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अथ बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् पञ्चमः
षोडशवर्गाध्यायः भाषा-टीकासहितं
बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय ५- अथ षोडशवर्गप्रकरणम्
वर्गान् षोडश संख्याकान् ब्रह्मा
प्रोक्तं पितामहः ।
तानहं सम्प्रवक्ष्यामि मैत्रेय
श्रूयतामिति ।।१।।
हे मैत्रेय ! लोकपितामह ब्रह्माजी
ने जो सोलह वर्गों को कहा है, उसे मैं कहता
हूँ ।। १ ।।
क्षेत्र होरां च
द्रेष्काणश्चतुर्थांशः सप्तमांशकः ।
नवांशी दशमांशश्च सूर्यांशः
षोडशांशकः ॥ २ ॥ ॥
१ गृह,
२ होरा, ३ द्रेष्काण, ४
चतुर्थांश, ५ सप्तमांश, ६ नवांश,
७ दशमांश ८ द्वादशांश, ९ षोडशांश ।। २ ।।
त्रिंशांशो वेदवाहवंशो
भांशास्त्रिंशांशकस्तथा ।
खवेदांशोऽक्षवेदांशः षष्ठ्यंशश्च
ततः परम् ।।३।।
१० त्रिंशांश,
११ चतुर्विंशांश, १२ सप्तविशांश, १३ त्रिंशदंशांश, १४ चत्वारिंशांश, १५ पञ्चचत्वारिंशांश, १६ षष्ठ्यंश ये १६ वर्ग हैं ।।
३ ।।
बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय ५- गृहहोराकथनम्
तत्क्षेत्रं यस्य खेटस्य राशेर्यो
यस्य नायकः ।
सूर्येन्दोर्विषमे राशौ समे
तद्विपरीतकम् ॥ ४॥
जो ग्रह जिस राशि का स्वामी है वहीं
उसका गृह है । विषम राशि में पहली होरा सूर्य की और दूसरी चन्द्रमा की होती है।
सम राशि में पहली होरा चन्द्रमा की और दूसरी सूर्य की होती है ।। ४ ।।
पितरश्चन्द्रहोरेशा देव्यः सूर्यस्य
कीर्त्तिताः ।
राशेरर्द्ध भवेद्धोरा
ताश्चतुर्विंशतिः स्मृताः ।
मेषादि तासां होराणां
परिवृत्तिद्वयं भवेत् ॥ ५॥
चन्द्रमा के होरा के स्वामी पितर और
सूर्य के होरा के स्वामी देवियाँ होती हैं। एक राशि का आधा १५ अंश का एक होरा होता
है अर्थात् १२ राशियों में २४ होरा होती है, इसलिये
मेषादि राशियों की दो आवृत्ति होती हैं॥ ५॥
उदाहरण
- जैसे लग्न ९ । १५ ।२२।५७ है, लग्न सम राशि
है और १५ अंश से अधिक है, अतः दूसरी होरा सूर्य की है।
स्पष्टार्थ चक्र-
हो. |
मे. |
वृ. |
मि. |
क. |
सिं. |
कं. |
तु. |
वृ. |
ध. |
म. |
कुं. |
मी. |
राशयः |
१ |
सू. |
चं. |
सू. |
चं. |
सू. |
चं. |
सू. |
चं. |
सू. |
चं. |
सू. |
चं. |
स्वामिनः |
२ |
चं. |
सू. |
चं. |
सू. |
चं. |
सू. |
चं. |
सू. |
चं. |
सू. |
चं. |
सू. |
स्वामिनः |
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय ५- द्रेष्काण
राशित्रिभागा द्रेष्काणास्ते च
षट्त्रिंशदीरिताः ।
परिवृत्तित्रयं तेषां मेषादेः
क्रमशो भवेत् ।।६ ॥
एक राशि के तीसरे भाग का अर्थात् १०
अंश का एक द्रेष्काण होता है, अर्थात् एक
राशि में ३ द्रेष्काण होते हैं । १२ राशि में कुल ३६ द्रेष्काण होते हैं ।। ६ ।।
