लक्ष्मीस्तोत्र
श्रीरुद्रयामल तंत्र के शिवगौरीसंवाद
में यह लक्ष्मीस्तोत्र वर्णित है । भगवान् शिव ने इस स्तव के माहात्म्य को बतलाते
हुए कहा है कि- लक्ष्मीदेवी के अ-कारादि से क्ष-कार पर्यन्त शुभ स्तव का जो
व्यक्ति श्रवण करता है या कराता है; पाठ
करता है या करवाता है; राजा भी उनके दास हो जाता है और उसे
देखकर देवता, असुर, गन्धर्व, किन्नर, प्रभृति, भूत, प्रेत, ग्रह,
यक्ष, राक्षस एवं सर्पादि भाग जाते हैं तथा
साधक की सभी इच्छाएँ पूर्ण हो जाती है।
अकारादिक्षकारान्तवर्णग्रथितं लक्ष्मीस्तोत्रम्
लक्ष्मी स्तोत्र
(शङ्कर-कथित-अ-कारादि क्ष-कारान्त
वर्णग्रथित )
Laxmi-stotram
श्रीशङ्कर उवाच
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि
लक्ष्मीस्तोत्र मनुत्तमम् ।
पठनाच्छ्रवणाद् यस्य वरो
मोक्षमवाप्नुयात् ॥1 ॥
शङ्कर ने कहा
- अनन्तर श्रेष्ठ लक्ष्मी स्तोत्र को बता रहा हूँ,
उत्तम व्यक्ति जिसका पाठ या श्रवण कर मोक्ष प्राप्त कर सकता है ।।1।।
गुह्याद् गुह्यतरं पुण्यं सर्वदेव
नमस्कृतम् ।
सर्वमन्त्रमयं साक्षाच्छृणु
पर्वतनन्दिनि ॥2॥
हे पर्वतपुत्रि ! यह लक्ष्मीस्तोत्र
गोपनीय से गोपनीयतर है । यह पुण्यदायक है । समस्त देवताओं के द्वारा नमस्कृत
(प्रशंसित) यह समस्त मन्त्रस्वरूप है । इसे साक्षात् (मेरे निकट से) सुने ।।2
।।
अनन्तरूपिणीं लक्ष्मीमपारगुणसागरीम्
।
अणिमादिसिद्धिदात्रीं शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥3॥
अनन्तरस्वरूपिणी,
अपारगुण समुद्रतुल्या, अणिमादि
अष्टसिद्धिदात्री लक्ष्मीदेवी को मैं मस्तक के द्वारा (= मस्तक झुकाकर ) प्रणाम
करता हूँ ।।3 ।।
आपदुद्धारिणी त्वं हि आद्या शक्तिः
शुभा सदा परा ।
आद्या आनन्ददात्री च शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥4॥
आप आपद से उद्धारकारिणी हैं,
आप संसार के भी आदि में स्थिता हैं, आप
मङ्गलमयी, परा-शक्ति-स्वरूपिणी, सभी के
आदि में वर्तमान हैं, आप समस्त जीवों के लिए आनन्ददात्री हैं,
आपको मैं मस्तक अवनत करके प्रणाम करता हूँ ।।4।।
इन्दुमुखी इष्टदात्री इष्टमन्त्र
स्वरूपिणी ।
इच्छामयी जगन्मातः शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥5॥
हे जगन्मातः ! आप चन्द्रवदना,
जीवों के इष्ट-प्रदात्री इष्टमन्त्रस्वरूपिणी एवं इच्छामयी हैं।
आपको मैं मस्तक अवनत करके प्रणाम करता हूँ ।।5 ।।
उमा उमापतेस्त्वं त्वं उत्कण्ठ
कुलनाशिनी ।
उर्वीश्वरि जगन्मातर्लक्ष्मि देवि
नमोऽस्तु ते ॥6 ॥
हे देवि लक्ष्मि जगन्मातः ! आप
उमापति महादेव की उमास्वरूपिणी हैं, जीवों
के उत्कण्ठाओं की नाशकारिणी हैं, पृथिवी की ईश्वरी हैं। आपको नमस्कार ।।6 ।।
ऐरावतपतेः पूज्या ऐश्वर्याणां
प्रदायिणी ।
औदार्यगुणसम्पन्ना लक्ष्मि देवि
नमोऽस्तु ते ॥7 ॥
हे लक्ष्मि देवि ! आप इन्द्र
की पूज्या हैं, ऐश्वर्य प्रदानकारिणी हैं,
उदारत एवं गुणसम्पन्ना हैं, आपको नमस्कार ।।7।।
कृष्णवक्षः स्थिता देवि कलिकल्मष
नाशिनी ।
कृष्णचित्तहरा कर्त्ति शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥8 ॥
