मनुस्मृति आठवाँ अध्याय
मनुस्मृति आठवाँ अध्याय के भाग-२ श्लोक १७९ से ३०१ में निक्षेप धरोहर अमानत रखना,
नौकर का वेतन,
प्रतिज्ञा भंग,
सीमा सरहद का
निर्णय, कठोर वचन- गाली आदि का निर्णय,
दण्डपारुष्य-मार
पीट का निर्णय का वर्णन किया गया है।
मनुस्मृति अध्याय ८
Manu smriti chapter 8
मनुस्मृति आठवाँ अध्याय
॥ श्री हरि ॥
॥ मनुस्मृति ॥
मनुस्मृति अष्टमोऽध्यायः
॥अथ
अष्टमोऽध्यायः ॥
मनुस्मृति
अध्याय ८ - निक्षेप धरोहर अमानत रखना
कुलजे
वृत्तसम्पन्ने धर्मज्ञे सत्यवादिनि ।
महापक्षे
धनिन्यार्ये निक्षेपं निक्षिपेद् बुधः ॥ ॥ १७९ ॥
यो यथा
निक्षिपेद्द हस्ते यमर्थं यस्य मानवः ।
स तथैव
ग्रहीतव्यो यथा दायस्तथा ग्रहः ॥ ॥ १८० ॥
यो निक्षेपं
याच्यमानो निक्षेप्तुर्न प्रयच्छति ।
स याच्यः
प्राड्विवाकेन तत्त्रिक्षेप्तुरसंनिधौ ॥ ॥१८२॥
साक्ष्यभावे
प्रणिधिभिर्वयोरूपसमन्वितैः ।
अपदेशैश्च
संन्यस्य हिरण्यं तस्य तत्त्वतः ॥ ॥ १८२ ॥
स यदि
प्रतिपद्येत यथान्यस्तं यथाकृतम् ।
न तत्र
विद्यते किं चिद् यत् परैरभियुज्यते ॥ ॥ १८३ ॥
कुलीन,
सदाचार, धर्मज्ञ, सत्यवादी, कुटुम्बी, धनी और प्रतिष्ठित पुरुष के पास निक्षेप-धरोहर रखना चाहिए।
जो मनुष्य जिसके यहां जो द्रव्य जिस प्रकार रक्खें, उसको उसी प्रकार लेना उचित है। क्योंकि जैसा देना,
वैसा लेना । जो धरोहर रखने वाले की वस्तु मांगने पर नहीं
देता,
उससे न्यायकर्ता राज पुरुष रखनेवाले के पीछे मांगे। धरोहर
के समय साक्षी न हो, तो राजा किसी वृद्ध - प्रामाणिक कर्मचारी से कुछ वस्तु किसी
बहाने से उसके यहीं रखवाना चाहिए और थोड़े ही दिन में ही लौटा लेना चाहिए। यदि वह
राजकर्मचारी अपनी रक्खी वस्तु ठीक ठीक मांगने पर वापिस पा जाएँ तो जो धरोहर न पाने
की नालिश करे उसको झूठा समझना चाहिए ॥१७६-१८३॥
तेषां न
दद्याद् यदि तु तद् हिरण्यं यथाविधि ।
उभौ निगृह्य
दाप्यः स्यादिति धर्मस्य धारणा ॥ ॥ १८४ ॥
निक्षेपोपनिधी
नित्यं न देयौ प्रत्यनन्तरे ।
नश्यतो
विनिपाते तावनिपाते त्वनाशिनौ ॥ ॥१८५॥
स्वयमेव तु यौ
दद्यान मृतस्य प्रत्यनन्तरे ।
न स
राज्ञाऽभियोक्तव्यो न निक्षेप्तुश्च बन्धुभिः ॥ ॥१८६॥
अच्छलेनैव
चान्विच्छेत् तमर्थं प्रीतिपूर्वकम् ।
विचार्य तस्य
वा वृत्तं साम्नैव परिसाधयेत् ॥ ॥ १८७॥
निक्षेपेष्वेषु
सर्वेषु विधिः स्यात् परिसाधने ।
समुद्रे
नाप्नुयात् किं चिद् यदि तस्मान्न संहरेत् ॥ ॥१८८॥
चौरैर्हृतं
जलेनोढमग्निना दग्धमेव वा ।
न दद्याद् यदि
तस्मात् स न संहरति किं चन ॥ ॥ १८९ ॥
निक्षेपस्यापहर्तारमनिक्षेप्तारमेव
च ।
सर्वैरुपायैरन्विच्छेत्शपथैश्चैव
वैदिकैः ॥ ॥ १९० ॥
यो निक्षेपं
नार्पयति यश्चानिक्षिप्य याचते ।
तावुभौ
चौरवत्शास्यौ दाप्यौ वा तत्समं दमम् ॥ ॥१९१॥
और यदि वह उस
वस्तु को उचित अवस्था में वापस न करे तो राजा को उसे पकड़कर दोनों की धरोहर वापस
दिलवानी चाहिए, यही धर्मनिर्णय है। खुली या मुहर लगी धरोहर या मांग वस्तु रखने वाले की वस्तु
उसके वारिस को नहीं देनी चाहिए, क्योंकि रखनेवाले की मृत्यु होने से धरोहर नष्ट हो जाती हैं
परन्तु मनुष्य के जीवित रहते अविनाशी रहती है। धरोहर रखनेवाले की मृत्यु होने पर,
यदि महाजन खुशी से उसके वारिसों को धरोहर वापस देना स्वीकार
कर ले,
तो कम देने का दावा वारिस अथवा राजा को नहीं करना चाहिए। उस
धन को प्रसन्नता से कम ज्यादा का कपट छोड़कर, स्वीकार कर लेना चाहिए । यह उन सभी धरोहरों का नियम है। जो
कि बिना मुहर रखी गई है और मुहरवाली में कोई शक नहीं होता । अमानत की वस्तु को चोर
चुरा कर ले जाए, जल में बह जाए, आग में जल जाए और यदि महाजन ने उसमें से कुछ न लिया हो,
तो वापस नहीं देनी पड़ती। जो धरोहर न लौटाये अथवा जो बिना
रखे ही कपट से मांगे उन दोनों का साम आदि उपाय और वैदिक शपथ से राजा को निर्णय
करना चाहिए। जो धरोहर नहीं देता, या जो बिना रक्खे ही मांगता हैं,
उन दोनों को चोर के समान ही दण्ड देना चाहिए और धरोहर के
समान दण्ड लगाना चाहिए ॥१८४-१९१॥
निक्षेपस्यापहर्तारं
तत्समं दापयेद् दमम् ।
तथोपनिधिहर्तारमविशेषेण
