श्रीराधा सप्तशती अध्याय ४
इससे पूर्व आपने श्रीराधा सप्तशती
अध्याय ३में गहवर वन की गम्भीरता को पढ़ा, अब
उससे आगे अध्याय ४ में श्रीराधा मन्दिर महाप्रसाद का वर्णन हुआ है।
श्रीराधा सप्तशती चतुर्थोऽध्यायः
सुकण्ठ उवाच
सखे त्वयातिमधुरं श्रीगह्वरकथानकम् ।
धावितं कृपया बूहि किमग्रे कृतवान्
द्विजः॥१॥
श्रीमधुकर जी ने कहा- मित्रवर! आपने
गहवर वन की बड़ी मधुर कथा सुनायी। अब यह बताइये कि आगे ब्राह्मण ने क्या किया ॥१॥
मधुकण्ठ उवाच
प्रत्यहं राधिकादेव्या
मन्दिरप्राङ्गणे द्विजः ।
पठन् भागवतं भवत्या
प्रातरेवोपतिष्ठते॥२॥
श्रीमधुकण्डजी बोले-वे ब्राह्मण
बड़े भक्तिभाव से श्रीमद्भागवत का पाठ करने के लिए महल के आंगन में प्रात: काल ही
आकर डट जाते थे
तत्रानुभूतं विप्रेण श्रीकृपाहेतुकं
तु यत् ।
हरिलीलामृतं मित्र कथयामि
तवाग्रतः॥३॥
(सखे ! उन्हें नित्य किसी-न-किसी
दिव्य लीला का अनुभव होता था।) श्रीराधिकादेवी के महल मे उन्हीं की कृपा से
ब्राह्मण ने जो हरिलीलामृत का अनुभव या रसास्वादन किया,
मैं तुम्हारे समक्ष उसका वर्णन करता हूँ ॥३॥
भावनायां तु लीलानां या
स्फूतिर्जायते हृदि ।
साक्षात्कारोऽथवा तत्तु कृपाया
लक्षणं परम् ॥४॥
भावना की अवस्था में (प्रेमी के
हृदय में) जो लीलाओं की स्फूर्ति होती है अथवा प्रिय-प्रियतम की उन लीलाओं का जो
साक्षात्कार होता है, वह सब श्रीजी की
कृपा का उत्तम लक्षण है ॥४॥
विनानुभूति भक्तानां कयं
स्यात्प्राणधारणम् ।
परियाकस्तथा वृद्धिर्भक्तरपि न
सम्भवेत् ॥५॥
लीलाओं का अनुभव या आस्वादन किये
विना भक्तजन कैसे प्राण-धारण कर सकते हैं ? उसके
बिना भक्ति का परिपाक एवं वृद्धि भी तो सम्भव नहीं है ।।५।।
एकदा पठतस्तस्य मुहूर्ताधे
गतेऽग्रतः।
मातुरङ्कगतो बालो गोपालो दर्शनं गतः
॥६॥
एक दिन श्रीमद्भागवत का पाठ करते
हुए ब्राह्मण को आधा मुहूर्त बीतते बीतते अपने सामने ही श्रीयशोदा मैया की गोद में
श्रीबाल-गोपाल का दर्शन हुआ ॥६।।
स चैकहायनो मातुस्तथा गोपस्य
शिक्षया ।
प्रणाममेकहस्तेन कृतवान्
वित्रसम्मुखे ॥७॥
उनकी आयु एक वर्ष की थी। उन्होंने
मैया और किसी गोप के सिखाने से ब्राह्मण के सम्मुख एक हाथ उठाकर प्रणाम किया ।।७।।
प्रोवाच भाग्यवान्विषो जाताह्लादो
महामनाः।
जयो जयोऽस्तु लाल्यस्य जयो लाल्यस्य
सर्वदा ॥८॥
यह देख परम भाग्यवान् महामना
ब्राह्मण को बड़ी प्रसन्नता हुई। ये सहसा बोल उठे--जय हो,
जय हो लाला की! लालजी की सदा ही जय हो !! ८।।
ततश्चान्तहिते तस्मिन् वित्रो
विस्मितमानसः।
चिन्तयामास तस्यैकहस्ततः प्रणते.
फलम् ॥९॥
थोड़ी देर के बाद श्रीलालजी
अन्तर्धान हो गये। तब ब्राह्मण के मन में वड़ा विस्मय हुआ। वे सोचने लगे कि एक हाथ
से प्रणाम करने का क्या प्रयोजन है (शास्त्र मे तो एक हाथ का प्रणाम निन्दित माना
गया है) ॥९॥
एतस्मिन्नन्तरे देव्या राधायाः
सेविकागणे ।
परस्परं
विवादोऽभूदतिविस्मयकारकः॥१०॥
इसी बीच में श्रीराधादेवी और उनकी
दासियाँ प्रकट हुई। उन दासियों मे परस्पर विवाद होने लगा,
जो अत्यन्त आश्चर्यजनक जान पड़ा ॥१०॥
परं श्रीस्वामिनी तासां विवादेऽपि
प्रसीदति ।
सुविस्मितोऽभवद् विप्रः प्रसन्ना
स्वामिनी कयम् ॥११॥
परन्तु उनमें विवाद होने पर भी
श्रीस्वामिनी राधा प्रसन्न हो रही थीं। ब्राह्मण बहुत विस्मित हुए कि स्वामिनी
प्रसन्न क्यों हो रही हैं ।।११।।
चिन्तयित्वाचिरं सर्व सहसाधिजगाम ह ।
लीला गोपालचन्द्रेण मम मोहाय
कल्पिता ॥१२॥
थोड़ी देर विचार करने पर सहसा सब
कुछ (उनकी) समझ में आ गया। (वे मन-ही-मन कहने लगे-) 'मुझे मोहित करने के लिये श्रीगोपालचन्द्र ने ही इस लीला की कल्पना की है
॥१२॥
अश्रद्धां यत् सखीवर्गे कुर्यात्
कलहदर्शनात् ।
न तदा श्रीसभायां मे कृत्यानि
कथयिष्यति ॥१३॥
'क्योंकि उन्होंने सोचा होगा-कलह
देखकर यह ब्राह्मण श्रीजी को सखियों के प्रति अश्रद्धा कर बैठेगा। फिर तो यह
श्रीजी की सभा में मेरी करतूतों का वर्णन नहीं करेगा ॥१३॥
तस्माच्छीलाल्यचन्द्रस्य
कौटिल्यात्सर्वदा मया ।
तस्माच्छीलाल्यचन्द्रस्य
कौटिल्यात्सर्वदा मया ।
आत्मा सुरक्षणीयो हि
तल्लोलातिविमोहिनी ॥१४॥
यह बात ध्यान में आते ही उन्होंने
निश्चय किया कि मुझे श्रीलालजी की कुटिल चेष्टाओं से सदा ही अपनी रक्षा करनी
चाहिये,
क्योंकि इनकी लीला महामोहिनी है ॥१४॥
अयं प्रेमविलासो हि कलहः श्रीसखीगणे
।॥१५॥
श्रीराधा के सखीगणों में जो कलह हुआ
है,
यह तो उनका प्रेम-विलासमात्र है। ये श्रीप्रिया और प्रियतम दोनो ही
इस प्रकार के विलासमय कलह के प्रेमी है ॥१५॥
मानलीलारसास्वादः कथं स्यात् कलहं
दिना ।
तथा सखीगणश्चापि यथा राजा तथा
प्रजाः ॥१६॥
बिना कलह के मानलीला का रसास्वादन
कैसे हो सकता है। और सखीगण भी कलह से प्रसन्न ही होते है ;
क्योकि जैसा राजा, वैसी प्रजा' ।।१६।।
सखीनां पादपोषु विचायँवं
द्विजोत्तमः ।
