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मुंडमाला तंत्र पटल १३
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रसिक मोहन विरचित मुण्डमालातन्त्र
पटल ७
श्रीदेव्युवाच -
कथ्यतां मे दयासिन्धो! जगदीश!
जगद्गुरो !।
जगत्-कर्ता जगत्-पाता जगद्धाता
त्वमेव हि ।।1।।
श्री देवी ने कहा
- हे दयासिन्धो ! हे जगदीश ! हे जगद्गरो ! आप हमें बतावें । आप ही जगत्कर्ता हैं,
आप ही जगत् के रक्षाकर्ता हैं, आप ही जगत् के
धारण-कर्ता हैं ।।1।।
त्रिषु लोकेषु विश्वेश! त्वत्तो
भिन्नः कदाचन ।
नास्ति कर्ता महादेव ! किमेतत्
कथयामि ते ।।2।।
हे विश्वेश ! त्रिभुवन में कदापि आपसे भिन्न कोई कर्ता नहीं है। हे महादेव ! आप ही कर्ता हैं। यह और आपसे क्या बतायें।
न गोलके न कैलासे न ब्रह्म-मन्दिरे
प्रभो ! ।
न वैकुण्ठे न वा सौरे न नक्षत्रे
शची-पुरे ॥3॥
वक्ता कर्ता च पाता च हर्ता च
त्रिपुरेश्वर !।
पृच्छामि परमं तत्त्वं योगिनां
योगसाधनम् ।।4।।
हे प्रभो ! हे त्रिपुरेश्वर ! गोलोक
में,
कैलास में, ब्रह्म-लोक में, वैकुण्ठ में, सूर्यलोक में, नक्षत्रलोक
में या शचीगृह में कोई वक्ता नहीं है, कोई रक्षा-कर्ता नहीं
है, कोई संहार-कर्ता भी नहीं है। योगियों के परमतत्त्व,
योग के साधन की मैं जिज्ञासा कर रही हूँ ।।3-4।।
श्री शिव उवाच -
योगीन्द्र- हृदयाम्भोजे योगिनां
हृदये तथा ।
ध्येयं गोप्यञ्च देवेशि ! ब्रह्मेति
यं विदुः शिवे ! ॥5॥
श्री शिव ने कहा
- हे देवेशि ! योगिश्रेष्ठ साधक के हृत्पद्म में एवं योगियों के हृदय में एक
गोपनीय ध्येय तत्त्व है। हे शिवे ! पण्डितगण उन्हीं को 'ब्रह्म' के नाम से कहते
हैं ।।5।।
परं ब्रह्म परं धाम
सच्चिदानन्दमण्ययम् ।
योगीन्द्रानां ज्ञानगम्यमगम्यं मनसा
अपि ।।6।।
वह सच्चिदानन्द अण्यय पर ब्रह्म
श्रेष्ठ स्थान है। वह योगिश्रेष्ठ साधकों के ज्ञान से गम्य हैं। अन्य लोगों के मन
के द्वारा भी अगम्य हैं ।।6।।
अन्येषाञ्च वरारोहे ! जगद्धाति !
शृणु प्रिये !।
सर्वेषाञ्च मया ज्ञानं ज्ञातं
त्वयाख्यमण्ययम् ।
नारीणां हृदयाम्भोजं न च वेद कथञ्चन
।।7।।
हे वरारोहे ! हे जगद्धात्रि ! हे
प्रिये ! आप श्रवण, करें । अन्य सभी के
लिए अगम्य, आपके द्वारा ज्ञात, उन
अण्यय तत्त्व को (के विषय में) आप बता सकते हैं। वह (तत्त्व) मेरे लिए अज्ञात है।
नारियों के हृत्पद्म को किसी भी प्रकार से कोई जान नहीं सकता ।
श्री पार्वत्युवाच -
सत्यञ्च कथितं नाथ सत्यमेव न संशयः
।।
अबलानाञ्च हृदयमन्तः सारञ्च
कथ्यताम् ।।8।।
हे नाथ ! आपने सत्य ही कहा है। इसमें कोई संशय नहीं है। स्त्रियों के हृदय को - अन्तर के सार-तत्त्व को मुझे बतावें ।।
पुरुषा नैव जानन्ति स्वभावात् तु
व्यतिक्रमम्।
देवदेव! महादेव! संसारार्णव-तारक!।
जानामि हृदयं पुंसां काठिन्यं
लोलमानसम् ॥9॥
नारियों के स्वभाव को विपरीत
हृदयवाले पुरुषगण नहीं जानते हैं। हे देवदेव ! हे महादेव ! हे संसारार्णव-तारक!
