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- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग २०
- गङ्गा सहस्रनाम स्तोत्र
- गंगा सहस्त्रनाम स्तोत्र
- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १९
- सूर्य अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र
- सूर्य स्तवन
- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १८
- रुद्रयामल तंत्र पटल ४ भाग २
- रूद्रयामल चतुर्थ पटल
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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
जयद स्तोत्र
जयद स्तोत्र अथवा कुण्डलिनीस्तव या
कुण्डलिनी स्तुति स्तोत्र का नित्य प्रातः काल पाठ करने से साधक को सिद्धि प्राप्त
होता है । इसके एक क्षण के पाठ से मनुष्य निश्चय ही कवि शिरोमणि हो जाता है और
योगीयों के लिए इसका पाठ मोक्षकारक कहा गया है । यह कुण्डलिनीस्तव रुद्रयामल तंत्र
पटल ६ श्लोक २९ से ४० में वर्णित है।
जयद स्तोत्र अथवा कुण्डलिनीस्तवः
कुण्डलिनीस्तुतिस्तोत्रः
रुद्रयामलोत्तरतन्त्रान्तर्गतम्
जयदस्तोत्र
---
जन्मोद्धारनिरीक्षणीहतरुणी
वेदादिबीजादिमा
नित्यं चेतसि भाव्यते भुवि कदा सद्वाक्यसञ्चारिणी
।
मां पातु प्रियदासभावकपदं संन्घातये
श्रीधरा
धात्रि त्वं स्वयमादिदेववनिता
दीनातिदीनं पशुम् ॥ ६-२९॥
जन्म (एवं मरण) से उद्धार करने वाली
युवती,
वेदादि की बीज एवं मां स्वरूपा, सद् वाक्य का
संचालन करने वाली भगवती का मैं कब अपने चित्त में ध्यान करूँगा ? प्रिय करने वाली भगवती मेरी रक्षा करें, विपत्तियों
का संहार करने वाली, सबको धारण करने वाली, स्वयं सबका पालन करने वाली, आदिदेव की वनिता हे देवि
! मुझ दीनातिदीन पशु की रक्षा कीजिए ॥२९॥
रक्ताभामृतचन्द्रिका लिपिमयी
सर्पाकृतिर्निद्रिता
जाग्रत्कूर्मसमाश्रिता भगवति त्वं
मां समालोकय ।
मांसोद्गन्धकुगन्धदोषजडितं
वेदादिकार्यान्वितं
स्वल्पान्यामलचन्द्रकोटिकिरणैर्नित्यं
शरीरं कुरु ॥ ६-३०॥
जिनके शरीर की कान्ति लाल वर्ण की
है,
जो अमृत की चन्द्रिका से लिपि हुई सी हैं । सर्पाकार आकृति वाली,
निद्रित हुई, जाग्रत् अवस्था में कूर्म
रूप धारण करने वाली, हे भगवती! आप मेरी ओर अपनी कृपा दृष्ट
से देखिए। मांस की उत्कृष्ट गन्ध तथा अन्य कुत्सित गन्धों से जड़ीभूत मेरे शरीर को,
थोड़े अथवा अधिक अपने निर्मल करोड़ों चन्द्र किरणों से तथा वेदादि
कार्य से नित्य शरीर को युक्त कीजिए ॥३०॥
सिद्धार्थी निजदोषवित्
स्थलगतिर्व्याजीयते विद्यया
कुण्डल्याकुलमार्गमुक्तनगरी
मायाकुमार्गः श्रिया ।
यद्येवं भजति प्रभातसमये
मध्याह्नकालेऽथवा
नित्यं यः कुलकुण्डलीजपपदाम्भोजं स
