कंकालमालिनीतन्त्र द्वितीय पटल

कंकालमालिनीतन्त्र द्वितीय पटल 

कंकालमालिनीतन्त्र द्वितीय पटल में मन्त्रार्थ-मन्त्रचैतन्य आदि का अंकन है तथा योनिमुद्रा एवं कुण्डलिनी शक्ति का वर्णन किया है।

कंकालमालिनीतन्त्र द्वितीय पटल

कङ्कालमालिनी तंत्र पटल २    

कङ्कालमालिनी तंत्र द्वितीयः पटलः

कंकालमालिनीतन्त्र दूसरा पटल 

श्रीपार्वत्युवाच

देवदेव महादेव नीलकण्ठ तपोधन ।

योनिमुद्रां महादेव तत्वत्रयं परात्परं ।

एतदेव महादेव कथ्यतां मे पिनाकधृक् ।।१।।

श्री पार्वती कहती है-हे देवाधिदेव महादेव ! हे तपोघन नीलकण्ठ ! परज्ञान की अपेक्षा उत्कृष्ट तत्वत्रय-जैसे इच्छा-ज्ञान-क्रिया, अथवा परा-पश्यन्ति मध्यमा जिसमें है, मैं उस योनिमुद्रा को जानना चाहती हूँ। पिनाकधारी ! कृपया वर्णन करिये ॥१॥

ईश्वर उवाच

शृणु वक्ष्यामि देवेशि दासोऽहं तव सुव्रते ।

अतिगुह्यं महत् पुण्यं तत्वत्रयं वरानने ॥२।।

सारात सारं परं गुह्यमतिगोप्यं सुनिश्चितम् ।

शंडापि जायते देवि कथं तत् कथयाम्यहम् ।।३।।

ईश्वर कहते है- हे शोभनव्रतशालिनी देवेशी ! मैं तुम्हारा दास हूँ। हे वरानने ! अत्यन्त गोपनीय होने पर भी इस पवित्र तत्वयुक्त योनिमुद्रा का वर्णन करता हूँ। सुनो!

यह समस्त तंत्रों का सार, अत्यन्त गोपनीय है। इस मुद्रा का वर्णन कैसे करूं, यह संशय उत्पन्न हो रहा है ।।२-३।।

कथयामि महेशानि आज्ञया तव भाविनी ।

न चेत्तत् कथ्यते देवि तव क्रोधः प्रजायते ॥४॥

हे भाविनी! हे महेशानी ! मैं तुम्हारे आदेश के अनुसार इसका तत्वोपदेश करता हूँ । हे देवी! यदि मैं इसका उपदेश नहीं करता, उस स्थिति में तुम्हारे अन्दर क्रोध की उत्पत्ति होने लगेगी ॥४॥

त्वया कोधे क्ते देवि हानिः स्यान्मम कामिनी ।

मन्त्रार्थ मन्त्र चतन्य धर्मार्थकामदं प्रिये ॥५॥

हे देवी! हे कामिनी ! तुम्हारे क्रोध से मेरी क्षति होगी। हे प्रिये ! धर्म अर्थ-कामप्रद मंत्र का अर्थ, मंत्र चैतन्यादि और ।।५।।

योनिमुद्रा महेशानि तृतीयं ब्रह्मरूपिणी ।

अज्ञात्वा यो जपेन्मत्रं नहि सिद्धिः प्रजायते ।।६।।

ब्रह्मरूपिणी योनिमुद्रा, इन तीनों को जो साधक बिना जाने मंत्र जप करता है, उसे सिद्धि नहीं मिलती ।।६।।

ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत ह्य कूर्वाणो विनश्यति ।

योनिमुद्रा महेशानि साक्षान्मोक्ष प्रसाधिनी ।।७।।

तव योनिमहेश नि प्रिया मम यथा प्रिये ।

सततं परमेशानि दासोऽहं तव योनिमा ।।८।।

हे महेशानी ! जो मुद्रा को जानकर भी उसका उपयोग नहीं करता, वह विनाश प्राप्त करता है । हे महेशानी ! योनिमुद्रा साक्षात् मोक्ष प्रदायिनी है।

हे प्रिये ! जैसे तुम मुझे प्रिय हो, उसी प्रकार तुम्हारी योनि भी मुझे प्रिय है । तुम्हारी योनि के कारण ही मैं सर्वदा तुम्हारा दास बना रहता हूँ ॥७-८॥