पुरुषों के हृदय कठिन हैं एवं मन चञ्चल है - ऐसा जानती हूँ ।
अतएव महादेव! शीघ्रं वद सदाशिव !।
केन रूपेण सा दुर्गा सुप्रसन्ना
महीतले ।।10।
अतः हे महादेव ! हे सदाशिव ! आप
शीघ्र बतावें । इस पृथिवी पर वह दुर्गा किस प्रकार से सुप्रसन्ना
होती हैं ।
श्री शिव उवाच -
स्तवेन कवचेनापि ज्ञानेन वरवर्णिनि
!।
प्रसन्ना च महाविद्या भवेत्
परम-कारणम् ॥11॥
श्री शिव ने कहा-
हे वरवर्णिनि ! स्तव के द्वारा, कवच के द्वारा
एवं ज्ञान के द्वारा भी परम कारण महाविद्या प्रसन्न होती हैं ।।11।।
श्री शङ्कर उवाच -
शृणु देवि ! महादेवि ! विश्वेश्वरि
! जगन्मयि !
येन रूपेण सा काली तारा
त्रिपुर-सुन्दरी ! ।। 12।।
हे देवि! हे महादेवि! हे
विश्वेश्वरि ! हे जगन्मयि ! जिस प्रकार से वह काली,
तारा एवं त्रिपुरासुन्दरी
प्रसन्न होती हैं, उसे श्रवण करें ।।12।।
भैरवी चैव कमला दर्गा च भुवनेश्वरी ।
या या विद्या महेशानि! कथिता
भुवनेश्वरी ।।13।।
हे भुवनेश्वरि ! हे महेशानि ! भैरवी,
कमला, दुर्गा, भुवनेश्वरी
प्रभृति जिन जन विद्याओं को मैंने
बताया है ।।13।।
सा विद्या च प्रसन्नाऽभूत् केवलं
ज्ञानमात्रतः ।
विना ज्ञानान्न वै ध्यानं न क्रिया
न च सद्गतिः ॥14॥
वे सभी विद्याएँ केवल ज्ञान मात्र
के द्वारा प्रसन्न हुई थीं। ज्ञान के बिना ध्यान नहीं होता है,
क्रिया नहीं होती है, सद्गति भी नहीं होती है
।।14।।
न च भक्तिर्न वा मुक्तिर्न
भुक्तिबुद्धिरेव हि ।
श्मशान-सिद्धिश्च न वा न च सिद्धिः
शवात्मिका ।।15।।
(ज्ञान के बिना) भक्ति नहीं होती
है, मुक्ति नहीं होती है, भोग नहीं
होता है, बुद्धि भी नहीं होती है। (ज्ञान के बिना) श्मशानसिद्धि
नहीं होती है, शवसिद्धि भी
नहीं होती है।।15।।
विना ज्ञानं महेशानि! न च सिद्धिः
प्रजायते ।
ज्ञाने यदा समुत्पन्ने सर्वाः
सिद्धयन्ति सिद्धयः ।।16।।
हे मेहशानि! ज्ञान के बिना सिद्धि
उत्पन्न नहीं होती है । जब ज्ञान उत्पन्न होता है, तब समस्त सिद्धियाँ उत्पन्न होती हैं ।
ज्ञानेऽज्ञाने महेशानि! विफलं पूजनं
जपः ।
तपो भक्तिः क्रिया स्तोत्रं कवचं
विफलं प्रिये ! ।। 17।।
हे महेशानि ! हे प्रिये ! ज्ञान को
न जानने पर पूजा, जप विफल होते हैं। तपस्या,
