recent

Slide show

[people][slideshow]

Ad Code

Responsive Advertisement

JSON Variables

Total Pageviews

Blog Archive

Search This Blog

Fashion

3/Fashion/grid-small

Text Widget

Bonjour & Welcome

Tags

Contact Form






Contact Form

Name

Email *

Message *

Followers

Ticker

6/recent/ticker-posts

Slider

5/random/slider

Labels Cloud

Translate

Lorem Ipsum is simply dummy text of the printing and typesetting industry. Lorem Ipsum has been the industry's.

Pages

कर्मकाण्ड

Popular Posts

मंत्र महोदधि

मंत्र महोदधि                

मंत्रमहोदधि तरंग २५ (पच्चीसवें तरङ्ग) में  षट्‌कर्मों के समस्त विधान का निर्देश है।

मन्त्रमहोदधि तरङ्ग २५

मन्त्रमहोदधि तरङ्ग २५          

मन्त्रमहोदधि पञ्चविंशः तरङ्गः

मन्त्रमहोदधि - पञ्चविंश तरङ्ग

मंत्रमहोदधि तरंग २५          

मंत्रमहोदधि पच्चीसवां तरंग    

मन्त्रमहोदधिः             

अथ पञ्चविंशः तरङ्गः

अरित्र                  

शान्त्यादिषट्कर्मणामुपक्रमः

कर्माणि षडथो वक्ष्ये सिद्धिदानि प्रयोगतः ।

शान्तिर्वश्यं स्तम्भनं च द्वेषमुच्चाटमारणे ॥१॥

अब प्रयोग द्वारा सिद्धि प्रदान करने वाले षट्‍कर्मों को कहता हूँ -

१. शान्ति, २. वश्य, ३. स्तम्भन, ४. विद्वेषण ५. उच्चाटन और ६. मारण - ये तन्त्र शास्त्र में षट्‌कर्म कहे गए हैं ॥१॥

उक्तानीमानि कर्माणि शान्तीरोगादिनाशनम् ।

वश्यं वचनकारित्वं स्तम्भो वृत्तिनिरोधनम् ॥ २॥

द्वेषोऽप्रीतिः प्रीतिमतोरुच्चाटः स्थानतच्युतिः ।

मारणं प्राणहरणमिति षट्कर्मलक्षणम् ॥ ३॥

रोगादिनाश के उपाय को शान्ति कहते है । आज्ञाकारिता वश्यकर्म हैं । वृत्तियों का सर्वथा निरोध स्तम्भन है । परस्पर प्रीतिकारी मित्रों में विरोध उत्पन्न कराना विद्वेषण है । स्थान नीचे गिरा देना उच्चाटन है तथा प्राणवियोगानुकूल कर्म मारण है । षट्‌कर्मों के यही लक्षण है ॥२-३॥

कर्मणां देवतायेकोनविंशतिपदार्थकथनम्

देवतादेवतावर्णा ऋतुदिग्दिवसासनम् ।

विन्यासामण्डलं मुद्राक्षरं भूतोदयः समित् ॥ ४ ॥

मालाग्निर्लेखनं द्रव्यं कुण्डसुक्खुवलेखनीः ।

षट्कर्माणि प्रयुञ्जीत ज्ञात्वैतानि यथायथम् ॥ ५॥

अब षट्‌कर्मों में ज्ञेय १९ पदार्थो को कहते हैं -

१. देवता, २. देवताओं के वर्ण, ३. ऋतु, ४. दिशा, ५. दिन, ६. आसन, ७. विन्यास ८. मण्डल ९. मुद्रा, १०. अक्षर, ११. भूतोदय १२. समिधायें १३. माला, १४. अग्नि, १५. लेखनद्रव्य, १६. कुण्ड, १७. स्त्रुक्‍, १८. स्त्रुवा, तथा १९ लेखनी इन पदार्थों को भलीभाँति जानकारी कर षट्‌कर्मों में इनका प्रयोग करना चाहिए ॥४-५॥