पार्थिवः ॥ ॥ १९२॥
उपधाभिश्च यः
कश्चित् परद्रव्यं हरेन्नरः ।
ससहायः स
हन्तव्यः प्रकाशं विविधैर्वधैः ॥ ॥ १९३॥
निक्षेपो यः
कृतो येन यावांश्च कुलसंनिधौ ।
तावानेव स
विज्ञेयो विब्रुवन् दण्डमर्हति ॥ ॥ १९४ ॥
मिथो दायः
कृतो येन गृहीतो मिथ एव वा ।
मिथ एव
प्रदातव्यो यथा दायस्तथा ग्रहः ॥ १९५ ॥
निक्षिप्तस्य
धनस्यैवं प्रीत्योपनिहितस्य च ।
राजा
विनिर्णयं कुर्यादक्षिण्वन्न्यासधारिणम् ॥ ॥ १९६ ॥
धरोहर और
उपनिधि हरण करने वालों को भी राजा को यही दण्ड देना चाहिए। छल,
कपट करके पराया धन हरने वालों को उनके मददगारों के साथ सबके
सामने अनेक पीड़ादायक दण्ड देने चाहिए। गवाहों के सामने जितना धरोहर हो उतना
स्वीकार करने से बाद झगडा करनेवाला दण्डनीय होता है। जिसने एकान्त में धरोहर रखी
और एकान्त में ली हो, वह एकान्त में ही देना चाहिए। जैसे लेन वैसा देन । धरोहर और
प्रेम से भोगार्थ दिए धन का फैसला ऐसा करना चाहिए, जिसमें धरोहर रखने वाले को कोई दुःख न पहुँचे ॥१९२-१९६॥
विक्रीणीते
परस्य स्वं योऽस्वामी स्वाम्यसंमतः ।
न तं नयेत
साक्ष्यं तु स्तेनमस्तेनमानिनम् ॥ ॥ १९७ ॥
अवहार्यो
भवेत्चैव सान्वयः षट्शतं दमम् ।
निरन्वयोऽनपसरः
प्राप्तः स्याच्चौरकिल्बिषम् ॥ ॥ १९८ ॥
अस्वामिना
कृतो यस्तु दायो विक्रय एव वा ।
अकृतः स तु
विज्ञेयो व्यवहारे यथा स्थितिः ॥ ॥ १९९ ॥
दूसरे की
वस्तु जिसने बिना स्वामी की आज्ञा से बेची हो उस चोर व साहूकार को बिना गवाह चोर
की भांति दण्ड देना चाहिए। दूसरे की वस्तु बेचनेवाला,
यदि उस धन के मालिक के वंश में हो तो छः पण दण्ड दे और
सम्बन्धी या बेचने का अधिकार न रखता हो तो चोर के समान अपराधी समझ के दण्ड देने
योग्य है। इस प्रकार बिनास्वामी की आज्ञा, बेचा या दिया हुआ कोई पदार्थ अवैध है। यही धर्मशास्त्र की
मर्यादा है ॥१९७-१९९॥
संभोगो
दृश्यते यत्र न दृश्येतागमः क्व चित् ।
आगमः कारणं
तत्र न संभोग इति स्थितिः ॥ ॥ २०० ॥
विक्रयादयो
धनं किं चिद् गृह्णीयात् कुलसंनिधौ ।
क्रयेण स
विशुद्धं हि न्यायतो लभते धनम् ॥ ॥ २०१ ॥
अथ
मूलमनाहार्यं प्रकाशक्रयशोधितः ।
अदण्ड्यो
मुच्यते राज्ञा नाष्टिको लभते धनम् ॥ ॥ २०२ ॥
नान्यदन्येन
संसृष्टरूपं विक्रयमर्हति ।
न चासारं न च
न्यूनं न दूरेण तिरोहितम् ॥ ॥२०३॥
जिसको कोई
वस्तु भोगते देखे पर खरीदते न देखा हो तो दूसरे का खरीद का लेख आदि प्रमाण होगा।
भोग प्रमाण न होगा। यह व्यवहार की मर्यादा हैं । जो बिकती वस्तु को खरीदे और पीछे
कोई झगडा शुरू हो जाए तो खरीदार को निर्दोष समझना चाहिए और उसको वह वस्तु मिलनी
चाहिए। माल का मालिक से होकर बेचनेवाले को यदि खरीदनेवाला साबित न कर सके पर
बहुतों के सामने खरीदना साबित कर दे तो दण्ड योग्य नहीं है और उस खोई वस्तु को
उसका स्वामी वापस ले सकता है। एक वस्तु दूसरी के रूप में मिलती हो तो उसको दूसरे
के धोखे में बेचना ठीक नहीं है। और सड़ी, तौल में कम, बिना दिखलाये, अच्छी वस्तु के नीचे खराब ढककर बेचना अनुचित है ॥२००-२०३॥
अन्यां चेद्
दर्शयित्वाऽन्या वोढुः कन्या प्रदीयते ।
उभेत
एकशुल्केन वदित्यब्रवीन् मनुः ॥ ॥२०४॥
नोन्मत्ताया न
कुष्ठिन्या न च या स्पृष्टमैथुना ।
पूर्वं
दोषानभिख्याप्य प्रदाता दण्डमर्हति ॥ ॥ २०५ ॥
ऋत्विग् यदि
वृतो यज्ञे स्वकर्म परिहापयेत् ।
तस्य
कर्मानुरूपेण देयोंशः सहकर्तृभिः ॥ ॥ २०६ ॥
दक्षिणासु च
दत्तासु स्वकर्म परिहापयन् ।
कृत्स्नमेव
लभेतांशमन्येनैव च कारयेत् ॥ ॥ २०७ ॥
एक कन्या
दिखाकर दूसरी किसी और का विवाह कर दे तो दोनों का एक ही मूल्य में विवाह कर लिया
जाए मनु की आज्ञा हैं । पागल, कोढ़िन, किसी से भुक्त हो तो न बतलाने से कन्यादान वाला दण्ड योग्य
होता है। यज्ञ में वरण किया हुआ ऋत्विक किसी कारण से अपना कर्म न पूरा कर सके तो
दूसरों के साथ में उसको भी कर्मानुसार दक्षिणा देनी चाहिए। समस्त दक्षिणा दे दी गई
हो और ऋत्विक रोगावश कर्म छोड़ दे तो दूसरे से पूरा करा लेना चाहिए। ॥२०४ -२०७॥
यस्मिन्
कर्मणि यास्तु स्युरुक्ताः प्रत्यङ्गदक्षिणाः ।
स एव ता आददीत