भक्ति, क्रिया, स्तोत्र
एवं कवच भी विफल होते हैं ।
अतएव परं तत्त्वं ज्ञानं परमसाधनम् ।
यो जानाति जगद्धात्रि ! स शिवो
नात्र संशयः ।।18।।
अतः ज्ञान ही परम तत्त्व एवं परम
साधन है। हे जगद्धात्रि ! जो इसे जानता है, वह
शिव है, इसमें सन्देह नहीं है।।18।।
कौलिकं कौलिका देवि ! न त्यजेत् तु
कथञ्चन ।
परित्यागे वरारोहे! सर्वं भवति
निष्फलम् ॥19॥
हे देवि ! कौलिक एवं कौलिका का किसी
भी प्रकार से त्याग न करें । हे वरारोहे ! जो इनका परित्याग करता है,
उसका सब कुछ निष्फल हो जाता है ।19।।
एवं शक्ति-विधानेन शक्तः
सर्वविचारणात् ।
जीवन्मुक्तः सर्वलोके जायते नात्र
संशयः ॥20॥
शक्त-साधक इस प्रकार शक्ति-विधान से
समस्त विषय का विचार करने पर, उस विचार से
वह समस्त लोकों में जीवन्मुक्त बन जाता है ।।20।।
मन्त्रार्थ मन्त्रचैतन्यं योनिमुद्रां
न वेत्ति यः ।
न वेत्ति किञ्चिद् देवेशि ! सत्यञ्च
वरवर्णिनि ! ॥21॥
जो मन्त्रार्थ,
मन्त्रचैतन्य एवं योनिमुद्रा को नहीं जानता है, हे देवेशि ! हे वरवर्णिनि ! वह कुछ नहीं जानता है । यह सत्य है ।।21।।
संकेतं गुह्यसंकेतं जीव-संकेतकं तथा
।
दिव्यानाञ्चैव वीराणां पशूनां
वरवर्णिनि ! ॥22॥
हे वरवर्णिनि ! हे प्रिये ! मैंने यामल
में दिव्य, वीर एवं पशुगणों के संकेत,
गुह्यसंकेत एवं जीवसंकेत को बताया है।
भाव-संकेतकं देवि! ब्रह्म संकेतकं
तथा ।
समं परमसंकेतं वीरसाधनमुक्तमम् ॥23॥
हे देवि ! मैंने भाव संकेत एवं ब्रह्मसंकेत
को भी बताया है। मैंने परम संकेत के साथ-साथ उत्तम वीरसाधना को भी बताया है ।।23।।
श्मशानसाधनं भद्रे! शवसाधनमेव हि।
एवं नानाविधानञ्च मयोक्तं यामले
प्रिये !।
सदा सिद्धिमवाप्नोति यस्तन्त्रे खलु
कोविदः ।।24।।
हे भद्रे ! मैंने श्मशानसाधन एवं
शवसाधन को भी बताया है । हे प्रिये ! मैंने यामल में इस प्रकार नाना विधानों को भी
बताया है । तन्त्रवित् पण्डित-सर्वदा सिद्धि लाभ करते हैं ।।24।।
कथित डामरेणाथ शक्ति-यामलके
प्रिये!।
नानातन्त्रे महेशानि! कथितं
वरवर्णिनि ! ।।25।।
हे प्रिये ! मैंने डामर में
एवं शक्तियामल में भी इसे बताया है । हे वरवर्णिनि ! हे महेशानि !
