मुण्डमालातन्त्र द्वितीय पटल
‘मुण्डमालातन्त्र' द्वितीय पटल में अक्षमाला के प्रकार भेद, अक्षमाला का निर्माण एवं संस्कार
पद्धति का वर्णन है।
मुण्डमालातन्त्रम् द्वितीयः पटलः
मुंडमाला तन्त्र पटल २
‘मुण्डमालातन्त्र'
श्रीदेव्युवाच -
अक्षमाला तु कथिता यत्नतो न
प्रकाशिता ।
अक्षमालेति किं नाम फलं किं वा
वदस्व मे ।।1।
श्रीदेवी ने कहा - आपने अक्षमाला की
बात कही है, किन्तु यत्नपूर्वक उसे प्रकाशित
नहीं किया है। 'अक्षमाला' यह नाम क्यों
है ? एवं इसका फल क्या है ? यह मुझे
बतावें ।
श्रीईश्वर उवाच -
अक्षमाला तु देवेशि!
काम्यभेदादनेकधा ।
भवति शृणु तत् प्रौढ़े !
विस्तरादुच्यते मया ।।2।।
श्रीईश्वर ने कहा - हे देवेशि ! कामना-भेद
से अक्षमाला अनेक प्रकार की होती है । मैं विस्तारपूर्वक उसे बता रहा
हूँ। हे प्रौढ़े ! उसे आप श्रवण करें ।
अनुलोम-विलोमस्थ क्लप्तया वर्णमालया
।
आदिलान्ता लादिकान्ता क्रमेण
परमेश्वरि !।
क्षका रं मेरुरूपं तं लङ्घयेन्न
कदाचन ॥3॥
हे परमेश्वरि ! अकार से लकार
पर्यन्त एवं लकार से अकार पर्यन्त क्रम से अनुलोम-स्थित एवं विलोम-स्थित प्रसिद्ध
वर्णमाला के द्वारा 'अक्षमाला' बनती है । मेरु-रूप उस क्ष-कार का कदापि लङ्घन न करें ।
मेरुहीना च या माला मेरुलघ्या च या
भवेत् ।
अशुद्धाऽतिप्रकाशा च सा माला
निष्फला भवेत् ।।4।।
जो माला मेरु-हीना है अथवा जो माला
मेरुलङ्घिता है, अथवा जो माला अशुद्ध एवं
अतिप्रकाश है अर्थात् जो अनेक लोगों के निकट प्रदर्शिता है, वह
निष्फल होती है ।
चित्रिणी विशतन्त्वाभा
ब्रह्मनाड़ीगता तु या ।
त्वया संग्रथिता ध्येया
सर्वकामफलप्रदा ।।5।।
जो चित्रिणी नाड़ी मृणालतन्तु के
समान आभायुक्त है, वह ब्रह्मनाड़ी के
मध्य में से होकर गयी है । उसके द्वारा अक्षमाला ग्रथित है - ऐसा ध्यान करने पर,
वह सर्वकामफलप्रदा हो जाती है - ऐसा जानें ।
अष्टोत्तरशत-जपे त्वादौ क्लीवं
समुच्चरेत ।
ऋ ऋ वर्णद्वयं ल ल तद्धि क्लीवं
प्रचक्षते ।।6।।
अष्टोत्तर शत
जप करना हो तो आदि में क्लीव का उच्चारण करें। ऋ ऋॄ - ये दो वर्ण एवं लृ लॄ
- ये दो वर्ण 'क्लीव वर्ण' कहे जाते हैं ।
वर्गाणामष्टभिर्वापिं* काम्यभेदक्रमेण तु ।
अ क च ट त प य शा इत्येवं
चाष्टवर्गतः ।।7।
अथवा कामना के भेद के क्रम से आठ
वर्गों के द्वारा जपकार्य करें । अवर्ग, कवर्ग,
चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग,
पवर्ग, यवर्ग एवं शवर्ग – इस प्रकार आठ वर्गों में अ क च ट त प य श - इन आठ वर्गों का उच्चारण करें
।
