त्रैलोक्य मंगल लक्ष्मीस्तोत्र

त्रैलोक्य मंगल लक्ष्मीस्तोत्र

जो मनुष्य इस त्रैलोक्य मङ्गल नामक लक्ष्मीस्तोत्र को नित्य प्रति विधानानुसार पाठ करता है, उसको आधि, व्याधि, दुःख, शोक, भय, धन, किसी भी वस्तु या इच्छाओं की कमी नहीं होती है अर्थात् सारे मनोरथ पूर्ण हो जाता है। 

त्रैलोक्य मंगल लक्ष्मीस्तोत्र

त्रैलोक्य मङ्गलात्मकं लक्ष्मीस्तोत्रम्

अथ त्रैलोक्य मङ्गल नाम लक्ष्मी स्तोत्र ।

    नमः कल्याणदे देवि नमोऽस्तु हरिवल्लभे ।

    नमो भक्तप्रिये देवि लक्ष्मीदेवि नमोऽस्तु ते ॥ १॥

हे देवि ! तुम कल्याणदायिनी हो, तुम्हें नमस्कार है । हे हरिवल्लभे ! तुम्हें प्रणाम करता हूँ । हे लक्ष्मीदेवि ! तुम भक्तजनों के अनुरक्त हो, तुम्हें नमस्कार करता हूँ ॥ १॥

    नमो मायागृहीताङ्गि नमोऽस्तु हरिवल्लभे ।

    सर्वेश्वरि नमस्तुभ्यं लक्ष्मीदेवि नमोऽस्तु ते ॥ २॥

हे देवि ! तुम माया के वश होकर अनेक प्रकार के देह धारण करती हो । हे विष्णु प्रिये ! तुम्हें नमस्कार है । हे देवि ! तुम सबकी ईश्वरी हो, तुम्हें प्रणाम करता हूँ ॥ २॥

    महामाये विष्णुधर्मपत्नीरूपे हरिप्रिये ।

    वाञ्छादात्रि सुरेशानि लक्ष्मीदेवि नमोऽस्तुते ॥ ३॥

हे लक्ष्मी देवि ! तुमने ही महामायारूप से जगत को मोहित किया है, तुम विष्णु की धर्मपत्नी हो । हे हरिप्रिये ! तुम सबकी वाञ्छा पूर्ण करती हो, इसलिये हे सुरेशानि ! मैं तुमको नमस्कार करता हूँ ॥ ३॥

    उद्यद्भानुसहस्राभे नयनत्रयभूषिते ।

    रत्नाधारे सुरेशानि लक्ष्मीदेवि नमोऽस्तुते ॥ ४॥

हे देवि ! तुम्हारी दीप्ति उदय हुए हजार सूर्यों के समान दुर्निरीक्ष्य है अर्थात् इतना तेज है कि देखी नहीं जाती; तुम तीन नेत्रों से परम शोभा पाती हो । हे देवि! केवल तुम्हीं रत्नों का आधार हो । मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ ॥ ४॥

    विचित्रवसने देवि भवदुःखविनाशिनि ।

    कुचभारनते देवि ! लक्ष्मीदेवि नमोऽस्तुते ॥ ५॥

हे जननि ! तुमने विचित्र वस्त्र पहनकर मनोहर शोभा धारण की है, केवल तुम्हारे अनुग्रह से ही भवदुःख विमोचन होता है अर्थात् संसारी दुःख छूट जाता है; तुम्हारे सिवाय और कोई भी संसारबन्धनरूप दुःखसागर से रक्षा करने में समर्थ नहीं है । हे देवि! तुम्हारा अङ्ग पुष्ट उरोजों (कुचों) के भार से नम्र है; मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ ॥ ५॥

    साधकाभीष्टदे देवि अन्नदानरतेऽनघे ।

    विष्ण्वानन्दप्रदे मातर्लक्ष्मीदेवि नमोऽस्तु ते ॥ ६॥

हे देवि ! तुम साधकगणों का मनोभीष्ट (मन का अभिलाष) पूर्ण करती हो; तुम अन्नदान द्वारा प्राणियों की जीवनरक्षा में निरन्तर व्याप्त रहती हो, तुम्हारे पवित्र शरीर में पाप का लेशमात्र नहीं, हे मातः ! सदा वैकुण्ठनाथ विष्णु के हृदय में आनन्द देती हो । मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ ॥ ६॥

