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कर्मकाण्ड

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कनकधारा स्तोत्र

कनकधारा स्तोत्र

कनकधारा स्तोत्र चमत्कारी व शीघ्र फल देने वाला है। यह स्तोत्र धन व दरिद्रता सम्बंधी समस्त दोषो का शमन करने में अत्यधिक सक्षम है। इस स्तोत्र की महिमा के विषय में कहा जाता है कि यह स्तोत्र अति निर्धन, भाग्यहीन के यहाँ भी साक्षात महालक्ष्मी को बाँधकर स्वर्ण वर्षा करवाने की अदभुत क्षमता रखता है ।

कनकधारा स्तोत्र

कनकधारा स्तोत्र

आदि गुरु शंकराचार्य ने कनकधारा स्तोत्र द्वारा एक गरीब के घर में धन वर्षा करवाई थी। इस विषय में एक कथा प्रसिद्ध है कि एक बार जगदगुरु शंकराचार्य भिक्षा के लिये एक दरिद्र के घर पहुंचे, उस घर में एक वृद्ध स्त्री रहती थी, वृद्धा ने भिक्षा के लिये आये शंकराचार्य को एक सूखा आंवला दिया और बड़े ही करुण स्वर में बोली बेटा मेरे काफी ढूंढने पर भी मुझे सिर्फ यह सूखा आंवला ही मिला इसे ग्रहण करो।

शंकराचार्य ने उस वृद्ध स्त्री की स्थिति देखी तो रो उठे उन्होंने तत्काल माता महालक्ष्मी का आवाह्न किया आवाह्न करने पर माता महालक्ष्मी प्रकट हुई और कहा शंकर मैं  इसकी दरिद्रता दूर नहीं कर सकती। इसके भाग्य में धन नही है, इसके कर्म ही इसकी दरिद्रता का कारण हैं, यह कहकर महालक्ष्मी अंतर्ध्यांन हो गईं। लेकिन शंकराचार्य उस वृद्धा की दरिद्रता दूर करने के लिये संकल्पबद्ध थे। उन्होने तुरंत विह्ल भाव से कनकधारा स्तोत्र का पाठ करना आरम्भ कर दिया।

कनकधारा स्तोत्र इस स्तोत्र का पाठ करते-करते शंकराचार्य जी के अश्रु किसी झरने की तरह बहने लगे। जैसे ही स्तोत्र का खत्म हुआ तुरंत वहां स्वर्ण की वर्षा होने लगी। तब माता महालक्ष्मी पुन: प्रकट हुईं और बोली शंकर तुमने इस स्तोत्र का निर्माण कर जगत का कल्याण किया है। इस कनकधारा स्तोत्र का जो भी भक्ति भाव से पाठ करेगा उसके कुल में धन का अभाव कभी नही होगा।

हम सभी जीवन में ‍आर्थिक तंगी को लेकर बेहद परेशान रहते हैं। धन प्राप्ति के लिए हरसंभव श्रेष्ठ उपाय करना चाहते हैं। धन प्राप्ति और धन संचय के लिए पुराणों में वर्णित कनकधारा स्तोत्र चमत्कारिक रूप से लाभ प्रदान करते हैं।  यह सिद्ध मंत्र होने के कारण चैतन्य माना जाता है। मां लक्ष्मी की प्रसन्नता व अपार धन-संपदा के लिए कनकधारा स्तोत्र सबसे ज्यादा प्रभावशाली एवं अतिशीघ्र फलदायी है।

कनकधारा स्तोत्रम्

Kanak dhara stotram

कनकधारा स्तोत्र

अथ श्रीकनकधारास्तोत्रम्

वन्दे वन्दारुमन्दारमिन्दिरानन्दकन्दलम् ।

अमन्दानन्दसन्दोहबन्धुरं सिन्धुराननम् ॥

कनकधारा स्तोत्र

अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती

भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम् ।

अङ्गीकृताखिलविभूतिरपाङ्गलीला

माङ्गल्यदाऽस्तु मम मङ्गलदेवतायाः ॥ १॥

जैसे भ्रमरी अधखिले कुसुमों से अलंकृत तमाल-तरु का आश्रय लेती है, उसी प्रकार जो प्रकाश श्रीहरि के रोमांच से सुशोभित श्रीअंगों पर निरंतर पड़ता रहता है तथा जिसमें संपूर्ण ऐश्वर्य का निवास है, संपूर्ण मंगलों की अधिष्ठात्री देवी भगवती महालक्ष्मी का वह कटाक्ष मेरे लिए मंगलदायी हो ।

मुग्ध्या मुहुर्विदधती वदनै मुरारै:

प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि ।

माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या

सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः ॥ २॥

जैसे भ्रमरी महान कमल दल पर मंडराती रहती है, उसी प्रकार जो श्रीहरि के मुखारविंद की ओर बराबर प्रेमपूर्वक जाती है और लज्जा के कारण लौट आती है। समुद्र कन्या लक्ष्मी की वह मनोहर मुग्ध दृष्टिमाला मुझे धन संपत्ति प्रदान करें ।

विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षं

आनन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि ।

ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्धम्

इन्दीवरोदरसहोदरमिन्दिरायाः ॥ ३॥

जो संपूर्ण देवताओं के अधिपति इंद्र के पद का वैभव-विलास देने में समर्थ है, मधुहन्ता श्रीहरि को भी अधिकाधिक आनंद प्रदान करने वाली है तथा जो नीलकमल के भीतरी भाग के समान मनोहर जान पड़ती है, उन लक्ष्मीजी के अधखुले नेत्रों की दृष्टि क्षण भर के लिए मुझ पर थोड़ी सी अवश्य पड़े।

आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दं

आनन्दकन्दमनिमेषमनङ्गतन्त्रम् ।

आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्रं

भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः ॥ ४॥

शेषशायी भगवान विष्णु की धर्मपत्नी श्री लक्ष्मीजी के नेत्र हमें ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हों, जिनकी पु‍तली तथा बरौनियां अनंग के वशीभूत हो अधखुले, किंतु साथ ही निर्निमेष (अपलक) नयनों से देखने वाले आनंदकंद श्री मुकुन्द को अपने निकट पाकर कुछ तिरछी हो जाती हैं।

बाह्वन्तरे मधुजितः श्रितकौस्तुभे या

हारावलीव हरिनीलमयी विभाति ।

कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला

कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः ॥ ५॥

जो भगवान मधुसूदन के कौस्तुभमणि-मंडित वक्षस्थल में इंद्रनीलमयी हारावली-सी सुशोभित होती है तथा उनके भी मन में प्रेम का संचार करने वाली है, वह कमल-कुंजवासिनी कमला की कटाक्षमाला मेरा कल्याण करे।

कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभारेः

धाराधरे स्फुरति या तडिदङ्गनेव ।

मातुस्समस्तजगतां महनीयमूर्तिः

भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः ॥ ६॥

जैसे मेघों की घटा में बिजली चमकती है, उसी प्रकार जो कैटभशत्रु श्रीविष्णु के काली मेघमाला के श्यामसुंदर वक्षस्थल पर प्रकाशित होती है, जिन्होंने अपने आविर्भाव से भृगुवंश को आनंदित किया है तथा जो समस्त लोकों की जननी है, उन भगवती लक्ष्मी की पूजनीय मूर्ति मुझे कल्याण प्रदान करे।

प्राप्तं पदं प्रथमतः खलु यत्प्रभावात्

माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन ।

मध्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्धं

मन्दालसं च मकरालयकन्यकायाः ॥ ७॥

समुद्र कन्या कमला की वह मंद, अलस, मंथर और अर्धोन्मीलित दृष्टि, जिसके प्रभाव से कामदेव ने मंगलमय भगवान मधुसूदन के हृदय में प्रथम बार स्थान प्राप्त किया था, यहां मुझ पर पड़े।

दद्याद्दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारां

अस्मिन्नकिञ्चनविहङ्गशिशौ विषण्णे ।

दुष्कर्मघर्ममपनीय चिराय दूरं

नारायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाहः ॥ ८॥

भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी का नेत्र रूपी मेघ दयारूपी अनुकूल पवन से प्रेरित हो दुष्कर्म (धनागम विरोधी अशुभ प्रारब्ध) रूपी धाम को चिरकाल के लिए दूर हटाकर विषाद रूपी धर्मजन्य ताप से पीड़ित मुझ दीन रूपी चातक पर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करें।

इष्टाविशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र-

दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते ।

दृष्टिः प्रहृष्टकमलोदरदीप्तिरिष्टां

पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः ॥ ९॥

विशिष्ट बुद्धि वाले मनुष्य जिनके प्रीति पात्र होकर जिस दया दृष्टि के प्रभाव से स्वर्ग पद को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं, पद्मासना पद्माट की वह विकसित कमल-गर्भ के समान कांतिमयी दृष्टि मुझे मनोवांछित पुष्टि प्रदान करें।

गीर्देवतैति गरुड़ध्वज भामिनीति

शाकम्भरीति शशिशेखरवल्लभेति ।

सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै

तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै ॥ १०॥

जो सृष्टि लीला के समय वाग्देवता (ब्रह्मशक्ति) के रूप में विराजमान होती है तथा प्रलय लीला के काल में शाकम्भरी (भगवती दुर्गा) अथवा चन्द्रशेखर वल्लभा पार्वती (रुद्रशक्ति) के रूप में अवस्थित होती है, त्रिभुवन के एकमात्र पिता भगवान नारायण की उन नित्य यौवना प्रेयसी श्रीलक्ष्मीजी को नमस्कार है।

श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै

रत्यै नमोऽस्तु रमणीयगुणार्णवायै ।

शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै

पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै ॥ ११॥

मात:। शुभ कर्मों का फल देने वाली श्रुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों की सिंधु रूपा रति के रूप में आपको नमस्कार है। कमल वन में निवास करने वाली शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुष्टि रूपा पुरुषोत्तम प्रिया को नमस्कार है।