नाना-तन्त्रों में इस प्रकार नाना विधानों को मैंने बताया है ।।25।।
दुर्गासेवनमात्रेण विधिवाक्यानुसारतः
।
मुक्तिं याति नरः सत्यं लब्ध्वा
तत्त्वं मनोहरम् ।।26।।
विधिवाक्य के अनुसार दुर्गा की
आराधना मात्र के द्वारा परम तत्त्व का लाभ करके मानव मुक्ति का लाभ करता है। यह
सत्य है ।
विना तत्त्व-परिज्ञानं न सुखं न
परां गतिम् ।
लभते मानवः सत्यं देवेशि! जगदम्बिके
! ।।27।।
हे देवेशि ! हे जगदम्बिके !
तत्त्वज्ञान के बिना मनुष्य सुख का भी लाभ नहीं करता है,
परागति का भी लाभ नहीं करता है । यह सत्य है ।।27।।
काली करालवदना मुण्डमालाविभूषणा ।
कामाख्या कामिनी कन्या करालास्या
दिगम्बरा ।।28।।
काली करालवदना
मुण्डमाला से अलङ्कता हैं । वह कामाख्या, कामिनी,
कन्या, करालास्या एवं दिगम्बरा हैं ।
अट्टहासा घोरनादा मेघश्यामा भयानका ।
सर्वबीज-स्वरूपा सा
महाबीज-स्वरूपिणी ।।29।।
वह अट्टहास्य एवं घोर गर्जन-कारिणी,
मेघ के समान श्यामवर्णा, भयानका हैं। वह
सर्वबीज-स्वरूपा एवं महाबीज-स्वरूपिणी हैं ।।29।।
सार्द्धपञ्चाक्षरी विद्या
वशिष्ठादि-प्रपूजिता ।
सिद्धेन्द्रौश्चापि योगीन्द्रेर्मुनीन्द्रश्चापि
सेविता ।।30।।
देवेन्द्रश्चापि वीरेन्द्रैः
साधकेन्द्रैः प्रपूजिता ।
एवम्भूता महामाया
सर्वतत्त्व-विभाविनी ।।31।।
सार्द्ध पञ्चाक्षरी विद्या,
वशिष्ठादि मुनियों के द्वारा पूजिता हैं। सिद्धेन्द्र
(सिद्धश्रेष्ठ), योगीन्द्र, वीरेन्द्र,
मुनीन्द्र एवं साधकेन्द्र देवेन्द्र के द्वारा सर्वतत्त्वविभाविनी
एवम्भूता महामाया प्रकृष्टरूप में पूजित हुई हैं ।।30-31।।।
सङ्केतं कालिकायाश्च तारायाश्च
श्रुतं त्वया ।
कालीतन्त्रे भैरवे च श्रुतं तन्त्रे
च यामले ॥32॥
कालीतन्त्र में कालिका एवं तारा
के संकेत का आपने श्रवण किया है। भैरवतन्त्र में एवं यामलतन्त्र में भी आपने इसे
सुना है ।।32।।
श्रुतं न भैरवीतन्त्रे
भैरव्याश्चरितं प्रिये !।
भूवनायाश्च विद्यायाश्चरितं नैव
सुन्दरि ! ॥33॥
हे प्रिये ! भैरवीतन्त्र में भैरवी
के चरित को आपने नहीं सुना है । हे सुन्दरि ! भुवनाविद्या (भुवनेश्वरी) को
चरित को भी आपने नहीं सुना है ।।33।।
इदानीञ्चापि संक्षेपाद् वदिष्यामि
वरानने!।
पद्मा त्रिशक्तिर्धनदा वाणी पूर्णा
महेश्वरि ! ॥34॥
दुर्गा भगवती देवी भुवनायाः
प्रतिष्ठिता ।
एका देवी जगद्धात्री
नानारूप-विधारिणी ।।35 ।।
हे वरानने ! हे महेश्वरि ! सम्प्रति
संक्षेप में भुवनेश्वरी के चरित को बताऊँगा । पद्मा,
त्रिशक्ति, धनदा, वाणी,
अन्नपूर्णा, देवी भगवती दुर्गा ये - सभी