स्वपञ्चनवपानां च विषमेषु समेषु च ।
नारदागस्तिदुर्वासा
द्रेष्काणेशाश्चरादिषु । । ७ ।।
विषम एवं सम राशि में पहले
द्रेष्काण का स्वामी उसी राशि का स्वामी, दूसरे
का उस राशि से पाँचवी राशि का स्वामी और तीसरे का उस राशि से नवीं राशि का स्वामी
होता है। और पहले द्रेष्काण के स्वामी नारद, दूसरे के अगस्त
और तीसरे के दुर्वासा स्वामी होते हैं ।।७।।
उदहारण
- जैसे जन्मलग्न ९।१५। २२ । ३७ है, इसमें
दूसरा द्रेष्काण है जिसके स्वामी शुक्र हैं और अधिपति अगस्त हैं।
द्रेष्काण चक्र-
स्वामी |
मे. |
वृ. |
मि. |
क. |
सिं. |
कं. |
तु. |
वृ. |
ध. |
म. |
कुं. |
मी. |
राशयः |
नारद |
१ |
२ |
३ |
४ |
५ |
६ |
७ |
८ |
९ |
१० |
११ |
१२ |
स्वामिनः |
अगस्त |
५ |
६ |
७ |
८ |
९ |
१० |
११ |
१२ |
१ |
२ |
३ |
४ |
स्वामिनः |
दुर्वासा |
९ |
१० |
११ |
१२ |
१ |
२ |
३ |
४ |
५ |
६ |
७ |
८ |
स्वामिनः |
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय ५- चतुर्थांश
स्वर्क्षादि केन्द्रपतयस्तुर्यांशेशाः क्रियादयः ।
सनकश्च सनन्दश्च कुमारश्च सनातनः
।।८।।
एक राशि में ७ अंश ३० कला के चार
चतुर्थांश होते हैं । प्रत्येक राशि में उस राशि से प्रथम,
चतुर्थ, सप्तम और दशम राशियों के स्वामी क्रम से
चतुर्थांश के स्वामी होते हैं और सर्वदा क्रम से सनक, सनन्दन, सनत्कुमार और सनातन ये स्वामी होते हैं ।। ८ ।।
उदाहरण
- लग्न ९।१५ । २२ । ३७ है। इसमें ३रा चतुर्थांश कर्क राशि के स्वामी चन्द्रमा का
और अधिपति सनत्कुमार का है।
चतुर्थांश चक्र-
स्वामिनः |
१ |
२ |
३ |
४ |
५ |
६ |
७ |
८ |
९ |
१० |
११ |
१२ |
अंशा |
सनकः
|
१
मं. |
२
शु. |
३
बु. |
४
चं. |
५
सू. |
६
बु. |
७
शु. |
८
मं. |
९
बृ. |
१०
श. |
११
श. |
१२
बृ. |
७ ३० |
सनन्दनः
|
४
चं. |
५
सू. |
६
बु. |
७
शु. |
८
मं. |
९
बृ. |
१०
श. |
११
श. |
१२
बृ. |
१
मं. |
२
शु. |
३
बु. |
१५ |
सनत्कुमारः
|
७
शु. |
८
मं. |
९
बृ. |
१०
श. |
११
श. |
१२
बृ. |
१
म. |
२
शु. |
३
बु. |
४
चं. |
५
सू. |
६
बु. |
२२
३० |
सनातनः
|
१०
श. |
११
श. |
१२
बृ. |
१
मं. |
२
शु. |
३
बु. |
४
चं. |
५
सू. |
६ बु. |
७
शु. |
८
मं. |
९
बृ. |
३० |
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय ५- सप्तमांश
सप्तमांशास्त्वोजगृहे गणनीया निजेशतः ।
युग्मराशौ तु विज्ञेया
सप्तमर्क्षादिनायकम् ।।९।।
एक राशि में ४ अंश १७ कला के सात
सप्तमांश होते हैं। विषम राशि में उसी राशि से और सम राशि में उससे सातवीं राशि से
७ सप्तमांश के स्वामी होते हैं।।९।।
क्षारक्षीरौ च दध्याज्यौ
तथेक्षुरससम्भवः ।
मद्यशुद्धजलावोजे समे शुद्धजलादिकाः
। । १० ।।
