कुमारी कवच

कुमारी कवच

रुद्रयामल तंत्र पटल ९ में कुमारी कवच का विधान है। इसे भोज पत्र पर लिखकर चतुर्दशी या पूर्णमासी के दिन हृदय प्रदेश में धारण करने का विधान है। इसके पाठ से महान्‌ पातकी भी सभी पापों से मुक्त हो जाता है और अन्त में उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है ।

रुद्रयामल तंत्र पटल ९ कुमारी कवच

रुद्रयामल तंत्र पटल ९   

रुद्रयामल नवम: पटलः

रुद्रयामल नौवां पटल 

तंत्र शास्त्ररूद्रयामल      

त्रैलोक्य मङ्गल कुमारी कवचम्

आनन्दभैरव उवाच

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि कुमारीकवचं शुभम् ।

त्रैलोक्यं मङ्गलं नाम महापातकनाशकम् ॥१॥

पठनाद्धारणाल्लोका महासिद्धाः प्रभाकराः ।

शक्रो देवाधिपः श्रीमान् देवगुरुर्बृहस्पतिः ॥२॥

आनन्दभैरवी ने कहा --- अब हे आनन्दभैरव ! त्रैलोक्य मङ्गल नामक सर्वकल्याणकारी कुमारी कवच मैं कहती हूँ, जो समस्त पापों का नाश करने वाला है । इसके पाठ से और धारण करने से साधक महासिद्ध एवं तेजस्वी हो जाते हैं । इसके प्रभाव से इन्द्रदेव श्रीसम्पन्न एवं देवराज बन गये और बृहस्पति देवगुरु बन गए ॥१ - २॥

महातेजोमयो वहिनर्धर्म्मराजो भयानकः ।

वरुणो देवपूज्यो हि जलानामधिपः स्वयम् ॥३॥

सर्वहर्त्ता महावायुः कुबेरः कुञ्जरेश्वरः ।

धराधिपः प्रियः शम्भोः सर्वे देवा दिगीश्वरः ॥४॥

न मेरुः प्रभुरेकायाः सर्वेशो निर्मलो द्वयोः ।

एतत्कवचपाठेन सर्वे भूपा धनाधिपाः ॥५॥

अग्नि महातेजस्वी तथा धर्मराज (यम) भयानक हो गए, इतना ही नहीं वरुण स्वयं देवपूज्य तथा स्वयं जलाधिनाथ बन गये । वायु सर्वहर्त्ता, कुबेर हाथी पर चढ़ने वाले, धराधिप, सदाशिव के प्रिय मित्र हो गये, इसके धारण करने से समस्त देवता दिगीश्वर बन गये । निर्मल सुमेरु केवल एक पृथ्वी के ही स्वामी नहीं, अपितु दो लोकों के स्वामी बन गये । इस प्रकार इस कवच के पाठ से सभी धनाधिप राजा बन गये ॥३ - ५॥

त्रैलोक्य मङ्गल कुमारी कवच

प्रणवो मे शिरः पातु माया सन्दायिका सती ।

ललाटोद्र्ध्वं महामाया पातु मे श्रीसरस्वती ॥६॥

प्रणव हमारे शिर की रक्षा करे । माया सान्दायिका सती, महामाया और श्रीसरस्वती मेरे ललाट के ऊपरी भाग (मस्तिष्क) की रक्षा करें ॥६॥

कामाक्षा वटुकेशानी त्रिमूर्तिर्भालमेव मे ।

चामुण्डा बीजरुपा च वदनं कालिका मम ॥७॥

पातु मां सूर्यगा नित्यं तथा नेत्रद्वयं मम ।

कर्णयुग्मं कामबीजं स्वरुपोमातपस्विनी ॥८॥

कामाक्षी, बटुका, ईशानी एवं त्रिमूर्ति मेरे भाल प्रदेश की रक्षा करें । बीजरूपा चामुण्डा तथा कालिका मेरे मुख की रक्षा करें । सूर्य में रहने वाली देवी मेरी तथा मेरे दोनों नेत्रों की नित्य रक्षा करें । दोनों कानों की कामबीज (क्लीं) स्वरुपा उमा तथा तपस्विनी रक्षा करें ॥७ - ८॥

