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कर्मकाण्ड

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कल्याण वृष्टि स्तोत्र

कल्याण वृष्टि स्तोत्र

कल्याण वृष्टि स्तोत्र या षोडशी कल्याण स्तोत्र की रचना शंकराचार्य द्वारा की गयी है।

कल्याणवृष्टिस्तोत्रम्

कल्याणवृष्टिस्तोत्र

ह्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं स क ल ह्रीं ।

सोलह बीज अक्षर मंत्र अर्थात् षोडश कलाएँ पूर्णरूप से विकसित होने के कारण ही देवी त्रिपुर सुंदरी को षोडशी महाविद्या कहा जाता है। ये महाविद्या षोडशी कहलाती हैं। भगवती षोडशी को श्रीविद्या भी कहा जाता है। षोडशी महाविद्या के ललिता, त्रिपुरा, राज राजेश्वरी, महात्रिपुरसुन्दरी, बालापञ्चदशी आदि अनेक नाम हैं।

सोलह अक्षरों के मन्त्रवाली ललिता देवी की अङ्गकान्ति उदीयमान सूर्यमण्डल की आभा की भांति है। षोडशी माता की चार भुजाएं तीन नेत्र हैं। ये शान्तमुद्रा में लेटे हुए सदाशिव पर स्थित कमल के आसन पर आसीन हैं। भगवती षोडशी के चारों हाथों में क्रमश: पाश, अङ्कुश, धनुष और बाण सुशोभित हैं। वर देने के लिये सदा-सर्वदा तत्पर भगवती षोडशी का श्रीविग्रह सौम्य और हृदय दया से आपूरित है।

कल्याण वृष्टि स्तोत्रम्

शंकराचार्य द्वारा रचित कल्याण वृष्टि स्तोत्र में शंकराचार्यजी ने षोडशी श्रीविद्या के इसी मूलमंत्र के प्रत्येक अक्षर पर आधारित इस स्तोत्र में सोलह श्लोक लिखे गए हैं जो भी व्यक्ति इसका प्रतिदिन पाठ करता है, भगवती षोडशी की कृपा से उसके जीवन में कल्याण ही कल्याण होता है ।

कल्याणवृष्टिस्तोत्रम्

षोडशी कल्याण स्तोत्र

॥ कल्याण वृष्टि स्तोत्र ॥

कल्याणवृष्टिभिरिवामृतपूरिताभि

र्लक्ष्मीस्वयंवरणमङ्गलदीपिकाभिः ।

सेवाभिरम्ब तव पादसरोजमूले

नाकारि किं मनसि भक्तिमतां जनानाम् ॥१॥

अम्ब ! अमृत से परिपूर्ण कल्याण की वर्षा करने वाली एवं लक्ष्मी को स्वयं वरण करने वाली मंगलमयी दीपमाला की भाँति आपकी सेवाओं ने आपके चरण कमलों में भक्ति भाव रखने वाले मनुष्यों के मन में क्या कर दिया, अर्थात् उनके समस्त मनोरथों को पूर्ण कर दिया।

एतावदेव जननि स्पृहणीयमास्ते

त्वद्वन्दनेषु सलिलस्थगिते च नेत्रे ।

सांनिध्यमुद्यदरूणायतसोदरस्य

त्वद्विग्रहस्य सुधया परयाप्लुतस्य ॥२॥

जननी ! मेरी तो बस यही स्पृहा है कि परमोत्कृष्ट सुधा से परिप्लुत तथा उदीयमान अरुणवर्ण सूर्य की समता करने वाले आपके अरुण श्रीविग्रह के संनिकट पहुँचकर आपकी वन्दनाओं के समय मेरे नेत्र अश्रुजल से परिपूर्ण हो जायें।

ईशित्वभावकलुषाः कति नाम सन्ति

ब्रह्मादयः प्रतियुगं प्रलयाभिभूताः ।

एकः स एव जननि स्थिरसिद्धिरास्ते

यः पादयोस्तव सकृत् प्रणतिं करोति ॥३॥

माँ ! प्रभुत्वभाव से कलुषित ब्रह्मा आदि कितने देवता हो चुके हैं जो प्रत्येक युग में प्रलय से विनष्ट हो गये हैं, किंतु एक वही व्यक्ति स्थिर सिद्धियुक्त विद्यमान रहता है, जो एक बार आपके चरणों में प्रणाम कर लेता है।