देवतास्तासां वर्णा ऋतवो दिशश्च

रतिर्वाणीरमाज्येष्ठादुर्गाकाली च देवता ।

सितारुणहरिद्राभमिश्रश्यामलधूसराः ॥ ६ ॥

प्रपूजयेत कर्मादौ स्ववर्णैः कुसुमैः क्रमात् ।

अब क्रम प्राप्त (१) देवताओं और उनके (२) वर्णो को कहते हैं - १. रति, २. वाणी, ३. रमा, ४. ज्येष्ठा, ५. दुर्गा, एवं ६. काली यथाक्रम शान्ति आदि षट्‍कर्मों के देवता कहे गए हैं । १. श्वेत, २. अरुण. ३. हल्दी जैसा पीला, ४. मिश्रित, ५. श्याम (काला) एवं ६. धूसरित ये उक्त देवताओं के वर्ण हैं । प्रत्येक कर्म के आरम्भ में कर्म के देवता के अनुकूल पुष्पों से उनका पूजन करना चाहिए ॥६-७॥

ऋतुषट्कं वसन्ताधमहोरात्रं भवेत् क्रमात् ॥ ७॥

एकैकस्य ऋतोर्मानं घटिकादशकं मतम् ।

हेमन्तं च वसन्ताख्यं शिशिरं ग्रीष्मतो यदो ॥ ८॥

शरदं कर्मणां षट्के योजयेत् क्रमतः सुधीः ।

(३) एक अहोरात्र में प्रतिदिन वसन्तादि ६ ऋतुयें होती हैं । इनमें एक - एक ऋतु का मान १० - १० घटी माना गया है । १ हेमन्त, २. वसन्त, ३. शिशिर, ४. ग्रीष्म, ५. वर्षा और ६. शरद्‍ इन छः ऋतुओं का साधक को शान्ति आदि षट्‌कर्मों में उपयोग करना चाहिए । प्रतिदिन सूर्योदय से १० घटी (४ घण्टी) वसन्त, उसके आगे दश घटी शिशिर इत्यादि क्रम समझना चाहिए ॥७-९॥

शिवसोमेन्द्रनितिपवनाग्निदिशः क्रमात् ॥ ९ ॥

तत्तत्कर्माणि कुर्वीत जपन्स्तत्तद्यिशामुखः ।

 (४) दिशाएं - ईशान-उत्तर-पूर्व-निऋति वायव्य और आग्नेय ये शान्ति आदि कर्मों के लिए दिशायें कही गई हैं । अतः शान्ति आदि कर्मों के लिए उन उन दिशाओं की ओर मुख कर जपादि कार्य करना चाहिए ॥९-१०॥

कर्मानुरूपदिनासनादिकथनम्

शुक्लपक्षे द्वितीया च सप्तमी पञ्चमी तथा ॥ १० ॥

तृतीयाबुधजीवाभ्यां युता शान्तिविधौ मता ।

चतुर्थीनवमीषष्ठीत्रयोदशीतिथिस्तथा ॥ ११ ॥

जीवसोमयुता शस्ता वशीकरणकर्मणि ।

(५) अब षट्‌कर्मों में क्रियमाण तिथि एवं वार का निर्देश करते हैं

शुक्ल पक्ष की द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी एवं सप्तमी तिथि को बुधवार बृहस्पतिवार आये तो शान्तिकर्म करना चाहिए । शुक्लपक्ष की चतुर्थी, षष्ठी, नवमी एवं त्रयोदशी को सोमवार बृहस्पतिवार आने पर वशीकरण कर्म प्रशस्त होता है ॥१०-१२॥

एकादशी च दशमी नवमी चाष्टमी पुनः ॥ १२॥

शनैश्चरसितोपेता प्रोक्ता विद्वेषकर्मणि ।

विद्वेषण - में एकादशी, दशमी, नवमी और अष्टमी तिथि को शुक्र या शनिवार का दिन हो तो शुभावह कहा गया है ॥१२-१३॥

कृष्ण चतुर्दश्यष्टम्यौ भानुसूनुयुते यदि ॥ १३ ॥

उच्चाटनाख्यं कर्मात्र कर्तव्यं फलसिद्धये ।

भूताष्टम्यौ कृष्णगते अमावास्या तदन्तगा ॥ १४ ॥

भानुमन्दकुजोपेताः स्तम्भमारणयोः शुभाः ।

यदि कृष्णपक्ष की अष्टमी एवं चतुर्दशी को शनिवार हो तो फल सिद्धि के लिए उच्चाटन कर्म करना चाहिए । कृष्णपक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी एवं अमावस्या तथा शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को रवि, मङ्गल शनिवार, का दिन हो तो स्तम्भन और मारण कर्म सिद्ध हो जाता है ॥१३-१५॥