भजेरन् सर्व एव वा ॥ ॥ २०८ ॥
रथं हरेत्
चाध्वर्युर्ब्रह्माऽधाने च वाजिनम् ।
होता वाऽपि
हरेदश्वमुद्गाता चाप्यनः क्रये ॥ ॥ २०९ ॥
सर्वेषामर्धनो
मुख्यास्तदर्धेनार्धिनोऽपरे ।
तृतीयिनस्तृतीयांशाश्चतुर्थांशाश्च
पादिनः ॥ ॥ २१० ॥
संभूय स्वानि
कर्माणि कुर्वद्भिरिह मानवैः ।
अनेन
विधियोगेन कर्तव्यांशप्रकल्पना ॥ २११ ॥
आधान आदि
कर्मों के जिन अंगों की जो दक्षिणा हो उनको कर्म कराने वाले को अलग अलग लें अथवा
बाँट लेना चाहिए। आधान में रथ अध्वर्यु घोड़ी ब्रह्मा या होता को लेना चाहिए और
सोम खरीदकर गाड़ी में आया हो तो गाड़ी उद्गाता को लेनी चाहिए। यज्ञ के सोलह
ऋत्विजों में होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा ये चार मुख्य ऋत्विक पूर्ण दक्षिणा में
आधी के अधिकारी हैं - उनको ४८ गौ देवै । दूसरे मैत्रावरुण आदि चार को उसका आधा- २४
गौ,
तीसरे अच्छा वाक् आदि चार को तृतीयांश १६ गौ और चौथे
ग्रांवस्तुत आदि को चतुथांश - १२ देना चाहिए। इस प्रकार सोलह ऋत्विक मिलकर कर्म
करें तो अपना अपना भाग बाँट लें ॥२०८-२११॥
धर्मार्थं येन
दत्तं स्यात् कस्मै चिद् याचते धनम् ।
पश्चाच्च न
तथा तत् स्यान्न देयं तस्य तद् भवेत् ॥ ॥ २१२ ॥
यदि संसाधयेत्
तत् तु दर्पात्लोभेन वा पुनः ।
राज्ञा दाप्यः
सुवर्णं स्यात् तस्य स्तेयस्य निष्कृतिः ॥ ॥२१३॥
दत्तस्यैषौदिता
धर्म्या यथावदनपक्रिया ।
अत ऊर्ध्वं
प्रवक्ष्यामि वेतनस्यानपक्रियाम् ॥ ॥ २१४॥
किस याचक को
धर्मार्थ किसी ने कुछ देना को कहा हो पर वह कर्म न करे तो उसको प्रतिज्ञात धन नहीं
देना चाहिए। जो याचक गर्व अथवा लोभ से उस धन का दावा करें तो राजा चोर मान कर एक
सुवर्ण उस पर जुर्माना करें। इस प्रकार दिये धन को लौटाने का निर्णय धर्मानुसार
किया है। अब नौकर को वेतन न देने का निर्णय कहा जायगा ॥२१२-२१४॥
मनुस्मृति
अध्याय ८ - नौकर का वेतन
भृतो नार्तो न
कुर्याद् यो दर्पात् कर्म यथोदितम् ।
स दण्ड्यः
कृष्णलान्यष्टौ न देयं चास्य वेतनम् ॥ ॥ २१५ ॥
नौकर बिना बीमारी
के घमंड से सम्मति के अनुसार काम न करे तो उसपर आठ कृष्णल जुर्माना करना चाहिए और
वेतन नहीं देना चाहिए ॥ २१५ ॥
आर्तस्तु
कुर्यात् स्वस्थः सन् यथाभाषितमादितः ।
स दीर्घस्यापि
कालस्य तत्लभेतेव वेतनम् ॥ ॥ २१६ ॥
यथोक्तमार्तः
सुस्थो वा यस्तत् कर्म न कारयेत् ।
न तस्य वेतनं
देयमल्पोनस्यापि कर्मणः ॥ ॥ २१७ ॥
एष
धर्मोऽखिलेनोक्तो वेतनादानकर्मणः ।
अत ऊर्ध्वं
प्रवक्ष्यामि धर्मं समयभेदिनाम् ॥ ॥२१८॥
परन्तु जो
बीमार हो और नीरोग होकर सम्मति के अनुसार काम करे तो यदि वह अधिक दिन बीमार रहा हो
तब भी उसको वेतन देना चाहिए। स्वयं रोगी हो अथवा नीरोग यदि वह सम्मति दिए हुए
कार्य को न करे अथवा दुसरे से न करवा दे तो उसको वेतन नहीं देना चाहिए। यह
धर्मानुसार वेतन न देने का निर्णय कहा है। अब प्रतिज्ञाभङ्ग करनेवालों का निर्णय
किया जायगा ॥२१५-२१८॥
मनुस्मृति
अध्याय ८ - प्रतिज्ञा भंग
यो ग्रामदेशसङ्घानां
कृत्वा सत्येन संविदम् ।
विसंवदेन्नरो
लोभात् तं राष्ट्राद् विप्रवासयेत् ॥ ॥ २१९ ॥
निगृह्य
दापयेच्चैनं समयव्यभिचारिणम् ।
चतुः
सुवर्णान् षनिष्कांश्शतमानं च राजकम् ॥ ॥ २२० ॥
एतद्
दण्डविधिं कुर्याद् धार्मिकः पृथिवीपतिः ।
ग्रामजातिसमूहेषु
समयव्यभिचारिणाम् ॥ ॥२२१॥
जो मनुष्य
गाँव अथवा देश के लोगों से किसी काम के लिए सत्यप्रतिज्ञा करके लोभ से उसको छोड़
दे तो राजा उसको राज्य से निकाला दे देना चाहिए और उस नियम भंग करनेवाले को पकड़कर
चार निष्क अथवा छः स्वर्ण या एक चांदी का शतमान दण्ड करना चाहिए। धार्मिक राजा
गाँव या जातिमण्डल में प्रतिज्ञा भंग करनेवाले को भी इसी प्रकार दण्ड करना चाहिए
॥२१९-२२१॥
क्रीत्वा
विक्रीय वा किं चिद् यस्यैहानुशयो भवेत् ।
सोऽन्तर्दशाहात्
तद् द्रव्यं दद्याच्चैवाददीत वा ॥ ॥ २२२ ॥
परेण तु
दशाहस्य न दद्यान्नापि दापयेत् ।
आददानो ददत्
चैव राज्ञा दण्ड्यौ शतानि षट् ॥ ॥२२३॥
किसी वस्तु को
खरीद अथवा बेचकर जिसे पसंद न हो वह दस दिन के भीतर ही उसको वापस कर देना चाहिए
