श्रीराधा सप्तशती अध्याय ३

श्रीराधा सप्तशती अध्याय ३

इससे पूर्व आपने श्रीराधा सप्तशती अध्याय २ में श्री राधा के महल की माधुरी को पढ़ाअब उससे आगे अध्याय ३ में गहवर वन की गम्भीरता का वर्णन हुआ है।

श्रीराधा सप्तशती अध्याय ३

श्रीराधा सप्तशती तृतीयोऽध्यायः

मधुकण्ठ उवाच

गह्वरमन्येत्य भावमग्नां श्रियः सखीम् ।

न्द्रां दूरतो दृष्ट्वा ननाम भुवि दण्डवत् ॥१॥

श्रीमधुकण्ठजी बोले - आकर ब्राह्मण ने दूर से ही भावावेश में डूबी हुई श्रीराधासखी और उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया ॥१॥

मासनं नत्वा भूम्यामुपविवेश ह ।

तं विस्तरात् सर्वमसंकोचाल्यवेदयत् ॥२॥

दिये हुए आसन को प्रणाम करके वे भूमि पर ही बैठ गये और के अपना सारा वृत्तान्त श्रीचन्द्राजी को सुनाया ॥२॥

गशवाणीवृत्तान्तं कृष्णमित्रवचस्तथा ।॥३॥

वर्णयित्वाथ जिज्ञासुः श्रीचन्द्रां शरणं गतः।

श्रीश्यामाश्यामयोर्देवि रतरीति न वेदम्यहम् ॥४॥

आकाशवाणी का वृत्तान्त, श्रीकृष्ण-सखा की बात, श्रीराधा-मन्दिर की माधुरी तथा सखियों की बातचीत का वर्णन करके वे ब्राह्मण जिज्ञासुभाव से श्रीचन्द्राजी की शरण में गये और बोले----'हे देवि! मैं श्रीश्यामा-श्याम की रसरीति को नही जानता ॥३-४॥

पदे पदे विमुह्यामि तेन त्वां शरणं गतः।

मयि दीने दयां कृत्वा यदहस्यं वदाधुना ॥५॥

'अतएव पद-पद पर मोहित हो जाता हूँ। इसीलिये मैं आपकी शरण में आया हूँ। अब मुझ दीन पर दया करके जो रहस्य हो, वह मुझे बताइये ॥५॥

श्यामस्योपरि में रोषः श्यामस्य च ममोपरि।

युक्तमेतत्कथं वाम्यं सखीभिरनुमोदितम् ॥६॥

'श्रीश्यामसुन्दर के ऊपर मेरा क्रोध और मुझ पर श्यामसुन्दर का क्रोध-यह वामता कैसे उचित हो सकती है, जिसका सखियों ने अनुमोदन किया है ? ।।६।।

निशम्य विप्रवचनं श्रीचन्द्रा वाक्यमब्रवीत् ।।

शृणु विप्र लद स्नेहात् किमप्यत्रानुवर्णये ॥७॥

ब्राह्मण के वचन को सुनकर श्रीचन्द्राजी बोली-हे विप्रवर! तुम्हारे स्नेह वश इस विषय में मैं कुछ वर्णन करती हूँ, (ध्यान से) सुनो ॥७॥

यथावत्राधिका देवी तत्प्रेष्ठः श्यामसुन्दरः।

रसरीति विजानाति यतस्तौ रसरूपिणी ॥८॥

'वास्तव में तो श्रीराधिका देवी और उनके प्यारे श्रीश्यामसुन्दर ही रस की रीति को जानते हैं ; क्योंकि वे दोनों रस की साकार मूर्ति हैं ।।८।।

स्वभावकुटिलं प्रेम तदधीने रसे सदा ।

कौटिल्यमनिवार्य हि प्रेमाभिन्नत्वहेतुना ॥९॥

प्रेम स्वभाव से ही कुटिल (वक्रभाव या बाँकेपन से युक्त) होता है। रस सदा प्रेम के ही अधीन रहता है। अतः प्रेम से अभिन्न होने के कारण ही रस मे कौटिल्य अनिवार्य रूप से रहता है ।

व्रजेन्द्रनन्दने कृष्ण शैशवादेव वामता।

पायनात्पयसो मातु कौटिल्यन

श्रीब्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण मे तो बचपन से ही वामता प्रकट है। सम्भवतः पहले-पहल यशोदा मैया ने तिरछी होकर उन्हें दूध पिलाया था। इसीलिये उनमे बांकापन लक्षित होता है ॥१०॥