    षट्कोणपद्ममध्यस्थे षडङ्गयुवतीमये ।

    ब्रह्माण्यादिस्वरूपे च लक्ष्मीदेवि नमोऽस्तु ते ॥ ७॥

हे लक्ष्मीदेवि ! तुम देह में षट्कोणपद्मरूप से वास करती हो, तुम षडङ्ग युवती (सब दैविक स्त्रियों) में पतिव्रता हो। तुम ही ब्रह्माणी वाराही इत्यादि मातृगण नाम से कही गई हो, तुम्हे नमस्कार है ॥ ७॥

    देवि त्वं चन्द्रवदने सर्वसाम्राज्यदायिनि ।

    सर्वानन्दकरे देवि लक्ष्मीदेवि नमोऽस्तु ते ॥ ८॥

हे लक्ष्मीदेवि! तुम्हारा वदनकमल पूर्णचन्द्रमा के समान रमणीय है, तुम प्रसन्न होने से चक्रवर्ती राज्य तक दे सकती हो, तुम ही सबको आनन्द देनेवाली हो तुम्हें नमस्कार करता हूँ ॥ ८॥

त्रैलोक्य मङ्गल लक्ष्मी स्तोत्र महात्म्य

    पूजाकाले पठेद्यस्तु स्तोत्रमेतत्समाहितः ।

    तस्य गेहे स्थिरा लक्ष्मीर्जायते नात्र संशयः ॥ ९॥

जो मनुष्य पूजा के समय सावधान होकर इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसके घर निःसन्देह कमला अचल होकर सदा वास करती है ॥ ९॥

    प्रातःकाले पठेद्यस्तु मन्त्रपूजापुरःसरं ।

    तस्य चान्नसमृद्धिः स्याद्वर्द्धमानो दिनेदिने ॥ १०॥

जो मनुष्य प्रातःकाल के समय मन्त्र और पूजादि समाप्त करके लक्ष्मीस्तोत्र का पाठ करता है, उसके घर अन्न और समृद्धि की वृद्धि होती है और वह मनुष्य दिन दिन  श्री (लक्ष्मी) की वृद्धि को प्राप्त होता है ॥ १०॥

    यस्मै कस्मै न दातव्यं न प्रकाश्यं कदाचन ।

    प्रकाशात्कार्यहानिः स्यात्तस्माद्यत्नेन गोपयेत्  ॥११॥

जिस किसी के लिये यह स्तोत्र नहीं देना चाहिये अर्थात् सर्व साधारण मनुष्य को इसका दान करना उचित नहीं, इसे सदा गुप्त रखना उचित है । उसको साधारण मनुष्य के निकट प्रकाश करने से कार्य विफल और अनिष्ट होने की अत्यन्त सम्भावना होती है, इसलिये यत्नसहित इसको गुप्त रखें ॥ ११॥

    त्रैलोक्यमङ्गलं नाम स्तोत्रमेतत्प्रकीर्तितं ।

    ब्रह्मविद्यास्वरूपञ्च महैश्वर्यप्रदायकम् ॥ १२॥

त्रैलोक्यमङ्गल नामक यह स्तोत्र तीनों लोकों को मङ्गल देनेवाला है; यह ब्रह्मविद्यास्वरूप और महा ऐश्वर्यदायक है इसमें सन्देह नहीं ॥ १२॥

    पठनाद्धारणान्मर्त्यस्त्रैलोक्यैश्वर्यवान्भवेत् ।

    यद्धृत्वा पठनाद्देवाः सर्वैश्वर्यमवाप्नुयुः ॥ १३॥

इस स्तोत्र का पाठ व इसको धारण करने से मनुष्य सहज ही में त्रिभुवन के ईश्वर हो सकते हैं, यह स्तव पढ़ते ही इसके प्रसाद से देवताओं के समान सब ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं ॥ १३॥

    ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च धारणात्पठनाद्यतः ।

    सृजत्यवति हरत्येव कल्पेकल्पे पृथक्पृथक् ॥ १४॥

इस स्तव के धारण और अध्ययन करने से ही जगत्स्रष्टा ब्रह्माजी कल्प कल्प में नानाविधि सृजन करते हैं और इस स्तवराज के प्रसाद से ही देवदेव विष्णु सृष्टि को प्रतिपालन और रुद्रदेव सबका संहार करते हैं ॥ १४॥

    पुष्पाञ्जल्यष्टकं देव्यै मूलेनैव पठेत्ततः ।

    युगकालकृतायास्तु पूजायाः फलमाप्नुयात् ॥ १५॥

मूलमन्त्र पाठ करके लक्ष्मीदेवी को आठ पुष्पाञ्जली देकर फिर इस स्तव का पाठ करके युगकालीनकृत (एक युग तक किये हुए) पूजा का फल मिलता है ॥ १५॥

    प्रीतिमन्योन्यतः कृत्वा कमला निश्चला गृहे ।

    वाणी वक्त्रे वसेत्तस्य सत्यं सत्यं न संशयः ॥ १६॥

इस परम पवित्र स्तवराज को अध्ययन करने से लक्ष्मीदेवी उसके प्रति परम प्रीति लाभ करती है जो मनुष्य इस स्तोत्र का पाठ करता है उसके कण्ठ में वाग्देवी निरन्तर वास करती है, इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं ॥ १६॥

    अष्टोत्तरशतञ्चास्य पुरश्चर्याविधिः स्मृतः ॥ १७॥

यह स्तवराज अष्टोत्तरशत (१०८) बार अध्ययन करने से ही इसका पुरश्चरण होता है ॥ १७॥

    भूर्जे विलिख्य गुलिकां स्वर्णस्थां धारयेद्यदि ।

    कण्ठे वा दक्षिणे वाह्यौ सोऽपि सर्वतपोमयः ॥ १८॥

जो मनुष्य भोजपत्र पर इस स्तव को लिख तावीज बनाये, उस तावीज को सुवर्ण मे मढाकर कण्ठ अथवा दाहिनी भुजा में धारण करता है, वह निःसन्देह सर्वतपोमय होता है ॥ १८॥

    ब्रह्मास्त्रादीनि शस्त्राणि तद्गात्रं प्राप्य पार्वति ।

    माल्यानि कौसुमान्येव भवन्त्येव न संशयः ॥ १९॥

हे पार्वती ! जो मनुष्य यह स्तोत्र अपने गात्र में धारण करता है, किसी प्रकार का भी अस्त्र शस्त्र प्रक्षिप्त (प्रयोग किया हुआ) हो वह इस धारण करनेवाले के गात्र में निपतित हो जाय, किन्तु वह उसको कुसुम- माला के समान बोध होता है, इसमें सन्देह नहीं ॥ १९॥

    अस्यापि पठनात्सद्यः कुबेरोऽपि धनाधिपः ।

    इन्द्राद्याः सकला देवा धारणात्पठनाद्यतः॥

    सर्वसिद्धीश्वराः सन्तः सर्वैश्वर्यमवाप्नुयुः ॥ २०॥

इस स्तोत्र का पाठ करने से ही इसके प्रसाद से कुबेर को धनाध्यक्ष पद प्राप्त हुआ है और इन्द्रादिदेवतागण भी यह स्तव धारण और अध्ययन करके सब प्रकार सिद्धिलाभ करते और सब प्रकार के ऐश्वर्य के लाभ को प्राप्त हुए हैं ॥ २०॥

    पुष्पाञ्जल्यष्टकं देव्यै मूलेनैव सकृत्पठेत् ।

    संवत्सरकृतायास्तु पूजायाः फलमाप्नुयात् ॥ २१॥

जो मनुष्य मूलमन्त्रपाठपूर्वक देवी को आठ पुष्पाञ्जली देकर केवल एकबार इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह संवत्सरकृत (एक वर्ष तक करी हुई) पूजा के फल को प्राप्त होता है ॥ २१॥