रसनाग्रं तथा पातु वाग्देवी मालिनी मम ।

डामरस्था कामरुपा दन्ताग्रं कुञ्जिका मम ॥९॥

देवी प्रणवरुपाऽसौ पातु नित्यं शिवा मम ।

ओष्ठाधरं शक्तिबीजात्मिका स्वाहास्वरुपिणी ॥१०॥

इसी प्रकार वाग्देवी तथा मालिनी मेरे रसनाग्र भाग की रक्षा करें । डामर में निवास करने वाली कामरूपा तथा कुञ्जिका देवी मेरे दन्ताग्रभाग की रक्षा करें । प्रणवरुपा शक्ति तथा बीजात्मिका स्वाहास्वरूपिणी शिवा देवी मेरे ऊपर के ओष्ठ एवं नीचे के अधर की रक्षा करें ॥९ - १०॥

पायान्मे कालसन्दष्टा पञ्चवायुस्वरुपिणी ।

गुलदेशं महारौद्री पातु मे चापराजिता ॥११॥

क्षौं बीजं मे तथा कण्ठं रुद्राणी स्वाहयान्विता ।

हृदयं भैरवी विद्या पातु षोडश सुस्वरा ॥१२॥

काल को भी डँसने वाली पञ्चवायुस्वरूपिणी अपराजितामहारौद्री मेरे गले की रक्षा करें । स्वाहा से युक्त रुद्राणी तथा क्षौम‍" बीज मेरे कण्ठ की रक्षा करें । भैरवी महाविद्या तथा षोडश ( स्वर ) स्वरूपा देवी मेरे हृदय प्रदेश की रक्षा करें ॥११ - १२॥

द्वौ बाहू पातु सर्वत्र महालक्ष्मीः प्रधानिका ।

सर्वमन्त्रस्वरुपं मे चोदरं पीठनायिका ॥१३॥

पार्श्वयुग्मं तथा पातु कुमारी वाग्भवात्मिका ।

कैशोरी कटिदेशं मे मायाबीजस्वरुपिणी ॥१४॥

सभी देवियों में प्रधान रुप से निवास करने वाली महालक्ष्मीमेरे दोनों बाहुओं की रक्षा करें । सभी मन्त्रों की मूर्तिमान् ‍ स्वरुपा पीठाधिष्ठात्री देवी मेरे उदर की रक्षा करें । वाग्भवात्मिका (ऐं बीज स्वरूपा) कुमारी मेरे दोनों पार्श्वभाग की रक्षा करें । माया बीज (ह्रीं) स्वरुपा एवं किशोरावस्था सम्पन्न देवी मेरे कटिभाग की रक्षा करें ॥१३ - १४॥

जङ्वायुग्मं जयन्ती मे योगिनी कुल्लुकायुता ।

सर्वाङ्गमम्बिकादेवी पातु मन्त्रार्थगामिनी ॥१५॥

केशाग्रं कमलादेवी नासाग्रं विन्ध्यवासिनी ।

चिबुकं चण्डिका देवी कुमारी पातु मे सदा ॥१६॥

कुल्लुका से युक्त योगिनी जयन्तीदेवी मेरे दोनों जांघों की रक्षा करें । मन्त्रार्थ में गमन करने वाली अम्बिकादेवी मेरे सर्वांग की रक्षा करें । कमला देवी केशों के अग्रभाग की, विन्ध्यवासिनी ( दुर्गा ) देवी नासा के अग्रभाग की, चण्डिका देवी चिबुक की तथा कुमारी सर्वदा मेरी रक्षा करें ॥१५ - १६॥

हृदयं ललिता देवी पृष्ठं पर्वतवासिनी ।

त्रिशक्तिः षोडशी देवी लिङ्गं गुह्यं सदावतु ॥१७॥

श्मशाने चाम्बिका देवी गङ्गागर्भे च वैष्णवी ।

शून्यागारे पञ्चमुद्रा मन्त्रयन्त्रप्रकाशिनी ॥१८॥

ललिता देवी हृदय की और पर्वतवासिनी देवी पृष्ठभाग की रक्षा करें । ज्ञान, इच्छा एवं कर्मरुप तीन शक्तियों से युक्त षोडशीदेवी मेरे लिङ्ग तथा गुह्य स्थान की सर्वदा रक्षा करें । अम्बिका देवी श्मशान में, गङ्गा गर्भ में, मन्त्र यन्त्र का प्रकाश करने वाली पञ्चमुद्रा रुपा वैष्णवी देवी शून्यागार में मेरी रक्षा करें ॥१७ - १८॥