उसके क्षार,
क्षीर, आज्य, इक्षुरस,
मद्य और शुद्ध जल विषम राशि में और सम राशि में शुद्ध जल, मद्य, इक्षुरस, आज्य, दधि, क्षीर, क्षार, ये विशेष अधिकारी होते हैं ।। १० ।।
उदाहरण
- लग्न ९ । १५ । २२ ।३७ है। इसमें तीसरा सप्तमांश है,
जिसके स्वामी बुध और विशेष अधिपति इक्षुरस है।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय ५- नवमांशाधिपति
नवांशेशाश्चरे तस्मात्स्थिरे तन्त्रवमादितः ।
उभये तत्पञ्चमादेरिति चिन्त्यं
विचक्षणैः ।
देवानृराक्षसाश्चैव चरादिषु गृहेषु
च । । ११ । ।
एक राशि में ३ अंश २० कला के नव
नवमांश होते हैं। चर राशि में उसी राशि से, स्थिर
राशि में उससे नवम राशि से और द्विस्वभाव राशि में उससे पाँचवीं राशि से नव राशि
तक प्रत्येक राशि ३ अंश २० कला के तुल्य होती हैं। क्रम से देवता, नर और राक्षस अंशेश होते हैं ।। ११ ।।
उदाहरण
- लग्न ९।१५।२२।३७ में ३ अंश २० कला के हिसाब से पाँचवाँ नवमांश वृष राशि का हुआ।
इसके स्वामी शुक्र और नर अंशेश हुए ।
बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय ५- दशमांश
दिगंशयाः ततश्चोजे युग्मे
तन्नवमाद्वदेत् ।
पूर्वादि दश दिक्पाला
इन्द्राग्नियमराक्षसाः ।। १२ ।।
वरुणो मारुतश्चैव कुबेरेशानपद्मजाः ।
अनन्तश्चोक्तमोजे तु समे
स्यात्व्युत्क्रमेण च ।।१३।।
एक राशि में दश दशमांश प्रत्येक ३
अंश के होते हैं। यदि विषम राशि लग्न हो तो उसी राशि से और सम राशि हो तो उससे
नवीं राशि से दश दशमांश होते हैं । विषम राशि में क्रम से इन्द्र,
अग्नि, यम, राक्षस,
वरुण, मारुत, कुबेर,
ईशान, ब्रह्मा और अनन्त इन पूर्वादि दिशाओं के
दिक्पालों का होता है और सम राशि में उत्क्रम से अधिपति होते हैं।।१२-१३।।
उदाहरण
- लग्न ९।१५ । २२ । ३७ है। इसमें ३ अंश के अनुसार छठा ६ दशमांश हुआ। लग्न राशि के
सम होने से उससे ९वीं राशि कन्या से गिनने से छठी राशि कुम्भ के स्वामी शनि का
दशमांश हुआ। इसके मारुत स्वामी हैं।
बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय ५- द्वादशांश
द्वादशांशस्य गणना
तत्तत्क्षेत्राद्विनिर्दिशेत् ।
तेषामधीशाः क्रमशो गणेशाश्वियमाहयः
। ॥१४॥ ।
एक राशि में १२ द्वादशांश २ अंश ३०
कला के होते हैं। उनकी गणना उसी राशि से होती है। उनके स्वामी क्रम से गणेश,
अश्विनीकुमार, . यम और अहि (सर्प) होते हैं ।।
१४ ।।
उदाहरण
- लंग्न ९।१५ । २२ । ३७ है । यहाँ २' ।
३०' के 'अनुसार ७वाँ द्वादशांश मकर से
गिनने से कर्क राशि के स्वामी चन्द्रमा का है। उसके स्वामी यम हैं।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय ५- षोडशांश
अजसिंहाश्वितो ज्ञेया नृपांशाः
क्रमशः सदा ।