    यो धारयति पुण्यात्मा त्रैलोक्यमङ्गलं त्विदं ।

    स्तोत्रन्तु परमं पुण्यं सोऽपि पुण्यवतां वरः ॥ २२॥

जो पुण्यवान् मनुष्य त्रिलोकी का मङ्गलदाता यह परम पवित्र स्तोत्र धारण करता है वह पुण्यवान् पुरुषों में अग्रणी कहकर कीर्तित होता है ॥ २२॥

         सर्वैश्वर्ययुतो भूत्वा त्रैलोक्यविजयी भवेत् ।

         पुरुषो दक्षिणे बाहौ नारी वामभुजे तथा ।

         बहुपुत्रवती भूत्वा वन्ध्यापि लभते सुतम् ॥ २३॥

जो पुरुष भक्ति सहित यथानियम भोजपत्र पर यह स्तोत्र लिखकर दाहिनी भुजा में धारण करता है, वह सर्व ऐश्वर्यवान् होकर त्रिलोक का विजय करनेवाला होता है, और जो स्त्री बाँई भुजा में धारण करती है वह बहुत पुत्रवती होती है । इस पवित्र स्तोत्र को धारण करने से वन्ध्या अर्थात् बाँझ स्त्रियें भी सर्वोत्तम पुत्र को प्राप्त करती हैं ॥ २३॥

    ब्रह्मास्त्रादीनि शस्त्राणि नैव कृन्तन्ति तं जनं ।

    पठेद्वा धारयेद्वापि यो नरो भक्तितत्परः ॥ २४॥

जो मनुष्य भक्ति तत्पर चित्त से इस स्तोत्र का पाठ करता है, अथवा अपने शरीर में धारण करता है, उसको क्या शस्त्र क्या अस्त्रादि अधिक क्या ब्रह्मास्त्र भी छेदन करने में समर्थ नहीं हैं ॥ २४॥

    एतत्तु स्तोत्रमज्ञात्वा योऽर्चयेज्जगदीश्वरीं ।

    दारिद्र्यं परमं प्राप्य सोऽचिरान्मृत्युमाप्नुयात् ॥ २५॥

इस स्तोत्र को न जानकर जो मनुष्य जगदीश्वरी की पूजा करता है, वह परम दरिद्रता को प्राप्त होकर शमन भवन को गमन करता है अर्थात् मृत्यु को प्राप्त होता है ॥ २५॥

    यः पठेत्प्रातरुत्थाय सर्वतीर्थफलं लभेत् ।

    यः पठेदुभयोः सन्ध्योत्तस्य विघ्नो न विद्यते ॥ २६॥

जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर इस स्तवराज का पाठ करता है, उसको सब तीर्थों में जाने का फल मिलता है, और जो मनुष्य दोनों सन्ध्याओं के समय यह स्तवराज अध्ययन करता है, उसको किसी प्रकार के विघ्न में निपतित होना नहीं होता ॥ २६॥

    धारयेद्यः स्वदेहे तु तस्य विघ्नं न कुत्रचित् ।

    भूतप्रेतपिशाचेभ्यो भयस्तस्य न विद्यते ॥ २७॥

जो मनुष्य यह स्तोत्र अपने देह में धारण करता है उसको किसी प्रकार का विघ्न आक्रमण नहीं कर सकता और भूत, प्रेत, पिशाच,प्रभृति से भी उसको भय उत्पन्न होने की कोई सम्भावना नहीं है ॥ २७॥

    रणे च राजद्वारे च सर्वत्र विजयी भवेत् ।

    सर्वत्र पूजामाप्नोति देवीपुत्र इव क्षितौ ॥ २८ ॥

जो मनुष्य इस स्तोत्र को पाठ व धारण करता है, वह क्या रण में, क्या राजद्वार में, सर्वत्र ही विजयलाभ करता है और सर्वत्र सब ही उसकी पूजा करते हैं वह देवी के पुत्र के समान पृथ्वीतल में परम सुख से विचरण करता है ॥ २८॥