पूर्वतोऽप्यधिकां श्रद्धां चकार
प्रेमविह्वलः ॥१७॥
इस प्रकार विचार करके वे श्रेष्ठ
ब्राह्मण प्रेम से बिह्वल होकर सखियों के (पावन) पादपों में पहले से भी अधिक
श्रद्धा करने लगे ।।१७।।
अथान्यदिवसे पाठासक्तवित्रस्य
पुस्तकम् ।
आरुह्य शिशुगोपालः क्रीडति स्म
यथासुखम् ॥१८॥
इसके बाद किसी दूसरे दिन
श्रीमद्भागवत-पाठ में तन्मय हुए ब्राह्मण की उस पुस्तक पर चढ़कर श्रीबालमूर्ति
गोपाल उसके ऊपर बैठ गये और अपनी मौज से खेलने लगे ॥१८॥
दृष्ट्या सुकौतुकं तस्य
मुहूर्वार्धमभूद् द्विजः।
निश्चेष्टो
बालचापल्यामृतास्वादननिर्वृतः ॥१९॥
गोपालजी के इस सुन्दर कौतुक को
देखकर उनके बाल-बापल्य के रस का आस्वादन करके आनन्दमग्न हुए ब्राह्मण एक घड़ी तक
निश्चेष्ट रहे ।।१९।।
ततश्चान्तहितो बालो गोपालोऽथ पुनः
क्षणात् ।
पौगण्डवयसा युक्तो
क्यस्यैर्बालकर्युतः ॥२०॥
संकीर्णवीथ्या अग्ने हि
गिरिप्रान्ते अदृश्यत ।
परिश्रान्तस्य यो भातुर्बलभद्रस्य
यत्नतः ॥२१॥
शय्यां किसलयः कुर्वन् सखीन् किमपि
भाषते ।
दृष्ट्वा द्विजं शनैः कश्चित् सखा
तेन सुशिक्षितः ॥२२॥
आगत्य सविधे विप्रमिदं वचनमब्रवीत्
।
अहो विप्र न ते कार्य श्रियो
मन्दिरतो भवेत ॥२३॥
तत्पश्चात् शिशुरूपधारी श्रीगोपाल
अन्तर्धान हो गये। फिर एक क्षण के बाद वे पौगण्ड (दस वर्ष की) अवस्था के होकर
गिरिप्रान्त में सांकरी गली के सामने समवयस्क सखाओं के साथ दिखायी दिये। वे उस समय
अपने थके-माঁदे
भाई श्रीबलभद्रजी की सेवा के लिये-उनकी थकावट दूर करने के लिये,
वृक्षों के कोमल पल्लवों से शय्या की रचना करते हुए सखाओं से कुछ
बातें भी करते जाते थे। ब्राह्मण को देखकर एक सखा, जिसे
उन्होने (पहले से) खूब पट्टी पढ़ा रखी थी, चुपचाप ब्राह्मण के
समीप आया और उनसे इस प्रकार बोला-- "ब्राह्मण देवता ! श्रीजी के महल में
तुम्हारा कार्य नहीं होने का ।।२०-२३।।
वृथा श्रमस्तवास्त्यत्र बलभद्रमितो
वज ।
श्रीभागवतसप्ताहं पठ तुष्टो
भविष्यति ॥२४॥
यहाँ तुम्हारा परिश्रम करना व्यर्थ
है। यहाँ से तुम श्रीबलदाऊजी के यहाँ चले जाओ। वहीं तुम श्रीमद्भागवत का सप्ताह
पाठ करो। इससे वे प्रसन्न हो जायँगे ॥२४॥
ज्येष्ठः श्रेष्ठो दयालुश्च
प्रजापाल इतीरितः।
कृपया तस्य सुलभं वित्र वृन्दावनं
तव ॥२५॥
"श्रीदाऊजी सर्वश्रेष्ठ एवं
दयालु हैं। श्रीकृष्ण के बडे भाई हैं। उन्हें सब कोई 'प्रजापाल' (व्रज का राजा) कहते हैं। हे ब्राह्मण !
उनकी कृपा से तुम्हें श्रीवृन्दावन-वास सुलभ हो जायगा ॥२५॥"
इति सख्युर्वचः श्रुत्वा
किंकर्तव्यविमोहितः।
रुरोद सुभृशं विप्रः
पश्यञ्छून्यमिदं जगत् ॥२६॥
सखा के इस वचन को सुनकर ब्राह्मण
किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। उसे यह ' संसार
सूना दिखायी देने लगा। वह फूट-फूट कर रोने लगा ।।२६।।
ततोऽतिदुःखितं वित्रं दयालुरपरः सखा
।
बोधयित्वाब्रवीद्वाक्यं वृथा कि
खिद्यासे द्विज ॥२७॥
ब्राह्मण को अत्यन्त दु.खित देख एक दूसरा
दयालु सखा (उनके पास आकर) उन्हें समझाने लगा और बोला-'हे ब्राह्मण ! तुम व्यर्थ दुखी क्यों हो रहे हो ।।२७।।
बञ्चनयं कृता विप्र तव कृष्णेन
कौतुकात् ।
बलभद्रः सदा कृष्णप्रेमासवमदाग्वितः
॥२८॥
'श्रीकृष्ण बड़े कौतुकी हैं'
उन्होंने विनोद के लिये तुम्हें ठगने की चेष्टा की है। श्रीबलभद्रजी
तो सदा श्रीकृष्ण के प्रेम मदिरा पीकर मतवाले हुए रहते हैं ॥२८॥
स्वात्मानमपि नो बेद कृष्णाधीनश्च
सर्वदा ।
यशोदा रोहिणी श्रीमान् व्रजेन्द्रो
व्रजवासिनः ॥२९॥
सर्वेऽपि शुटणवशगाः
काष्ठपुतलिकोपमाः।
कृष्णवात्सल्यसूत्रान्तःसंनद्धाः
संचरन्ति ते ॥३०॥
'उन्हें तो अपने आपकी भी सुध-बुध
नही रहती। वे सदा श्रीकृष्ण के अधीन रहते हैं। श्रीयशोदा, श्रीरोहिणीजी,
श्रीब्रजराज (नन्द बाबा) और ब्रजवासी ये सब-के-सब श्रीकृष्ण के अधीन
है। वे अन्तर में श्रीकृष्ण के वात्सल्य-सूत्र में बঁधे रहकर कठपुलियों की भाँति
नाचते या चलते-फिरते रहते हैं ॥२९-३०॥
एकव राधिका देवी श्रीकृष्णवशकारिणी ।
स्वाधीनपतिका प्रोदत्तासावेव शरणं
तव ॥३१॥
'एकमात्र श्रीराधिका देवी ही ऐसी
है, जो श्रीकृष्ण को वश में करने की शक्ति रखती है
(श्रीकृष्ण को सदा अपने अधीन रखने के कारण ही) वे 'स्वाधानपतिका'
कही गयी हैं। वे ही तुम्हें आश्रय दे सकती हैं ॥३१॥
तस्या बलाश्रयाविप्रो मां चापि
वशमानयेत् ।
तस्मात्ते वञ्चनानेन कृ खिद्यस्व मा
द्विज ॥३२॥
हे ब्राह्मण ! (तुम्हें एक गुप्त बात
बता रहा हूँ, सुनो)—श्रीकृष्ण को भय है कि यह
ब्राह्मण श्रीजी के बल का आश्रय लेकर मुझे भी वश मे कर लेगा। इसी से इन्होने
तुम्हें ठगने की चेष्टा की है। अतः तुम खेद मत करो ॥३२॥
मान्यत्र व्रज ते राधामन्दिरादेव
सर्वथा ।
सखीगणप्रसादेन
प्रसादाप्तिर्भविष्यति ॥३३॥
'तुम दूसरी जगह न जाओ। सखीजनो की
कृपा से तुम्हे श्रीराधा के महल से ही सर्वथा प्रसन्नता की प्राप्ति होगी' ॥३३॥