मुकुटे लकुटे दृष्टौ चलने वचने तनौ।

महारसमयस्यास्य वान्यं प्रेम स्वभावजम् ॥११॥

महारसमय श्रीकृष्ण के मुकुट, लकुट, चितवन, (चञ्चल) गति, बोल-चाल और शरीर में भी जो वामता है, वह प्रेम के स्वभाव से ही प्रकट हुई है ॥११॥

कृष्णादपि महावामा देवी श्रीवृषभानुजा।

यया वशीकृतः कृष्णो वामचञ्च लवीक्षणः॥१२॥

देवी श्रीवृषभानुनन्दिनी तो श्रीकृष्ण से भी अधिक महावामा है, जिन्होंने अपनी बॉकी चञ्चल चितवन से श्रीकृष्ण को वशीभूत कर लिया है ।।१२।।

महाप्रेममयो साक्षात् श्यामा श्रीश्याममोहिनी।

अस्याः कृपाकटाक्षेण वामत्वमभिजायते ॥१३॥

श्रीश्यामसुन्दर को मोह लेनेवाली श्यामा महान् प्रेम की साक्षात् मूर्ति है। इनके कृपा-कटाक्ष से ही वामभाव प्रकट होता है ।।१३॥

तदैवाराध्यते कुष्णस्त्यक्त्वा संकोचमात्मनि ।

वामत्वे नास्ति संकोचो रसस्तेन प्रकाशते ॥१४॥

मन में किसी प्रकार का संकोच न रखकर-दिल खोलकर तभी श्रीकृष्ण को आराधना की जाती है। वामभाव होने पर संकोच नहीं रहता, तभी रस का पूर्ण प्रकाश होता है ॥१४॥

तवाप्याकाशवाण्या यत् प्रोक्तं वामत्वसिद्धये।

येन गोपालमधुना वामदृष्टया बिलोकसे ॥१५॥

आकाशवाणी ने भी तुमसे जो कुछ कहा था, वह सब तुम्हारे वामभाव की सिद्धि के लिये ही कहा था, जिसके कारण अब तुम श्रीगोपाल को वाम दृष्टि से देखने लगे हो ॥१५॥

राधाकृपाकटाक्षस्य फलमेतदनुस्मर ।

वामदृष्टयैव दृष्टोऽयं गोपालो वशगो भवेत् ॥१६॥

यह वामभाव श्रीराधारानी के कृपा-कटाक्ष का ही फल है-इस बात को निरन्तर स्मरण रखो। वामदृष्टि से देखने पर ही श्रीगोपाल वश में होते है ॥१६॥

दासोऽस्मीति वचः श्रुत्वा दूरादेव पलायते।

अगौरवे कृते तुष्टो गौरवादथ कुप्यति ॥१७॥

'मैं आपका दास हूँ-इस वचन को सुनकर वे दूर से ही भाग खड़े होते है, गौरव न करने पर प्रसन्न होते हैं और गौरव करने से कुपित हो जाते हैं ।।१७।।

जगदीश जगन्नाथ कोटिब्रह्माण्डनायक ।

ब्रह्मन् स्वामिन्परात्मन् भोः श्रुत्वा संकोचमेत्यसौ ॥१८॥

जगदीश! जगन्नाथ ! कोटि-ब्रह्माण्डनायक ! ब्रह्मन् ! स्वामिन् ! परात्मन् ! इत्यादि (ऐश्वर्य तथा गौरव के सूचक) शब्दों को सुनकर वे संकुचित हो जाते हैं ॥१८॥

लाल्य लालित लाल्येन्दो वत्स दामोदरादिभिः ।

तथा मित्र सखे प्रेष्ठेत्याह्वानरति तुष्यति ॥१९॥

लाला! लाडिले ! लाल ! चाँद ! वत्स ! दामोदर ! मित्र ! सखे । प्रियतम ! आदि नामो से वे बहुत संतुष्ट होते हैं ।।।

कितवासित जिह्मेति चौर चञ्चल धृष्ट रे।

अदान्त कुहकेत्यादि समाकर्ण्य प्रमोदते ॥२०॥

कितव (धूर्त) ! कलूटे ! कुटिल! चोर! चञ्चल ! ढीठ ! उद्दण्ड ! कपटी ! आदि सम्बोधनों को बड़े चाव से सुनते और खूब प्रसन्न होते है ॥२०॥