स्फाटिकैर्मोक्षदा प्रोक्ता
पद्माक्षर्बहुपुत्रता ।
जीवपुत्रैस्तु धनदा पाषाणैः
सर्वभोगदा ॥8॥
स्फटिक गुटिका से निर्मित माला
मोक्षप्रदा है । पद्मबीज की माला बहुपुत्रप्रदा है। जीवपुत्र की माला धनप्रदा है,
पाषाण-गुटिका से निर्मित माला सर्वभोगप्रदा है ।
शुद्धस्फटिकमाला तु महासम्पत्प्रदा
प्रिये ।
श्मशानधूस्तुतरैर्माला चैका धूमावती
विधौ ।
महाशङ्कमयी माला नीलसारस्वते विधौ ॥9॥
हे प्रिये ! शुद्ध स्फटिक की माला
महासम्पत्प्रदा है। धूमावती के प्रयोग में एकमात्र श्मशान-धतूरे के काष्ठ
की माला ही प्रशस्त है। नील सारस्वत तारा के प्रयोग में महाशङ्खमयी माला
विहिता (=विधान की गयी) है ।
*1: वर्गाणामष्टकं
वापीति तारा रहस्य-धृतपाठः ।
ताराभक्तिसुधार्णव-कार ने इन दोनों
श्लोकों की व्याख्या सप्रमाण की है - 108
मन्त्र जप के स्थल में, पहले चार क्लीव वर्णों का उच्चारण कर,
अकारादि-लकारान्त अनुलोम एवं लकारादि अकारान्त विलोम के अन्त में
क्लीव चतुष्टय का विलोम से जप करें। यह प्रथम कल्प है।
द्वितीय
कल्प इस प्रकार है - अनुलोम एवं विलोम से पचास वर्गों का उच्चारण कर,
अन्त में आठ वर्गों के आठ वर्गों का उच्चारण करें।
(ताराभक्तिसुधार्णव)
नरागुलास्थिभिर्माला ग्रथिता
सर्वकामदा ।
सर्वसिद्धिप्रदा । मोक्षदायिनी
वरवर्णिनि ।।10।।
हे वरवर्णिनि ! नराङ्गुलियों के
अस्थियों के द्वारा ग्रथित माला समस्त प्रकार की कामनाओं को प्रदान करती है।
यह सर्वसिद्धिप्रदा एवं मोक्षप्रदायिनी है ।
नाङ्या संग्रथनं कार्यं रक्तेन
वाससा अपि ।
सदा गोप्या प्रयत्नेन मातुश्च
जारवत् प्रिये ।।11 ।।
मनुष्य की नाड़ी के द्वारा अथवा
रक्तसूत्र के द्वारा माला गूंथें । हे प्रिये ! मातृजार के समान इस माला को सर्वदा
यत्नपूर्वक गोपनीय रखें ।
पञ्चधा कथिता माला
सर्वसिद्धि-फलप्रदा ।
मौक्तिकैर्ग्रथिता माला
सर्वैश्वर्य-फलप्रदा ।।12।।
सर्वसिद्धिप्रदा माला पाँच प्रकार
की कही गयी है। मुक्ता के द्वारा ग्रथित माला सर्वैश्वर्य-रूप फल को प्रदान करती
है ।
मणिरत्नप्रवालैश्च हेम-राजत-सम्भवा ।
माला कार्या कुशग्रन्थ्या
सर्वयज्ञफलप्रदा ।।1 3 ।।
मणि, रत्न, प्रवाल के द्वारा माला बनावें । स्वर्ण एवं
रजत गुटिका के द्वारा कुश-ग्रन्थि-निर्मित माला समस्त यज्ञों के फल को
प्रदान करता है ।
नाड़ीभिग्रंथिता माला
महासिद्धिप्रदा प्रिये ।
त्रिंशतैश्वर्यफलदा पञ्चविंशेन
मोक्षदा ।।14।।
हे प्रिये ! नाड़ी के द्वारा ग्रथित
माला महासिद्धि प्रदान करती है । तीस सूत्रों के द्वारा ग्रथित माला ऐश्वर्य-रूप