अजविष्णुहरः सूर्यो ह्योजे युग्मे
प्रतीपकम् ।। १५ ।।
एक राशि में १ अंश ५२ कला और ३०
विकला का एक षोडशांश होता है। इस प्रकार एक राशि में १६ षोडशांश होता है। मेष आदि
राशियों में क्रम से मेष, सिंह और धनु से
आरम्भ होता है। इनके अज, विष्णु, हर
सूर्य स्वामी होते हैं । । १५ ।।
उदाहरण
- लग्न ९।१५।२२ । ३७ है। इसमे उक्त नियम से नवाँ षोडशांश धनुराशि के स्वामी गुरु
का हुआ। इसके स्वामी ब्रह्मा हैं।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय ५- विशांश
अथ विंशतिभागानामधिपा ब्रह्मणोदिताः
।
क्रियाच्चरे स्थिरे
चापान्मृगेन्द्राद्द्द्विस्वभावके ।। १६ ।।
एक राशि में २० विंशांश १ अंश ३०
कला के होते हैं। चर राशि में मेष से, स्थिर
राशि में धनु से और द्विस्वभाव राशि में सिंह से आरम्भ होकर २० राशि तक होता है ।
। १६ ।।
काली गौरी जया लक्ष्मीर्विजया विमला
सती ।
तारा ज्वालामुखी श्वेता ललिता
बगलामुखी । । १७ ।।
इनके स्वामी विषम राशि में क्रम से
काली,
गौरी, जया, लक्ष्मी,
विजया, विमला, सती,
तारा, ज्वालामुखी, श्वेता,
ललिता, बगलामुखी है ।। १७ ।।
प्रत्यङ्गिरा शची रौद्री भवानी वरदा
जया ।
त्रिपुरा सुमुखी चेति विषमे
परिचिन्तयेत् । । १८ ।।
प्रत्यंगिरा,
शची, रौद्री भवानी, वरदा,
जया, त्रिपुरा, सुमुखी
है ।। १८ ।।
समराशी दया मेधा छित्रशीर्षा
पिशाचिनी ।
धूमावती च मातङ्गी बाला
भद्राऽरुणाऽनला ।। १९ ।।
सम राशि में दया,
मेधा, छिन्नशीर्षा, पिशाचिनी,
धूमावती, बाला, भद्रा,
अरुणा और अनला है ।। १९ ।।
पिङ्गला छुच्छुका घोरा वाराही
वैष्णवी सिता ।
भुवनेशी भैरवी च मङ्गला ह्यपराजिता
॥ २० ॥
पिंगला,
छुच्छुका, घोरा, वाराही,
वैष्णवी, सिता, भुवनेशी,
भैरवी, मंगला और अपराजिता ये स्वामी होते हैं
।। २० ।।
उदाहरण -
लग्न ९।१५।२२ । ३७ है, अतः ११वाँ
त्रिंशांश कुम्भ राशि के अधिपति शनि का हुआ और इसके स्वामी पिंगला देवी हुई ।
विंशांशचक्रम् -
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय ५- सिद्धांशक
सिद्धांशकानामधिपाः सिंहादोजभके गृहे
।
कर्कायुग्मभके खेटे स्कन्दः
पशुधरोऽनलः । । २१ ॥ ।
विश्वकर्मा भगो मित्रो
भगोऽन्तकवृषध्वजाः ।
गोविन्दो मदनो भीमः सिंहादौ विषमे
क्रमात् ।
कर्कादौ समभे भीमाद्विलोमेन
विचिन्तयेत् । । २२ ।।
एक राशि में १ अंश १५ कला के २४
चतुर्विंशांश होते हैं। विषम राशि लग्न हो तो सिंह और सम राशि में कर्क से गणना कर
२४ राशियों चतुर्विंशांश होता है। विषम राशि में क्रम से स्कंद,
पशुधर, अनल, विश्वकर्मा,
भग, मित्र, भग, अंतक, वृषध्वज, गोविंद,
मदन, भीम, फिर स्कंद से
भीम पर्यन्त एवं सम राशि में भीम से उत्कय रीति से गिनने से स्वामी होते हैं ।।