इत्युक्त्वान्तहिते तस्मिन्
बलभद्रसुहृत् परः।
प्रीत्या दत्त्वा पयःपिण्डे
समाश्वासितवान् द्विजम् ॥३४॥
यह कहकर वह सखा अन्तर्धान हो गया।
इसके बाद दूसरा बलभद्र का सखा आया। उसने प्रेम से प्रसाद के दो पेड़े देकर ब्राह्मण
को सान्त्वना दी ।।३४।।
भाग्यन भूयसा देवीं श्रियं शरणमागतः
।
पठ भागवतं भक्त्या इयं
सर्वव्रजाधिपा ॥३५॥
(वह बोला)-"ब्राह्मण ! (तुम
बड़े भाग्यशाली हो,) महान् सौभाग्य से
ही तुमने (अशरण-शरण) श्रीजी की शरण का वरण किया है। ये ही समस्त ब्रज की अधीश्वरी
है। तुम (इनकी ही प्रसन्नता के लिये) भक्तिभाव से श्रीभागवत का पाठ करो ॥३५॥
रामकृष्णावयः सर्वे क्यमस्याः
सभागताः।
जया शिषा वर्धयन्तस्तिष्ठामो
बद्धपाणयः ॥३६॥
"श्रीराम-कृष्ण आदि हम सभी सखा
इनकी सभा में जाकर जय-जयकार करते और आसीस देते हुए हाथ जोड़कर खड़े होते हैं ॥३६॥
श्रीराधाराधनादेव कृष्णोऽप्येष
प्रसीदति ।
प्रोक्ता बृहद्गौतमीये तस्याः
कृष्णस्वरूपता ॥३७॥
"श्रीराधा की आराधना करने से
ही ये श्रीकृष्ण भी प्रसन्न होते है। वृहद्गौतमीय तन्त्र में श्रीराधा को
श्रीकृष्ण का स्वरूप कहा गया है--॥३७।।
'बेबी कृष्णमयी
प्रोक्ता राधिका परदेवता।
सर्वलक्ष्मीमयो सर्वकान्तिः
सम्मोहिनी परा'॥३८॥
'देवी श्रीराधिका
श्रीकृष्णस्वरूपा कही गयी हैं। वे सबसे बड़ी देवता हैं। सर्वलक्ष्मीमयी, सर्वकान्तिरूपा, सम्मोहिनी पराशक्ति है""
॥३८।।
इत्युक्त्वान्तहिते सख्यौ
श्रीप्रसादमहोत्सवे ।
प्रसादं बुभुजे प्रेरणा
सखीनामाज्ञया द्विजः ॥३९॥
यह कहकर सखा अन्तर्धान हो गया। तब
ब्राह्मण ने श्रीजी के प्रसादमहोत्सव में सम्मिलित हो सखियों की आज्ञा से
प्रेमपूर्वक प्रसाद पाया ।।३।।
अपृच्छदेकदा विप्रो भो सस्यो
युष्मदीश्वरी ।
प्रिया श्रीराधिका देवी प्रेष्ठगेहं
न गच्छति ॥४०॥
एक बार ब्राह्मण ने पूछा---'सखियो! आपकी स्वामिनी प्यारी श्रीराधा देवी क्या कभी प्रियतम के घर नहीं
जातीं?॥४०॥
सर्वदेव निवासोऽस्था बृहत्सानपुरे
कथम् ।
श्रुत्वोचुस्तास्ततो विप्रं लाल्या
श्रीवार्षभानवी ॥४१॥
'बरसाने में ही इनका नित्य निवास
क्यों है ?' यह सुनकर वे सखियाँ ब्राह्मण से बोली -ये वृषभान
बाबा की लाडली बेटी है ॥४१
लालनप्रियताहेतोः पितृगेहं न
मुञ्चति ।
लाल्या सर्वत्रजस्येयं
प्राणपोष्यातिवल्लभा ॥४२॥
'लाड़-प्यार के कारण ही ये पिता के
घर को नहीं छोड़तीं। (केवल पिता को ही नहीं), ये सम्पूर्ण
व्रजमण्डल की लाडिली हैं, प्राणो से भी बढ़कर पोषण के योग्य
और प्राणों से भी अधिक प्यारी है ॥४२॥
लालनं भानुनगरादन्यत्र नहि तादृशम्
।
प्रेष्ठस्तु सर्वदा वश्यो
भुजाङ्गदमिव स्थितः ॥४३॥
'वृषभानुनगर—बरसाने से बाहर दूसरी
जगह इन्हें वैसा लाड़-प्यार नहीं सुलभ होता। इनके प्रियतम तो बॉह के बाजूबंद की
भाँति सदा इनके अधीन रहने और इनकी शोभा बढ़ाते है ॥४३॥
न कदापि परित्यज्य क्षणमन्यत्र
तिष्ठति ।
तृतीयायां शुक्लपक्षे श्रावणस्य
महोत्सवे ॥४४॥
सखीरूपयरो नये सखीनां सेवते श्रियम्
।
स्वयमारात्तिकं देव्याः कुरते स
सखीगणैः ॥४५॥
'वे कभी इन्हें छोड़कर क्षण भर भी
अन्यत्र नहीं ठहरते। श्रावण के महोत्सब में शुक्लपक्ष की तृतीया के दिन वे सखी का
रूप धारण करके सखियों के ही बीच में स्थित हो श्रीजी की सेवा करते हैं, सखीगणों के साथ स्वयं श्रीराधारानी की आरती उतारते है ॥४४-४५।।
एक देव सा देव्या उत्सषु विशेषतः।
लायनानां श्रियं दृष्ट्वा
कृतार्थत्त्वं भविष्यसि ॥४६॥
'इसी प्रकार सदा, विशेषत: देवी के उत्सवों के समय श्यामसुन्दर के द्वारा की गयी श्रीराधा के
लाड़-प्यार की लीला देखकर तुम कृतार्थ हो जाओगे ।।४६।।'
शुत्वातिनधुरं चित्रः
श्रीलाल्यालालनं मुदा ।
सखीनुवाच शनकवि देव्याः कदाप्यहम्
॥४७॥
थियो लघुतरां सेवां कर्तुनहामि
कामपि ।
ओमिति प्राह मुदिता भावं दृष्ट्वा
द्विजस्य ता॥४८॥
दोलोत्सवससारम्भे श्रीप्रिया
मेन्धिका शुभान् ।
धारयिष्यति तां सेवां विप्र कर्तुं त्वमर्हसि
॥४९॥
(प्रियतम द्वारा किये गये)
श्रीलाड़िली के मधुर लाड़-प्यार की बात सुनकर ब्राह्मण ने आनन्द से विह्वल हो धीरे
से सखी से पूछा-'देवि! क्या मैं भी कभी श्रीदेवी की कोई
छोटी-सी सेवा करने योग्य हो सकता हूँ?' ब्राह्मण के भाव को
देखकर सखी प्रसन्न हो बोली-'हाँ, (श्रावण
शुक्ला द्वितीया को) दोलोत्सव (झूलन) के प्रारम्भ में श्रीप्रियाजी मेहदी धारण
करेंगी। हे ब्राह्मण ! तू उस सेवा को कर सकता है ॥४७-४९।।
स्वहस्तेनेति पृष्टा सा
सरोषमवदद्वचः।
अहो कि श्रीकरस्पर्शसाहसं
कर्तुमिच्छति ॥५०॥
स्वयं श्रीललिता देवी प्रियायाः
पाणिरजनम् ।
करोति निशि तस्यास्त्वं धृष्ट
सौभाग्यमिच्छति ॥५१॥
'क्या अपने हाथ से कर सकता हूँ?'--यह पूछने पर सखी रोषपूर्वक बोली- 'अरे ढीठ ! क्या तू
श्रीजी के कर-स्पर्श का साहस करना चाहता है ? ओ धृष्ट !