फल को प्रदान करती है । पचीस सूत्रों के द्वारा ग्रथित माला मोक्ष प्रदान
करती है ।
चतुर्दशमयी मोक्षदायिनी
भोगवर्द्धिनी ।
पञ्चदशात्मिका देवि! मारणोच्चाटने
स्थिता ।।15।।
चौदह सूत्रों के द्वारा ग्रथित माला
मोक्षप्रदायिनी है । पन्द्रह सूत्रों के द्वारा ग्रथित माला भोगावर्द्धिनी
है। हे देवि ! मारण एवं उच्चाटन के लिए पञ्चदश सूत्रों से ग्रथित
माला ही विहित है ।
स्तम्भने मोहने नश्ये तिरोधानेऽजने
तनोः ।
पादुका-सिद्धिसङ्ग्रे च शतं संख्या
प्रकीर्त्तिता ॥ 16॥
स्तम्भन में,
मोहन में, वशीकरण में, देह
के अन्तर्धान में एवं अञ्जन में (=व्यक्तिकरण में), पादुकासिद्धि
समूह में शत संख्या (=शतसंख्यक सूत्र) कही गयी है ।
अष्टोत्तरशतं कुर्यादथवा सर्वकामदम्
।
नित्यं जपं करे कुर्यान्न तु काम्यं
कदाचन ।।17।।
अथवा सर्वकामप्रद
अष्टोत्तरशत गुटिका के द्वारा माला बनावें । नित्य जप कर में करमाला में करें,
किन्तु काम्य जप कदापि कर में न करें ।
काम्यमपि करे कुर्यान्मालाभावे
प्रियंवदे ! ।
तत्राङ्गलिजपं कुर्वन्
साङ्गुष्ठाङ्गलिभिर्जपेत् ।
अष्ठेन विना कर्म कृतं तदफलं भवेत्
।।18।।
हे प्रियंवदे ! विहित माला के अभाव
में,
काम्य जप को कर में भी कर सकते हैं। उस स्थल पर, अङ्गुलि में जप करना हो तो अङ्गुष्ठाङ्गुलि के साथ अन्य अङ्गुलि के द्वारा
जप करें । अङ्गुष्ठ को छोड़कर अन्य अङ्गुलि के द्वारा जप-कर्म करने पर, वह विफल हो जाता है ।
अनामिकाद्वयं पर्व कनिष्ठादिक्रमेण
तु ।
तर्जनीमूलपर्यन्तं करमाला
प्रकीर्तिता ॥19॥
अनामिका के दो पर्व एवं कनिष्ठादि
के क्रम से तर्जनी के मूल पर्यन्त सभी पर्व, 'करमाला' कही जाती है ।
मेरुं प्रदक्षिणी
कुर्वन्ननामामूल-पर्वतः ।
मेरुलड्घनदोषात्तु अन्यथा जायते फलम्
॥20॥
(दश या शत संख्यक जप के बाद
अष्ट-संख्या के जप में) अनामिका के मूल पूर्व से मेरु (अनामिका के मध्य पर्व) की
प्रदक्षिणा करते हुए जप करें । मेरु के लङ्घन के दोष से दूसरा फल उत्पन्न होता है
।
आरभ्यानामिका-मध्यात्
प्रादक्षिण्य-क्रमेण त् ।
तर्जनीमूलपर्यन्तं जपेद् दशसु
पर्वसु ।।21 ।।
अनामिका के मध्य पर्व से
प्रदक्षिण-क्रम से तर्जनी के मूल पर्यन्त दस पर्वो में जप करें ।
मध्यमा त्रितया ग्राह्या
अनामा-मूलमेव च ।
अनामा-मध्यपर्व तु मेरुं कृत्वा न
लक्षयेत् ।।22।।
शक्तिमन्त्र
के जप में, मध्यमा के तीन पर्व एवं अनामिका
का मूल पर्व ग्रहणीय है। अनामिका के मध्य पर्व को मेरु बनाकर, कदापि उसका लङ्घन न करें ।