लब्ध्वा सकृत् त्रिपुरसुन्दरि तावकीनं

कारुण्यकन्दलितकान्तिभरं कटाक्षम् ।

कन्दर्पभावसुभगास्त्वयि भक्तिभाजः

सम्मोहयन्ति तरुणीर्भुवनत्रयेषु ॥४॥

त्रिपुरसुन्दरी ! आप में भक्तिभाव रखने वाले भक्तजन एक बार भी आपके करुणा से अंकुरित सुशोभन कटाक्ष को पाकर कामदेव सदृश सौन्दर्यशाली हो जाते हैं और त्रिभुवन में युवतियों को सम्मोहित कर लेते हैं।

ह्रीं

ह्रींकारमेव तव नाम गृणन्ति वेदा

मातस्त्रिकोणनिलये त्रिपुरे त्रिनेत्रे ।

यत्संस्मृतौ यमभटादिभयं विहाय

दीव्यन्ति नन्दनवने सह लोकपालैः ॥५॥

त्रिकोण में निवास करने वाली एवं तीन नेत्रों से सुशोभित माता त्रिपुरसुन्दरि ! वेद ह्रीं कार को ही आपका नाम बताते हैं। वह नाम जिनके संस्मरण में आ गया, वे भक्तजन यमदूतों के भय को त्यागकर लोकपालों के साथ नन्दनवन में क्रीडा करते हैं।

हन्तुः पुरामधिगलं परिपूर्यमाणः

क्रूरः कथं नु भविता गरलस्य वेगः ।

आश्वासनाय किल मातरिदं तवार्धं

देहस्य शश्वदमृताप्लुतशीतलस्य ॥६॥

माता ! निरन्तर अमृत से परिप्लुत होने के कारण शीतल बने हुए आपके शरीर का यह अर्धभाग जिनके साथ संलग्न था, उन त्रिपुरहन्ता शंकरजी के गले में भरा हुआ हलाहल विष का वेग उनके लिये अनिष्टकारक कैसे होता?

सर्वज्ञतां सदसि वाक्पटुतां प्रसूते

देवि त्वदङ्घ्रिसरसीरुहयोः प्रणामः ।

किं च स्फुरन्मुकुटमुज्ज्वलमातपत्रं

द्वे चामरे च वसुधां महतीं ददाति ॥७॥

देवि ! आपके चरण कमलों में किया हुआ प्रणाम सर्वज्ञता और सभा में वाक् चातुर्य तो उत्पन्न करता ही है, साथ ही उद्भासित मुकुट, श्वेत छत्र, दो चामर और विशाल पृथ्वी का साम्राज्य भी प्रदान करता है।

कल्पद्रुमैरभिमतप्रतिपादनेषु

कारुण्यवारिधिभिरम्ब भवत्कटाक्षैः ।

आलोकय त्रिपुरसुन्दरि मामनाथं

त्वय्येव भक्तिभरितं त्वयि दत्तदृष्टिम् ॥८॥

माँ त्रिपुरसुन्दरि ! मैं आपकी ही भक्ति से परिपूर्ण हूँ और आपकी ओर ही दृष्टि लगाये हुए हूँ, अतः आप मुझ अनाथ की ओर मनोरथों को पूर्ण करने में कल्पवृक्ष सदृश एवं करुणासागर स्वरुप अपने कटाक्षों से देख तो लें।

हन्तेतरेष्वपि मनांसि निधाय चान्ये

भक्तिं वहन्ति किल पामरदैवतेषु ।

त्वामेव देवि मनसा वचसा स्मरामि

त्वामेव नौमि शरणं जगति त्वमेव ॥९॥

देवि ! खेद है कि अन्यान्य जन आपके अतिरिक्त अन्य साधारण देवताओं में भी मन लगाकर उनकी भक्ति करते हैं, किंतु मैं मन और वचन से आपका ही स्मरण करता हूँ, आपको ही प्रणाम करता हूँ, क्योंकि जगत में आप ही शरणदात्री हैं।

लक्ष्येषु सत्स्वपि तवाक्षिविलोकनाना

मालोकय त्रिपुरसुन्दरि मां कथंचित् ।

नूनं मयापि सदृशं करूणैकपात्रं

जातो जनिष्यति जनो न च जायते च ॥१०॥

त्रिपुरसुन्दरि ! यद्यपि आपके नेत्रों के लिये देखने के बहुत से लक्ष्य वर्तमान हैं, तथापि किसी प्रकार आप मेरी ओर दृष्टि डाल दें, क्योंकि निश्चय ही मेरे समान करुणा का पात्र न कोई पैदा हुआ है, न हो रहा है और न पैदा होगा।