हे देवि ! हे कर्त्रि ! आप कृष्ण
के वक्षःदेश में स्थिता, कलि के पापों की
नाशकारिणी हैं, आप कृष्ण के चित्त की हरणकारिणी हैं।
आपको मैं मस्तक अवनत करके प्रणाम करता हूँ ॥ 8 ।।
कन्दर्पदमना देवी कल्याणी कमलानना ।
करुणार्णवसम्पूर्णा शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥ 9 ॥
हे देवि ! आप मदन की दमनकारिणी,
कल्याणी (मङ्गलमयी), पद्मानना एवं करुणारूप
समुद्र के द्वारा परिपूर्ण हैं। आपको मैं मस्तक अवनत करके प्रणाम करता हूँ ।।9।।
खञ्जनाक्षी खगनासा देवि खेदविनाशिनी
।
खञ्जरीटगतिश्चैव शिरसा प्रणमाम्यहम्
॥10॥
हे देवि ! आपकी चक्षु खञ्जन पक्षी
के समान सुन्दर है, गरुढ़ की नासिका के सदृश आपकी नासिका है, आप जीवों की
दुःख - विनाशिनी हैं, खञ्जन पक्षी की गति के समान आपकी गति
है । आपको मैं मस्तक अवनत करके प्रणाम करता हूँ ।।10।।
गोविन्दवल्लभा देवि गन्धर्व
कुलपावनी ।
गोलोकवासिनी मातः शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥11॥
हे देवि ! आप गोविन्दप्रिया,
गन्धर्वों को पवित्रकारिणी एवं गोलोकवासिनी हैं। हे मातः ! आपको मैं
मस्तक अवनत करके प्रणाम करता हूँ ।।11।।
ज्ञानदा गुणदा देवि गुणाध्यक्षा
गुणाकरी ।
गन्धपुष्पधरा मातः शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥12॥
हे देवि ! हे मातः ! आप ज्ञानदायिनी,
गुणप्रदायिणी, गुणों की परिचालयित्री, कल्याणकारक गुणों के आश्रय एवं गन्धपुष्पधारिणी हैं। आपको मैं मस्तक अवनत
करके प्रणाम करता हूँ ।।12।।
घनश्यामप्रिया देवि घोरसंसारतारिणी
।
घोरपापहरा चैव शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥13 ॥
हे देवि ! आप 'घनश्याम' अर्थात् श्रीकृष्ण
की प्रिया हैं, घोर संसार से जीवों की तारणकारिणी हैं,
घोरपापों की अपहरणकारिणी हैं। मैं आपको मस्तक अवनत करके प्रणाम करता
हूँ ।।13।।
चतुर्वेदी चिन्त्या
चित्तचैतन्यदायिनी ।
चतुराननपूज्या च शिरसा प्रणमाम्यहम्
॥14॥
हे देवि ! आप चतुर्वेदस्वरूपिणी,
जीवों के लिए चिन्तन-योग्या, चित्त को
चेतनादायिनी एवं ब्रह्मा के द्वारा पूज्या हैं। मैं आपको मस्तक अवनत करके
प्रणाम करता हूँ ।।14।।
चैतन्यरूपिणी देवि
चन्द्रकोटिसमप्रभा ।
चन्द्रार्कनखरज्योतिर्लक्ष्मी देवि नमाम्यहम्
॥15 ॥
हे देवि लक्ष्मि ! आप
चैतन्यस्वरूपिणी एवं कोटिचन्द्रतुल्यप्रभाविशिष्टा हैं । आपकी नख-प्रभा चन्द्र
एवं सूर्य के समान दीप्तिशील है । मैं आपको मस्तक अवनत करके प्रणाम करता
हूँ ।।15।।
चपला चतुराध्यक्षा चरमे गतिदायिनी ।
चराचरेश्वरी लक्ष्मि शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥16 ॥
हे लक्ष्मि ! आप चञ्चला,
दक्षा, अध्यक्षा (परिचालिका), अन्तिम समय में जीवों की गतिदायिनी एवं चराचर की ईश्वरी हैं। आपको मैं
मस्तक अवनत करके प्रणाम करता हूँ ।।16।
छत्रचामरयुक्ता च छलचातुर्यनाशिनी ।
छिद्रौघहारिणी मातः शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥17॥
हे जननि ! आप छत्र एवं चँवर- शोभिता
हैं,