नमोऽस्तु नालीकनिभाननायै

नमोऽस्तु दुग्धोदधिजन्मभूम्यै ।

नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै

नमोऽस्तु नारायणवल्लभायै ॥ १२॥

कमल वदना कमला को नमस्कार है। क्षीरसिंधु सभ्यता श्रीदेवी को नमस्कार है। चंद्रमा और सुधा की सगी बहन को नमस्कार है। भगवान नारायण की वल्लभा को नमस्कार है।

सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि

साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि ।

त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि

मामेव मातरनिशं कलयन्तु नान्यम् ॥ १३॥

कमल सदृश नेत्रों वाली माननीय मां ! आपके चरणों में किए गए प्रणाम संपत्ति प्रदान करने वाले, संपूर्ण इंद्रियों को आनंद देने वाले, साम्राज्य देने में समर्थ और सारे पापों को हर लेने के लिए सर्वथा उद्यत हैं, वे सदा मुझे ही अवलम्बन दें। (मुझे ही आपकी चरण वंदना का शुभ अवसर सदा प्राप्त होता रहे)।

यत्कटाक्षसमुपासनाविधिः

सेवकस्य सकलार्थसम्पदः ।

सन्तनोति वचनाङ्गमानसैः

त्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे ॥ १४॥

जिनके कृपा कटाक्ष के लिए की गई उपासना उपासक के लिए संपूर्ण मनोरथों और संपत्तियों का विस्तार करती है, श्रीहरि की हृदयेश्वरी उन्हीं आप लक्ष्मी देवी का मैं मन, वाणी और शरीर से भजन करता हूँ।

सरसिजनिलये सरोजहस्ते

धवलतमांशुकगन्धमाल्यशोभे ।

भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे

त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम् ॥ १५॥

भगवती हरिप्रिया! तुम कमल वन में निवास करने वाली हो, तुम्हारे हाथों में नीला कमल सुशोभित है। तुम अत्यंत उज्ज्वल वस्त्र, गंध और माला आदि से सुशोभित हो। तुम्हारी झांकी बड़ी मनोरम है। त्रिभुवन का ऐश्वर्य प्रदान करने वाली देवी, मुझ पर प्रसन्न हो जाओ।

दिग् हस्तिभिः कनककुम्भमुखावसृष्ट-

स्वर्वाहिनीविमलचारुजलप्लुताङ्गीम् ।

प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष-

लोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम् ॥ १६॥

दिग्गजों द्वारा सुवर्ण-कलश के मुख से गिराए गए आकाश गंगा के निर्मल एवं मनोहर जल से जिनके श्री अंगों का अभिषेक (स्नान) संपादित होता है, संपूर्ण लोकों के अधीश्वर भगवान विष्णु की गृहिणी और क्षीरसागर की पुत्री उन जगज्जननी लक्ष्मी को मैं प्रात:काल प्रणाम करता हूँ।

कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं

करुणापूरतरङ्गितैरपाङ्गैः ।

अवलोकय मामकिञ्चनानां

प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः ॥ १७॥

कमल नयन केशव की कमनीय कामिनी कमले! मैं अकिंचन (दीन-हीन) मनुष्यों में अग्रगण्य हूँ, अतएव तुम्हारी कृपा का स्वाभाविक पात्र हूँ। तुम उमड़ती हुई करुणा की बाढ़ की तरह तरंगों के समान कटाक्षों द्वारा मेरी ओर देखो।

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमीभिरन्वहं

त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम् ।

गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो

भवन्ति ते भुवि बुधभाविताशयाः ॥ १८॥

जो मनुष्य इन स्तु‍तियों द्वारा प्रतिदिन वेदत्रयी स्वरूपा त्रिभुवन-जननी भगवती लक्ष्मी की स्तुति करते हैं, वे इस भूतल पर महान गुणवान और अत्यंत सौभाग्यशाली होते हैं तथा विद्वान पुरुष भी उनके मनोभावों को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं।

श्री कनकधारास्तोत्रं

इसके अतिरिक्त भी निम्न श्लोक मिलता है-

नमोऽस्तु हेमाम्बुजपीठिकायै

नमोऽस्तु भूमण्डलनायिकायै ।

नमोऽस्तु देवादिदयापरायै

नमोऽस्तु शार्ङ्गायुधवल्लभायै ॥ १९॥

नमोऽस्तु  देव्यै भृगुनन्दनायै

नमोऽस्तु विष्णोरुरसि स्थितायै ।

नमोऽस्तु लक्ष्म्यै कमलालयायै

नमोऽस्तु दामोदरवल्लभायै ॥ २०॥

नमोऽस्तु कान्त्यै कमलेक्षणायै

नमोऽस्तु भूत्यै भुवनप्रसूत्यै ।

नमोऽस्तु देवादिभिरर्चितायै

नमोऽस्तु नन्दात्मजवल्लभायै ॥ २१॥

देवि प्रसीद जगदीश्वरि लोकमातः

कल्याणगात्रि कमलेक्षणजीवनाथे ।

दारिद्र्यभीतिहृदयं शरणागतं माम्

आलोकय प्रतिदिनं सदयैरपाङ्गैः ॥ २२॥

।। इति श्री कनकधारा स्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।

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