श्रीप्रियाजी का पाणिरञ्जन तो स्वयं श्रीललिता देवी करती है-वह भी रात में
(श्रीप्रियाजी के सो जाने पर)। तू श्रीललिताजी के सौभाग्य को हस्तगत करना चाहता है
?' ।।५०-५१।।
अपराधिनमात्मानं मत्वावनतमस्तकः ।
सखी प्रसादयन् विप्रो वाक्यमेतदुवाच
ह॥५२॥
ब्राह्मण ने अपने को अपराधी मानकर
सिर झुका लिया और सखी को प्रसन्न करने के लिये यह बात कही-॥५२।।
दास्यामि भवतीहस्ते प्रियाय
मेन्धिका शुभाम् ।
भवत्या कृपया देव्यै ललितायै
प्रदीयताम् ।।५३।।
'मैं आपके हाथ मे श्रीप्रियाजी के
कर-कमलों को रंगने के लिये माङ्गलिक मेंहदी दे दूंगा। (फिर) आप कृपा करके
श्रीललिता देवी को दे दें ।।५३।।
प्रियाया दूरतो दृष्ट्वा रक्तिमानं
कराब्जयोः।
मोदिष्यतितरां देवि क्षमस्वावमजानतः
॥५४॥
'देवि ! मैं तो दूर से ही श्रीजी के
श्रीकर-कमलों की लाली देखकर अतिशय सुख मानूंगा। मुझसे अनजाने में जो अपराध बन गया
है, उसे आप क्षमा कर दें ॥५४॥
ततोऽतिप्रणयाद् विप्रः सख्याः
श्रीपादसंनिधौ ।
निवेदयामास मुदा नत्वा ·
· ॥५५॥
इस प्रार्थना के बाद उस ब्राह्मण ने
श्रीजी के चरणों के निकट अत्यन्त प्रेमपूर्वकप्रणाम करके आनन्द मे भरकर सखी द्वारा
श्रीप्रियाजी के कर-कमलों के लिये मेंहदी निवेदन की ॥५५।।
अर्थकदा भमन् विप्रो दानलीलास्थली
गतः।
ददर्श कर्यरान् भूमौ चिन्तयामास
मानसे ॥५६॥
इसके पश्चात् एक दिन ब्राह्मण
घूमते-घूमते दानलीला-स्थली पर गये। (वहाँ) उन्होंने भूमि पर पड़े हुए कुछ खपड़े
देखे और मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया---।।५६।।
अहो गोपालचन्द्रेण पीत्वा
गोरसमुज्झिताः ।
कर्परा भग्नपात्राणानिने नास्त्यत्र
संशयः ॥५७।।
'अहो ! श्रीगोपालचन्द्र ने गोरस
पान करके ये फेंक रखें हैं। इसमें संदेह नहीं कि उनके द्वारा फोड़े गये पात्रों
(मटकों या हॉड़ियों) के ही ये खपड़े है ।।५७॥
लोढा हि जिह्वया तस्य क्लिन्ना
लालारत्तामृतैः।
ततोऽतिहर्षतश्चकं कपरं मूनि संदधे
॥५८॥
'गोपालजी ने इन्हें अपनी जिह्वा से
चाटा होगा और उसकी लार के रसामृत से ये भीगे हुए होंगे-यह सोंचकर ब्राह्मण ने बडे
हर्ष से एक खपड़े को (अपने सिर के बस्त्र मे बांधकर) सिर पर धारण कर लिया ।।५८।।
गहीत्वा कपरं प्रीत्या द्विजः
श्रीमन्दिरं गतः।
प्रविशन्नेष गोपालं
ददर्शोत्तङ्गलालितम् ॥५९॥
हसन्तं प्रणमन्तं च मातणामनुशिक्षया
।
हसन्तं प्रणमन्तं च
मातृणामनुशिक्षया ।
अभ्यनन्दत्तमाशोभिर्मधुरं
लाल्यसुन्दरम् ॥६०॥
प्रेम से उस खपड़े को लेकर ब्राह्मण
श्रीजी के महल में पहुंचे। वहां प्रवेश करते ही उन्होंने देखा कि गोपालजी माताओं की
गोद मे बैठकर लाड़-प्यार का सुख ले रहे हैं और उनके सिखाने से उन्हें (ब्राह्मण को)
हँस-हँसकर प्रणाम कर रहे है। ब्राह्मण ने मधुर-मनोहर परम सुन्दर लाला का आशीर्वादो
से अभिनन्दन करते हुए कहा-॥५९-६०॥
जयो जयोऽस्तु लाल्यस्य जयो लाल्यस्य
सर्वदा ।
आरात्तिकावलोकाय गतः श्रीपादसंनिधौ
॥६१॥
'जय
हो! जय हो !! लालजी को सदा ही जय हो'!!! (फिर) वे आरती के
दर्शन के लिये श्रीजी के चरणों की संनिधि में गये "॥६१॥
तत्र श्रीललितादेवी स्वयं
सेवापरायणा ।
महाप्रसादं श्रीदेव्याः पुष्पमालां
सखीकरात् ॥६२।।
प्रेवयालास - वित्राय कृपया
दीनवत्सला ।
कळे निधाय तां मालां विप्रो
हष्टतनूरुहः ॥६३॥
वहाँ (उस दिन) स्वयं श्रीललिता देवी
सेवा कर रही थीं। दीनवत्सला श्रीललिता ने कृपा करके श्रीजी की महाप्रसादी
पुष्पमाला सखी द्वारा ब्राह्मण के लिये भेजी। उस माला को कण्ठ में धारण करके
ब्राह्मण रोमाञ्चित हो गये ॥६२-६३।।
अपूर्वा माधुरी कांचिवन्वभूदधुलोचनः
।
प्रणम्य पूर्ववत्प्रीत्या पठन्
भागवतं द्विजः ॥६४॥
उन्हें किसी अपूर्व रस-माधुरी का
अनुभव हुआ। उनके नेत्रों से अश्रुपात होने लगा। श्रीजी को प्रणाम करके वे ब्राह्मण
देवता पूर्ववत् प्रेम से श्रीमद्भागवत का पाठ करने लगे ।।६४॥
बिले शचिन्तयत्कृष्णो लेढि किं
कर्परानपि ।
गोरसाम्भोनिधी जातो वजे व्रजपनन्दनः
॥६५॥
उस समय वे मन-ही-मन सोच रहे थे कि 'क्या श्रीकृष्ण इन खपड़ों को भी चाटते है ? ये तो गोरस के समुद्र व्रज मे उत्पन्न हुए हैं। साक्षात् ब्रजराज के वे लाडले हैं ।।।६५।।
यशोदाप्राणपोष्यश्च न लिह्यात्
करानसौ ।
एवं ध्यायत उत्सङ्ग तस्य गोपाल आगतः
॥६६॥
'यशोदा मैया अपने प्राणों से भी