तव योनिप्रसादेन मृत्यु जित्वा वरानने ।

मृत्यञ्जयोऽहं देवेशि सततं कमलानने ॥९ ॥

तव योनौ महेशानि ब्रह्माण्डं सचराचरम् ।

तिष्ठन्ति सततं देवि ब्रह्माद्या स्त्रिदिवौकसः ॥१०॥

हे वरानने ! तुम्हारी योनि की कृपा से मैंने मृत्युञ्जय किया है। हे कमलानने ! मैं सर्वदा मृत्युंजय के नाम से प्रसिद्ध हूँ ।

हे महेशानी ! तुम्हारी योनि में सचराचर ब्रह्माण्ड स्थित है। ब्रह्माप्रभृति त्रिदेव भी तुम्हारी योनि में ही निवास करते हैं ॥९-१०॥

मयूरस्य महेशानि पुच्छे कृत्वा च अद्ध तं ।

योन्या कारं महेशानि दृष्ट्वा कृष्णः शुचिस्मिते ।

शिवे घृत्वा वरारोहे त्रैलोक्यं वशमानयेत् ॥११॥

हे महेशानी ! योनि के आकार का मयूर पुच्छ का चित्रण देखकर कृष्ण ने मयूर पुच्छ को सिर पर धारण किया। हे शुचिस्मिते ! वरारोह ! इस प्रकार उन्होंने त्रैलोक्य को वशीभूत किया था ॥११॥

तव योनि महेशानि भावयामित्यहनिशम् ।

तत्रव दृष्ट्वा ब्रह्माण्डं नान्यं पश्यामि कामिनी ।

कर्पूरफलकोद्भतं तब योनिपुरं परम् ।।१२ ।।

हे महेशानी ! मैं अहोरात्र तुम्हारी ही योनि का ध्यान करता रहता हूँ। हे कामिनी ! उसी में समस्त ब्रह्माण्ड को देखने के पश्चात अन्य कुछ भी देखना शेष नहीं रह जाता । मानो तुम्हारा योनिमण्डल कर्पूर फलक से उद्भूत है ।।१२।।

तव योनिमहेशानि तत्वत्रय सुपूजितम् ।

रेतोरज:समायक्त साक्षान्मन्मथ मन्दिरम् ॥१३॥

हे महेशानी ! तुम्हारी योनि तत्वत्रय के द्वारा ( पृथ्वी, जल तथा तेजः द्वारा), मद्य-मांस-मैथुन रूप त्रितत्व द्वारा सुन्दर रूपेण पूजिता है। वह शुक्र एवं रजः से समन्वित और साक्षात् कामदेव का मन्दिर है । १३॥

न जाने किं कृतं कर्म कालिके कमलेक्षणे ।

तव योनी महादेवि अतएव वरानने ।

योनिमुद्रा योनिबोजं सततं परमेश्वरो ।।१४।।

हे कमलनयने कालिके ! पता नहीं किस कर्म के फलस्वरुप तुम्हारा योनिसम्पर्क मिला है। हे वरानने महादेवी ! हे परमेश्वरी! इसी कारण मैं सर्वदा योनिमुद्रा तथा योनिबीज की साधना करता रहता हूँ ॥१४॥

अहं मृत्युञ्जयो देवि योनिमुद्राप्रसादतः ।

योनिबीन महेशानि निगदामि श्रण प्रिये ।।१५।।

प्रथमे परमेशानि योगिनीं रुद्रोयोगिनीम् ।

उद्धृत्य बहुयलेन बलबीजयुतं कुरु ।

विन्द्र चन्द्रसंयुक्त बीजं त्रैलोक्यमोहनम् ॥१६॥

हे परमेशानी ! हे प्रिये ! मैं योनिमुद्रा के ही प्रभाव से मृत्युञ्जय हो सका हूँ । मैं योनिबीज का वर्णन करता हूँ। सुनों!

हे परमेशानी ! सर्व प्रथम योगिनी तथा रुद्र योगिनी बीज का उद्धार करे । उसमें बलबीज को युक्त करे । उसको चन्द्र विन्दु युक्त करने पर त्रैलोक्यमोहन योनिबीज प्रकट होता है । ॥१५-१६॥

बध्वा तु योनिमुद्रां वे पूर्वोक्तकमतः प्रिये ।

योनिबीजं महेशानी अष्टोत्तरशतं जपेत् ।।१७।।

अष्टोत्तरशतंजावा यत्फलं लभते प्रिये ।

माहात्म्यं तस्य देवेशी वक्तुं को वा क्षमो भवेत् ॥१८॥

हे महेशानी ! पूर्वोक्त क्रमानुसार योनिमुद्राबन्धन द्वारा इस योनिबीज का १०८ जप करे । इस जप के द्वारा जो फल मिलता है, उसका माहात्म्य कहने में कौन समर्थ है ? ॥१७-१८ ॥