२१-२२ ।।
उदाहरण
- लग्न ९ । १५ । २२ । ३७ सम राशि में कर्क से गिनने से १३वाँ कर्क राशि यानि
चन्द्र का चतुर्विंशांश हुआ और उसके भीम स्वामी हुए ।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय ५- भांशपति
नक्षत्रेशाः क्रमाद्धस्त्रयमवह्निपितामहाः ।
चन्द्रेशादितिजीवाहि पितरो
भगसंज्ञिताः ।। २३ ।।
अर्यमार्कस्वष्टमरुच्छक्राग्निमित्रवासवाः
।
निर्ऋत्युदकविश्वेऽज गोविन्दो
वसवोऽम्बुपः ।। २४ ।।
ततोऽजयादहिर्बुध्यः पूषा चैव
प्रकीर्त्तिताः ।
नक्षत्रशास्तु भांशेशा भांशसंख्यः
चरात्क्रमात् ।। २५ ।।
एक राशि में २७ अंश १ अंश ६ कला और
४० विकला के होते हैं । प्रत्येक राशियों में क्रम से चर राशि से आरम्भ होता है और
उनके स्वामी नक्षत्रेश होते हैं। शेष चक्र में देखिए ।। २३-२५ ।।
उदाहरण-
लग्न ९/१५/२२ / ३७ है । इसमें सिंह राशि यानि सूर्य भांशपति हुआ और नक्षत्रेश
त्वष्टा हुए।
बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय ५- त्रिंशांश
त्रिंशांशेशाश्च विषमे
कुजार्कीज्यज्ञभार्गवाः ।
पञ्चपञ्चाष्टसप्ताक्षभागा व्यत्ययतः
समे ।। २६ ।।
वहिन: समीरशक्रौ च धनदो जलदस्तथा ।
विषमेषु क्रमाज्ज्ञेया समराशौ
विपर्ययम् ।।२७।।
विषम राशि में भौम,
शनि, गुरु, बुध और शुक्र
का क्रम से ५,५,८,७,५ अंश और सम राशि में शुक्र, बुध, गुरु, शनि और भौम का क्रम
से ५,७,८,५,५ अंश त्रिंशांश होता है। विषम राशि में क्रम से वह्नि, वायु, इन्द्र, धनद और जलद तथा
सम राशि में जलद, धनद, इन्द्र, वायु और अ अधिपति होते हैं ।। २६-२७ ।।
उदाहरण-
लग्न ९ । १५ । २२ । ३७ है । लग्न सम है अतः गुरु का त्रिंशांश हुआ और इन्द्र
स्वामी हुए ।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय ५- खवेदांश
चत्वारिंशतिभागानामधिपा विषमे
क्रियात् ।
विष्णु चन्द्रो मरीचिश्च त्वष्टा
धाता शिवो रविः ।। २८ ।।
यमो यक्षेशगन्धर्वः कालो वरुण एव च
।
समभे तुलतो ज्ञेयाः
स्वस्वाधिपसमन्विताः ।। २९ ।।
विषम राशि में मेष से और सम राशि
में तुला राशि से ४०वाँ अंश आरम्भ होता है। क्रम से विष्णु,
चन्द्र, मरीचि, त्वष्टा,
धाता, शिव, रवि, यम, यक्षेश, गंधर्व, काल, वरुण यही स्वामी होते हैं ।। २८-२९ ।।
उदाहरण - लग्न ९ । १५ ।२२।३७ है। एक चालीसवाँ अंश ४५ कला का होता है। इस हिसाब से २१वाँ भाग मिथुन राशि बुध का अंश और यक्षेश स्वामी हुए।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय ५- अक्षवेदांश
तथाक्षवेदभागानामधिपाश्चलभे
क्रियात् ।
स्थिरे सिंहाद्विस्वभावे
चापाद्ब्रह्मेशकेशवाः ।
ईशाच्युतसुरज्येष्ठ विष्णुके
शाश्चराधिषु ।। ३० ।।
चर राशि में मेष से,
स्थिर राशि में सिंह से और द्विस्वभाव राशि में धनु राशि से गणना