अधिक प्यार करके उनका पोषण करती है। ऐसे श्रीकृष्ण कभी खपडे नहीं चाट सकते।'
इस प्रकार ध्यान करते ही उनकी गोद में गोपालजी आकर बैठ गये ।।६६।।
तदङ्गसङ्गसर्वस्वानन्दताररसं रिबन् ।
निश्चेष्टोऽभूदसौ वित्रो
नुहर्धिननन्यधीः ॥६७॥
उनके अङ्ग-सङ्ग के द्वारा सम्पूर्ण
रूप में प्राप्त आनन्द-सिन्धु के सारभूत रस का पान करते हुए ब्राह्मण देवता एक
घड़ी तक निश्चेष्ट बैठे रहे। उनके मन में दूसरी किसी वृत्ति का उदय नहीं हुआ
।।६७।।
तत उत्सङ्ग एवास्य गोपालमुखतोऽपतत्
।
कर्परो लिह्यमानो हि लालामतरसाप्लुत
॥६८॥
थोड़ी देर में उनकी गोद में ही
श्रीगोपाल के मुख से लार के अमृत रस से भीगा हुआ तथा उन्हीं के द्वारा चाटा जाता
हुआ खपड़ा गिरा ।।६८॥
शिरस्याधाय तं प्रेम्णा
द्राक्षाफलसमाकृति ।
प्रमुमोदोत्तरं मत्वा लेढयसौ
कर्परानिति ॥६९॥
शुष्क द्राक्षाफल (मुनक्का) के समान
आकारवाले उस खपड़े को ब्राह्मण ने बड़े प्रेम से सिर पर रख लिया। वे अपनी आशङ्का के
उत्तररूप में यह जानकर बहुत प्रसन्न हुए कि श्रीगोपालजी (अपने प्रेमियो के प्रेममय
गोरस से सने हुए) खपड़ों को भी चाट लेते हैं ॥६९॥
अथ चान्तहिते तस्मिन् गोपाले
लाल्यसुन्दरे ।
श्रीनन्दिराद्ययौ चित्रः
श्रीप्रसादकृताशनः ॥७०॥
तत्पश्चात् परम सुन्दर गोपाललालजी अन्तर्धान
हो गये। फिर ब्राह्मण भी श्रीजी के महल में प्रसाद पाकर महल के बाहर चले आये ।।७०।।
एकदा विवरन्वित्रो रुदन्तं
नन्दनन्दनम् ।
श्रीगह्वरवने दृष्ट्वा
करुणाकान्तमानसः ॥७१॥
एक दिन विचरते हुए वे ब्राह्मण
गहवरवन में पहुंचे। वहाँ उन्होंने देखा-- श्रीनन्दनन्दन रो रहे हैं। तब उनके मन में
बडी दया आयी ।।७१।।
प्रसादयितुमारब्धः किमर्थं लाल्य
रोदिषि ।
मभापराधः कोऽप्यस्ति रुष्टस्तेनैव
रोदिषि ॥७२॥
वे उन्हें मनाने की चेप्टा करने लगे
और बोले-'लाला! तुम क्यों रोते हो? क्या मुझसे कोई अपराध हो
गया है, जिससे रूठकर तुम रो रहे हो ? ॥७२॥
प्रतीकारं करोम्यस्य स्फुटं किं नैव
भाषसे ।
केन तेऽपकृतं वत्सोत्सङ्गमागत्य तद
॥७३॥
'स्पष्ट क्यों नही बताते, जिसमे मैं उसका कोई प्रतिकार करूं ? वत्स! मेरी गोद में आकर बताओ, किसने तुम्हारा अपराध किया है ?' ।।७३।।
एवं द्विजववः श्रुत्वा क्रन्दन्तं
पूर्वतोऽधिकम् ।
दृष्ट्वा कपटभेवात्र ज्ञात्वा च
तमथाब्रवीत् ।।७४।।
ब्राह्मण के ऐसे वचन सुनकर लाला कन्हैया पहले से भी अधिक रोने लगा। यह देख ब्राह्मण ताड़ गये कि लाला के इस रोने मे कपटमात्र कारण है। फिर तो वे तुरतं कन्हैया से कहने लगे ।।७४ ।।
अहो चपल कापट्यादेव ते रोदनं मतम् ।
श्रीचन्द्रा तब जानाति मायां मोहन
मोहिनीम् ॥७५॥
गत्त्वा ब्रवीमि तामेव त्वमुच्चैः
कुरु रोदनम् ।
श्रुत्वा विप्रवचोऽङ्गुष्ठं दूरादेव
प्रदर्शयन् ॥७६॥
विकुर्वन्नाननं तिर्यक् प्रेक्षते
स्म हसन्मुहुः ।
तस्य तच्चापलं वीक्ष्य रुचिरं
भाग्यवान् द्विजः ॥७७॥
महानन्दाम्बुधौ मग्नो
गोपालोऽन्तहितस्तदा ।
अर्थकदा वजन्मार्गे यशोदोत्सङ्ग
लालितम् ॥७८॥
दृष्ट्वा लाल्पवरं विप्रो
मनस्येतबचिन्तयत् ।
स्वाङ्क आदाय गोपालं व्रजामि
श्रीनिवेशनम् ॥७९।।
'चपल कन्हैया ! यह तुम्हारा
रोना-धोना कपट की ही लोला है--यह बात मेरी समझ में आ गयी है। मोहन ! तुम्हारी
मोहिनी माया को श्रीचन्द्रा सखी खूब जानती है। उसी से जाकर मैं कहता हूँ। तुम और
भी उच्च स्वर से रोते रहो।' ब्राह्मण की यह बात सुनकर दूर से
ही अँगूठा दिखाते, मुंह बिगाड़ते और बार-बार हँसते हुए लालजी
उन्हें टेढ़ी चितवन से देखने लगे। श्रीलालजी की उस मनोहर चपलता को देखकर भाग्यवान्
ब्राह्मण महान् सुख के समद्र में डूब गये। तत्पश्चात् श्रीगोपाल अन्तर्धान हो गये।
एक दिन मार्ग मे जाते हुए ब्राह्मण ने सर्वश्रेष्ठ लाला कन्हैया को श्रीयशोदा की गोद
में लाड़-प्यार पाते देखा। देखकर उन्होंने मन मे यों विचार किया--'आज मैं श्रीगोपाल को गोद मे लेकर श्रीजी के महल में जाऊँ' ।।७५-७९।।
एवं चिन्तयतस्तस्य स्वयमेवाडूमागतः।
तमालिङ्गय वहन् विप्रो
विश्वाधारमविस्मितः ॥८०॥
यों सोचते हुए बाह्मण की गोद में
श्रीगोपालजी अपने-आप आ गये। जगदाधार भगवान्को हृदय से लगाकर ले जाते हुए ब्राह्मण के
मन में तनिक भी विस्मय नहीं हुआ ॥८०॥
अश्रमः प्राङ्गणं
प्राप्तस्तदङ्गस्पर्शनिर्वृतः।
प्राङ्गणादेव गोपालस्तस्योत्सङ्गाद्
व्यलीयत ॥८१॥
उनके श्रीअङ्गों के स्पर्श से उन्हे