स्तुवन्तो व्रजवासाय ब्रह्माद्या अपि नादृताः।

मौनं स्तुतौ सतामस्य ब्रूते गोकृतहुंकृतौ ॥२१॥

व्रजवास की कामना से स्तुति करनेवाले ब्रह्मा-इन्द्र आदि देवताओंका भी वे आदर नहीं करते, सत्पुरुषों द्वारा की हुई अपनी स्तुति सुनकर भी मौन रह जाते है; परन्तु व्रज की गौएँ हुंकार भर कर दें तो वे उनसे लिपटकर बातें करने लगते हैं ॥२१॥

लज्जते विप्रयज्ञेषु विहरन् व्रजकर्दमे ।

कुरुते दास्यमाभीरीगणे स्वाम्यं न योगिनाम् ॥२२॥

व्रज के गोबर-गोमूत्र की कीच में बड़े प्रेम से विहार करते हैं, परंतु ब्राह्मणो के यज्ञों में जाते शरमाते हैं। गोपियों की तो गुलामी करते हैं, किंतु योगियो के स्वामी बनने को भी तैयार नहीं होते ॥२२॥

न दत्तमस्य रुचिरं स्तेयं स्वादु गृहे गृहे 

फलप्रवालबहस्रग्धातुस्तबकभूषणः ॥२३॥

गोपालबालकैयन् नृत्यन् युध्यन् प्रसीदति ।

पराजितो वहन् स्कन्धे तातयं मन्यते सुखम् ॥२४॥

हाथ से दिया हुआ भोजन इन्हें नहीं रुचता; किंतु घर-घर में चोरी किया हुआ माखन, दधि, दुग्ध आदि स्वादिष्ट लगता है। टेंटी, करौंदा आदि फल, कोमल पत्र, मोरपंख, फूलों की मालाएँ, मैनसिल-गैरू, हरताल-सेलखड़ी आदि धातु और फूलों या फलों के गुच्छों के आभूषण धारण करके ग्वाल-बालों के साथ गाते-नाचते और युद्ध करते हुए ये बहुत प्रसन्न होते है। खेल में हारने पर गोपबालकों को कंधे पर चढ़ाकर--उनका घोड़ा बनकर चलते हैं और इसी में सुख मानते हैं ।।२३-२४।।

सख्यवात्सल्यशृङ्गारा नजे मुख्यास्त्रयो रसाः।

तत्तल्लीलाप्रसङ्गेषु ब्रह्माद्यैरपि संस्तुताः॥२५॥

सख्य, वात्सल्य तथा शृङ्गार--ये तीन ही रस ब्रज में प्रधान हैं। तत्तत्सम्बन्धी लीला-प्रसङ्गो में श्रीब्रह्माजी आदि ने भी इन रसों की बहुत प्रशंसा की है ॥२५॥

'अहो भाग्यमहो भाग्यं नन्दगोपव्रजौकसाम् ।

यन्मित्रं परमानन्दं पूर्ण ब्रह्म सनातनम् ॥२६॥

श्रीब्रह्माजी कहते हैं- 'अहो ! श्रीनन्दगोप के व्रज में रहनेवाले स्त्री-पुरुषों का भाग्य कैसा आश्चर्यमय है--परमानन्दमय, परिपूर्ण, सनातन ब्रह्म श्रीकृष्ण जिनके मित्र हैं'।२६।।

पयांसि यासामपिबत् पुत्रस्नेहस्नुतान्यलम् ।

भगवान् देवकीपुत्रः कैवल्याद्यखिलप्रदः ॥२७॥

तासामविरतं कृष्ण कुर्वतीनां सुतेक्षणम् ।

न पुनः कल्पते राजन् संसारोऽज्ञानसम्भवः ॥२८॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं--'राजन् ! कैवल्य-मुक्ति आदि सम्पूर्ण पदार्थो के दाता भगवान् श्रीयशोदानन्दन ने जिन गौओं और गोपियों के पुत्रस्नेह से झरते हुए दुग्ध का पान किया, श्रीकृष्ण में निरन्तर पुत्रभाव करनेवाली उन गौओं और गोपियों को अज्ञान से होनेवाला जन्म-मरणरूप संसार कभी बाधा नहीं पहुँचा सकता ॥२७-२८॥

