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कर्मकाण्ड

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श्रीहरिशरणाष्टकम्

श्रीहरिशरणाष्टकम्

श्रीहरिशरणाष्टकम् के नित्य पाठ करने से नाना व्याधियाँ, रोग, दुःख, पाप नष्ट हो जाता है व उत्तम बुद्धि प्राप्त होता है और प्रभु की अविचल भक्ति प्राप्त होता है।

श्रीहरिशरणाष्टकम्

श्रीहरिशरणाष्टकम्

ध्येयं वदन्ति शिवमेव हि केचिदन्ये

शक्तिं गणेशमपरे तु दिवाकरं वै ।

रूपैस्तु तैरपि विभासि यतस्त्वमेव

तस्मात्त्वमेव शरणं मम दीनबन्धो ॥१॥

कोई शिव को ही ध्येय बताते हैं तथा कोई शक्ति को, कोई गणेश को और कोई भगवान् भास्कर को ध्येय कहते हैं, उन सब रूपों में आप ही भास रहे हैं, इसलिये हे दीनबन्धो ! मेरी शरण तो एकमात्र आप ही हैं ॥१॥

नो सोदरो न जनको जननी न जाया

नैवात्मजो न च कुलं विपुलं बलं वा ।

सन्दृश्यते न किल कोऽपि सहायको मे । तस्मा० ॥२॥

भ्राता, पिता, माता, स्त्री, पुत्र, कुल एवं प्रचुर बल-इनमें से कोई भी मुझे अपना सहायक नहीं दीखता; अतः हे दीनबन्धो ! आप ही मेरी एकमात्र शरण हैं ॥२॥

नोपासिता मदमपास्य मया महान्त

स्तीर्थानि चास्तिकधिया न हि सेवितानि ।

देवार्चनं च विधिवन्न कृतं कदापि । तस्मा० ॥३॥

मैंने न तो अभिमान को छोड़कर महात्माओं की आराधना की, न आस्तिक बुद्धि से तीर्थों का सेवन किया है और न कभी विधिपूर्वक देवताओं का पूजन ही किया है; अतः हे दीनबन्धो ! अब आप ही मेरी एकमात्र शरण हैं ॥३॥

दुर्वासना मम सदा परिकर्षयन्ति

चित्तं शरीरमपि रोगगणा दहन्ति ।।

सञ्जीवनं च परहस्तगतं सदैव। तस्मा० ॥४॥

दुर्वासनाएँ मेरे चित्त को सदा खींचती रहती हैं, रोगसमूह सर्वदा शरीर को तपाते रहते हैं और जीवन तो सदैव परवश ही है; अतः हे दीनबन्धो ! आप ही मेरी एकमात्र शरण हैं॥४॥

पूर्वं कृतानि दुरितानि मया तु यानि

स्मृत्वाखिलानि हृदयं परिकम्पते मे ।

ख्याता च ते पतितपावनता तु यस्मात् । तस्मा० ॥५॥

पहले मुझसे जो-जो पाप बने हैं, उन सबको याद कर-करके मेरा हृदय काँपता है; किन्तु तुम्हारी पतितपावनता तो प्रसिद्ध ही है, अतः हे दीनबन्धो! अब आप ही मेरी एकमात्र शरण हैं ॥ ५॥

दःखं जराजननजं विविधाश्च रोगाः

काकश्वसूकरजनिर्निरये च पातः ।

ते विस्मृतेः फलमिदं विततं हि लोके । तस्मा० ॥६॥

प्रभो! आपको भूलने से जरा-जन्मादिसम्भूत दुःख, नाना व्याधियाँ, काक, कुत्ता, शूकरादि योनियाँ तथा नरकादि में पतन-ये ही फल संसार में विस्तृत हैं, अतः हे दीनबन्धो ! अब आप ही मेरी एकमात्र गति हैं ।। ६ ॥

नीचोऽपि पापवलितोऽपि विनिन्दितोऽपि

ब्रूयात्तवाहमिति यस्तु किलैकवारम् ।

तं यच्छसीश निजलोकमिति व्रतं ते। तस्मा० ॥७॥

नीच, महापापी अथवा निन्दित ही क्यों न हो; किन्तु जो एक बार भी यह कह देता है कि 'मैं आपका हू', उसी को आप अपना धाम दे देते हैं, हे नाथ! आपका यही व्रत है; अतः हे दीनबन्धो! अब आप ही मेरी एकमात्र गति हैं ॥ ७॥

वेदेषु धर्मवचनेषु तथागमेषु

रामायणेऽपि च पुराणकदम्बके वा ।

सर्वत्र सर्वविधिना गदितस्त्वमेव । तस्मा० ॥८॥

वेद, धर्मशास्त्र, आगम, रामायण तथा पुराणसमूह में भी सर्वत्र सब प्रकार आपही का कीर्तन है; अतः हे दीनबन्धो! अब आप ही मेरी एकमात्र गति हैं ।। ८॥

इति श्रीमत्परमहंसस्वामिब्रह्मानन्दविरचितं श्रीहरिशरणाष्टकं सम्पूर्णम्।

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