करने से अक्षवेदांश के स्वामी होते हैं और चर, स्थिर, द्विस्वभाव के क्रम से ब्रह्मा, शंकर, विष्णु, शंकर, विष्णु, ब्रह्मा, विष्णु, ब्रह्मा,
शंकर ये स्वामी होते हैं ।। ३० ।।
उदाहरण
- लग्न ९।१५।२२।३७ है । ४० कला का एक भाग
होता है,
अतः २४वाँ मीन राशि अर्थात् गुरु का अक्षवेदांश हुआ और विष्णु
स्वामी हुए।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय ५- षष्ठ्यंश
घोरश्च राक्षसो देवः कुबेरो
यक्षकिन्नरौ ।
भ्रष्टः कुलघ्नो गरलो वह्निर्माया
पुरीषकः । । ३१ ।।
विषम राशि में १ घोर,
२ राक्षस, ३ देव, ४
कुबेर, ५ यक्ष, ६ किन्नर, ७ भ्रष्ट, ८ कुलन, ९ गरल,
१० अग्नि, ११ माया, १२
यम ( पुरीष) । । ३१ ।।
अपाम्पतिर्मरुत्वांश्च कालः
सर्पामृतेन्दुकाः ।
मृदुः
कोमलहेरम्बब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।। ३२ ।।
१३ वरुण,
१४ इन्द्र, १५ काल, १६
सर्प, १७ अमृत, १८ चन्द्रमा, १९ मृदु, २० कोयल, २१ हेरम्ब,
२२ ब्रह्मा, २३ विष्णु, २४
शिव ।। ३२ ।।
देवाद्रौ कलिनाशश्च क्षितीशकमलाकरौ
।
गुलिको मृत्युकालश्च
दावाग्निर्घोरसंज्ञकः । । ३३ ॥
२५ देव,
२६ आर्द्र, २७ कलिनाश, २८
क्षितीश, २९ कमलाकर, ३० गुलिक, ३१ मृत्यु, ३२ काल, ३३ दावाग्नि,
३४ घोर । । ३३ ।।
यमच कण्टकसुधाऽमृतौ पूर्णनिशाकरः ।
विषदग्धकुलान्तश्च मुख्यो
वंशक्षयस्तथा ।। ३४ ।।
३५ यम,
३६ कंटक, ३७ सुधा, ३८
अमृत, ३९ पूर्णचन्द्र, ४०. विषदग्ध,
४१ कुलनाश, ४२ मुख्य, ४३
वंशक्षय ।।३४।।
उत्पातकालसौम्याख्या: कोमलः
शीतलाभिधः ।
करालदंष्ट्रचन्द्रास्य प्रवीणः
कालपावकः । । ३५ ।।
४४ उत्पात,
४५ `काल, ४६ सौम्य,
४७ कोमल, ४८ शीतल, ४९
करालदंष्ट्र, ५० इन्दुमुख, ५१ प्रवीण,
५२ कालाग्नि । । ३५ ।।
दण्डभृन्निर्मलः सौम्यः
क्रूरोऽतिशीतलोऽमृतः ।
पयोधि भ्रमणाख्यौ च
चन्द्ररेखात्वयुग्मपौ । । ३६ ।।
५३ दंडभृत्,
५४ निर्मल, ५५ सौम्य, ५६
क्रूर, ५७ अतिशीतल, ५८ अमृत, ५९ भ्रमण और ६० इन्दुरेखा।।३६।।
समे भे व्यत्ययाज्ज्ञेयाः
षष्ठ्यंशाश्च प्रकीर्तिताः ।
षष्ठ्यंशस्वामिनस्त्वोजे तदीशाद्
व्यत्ययतः समे ।। ३७ ।।
विषम राशि में घोर आदि और सम राशि
में चन्द्ररेखा आदि क्रम से षष्ठ्यंश के अधिपति होते हैं ।। ३७ ।।
शुभषष्ठ्यंशसंयुक्ता ग्रहाः
शुभफलप्रदाः ।
क्रूरषष्ठ्यंशसंयुक्ता नाशयन्ति
खचारिणः । । ३८ ।।
शुभग्रह के षष्ठ्यंश में ग्रह हो तो
शुभफल देता है और क्रूर ग्रह के षष्ठ्यंश में हो तो नाश करता है ।।३८।।
राशीन् विहाय खेटस्य
द्विघ्नमंशाद्यमर्कहृत् ।
'शेषं सैकं च
तद्राशिनाथ षष्ठ्यंशपाः स्मृताः ।। ३९ ।।
जिस ग्रह का षष्ठ्यंश देखना हो उसकी