दुष्टव्यक्ति के छल एवं चतुरता की नाशकारिणी हैं, समस्त छिद्रों (अपराधों) की नाशकारिणी हैं। आपको मैं मस्तक अवनत करके
प्रणाम करता हूँ ।।17।।
जगन्माता जगत्कर्त्री जगदाधाररूपिणी
।
जयप्रदा जानकी च शिरसा प्रणमाम्यहम्
॥18॥
आप जगन्माता,
जगत्-कर्त्री, जगत् की आधारभूता, जयप्रदानकारिणी एवं जानकी हैं। आपको मैं मस्तक अवनत करके प्रणाम
करता हूँ ।।18।।
जानकीशप्रिया त्वं हि
जनकोत्सवदायिनी ।
जीवात्मनी च त्वं मातः शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥19॥
हे मातः ! आप सीतापति की प्रिया हैं,
मिथिलाधिपति जनक के लिए आनन्ददायिनी हैं, जीवों
की आत्मस्वरूपिणी हैं। आपको मैं मस्तक अवनत करके प्रणाम करता हूँ ।।19।।
झिञ्जीरवस्वना देवि
झञ्जावातनिवारिणी ।
झर्झरप्रिया च शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥20॥
हे देवि ! झिञ्झिर-शब्द-सदृश आपका
कण्ठस्वर मधुर है। आप झञ्झावायु- निवारणकारिणी हैं, डिण्डिमवाद्यप्रिया हैं आपको मैं अवनत मस्तक से प्रणाम करता हूँ ।।20।।
टङ्ककदायिनी त्वं हि त्वञ्च
टक्काररूपिणी ।
ढक्कादिवाद्यप्रणया डम्फवाद्यविनोदिनी
।
डमरुप्रणया मातः शिरसा प्रणमाम्यहम्
॥21॥
हे मातः ! आप मनुष्य को द्रव्य देती
हैं,
आप ट-काररूपिणी हैं, आप ढक्का प्रभृति
वाद्य-प्रिया हैं, डम्फ वाद्य सुनकर आप आनन्दित होती हैं,
आप डमरु- वाद्य को पसन्द करती हैं। आपको मैं अवनत मस्तक से प्रणाम
करता हूँ ।। 21।।
तप्तकाञ्चनवर्णाभा त्रैलोक्यलोकतारिणी
।
त्रिलोकजननी लक्ष्मि शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥22॥
हे लक्ष्मीदेवि ! तप्तकाञ्चन के
वर्ण के समान आपकी अङ्गकान्ति है; आप त्रिभुवन
के लोगों (जीवों) की तारणकारिणी हैं; आप त्रिलोक की जननी
हैं। मैं आपको अवनत मस्तक से प्रणाम करता हूँ ।। 22।।
त्रैलोक्यसुन्दरी त्वं हि
तापत्रयनिवारिणी ।
त्रिगुणधारिणी मातः शिरसा प्रणमाम्यहम्
॥23॥
हे मातः ! आप त्रिलोक में
सर्वातिशायी सौन्दर्यवती हैं; जीवों के
त्रिविध दुःख-निवारिणी हैं; सत्त्व, रजः
एवं तमोरूप तीन गुणों की आश्रय हैं । आपको मैं अवनत मस्तक से प्रणाम करता हूँ ।। 23।।
त्रैलोक्यमङ्गला त्वं हि
तीर्थमूलपदद्वया ।
त्रिकालज्ञा त्राणकर्त्री शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥24॥
आप त्रिभूवन में मङ्गलमयी हैं,
आपके चरणद्वय समस्त तीर्थों के मूल हैं; आप
भूत-भविष्य-वर्तमान-रूप त्रिकाल दर्शिनी हैं; आप समस्त जीवों
की त्राणकर्ती हैं। आपको मैं अवनत मस्तक से प्रणाम करता हूँ ।।24।।
दुर्गतिनाशिनी त्वं हि
दारिद्र्यापद्विनाशिनी ।
द्वारकावासिनी मातः शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥25॥
हे मातः ! आप दुर्गति-निवारिणी,
दारिद्र्य एवं विपद-नाशिनी हैं; आप
द्वारकावासिनी हैं। आपको मैं अवनत मस्तक से प्रणाम करता हूँ ।।25।।
देवतानां दुराराध्या
दुःखशोकविनाशिनी ।
दिव्याभरणभूषाङ्गी शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥26॥
देवगण बड़े कष्ट सहकर आपकी आराधना