    एतत्स्तोत्रं महापुण्यं धर्मकामार्थसिद्धिदं ।

    यत्र तत्र न वक्तव्यं गोपितव्यं प्रयत्नतः ॥ २९॥

यह स्तोत्र परम पवित्र है, इसके द्वारा धर्म और काम की सिद्धि होती है इसको जहां तहां प्रकाश करना उचित नहीं है, इसको यत्नसहित गुप्त रखना चाहिये ॥ २९॥

    गोपितं सर्वतन्त्रेषु सारात्सारं प्रकीर्तितं ।

    सर्वत्र सुलभा विद्या स्तोत्रमेतत्सुदुर्लभम् ॥ ३०॥

और जो कोई विद्या भी क्यों न हो, सर्वत्र ही सुलभता से प्राप्त हो जाती हैं, परन्तु यह स्तोत्र अति दुर्लभ जानना चाहिये। सार का भी सारभूत यह स्तोत्र सम्पूर्ण तन्त्रो में गोपनीय कहकर कीर्तित है ॥ ३०॥

    शठाय भक्तिहीनाय निन्दकाय महेश्वरि ।

    न्यूनाङ्गे अतिरिक्ताङ्गे क्रूरे मिथ्याभिभाषिणे ॥

          न स्तवं दर्शयेद्दिव्यं परमं सुरदुर्लभम् ॥ ३१ ॥

हे महेश्वरि ! जो मनुष्य शठ लक्ष्मी की भक्तिविहीन, जो पराई निन्दा करनेवाला है और जो मनुष्य विकलाङ्ग अथवा जिसकी देह अतिस्थूल (बड़ी) है, जो मनुष्य क्रूर और झूठ बोलनेवाला है, उसको कभी यह देवताओं को भी दुर्लभ, परम पवित्र दिव्यस्तोत्र दान न करना चाहिये ॥ ३१॥

    यत्र तत्र न वक्तव्यं मया तु परिभाषितम् ।

    दत्वा तेभ्यो महेशानि नश्यन्ति सिद्धयः क्रमात् ॥ ३२॥

हे महेशानि ! यह मेरा कहा हुआ स्तोत्र जहां तहाँ नहीं कहना चाहिये । उन पूर्वोक्त अनधिकारियों को यह स्तोत्र प्रदान करने से समस्त सिद्धियां क्रम-क्रम से नष्ट हो जाती हैं ॥ ३२॥

    मन्त्राः पराङ्मुखा यान्ति शापं दत्वा सुदारुणम् ।

    अशुभञ्च भवेत्तस्य तस्माद्यत्नेन गोपयेत् ॥ ३३॥

जो मनुष्य साधारण मनुष्य के निकट इस स्तव को प्रकाश करता है, उससे सम्पूर्ण मन्त्र विमुख हो दारुणशाप देकर पलायन कर जाते हैं और अनेक प्रकार के अशुभ उपस्थित होते हैं, इस कारण यत्नसहित इसको गुप्त रखना चाहिये ॥ ३३॥

    गोरोचनाकुङ्कुमेन भूर्जपत्रे महेश्वरि ।

    लिखित्वा शुभयोगे च ब्रह्मेन्द्रौ वैधृतौ यथा ॥

    सर्वार्थसिद्धिमाप्नोति सत्यं सत्यं न संशयः ॥ ३४॥

हे महेश्वरि ! यदि ब्रह्मा अथवा इन्द्र भी शुभयोग में भोजपत्र पर गोरोचन और कुंकुम से लिखकर यह स्तव धारण करे, तो वह भी सर्वार्थ सिद्धि लाभ करते हैं, इसमें संशय नहीं ॥ ३४॥