यः करोति प्रसन्नात्मा रहस्ये योनिरूपिणीम ।

ब्रह्माण्डं पूजयेत्तेन ब्रह्माद्यास्त्रिदिवौकसः ।।१९ ॥

जो व्यक्ति प्रसन्न चित्त होकर योनिरूपिणी योनिमुद्रा का अनुष्ठान करता है, उस साधक के द्वारा ब्रह्मादि देवगण भी पूजित होते है ॥१९॥

तव योनिमहेशानि परब्रह्मस्वरूपिणी ।

तव योनिमहेशानि भवस्य मोहिनी प्रिये ॥२०॥

हे महेशानी ! तुम्हारी योनि परब्रह्मस्वरूपिणी है । हे प्रिये । तुम्हारी योनि संसार को मुग्ध कर देती है ॥२०॥

तव योनिमहेशानि सिद्धिसूत्रेण वेष्ठयेत् ।

सिद्धिसूत्रं महेशानि त्रित्रकारं वरानने ॥२१॥

हे महेशानी ! तुम्हारी योनि का सिद्धसूत्र के द्वारा वेष्टन करे। हे वरानने । यह सिद्धिसूत्र तीन प्रकार का होता है ॥२१॥

इड़ा च पिङ्गला चेव सुषुम्ना त्रितयं तथा ।

सदानन्दमयीं योनि नानासुखविलासिनीम् ॥२२ ॥

वह सिद्धिसूत्र है इडा, पिंगला तथा सुषुम्ना ! यह योनि नाना सुख तथा विलास युक्ता है और सर्वदा आनन्दमयी है ॥२२॥

शृङ्गारसमये देवि नान्तं गच्छामि पार्वती ।

मम लिङ्गो महेशानि भिनक्ति सकलं जगत् ।।२३।।

हे देवी ! रमणकाल में मैं उसका अन्त नहीं पा सकता। हे महेशानी ! मेरा लिंग समस्त जगत् को विदीर्ण कर देता है ॥२३॥

तथापि परमेशानि नान्तं गच्छामि कामिनी ।

तव योनिमहेशानि न जाने कीदशों गतिम् ।।२४॥

हे कामिनी ! इतने पर भी मैं योनि का अन्त नहीं पा सकता। हे परमेशानी ! मैं नहीं जानता कि तुम्हारी योनि कैसी है ? ॥२४॥

तव योनिर्महेशानि आद्या प्रकतिरूपिणी ।

सदा कुण्डलिनी योनि महाकुण्डलिनी पराम ॥२५॥

यः सदा परमेशानि योनि दष्ट वा वरानने ।

जपेद्बीजं बरारोहे भगाख्यं भगरूपिणीम ॥२६॥

योनि बध्वा महेशानि भग बीजेन पार्वतो ।

अष्ठोत्तरशतं जप्त्वा मम तुल्यो भवेत् प्रिये ।।२७।।

तव यानी महेशानि रमणं यत्नतश्चरेत् ।

तस्या रमणमायण ब्रह्मविष्णुशिवात्मकः ।

स एव धनवान् वाग्मी वागीश समतां व्रजेत् ।।२८।।

हे परमेशानी ! तुम्हारी योनि आद्या प्रकृतिरूपा, कुण्डलिनी तथा महाकुण्डलिनी रूपा है। साधक को योनिदर्शन के साथ-साथ योनिस्वरूप योनिबीज का जप करना चाहिये।

हे पार्वती ! योनि वेष्टन द्वारा जो साधक १०८ बार योनिबीज का जाप करता है, यह साधक मेरे समान हो जाता है ।

हे महेशानी ! तुम्हारी योनि में यत्नपूर्वक रमण करना पड़ता है। रमणमात्र से ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवरूपता होती है। वह साधक धनवान्, वाग्मी होकर बृहस्पति तुल्य हो जाता है ॥२५-२८॥

श्री देव्युवाच

नीलकण्ठ महादेव रहस्यं कृपया वद् ।

यदि नो कथ्यते देव विमुञ्चामि तदा तनुम् ॥२९ ॥

देवी कहती है- हे नीलकण्ठ महादेव ! कृपया रहस्य वर्णन करिये । अन्यथा मैं शरीर का त्याग कर दूंगी ॥२९॥

