वैगुण्यं
नात्येति सकृदाहृता ।
धान्ये सदे
लवे वाह्ये नातिक्रामति पञ्चताम् ॥ ॥ १५१ ॥
कृतानुसारादधिका
व्यतिरिक्ता न सिध्यति ।
कुसीदपथमाहुस्तं
पञ्चकं शतमर्हति ॥ ॥ १५२ ॥
नातिसांवत्सरी
वृद्धिं न चादृष्टां पुनर्हरेत् ।
चक्रवृद्धिः
कालवृद्धिः कारिता कायिका च या ॥ ॥१५३॥
ऋणं
दातुमशक्तो यः कर्तुमिच्छेत् पुनः क्रियाम् ।
स दत्त्वा
निर्जितां वृद्धि करणं परिवर्तयेत् ॥ ॥ १५४ ॥
अदर्शयित्वा
तत्रैव हिरण्यं परिवर्तयेत् ।
यावती संभवेद्
वृद्धिस्तावतीं दातुमर्हति ॥ ॥ १५५ ॥
कर्जा के
रुपयों का सूद एक बार लेने पर ऋण का धन दुगने से अधिक नहीं लिया जा सकता। और धान्य,
वृक्ष के मूल, फल, ऊन और वाहन पांच गुना से अधिक नहीं लिये जाते हैं। जितने
ब्याज का ठहराव हो चुका हो उससे अधिक शास्त्र के विपरीत नहीं मिल सकता। ब्याज का
मार्ग यही है कि अधिक से अधिक पांच प्रतिशत लिया जा सकता है। एक वर्ष मे ब्याज
मिला कर,
मूल धन दोगुना हो जाए तो उतना ब्याज नहीं लेना चाहिये और
ब्याज का ब्याज भी नहीं लेना चाहिए। नियतकाल बीतने पर दोगुना,
तिगुना आदि लेने का सहमति न करें और उससे कोई काम धोखा देकर
नहीं करवाना चाहिए। जो कर्जदार पुराना कर्जा अदा न कर सके और नया व्यवहार चलाना
चाहे तो पुराने कागज को बदलकर नया कर लेना चाहिए। लेकिन ब्याज भी न दे सके तो उस
को मूलधन में जोड़ देना चाहिए फिर जितनी संख्या पहले ब्याज सहित हो जाए,
उतनी देने योग्य होती है॥१५१-१५५॥
चक्रवृद्धि
समारूढो देशकालव्यवस्थितः ।
अतिक्रामन्
देशकालौ न तत्फलमवाप्नुयात् ॥ ॥१५६॥
समुद्रयानकुशला
देशकालार्थदर्शिनः ।
स्थापयन्ति तु
यां वृद्धिं सा तत्राधिगमं प्रति ॥ ॥ १५७ ॥
यो यस्य
प्रतिभूस्तिष्ठेद् दर्शनायैह मानवः ।
अदर्शयन् स तं
तस्य प्रयच्छेत् स्वधनाद् ऋणम् ॥ ॥ १५८ ॥
चक्रवृद्धि का
आश्रय करनेवाला महाजन को देश-काल के नियम के अनुसार ही ब्याज लेना चाहिए परन्तु
नियत देश व काल को उल्लंघित करने पर ब्याज पाने योग्य नहीं रहता है। समुद्र आदि के
रास्ते देश-विदेश में व्यापार करने वाले चतुर महाजन जो आय - व्यय के अनुसार भाड़ा
ब्याज आदि तय करे वहीं प्रमाण है। जो मनुष्य जिसको हाज़िर करने की जिम्मेदारी ले
और उसे हाज़िर न कर सके तो उसको अपने पास से वह ऋण चुकाना पडता है ॥१५६-१५८॥
प्रातिभाव्यं
वृथादानमाक्षिकं सौरिकां च यत् ।
दण्डशुल्कावशेषं
च न पुत्रो दातुमर्हति ॥ ॥ १५९ ॥
दर्शनप्रातिभाव्ये
तु विधिः स्यात् पूर्वचोदितः ।
दानप्रतिभुवि
प्रेते दायादानपि दापयेत् ॥ ॥ १६० ॥
अदातरि
पुनर्दाता विज्ञातप्रकृतावृणम् ।
पश्चात्
प्रतिभुवि प्रेते परीप्सेत् केन हेतुना ॥ ॥१६१॥