    कुमारीं पूजयित्वा तु देवीसूक्तं निवेद्य च ।

    पठित्वा भोजयेद्विप्रान्धनवान्वेदपारगान्  ॥ ३५॥

    नाधयो व्याधयस्तस्य दुःखशोकभयं भवेत् ।

    वादी मूको भवेद् दृष्ट्वा राजा च सेवकायते ॥ ३६॥

प्रथम कुमारी की पूजा करके देवीसूक्त पाठ पूर्वक इस स्तवराज का पाठ करे, इसके पीछे वेद के जाननेवाले ब्राह्मणों को तृप्ति देनेवाला भोजन करावे; इस प्रकार करने से जगत् में सबकी अपेक्षा धनवान हो जाता है । जो मनुष्य इस प्रकार विधानानुसार इस स्तवराज का पाठ करता है, उसको आधि, व्याधि, दुःख, शोक, भय, कुछ भी आक्रमण व परास्त करने में समर्थ नहीं होते हैं, उसके केवल देखने से ही बोलनेवाले को मूकता प्राप्त होती है और राजा भी दास के समान वश में हो जाता है ॥ ३५- ३६॥

    मासमेकं पठेद्यस्तु प्रत्यहं नियतः शुचिः ।

    दिवा भवेद्धविष्याशी रात्रौ भक्तिपरायणः ।

    तस्य सर्वार्थसिद्धिः स्यात् सत्यंसत्यं महेश्वरि ॥ ३७॥

हे महेश्वरि ! जो मनुष्य दिन में हविष्यान्न भोजन कर के रात्रियोग में भक्तिपरायण हो विशुद्धाचार सहित एक महीने तक इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसको निःसन्देह संपूर्ण सिद्धियां मिलती हैं ॥ ३७॥

    षट्सहस्रप्रमाणेन प्रत्यहं प्रजपेत्सदा ।

    षण्मासैर्वा त्रिभिर्मासैः खेचरोभवति ध्रुवम् ॥ ३८॥

जो मनुष्य प्रतिदिन छः महीने तक वा तीन महीने तक प्रतिदिन छः हजार बार इस स्तोत्र का जप करता है उसको खेचरी सिद्धि मिलती है ॥ ३८॥

    अपुत्रो लभते पुत्रमधनो धनवान्भवेत् ।

    अरोगी बलवांस्तस्य राजा च दासतामियात् ॥ ३९॥

इस स्तव के प्रसाद से अपुत्र मनुष्य को पुत्र और धनहीन को धन मिलता है, इसके प्रभाव से ही रोगों से छूटकर अतुलबल, वीर्यलाभ किया जा सकता है, जो मनुष्य विधानानुसार इस स्तवराज को पढ़ता व धारण करता है, उसके निकट राजा भी दास के समान वश में हो जाता है ॥ ३९॥

    य एवं कुरुते धीमान्स एव कमलापतिः ।

    स एव श्रीमहादेवस्तस्य पत्नी हरिप्रिया ॥ ४०॥

जो बुद्धिमान् यथाविधि इस स्तव का पाठादिक करता है, वह हरि के सायुज्यपद को प्राप्त होता है, वह सदाशिव के समान होता है और उसकी स्त्री कमला (लक्ष्मी) के समान होती है ॥ ४०॥

    बहुना किमिहोक्तेन स्तवस्यास्य प्रसादतः ।

    धर्मार्थकाममोक्षञ्च लभते नात्र संशयः ॥ ४१॥

अधिक और क्या कहूं ! इस स्तव के प्रसाद से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों वर्ग ही प्राप्त हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं ॥ ४१॥

    इति ते कथितं देवि त्रैलोक्यमङ्गलाभिधं ।

    लक्ष्मीस्तोत्रं महापुण्यं संसारार्णवतारकम् ॥ ४२॥

हे देवि ! मैंने यह तुम से भवसागर के परित्राण (रक्षा) का कारण महापवित्र त्रैलोक्य मङ्गल नामक लक्ष्मीस्तोत्र कथन किया ॥ ४२॥

    ऋजवे सुचरित्राय विष्णुभक्तिपराय च ।

    दातव्यञ्च प्रयत्नेन परमं गोपनं त्विदम् ॥ ४३॥

यह स्तोत्र परम गोपनीय (गुप्त रखने योग्य) है । केवल सुचरित्र, सरल और विष्णु की भक्ति करनेवाले मनुष्य को ही इसका दान करें ॥ ४३॥

॥ इति श्रीशङ्करभाषितं त्रैलोक्यमङ्गलनामकलक्ष्मीस्तोत्रम् सम्पूर्णम् ।

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