ईश्वर उवाच

श्रण पार्वति कृष्णांनी खंजनाक्षि सुलोचने ।

गोपनीय रहस्यं हि सर्वकामफलप्रदम ॥३०॥

ईश्वर कहते है- हे कृष्ण अंगोवाली ! हे सुलोचने ! हे खंजन जैसे नेत्रोंवाली ! मैं समस्त मनोरथों को पूरा करनेवाला यह गोपनीय रहस्य अवश्य कहूंगा ॥३०॥

तिस्त्रः कोट्यरतर्द्धन शरीरे नाडिका मताः ।

तासू मध्ये दश प्रोवतास्तासु तिस्त्रो व्यवस्थिताः ॥३१॥

मानव शरीर में साढ़ेतीन करोड़ नाड़ियाँ विद्यमान हैं। उनमें दस तथा दस में भी तीन ही प्रधान हैं ॥३१॥

प्रधाना मेरुदण्डा चन्द्रसूर्याग्निरूपिणी ।

मज्जयित्वा सुषुम्नायामहं योगी सुरेश्वरी ॥३२॥

षटचक्रे परमेशानि भावयेद् योनिरूपिणीम ॥३३॥

मेरुदण्ड के मूल में चन्द्र-सूर्य-अग्निरूपिणी इडा-पिंगला तथा सुपुम्ना विद्यमान है । परमेशानी, सुरेश्वरी ! मैं सुषुम्ना में स्नान करके योगी हुआ हूँ। शरीर में जो षट्चक्र विद्यमान है, उनमें योनिरूपा भगवती का ध्यान करना चाहिये ॥३२-३३॥

प्रथमं परमेशानि आधारयुगपत्रकम् ॥३४॥

वादिसान्त्यैश्चतुर्वर्ण द्युतहेमसमप्रभं।

तड़ित्कोटिप्रभाकरं स्थानं परमदुर्लभम् ॥३५॥

चारों दलों में ( मूलाधार के ) यथाक्रमेण व-श-ष-स शोभायमान हैं। यह आधार चक्र है। इसके चारो पत्र विशिष्ट पद्मरूपेण विद्यमान है । यह पद्म सुवर्ण के समान कान्तिपूर्ण है। इसकी कान्ति कोटि विद्युत के समान है। यह परमदुर्लभ स्थान है ॥३४-३५।।

तत्कणिकायां देवेशि त्रिकोणमतिसुन्दरम् ।

इच्छाज्ञानं क्रियारूपं ब्रह्मविष्णु शिवात्मकम ॥३६।।

हे देवेशी ! उसकी कर्णिका में एक सुन्दर त्रिकोण है। वह इच्छा-ज्ञान-क्रिया किंवा ब्रह्मा-विष्णु-शिवात्मक है ॥३६॥

मध्ये स्वयम्भुलिङ्गञ्च कुण्डली वेष्ठितं सदा ।

त्रिकोणाख्यं तु देवेशि लङ्गारं चिन्तयेतथा ॥३७।।

उसके मध्य में कुण्डली से आवेष्टीत न स्वयम्भुलिंग स्थित है। हे देवेशी ! इस त्रिकोण मध्य में लं मन्त्र का चिन्तन करे ॥३७॥

ब्रह्माणं तत्र संचिन्त्य कामदेवञ्च चिन्तयेत् ।

बीजं तव निश्चिन्त्यं पानावादानमेव च ॥३८॥

पदे च गमनं पायौ बिसग नसि कामिनी ।

घ्राणं संचिन्त्य देवेशि महेशी प्राणवल्लभे ॥३९ ।।

ब्रह्मा की भावना करे। कामदेव का चिन्तन करे। यहाँ पर बीज का भी चिन्तन करना चाहिये । हे देवेशी ! प्राणवल्लभे ! कामिनी ! चरण से गमन, पायु से विसर्जन तथा नासिका से गंध का चिन्तन करे ॥३८-३९।।

डाकिनी परमाराव्यां शक्तिञ्च भावयेततः ।

एतानि गिरिजे मातः पृथ्वीं नीत्वा गणेश्वरी ॥४०॥

हे गणेश्वरी ! गिरिजे! मातः ! परमाराध्या डाकिनी शक्ति की भावना करे और पूर्वोक्त चिन्तित गमन, विसर्जन तथा गंध रूप विषयों को पृथ्वी तत्व में ले जाये ॥४०॥