अथवा वापस ले लेना चाहिए। परन्तु दस दिन के बाद न तो वापस करना चाहिए और न ही किसी
और से करवाना चाहिए क्योंकि समय भंग करने से ६०० पण दण्ड योग्य होता है ॥२२२-२२३॥
यस्तु दोषवतीं
कन्यामनाख्याय प्रयच्छति ।
तस्य
कुर्यान्नृपो दण्डं स्वयं षण्णवतिं पणान् ॥ ॥ २२४ ॥
अकन्येति तु
यः कन्यां ब्रूयाद् द्वेषेण मानवः ।
स शतं
प्राप्नुयाद् दण्डं तस्या दोषमदर्शयन् ॥ ॥२२५॥
पाणिग्रहणिका
मन्त्राः कन्यास्वेव प्रतिष्ठिताः ।
नाकन्यासु क्व
चिन्नृणां लुप्तधर्मक्रिया हि ताः ॥ ॥२२६॥
पाणिग्रहणिका
मन्त्रा नियतं दारलक्षणम् ।
तेषां निष्ठा
तु विज्ञेया विद्वद्भिः सप्तमे पदे ॥ ॥ २२७ ॥
यस्मिन्
यस्मिन् कृते कार्ये यस्येहानुशयो भवेत् ।
तमनेन विधानेन
धर्म्ये पथि निवेशयेत् ॥ ॥ २२८ ॥
जो पुरुष
दोषवाली कन्या के दोष बताये बिना उसका विवाह कर दे उस पर राजा को ९६ पण दण्ड करना
चाहिए। किसी कोई मनुष्य ईर्षा से कन्या में दोष लगाये पर उसको सिद्ध नहीं कर पाए
तो उस पर एक सौ १०० पण दण्ड करना चाहिए। विवाहसम्वन्धी वैदिक मन्त्र कन्याओं के
लिए ही कहे हैं। जो कन्या नहीं हैं उनके लिए इन वैदिक मन्त्रों का उच्चारण नहीं
करना चाहिए क्योंकि उनके कन्यापन तो समाप्त हो जाता है। विवाह के मन्त्र कन्या में
स्त्रीत्व लाते हैं और उन मन्त्र की समाप्ति सप्तपदी हो जाने पर होती है- ऐसा
धर्मशास्त्रियों का निर्णय है। इस जगत् में जिस जिस काम के करने पर बाद में पछतावा
हो उसका निर्णय आगे कही रीति से राजा को करना चाहिए ॥२२४-२२८॥
पशुषु
स्वामिनां चैव पालानां च व्यतिक्रमे ।
विवादं
सम्प्रवक्ष्यामि यथावद् धर्मतत्त्वतः ॥ ॥ २२९ ॥
दिवा वक्तव्यता
पाले रात्रौ स्वामिनि तद्गृहे ।
योगक्षेमेऽन्यथा
चेत् तु पालो वक्तव्यतामियात् ॥ ॥ २३० ॥
गोपः
क्षीरभृतो यस्तु स दुह्याद् दशतो वराम् ।
गोस्वाम्यनुमते
भृत्यः सा स्यात् पालेऽभृते भृतिः ॥ ॥२३१॥
पशु के मालिक
और चरवाहे में प्रतिज्ञाभंग होने पर इस प्रकार निर्णय करे- पशुओं की रक्षा का भार
दिन में चरवाहे और रात में उनके स्वामी पर है और चारे की कमी होने पर चरवाहा
उत्तरदायी होता है। जो चरवाहा दूध मात्र का वेतन पाता हो वह स्वामी की आज्ञा से दस
गौओं में जो उत्तम हो उसको दुह कर ले जा सकता है। यह बिना वेतन के चरवाहे का वेतन
है ।।२२६-२३१।।
नष्टं विनष्टं
कृमिभिः श्वहतं विषमे मृतम् ।
हीनं
पुरुषकारेण प्रदद्यात् पाल एव तु ॥ ॥२३२॥
विघुष्य तु
हृतं चौरैर्न पालो दातुमर्हति ।
यदि देशे च
काले च स्वामिनः स्वस्य शंसति ॥ ॥ २३३ ॥
कर्णौ चर्म च
वालांश्च बस्तिं स्नायुं च रोचनाम् ।
पशुषु
स्वामिनां दद्यान् मृतेष्वङ्कानि दर्शयेत् ॥ ॥२३४॥
अजाविके तु
संरुद्धे वृकैः पाले त्वनायति ।
यां प्रसह्य
वृको हन्यात् पाले तत् किल्बिषं भवेत् ॥ ॥ २३५॥
तासां
चेदवरुद्धानां चरन्तीनां मिथो वने ।
यामुत्प्लुत्य
वृको हन्यान्न पालस्तत्र किल्बिषी ॥२३६ ॥
जो पशु खो जाय,
कीड़े पड़कर मर जाए, कुत्तों से मारा जाए, गड्ढे में गिरकर मर जाए, चरवाहे की असावधानी से उसे चोर ले जायँ तो उसको चरवाहे को
मालिक को दे देना चाहिए। जो चोर हमला करके कोई पशु ले जायें और चरवाहा उसका ठीक
ठीक वृतांत समय पर उसके स्वामी को बता दे तो चरवाहा दण्ड का भागी नहीं होगा। यदि
पशु स्वयं मर जाय तो चरवाहे को उसके कान, चमड़ा, बाल, वस्ति, स्नायु और रोचना इत्यादि कोई अङ्ग स्वामी को दे देना चाहिए।
बकरी और भेड़ को भेड़िया घेर ले और चरवाहा उनको छोड़कर भाग जाए तो भेड़िया जिसको
मारेगा उसका पातक चरवाहे को लगेगा और यदि बकरी, भेड़ को चरवाके ने घेर रक्खा हो और अचानक भेड़िया आकर मार
डाले तो उसका पातकी चरवाहा नहीं होगा ॥२३२-२३६॥
धनुः शतं
परीहारो ग्रामस्य स्यात् समन्ततः ।
शम्यापातास्त्रयो
वाऽपि त्रिगुणो नगरस्य तु ॥२३७॥
तत्रापरिवृतं
धान्यं विहिंस्युः पशवो यदि ।
न तत्र
प्रणयेद् दण्डं नृपतिः पशुरक्षिणाम् ॥ ॥ २३८ ॥
गाँव के चारों
तरफ़ चार सौ हाथ या तीन लकड़ी फेंकने पर जितनी दूर गिरे वहां तक और नगर के आसपास