भुवनेश्वरी में प्रतिष्ठित हैं अर्थात् ये सभी भुवनेश्वरी के अंशभूत हैं। एक (ही)
जगद्धात्री भुवनेश्वरी देवी प्रयोजनवश नानारूपों को धारण की हुई हैं ।।34-35।।
तां भजेत् साधकेन्द्रश्च
सर्वज्ञादि-प्रपूजिताम् ।
महामायां जगद्धात्री
सर्वालङ्कार-भूषिताम् ।।36।।
साधकेन्द्र सर्वज्ञादि के द्वारा
प्रपूजिता सर्वालङ्कार-भूषिता महामाया उन जगद्धात्री की भजना करें ।।36।।
वाणी माया पुनर्वाणी
महामन्त्रस्वरूपिणी ।
ततश्च केवला माया साधकैरपि सेविता ॥37।।
वाणी (ऐं),
माया (ह्रीं), पुनः वाणी (ऐं) अर्थात् ऐं
ह्रीं ऐं - यह महामन्त्रस्वरूप है। उसके बाद केवल माया भी (ह्रीं)
साधकेन्द्र के द्वारा सेवित हुई हैं ।।37।।
पाशादि-त्र्यक्षरी विद्या
यमभीति-विमादिनी ।
सर्वसम्पत्-प्रदा मुक्तिदायिनी
मुक्ति-वल्लभा ।।38॥
मुक्ति के अधिपति पाशादि (आं आदि)
त्र्यक्षरी विद्या यमभीति(मृत्युभय) विमर्दिनी, सर्वसम्पत् प्रदा एवं मुक्तिदायिनी हैं।
महायोगमयी विद्या सर्वज्ञानमयी ततः
।
पूजिता साधकैः सर्वैः
सर्वालङ्कार-भूषिता ॥39।।
इसीलिए समस्त साधकों के द्वारा
सर्वालङ्कार-भूषिता, महायोगमयी, सर्वज्ञानमयी विद्या पूजित हुई हैं ।।39
एवन्ते कथिता देवि! देवदेवैः
प्रपूजिता ।
भुवनेशी महाविद्या देवानामपि
दुर्लभा ।।40॥
हे देवि! देवगणों के द्वारा आराधिता
महाविद्या भुवनेश्वरी एवंविध प्रकार से मेरे द्वारा कही गयी हैं ।।40
यदि भाग्यवशादेव चतुर्थी लभते नरः ।
चतुर्वर्गमयो भूत्वा एवं
ब्रह्माधिगच्छति ॥41॥
यदि भाग्यवश मानव इन चतुर्थी
महाविद्या भुवनेश्वरी का लाभ कर लेता है, तब तक चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम
एवं मोक्ष) को प्राप्त होकर ब्रह्म का लाभ कर लेते है ।।41।।
अब इससे आगे श्लोक ४२ से ५४ में देवी कृत शिवस्तव दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-
मुण्डमालातन्त्र पटल १३
रसिक मोहन विरचित मुण्डमालातन्त्र पटल ७
अहमेवाऽबला बाला कथं जानामि ! शङ्कर
!।
निर्गुणं सगुणं ज्ञातुं न समर्था
कथञ्चन ।।55॥
मैं अबला बाला हूँ। मैं किस
प्रकार सगुण एवं निर्गुण तत्त्व को जानूँगी। मैं किसी भी प्रकार से सगुण एवं
निर्गुण को जानने में समर्थ नहीं हूँ ।।55।।
श्री शिव उवाच -
निर्गुणा प्रकृतिः सत्यमहमेव च
निर्गुणः।
यदैव सगुणा त्वं हि सुगुणो हि सदाशिवः
॥56।।
श्री शिव ने कहा
- प्रकृति सत्य ही निर्गुण है। मैं भी सत्य ही निर्गुण हूँ। जब आप सगुण बनती हैं,
तब सदाशिव भी सत्य ही सगुण बन जाते हैं ।56।।