पादच्यासर्भुजविधुतिभिः सस्मितैर्भुविलासै

र्भज्यन्मध्यैश्वलकुचपटै:कुण्डलैर्गण्डलोलेः।

स्विद्यन्मुख्यः कवररशनानन्थयः कृष्णवध्वो

गायन्त्यस्तं तडित इव ता भेघचके विरेजुः ॥२९॥

'जो भाँति-भाँति से पैरों को नचा रही थीं, चरणों की गति के अनुसार भुजाओं से कलापूर्ण भाव प्रकट कर रही थी, मन्द-मन्द मुसकरा रही थीं और भौंहों को मटका रहीं थीं, नाचने मे जिनकी पतली कमर कभी-कभी लचक जाती थी, जिनके आँचल उड़े जा रहे थे, कानों के कुण्डल हिल-हिलकर अपनी प्रभा से जिनके कपोलों को और भी चमका रहे थे, 'जिनके श्रीमुखो पर श्रमजनित स्वेदबिन्दु छा रहे थे, जिन्होने अपने केशपाश और कटि-किङ्किणियो को खूब कसकर बाँध रखा था, ऐसो वे श्रीकृष्ण-प्रेयसी गोपियाँ उन्हींके प्रियतम गुणों का गान करती हुई मेघमण्डल में विद्युल्लताओं के समान (श्रीरासमण्डली में) विशेष शोभा को प्राप्त हुई ॥२९॥

तत्रोत्कण्ठाप्रधानत्वात् प्रेम्णोऽतृप्तिस्वभावता।

प्रतिक्षणमतो वृद्धिरतृप्तेजवासिनाम् ॥३०॥

प्रेम में उत्कण्ठा प्रधानरूप में होती है; अतएव तृप्ति न होना प्रेम का स्वभाव है ! श्रीकृष्णदर्शन से ब्रजवासियों को तृप्ति नहीं होती, इसलिये उनके प्रेम की प्रतिक्षण वृद्धि होती रहती है ॥३०॥

'यस्याननं मकरकुण्डलचारुकर्णं

भ्राजत्कपोलसुभगं सुविलासहासम् ।

नित्योत्सवं न ततृपुर्द शिभिः पिबन्त्यो

नार्यो नराश्च मुदिताः कुपिता निमेश्च ॥३१॥

'मकराकृत कुण्डलो से अलंकृत मनोहर कर्ण और चमकते हुए (आरसी-जैसे) गोल कपोलों से शोभायमान सुन्दर विलास-हासयुक्त नित्य उत्सवमय श्रीकृष्ण के श्रीमुखारविन्द का सभी स्त्री-पुरुष प्रसन्नतापूर्वक नेत्रों द्वारा पान करते हुए कभी तृप्त नहीं होते थे और पलकों के गिरने से दर्शन में बाधा होने पर उनके अधिष्ठाता निमि पर कुपित हो उठते थे' ॥३१॥

गोपीनां परमानन्द आसीद् गोविन्ददर्शने ।

क्षणं युगशतमिव यासां येन विनाभवत' ॥३२॥

श्रीगोविन्द के दर्शन होने पर श्रीगोपियों को परम आनन्द होता और उनके दर्शन के बिना उनका एक क्षण भी सौ युगों के समान लंबा (असह्य) हो जाता था" ॥३२॥

उक्तिरेषा प्रसिद्धास्ति श्रीशुकस्य महात्मनः।

श्रीकृष्णस्य वियोगस्तु दुस्सहो व्रजवासिनान् ॥३३॥

महात्मा श्रीशुकदेवजी की यह वाणी प्रसिद्ध है। श्रीकृष्ण का वियोग व्रजवासियों के लिये परम दुस्सह है ।।३३॥

कदाचित्रेमवैचित्त्यात् संयोगेऽपि वियोगिता।

क्षणे क्षणे प्रेयसीनां वेद्या तद्रसवेदिभिः॥३४॥

कभी प्रेम-वैचित्त्य के कारण संयोग में भी प्रेयसीजनों को प्रतिक्षण वियोग की प्रतीति होती है; यह रसिकजनों के ही समझने की वस्तु है ॥३४॥