इतना सुख मिला कि (महल की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए) ब्राह्मण महल के आंगन में पहुँच
गये,
तो भी उन्हें श्रम नहीं प्रतीत हुआ परंतु आंगन में जाते ही गोपालजी
उनकी गोद से अन्तर्धान हो गये ।।८१।।
परं श्रियो दक्षिणेऽयं मधुरो
मुरलीधरः।
किशोरवयसा युक्तः कोटिकंदर्पमोहनः ॥८२॥
दामिनीद्युतिसंसक्तनवाम्बुदमनोहरः।
अदृश्यत रसाम्भोधिः
प्रियाप्रेमेन्दुधितः॥८३॥
फिर (थोड़ी देर बाद) वे श्रीजी के
(सिहासन पर उनके) दक्षिण भाग में विराजमान दिखायी दिये। वहां उनकी झांकी बड़ी ही
मधुर--आकर्षक थी। उन्होने बाँकी अदा के साथ मुरली धारण कर रखी थी। किशोर अवस्था
थी। कोटि-कोटि कंदर्पो को मोहित करनेवाला मोहन रूप देखते ही बनता था। श्रीजी से
सटकर बैठे हुए श्यामसुन्दर विद्युत्प्रभा ने आलिङ्गित नूतन मेघ के समान मन को मोह लेते
थे। प्रियाजी के प्रेमरूपी पूर्णचन्द्र ने रस के अगाध सिन्धुरुप श्यामसुन्दर को
मानो उद्वेलित कर दिया था ।।८२-८३।।
ततो नीराजनं चक्रुः सख्यः
प्रेमपरिप्लुताः।
स्वयं श्रीः प्रेयसो मालां
प्रेषयामास संज्ञया ॥८४॥
सखीद्वारेण वित्राय
दैन्यान्मालाप्रलिप्सवे ।
प्रसादं भूरिभाग्याय
वृन्दावनकृतात्मने ॥८५॥
उस समय प्रेम मे मग्न होकर सखियों ने
उन युगल-किशोर की आरती उतारी। श्रीजी ने स्वयं ही सखी को संकेत करके उसके द्वारा
प्यारे की प्रसादी माला ब्राह्मण के लिये भिजवायी; क्योंकि वृन्दावन में मन लगाये हुए वे बड़भागी ब्राह्मण दीनभाव से उस माला
को पाने की इच्छा कर रहे थे ।।८४-८५।।
शिरस्याधाय विप्रोऽपि सफलं निजजीवनम्
।
मेने श्रीराधिकादेव्या
अहैतुक्यानुकम्पया ॥८६॥
श्रीराधिका देवी की अहैतुकी कृपा से
प्राप्त हुई उस माला को ब्राह्मण ने सिर पर धारण किया और अपने जीवन को सफल माना
॥८६॥
अथ मध्याह्नवेलायां
श्रीप्रसादमहोत्सवे ।
पायसापूपभोगेन परितृप्तो मुदं ययौ ॥८७॥
इसके पश्चात् मध्याह्न-काल होने पर
श्रीजी के प्रसाद-महोत्सव में खीर और मालपूआ के भोग-प्रसाद को पाकर वे बहुत तृप्त
और प्रसन्न हुए ।।८७।।
परमप्राप्य संकेतं
प्रेयसीप्रेयसोद्विजः।भृशम ॥८८॥
परंतु ब्राह्मण को यह सोचकर मन में
बड़ा विषाद हुआ कि मुझे श्रीवृन्दावनवास के लिये प्रिया-प्रियतम की ओर से कोई
संकेत या आज्ञा नहीं मिली ॥८८॥
प्रणम्य द्वार प्रेम्णा
श्रीमद्भावनिरीक्षकम् ।
अपच्छदतिदुःखेन का व्यवस्था
थियोगृहे ॥८९॥
सर्वर्युपचयोपते निराशो याति
ब्राह्मणः ।
वृन्दाटवीनिवासाय कृतायासोऽतिदूरतः॥९०॥
बाह्मण ने श्रीमान् भाव-निरीक्षक
नामक श्रीजी के द्वारपाल को प्रेमपूर्वक प्रणाम करके उनसे अत्यन्त दु:ख के साथ
पूछा कि 'सम्पूर्ण ऋद्धि-सिद्धियों से भरे हुए श्रीजी के दरबार में कैसी (शोचनीय)
व्यवस्था है कि वृन्दावन-वास के लिये आज्ञा प्राप्त करने के उद्देश्य से बहुत दूर से
परिश्रम करके आया हुआ यह व्राह्मण यहाँ से निराश होकर जा रहा है ? ॥८९-९०॥
समायातोऽतिपुण्यन प्रविष्टोऽपि
गृहोत्तमे ।
प्रियाप्रियतमावतौ कथं मौनपरायणौ ॥९१॥
'मैं बड़े पुण्य से यहां तक आया
और श्रीजी के श्रेष्ठ भवन में मेरा प्रवेश भी हो गया (जो अति दुर्लभ था; परंतु इसका कुछ फल नहीं दिखायी दिया)। पता नही, ये
दोनों प्रिया-प्रियतम मेरे विषय में मौन क्यों हो गये हैं ।।९१।।
स्वतन्त्रौ सर्वथा वीर राज्ञीराजौ
श्रुतौ मया ।
दृन्दाटवी महापुण्या राजधानी
मतानयोः ॥९२॥
'भैया! मैने तो सुना है कि ये
दोनो वृन्दावन के सर्वथा स्वतन्त्र राजा-रानी है और महापुण्यमयी श्रीवृन्दाटवी
इनकी राजधानी मानी गयी है ।।९२।।
तत्र वासाय कृतधीः समायातोऽस्मि
साम्प्रतम् ।
अस्वीकृति स्वीकृति वा भाषेते कृपया
न किम् ॥९३॥
'उमी बृन्दावन में वास करने का
मैने विचार किया है और उसी के विषय मे प्रार्थना करने के लिये इस समय मै यहाँ आया हूँ।
अतः इस विषय में ये दोनो कृपापूर्वक अपनी स्वीकृति या अस्वीकृति क्यों नहीं प्रकट
करते?।।९३।।
भो द्वारय गृहस्यास्य भेदज्ञो हि
भवान्खलु ।
ब्रूहि सर्व कृपां कृत्वा यतितव्यं
तथा मया ॥९४॥
'द्वारपालजी! आप इस घर के भेद को
भली-भाँति जानते हैं। कृपा करके सब बात बताइये जिससे मैं वैसा ही यत्न करूं' ।।९४।।
श्रीभावनिरीक्षक उवाच
अहो वित्र त्वया प्राप्तं
भूरिभाग्येन दर्शनम् ।
प्रेयसीप्रेयसोरत्र विषीदसि पुनः
कथम् ॥९५॥
श्रीभाव-निरीक्षक बोले-विप्रवर !