राशि को छोड़कर अंश, कला, विकला आदि को २ से गुणा कर गुणनफल में १२ से भाग देने पर जो शेष बचे उसमें
१ जोड़कर जो संख्या हो उतनी ही संख्या वाली ग्रह की राशि से जो राशि हो उसके
स्वामी षष्ठ्यंश के स्वामी होते हैं । । ३९ ।।
उदाहरण
- लग्न ९।१५।२२ । ३७ है। इसकी राशि को छोड़कर अंशादि को २ से गुणा करने से ३० । ४५
। १४ हुआ । इसमें १२ से भाग देने पर शेष ६ बचा। इसमें १ और जोड़ देने से ७वाँ
षष्ठ्यंश हुआ। मकर से ७वीं राशि कर्क के स्वामी चन्द्रमा षष्ठ्यंश के स्वामी हुए ।
दूना किये हुए अंश ३० में १ जोड़ देने से ३१वाँ सम राशि में कुलिक षष्ठ्यंश का अधिपति
हुआ ।
बृहत् पाराशर होरा
शास्त्र अध्याय ५- वर्गभेद
वर्गभेदानहं वक्ष्ये मैत्रेय त्वं
विधारय ।
षड्वर्गाः सप्तवर्गाश्च दिग्वर्गा
नृपवर्गगाः ॥ ४० ॥
हे मैत्रेय ! मैं वर्गभेद को कहता
हूँ,
उसे तुम सुनो। षड्वर्ग, सप्तवार्गी, दशवर्ग और षोडश वर्ग होते हैं । । ४० ॥
भवन्ति वर्गसंयागे षड्वर्गे
किंशुकादयः।
द्वाभ्यां किंशुकनामा च
त्रिभिर्व्यञ्जनमुच्यते ॥ ॥ ४१ ॥ ॥
षड्वर्ग में दो-तीन आदि वर्गों के
संयोग से किंशुक आदि संज्ञायें होती हैं। यथा दो वर्ग में ग्रह हो तो किंशुक,
तीन के संयोग से व्यंजना ॥ ॥ ४ ॥ ॥
चतुर्भिश्चामराख्यं च छत्रं
पञ्चभिरेव च ।
भः कुण्डलयोगः स्यान्मुकुटाख्यं च
सप्तभिः ॥ ४२ ॥
चार के संयोग से चामर,
पाँच के संयोग से छत्र और छः वर्ग के सांयोगा से कुंडल नाम होता है।
सप्तवर्ग में छः वर्ग तक तो पूर्वोक्त ही होती हैं, किन्तु
सात वर्ग के संयोग से मुकुट होता है ॥ ४२ ॥
सप्तवर्गेऽथ दिग्वर्गे
पारिजातादिसंज्ञकाः ।
पारिजातं भवेद्द्वाभ्यामुत्तमं
त्रिभिरुच्यते ॥ ४३ ॥
दशवर्ग में दो वर्ग के संयोग से
पारिजात;
तीन वर्ग के संयोगा सो उत्तम ।।४३।।
चतुर्भिर्गोपुराख्यं स्याच्छरैः
सिंहासनं तथा ।
पारावतं भवेत्षड्भिर्देवलोकं तु
सप्तभिः ॥ ४४ ॥
चार वर्ग के संयोग से गोपुर,
पाँच वर्ग के संयोग से सिंहासना छ वर्ग के संयोग से पारावत, सात वर्ग के संयोग से देवलोक ॥ ४४॥
वसुभिर्ब्रह्मलोकाख्यं नवभिः
शक्रवाहनम् ।
दिग्भिः श्रीधामयोगं स्यादथ षोडश
वर्गके ॥ ४५ ॥
आठ वर्ग के संयोग से ब्रह्मलोक,
९ वर्ग के सांयोग से शक्रवाहन और १० वर्ग के संयोग से श्रीधाम योग
होता है ॥ ४५ ॥
भेदकं तु भवेद्वाभ्यां त्रिभिः
स्यात्कुसुमाख्यकम् ।
चतुर्भिर्नाकपुष्पं स्यात्पञ्चभिः
कन्दुकाह्वयम् ।।४६ ।।
षोडश वर्ग में २ वर्ग संयोग से भेदक,
३ वर्ग के संयोग से कुसुम, चार वर्ग के संयोग
से नागपुष्प, पाँच वर्ग के संयोग से कंदुक । । ४६ ।।
केरलाख्यं भवेत्षड्भिः सप्तभिः
कल्पवृक्षकम् ।
अष्टभिश्चन्दनवनं नवभिः
पूर्णचन्द्रकम् ।।४७।।
६ वर्ग के संयोग से केरल,