परं वियोगकालेऽपि विचित्रा रसमाधुरी।

अनिर्वाच्यतमा काचित् संयोगादधिकायते ॥३५॥

परंतु वियोगकाल मे भी अत्यन्त अनिर्वचनीय विचित्र रस माधुरी का आस्वादन मिलता है। वह संयोगावस्था से भी अधिक सुखद होती है ।।३५।।

विप्र उवाच

कयं देवि महावेगविरहानलतापजः।

दुरन्तशोकमोहाद्याप्तोऽपि लभते रतिम्॥३६॥

ब्राह्मण बोला- हे देवि ! महान् वेगशाली विरहाग्नि के ताप से होनेवाले दुरन्त शोक-मोह आदि से घिरा हुआ यह प्रेमी जीव कैसे सुन पाता है ? ॥३६।।

संशयोऽयं सनुच्छेद्यस्त्वयैव कृपयानघे।

महागाडतमे दुःखे कुलोऽस्ति रसमाधुरी ॥३७॥

हे मङ्गलमयी ! कृपा करके तुम्हीं इस संशय को दूर करो। वियोग के परम प्रगाढ़ दुःख में रस-माधुरी का आस्वादन कैसे सम्भव है ? ॥३७॥

श्रीचन्द्रोवाच

महाविरहदुःखेऽपि परिणाने महासुखम् ।

तत्स्फूलिस्तद्रसज्ञस्य रसराजानुकम्पया ॥३८॥

श्रीचन्द्राजी बोली --- (ब्रह्मन् ! ) यद्यपि प्रेमी को प्रेमास्पद के विरह से महान् दुःख होता है, तो भी परिणाम में उसे महान् सुख की प्राप्ति होती है। रसराज श्रीकृष्ण की कृपा से उस रस के अनुभव करनेवाले (अधिकारी)को ही उसकी स्फूर्ति होती है ।।३८।।

वियोगकालिकं भावं पुनरप्येष वाञ्छति।

तदभावे तु संतापस्तेनास्य सुखरूपता ॥३९॥

यह रसिक-प्रेमी वियोग-काल के भाव की बार-बार इच्छा करता है । उस भाव का विराम हो जाने पर उसे संताप होता है, अतः विरह की सुखरूपता स्वतः सिद्ध है ।।३९।।

दुःखस्य बाञ्छनीयत्वं न लोके प्रथितं क्वचित् ।

तस्माविरहजं दुःखं विद्धि वित्र सुखात्मकम् ॥४०॥

ब्रह्मन् ! लोक में दु.ख कभी वाञ्छनीय हुआ हो, ऐसी कही भी प्रसिद्धि नहीं है (परंतु विरह-काल की वह करुणक्रन्दनरूपा अवस्था रसिक को वाञ्छनीय होती है)। अतः तुम विरहजनित दुःख को सुखरूप समझो।।४०।।

विरहानुभवः प्रेष्ठसंयोगादनुजायते ।

सदानुवृत्तिः प्रेष्ठस्य विरहेणैव सिव्यति ॥४१॥

यथाधनो लब्धयने विनष्टे तस्य चिन्तया।

निभूतो नानुसंधत्ते धनादन्यत् कदाचन ॥४२॥

प्रियतम का संयोग प्राप्त होने के पश्चात् (उनके बिछुड़ने पर.) विरह दुःख का अनुभव होता है। विरह-वेदना से ही प्रियतम को सदा अनुवृत्ति, निरन्तर स्फूर्ति होती है ठीक उसी तरह, जैसे धनहीन पुरुष पाये हुए धन के नष्ट हो जाने पर उसकी चिन्ता से आविष्ट होकर केवल धन का ही ध्यान करते हैं, धन के सिवा और सब कुछ उन्हें भूल जाता है ।।४१-४२।।

एकदा वजनारीणां दृष्ट्वा विरहवेदनाम् ।

उद्धवः परमः प्रीतस्ता नमस्यन्निदं जगौ ॥४३॥

एक समय श्रीउद्धवजी ने व्रज-नारियों की विरह-वेदना को देखकर बड़े प्रसन्न हो उनको प्रणाम करते हुए यह उद्गार प्रकट किया था--।।४३।।

'अहो यूयं स्म पूर्णार्था भवत्यो लोकयूजिताः।

वासुदेवे भगवति यासामिपितं मनः ॥४४॥

'हे व्रजदेवियो! आप सब पुर्णार्थ हो गयीं--आपके सारे मनोरथ सदा के लिये सफल हो गये। आप सम्पूर्ण जगत्के द्वारा पूजित एवं वन्दनीय हैं; क्योंकि आपका मन इस प्रकार श्रीवासुदेव भगवान् में समर्पित हो रहा है ।।४४।।