तर्जन्यग्रे तथा मध्ये यो जपेत्
तत्र मानवः ।
चत्वारितस्य नश्यन्ति आयुर्विद्या
यशो बलम् ।।23।।
शक्तिमन्त्र का जप करते समय,
जो मानव तर्जनी के अग्र में एवं मध्य में जप करता है, उसकी आयु, विद्या, यश एवं बल –
ये चारो विनष्ट हो जाते हैं ।
अङ्गुलिं न विषुञ्जीत किञ्चित
सङ्कोचयेत् तलम् ।
अङ्गुलीनां वियोगाच्च छिद्रे च
स्रवते जपः ॥24॥
जपकाल में अङ्गुलियों को वियुक्त
(अलग) न करें, हस्ततल को कुछ संकुचित करें ।
अङ्गुलियों के परस्पर वियुक्त होने पर या छिद्र होने पर, उस
छिद्र से जप क्षरित हो जाता है अर्थात् निष्फल हो जाता है ।
अथातो ग्रथनं वक्ष्ये मालानां
तन्त्रबोधनात् ।
पूजां विधाय भक्त्या तु शुचिः
पूर्वमुखोषितः ।
विजने प्रजपेन् मौनी स्वयं मालां च
साधकः ।।25।।
अनन्तर पहले मालाओं के
तन्त्रविहित-ग्रन्थन (विधि) को बताऊँगा । शुचि साधक व्यक्ति पूर्वाभिमुख होकर
उपविष्ट होकर, भक्तिपूर्वक पूजा करके, निर्जन स्थान में स्वयं मौन होकर माला जप करें ।
कृतनित्यक्रियः शुद्धः शुभक्षणे च
मन्त्रवित् ।
यथाकालं यथालाभमक्षाण्यानीय यत्नतः
॥26॥
मन्त्रज्ञ साधक शुद्ध एवं
कृतनित्यक्रिय होकर (अर्थात् नित्य कर्म को करके), शुभ समय में विहित काल में, यत्नपूर्वका अक्षों
(=गुटिकाओं) का आनयन करें ।
अन्योन्यसमरूपाणि नातिस्थूल-कृशानि
च ।
कीटादिभिरदुष्टानि न जीर्णानि नवानि
च ।
गव्यैस्तु पञ्चभिस्तानि प्रक्षाल्य
च पृथक् पृथक् ।।27।।
इन अक्षों में से प्रत्येक अक्ष
दूसरे का समरूप होवें । ये अक्ष अतिस्थूल या अतिक्षुद्र न होवें । ये कीटादि के
द्वारा दष्ट होकर दुष्ट न होवें, जीर्ण न होवें, नूतन होवें। उसके बाद पञ्चगव्य के द्वारा उन गुटिकाओं को पृथक्-पृथक् प्रक्षालित
करें ।
ततो
द्विजेन्द्र-पुण्यस्त्री-निर्मितं ग्रन्थिवर्जितम् ।
त्रिगुणं त्रिगुणीकृत्य
पट्टसूत्रमथापि वा ।
शुक्लं रक्तं तथा कृष्णं
शान्तिवश्याभिचारके ।।28।।
उसके बाद श्रेष्ठ ब्राह्मण की
पतिव्रता स्त्री के द्वारा ग्रन्थिरहित त्रिगुण कार्पाससूत्र या पट्टसूत्र
को त्रिगुणीकृत करें । यह सूत्र शान्तिकार्य में शुक्ल,
वशीकरण कार्य में रक्त एवं अभिचार-कार्य में कृष्ण-वर्ण के होवें ।
अश्वत्थपत्रे नवके पद्माकारेण
स्थापिते ।
सूत्रं माणींश्च गन्धाम्भैः
क्षालितांस्तत्र निक्षिपेत् ॥29॥
पद्माकर में स्थापित नौ
अश्वत्थ-पत्रों के ऊपर गन्धजल के द्वारा क्षालित सूत्र एवं मणियों (अक्षों) को
स्थापित करें।
श्मशानवारिणा चापि पीठप्रक्षालितेन
च ।
शुद्धोदकेन रत्नेन कस्तुरीकुङ्कमेन
च ।।30।।