सिद्धो भवेत् ॥ ६-३१॥
मैं सिद्धि चाहता हूँ,
अपने दोषों का मुझे ज्ञान है, मात्र स्थल
(लौकिकता) में मेरी गति है, कुण्डली के मार्ग का मुझे ज्ञान
नहीं है, माया वश कुमार्ग में निरत हूँ, श्री विद्या मुझे जीवित कर रही हैं जो प्रभात
समय में अथवा मध्याह्न के समय इस प्रकार नित्य कुल कुण्डलिनी का जप तथा उनके
चरणाम्भोज का भजन करता है वह सिद्ध हो जाता है ॥३१॥
वाय्वाकाशचतुर्दलेऽतिविमले
वाञ्छाफलान्यालके
नित्यं सम्प्रति नित्यदेहघटिता
शाङ्केतिताभाविता ।
विद्याकुण्डलमालिनी स्वजननी
मायाक्रिया भाव्यते
यैस्तैः सिद्धकुलोद्भवैः प्रणतिभिः
सत्स्तोत्रकैः शंभुभिः ॥ ६-३२॥
वाञ्छा
फल प्रदान करने वाले, वायु एवं आकाश रूप
से अत्यन्त निर्मल, चतुर्दल में निवास करने वाली, नित्य, सर्वदा सबके देह में चेष्टारूप से निवास करने
वाली, साङ्केतित भावित (श्री) विद्या, कुण्डल
मानिनी स्वजननी जो माया क्रिया को सिद्धकुलों में उत्पन्न होने वाली,
जिन देवी का ध्यान वे योगी गण उन उन कल्याणकारी स्तोत्रों से प्रणति
पूर्वक करते है वे मेरे शरीर को नित्य करें ॥३२॥
धाताशङ्कर
मोहिनीत्रिभुवनच्छायापटोद्गामिनी
संसारादिमहासुखप्रहरणी तत्रस्थिता
योगिनी ।
सर्वग्रन्थिविभेदिनी स्वभुजगा
सूक्ष्मातिसूक्ष्मापरा
ब्रह्मज्ञानविनोदिनी कुलकुटी
व्याघातिनी भाव्यते ॥ ६-३३॥
विधाता एवं शङ्कर को भी मोह
में डालने वाली, त्रिभुवन रूपीच्छाया पट पर
उत्पन्न होने वाली, संसारादि के महासुख का विनाश करने वाली,
कुण्डलिनी स्थान में महायोगिनी रुप से स्थित रहने वाली, सारे ग्रन्थियों का भेदन करने वाली, सर्पिणी स्वरूपा,
सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, पराब्रह्मज्ञान में
विनोद करने वाली कुकुटी और व्याधात उत्पन्न करने वाली भगवती का मैं ध्यान करता हूँ
॥३३॥
वन्दे श्रीकुलकुण्डलीत्रिवलिभिः
साङ्गैः स्वयम्भूं प्रियम्
प्रावेष्ट्याम्बरमार्गचित्तचपला
बालाबलानिष्कला ।
या देवी परिभाति वेदवचना संभाविनी
तापिनी
इष्टानां शिरसि स्वयम्भुवनितां
संभावयामि क्रियाम् ॥ ६-३४॥
जो अपने प्रियतम स्वयंभू लिङ्ग को
तीन बार गोले आकार में कसकर घेरी हुई हैं और काम के वशीभूत होकर चपल हो रही हैं,
जो बाला, अबला और निष्कला हैं, जो देवी वेद वदना, संभावनी और तापिनी हैं, अपने भक्तों के शिर पर निवास करने वाली हैं, स्वयंभू
की बनिता एवं क्रिया स्वरूपा उन भगवती का मैं अपने चित्त में ध्यान करता हूँ ॥३४॥
वाणीकोटिमृदङ्गनादमदनानिश्रेणिकोटिध्वनिः
प्राणेशीरसराशिमूलकमलोल्लासैकपूर्णानना
।
आषाढोद्भवमेघवाजनियुतध्वान्ताननास्थायिनी
माता सा परिपातु सूक्ष्मपथगे मां
योगिनां शङ्करः ॥ ६-३५॥
हे सूक्ष्मपथ में गमन करने वाली !