चतुष्पथे तथा पातु मामेव वज्रधारिणी ।

शवासनगता चण्डा मुण्डमालाविभूषिता ॥१९॥

पातु माने कलिङ्गे च वैखरी शक्तिरुपिणी ।

वने पातु महाबाला महारण्ये रणप्रिया ॥२०॥

वज्रधारण करने वाली चौराहे पर मात्र मेरी रक्षा करें । शव के आसन पर विराजनाम मुण्डमाला से विभूषित शक्ति स्वरुपिणी वैखरी शब्द रुपा चण्डिका मेरे मान को तथा कलिङ्ग की रक्षा करें । वन में महाबाला मेरी रक्षा करें । घोर अरण्य में रणप्रिया हमारी रक्षा करें ॥१० - २०॥

महाजले तडागे च शत्रुमध्ये सरस्वती ।

महाकाशपथे पृथ्वी मां शीतला सदा ॥२१॥

रणमध्ये राजलक्ष्मीः कुमारी कुलकामिनी ।

अर्द्धनारीश्वरा पातु मम पादतलं मही ॥२२॥

महाजल के तडाग में तथा शत्रुओं के मध्य में सरस्वती मेरी रक्षा करें । महाकाश के पथ में पृथ्वी मेरी रक्षा करे तथा शीतला देवी सर्वदा मेरी रक्षा करें । कुमारी कुलकामिनी तथा राजलक्ष्मी रण के मध्य में मेरी रक्षा करें । अर्द्धनारीश्वरी तथा मही मेरे पादतल की रक्षा करें ॥२१ - २२॥

नवलक्षमहाविद्या कुमारी रुपधारिणी ।

कोटिसूर्यप्रतीकाशा चन्द्रकोटिसुशीतला ॥२३॥

पातु मां वरदा वाणी वटुकेश्वरकामिनी ।

इति ते कथितं नाथ कवचं परमाद‌्भुतम् ॥२४॥

करोड़ो सूर्य के समान प्रकाश करने वाली, करोड़ों चन्द्रमा के समान शीतलता प्रदान करने वाली, कुमारी रुप धारण करने वाली, नव लक्षमहाविद्यायें, वरदा वाणी तथा बटुकेश्वर कामिनी मेरी रक्षा करें । हे नाथ ! यह महान् अदभुत कवच मैंने आपसे कहा ॥२३ - २४॥

कुमारी कवचम् फलश्रुति

कुमार्याः कुलदायिन्याः पञ्चतत्त्वर्थपारग ।

यो जपेत् पञ्चतत्त्वेन स्तोत्रेण कवचेन च ॥२५॥

आकाशगामिनी सिद्धिर्भवेत्तस्य न संशयः ॥२६॥

हे पञ्चतत्त्वार्थ पारग ! जो पञ्चतत्त्व नामक स्तोत्र एवं कवच के साथ कुलदायिनी कुमारी के सहस्त्रनाम का पाठ करता है, उसे आकाशगामिनी सिद्धि प्राप्त हो जाती है इसमें संशय नहीं ॥२५ - २६॥

वज्रदेही भवेत् क्षिप्रं कवचस्य प्रपाठतः ।

सर्वसिद्धीश्वरो योगी ज्ञानी भवति यः पठेत् ॥२७॥

विवादे व्यवहारे च सङ्‌ग्रामे कुलमण्डले ।

महापथे श्मशाने च योगसिद्धो भवेत् स च ॥२८॥

केवल कवच के पाठ से ही साधक का शरीर शीघ्रता से वज्र के समान हो जाता है। इस प्रकार जो पाठ करता है वह सर्व सिद्धीश्वर योगी तथा ज्ञानी बन जाता है । शत्रु के साथ विवाद में, मुकदमे में, संग्राम में, समाज में, महापथ में तथा श्मशान में इसका पाठ करने वाला योगसिद्ध हो जाता है ॥२७ - २८॥