करते हैं,
आप देवगणों के दुःख एवं शोक का नाश करती हैं; आपके
अङ्ग दिव्य अलङ्कारों से भूषित हैं। मैं आपको अवनत मस्तक से प्रणाम करता हूँ ।।26।।
दामोदरप्रियात्वं हि
दिव्ययोगप्रदर्शिनी ।
दयामयी दयाध्यक्षा (दयाध्यक्षी )
शिरसा प्रणमाम्यहम् ॥27॥
आप दामोदर (कृष्ण) की प्रिया
हैं। आप साधक के लिए दिव्य योग का प्रदर्शन करती हैं। आप दयामयी एवं दया की
परिचालिका हैं। आपको मैं अवनत मस्तक से प्रणाम करता हूँ ।।27।।
ध्यानातीता धराध्यक्षा (
धराध्यक्षी) धनधान्यप्रदायिणी ।
धर्मदा धैर्यदा मातः शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥28॥
हे जननि ! आप ध्यान के अतीत हैं,
पृथिवी की अध्यक्षा हैं, आप धन एवं धान्य- दायिनी हैं, आप धर्म एवं
धैर्यप्रदायिनी हैं। मैं आपको अवनत मस्तक से प्रणाम करता हूँ ।।28।।
नवगोरोचना गौरी नन्दनन्दनरोहिनी ।
नवयौवनचार्वङ्गी शिरसा प्रणमाम्यहम्
॥29॥
आप नव गोरोचना-सदृश गोरवर्णा एवं नन्द
के नन्दन श्रीकृष्ण की गृहिणी हैं । आप नव-यौवनान्विता चारु अङ्गयुक्ता हैं।
आपको मैं अवनत मस्तक से प्रणाम करता हूँ ।। 29।।
नानारत्नांदिभूषाढ्या नानारत्नप्रदायिनी
।
नितम्बिनी नलिनाक्षी लक्ष्मीदेवि
नमोऽस्तुते ॥30॥
हे लक्ष्मीदेवी ! आप विविध रत्नादि
अलङ्कारों से भूषित हैं । फिर आप नाना रत्नों को प्रदान भी करती हैं। हे
नितम्बशालिनि, आप कमलनयना हैं। आपको नमस्कार
।।30।।
निधुवनप्रेमानन्दा निराश्रयगतिप्रदा
।
निर्विकारा नित्यरूपा लक्ष्मीदेवि
नमोऽस्तु ते ॥31॥
हे लक्ष्मीदेवी ! आप निर्विकार,
नित्यरूपा, परमात्मा में सम्मिलित जीव के लिए
प्रेमानन्ददायिनी हैं। आप निराश्रय की गति प्रदायिनी हैं। आपको नमस्कार ।।31।।
पूर्णानन्दमयी त्वं हि पूर्णब्रह्म
सनातनी ।
पराशक्तिः पराभक्तिर्लक्ष्मीदेवि
नमोऽस्तु ते ॥32॥
हे लक्ष्मीदेवी ! आप पूर्णानन्दमयी,
पूर्णसनातन ब्रह्मरूपिणी हैं। आप परमशक्ति एवं पराभक्ति-रूपिणी हैं।
आपको नमस्कार ।।32।।
पूर्णचन्द्रमुखी त्वं हि
परानन्द-प्रदायिनी ।
परमार्थप्रदा लक्ष्मि शिरसा
प्रणमात्यहम् ॥33॥
लक्ष्मि ! आपका मुखपद्म पूर्ण चन्द्र-सदृश है । आप परमानन्दप्रदायिनी हैं। आप परमार्थरूप मोक्षदायिनी हैं। आपको मैं
अवनत मस्तक से प्रणाम करता ।।33।।
पुण्डरीकांक्षिणी त्वं हि
पुण्डरीकांक्षगेहिनी ।
पद्मरागधरा त्वं हि शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥34॥
(हे देवि !) आपका नेत्रत्रय
श्वेतपद्म-सदृश है । आप पुण्डरीकाक्ष विष्णु की गृहिणी हैं । आप
माणिक्यधारिणी हैं । आपको मैं अवनत मस्तक से प्रणाम करता ।।34।।
पद्मा पद्मासना त्वं हि
पद्ममालाविधारिणी ।
प्रणवरूपिणी मातः शिरसा प्रणमाम्यहम्
॥35॥
हे जननि ! आप पद्मोपरि समासीना,
'पद्मा' नाम से ख्याता एवं पद्ममाला
धारिणी हैं। आप ॐ कार स्वरूपिणी हैं। आपको मैं अवनत मस्तक से प्रणाम
करता हूँ ।।35।।
फुल्लेन्दुवदना त्वं हि फणिवेणी
विमोहिनी ।
फणिशायिप्रिया मातः शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥36॥
हे मातः ! आपका मुखकमल प्रकाशमान