उसकी तिगुनी भूमि पशुओं के लिए छोड़ना रखना उचित है, इस भूमि को 'परिहार' कहते हैं । उस भूमि में बाड़ न होने से उसमे उगा अन्न यदि
कोई पशु खा ले तो राजा को चरवाहे को दण्ड नहीं देना चाहिए ॥२३७-२३८॥
वृतिं तत्र
प्रकुर्वीत यामुतो न विलोकयेत् ।
छिद्रं च
वारयेत् सर्वं श्वसूकरमुखानुगम् ॥ ॥२३९॥
सपालः
शतदण्डार्हो विपालान् वारयेत् पशून् ॥ ॥ २४० ॥
पथि क्षेत्रे
परिवृते ग्रामान्तीयेऽथ वा पुनः ।
क्षेत्रेष्वन्येषु
तु पशुः सपादं पणमर्हति ।
सर्वत्र तु
सदो देयः क्षेत्रिकस्यैति धारणा ॥ ॥ २४९ ॥
अनिर्दशाहां
गां सूतां वृषान् देवपशूंस्तथा ।
सपालान् वा
विपालान् वा न दण्ड्यान् मनुरब्रवीत् ॥ ॥ २४२ ॥
क्षेत्रियस्यात्यये
दण्डो भागाद् दशगुणो भवेत् ।
ततोऽर्धदण्डो
भृत्यानामज्ञानात् क्षेत्रिकस्य तु ॥ ॥ २४३ ॥
एतद्
विधानमातिष्ठेद् धार्मिकः पृथिवीपतिः ।
स्वा मिनां च
पशूनां च पालानां च व्यतिक्रमे ॥ ॥ २४४ ॥
उस भूमि के
बचाने के लिए इतनी ऊंची बाड़ करनी चाहिए जिसमें ऊंट न देख सकें और छोटे छेदों को
बंद कर दें जिसमें सुअर, कुत्ता इत्यादि अपना मुंह अन्दर न घुसा सकें। गाँव के या
रास्ते के पास बाड़ से घिरे खेतों का अन्न यदि पशु खाले तो चरवाहे पर सौ पण दंड
करना चाहिए और बिना चरवाहे के पशुओं को हाँक देना चाहिए। दूसरे के खेतों में यदि
पशु हानि करे तो चरवाहे पर सवा पण दण्ड करना चाहिए और खेत के स्वामी की जितनी हानि
हुई हो उतनी खेत के मालिक को हर हालत में देना ही चाहिए। दस दिन के भीतर की ब्याई
गौ,
सांड़ और देवार्पण करके छोड़े हुए पशु यदि खेत खाले चाहे
चरवाहा साथ हो अथवा न या न हो, दण्ड नहीं हो सकता - यह मनु जी की आज्ञा हैं। यदि खेतवाले
ही के पशु खेत चर जाएँ तो राजा हानि से दस गुना दण्ड करे और यदि यह हलवालों की भूल
से हुआ हो तो इसका आधा दण्ड करना चाहिए। इस प्रकार पशुओं के स्वामी,
पशु और चरवाहे के अपराध होने पर धार्मिक राजा न्याय करे
॥२३९-२४४॥
मनुस्मृति
अध्याय ८ - सीमा-सरहद का निर्णय
सीमां प्रति
समुत्पन्ने विवादे ग्रामयोर्द्वयोः ।
ज्येष्ठे मासि
नयेत् सीमां सुप्रकाशेषु सेतुषु ॥ ॥ २४५ ॥
सीमावृक्षांश्च
कुर्वीत न्यग्रोधाश्वत्थकिंशुकान् ।
शाल्मलीन्
सालतालांश्च क्षीरिणश्चैव पादपान् ॥ ॥ २४६ ॥
यदि दो गाँव
की सीमा का झगड़ा उठे तो जेठ मास में, जब समस्त जमीन साफ़ हो जाए तब उसका निश्चय करना चाहिए। सीमा
जानने के लिए बड़, पीपल, ढाक, सॅमर, साल, ताल और अन्य दूधवाले कोई वृक्ष स्थापित करे ॥२४५-२४६॥
गुल्मान्
वेणूंश्च विविधान् शमीवल्लीस्थलानि च ।
शरान्
कुब्जकगुल्मांश्च तथा सीमा न नश्यति ॥ ॥ २४७ ॥
तडागान्युदपानानि
वाप्यः प्रस्रवणानि च ।
सीमासंधिषु
कार्याणि देवतायतनानि च ॥ ॥ २४८ ॥
उपछन्नानि
चान्यानि सीमालिङ्गानि कारयेत् ।
सीमाज्ञाने
नृणां वीक्ष्य नित्यं लोके विपर्ययम् ॥ ॥ २४९ ॥
अश्मनोऽस्थीनि
गोवालांस्तुषान् भस्म कपालिकाः ।
करीषमिष्टकाऽङ्गारां
शर्करा वालुकास्तथा ॥ ॥ २५० ॥
यानि
चैवंप्रकाराणि कालाद् भूमिर्न भक्षयेत् ।
तानि संधिषु
सीमायामप्रकाशानि कारयेत् ॥ ॥ २५१॥
एतैर्लिङ्गैर्नयेत्
सीमां राजा विवदमानयोः ।
पूर्वभुक्त्या
च सततमुदकस्यागमेन च ॥ ॥ २५२ ॥
गुल्म,
बांस, शमी, लता, रामशर, कुञ्जक की वेल इत्यादि स्थापित करनी चाहिए जिससे सीमा नष्ट
न हो पाए। तालाव, कुआं, बावड़ी, झरना, देव मन्दिर सीमा के मेल पर बनवाने चाहिए। सीमा निर्णय के
लिए इस लोक मे मनुष्यों के भ्रम को देख कर उसको जानने के लिए छिपा चिह्न भी
स्थापित करना चाहिए। पत्थर, हड्डी, गौ के बाल, भूसी, राख, ठीकरा, सूखा गोबर, ईंट, कोयला, रोड़ा, रेत आदि वस्तु को जो बहुत दिनों तक जमीन में छिपाने योग्य
हो उनको सीमा के नीचे गुप्त रूप से रख देना चाहिए। राजा को इन चिह्नों से तत्थ
पूर्व भोग से, नदी आदि जल मार्ग से, सीमा का निर्णय करना चाहिए ॥२४७-२५२॥
यदि संशयएव
स्याल्लिङ्गानामपि दर्शने ।
साक्षिप्रत्यय
एव स्यात् सीमावादविनिर्णयः ॥ ॥ २५३॥
ग्रामीयककुलानां
च समक्षं सीम्नि साक्षिणः ।
प्र ष्टव्याः
सीमलिङ्गानि तयोश्चैव विवादिनोः ॥ ॥ २५४ ॥
चिह्नों के