तन्मध्ये लिङ्गरूपं हि कुण्डली बेष्टितं प्रिये ।

तत्र कुण्डलिनी नीत्वां परमानन्दरूपिणीम् ॥४१॥

तत्र ध्यानं प्रकुर्वोत सिद्धिकामो वरानने ।

कोटि चन्द्र प्रभाकारां परब्रह्म स्वरूपिणीम् ।।४२।।

चतुर्भुजां त्रिनेत्राञ्च वराभयक रस्तथा ।

तथा च पुस्तकं वीणां धारिणी सिंहवाहिनीम् ।।४३।।

हे प्रिये ! त्रिकोण के मध्य में मूलाधार में लिंगरूप विराजमान रहता है। यहीं नित्या-परमानन्द स्वरूपिणी कुण्डलिनी भी विराजमान है। हे वरानने ! यहीं सिद्धिकामी साधक सर्वदा ध्यान करे । कोटिचन्द्र के समान जिसकी प्रभा है, ऐसी परब्रह्मरूपिणी कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिये। चतुर्भुजा, त्रिनयना, वर-अभय प्रदायिनी, सिंहवाहिनी, वीणा पुस्तक धारिणी का ध्यान करे ।।४१-४३॥

गच्छन्ति स्वायन भीयांनानारूपधरां पराम ॥४४॥

नाना उत्कृष्ट रूपधारिणी, भीमदर्शना देवी सुन्दर आसन पर शोभायमान रहती है ।॥४४॥

पूर्वोक्तां पृथिवीं धन्यां गन्धे नीत्वा महेश्वरी ।

आकृष्य प्रणवेनैव जीवात्मानं नगेन्द्रजे ॥४५।।

हे नगेन्द्रजे महेश्वरी ! पूर्वोक्त पृथ्वीतत्व को उसके विषय गन्ध में लीन करके () मंत्र के द्वारा जीवात्मा का आकर्षण करे ॥४५॥

कुण्डलिन्या सह प्रेमे गन्धमादाय साधकः।

सोऽहमिति मनुना देवी स्वाधिष्ठाने प्रवेशयेत् ॥४६॥

तत्पद्मं लिंगमूलस्थं सिन्दूराभञ्च घड्दलम् ।

स्फुरद्विद्रुमसंकाशेर्वादिलान्तः सुशोभितम् ॥४७॥

हे देवी ! कुण्डलिनी देवी के साथ गन्ध को ग्रहण करके सोऽहं मन्त्र के द्वारा स्वाधिष्ठान में प्रवेश करे। यह स्वाधिष्ठान पद्म लिंगमूल में विराजित रहता है। यह षड्दल है और सिन्दूरसमप्रभ है। दीप्तिमान प्रवाल के समान वं भं मं यं रं लं वर्ण द्वारा सुशोभित है ।।४६-४७ ।।

तत्कणिकायां वरुणं तत्रापि भावयेद्हरिम् ।

युवानां राकिनी शक्ति चिन्तयित्वा वरानने ॥४८॥

उसकी कर्णिका में वरुण विराजित हैं । उस स्थल में विष्णु का चिन्तन करें। हे वरानने ! यहां पर राकिनीशक्ति का चिन्तन करना चाहिये ।।४८।।

रसनेन्द्रिय पुष्पस्थं जलंञ्च. कामलालसे ।

एतानि गन्धश्च शिवे रसे नीत्वा विनोदिनीम् ॥४९ ॥

जीवात्मानं कुण्डलिनी रसञ्च मणिपूरके ।

नीत्वा परमयोगेन तत्पद्म दिगदलं प्रिये ।।५०॥

इस स्वाधिष्ठान में कर्मेन्द्रिय ही रसनेन्द्रिय जल एवं उपस्थ रूप में विराजित है। इन दोनों को तथा पूर्वकर्षित गन्ध को रस में मिलाये और उसे लेकर मणिपुर की ओर चले । मणिपुर पद्म में द्वितीय चक्रस्थ रस एवं कुण्डलिनी रूप जीवात्मा को ले जाये । हे प्रिये ! मणिपुर पद्म में १० दल है॥४९-५०॥

नीलवणं तडिद्पं डादिफान्तैश्च मण्डितम् ।

तत्कणिकायां सुश्रीणि वह्निसंचिन्त्य साधकः ॥५१॥

यह पद्य नीलवर्ण है जो विद्युत के समान है। यहां ड से लेकर फ पर्यन्त वर्ण हैं (ड, , , , , , , , , फ)। हे सुश्रोणी ! इसकी कर्णिका में साधक को वह्निवीज रं का चिन्तन करना चाहिये ।।५१।।