चन्द्रसदृश है, अपनी सर्पसदृश वेणी के द्वारा
आप सभी को विमुग्ध करती हैं, आप अनन्तशय्याशायी विष्णु
की प्रिया हैं, मैं आपको अवनत मस्तक से प्रणाम करता हूँ ॥36॥
विश्वकर्त्री विश्वभर्त्री,
विश्वधात्री विश्वेश्वरी ।
विश्वाराध्या विश्वबाह्या
लक्ष्मीदेवि नमोऽस्तु ते ॥37॥
हे लक्ष्मीदेवि ! आप विश्व के सृजन,
पालन एवं धारणकारिणी हैं, आप विश्व की ईश्वरी
हैं, विश्वजनों की आराध्या हैं, जबकि
आप विश्व के बाह्य हैं अर्थात् आप विश्व के साथ असंसृष्टा है । आपको नमस्कार ॥37॥
विष्णुप्रिया
विष्णुशक्तिर्बीजमन्त्र स्वरूपिणी ।
वरदा वाक्यसिद्धा च शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥38॥
हे देवि ! आप विष्णु की
प्रिया हैं । आप विष्णु की शक्ति, बीजमन्त्र
स्वरूपिणी, वरदानकरिणी, वाक्सिद्धियुक्ता
हैं। आपको मैं अवनत मस्तक से प्रणाम करता हूँ । (प्रत्येक देवता का बीजमन्त्र या
मूल मन्त्र है । बीज मन्त्र एवं देवता अभिन्न हैं, जिस
प्रकार नाम एवं नामी अभिन्न हैं। बीज में जिस प्रकार विशाल वृक्ष सूक्ष्म रूप से
अवस्थित रहता है, उसी प्रकार बीजमन्त्र में देवता अवस्थित
हैं । यहाँ पर लक्ष्मी देवी को 'समस्त जगत् की ईश्वरी'
अर्थात् 'समस्त देवताओं की बीजमन्त्र
स्वरूपिणी' कहा गया है ।) ॥38 ।।
विणुवाद्यप्रिया त्वं हि
वंशीवाद्यविनोदिनी ।
विद्युद्गौरी महादेवि लक्ष्मीदेवि
नमोऽस्तु ते ॥39॥
हे महादेवि ! हे लक्ष्मीदेवि ! आप
वेणुवाद्यप्रिया, वंशीवाद्य होने पर
आनन्दिता तथा विद्युत् के समान गौरी हैं। आपको नमस्कार ( वेणु= पतली बाँस से निर्मित वाद्ययन्त्र; 'वंशी' =
विशिष्ट बाँस से निर्मित वाद्ययन्त्र ) ॥39॥
भक्तिमुक्तिप्रदा त्वं हि
भक्तानुग्रहकारिणी ।
भवार्णव त्राणकर्त्री लक्ष्मीदेवि
नमोऽस्तु ते ॥40॥
हे लक्ष्मीदेवी ! आप भक्ति एवं
मुक्ति प्रदानकारिणी हैं; आप भक्त के प्रति
अनुग्रहकारिणी हैं; आप संसार-समुद्र से जीव की त्राणकारिणी
हैं। आपको नमस्कार ॥40॥
भक्तिप्रिया भागीरथी भक्तमङ्गलदायिनी
।
भयदा भयदात्री च लक्ष्मीदेवि
नमोऽस्तु ते ॥41॥
हे लक्ष्मीदेवि ! आप भक्तों की
प्रिया हैं; आप भागीरथीस्वरूपिणी हैं;
आप भक्तों की मङ्गलदायिनी हैं; आप
भयखण्डनकारिणी एवं अभयदायिनी हैं। आपको नमस्कार ।।41।।
नमोऽभीष्टप्रदा त्वं हि
महामोहविनाशिनी ।
मोक्षदा मानदात्री च लक्ष्मीदेवि नमोऽस्तु
ते ॥42 ॥
हे लक्ष्मीदेवि ! आप भक्त की
अभीष्टदायिनी, महामोहरूप माया के
विनाशकारिणी, मोक्षदात्री एवं मानदायिनी हैं। आपको नमस्कार
है ।।42।।
महाधन्या महामान्या माधवमनोमोहिनी ।
मुखरा प्राणहन्त्री च लक्ष्मीदेवि
नमोऽस्तु ते ॥43॥
हे लक्ष्मीदेवि ! आप अतिशय धन्या
एवं अतिशय पूज्या हैं । आप माधव के मनोमोहिनी हैं । जो लोग कटु एवं कुत्सित वाक्य
कहते हैं,
आप उन लोगों की प्राणविनाशिनी हैं। आपको नमस्कार ।।43।।
यौवनपूर्णसौन्दर्या योगमाया
योगेश्वरी ।
युग्मश्रीफलवक्षाश्च लक्ष्मीदेवि
नमोऽस्तु ते ॥44॥
हे लक्ष्मीदेवि ! आप यौवनपूर्णा हैं
। अतः सौन्दर्यातिशायिनी हैं । आप योगमाया हैं; आप