सर्वात्मभावोऽधिकृतो भवतीनामधोक्षजे।

विरहेण महाभागा महान्मेऽनुग्रहः कृतः ॥४५॥

बड़भागिनी ब्रजसुन्दरियो! जिनका स्वरूप निरूपण करते-करते मनइन्द्रियाँ थक जाती है, उन्हीं श्रीकृष्ण के प्रति सम्पूर्ण इन्द्रियों द्वारा की जानेवाली भावना पर आपने पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लिया है। आपने इस विरह-भाव को प्रकट करके मुझ पर बड़ा अनुग्रह किया है ॥४५॥

विरहस्त्वेष प्रेष्ठस्य संयोगसुखवर्षकः ।

यथा हरीतकीचूर्ण माधुर्यव्यञ्जकं ह्यपाम् ॥४६॥

यह विरह प्यारे के संयोग-सुख को उसी तरह बढ़ानेवाला होता है, जैसे हरीत की चूर्ण जल के मिठास को (अधिक रूप में) व्यक्त करता है ।।४६॥

प्रेयसो या महारासे पूर्वा रसमाधुरी।

विरहादनुभूता सा श्रिया सह सखीगणैः ।।४७।।

श्रीमहारास में हम सब सखीगणों ने श्रीराधा के साथ प्रियतम की अपूर्व रसमाधुरी का जो अनुभव किया था, वह विरह के द्वारा ही किया था ।।४७।।

विप्र उवाच

धन्योऽस्म्यनगृहीतोऽस्मि श्रीगोष्टप्रेमप्रक्रियाम् ।

त्वत्तः शृणोम्यहं देवि तव पादानुकम्पया ॥४८॥

ब्राह्मण बोला- देवि ! मैं धन्य हूँ। आपने मुझ पर बड़ी कृपा की है। आपके चरणों की कृपा से ही मैं आपके श्रीमुख से श्रीव्रज की प्रेम-प्रक्रिया सुन रहा हूँ ॥४८॥

दुलभा श्रीमहारासरसपीयषमाधुरी ।

मादृशामपि लभ्या स्यात् साधनं देवि तहद ॥४९॥

हे देवि ! श्रीमहारास-रस-पीयूष की माधुरी सर्वथा दुर्लभ है; यह मुझ-जैसे प्राणियों को भी प्राप्त हो सके, ऐसा कोई साधन कृपा करके बतलाइये ।।४९।।

श्रीचन्द्रोवाच

नहि साधनतः प्राप्यं महारासरसामृतम् ।

श्रीश्यामाश्यामयोरत्र स्वतन्त्रा कारणं कृपा ॥५०॥

श्रीचन्द्राजी बोली- ब्रह्मन् ! महारास-रसामृत साधन से प्राप्त होनेवाली वस्तु नहीं, उसकी प्राप्ति में श्रीश्यामा-श्याम की स्वतन्त्र (अहेतुकी) कृपा ही कारण है ।।५०।।

क्रियाभिश्च परिश्रान्तचित्तोपरतिकारकम् ।

साधनं चाभिमुख्याय कारणत्वेन कल्पितम् ॥५१॥

विधि क्रियाओं के द्वारा अत्यन्त थके हुए चित्त में उनकी ओर से उपरति कराने के लिये ही शास्त्र ने साधन का विधान किया है। जीव श्रीभगवान्के अभिमुख हो--इसमें साधन को कारणरूप से कल्पना की गयी है ।।५१।।

विद्यादयो गुणा राज्ञश्चाभिमख्यप्रयोजकाः।

परितोषफलं तस्य स्वतन्त्रकृपया भवेत् ॥५२॥

विद्या आदि गुण गुणी को राजा के दरबार में उसके सम्मुख उपस्थित कर देते हैं, परंतु पारितोषिक मिलना तो राजा की स्वतन्त्र कृपा के ही अधीन होता है ।।५२।।