करोड़ों के समान ध्वनि युक्त आपकी वाणी करोड़ों मृदङ्गनाद के समान मद (हर्ष) उत्पन्न
करने वाली हैं, जो सब की प्राणेश्वरी है रस,
राश एवं मूल वाले कमल के समान प्रफूल्लित जिनका मुख हैं, आषाढ़ में उत्पन्न हुये नियुत मेघ समूह के समान काले मुख वाली, सर्वकाल में स्थित रहने वाली हैं, वह सूक्ष्म पथ
वाली माता तथा योगियों में शङ्कर हमारी रक्षा करें ॥३५॥
त्वामाश्रित्य नरा व्रजन्ति सहसा
वैकुण्ठकैलासयोः
आनन्दैकविलासिनीं शशिशतानन्दाननां
कारणाम् ।
मातः श्रीकुलकुण्डली प्रियकरे
कालीकुलोद्दीपने
तत्स्थानं प्रणमामि भद्रवनिते
मामुद्धर त्वं पशुम् ॥ ६-३६॥
हे माता ! हे श्री कुलकुण्डली
प्रियकरे ! हे काली ! हे कुलोद्दीपने ! हे भद्रवनिते ! एक मात्र आनन्द में
विलासशीला, सैकड़ों चन्द्रमा के समान
आनन्दपूर्ण मुख वाली, जगत की कारणभूता, आपका आश्रय ले कर भजन करने वाले मनुष्य बैकुण्ठ और कैलास को जाते है,
मैं आपके स्थान को प्रणाम करता हूँ । मुझ पशु का उद्धार कीजिए ॥३६॥
जयद स्तोत्र अथवा कुण्डलिनी स्तुति स्तोत्र
फलश्रुति
कुण्डलीशक्तिमार्गस्थं
स्तोत्राष्टकमहाफलम् ।
यतः पठेत् प्रातरुत्थाय स योगी भवति
ध्रुवम् ॥ ६-३७॥
क्षणादेव हि पाठेन कविनाथो भवेदिह ।
पठेत् श्रीकुण्डलो योगो ब्रह्मलीनो
भवेत् महान् ॥ ६-३८॥
कुण्डली शक्ति के मार्ग में होने
वाले महाफल युक्त इस स्तोत्राष्टक का जो प्रातः काल में उठकर पाठ करता है वह
निश्चित रूप से योगी होता है । इसके एक क्षण के पाठ से मनुष्य निश्चय ही कवि
शिरोमणि हो जाता है और जो श्री कुण्डल युक्त महान् योगी इसका पाठ करता करता है वह
निश्चित रूप से ब्रह्मलीन हो जाता है ॥३७ - ३८॥
इति ते कथितं नाथ कुण्डलीकोमलं
स्तवम् ।
एतत्स्तोत्रप्रसादेन देवेषु गुरुगीष्पतिः
॥ ६-३९॥
सर्वे देवाः सिद्धियुताः अस्याः
स्तोत्रप्रसादतः ।
द्विपरार्द्धं चिरञ्जीवी ब्रह्मा
सर्वसुरेश्वरः ॥ ६-४०॥
हे नाथ ! इस प्रकार कुण्डली को
प्रिय लगने वाले स्तोत्र को मैने आपसे कहा, इस
स्तोत्र के पाठ के प्रभाव से बृहस्पति देवगुरु बन गये । इस स्तोत्र के
प्रसाद से सभी देवता सिद्धि से युक्त हो गये । किं बहुना इसके प्रभाव से ही
ब्रह्मदेव दो परार्द्ध तक जीने वाले तथा सम्पूर्ण देवताओं के ईश्वर बन गये
॥३९ - ४०॥
॥ इति रुद्रयामलोत्तरतन्त्रान्तर्गते जयद स्तोत्र अथवा कुण्डलिनी स्तुति स्तोत्र अथवा कुण्डलिनीस्तवः सम्पूर्णम् ॥
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