पठित्वा जयमाप्नोति सत्यं सत्यं कुलेश्वर ।

वशीकरणकवचं सर्वत्र जयदं शुभम् ॥२९॥

पुण्यव्रती पठेन्नित्यं यतिश्रीमान्भवेद् ध्रुवम् ।

सिद्धविद्या कुमारी च ददाति सिद्धिमुत्तमाम् ॥३०॥

हे कुलेश्वर ! इस कवच के पाठ से साधक विजय प्राप्त कर लेता है । यह सत्य है, यह सत्य है । यही वशीकरण कवच सभी स्थान में विजय देता है और कल्याणकारी है । पुण्यव्रती नित्य इसका पाठ करे तो वह निश्चय ही यति (संयमी) श्रीमान् ‍ (श्रीसम्पन्न) हो जाता है । यह कुमारी सिद्ध विद्या कही जाती है । अतः वह अपने उपासक को उत्तम सिद्धि प्रदान करती है ॥२९ - ३०॥

पठेद्यः श्रृणुयाद्वापि स भवेत्कल्पपादपः ।

भक्तिं मुक्तिं तुष्टिं पुष्टिं राजलक्ष्मीं सुसम्पदाम् ॥३१॥

प्राप्नोति साधकश्रेष्ठी धारयित्वा जपेद्यदि ।

असाध्यं साधयोद्विद्वान् पठित्वा कवचं शुभम् ॥३२॥

जो इसका पाठ करता है अथवा श्रवण करता है वह कल्पवृक्ष के समान हो जाता है । वह भुक्ति, मुक्ति, तुष्टि- पुष्टि, राजलक्ष्मी तथा सुसस्पदा प्राप्त करता है । यदि साधक श्रेष्ठ इसे धारण कर कुमारी मन्त्र का जप करे, पुनः कवच का पाठ करे तो वह विद्वान् असाध्य को भी साध्य बना देता है ॥३१ - ३२॥

धनिनाञ्च महासौख्यधर्म्मार्थकाममोक्षदम् ।

यो वशी दिवसे नित्यं कुमारीं पूजयेन्निशि ॥३३॥

उपचारविशेषण त्रैलोक्यं वशमानयेत् ।

पललेनासवेनापि मत्स्येन मुद्रया सह ॥३४॥

नानाभक्ष्येण भोज्येन गन्धद्रव्येण साधकः ।

माल्येन स्वर्णरजतालङ्कारेण सुचैलकैः ॥३५॥

यह धनियों को महासौख्य, धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष प्रदान करने वाला है । जो संयमशील पुरुष अपने इन्द्रियों को वश में रखकर दिन रात उपचार विशेष से कुमरी का पूजन करते हैं । वह त्रैलोक्य को अपने वश में कर सकते हैं । पलल (मांस) आसव, मत्स्य, मुद्रा के सहित अनेक प्रकार के भक्ष्य, भोज्य, सुगन्धित इत्रादि द्रव्य, माला, सुवर्ण तथा रजत निर्मित अलङ्कार तथा उत्तम प्रकार के वस्त्र से साधक कुमारी का पूजन कर जप करे ॥३३ - ३५॥

पूजयित्वा जपित्वा च तर्पयित्वा वराननाम् ।

यज्ञदानपस्याभिः प्रयोगण महेश्वर ॥३६॥

स्तुत्वा कुमारीकवचं यः पठेदेकभावतः ।

तस्य सिद्धिर्भवेत् क्षिप्रं राजराजेश्वरो भवेत् ॥३७॥

फिर उस सुन्दरी का तर्पण करे । तन्निमित्तक यज्ञ, दान, तपस्या और अनुष्ठान करे । फिर हे महेश्वर ! कुमारी की स्तुति पढ़कर अनन्यमन से कवच का पाठ करे तो उसे अवश्य सिद्धि मिल जाती है और वह राजराजेश्वर बन जाता है ॥३६ - ३७॥