योगियों की ईश्वरी हैं । युग्म बिल्व (बेल) फल के समान आपका वक्ष युग्म-स्तन
विशिष्ट है। आपको नमस्कार ।।44।।
युग्माङ्गदविभूषाढ्या युवतीनां शिरोमणिः
।
यशोदासुतपत्नी च लक्ष्मीदेवि
नमोऽस्तु ते ॥45 ॥
हे लक्ष्मीदेवि ! आप केयूरद्वय से
भूषिता हैं। आप युवतियों के मस्तक- मणिस्वरूपा हैं। आप यशोदानन्द की पत्नी हैं।
आपको नमस्कार ।।45।।
रुपयौवनसम्पन्ना रत्नालङ्कारधारिणी
।
रूपेन्दुकोटि-सौन्दर्या लक्ष्मीदेवि
नमोऽस्तु ते ॥46 ॥
हे लक्ष्मीदेवि ! आप सातिशय रूप एवं
यौवनयुक्ता हैं, रत्नों के अलंकारों को धारण
करती हैं। आप रूप में कोटिचन्द्रों के सौन्दर्य से समन्विता हैं। आपको नमस्कार ।।46।।
रमा रमा रामपत्नी राजराजेश्वरी तथा
।
राज्यदा राज्यहन्त्री च लक्ष्मीदेवि
नमोऽस्तु ते ॥ 47 ॥
हे लक्ष्मीदेवि ! आप हरि में
रत हैं। आप जीवों को परमात्मा के साथ सम्मिलित करती हैं। आप सामन्त- राजगुणों के
एकच्छत्राधिपति राजा की भी ईश्वर हैं। आप प्रसन्न होने पर दूसरे को राज्य
दान करती हैं और रूष्ट होने पर राज्य का नाश कर देती हैं। आपको नमस्कार ।।47।।
लीलालावण्यसम्पन्ना लोकानुग्रहकारिणी
।
ललनाप्रीतिदात्री च लक्ष्मीदेवि
नमोऽस्तु ते ॥48 ॥
हे लक्ष्मीदेवि ! आप लीलामयी एवं
अतिशय लावण्ययुक्ता हैं; आप लोगों पर
अनुग्रह करती हैं । आप स्त्रीगणों को प्रीति प्रदान करती हैं। आपको नमस्कार ।।48 ।।
विद्याधरी तथा विद्या वसुदा त्वं हि
वन्दिता ।
विन्ध्याचलवासिनी च लक्ष्मीदेवि
नमोऽस्तु ते ॥49 ॥
हे लक्ष्मीदेवि ! आप विद्याधरी
(देवयोनिविशेष की स्त्री) हैं। आप विद्या हैं; आप
धनदायिनी हैं; आप जीवगणों की वन्दिता हैं; आप विन्ध्यपर्वतवासिनी हैं, आपको नमस्कार ।।49।।
शुभ्रकाञ्चनगौराङ्गी शङ्खकङ्कणधारिणी
।
शुभदा शीलसम्पन्ना लक्ष्मीदेवि
नमोऽस्तु ते ॥50॥
हे लक्ष्मीदेवि ! आप शुद्ध स्वर्ण
के समान गौराङ्गसम्पन्ना हैं; हस्त में
शंख-निर्मित कंगन एवं कंगन धारण करती हैं। आप सभी को मङ्गल प्रदान करती हैं । आप
उत्तम स्वभावयुक्ता हैं। आपको नमस्कार ।।50।।
षट्चक्रभेदिनी त्वं हि षडैश्वर्यप्रदायिनी
।
षोडशी वयसा त्वं हि लक्ष्मीदेवि
नमोऽस्तु ते ॥51॥
हे लक्ष्मीदेवि ! आप मूलाधार,
स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत,
विशुद्ध एवं आज्ञा नामक षट्चक्रों का भेदन करती हैं। आप ऐश्वर्य,
वीर्य, यशः, श्री,
ज्ञान एवं वैराग्य इन षडैश्वर्यों को प्रदान करती हैं। आप सदा ही
षोडशवर्षीया बनी रहतीं हैं, आपको नमस्कार ।।51 ।।
सदानन्दमयी त्वं हि
सर्वसम्पत्तिदायिनी ।
संसार-तारिणी देवि शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥52॥
हे देवि ! आप सदानन्दमयी हैं;
आप समस्त सम्पत्तियों के दान में समर्थ हैं; आप
जीवों का संसार से उद्धार करती हैं। मैं आपको अवनत मस्तक से प्रणाम करता हूँ ।। 52 ।।
सुकेशी सुखदा देवि सुन्दरी सुमनोरमा
।
सुरेश्वरी सिद्धिदात्री शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥53॥
हे देवि ! आप सुन्दर केशयुक्ता हैं;