साधनं चाभिमुख्या) तव चित्र वदाम्यहम् ।

प्रथमं शृणुयाद्भक्तमुखाद्भागवतों कथान् ॥५३॥

हे ब्राह्मण ! जिससे जीव प्रिया-प्रियतम के सम्मुख पहुँच सके, वह साधन मैं तुझे बताती हूँ। प्रथम तो भक्त के मुख से श्रीमद्भागवत की कथा सुने ।।५३।।

ततः समाश्रयेद्भक्त्या रसिकं श्रोत्रियं गुरुम् ।

ततो नवविधा भक्तिं विविक्तवसति तथा॥५४॥

फिर भक्तिभाव से (सर्वज्ञ) श्रोत्रिय रसिक गुरु की शरण ले। फिर नवधा भक्ति का अनुष्ठान करे। इसके वाद (श्रीवन में) एकान्त वास करे ।।५४।।

अथ देहानसंधानं त्यक्त्वा रासाधिकारिताम् ।

आभिमुख्यं च लभते प्रेयसं प्रेयसोस्ततः ॥५५॥

फिर 'मैं स्त्री हूँ या पुरुष' यह मायिक देह का अनुसंधान त्याग कर मनुष्य रास के अधिकार हो पाता है। इसके बाद उसे श्रीप्रिया-प्रियतम के सम्मुख पहुँचने का सौभाग्य प्राप्त होता है ।।५५।।

तत्कृपालेशतः प्राप्य चिदानन्दमयं वपुः ।

लभते रासलीलाया रसपीयूषमाधुरीम् ॥५६॥

उनके कृपालेश से चिदानन्दमय शरीर पाकर (कृतकृत्य हुआ) रसिक जीव श्रीरासलीला के रस-पीयूष की माधुरी का आस्वादन करता है ॥५६॥

चिदानन्दात्मलीलाया रसास्वादस्तु प्राकृतः ।

देहेन्द्रियासुभिः कर्तुमशक्यः सर्वथा जनैः ॥५७।।

चिदानन्दमयी लीला के रस का आस्वादन जीव प्राकृत देह, इन्द्रिय, मन आदि से किसी तरह नहीं कर सकता ॥५७।।

रासेश्वर कृपा चात्र परमं कारणं मतम् ।

रासलीलारसास्वादे यतः साऽऽह्लादिनी मता ॥५८॥

रासलीला-रसास्वादन में रासेश्वरी श्रीराधा की कृपा को ही परम कारण माना गया है ; क्योंकि वे स्वयं आह्लादिनी शक्ति हैं ॥५८॥

महोन्मादकतापूर्णा रासलीला हरेरपि ।

विमोहिनी वामनोक्तं प्रमाणं श्रीहरेर्वचः ॥५९॥

श्रीरासलीला महान् उन्मादकारी गुणों से परिपूर्ण है। यह श्रीहरि को भी मोह लेनेवाली है। इस विषय में वामन-पुराणोक्त स्वयं श्रीहरि का वचन प्रमाण है--॥५९॥

'सन्ति यद्यपि मे प्राज्या लीलास्तास्ता मनोहराः।

नहि जाने स्मृते रासे मनो मे कीदृशं भवेत् ॥६०॥

'यद्यपि मेरी विभिन्न सभी लीलाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण एवं मनोहर है, तथापि न जाने रास का स्मरण होते ही मेरा मन कैसा हो जाता है ।।६०।।

इत्युक्त्वा विरता देवी श्रीचन्द्रा बाक्यमब्रवीत् ।

गह्वरागमवेलास्ति प्रेयसीप्रेयसोरियम् ॥६१॥

इतना कहकर श्रीचन्द्रादेवी (रहस्य-निरूपण से) विरत हो ब्राह्मण से यों बोलीं- ब्रह्मन् ! अब प्रिया-प्रियतम के गहवरवन में आने का समय हो गया है ।।६१।।

व्रजामि तरसेत्युक्त्वा श्रीनिकुञ्जवलीयत ।

अथ विप्रोऽपितं देशं नत्वा स्वावासमागमत् ॥६२।।

अतः मैं शीघ्र जा रही हूँ।' यह कहकर वे श्रीजी के निकुञ्जों में अन्तर्हित हो गयी। ब्राह्मण भी उस स्थान को प्रणाम करके अपने निवास स्थान पर चला गया ॥६२।।

इति श्रीराधा सप्तशती श्रीगह्वरगम्भीरता नाम ततीयोऽध्यायः ।

आगे पढ़ें.................. श्रीराधा सप्तशती अध्याय 4

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