देखने पर भी अगर कोई संदेह हो तो साक्षी गवाह के विश्वास पर निर्णय करना चाहिए।
वादी,
प्रतिवादी, गाँव के कुलीन पंचों के सामने सीमा के चिन्ह पूछने चाहिए और
उसी के अनुसार फैसला करना चाहिए ॥२५३-२५४॥
पृष्तास्तु
यथा ब्रूयुः समस्ताः सीम्नि निश्चयम् ।
निबध्नीयात्
तथा सीमां सर्वांस्तांश्चैव नामतः ॥ ॥ २५५ ॥
शिरोभिस्ते
गृहीत्वोर्वी स्रग्विणो रक्तवाससः ।
सुकृतैः
शापिताः स्वैः स्वैर्नयेयुस्ते समञ्जसम् ॥ ॥ २५६ ॥
यथोक्तेन
नयन्तस्ते पूयन्ते सत्यसाक्षिणः ।
विपरीतं
नयन्तस्तु दाप्याः स्युर्द्विशतं दमम् ॥ ॥ २५७॥
साक्ष्यभावे
तु चत्वारो ग्रामाः सामन्तवासिनः ।
सीमाविनिर्णयं
कुर्युः प्रयता राजसंनिधौ ॥ ॥ २५८ ॥
सामन्तानामभावे
तु मौलानां सीनि साक्षिणाम् ।
इमानप्यनुयुञ्जीत
पुरुषान् वनगोचरान् ॥ ॥ २५९ ॥
व्याधांशाकुनिकान्
गोपान् कैवर्तान् मूलखानकान् ।
व्यालग्राहानुञ्छवृत्तीनन्यांश्च
वनचारिणः ॥ ॥ २६० ॥
पृष्टास्तु
यथा ब्रूयुः सीमासंधिषु लक्षणम् ।
तत् तथा
स्थापयेद् राजा धर्मेण ग्रामयोर्द्वयोः ॥ ॥२६१ ॥
यह लोग पूछने
पर जैसा कहें उसके अनुसार सीमा का निर्णय करके उन पञ्चों और साक्षियों का नां लिख
लेना चाहिए। उन साक्षियों को लाल फूलों की माला, लाल वस्त्र पहनकर सिर पर मिट्टी का ढेला रखकर अपने अपने
पुण्य की शपथ खाकर उचित बात कहनी चाहिए। वह सत्य साक्षी यथार्थ निर्णय करने के
कारण निष्पाप होते हैं और असत्य निर्णय करें तो उन पर दो सौ पण दण्ड करना चाहिए।
यदि साक्षियों का अभाव हो तो आसपास के चार ज़मींदारों धर्म से राजा के सामने सीमा
का निर्णय करना चाहिए। यदि जमींदार और गांव के पुराने वासी सीमा के साक्षी न मिले
तो वन में रहनेवाले मनुष्यों से पूछ लेना चाहिए। व्याध,
चिड़ीमार, ग्वाल, मछुए, जड़ खोदनेवाले, कना बीनकर जीनेवाले आदि मनुष्यों से सच बाते निश्चित करनी
चाहिए। वह लोग जिस प्रकार कहें उसी प्रकार राजा को दो गावों के बीच सीमा की
स्थापना करनी चाहिए ॥२५५-२६१॥
क्षेत्रकूपतडागानामारामस्य
गृहस्य च ।
सामन्तप्रत्ययो
ज्ञेयः सीमासेतुविनिर्णयः ॥ ॥ २६२ ॥
खेत,
कुआं, तालाब, बगीचा और घरों की सीमा का निर्णय आसपास के गवाहों से करना
चाहिए ॥ २६२ ॥
सामन्ताश्चेत्मृषा
ब्रूयुः सेतो विवादतां नृणाम् ।
सर्वे पृथक्
पृथग्दण्ड्याराज्ञा मध्यमसाहसम् ॥ ॥२६३॥
गृहं
तडागमारामं क्षेत्र वा भीषया हरन् ।
शतानि पञ्च
दण्ड्यः स्यादज्ञानाद् द्विशतो दमः ॥ २६४ ॥
सीमायामविषह्यायां
स्वयं राजैव धर्मवित् ।
प्रदिशेद्
भूमिमेकेषामुपकारादिति स्थितिः ॥ ॥२६५॥
एषोऽखिलेनाभिहितो
धर्मः सीमाविनिर्णये ।
अत ऊर्ध्वं
प्रवक्ष्यामि वाक्पारुष्यविनिर्णयम् ॥ ॥ २६६ ॥
यदि सीमा के
झगड़े में पास के सामन्त झूठ बोलें तो हर एक को पांच पांच सौ पण दण्ड करना चाहिए।
घर,
तालाब, बगीचा या खेत को डर दिखा कर कोई छीनले तो पांच सौ पण उस पर
दण्ड़ करे और अज्ञानता में कब्ज़ा ले तो दो सौ पण दण्ड करना चाहिए। सीमा के निर्णय
का कोई भी उचित सबूत न मिले तो धर्मज्ञ राजा को स्वयं सीमा का निर्णय कर देना
चाहिए,
यही मर्यादा है इस प्रकार समस्त सीमा निर्णय का विपय कहा
गया है,
अब कठोर वचन का निर्णय कहा जायगा ॥२६३-२६६॥
मनुस्मृति
अध्याय ८ - कठोर वचन- गाली आदि का निर्णय
शतं
ब्राह्मणमाक्रुश्य क्षत्रियो दण्डमर्हति ।
वैश्योऽप्यर्धशतं
द्वे वा शूद्रस्तु वधमर्हति ॥ ॥ २६७ ॥
पञ्चाशद्
ब्राह्मणो दण्ड्यः क्षत्रियस्याभिशंसने ।
वैश्ये
स्यादर्धपञ्चाशत्शूद्रे द्वादशको दमः ॥ ॥ २६८ ॥
समवर्णे
द्विजातीनां द्वादशैव व्यतिक्रमे ।
वादेष्ववचनीयेषु
तदेव द्विगुणं भवेत् ॥ ॥ २६९ ॥
एकजातिर्द्विजातींस्तु
वाचा दारुणया क्षिपन् ।
जिह्वायाः
प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि सः ॥ ॥ २७० ॥
ब्राह्मण को
क्षत्रिय गाली दे तो सौ पण दण्ड करना चाहिए। वैश्यं को डेढ़ सौ या दो सौ पण दण्ड
करना चाहिए। शूद्र को तो पीटना ही उचित है। क्षत्रिय को ब्राह्मण गाली दे तो पचास
पण करना चाहिए। वैश्य को दे तो पच्चीस और शूद्र को गाली दे तो बारह पण दण्ड करना
चाहिए। द्विजाति अपने समान वर्ण को गाली दे तो बारह पण और गंदी गाली दे तो इसका