आप सुखदायिनी हैं; आप सुन्दरी हैं एवं मन को
अतिशय आनन्दप्रदानकारिणी हैं; देवगणों की ईश्वरी हैं;
सिद्धिदात्री हैं । आपको मैं अवनत मस्तक से प्रणाम करता हूँ ।।53।।
सर्वसङ्कटहन्त्री च सत्यसत्त्वगुणान्विता
।
सीतापतिप्रिया देवि शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥54॥
हे देवि ! आप जीवों के समस्त संकटों
का नाश करती हैं; आप सत्य एवं
सत्त्वगुणयुक्ता हैं; आप सीतापति रामचन्द्र की प्रिया
हैं। आपको मैं अवनत मस्तक से प्रणाम करता हूँ ।।54 ।।
हेमाङ्गी च हास्यमुखी
हरिचेतोविमोहिनी ।
हरिपादप्रिया देवि शिरसा
प्रणमाम्यहम् ॥55॥
हे देवि ! आप सुवर्ण के समान
अंगविशिष्टा हैं; आपका मुखकमल
हास्ययुक्त है; आप हरि के चित्त-विमोहन-कारिणी हैं;
आप हरि के पादपद्म की प्रिया हैं । आपको मैं अवनत मस्तक से
प्रणाम करता हूँ ।।55।।
क्षेमकरी क्षमादात्री
क्षौमवासविधारिणी ।
क्षीरमध्या च क्षेत्राङ्गी
लक्ष्मीदेवि नमोऽस्तु ते ॥56॥
हे लक्ष्मीदेवि ! आप मङ्गलकारिणी
हैं;
आप जीवों को सहनशीलता प्रदान करती हैं; आप
पट्टवस्त्र-परिहिता हैं; आपका मध्यदेश दुग्ध के समान शुद्ध
कृश है; आपके समस्त अङ्ग तीर्थस्वरूप हैं। आपको नमस्कार ।।56 ।।
लक्ष्मी स्तोत्र माहात्म्य
श्रीशङ्कर उवाच -
अकारादि क्षकारान्तं लक्ष्मीदेव्याः
स्तवं शुभम् ।
पठितव्यं प्रयत्नेन त्रिसन्ध्यञ्च
दिने दिने ॥57 ॥
पूजनीया प्रयत्नेन कमला करुणामयी ।
वाञ्छा-कल्पलता साक्षाद्
भुक्ति-मुक्ति-प्रदायिनी ॥58
॥
शङ्कर ने कहा- प्रतिदिन तीनों
सन्ध्याओं में लक्ष्मीदेवी के अ-कारादि से क्ष-कार पर्यन्त शुभ स्तव का यत्नपूर्वक
पाठ करें। करूणामयी, वाञ्छाकल्प-लतासदृशी,
भोग एवं मोक्षदायिनी लक्ष्मीदेवी की यत्नपूर्वक पूजा करें ।।57-58।।
इदं स्तोत्रं पठेत् यस्तु
शृणुयाच्छ्रावयेदपि ।
इष्टसिद्धिर्भवेत्तस्य सत्यं सत्यं
हि पार्वति ॥59 ॥
हे पार्वति ! जो व्यक्ति इस स्तोत्र
का पाठ करता है या श्रवण करता है, उसे
इष्टसिद्धि प्राप्त होती है। यह सत्य, सत्य है ।।59 ।।
इदं स्तोत्रं महापुण्यं यः पठेत्
भक्तिसंयुतः ।
तञ्च दृष्ट्वा भवेन्मूको वादी सत्यं
न संशयः ॥60॥
जो भक्तियुक्त होकर इस महापुण्य
स्तोत्र का पाठ करता है, उसे देखकर वादी भी
मूक (=वाक्शक्तिरहित ) बन जाता है । यह सत्य है । इसमें कोई सन्देह नहीं है ।।60।।
शृणुयाच्छ्रावयेद् यस्तु पठेद्वा
पाठयेदपि ।
राजानो वशमायान्ति त्वं दृष्ट्वा
गिरिनन्दिनि ॥61॥
हे पर्वतपुत्रि ! जो व्यक्ति इस लक्ष्मीस्तोत्र
का श्रवण करता है या दूसरे को श्रवण कराता है; पाठ करता है या दूसरे के द्वारा पाठ करवाता है; राजागण
भी उसे देखकर उसके वशीभूत बन जाते हैं ।।61।।
तं दृष्ट्वा दुष्टसङ्खाश्च पलायन्ते
दिशो दश ।
भूतप्रेतग्रहा यक्षा राक्षसाः
पन्नगादयः ।
विद्रवन्ति भयार्ता वै
स्तोत्रस्यापि च कीर्तनात् ॥62
॥
जो इस स्तोत्र को सुनता है या
सुनाता है; पढ़ता है या पढ़वाता है अथवा इस
स्तोत्र का जो कीर्तन करता है, उसे देखकर समस्त दुष्टलोग दस