तत्र रुद्र: स्वयं का संहारे सकलस्य च ।

लाकिनी गवित संयक्तं भावयेतं मनोहरे ॥५२॥

तत्र चक्षुरिन्द्रियञ्च कृत्वा तेजोमयं यजेत् ।

एतं रसञ्च सुभगे रुपे नीत्वा महाभगे ।।५३।।

यहाँ सर्वलोकसंहारकर्ता रुद्र लाकिनी शक्ति के साथ विराजित रहते है । हे मनोहरे ! उन लाकिनी शक्तियुक्त रुद्र की भावना करे । यहाँ तेजसचक्षुरीन्द्रिय तथा उसका विषय रूप शोभायमान है। हे सुभगे ! हे महाभगे ! स्वाधिष्ठान स्थित रस को रूप में मिलाकर अनाहत में ले जाना चाहिये ।। ५२.५३।।

जीवात्मानं कुण्डलिनी रुपञ्चानाहते नयेत् ।

बन्धकपुष्पसंकाशं तत्पद्म द्वादशारकम् ॥५४॥

इस अनाहत पद्म में कुण्डलिनीरूप जीवात्मा को ले जाना चाहिये । इस अनाहत पद्म का रंग बन्धूक पुष्प के समान है और इस पत्र में १२ दल है ॥५४॥

कादिठान्तेः स्फुरद्वणः शोभितां हरवल्लभाम् ।

तत्कणिकायर्या वायुञ्चाजीवस्थान निवासिनम् ॥५५॥

तत्र योनेमण्डलञ्च वाणलिङ्गविराजितम् ।

काकिनी शक्तिसंयुक्तं तत्र वायोस्त्वगिन्द्रियम् ॥५६॥

इस अनाहत चक्र में ककारादि ठकारान्त ( कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं) देदीप्यमान वर्ण समष्टि सुशोभित है। उसकी कर्णिका में जीवस्थान निवासी वायुतत्व विद्यमान है ।।५५-५६।।

यहाँ बाणलिंग विराजित है । वह एक योनिमण्डल में स्थित है । यहाँ काकिनी शक्ति तथा त्वक्इन्द्रिय और उसका विषय वायुतत्व विद्यमान है ।।५५-५६।।

एतं रुपंञ्च संयोज्य स्वर्गे रमण कामिनी ।

जीवकुण्डलिनी स्पर्श विशुद्धौ स्थापयेत्ततः ।।५७।।

धूम्रवर्ण कण्ठपद्म पोडशस्वरमण्डितम् ।

तत्कणिकायामाकाशं शिवञ्च काकिनीयतम् ।।५८ ॥

हे स्वर्ग में रमण की कामनावाली ! इस बार विशुद्धाख्य पद्म को पूर्वोक्त त्वगीन्द्रिय के विषय स्पर्श से युक्त करके, वहां कुण्डलिनी रूप जीव की स्थापना करे। यह पद्म धूम्रवर्ण तथा १६ अक्षरों के द्वारा शोभित है। इसकी कर्णिका में आकाशतत्व तथा काकिनी शक्तियुक्त शिव विराजित है ।।५७-५८।।

वाचं श्रोत्रञ्च आकाशे, संस्थाप्य नगनन्दिनी ।

एतानि स्पर्श शब्दे च नीत्वा शाङ्करि मत्प्रिये ॥५९॥

जीवं कुण्डलिनी शब्दश्चाज्ञापत्रे निघापयेत् ।

नेत्रपद्म शुक्लवर्णं द्विदलं ह क्ष भूषितम् ॥६०॥

हे पर्वतनन्दिनी ! प्रिये ! शांकरी ! वहां वाक् तथा श्रोत्रेन्द्रिय की संस्थापना करे । वहां शब्द के साथ स्पर्श का योग कराये । कुण्डलिनी रूपी जीव को तथा शब्द को आज्ञाचक्र में ले जाये। वहां जो पद्म है, वह नेत्रपद्म (आज्ञाचक्र ) है, उसका वर्ण है शुक्ल । वहां ह तथा क्ष ये दो शब्द विराजित हैं ।।५९-६०।।