७ वर्ग के संयोग से कल्पवृक्ष, आठ वर्ग के संयोग
से चन्द्रवन, ९ वर्ग के संयोग से पूर्णचन्द्र ।। ४७ ।।
दिग्भिरुच्चैःश्रवा नाम
रुद्रैर्धन्वन्तरिर्भवेत् ।
सूर्यकान्तं भवेत्सूर्यैर्विश्वैः
स्याद्विद्रुमाह्वयम् ।।४८ ।।
दश वर्ग के संयोग से उच्चैःश्रवा,
ग्यारह वर्ग के संयोग से धन्वन्तरि, बारह वर्ग
के संयोग से सूर्यकान्त, तेरह वर्ग के संयोग से विद्रुम ।।
४८ ।।
शक्रसिंहासनं शक्रैर्गोलोकं
तिथिभिर्भवेत् ।
भूपैः श्रीवल्लभाख्यं
स्याद्वर्गभेदैरुदाहृता । । ४९ ।।
चौदह वर्ग के संयोग से सिंहासन,
पंद्रह वर्ग के संयोग से गोलोक और सोलह वर्ग के संयोग से श्रीवल्लभ
नाम होता है । । ४९ । ।
स्वोच्चमूलत्रिकोणस्वभवनाधिपतेः तथा
।
स्वारूढात्केन्द्रनाथानां वर्गां
ग्राह्या सुधीमता । । ५० ।।
जो ग्रह अपने उच्चराशि में,
अपने मूलत्रिकोण राशि में, अपने राशि में और
आरूढ़ लग्न से केन्द्रपतियों का वर्ग लेना चाहिये ।। ५० ।।
अस्तंगता ग्रहजिता नीचगा
दुर्बलास्तथा ।
शयनादिगतादुस्था उत्पन्ना योगनाशकाः
। । ५१ ।।
जो अस्त हों,
युद्ध में पराजित हों, अपने नीचराशि में हों,
दुर्बल हों, शयनादि दुष्ट अवस्था में हों तो
उनका वर्ग अशुभ होता है । । ५१ ।।
विशेष-
गृह,
होरा, द्रेष्काण, नवमांश,
द्वादशांश और त्रिंशांशक को षड्वर्ग कहते हैं। इनके साथ सप्तमांश को
मिला देने से सप्तवर्ग होता है और इसमें दशमांश, षोडशांश,
षष्ठांश को ले लेने से दशवर्ग होता - है, शेष
षोडशवर्ग होते हैं।
किंशुकादि सप्तवर्गजसंज्ञाबोधकचक्रम्-
२ |
३ |
४ |
५ |
६ |
७ |
किंशुक |
व्यंजन |
चामर |
छत्र |
कुंडल |
मुकुट |
पारिजातादि
दशवर्गजसंज्ञाबोधकचक्रम्-
२ |
३ |
४ |
५ |
६ |
७ |
८ |
९ |
१० |
पारिजात |
उत्तमम् |
गोपुरम् |
सिहासनम् |
पारावतम् |
देवलोक |
ब्रह्मलोक |
शक्रवाहनम् |
श्रीधाम |
षोडशवर्गजसंज्ञाबोधकचक्रम् ।
१ |
२ |
३ |
४ |
५ |
६ |
७ |
८ |
९ |
१० |
११ |
१२ |
१३ |
१४ |
१५ |
भेदकम् |
कुसुमख्यम् |
नागपुष्पम् |
कंदुकाख्यम् |
केरलाख्यम् |
कल्पवृक्षम् |
चदनवनम् |
पूर्णचक्रकम् |
उच्चैःश्रवा |
धन्वन्तरिः |
सूर्यकांतम् |
विद्रुमाख्यम् |
शक्रसिंहासनम् |
गोलोकम् |
श्रीवत्समाख्यम्
|
उदाहरण- पूर्वोक्त उदाहरणों में लग्न सप्तवर्गों में २ वर्ग में है, अतः किंशुक संज्ञा हुई। दशवर्ग के अनुसार २ वर्ग में है, अतः पारिजात संज्ञा में है और षोडशवर्ग के अनुसार ४ वर्ग में है, अतः नागपुष्प संज्ञा हुई। इसी प्रकार प्रत्येक ग्रहों की संज्ञायें बनानी चाहिए ।
इति पाराशरहोरायां पूर्वखण्डे
सुबोधिन्यां पञ्चमः ।।५।।
आगे जारी............. बृहत्पाराशरहोराशास्त्र अध्याय 6
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