दिशाओं में पलायन कर जाते हैं । भूत, प्रेत, ग्रह, यक्ष, राक्षस एवं
सर्पादि ( उसे देखकर) भयार्त्त होकर अपसरण करते हैं ।।62।।
सुराश्च असुराचैव गन्धर्वाः
किन्नरादयः ।
प्रणमन्ति सदा भक्त्या तं दृष्ट्वा
पाठकं मुदा ॥63॥
उन लक्ष्मी स्तोत्र के
पाठकारी को देखकर देवता, असुर, गन्धर्व, किन्नर प्रभृति सर्वदा भक्तिपूर्वक आनन्द
के साथ उसे प्रणाम करते हैं ।।63।।
धनार्थी लभते राज्यं पुत्रार्थी च
सुतं लभेत् ।
राज्यार्थी लभते राज्यं स्तवराजस्य
कीर्तनात् ॥64॥
इस श्रेष्ठ स्तव के कीर्तन के
फलस्वरूप धनार्थी धन, पुत्रार्थी पुत्र
एवं राज्यार्थी राज्य का लाभ करता है ।।64।।
ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं
गुर्वङ्गनागमः ।
महापापोपपापं च तरन्ति
स्तवकीर्तनात् ॥65॥
इस स्तव का कीर्तन करने पर मानव
ब्राह्मणहत्या, सुरापान, चौर्य,
गुरुपत्नीगमन प्रभृति (कार्यों) से जनित महापातकों एवं समस्त
उपपातकों से तर जाता है (= पार पा जाता है ) ।।65।।
गद्यपद्यमयी वाणी वदनात्तु प्रजायते
।
अष्टसिद्धिमवाप्नोति
लक्ष्मीस्तोत्रस्य कीर्तनात् ॥66॥
इस लक्ष्मी स्तोत्र का
कीर्तन करने से स्तोत्र-पाठकारी के मुख से गद्य एवं पद्यमयी वाणी (वाक्य) आविर्भूत
होने लगती है और वह स्तोत्रपाठकारी अष्ट सिद्धियों (अणिमा,
महिमा, लघिमा, प्राप्ति,
प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व
एवं यत्रकामावसायित्व) को प्राप्त कर लेता है ।।66।।
वन्ध्या चापि लभेत् पुत्रं गर्भिणी
प्रसवेत् सुतम् ।
पठनात् स्मरणात् सत्यं क्चमि ते
गिरिनन्दिनि ॥67॥
हे पर्वतनन्दिनी ! इस स्तोत्र का
पाठ या स्मरण करने से वन्ध्या पुत्र को प्राप्त करती है एवं गर्भिणी पुत्र का
प्रसव करती है। मैं तुम्हें बता रहा हूँ कि यह सत्य है ।।67 ।।
भूर्जपत्रे समालिख्य रोचनाकुङ्कमेन
तु ।
भक्त्या सम्पूजयेद् यस्तु
गन्धपुष्पाक्षतैस्तथा ॥68॥
धारयेद्दक्षिणे बाहौ पुरुषः
सिद्धिकाङ्क्षया ।
योषिद् वामभुजे धृत्वा सर्वसौख्यमयी
भवेत् ॥69 ॥
जो पुरुष रोचना एवं कुङ्कुम के
द्वारा भूर्जपत्र पर इस स्तोत्र को लिखकर भक्तिपूर्वक गन्ध,
पुष्प एवं अक्षत के द्वारा पूजा करता है, वह
सिद्धि की आकाङ्क्षा करते हुए दक्षिण बाहु में इसे धारण करें एवं स्त्री वाम बाहु
में इसे धारण करें । ऐसा करने पर वो समस्त सुखों को प्राप्त करते हैं ।।68-69।।
विषं निर्विषतां याति,
अग्निर्याति च शीतताम् ।
शत्रवो मित्रतां यान्ति स्तवस्यास्य
प्रसादतः ॥70 ॥
इस स्तव के माहात्म्य से विष भी
निर्विष बन जाता है, अग्नि शीतल बन जाती
है, समस्त शत्रुगण भी मित्र बन जाते हैं ।।70।।
बहुना किमिहोक्तेन स्तवस्यास्य
प्रसादतः ।
बैकुण्ठे च वसेन्नित्यं वचूमिं
सत्यं सुरेश्वरि ॥71॥
हे देवगणेश्वरि ! और अधिक कहने का
क्या प्रयोजन, इस स्तव के प्रभाव से
स्तवपाठकारी वैकुण्ठ में नित्य वास करता है। यह मैं आपको सत्य बता रहा हूँ ।।71।।
इति रुद्रयामले शिवगौरीसंवादे अकारादिक्षकारान्तवर्णग्रथितं लक्ष्मीस्तोत्रम् ॥
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