दुगना दण्ड करना चाहिए। कोई शूद्र, द्विजाति का कठोर वाणी से अपमान करे तो उसकी जीभ काट लेनी
चाहिए क्योंकि शुद्र निकृष्ट से पैदा हुआ है। ॥२६७-२७१॥
नामजातिग्रहं
त्वेषामभिद्रोहेण कुर्वतः ।
निक्षेप्योऽयोमयः
शङ्कुर्ज्वलन्नास्ये दशाङ्गुलः ॥ ॥२७१॥
धर्मोपदेशं
दर्पेण विप्राणामस्य कुर्वतः ।
तप्तमासेचयेत्
तैलं वक्त्रे श्रोत्रे च पार्थिवः ॥ ॥ २७२ ॥
श्रुतं देशं च
जातिं च कर्म शरीरमेव च ।
वितथेन
ब्रुवन् दर्पाद् दाप्यः स्याद् द्विशतं दमम् ॥ ॥ २७३॥
काणं वाऽप्यथ
वा खञ्जमन्यं वाऽपि तथाविधम् ।
तथ्येनापि
ब्रुवन् दाप्यो दण्डं कार्षापणावरम् ॥ ॥ २७४ ॥
मातरं पितरं
जायां भ्रातरं तनयं गुरुम् ।
आक्षारयंशतं
दाप्यः पन्थानं चाददद् गुरोः ॥ ॥ २७५ ॥
ब्राह्मणक्षत्रियाभ्यां
तु दण्डः कार्यो विजानता ।
ब्राह्मणे
साहसः पूर्वः क्षत्रिये त्वेव मध्यमः ॥ ॥ २७६ ॥
विट्
शूद्रयोरेवमेव स्वजातिं प्रति तत्त्वतः ।
छेदवर्जं
प्रणयनं दण्डस्यैति विनिश्चयः ॥ ॥ २७७॥
एष दण्डविधिः
प्रोक्तो वाक्पारुष्यस्य तत्त्वतः ।
अत ऊर्ध्वं
प्रवक्ष्यामि दण्डपारुष्यनिर्णयम् ॥ २७८॥
यदि नाम और
जाति को बोलकर द्वेष से शूद्र द्विजातियों को गाली दे तो उस शूद्र के मुख में
अग्नि में तपाई दस अंगुल की कील डालनी चाहिए। शुद्र, अभिमान से द्विजों को धर्मोपदेश करे तो राजा को उसके मुख और
कान में खौलता तेल डलवा देना चाहिए। यदि अभिमान से कहे कि तू वेद नहीं पढ़ा है,
अमुक देश का नहीं है, तेरी यह जाति नहीं है, तेरे संस्कार नहीं हुए हैं तो राजा को उस दो सौ पण दण्ड
करना चाहिए। काना, लूला अंधा आदि कोई अन्य भी इसी प्रकार अंगहीन हो,
उसको सच मे भी उसी दोष से पुकारने वाले पर एक कार्षण दण्ड
करना चाहिए। माता, पिता, स्त्री, भाई, पुत्र, गुरु को गाली देनेवाला और गुरु को मार्ग न छोड़नेवाला सौ पण
दण्ड पाने योग्य है । ब्राह्मण, क्षत्रिय आपस में गाली दें तो राजा ब्राह्मण पर २५० और
क्षत्रिय पर ५०० पण दण्ड करें। वैश्य शूद्र आपस में गाली दें तो वैश्य को साधारण
दण्ड और शुद्र की जीभ न काटकर कोई अन्य दूसरा दण्ड देना चाहिए। इस प्रकार कठोर वचन
का दण्ड निर्णय कहा गया है, अब मारपीट का दण्डनिर्णय कहा जायगा ॥ २७१-२७८ ॥
मनुस्मृति
अध्याय ८ – दण्डपारुष्य- मारपीट का निर्णय
येन केन
चिदङ्गेन हिंस्याच्चेत्श्रेष्ठमन्त्यजः ।
छेत्तव्यं तद्
तदेवास्य तन् मनोरनुशासनम् ॥ ॥ २७९ ॥
पाणिमुद्यम्य
दण्डं वा पाणिच्छेदनमर्हति ।
पादेन प्रहरन्
कोपात् पादच्छेदनमर्हति ॥ ॥ २८० ॥
सहासनमभिप्रेप्सुरुत्कृष्टस्यापकृष्टजः
।
कट्यां
कृताङ्को निर्वास्यः स्फिचं वाऽस्यावकर्तयेत् ॥ ॥२८१ ॥
अवनिष्ठीवतो
दर्पाद् द्वावोष्ठौ छेदयेन्नृपः ।
अवमूत्रयतो
मेढ्रमवशर्धयतो गुदम् ॥ ॥ २८२ ॥
केशेषु
गृह्णतो हस्तौ छेदयेदविचारयन् ।
पादयोर्दाढिकायां
च ग्रीवायां वृषणेषु च ॥ ॥ २८३ ॥
अन्त्यज,
द्विज को अपने जिस अङ्ग से मारे उसी अङ्गः को कटवा डालना
चाहिए यही मनुजी का अनुशासन है। हाथ अथवा डंडा उठाकर मारे तो हाथ और क्रोध में पैर
से मारे तो पैर काटने योग्य है । नीच जाति का मनुष्य ऊँची जातिवाले के साथ अभिमान
से बैठना चाहे तो उसकी कमर को दागकर देश से निकाल देना चाहिए। हीन वर्ण ऊंचे वर्ण
के ऊपर थूके तो दोनों ओठ कटवा देने चाहिए। यदि मूते तो लिङ्ग और पादे तो गुदा कटवा
देना चाहिए। बाल पकड़े, पैर पकड़े, घसीटे, दाढ़ी, गर्दन और अण्डकोष में हाथ लगावे तो बिना विचार हाथ कटवा
देना चाहिए ॥२७९-२८३॥
त्वग्भेदकः
शतं दण्ड्यो लोहितस्य च दर्शकः ।
मांसभेत्ता तु
षट् निष्कान् प्रवास्यस्त्वस्थिभेदकः ॥२८४॥
वनस्पतीनां
सर्वेषामुपभोगो यथा यथा ।
यथा तथा दमः
कार्यो हिंसायामिति धारणा ॥ ॥ २८५ ॥
मनुष्याणां
पशूनां च दुःखाय प्रहृते सति ।
यथा यथा महद्
दुःखं दण्डं कुर्यात् तथा तथा ॥ २८६ ॥
'खाल खींचने और खून निकालने पर सौ पण दण्ड करना चाहिए ।। मांस काटे तो छः निष्क
और हड्डी तोड़े तो देश निकाले की सज़ा देनी चाहिए। संपूर्ण वृक्षों का उपयोग विचार