तत्कणिकायां त्रिकोणञ्चेद् वाणलिङ्गश्च सङ्गतम् ।

मनश्चात्र सदाभाति डाकिनी शक्ति लाञ्छितं ॥६१ ॥

बुद्धि प्रकृत्यहारालक्षितं तेजसा परम् ।

जीवात्मानं कुन्डलिनी मनश्चापि महेश्वरी ॥६२।।

उसकी कर्णिका में बाणलिंग संयुक्त एक त्रिकोण है। यहां डाकिनी शक्ति युक्त मन सदा शोभित रहता है । हे महेश्वरी ! बुद्धि, प्रकृति तथा अहंकार द्वारा लक्षित उत्कृष्ट तैजस मन को तथा जीवात्मा रूप कुण्डलिनी को युक्त करे ॥६१-६२।।

सहस्त्रारे महापद्ये मनश्चापि नियोजयेत् ।

सहस्त्रारं नित्यपद्म शुक्लवर्णमधोमुखम् ॥६३।।

आज्ञा चक्र से उपर जो सहस्त्रार है, उसका वर्ण शुक्ल है। यह अधोमुखी होकर विराजमान है । उस सहस्त्रार में मनोनिवेश करना चाहिये ।।६३॥

अकारादि क्षकारान्तः स्फुरद्वर्णविराजितम् ।

तत्कणिकायां देवेशी अन्तरात्मा ततो गुरुः ॥६४॥

सूर्यस्य मन्डलञ्चैव चन्द्रमन्डल मेव च ।

ततो वायुमहानग्दो ब्रह्मरन्ध्र ततः स्मृतम् ॥६५॥

अकार से क्षकार पर्यन्त देदीप्यमान समस्त वर्ण समष्टि के द्वारा यह व्याप्त है। हे देवेशी ! उसकी कर्णिका में अन्तरात्मा एवं गुरु का आसन है।

उसके ऊपर सूर्य एवं चन्द्र का मण्डल विराजित रहता है। उसके भी ऊपर महानादयुक्त वायु है । उसके ऊपर ब्रह्मरंध्र शोभायमान है ।। ६४-६५।।

तस्मिन् रन्ध्र विसर्गञ्च नित्यानन्दं निरञ्जनम् ।

तदूर्ध्वं शविनी देवी सृष्टिस्थित्यन्तकारिणी ॥६६॥

तस्याधःस्ताच्च देवेशी चन्द्रमन्डलमध्यगम् ।

त्रिकोणं तत्र संचिन्त्य कैलासमत्र भावयेत् ॥६७।।।

इस ब्रह्मरंध्र में नित्यानन्दमय निरंजन विसर्ग रहता है । किसी के मत से ब्रह्मरंध के उर्ध्वभाग में यह विसर्गमण्डल शोभित है। उसके ऊपर शंखिनी देवी का स्थान है। यह देवी सृष्टि-स्थिति-प्रलयकारिणी शक्ति है । हे देवेशी ! इसके निम्न प्रदेश में चन्द्र मण्डल के मध्य में स्थित त्रिकोण है। उसका चिन्तन करते हुये, उसी में कैलास की भावना करे ।।६६-६७॥

इह स्थाने महादेवी स्थिरचित्तो विधाय च ।

जीवजीवी गतव्याधिर्नपुनर्जन्मसंभवः ॥६८॥

अत्र नित्योदिता वृद्धि क्षयहीना अमाकला ।

तन्मध्ये कुटिला निर्वाणाख्या सप्तदशी कला ॥६९ ॥

निर्वाणाख्यान्तर्गता बहिरूपा निरोधिका ।

नादोऽव्यक्तस्तदुपरि कोट्यादित्यसमप्रभा ॥७०।।

हे महादेवी ! पूर्वोक्त स्थान में अपने चित्त को स्थिर करे। यहां साधक विगत व्याधि हो जाता है उसका जीव-जीवीभाव का सम्बन्ध विनष्ट हो जाता है । ऐसे साधक का पुनर्जन्म नहीं होता ।

यहाँ वृद्धिक्षय रहित अमाकला नित्य उदित रहती है। उसी में कुटिल निर्वाण नाम्नी सप्तदशी कला विद्यमान है । इस निर्वाण नामक सप्तदशी कला के अन्तर्गत बाह्यरूप निरोधकारिणी एक कला अवस्थिता है । यहाँ सभी समय अव्यक्त नाद उत्थित होता रहता है। उसके ही ऊपर कोटि आदित्य के समान प्रभा विराजित है।॥६८-७०॥