वाञ्छार्थफलमाप्नोति यद्यन्मनसि वर्तते ।

भूर्जपत्रे लिखित्वा स कवच धारयेद् हृदि ॥३८॥

शनिमङ्गलवारे च नवम्यामष्टमीदिने ।

चतुर्दश्यां पौर्णमास्यां कृष्णपक्षे विशेषतः ॥३९॥

लिखित्वा धारयेद् विद्वान् उत्तरभिमुखो भवन् ।

महापातकयुक्तो हि मुक्तः स्यात् सर्वपातकैः ॥४०॥

उसे अपने मन में जितनी भी अभिलाषायें है, सभी अभिलाषाओं का फल प्राप्त हो जाता है । यदि इस कवच को भोजपत्र पर लिखकर शनिवार , मङ्गलवार को विशेषतः कृष्णपक्ष की नवमी, अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णमासी तिथि आने पर विद्वान् ‍ साधक उत्तराभिमुख हो हृदय पर धारण करे तो वह ब्रह्महत्यादि महापातकों से युक्त होने पर भी सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है ॥३८ - ४०॥

योषिद्वामभुजे धृत्वा सर्वकल्याणमालभेत् ।

बहुपुत्रान्विता कान्ता सर्वसम्पत्तिसंयुता ॥४१॥

तथाश्रीपुरुषश्रेष्ठो दक्षिणे धारयेद् भुजे ।

ऐहिके दिव्यदेहः स्यात् पञ्चाननसमप्रभः ॥४२॥

स्त्री यदि भोजपत्र पर लिखित इस कवच को अपनी बाई भुजा में धारण करे तो वह समस्त कल्याण प्राप्त करती हैं, ऐसी स्त्री अनेक संतानो से युक्त हो जाती है और सब प्रकार की सम्पत्ति भी प्राप्त कर लेती है । इसी प्रकार यदि श्रेष्ठ पुरुष भोजपत्र पर लिखे हुये कवच को अपनी दाहिनी भुजा में धारण करे तो वह इस जन्म में ही दिव्य देह संयुक्त हो जाता है तथा पञ्चानन सदाशिव के समान तेजस्वी बन जाता है ॥४१ - ४२॥

शिवलोके परे याति वायुवेगी निरामयः ।

सूर्यमण्डलमाभेद्य परं लोकमवाप्नुयात् ॥४३॥

वह इस लोक में निरामय (नीरोग) रहता है । फिर वायु के समान वगवान् ‍ हो कर परब्रह्म सदाशिव के लोक में जाता है, अथवा सूर्य मण्डल का भेदन कर परब्रह्म के लोक में चला जाता है ॥४३॥

लोकानामतिसौख्यदं भयहरं श्रीपादभक्तिप्रदं

मोक्षार्थं कवचं शुभं प्रपठतामानन्दसिन्धूद्भवम् ।

पार्थानां कलिकालघोरकलुषध्वंसैकहेतुं जयं

ये नाम प्रपठन्ति धर्ममतुलं मोक्षं व्रजन्ति क्षणात् ॥४४॥

यह कवच समस्त साधकों को अत्यन्त सौख्य प्रदान करता है भयहरण करता है । श्री के चरणों में भक्ति प्रदान करता है । मोक्ष के लिए पाठ करने वाले मनुष्यों को आनन्द सिन्धु में उत्पन्न समस्त कल्याण प्रदान करता है । यह कलिकाल के घोर कालुष्य (पाप) को नष्ट करने का एक मात्र हेतु है तथा जय प्रदान करता है । इसलिए जो इसका पाठ करते हैं वे अतुलनीय धर्म प्राप्त करते हैं और क्षण भर में मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ॥४४॥

॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रेद्दीपने कुमार्युपचर्याविन्यासे कुमारीकवचोल्लासे सिद्धामन्त्रप्रकरणे दिव्यभावनिर्णय नवमः पटलः ॥९॥

॥ इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के उत्तरतंत्र में महातंत्रोद्दीपन में कुमार्युपचर्याविलास में सिद्धमन्त्र प्रकरण में दिव्य भाव के निर्णय में नौवें पटल की कुमारीकवच डॅा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्णं हुई ॥ ९ ॥

शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र दशम पटल 

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