सत्यञ्च निर्गुणा देवी सत्यं सत्यं
हि निर्गुणः ।
उपासकानां सिद्धयर्थं सगुणा सगुणो
मतः ।।57॥
देवी निर्गुणा हैं,
यह सत्य है। सदाशिव भी निर्गुण हैं, यह
भी सत्य, सत्य है। उपासकगणों की सिद्धि के लिए आप सगुणा हैं।
मैं 'सगुण हूँ' - इस प्रकार कहा गया है
।।57
नानातन्त्रमतं देवि ! नानायत्नात्
प्रकाशितम् ।
ब्रह्मस्वरूपं विज्ञातुं कः समर्थो
महीतले ।।58॥
हे देवि ! नाना प्रकार के यत्नों से
प्रकाशित नाना तन्त्रों के मतों को आपने जान लिया है । इस पृथिवीतल पर
ब्रह्म-स्वरूप को जानने में कौन समर्थ हो सकता है ? अर्थात् कोई भी समर्थ नहीं हो सकता है ।।58।।
नानामार्गे विधावन्ति पशवो
हतबुद्धयः ।
श्रीदुर्गाचरणाम्भोजं हित्वा यान्ति
रसातलम् ॥59।।
पशुगण हत-बुद्धि होकर नाना प्रकार
के साधन-मार्गों के प्रति धावित होते हैं। वे श्रीदुर्गा के पादपद्म का
परित्याग कर रसातल में गमन करते हैं ।।59
सत्यं वाच्मि दृढ़ वच्मि हितं पथ्यं
पुनः पुनः ।
न भुक्तिश्च न मुक्तिश्च विना
दुर्गा-निषेवनात् ।।60॥
मैं सत्य कह रहा हूँ कि दृढ़रूप से
पुनः पुनः हितकारक एवं पथ्य (स्वरूप वचन) कह रहा हूँ कि- दुर्गा की आराधना
के बिना भोग भी नहीं है, मोक्ष भी नहीं है।
देवि ! दुर्गा परं ब्रह्म श्रुतं
काली-श्रुतौ त्वया ।
तारा-श्रुतौ श्रुतं देवि! श्रुता
ब्रह्मविचारणा ।।61॥
हे देवि ! दुर्गा पर ब्रह्म
हैं - इसे कालीतन्त्र में आपने सुना है । हे देवि ! तारातन्त्र में आपने ब्रह्म
कथा का श्रवण किया है एवं ब्रह्मविचार का भी श्रवण किया है ।।61
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च वासवश्च दिवौकसः ।
त्वत्पाद-सेवनाद् देवि! वयं वै
साधकोत्तमाः ॥62॥
हे देवि ! ब्रह्मा,
विष्णु, रुद्र,
वासव एवं देवगण तथा हमलोग आपके पादपद्म की सेवा करके (ही) उत्तम
साधक बने हैं ।।
न देवेशो गणपतिर्नो ब्रह्मा नो हरो
हरिः।
हरिहरिरहं देवि! सर्वे
पादाब्ज-भावुकाः ।।63।।
हे देवि ! गणपति देवेश नहीं
हैं,
ब्रह्मा देवेश नहीं हैं, हर भी देवेश नहीं हैं, हरि भी देवेश नहीं हैं, हरि हरि ही हैं। इसी प्रकार, गणेश गणेश ही हैं। किन्तु मैं एवं सभी लोग आपके पादाब्ज-चिन्तक हैं ।
त्वत्-प्रसादान्महेशानि! ब्रह्मा
सृष्टिं करोत्यसौ ।
तत्प्रसादाद्धरिः पाता हरो हर्ता
महीतले ।।64।।
हे महेशानि ! यह ब्रह्मा इस
पृथिवीतल पर आपके अनुग्रह से सृष्टि करते हैं, आपके
अनुग्रह से हरि पालन करते हैं, आपके अनुग्रह से हर
संहार करते हैं ।।64
वासवश्चामराधीशोऽमरा देवताः स्मृताः
।
ते सर्वे निर्जरा देवि!