तुमने बड़े भाग्य से श्रीप्रिया-प्रियतम का दर्शन पा लिया है,
फिर विषाद क्यों करते हो? ।।९५।।
संकेतननयोवृन्दावनवासाय दुर्लभम् ।
ब्रह्मोन्द्रादिभिरभ्यर्थ्य
वराकस्त्वं किनिच्छसि ॥९६॥
श्रीवृन्दावनवास के लिये (प्रार्थना
करने पर) इनका संकेत मिलना कठिन है। ब्रह्मा, इन्द्र
आदि भी उसके लिये तरसते रहते है। फिर उसके लिये दीन हीन तुम कैसे इच्छा कर रहे हो ?
॥९६॥
कृष्णो हि भाववशगो वृन्दारण्यं
तदात्मकम् ।
भावादेव
भवेत्प्राप्तिर्भावस्त्वासक्तितो भवेत् ।।९७॥
यह बात निश्चित है कि श्रीकृष्ण भाव
के अधीन हैं। श्रीवृन्दावन श्रीकृष्ण का ही स्वरूप है। भाव से ही उसकी प्राप्ति हो सकती है और भाव होता है आसक्ति से ॥९७॥
उक्तमेतत्पुरावित्विापि किमु
मुह्यसि ।
आदौ श्रद्धा ततः साधुसङ्गोऽय
भजनक्रिया ॥९८॥
यह बात पुराणवेत्ता विद्वानों ने
कही है। तुम जानकर भी क्यों मोहित हो रहे हो? पहले
श्रद्धा का उदय होता है, फिर सत्सङ्ग होता है, उसके बाद भजन बनता है।॥९८॥
ततोऽनर्थनिवृत्तिः स्यात्ततो निष्ठा
रुचिस्तथा ।
अथासक्तिस्ततो भावस्ततः
प्रेमाभ्युदञ्चति ॥९९॥
तत्पश्चात् पाप से निवृत्ति,
फिर, निष्ठा और फिर रुचि होती है—मन को भजन रुचने
लगता है। फिर उसमें आसक्ति होती है--स्वयमेव (बुद्धि संयोग के बिना भी) भजन होने
लगता है। इसके बाद भाव होता है और भाव के पश्चात् फिर प्रेम का अभ्युदय होता है ।।९९।।
प्रियाप्रियतमावतावेकात्मानौ सदा
मतौ। प्रिया प्रोक्ता॥१००॥
ये दोनो प्रिया-प्रियतम सदा एकात्मा
(एकरूप) माने जाते हैं-दोनों के विग्रह दो होने पर भी आत्मा एक है। प्रियतम ही
प्रियतमा और प्रियतमा ही प्रियतम हैं। दोनो एकरूप ही हैं ॥१००॥
तबोल्लङ्गानुपागत्य यदि कृष्णो न
भाषते ।
कयं प्रियापि भाषेत कारणं नात्र
चिन्तय ॥१०१॥
तुम्हारी गोद मे आकर भी श्रीकृष्ण
यदि नहीं बोलते तो फिर प्यारी भी क्यों बोलने लगी? इस विषय में तुम किसी कारण (-विशेष) का विचार न करो॥१०१॥
तवासक्तिविवृद्धयर्थमनयोमौ नसाधनम्
।
पर सक्लिविनिर्धता प्रकृतिः क्षीयते
यदा ॥१०२॥
तदा प्राकृत भावे समुद्भूते स्वयं
भवेत् ।
वृन्दावीनिवासस्ते वित्र नास्त्यत्र
संशयः ॥१०३॥
तुम्हारी आशक्ति बढ़ाने के लिये ही
इन दोनों ने चुप साध रखी है । विप्रवर! बढ़ी हुई आशक्ति के थपेड़ों से जब प्रकृति
(माया) का क्षय हो जायगा, तब अप्राकृत भाव के
उदय होने पर तुम्हारा श्रीवृन्दावनवास स्वयमेव सम्पन्न हो जायगा, इसमें सदेह नही है ।।१०२-१०३।।
गोबर्धनो गिरिवृन्दावनं श्रीयमुना
तथा ।
तत्र सर्वे विहाराद्या गावो गोपाश्च
गोपिकाः ॥१०४॥
अप्राकृता मतास्तेषां भावादनुभवो
भवेत् ।
रहस्यं कृष्णचन्द्रस्य प्रकृतेः
परमुच्यते ॥१०५॥
श्रीगोवर्धनगिरि,
श्रीवृन्दावन, श्रीयमुना, यहाँ के सभी लीलाविहार आदि, गौएँ और गोपियाँ---ये
सभी अप्राकृत माने गये है। इनके अप्राकृत स्वरूप' का भाव से
(प्रेम एवं श्रद्धा से) ही अनुभव होता है। श्रीकृष्णचन्द्र का रहस्य प्रकृति से
परे बताया जाता है ।।१०४-१०५।।
अथ स्कन्दपुराणस्य मतमेतदनुस्मर ।
तदा स्वरूपज्ञानं ते वजऽभूमभविष्यति
॥१०६॥
अब से तुम स्कन्दपुराण के निम्नाङ्कित मत का निरन्तर चिन्तन करो, तब तुम्हे व्रजभूमि के स्वरूप का ज्ञान होगा।।१०६।।
प्रकृत्या खेलतस्तस्य
लीलान्यैरनुभूयते ।
यत्र र गुण ॥१०७॥
श्रीकृष्ण जब प्रकृति के साथ खेलते
हैं,
उस समय दूसरे लोग भी उनकी लीला का अनुभव करते हैं। प्रकृति के साथ होनेवाली
लीला में ही रजोगुण, सत्त्वगुण तथा तमोगुण के द्वारा सृष्टि,
स्थिति और प्रलय की घटनाए होती हैं।।१०७।।
लीलेव द्विविधा तस्य वास्तवी
व्यावहारिकी ।
वास्तवी तत्स्वतंवेद्या जीवानां
व्यावहारिकी ॥१०८॥
(इस प्रकार यह निश्चय होता है कि)
भगवान श्रीकृष्ण की लीला दो प्रकार की होती है---एक वास्तवी और दूसरी व्यावहारिकी ।
वास्तवी लीला को श्रीकृष्ण के निज जन ही जान सकते हैं। साधारण जीवों के समक्ष जो
लीला प्रकट है, वह व्यावहारिक है ।। १०८।।
आद्यां बिना द्वितीया न द्वितीया
नाद्यगा क्वचित् ।
लोकस्य गोचरेयं तु तल्लीला
व्यावहारिकी ॥१०९॥
वास्तवी लीला के बिना व्यावहारिकी
लीला की सत्ता नहीं, व्यावहारिकी लीला का
वास्तवी लीला के राज्य में कभी प्रवेश नहीं हो सकता। जनसाधारण के सामने तो यह
श्रीकृष्ण की व्यावहारिकी लीला ही होती है ।।१०९।।
यत्र भूरादयो लोका भुवि
माथुरमण्डलम् ।
अत्रैव ब्रजभूरेषा यत्र तत्त्वं
सुगोपितम् ॥११०॥
भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्गलोक-ये
तीनो लोक व्यावहारिकी लीला के अन्तर्गत है। भूलोक में यह मथुरामण्डल है। उसी में
यह व्रजभूमि है, जहाँ भगवान् की वास्तवी
रहस्य-लीला सर्वथा गुप्तरूप से होती रहती है ।।११०।।