ह्रीं

ह्रीं ह्रीमिति प्रतिदिनं जपतां जनानां

किं नाम दुर्लभमिह त्रिपुराधिवासे ।

मालाकिरीटमदवारणमाननीयां

स्तान् सेवते मधुमती स्वयमेव लक्ष्मीः ॥११॥

त्रिपुर में निवास करनेवाली माँ! ह्रीं, ह्रीं‘ – इस प्रकार आपके बीजमन्त्र का प्रतिदिन जप करनेवाले मनुष्यों के लिये इस जगत में क्या दुर्लभ है? माला, किरीट और उन्मत्त गजराज से युक्त उन माननीयों की तो स्वयं मधुमती लक्ष्मी ही सेवा करती हैं।

सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि

साम्राज्यदानकुशलानि सरोरुहाक्षि ।

त्वद्वन्दनानि दुरितौघहरोद्यतानि

मामेव मातरनिशं कलयन्तु नान्यम् ॥१२॥

कमलनयनि ! आपकी वन्दनाएँ सम्पत्ति प्रदान करनेवाली, समस्त इन्द्रियों को आनन्दित करनेवाली, साम्राज्य प्रदान करने में कुशल और पाप समूह को नष्ट करने में उद्यत रहनेवाली हैं, माता ! वे निरन्तर मुझे ही प्राप्त हों, दूसरे को नहीं।

कल्पोपसंहरणकल्पितताण्डवस्य

देवस्य खण्डपरशोः परमेश्वरस्य ।

पाशाङ्कुशैक्षवशरासनपुष्पबाणा

सा साक्षिणी विजयते तव मूर्तिरेका ॥१३॥

कल्प के उपसंहार के समय ताण्डव नृत्य करने वाले खण्डपरशु देवाधिदेव परमेश्वर शंकर के लिये पाश, अंकुश, ईख का धनुष और पुष्पबाण को धारण करनेवाली आपकी वह एकमात्र मूर्ति साक्षीरूप से सुशोभित होती है।

लग्नं सदा भवतु मातरिदं तवार्धं

तेजः परं बहुलकुङ्कुमपङ्कशोणम् ।

भास्वत्किरीटममृतांशुकलावतंसं

मध्ये त्रिकोणमुदितं परमामृतार्द्रम् ॥१४॥

माता ! आपका यह अर्धांग जो परम तेजोमय, अत्यधिक कुंकुम पंक से युक्त होने के कारण अरुण, चमकदार किरीट से सुशोभित, चन्द्रकला से विभूषित, अमृत से परमार्द्र और त्रिकोण के मध्य में प्रकट है, सदा शिवजी से संलग्न रहे।

ह्रीं

ह्रींकारमेव तव धाम तदेव रूपं

त्वन्नाम सुन्दरि सरोजनिवासमूले ।

त्वत्तेजसा परिणतं वियदादिभूतं

सौख्यं तनोति सरसीरुहसम्भवादेः ॥१५॥

कमल पर निवास करनेवाली सुन्दरि ! ह्रीं कार ही आपका धाम है, वही आपका रूप है, वही आपका नाम है और वही आपके तेज से उत्पन्न हुए आकाश आदि से क्रमशः परिणत जगत का आदिकारण है, जो ब्रह्मा, विष्णु आदि की रचित पालित वस्तु बनकर परम सुख देता है।

ह्रीं

ह्रींकारत्रयसम्पुटेन महता मन्त्रेण संदीपितं

स्तोत्रं यः प्रतिवासरं तव पुरो मातर्जपेन्मन्त्रवित् ।

तस्य क्षोणिभुजो भवन्ति वशगा लक्ष्मीश्चिरस्थायिनी

वाणी निर्मलसूक्तिभारभरिता जागर्ति दीर्घं वयः ॥१६॥

माता ! जो मन्त्रज्ञ तीन ह्रीं कार से सम्पुटित महान मन्त्र से संदीपित इस स्तोत्र का प्रतिदिन आपके समक्ष जप करता है, राजालोग उसके वशीभूत हो जाते हैं, उसकी लक्ष्मी चिरस्थायिनी हो जाती है, उसकी वाणी निर्मल सूक्तियों से परिपूर्ण हो जाती है और वह दीर्घायु हो जाता है।

इति श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ कल्याणवृष्टिस्तवः सम्पूर्णः ॥

॥ इस प्रकार श्रीमत् शंकराचार्य रचित कल्याण वृष्टि स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ॥

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