यह प्रक्षालन श्मशान-जल,
पीठ प्रक्षालित जल, शुद्ध जल, रत्नमिश्रित जल अथवा कस्तूरी एवं कुङ्कुम मिश्रित जल के द्वारा करें ।
तावच्छक्तिं मातृकाञ्च सूत्रे चैव
मणिष्वथ ।
विनस्य पूजयेदाद्यैर्जुहूयाच्चैव
यत्नतः ।
होमकर्मण्यशक्तश्चेद् द्विगुणं
जपमाचरेत् ॥31।।
सूत्र में एवं मणियों में यथाशक्ति मातृका
का न्यास कर, आद्य मन्त्र के
द्वारा पूजा करें एवं होम करें । होम करने में असमर्थ होने पर द्विगुण जप
करें ।
मणिमेकैकमादाय सूत्रे संपातयेत्
सुधीः ।
मुखे मुखन्तु संयोज्य पुच्छे
पुच्छन्तु योजयेत् ॥32।।
उसके बाद साधक एक-एक मणि को लेकर
सूत्र में गूंथे । एक रुद्राक्ष के मुख और एक रुद्राक्ष के मुख का तथा पुच्छ के
साथ पुच्छ का योग करें ।
नोट- रूद्राक्ष का उन्नत
अंश मुख है एवं निम्नभाग पुच्छ है । पद्मबीज का बिन्दुद्वय युक्त सूक्ष्मांश मुख
है । एक बिन्दुयुक्ता श्लक्ष्ण (=अमसृण, खुरदुरा) स्थूलांश ही पुच्छ है - ऐसा तन्त्रसार-धृत वचन में उक्त हुआ है।
गोपुच्छसदृशी कार्याथवा
सर्पाकतिर्भवेत् ।
तत्सजातीय मेकाक्षं मेरुत्वेनाग्रतो
न्यसेत् ।।33।।
यह माला गो-पुच्छ के समान अर्थात्
सर्पाकृति होवें । इसके अग्रभाग में उसके समान-जातीय एक रुद्राक्ष को मेरु-रूप में
गूंथे ।
एकैकमणिमध्ये तु ब्रह्मग्रन्थिं
प्रकल्पयेत् ।
जपमालां विधायेत्थं ततः
संस्कारमारभेत् ॥34॥
एक-एक मणि के मध्य में
ब्रह्म-ग्रन्थि की रचना करें, इस प्रकार से
जपमाला बनाकर, उसके बाद संस्कार आरम्भ करें ।
क्षालयेत् पञ्चगव्येन सद्योजातेन
सज्जलैः ।
मन्त्रस्तु-ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि
सद्योजाताय वै नमः।
भवे भवे नातिभवे भजस्व माम् ।
भवोद्भवाय नमः ।
डेन्तेन पुनराद्येन नमोऽन्तेन
क्रमाद् यजेत् ।।35।।
पञ्चगव्य एवं शुद्धजल के द्वारा सद्योजात-मन्त्र
से सम्पूर्ण माला को क्षालन (धौत) करें । वह सद्योजातमन्त्र इस प्रकार है -
'ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमः । भवे भवे
नातिभवे भजस्व माम् । भवोद्भवाय नमः ।
चतुर्थी विभत्त्यन्त नमोऽन्त आद्य मन्त्र के द्वारा क्रमशः पूजा करें ।
चन्दनागुरु-गन्धाद्यैर्वामदेवेन घर्षयेत्
।
ॐ वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः
श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो बलाय नमो
बलप्रमथमाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मनाय नमः।
वामदेव-मन्त्र से चन्दन,
अगुरु एवं कर्पूर के द्वारा उस माला का घर्षण करें । वामदेव-मन्त्र