भासते भावपूर्णानां कदाचिदपि सर्वतः
।
कदाचिद् द्वापरस्यान्ते
रहोलीलाधिकारिणः ॥१११॥
समवेता यंदात्र स्युर्यथेदानीं तदा
हरिः।
स्वैः सहावतरेत्स्वेषु
समावेशार्थमोप्सिताः ॥११२॥
तदा देवादयोऽप्यन्येऽवतरन्ति
समन्ततः।
सर्वेषां वाञ्छितं कृत्वा
हरिरन्तहितोऽभवत् ॥११३॥
कभी-कभी भावपूर्ण हृदयवाले रसिक
भक्तों को वह सर्वत्र भासती है। कभी (अट्ठाईसवें) द्वापर के अन्त में जब भगवान की
रहस्य-लीला के अधिकारी भक्तजन यहाँ एकत्रित हो जाते हैं,
जैसे कि इस समय भी कुछ काल पहले हुए थे; उस
समय श्रीकृष्ण अपने अन्तरङ्ग प्रेमियों के साथ अवतार लेते हैं। उनके अवतार का यह
प्रयोजन होता है कि रहस्य-लीला के अधिकारी भक्तजन भी अन्तरङ्ग परिकरों के साथ सम्मिलित
होकर लीलारस का आस्वादन कर सकें। इस प्रकार जब भगवान् अवतार ग्रहण करते हैं,
उस समय भगवान के अभिमतप्रेमी देवता, ऋषि आदि
भी सब ओर अवतार लेते हैं। अभी-अभी जो अवतार हुआ था, उसमें
भगवान् अपने सभी प्रेमियों की अभिलाषाएँ पूर्ण करके अब अन्तर्धान हो गये हैं ॥१११-~-११३।।
तेनात्र त्रिविधा लोकाः स्थिताः
पूर्व न संशयः।
नित्यास्तल्लिप्सवश्चैव
देवाद्याश्चेति भेदतः॥११४॥
इससे यह निश्चय हुआ कि इस व्रजभूमि में
पहले तीन प्रकार के भक्तजन उपस्थित थे, इसमें
संदेह नहीं। उन तीनों में प्रथम तो उनकी श्रेणी है, जो
भगवान्के नित्य अन्तरङ्ग पार्षद है--जिनका भगवान् से कभी वियोग होता ही नहीं।
दूसरे वे हैं, जो एकमात्र भगवान्को ही पाना चाहते है-उनकी
अन्तरङ्ग लीला में प्रवेश करने की इच्छा रखते हैं। तीसरे वर्ग मे देवता आदि आते है
।।११४॥
देवाद्यास्तेषु कृष्णेन द्वारकां
प्रापिताः पुरा ।
पुनमौं सलमार्गेण स्वाधिकारेषु
योजिताः ॥११५॥
इनमे से जो देवता आदि के अंश से
अवतीर्ण हुए थे, उन्हें भगवान्ने व्रजभूमि से
हटाकर पहले ही द्वारका पहुँचा दिया था। फिर भगवान् ने (बाह्मण के शाप से उत्पन्न)
मूसल को निमित्त बनाकर यदुकुल में अवतीर्ण देवताओं को स्वर्गलोक में भेज दिया और
पुनः अपने-अपने अधिकार पर स्थापित कर दिया ।।११५।।
तल्लिप्सूश्च सदा कृष्णः
प्रेमानन्दैकरूपिणः ।
विधाय स्वीयनित्येषु समावेशितवांस्तवा
॥११६।।
जिन्हें एकमात्र भगवान्को ही पाने
की इच्छा थी, उन्हें प्रेमानन्दस्वरूप बनाकर
श्रीकृष्ण ने उस समय सदा के लिये अपने नित्य अन्तरङ्ग पार्षदों में सम्मिलित कर
लिया ॥११६॥
नित्याः सर्वेऽप्ययोग्यानां
दर्शनाभावतां गताः ।
व्यावहारिकलीलास्थास्तत्र यत्राधिकारिणः
॥११७॥
अनधिकारियों को श्रीकृष्ण के नित्य
अन्तरङ्ग परिवार का दर्शन नहीं होता; क्योंकि
व्यावहारिकी लीला के जीव उनके दर्शन के अधिकारी नहीं है ।।११७।।
पश्यन्त्यत्रागतास्ते वै
प्राकृतत्वं समन्ततः ।
तस्माच्चिन्ता न ते कार्या
वृन्दावननिवेशने ॥११८॥
अतः वे इस ब्रजभूमि में आकर भी
सर्वत्र प्राकृत भाव को ही देखते हैं। इसलिये तुम्हे वृन्दावनवास के विषय में
चिन्ता नहीं करनी चाहिये ।।११८!।
उत्पन्ना रुचिरासक्तिर्भावश्च
क्रमतो भवेत् ।
तवा वृन्दाटवी वित्र त्वामः
धारयिष्यति ॥११९॥
रुचि तो उत्पन्न हो ही गयी है,
आसक्ति और भाव भी क्रमशः हो जायेंगे। ब्रह्मन् ! उस अवस्था में श्रीवृन्दावन
तुम्हें स्वयं गोद में ले लेगा ।।११९।।
त्वं तु वृन्दावनं गत्वा भक्त्या
भागवतं पठ ।
तेनैव भावप्राप्तिः स्याद्
वृन्दावनफलप्रदा ॥१२०॥
तुम श्रीवृन्दावन में जाकर
भक्तिपूर्वक भागवत का पाठ करो। उसी से भाव की प्राप्ति हो जायेगी,
जो श्रीवृन्दावनवासरूप फल को देनेवाली है' ।।१२०।।
इत्याकर्ण्य मुदाऽऽविष्टस्तं
प्रणम्य त्वरान्वितः।
वृन्दावनप्रयाणाज्ञां लब्धं
श्रीमन्दिरं ययौ ॥१२१॥
भाव-निरीक्षक के ये वचन सुनकर
ब्राह्मण को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे उनको प्रणाम करके बड़ी उतावली के साथ श्रीवृन्दावन
जाने की आज्ञा लेने के लिये श्रीजी के भवन में गये ।।१२१॥
अनुज्ञाप्य श्रियं देवीं सप्रेष्ठां
ससखीगणाम् ।
प्रतस्थे प्ररुदन् कृच्छात्प्रणम्य
च मुहुर्मुहुः ॥१२२॥
प्रियतम तथा सखीगण सहित श्रीदेवी को
बारबार प्रणाम करके उनसे जाने की आज्ञा लेकर ब्राह्मण ढाढ़ मारते हुए वहाँ से बड़े
कष्ट के साथ विदा हुए ॥१२२॥
प्रतिज्ञाप्य विसृष्टस्तैः
पुनरागमनं ततः ।
निर्जगाम बृहत्सानोः
कृच्छाद्विरहविह्वलः ॥१२३॥
उन सबने फिर आने की प्रतिज्ञा करके
उन्हें जाने की आज्ञा दी। विरह विह्वल ब्राह्मण तब बड़े कष्ट से बरसाना छोड़कर
(वहाँ से) बाहर निकले ।।१२३।।
इति श्रीराधा सप्तशती
श्रीराधामन्दिरमहाप्रसादो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥
आगे पढ़ें.................. श्रीराधा सप्तशती अध्याय 5
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