निर्वाणशक्तिः परमा सर्वेषां योनिरूपिणी ।

अस्यां शक्ती शिवं ज्ञेयं निविकार निरंजनम् ॥७१॥

अत्रैव कुन्डलीशक्तिर्मुद्राकारा सुरेश्वरी ।

पुनस्तेन प्रकारेण गच्छन्त्याचारपङ्कजे ॥७२॥

यही योनिरूपिणी निर्वाण शक्ति है। इसी में निर्विकार-निरंजन शिव विराजित रहता है । हे सुरेश्वरी! यहां मुद्राकारा कुण्डलिनी शक्ति रहती है। यह कुण्डलिनी पुनः आधारकमल में ( मूलाधार में ) चली जाती है ॥७१-७२॥

कथिता योनिमद्रेयं मया ते परमेश्वरी ।

बिना येन न सिद्धन निहरेत् परमात्मना ॥७३॥

हे परमेश्वरी ! मैंने योनिमुद्रा का वर्णन कर दिया । इसकी सिद्धि के अभाव में परमात्मा की प्राप्ति दुर्लभ है ॥७३॥

तदिव्यामृतधाराभि लक्षिाभाभिमहेश्वरी ।

तपयेदेवतां योगी योगेनानेन साधकः ॥७४।।

कुन्डलीशक्तिसिद्धिः स्याद्वर्णकोटिशतैरपि ।

तस्मात्त्वयापि गिरिजे गोपनीयं प्रयत्नतः ॥७५ ॥

हे गिरिजे ! लाक्षारस की धारा के समान इस अमृतधारा के द्वारा साधक योगी सदा आराध्य देव का तर्पण करते रहते हैं। शतकोटि वर्ण द्वारा कुण्डलिनी शक्ति की सिद्धि होती है। अतएव इसे प्रयत्नपूर्वक गोपनीय रखना ॥७४-७५।।

मन्त्ररूपां कुन्डलिनी ध्यात्वा षट्चक्रमन्डले ।

कन्दमध्यात् सुमधुर कजन्ती सततोत्थितम ॥७६॥

गच्छन्ति ब्रह्मरंध्रण प्रविशन्तीं स्वकेतनम् ।

मूलाधारे च तां देवीं संस्थाप्य वीरवन्दिते ॥७७ ॥

षट्चक्रमण्डल में मन्त्ररूपा कुण्डलिनी का ध्यान करने पर कन्दमध्य से सतत सुमधुर कूजन करते-करते कुण्डलिनी उत्थित होती है ।

हे वीरवन्दिते ! मूलाधार से उत्थान करके ब्रह्मरन्ध्र तक जाकर स्वस्थान (सहस्त्रार) में प्रविष्ट हो जाती है। हे देवी! वहां से कुण्डलिनी को पुन:प्रत्यावर्तित करते हुये मूलाधार में स्थापित करे ॥७६-७७॥

चित्रिणी ग्रथिता माला जापं ब्रह्माण्डसुन्दरी ।

रहस्यं परमं दिव्यं मन्त्रचैतन्यमीरितम् ॥७८ ॥

हे ब्रह्माण्डसुन्दरी ! चित्रिणी द्वारा ग्रथिता माला से जप करने पर चैतन्य साधित होता है । यह साधकों का परमदिव्य रहस्य है ॥७८॥

मुद्राचैतन्योर्ज्ञानं वर्णानां ज्ञानमेव च ।

मंत्राथं कथितं देवी तव स्नेहात् प्रियम्बदे ।।७९ ।।

अस्य ज्ञानं बिना भद्रे सिद्धिनं स्यात् सुलोचने ।

इति ते कक्षितं देवी योनिक्रीड़नमुत्तमम् ॥८० ॥

हे प्रियम्बदे ! तुम्हारे स्नेह से परवश होकर मुद्रा, मन्त्र चैतन्य, वर्ण का ज्ञानोपाय, तथा मंत्रार्थ कहा है।

हे देवी! हे भद्रे ! हे सुलोचने ! इस ज्ञान के अभाव में सिद्धि की प्राप्ति असंभव है । अतएव मैंने तुमसे उत्तम योनिक्रीड़ा का वर्णन किया ॥७९-८०।।

अब इससे आगे श्लोक ८१-९७ में पार्वती के पूछने पर सदाशिव ने योनिकवच का उपदेश किया इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें- योनिकवचम्

॥ इति दक्षिणाम्नाये कङ्कालमालिनीतन्त्र द्वितीयः पटलः ।।

॥ दक्षिणाम्नाय के कंकालमालिनी तंत्र का द्वितीय पटल समाप्त ॥

आगे जारी............. कंकालमालिनीतंत्र पटल 3  

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