इस प्रकार है - 'ॐ वामदेवाय नमो
ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलाय नमो
बल-प्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मनाय नमः ।।
धूपयेत् तामधोरेण लेपयेत् पुरुषेण
वै॥36॥
ॐ अधोरेभ्योऽथ धोरभ्यो घोर
घोरतरेभ्यः । सवर्तः शर्व सर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः ।
अघोर-मन्त्र के द्वारा उस माला को
धूपित (धूप के धूम से सुवासित) करें। अघोरमन्त्र इस प्रकार है - 'ॐ अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोर घोरतरेभ्यः सर्वतः शर्व
सर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः ।
तत्पुरुष मन्त्र के द्वारा, माला में चन्दन का
लेपन करें ।।36।।
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय
धीमहि तत्रो रुद्रः प्रचोदयात् ।
मन्त्रयेत् पञ्चमेनैव प्रत्येकन्तु
शतं शतम् ।
प्रत्येकं मन्त्रयेन्मन्त्री
पञ्चमेन सकृत् सकृत् ।।37।।
तत्पुरुष-मन्त्र
इस प्रकार है - 'ॐ
तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ।'
पञ्चम ईशानमन्त्र के द्वारा माला के
प्रत्येक मणि को शतबार मन्त्रित करें । अथवा साधक माला के प्रत्येक मणि को एक-एक
बार ईशान-मन्त्र के द्वारा अभिमन्त्रित करें ।
प्रणवाद्यो महामन्त्रः सदाशिव इति
प्रिये ।
मेरुञ्च पञ्चमेनैव ततो मन्त्रेण
मन्त्रयेत् ।।38।।
पहले प्रणव एवं अन्त में सदाशिव -
इस क्रम से वह महामन्त्र गठित होवें । पञ्चम ईशानमन्त्र के द्वारा मेरु को उसी
प्रकार (शतबार या एक-एक बार) अभिमन्वित करें ।
ॐ ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः
सर्वभूतानां ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा ।
शिवो मे अस्तु सदाशिवोम् ।
संस्कृत्यैवं बुधो मालां
तत्प्राणांस्तत्र स्थापयेत् ।
मूलमन्त्रेण देवेशि ! सम्पूज्य
भक्तिभावतः ॥39।।
ईशानमन्त्र
इस प्रकार है - 'ॐ ईशानः
सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिब्रह्मा । शिवो मे
अस्तु सदाशिवोम् ।'
पण्डित साधक इस प्रकार माला का
संस्कार कर, उसके प्राणों को उस स्थान पर
स्थापित करें अर्थात् उसकी प्राणप्रतिष्ठा करें । हे देवेशि ! उसके बाद
भक्तिभाव से मूलमन्त्र के द्वारा पूजा करें ।
सम्पूज्य देवं तद्धस्ताद्
गृहनीयादक्ष-मालिकाम् ।
अशुचिर्न स्पृशेदेनां करभ्रष्टां न
कारयेत् ।।40॥
गुरुदेव की पूजा कर,
उसके हाथ से अक्षमाला को ग्रहण करें । अशुचि रहने पर इस माला को
स्पर्श न करें । (जपकाल में) इस माला को हस्तच्युत न करें ।