निरादिष्टधनश्चेत्
तु प्रतिभूः स्यादलंधनः ।
स्वधनादेव तद्
दद्यान्निरादिष्ट इति स्थितिः ॥ ॥ १६२॥
मत्तोन्मत्तार्ताध्यधीनैर्बालेन
स्थविरेण वा ।
असंबद्धकृतश्चैव
व्यवहारो न सिध्यति ॥ ॥१६३॥
सत्या न भाषा
भवति यद्यपि स्यात् प्रतिष्ठिता ।
बहिश्चेद्
भाष्यते धर्मात्नियताद् व्यवहारिकात् ॥ ॥१६४॥
जमानत का धन
वृथादान,
जुए का रुपया, मद्य का रुपया और जुर्माना का रुपया पिता के मरने पर उसके
बदले पुत्र के देने योग्य नहीं हैं। सिर्फ उपस्थित करने पर ज़मानत की ही पहली विधि
है। परन्तु कर्ज के बदले धन देना स्वीकार करने वाला जमानती मर जाए तो कर्ज उसके
वारिसों से भी दिलाना चाहिए। अदाता प्रतिभू अर्थात जिसने कर्ज अदायगी की बात
स्वीकार न की ही केवल गवाह बनने की बात ही स्वीकार की हो मर जाए और ऋणी कर्ज अदा न
करे,
तो महाजन कैसे अपना रुपया वसूल करे ?
किसी से नहीं। यदि जमानती को ऋणी रुपया सौंप गया हो और उसके
पास भी खूब धन हो तो ज़मानती के मरने पर उसके पुत्र को ऋण चुकाना चाहिए- यह
धर्मशास्त्र की मर्यादा है। नशेबाज, पागल, दुख, पराधीन, बालक, बुड्ढा और सामर्थ के बाहर प्रतिज्ञा करने वाले का व्यवहार
सिद्ध नहीं होता। आपस की लिखा पढ़ी या जबानी ठहरी भी कोई बात यदि धर्म-क़ानून और
परंपरा के विरुद्ध हो तो सच्ची नहीं मानी जाती है ॥१५६-१६४॥
योगाधमनविक्रीतं
योगदानप्रतिग्रहम् ।
यत्र
वाऽप्युपधिं पश्येत् तत् सर्वं विनिवर्तयेत् ॥ ॥१६५॥
ग्रहीता यदि
नष्टः स्यात् कुटुम्बार्थे कृतो व्ययः ।
दातव्यं
बान्धवैस्तत् स्यात् प्रविभक्तैरपि स्वतः ॥ ॥१६६॥
कुटुम्बार्थेऽध्यधीनेोऽपि
व्यवहारं यमाचरेत् ।
स्वदेशे वा
विदेशे वा तं ज्यायान्न विचालयेत् ॥ ॥१६७॥
कपट से क्रिया
हुआ बंधक (गिरवी) विक्रय, दान, प्रतिग्रह, और निक्षेप - धरोहर को भी लौटा देना चाहिए। यदि ऋणी मर गया
हो और ऋण का द्रव्य कुटुम्ब में भी लगाया हो तो उसके बांधव चाहे मिले हों अथवा अलग
हों,
उन्हें अपने धन से ऋण चुकाना चाहिए। कोई अधीन पुरुष भी
स्वामी के कुटुम्ब के लिए देश या परदेश में लेन-देन कर ले तो परिवार के स्वामी को
उसको स्वीकार कर लेना चाहिए, इन्कार नहीं करना चाहिए ॥१६५-१६७॥
बलाद्दत्तं
बलाद् भुक्तं बलाद् यच्चापि लेखितम् ।
सर्वान्
बलकृतानर्थानकृतान् मनुरब्रवीत् ॥ ॥ १६८ ॥
त्रयः परार्थे
क्लिश्यन्ति साक्षिणः प्रतिभूः कुलम् ।
चत्वारस्तूपचीयन्ते
विप्र आढ्यो वणिङ्नृपः ॥ ॥ १६९ ॥
अनादेयं
नाददीत परिक्षीणोऽपि पार्थिवः ।
न चादेयं
समृद्धोऽपि सूक्ष्ममप्यर्थमुत्सृजेत् ॥ ॥ १७० ॥
अनादेयस्य
चादानादादेयस्य च वर्जनात् ।
दौर्बल्यं