त्वत्-प्रसादान्महेश्वरि ! ।।65।।
आपके अनुग्रह से वासव देवगणों के
अधिपति हैं। आपके अनुग्रह से अमरगण 'देवता'
के नाम से कथित होते हैं। हे देवि ! हे महेश्वरि ! आपके ही अनुग्रह
से वे सभी निर्जर बने हैं।
त्वत्पाद-पद्मसम्पर्का देव देवोऽपि
शङ्करः ।
अतस्त्वं जगदीशान-दयिता! भक्तवत्सले
! ॥66।।
आपके पादपद्म के सम्पर्क से शङ्कर
'देवदेव' बने हैं। हे भक्तवत्सले ! इसीलिए आप
जगदीश्वर की दयिता (पत्नी) हैं ।
दृष्टिं कुरु महामाये! नमस्तेस्यै
नमो नमः ।
त्वञ्च काली त्वञ्च तारा षोडशी त्वं
वरानने ! ॥67।।
हे महामाये ! मुझे दृष्टिदान करें ।
आपको नमस्कार, नमस्कार, नमस्कार
। हे वरानने! आप काली हैं, आप तारा हैं,
आप ही षोडशी हैं ।
त्वं देवि ! भवुना बाला छिन्ना धूमा
महेश्वरि ! ।
त्वं देवि बगला भीमा कमला त्वं
महेश्वरि ! ।।68।।
हे देवि ! आप भुवनेश्वरी हैं,
आप बाला हैं, आप छिन्नमस्ता हैं,
आप धूमावती हैं। हे देवि ! हे महेश्वरि ! आप भीमा बगला
हैं, आप कमला हैं ।।68
मातङ्गी त्वन्नपूर्णा त्वं धनदा
त्वं शिव प्रिये !।
दुर्गा त्वं विश्वजननी
दशाष्टादशरूपिणी ।।69॥
हे शिव-प्रिये ! आप मातङ्गी
हैं,
आप धनदा महालक्ष्मी हैं। आप दश एवं अष्टादश मूर्त्तिधारिणी
विश्वजननी दुर्गा हैं ।
सप्तकोटि-महाविद्या
उपविद्या-स्वरूपिणी ।
कुमारी रमणी-रूपा सुरूपा नगनन्दिनी
।।70।
आप सप्तकोटि महाविद्या एवं
उपविद्या-स्वरूपिणी हैं। आप कुमारी हैं, आप
ही रमणीरूपा हैं, आप ही सुरूपा नगनन्दिनी हैं ।।70
शिवपूज्या शिवाराध्या ब्रह्मपूज्या
सुरेश्वरी ।
शिवो भिन्नः शिवाभिन्ना न जीवो
वामलोचना ।
इति जानामि विश्वेशि ! सत्यं सत्यं
न संशयः ।।71॥
आप शिवपूज्या,
शिव की आराध्या एवं ब्रह्मपूज्या हैं। आप सुरेश्वरी हैं। जीव शिव से
भिन्न नहीं है। वामलोचना स्त्री भी शिवा से भिन्ना नहीं है। हे विश्वेशि ! इसे मैं
जानता हूँ। यह सत्य, सत्य है। इसमें कोई संशय नहीं है ।
श्री पार्वत्युवाच -
सत्यं मे कथितं नाथ नित्यरूपोऽसि
शङ्कर !।
अहञ्च त्रिषु लोकेषु पार्वतीश्वरी
शङ्कर !।
विशेषं देवदेवेश! सर्वज्ञ! कथयस्व
मे ।।72।।
श्री पार्वती ने कहा
- हे शङ्कर ! आप नित्यस्वरूप हैं। हे नाथ ! इसीलिए आपने मुझसे सत्य कहा है । हे
शङ्कर ! मैं तीनों लोकों में पार्वती हूँ एवं ईश्वरी हूँ। हे देवदेवश! हे
सर्वज्ञ ! मुझे विशेष बातें बतावें ।72।।
श्री शिव उवाच -
विशेषं न च जानामि कथयस्व वरानने !।
सर्वज्ञासि महेशानि! यतः सर्वज्ञ
वल्लभा ।।73।।
श्री शिव ने कहा