अष्ठस्थामक्षमालां
चालयेन्मध्यमाग्रतः ।
तर्जन्यां न स्पृशेदेनां गुरोरपि न
दर्शयेत् ॥41।।
अङ्गुष्ठाङ्गुलिस्थित अक्षमाला को
मध्यमाङ्गुलि के अग्रभाग के द्वारा चालित करें। तर्जनी के द्वारा इसे स्पर्श न
करें। गुरु को भी इसे न दिखावें ।
भुजौ मुक्तौ तथाकृष्टौ मध्यमायां
जपेत् सुधोः।
अङ्गुष्ठानामिकाभ्यान्तु जपेद्
वश्ये तु कर्मणि ।।42॥
साधक बाहुद्वय को देह से मुक्त एवं
परस्पर संयुक्त कर मध्यमाङ्गुलि में जप करें। वशीकरण-कार्य में अङ्गुष्ठ एवं
अनामिका के द्वारा जप करें ।
जपान्ते तु च मालां वै पूजयित्वा च
पोषयेत् ।
जपकाले तु गोप्तव्या जपमाला तु सा
शुभा ।
समन्त्रामक्षमालाञ्च गुरोरपि न
दर्शयेत् ।।43।।
जप के अन्त में माला की पूजा कर,
इसका पोषण (रक्षा) करें अर्थात् यत्न के साथ पवित्र स्थान में रखें।
उस शुभ जपमाला को जपकाल में गोपन कर रखें। गुरु के समक्ष भी मन्त्र के साथ
अक्षमाला को न दिखावें ।
गुरुं प्रकाशयेद् विद्वान् न तु
मन्त्रं कदाचन ।
अक्षमालाञ्च विद्याञ्च न कदाचित्
प्रकाशयेत् ।।44॥
विद्वान् साधक गुरु को अर्थात् गुरु
के नाम को प्रकट कर सकता है, किन्तु कदापि
मन्त्र को प्रकट न करें। अक्षमाला एवं इष्टमन्त्र को कदापि प्रकट न करें ।
भूत-राक्षस-वेताला गन्धर्वाः
सिद्धचारणाः।
हरन्ति प्रकटात् सिद्धिं तस्माद्
गुप्तिं सदा कुरु ॥45।।
माला का प्रकाशन (=प्रकट होना) होने
पर,
भूत, राक्षस, वेताल,
गन्धर्व, सिद्ध एवं चारणगण सिद्धि का हरण कर
लेते हैं। अतः सर्वदा माला को गोपन करें ।
जीर्णे सूत्रे पुनः सूत्रं
ग्रथयित्वा शतं जपेत् ।
प्रमादात् पतिताद्धस्ताद्
शतमष्टोत्तरं जपेत् ।
भ्रमन्निषिद्धसंस्पर्श क्षालयित्वा
च पूजयेत् ।।46।।
माला का सूत्र जीर्ण हो जाने पर,
पुनः नूतन सूत्र से माला को गूंथकर, शतबार
मन्त्र-जप करें । प्रमादवश पतित व्यक्ति के हाथ से माला को ग्रहण करने पर, एक सौ आठ बार मन्त्र-जप करें। भ्रमण करते-करते यदि निषिद्ध वस्तु का
संस्पर्श हो जाय तो, माला को धौत करके, पूजा करें ।
जपमाला मया देवि! कथिता भुवि
दुर्लभा ।
सदा गोप्या प्रयत्नेन यदि त्वं मम
वल्लभा ॥47।।
हे देवि ! इस भूमण्डल पर दुर्लभ
जपमाला के विवरण को मैंने बता दिया है। यदि आप मेरी पत्नी हैं,
तो आप इसे यत्नपूर्वक गोपन करें ।
इति मुण्डमालातन्त्रे द्वितीयः पटलः
समाप्तः ॥2॥
मुण्डमालातन्त्र के द्वितीय पटल का अनुवाद
समाप्त ।।2।।
आगे जारी............. मुण्डमालातन्त्र पटल ३
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