ख्याप्यते राज्ञः स प्रेत्यैह च नश्यति ॥ ॥ १७१ ॥
स्वादानाद्
वर्णसंसर्गात् त्वबलानां च रक्षणात् ।
बलं सञ्जायते
राज्ञः स प्रेत्यैह च वर्धते ॥ ॥ १७२ ॥
बलपूर्वक दिया,
बलपूर्वक भोग किया, कुछ लिखाया या कुछ किसी यह सब न किये के समान ही है,
ऐसा मनुजी ने कहा है । तीन दूसरे के लिए दुःख पाते
हैं--साक्षी, जमानती और ऋणी के कुटुम्बी । और चार दूसरे के कारण बढ़ते हैं- ब्राह्मण,
धनी, बनिया और राजा । राजा को निर्धन होकर भी अनुचित धन आदि नहीं
लेना चाहिए और धनी होकर भी योग्य धन को थोड़ा भी नहीं छोड़ना चाहिए। न लेने योग्य
वस्तु को लेने से और लेने योग्य को छोड़ने से राजा की दुर्बलता प्रसिद्ध हो जाती
है और वह राजा अपयश पाकर नष्ट हो जाता है । उचित धन लेने से,
प्रजा को वर्णसंकर न होने देने से,
और दुर्बलों की रक्षा करने से राजा को बल प्राप्त होता है
तथा लोक-परलोक दोनों में सुख भोगता है ॥१६६-१७२॥
तस्माद् यम इव
स्वामी स्वयं हित्वा प्रियाप्रिये ।
वर्तेत
याम्यया वृत्त्या जितक्रोधो जितेन्द्रियः ॥ ॥ १७३ ॥
यस्त्वधर्मेण
कार्याणि मोहात् कुर्यान्नराधिपः ।
अचिरात् तं
दुरात्मानं वशे कुर्वन्ति शत्रवः ॥ ॥ १७४॥
कामक्रोधौ तु
संयम्य योऽर्थान् धर्मेण पश्यति ।
प्रजास्तमनुवर्तन्ते
समुद्रमिव सिन्धवः ॥ ॥ १७५ ॥
इसलिए राजा को
यमराज के समान अपना प्रिय और अप्रिय छोड़कर क्रोध और इन्द्रियों को वश में करके,
समभाव प्रजा पर रखना चाहिए। जो राजा मूर्खता से अधर्म के
कार्य करता है, उस दुष्ट को शत्रु शीघ्र ही वश में कर लेते हैं। परन्तु जो काम,
क्रोध को वश में करके, धर्म से कार्यों को देखता है, उसकी प्रजा समुद्र के नदियों की भांति अनुगामिनी होती हैं
॥१७३ १७५॥
यः साधयन्तं
छन्देन वेदयेद् धनिकं नृपे ।
स राज्ञा
तत्वतुर्भागं दाप्यस्तस्य च तद् धनम् ॥ ॥१७६॥
कर्मणाऽपि समं
कुर्याद् धनिकायाधमर्णिकः ।
समोऽवकृष्टजातिस्तु
दद्यात्श्रेयांस्तु तत्शनैः ॥ ॥ १७७॥
अनेन विधिना
राजा मिथो विवदतां नृणाम् ।
साक्षिप्रत्ययसिद्धानि
कार्याणि समतां नयेत् ॥ ॥ १७८ ॥
यदि ऋणी राजा
से कहे कि महाजन ज़बरदस्ती ऋण वसूल करता है तब भी राजा उसका धन दिलाए और ऋणी पर ऋण
का चौथाई दण्ड करे । समानजाति अथवा हीन जाति क़र्जदार को महाजन का धन उसके यहां
काम करके चुका देना चाहिए और महाजन से ऊंची जाति का ऋणी धीरे धीरे अदा कर देना
चाहिए। इस प्रकार राजा को आपस में झगड़ा करनेवालों का निर्णय साक्षी,
लेख आदि के प्रमाण से करना चाहिए ॥१७६-१७६॥
आगे जारी..........मनुस्मृति अध्याय 8 भाग 2
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