कर उनके काटनेवाले को दण्ड देना चाहिए। मनुष्य और पशुओं को मारने पर जैसा अधिक
दुःख हो उसके अनुसार अपराधी को दण्ड भी दुःखदायी करना चाहिये ॥२८४-२८६॥
अङ्गावपीडनायां
च व्रणशोणितयोस्तथा ।
समुत्थानव्ययं
दाप्यः सर्वदण्डमथापि वा ॥ ॥ २८७ ॥
द्रव्याणि
हिंस्याद् यो यस्य ज्ञानतोऽज्ञानतोऽपि वा ।
स
तस्योत्पादयेत् तुष्टिं राज्ञे दद्याच्च तत्समम् ॥ ॥ २८८ ॥
चर्मचार्मिकभाण्डेषु
काष्ठलेोष्टमयेषु ।
मूल्यात्
पञ्चगुणो दण्डः पुष्पमूलफलेषु च ॥ ॥ २८९ ॥
यानस्य चैव
यातुश्च यानस्वामिन एव च ।
दशातिवर्तनान्याहुः
शेषे दण्डो विधीयते ॥ ॥ २९० ॥
छिन्ननास्ये
भग्नयुगे तिर्यक्प्रतिमुखागते ।
अक्षभङ्गे च
यानस्य चक्रभङ्गे तथैव च ॥ ॥ २९९ ॥
छेदने चैव
यन्त्राणां योक्त्ररश्म्योस्तथैव च ।
आक्रन्दे
चाप्यपैहीति न दण्डं मनुरब्रवीत् ॥ ॥ २९२ ॥
हाथ,
पैर आदि अङ्ग तोड़ने अथवा घायल करनेवाले से उसके स्वस्थ
होने के लिए खर्च दिलवाना चाहिए अथवा पूर्ण दण्ड देना चाहिए। जो जिस वस्तु का
जानकर अथवा न जानकर नुक्सान करे तो उसको दाम वगैरह देकर खुश करना चाहिए और राजा को
उतना ही दण्ड देना चाहिए। चमड़ा, चाम के पात्र मशक आदि, काठ और मिट्टी के पात्र, फूल, मूल और फलों की हानि करने पर मूल्य से पाँच गुना दण्ड करना
चाहिए। सवारी सारथि और सवारी के मालिक को दस हालत में छोड़कर बाक़ी में दण्ड दिया
जाता है। नाथ टूटने, जुवा टूटने, नीचे ऊँचे के कारण, टेढे वा अड़कर चलने, रथ का धुरा टूटने, पहिया टूटने, रस्सी टूटने, गले की रस्सी टूटने, लगाम टूटने और 'हटो-बच' आदि कहने पर भी यदि किसी की हानि हो जाए तो मनुजी ने दण्ड
नहीं कहा है॥२८७-२९२॥
यत्रापवर्तते
युग्यं वैगुण्यात् प्राजकस्य तु ।
तत्र स्वामी
भवेद् दण्ड्यो हिंसायां द्विशतं दमम् ॥ ॥ २९३ ॥
प्राजकश्चेद्
भवेदाप्तः प्राजको दण्डमर्हति ।
युग्यस्थाः
प्राजकेऽ नाप्ते सर्वे दण्ड्याः शतं शतम् ॥ ॥२९४॥
जहां सारथि के
कुशल न होने से रथ इधर उधर चलता है उससे हानि होने पर स्वामी को दो सौ पण दण्ड
करना चाहिए। और सारथि चतुर होशियार हो तो उस पर दो सौ पण दण्ड करना चाहिए। सारथि
कुशल न होने पर, यह जानते हुए भी जो सवारी करते हैं, वह सभी सौ सौ पण दण्ड करने योग्य हैं ॥२९३-२९४॥
स चेत् तु पथि
संरुद्धः पशुभिर्वा रथेन वा ।
प्रमापयेत्
प्राणभृतस्तत्र दण्डोऽविचारितः ॥ ॥ २९५ ॥
मनुष्यमारणे
क्षिप्रं चौरवत् किल्बिषं भवेत् ।
प्राणभृत्सु
महत्स्वर्धं गोगजोष्टृहयादिषु ॥ ॥ २९६ ॥
क्षुद्रकाणां
पशूनां तु हिंसायां द्विशतो दमः ।
पञ्चाशत् तु
भवेद् दण्डः शुभेषु मृगपक्षिषु ॥ ॥ २९७ ॥
गर्धभाजाविकानां
तु दण्डः स्यात् पञ्चमाषिकः ।
माषिकस्तु
भवेद्दण्डः श्वसूकरनिपातने ॥ ॥ २९८ ॥
भार्या
पुत्रश्च दासश्च प्रेष्यो भ्रात्रा च सौदरः ।
प्रा
प्तापराधास्ताड्याः स्यू रज्ज्वा वेणुदलेन वा ॥ ॥ २९९ ॥
पृष्ठतस्तु
शरीरस्य नोत्तमाङ्गे कथं चन ।
अतोऽन्यथा तु
प्रहरन् प्राप्तः स्याच्चौरकिल्बिषम् ॥ ॥ ३०० ॥
एषोऽखिलेनाभिहितो
दण्डपारुष्यनिर्णयः ।
स्तेनस्यातः
प्रवक्ष्यामि विधिं दण्डविनिर्णये ॥ ॥ ३०१ ॥
मार्ग में पशु
या दूसरी गाड़ी से रुकने पर भी सारथी हांकता चला जाए और किसके चोट लग जाये तो राजा
तुरंत नीचे लिखा दण्ड करे:-
मनुष्य को
प्राणघात हुआ हो तो चोर की तरह दण्ड करना चाहिए। गौ, हाथी, ऊंट, घोड़ा आदि बड़े पशुओं का घात होने पर पांच सौ पण दण्ड करना
चाहिए। छोटे छोटे पशुओं की हिंसा होने पर दो पण और मृग,
मोर वगैरह सुन्दर पक्षी मर जायँ तो पचास पण करना चाहिए। गधा,
बकरी और भेड़ मरे तो पाँच माषक दण्ड करना चाहिए। कुत्ता,
सुअर मरे तो एक माषक दण्ड करना चाहिए। स्त्री,
पुत्र, दास, शिष्य और छोटा भाई अपराध करें तो रस्सी या बाँस की छड़ी से
पीटने योग्य हैं, परन्तु इनके पीठ में मारे, सिर इत्यादि में कभी नहीं मारना चाहिए,
अन्यथा करने पर चोर के समान दण्ड योग्य होता है। इस प्रकार
मार पीट का पूरा निर्णय कहा, अब चोर के दण्ड का निर्णय कहेंगे ॥२९५-३०१॥
आगे जारी..........मनुस्मृति अध्याय 8 भाग 3
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