- हे वरानने ! मैं विशेष नहीं जानता हूँ। आप बतावें । हे महेशानि ! क्योंकि आप
सर्वज्ञ की स्त्री सर्वज्ञा हैं।
श्री पार्वत्युवाच -
गोलोके चैव राधाऽहं वैकुण्ठे
कमलात्मिका ।
ब्रह्मलोके च सावित्री भारती
वाक्-स्वरूपिणी ॥74।।
श्री पार्वती ने कहा
- गोलोक में मैं राधा हैं। वैकुण्ठ में मैं कमला हूँ। ब्रह्मलोक में
मैं सावित्री हूँ एवं वास्वरूपिणी भारती हूँ ।
कैलासे पार्वती देवी मिथिलायाञ्च
जानकी ।
द्वारकायां रूक्मिणी च द्रोपदी
पाण्डवालये ।।75।।
कैलास में मैं देवी पार्वती
हूँ मिथिला में मैं जानकी हूँ। द्वारका में मैं रूक्मिणी
हूँ। पाण्डवालय में मैं द्रोपदी हूँ।
गायत्री वेद-जननी सन्ध्याऽहञ्च
द्विजन्मनाम् ।
ज्योतिर्मध्ये पुषाऽहञ्च पुष्पे
कृष्णा पराजिता ।।76।।
द्विजातिगणों में मैं वेदजननी गायत्री
एवं सन्ध्या हूँ। ज्योतियों में मैं पूषा हूँ । पुष्पों में मैं
कृष्णा अपराजिता हूँ ।
पत्रे मालूरपत्रं हि पीठे
योनि-स्वरूपिणी ।
हरिहरात्मिका विद्या
ब्रह्म-विष्णु-शिवार्चिता ।।77॥
पत्रों में मैं मालूर (बिल्व) पत्र
हूँ। पीठों में मैं योनिस्वरूपिणी हूँ। मैं ही ब्रह्म,
विष्णु एवं शिव के द्वारा अर्चिता, हरि एवं
हर-स्वरूपा विद्या हूँ।77 ।।
विशेषानुग्रहेणैव विज्ञेया शङ्कर!
प्रभो ! ।
यत्र कुत्र स्थले नाथ !
शक्तिस्तिष्ठति गच्छति ।
तत्रैवाऽहं महादेव! निश्चितं
मतमुक्तमम् ।।78।।
हे शङ्कर ! हे प्रभो ! विशेष
अनुग्रह के द्वारा उस विद्या को जाना जा सकता है। हे नाथ ! जिस किसी भी स्थल पर
शक्ति विद्यमान रहती है एवं गमन करती है। हे महादेव ! मैं तो वहीं पर रहती हूँ। यह
मेरा निश्चित मत है ।
शक्तिमार्ग परित्यज्य योडन्यमार्ग
विधावति ।
करस्थं स मणिं त्यकृत्वा भति-भावं
विधावति ।।79॥
जो साधक शक्ति-मार्ग का परित्याग कर
अन्य मार्ग की ओर धावित होता है, वह (वस्तुतः)
करस्थित मणि का परित्याग कर ऐश्वर्य के प्रति धावित होता है ।
इत्येवञ्च महादेव! मयोक्तं जगदीश्वर
!।
अतः परतरं नास्ति नास्ति नास्ति
सदाशिव ! ॥80॥
हे महादेव ! हे जगदीश्वर ! इस
प्रकार मैंने बता दिया है। हे सदाशिव ! इसकी अपेक्षा और श्रेष्ठतर कुछ भी नहीं है,
नहीं है, नहीं है ।।80।।
इति मुण्डमालातन्त्र
पार्वतीश्वर-सम्वादे सप्तमः पटलः ।।7।।
मुण्डमालातन्त्र में
पार्वतीश्वर-संवाद में सप्तम पटल का अनुवाद समाप्त ।।7।।
आगे जारी............. रसिक मोहन विरचित मुण्डमालातन्त्र पटल ८
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