पदमं स्वस्तिकविकटे कुक्कुटं वज्रभद्रके ॥ १५ ॥

शान्त्यादिषु प्रकुर्वीत क्रमादासनमुत्तमम् ।

गोखड्गजफेरूणां मेषीमहिषयोस्तथा ॥ १६ ॥

कृत्तौ निवेश्य कुर्वीत जपं शान्त्यादिकर्मणि ।

(६) शान्ति आदि षट्‌कर्मों में क्रमशः पद्‌मासन, स्वस्तिकासन, विकटासन, कुक्कुटासन, वज्रासन एवं भद्रासन का उपयोग करना चाहिए । गाय, गैंडा, हाथी, सियार, भेड एवं भैसे के चमडे के आसन पर बैठ कर शान्ति आदि षट्‌कर्मों में जपादि कार्य करना चाहिए ॥१५-१७॥

विमर्श - पद्‌मासन का लक्षण - दोनों ऊरु के ऊपर दोनों पादतल को स्थापित कर व्युत्क्रम पूर्वक (हाथों को उलट कर) दोनों हाथों से दोनों हाथ के अंगूठे को बींध लेने का नाम पद्‌मासन कहा गया है ।

स्वस्तिकासन का लक्षण - पैर के दोनों जानु और दोनों ऊरु के बीच दोनों पादतल को अर्थात्‍ दक्षिण पद के जानु और ऊरु के मध्य वाम पादतल एवं वामपाद के जानु और ऊरु के मध दक्षिण पादतल को स्थापित कर शरीर को सीधे कर बैठने का नाम स्वस्तिकासन है ।

विकटासन का लक्षण - जानु और जंघाओ के बीच में दोनों हाथों को जब लाया जाए तो अभिचार प्रयोग में इसे विकटासन कहते हैं ।

कुक्कुटासन का लक्षण - पहले उत्कटासन करके फिर दोनों पैरों को एक साथ मिलावे । दोनों घुटनों के मध्य दोनों भुजाओं को रखना कुक्कुटासन कहा गया है ।

वज्रासन का लक्षण - पैर के परस्पर जानु प्रदेश पर एक दूसरे को स्थापित करे तथा हाथ की अंगुलियों को सीधे ऊपर की ओर उठाए रखे तो इस प्रकार के आसन को वज्रासन कहते हैं ।

भद्रासन का लक्षण - सीवनी (गुदा और लिंग के बीचो-बीच ऊपर जाने वाली एक रेखा जैसी पतली नाडी है) के दोनों तरफ दोनों पैर के गुल्फों को अर्थात्‍ वामपार्श्व में दक्षिणपाद के गुल्फ को एवं दक्षिण पार्श्व में वामपाद के गुल्फ को निश्चल रुप से स्थापित कर वृषण (अण्डकोश) के नीचे दोनों पैर की घुट्टी अर्थात्‍ वृषण के नीचे दाहिनी ओर वामपाद की घृट्टॆए तथा बाँई ओर दक्षिण पाद की घुट्टी स्थापित कर पूर्ववत्‍ दोनों हाथों से बींध लेने से भद्रासन हो जाता है ॥१५-१७॥

आसनान्येव संकीर्त्य दिन्यासः प्रोच्यतेऽधुना ॥ १७ ॥

विन्यासकथनम्

ग्रन्थनं च विदर्भाख्यः सम्पुटो रोधनं तथा ।

योगः पल्लव एते षड्विन्यासाः कर्मसु स्मृताः ॥ १८ ॥

प्रत्येकमेषां षण्णां तु लक्षणं प्रणिगद्यते ।

एको मन्त्रस्य वर्णः स्यात्ततो नामाक्षरं पुनः ॥ १९ ॥

(७) इस प्रकार आसनों को कह कर अब विन्यास कहता हूँ -

शान्ति आदि ६ कर्मों में क्रमशः १. ग्रन्थन, २. विदर्भ, ३. सम्पुट, ४. रोधन, ५. योग और ६. पल्लव ये ६ विन्यास कहे गए हैं । इन छहों को क्रमशः कहता हूँ ॥१७-१९॥

मन्त्रार्णो नामवर्णश्चेत्येवं ग्रन्थनमीरितम् ।

आदौ मन्त्राक्षरद्वन्द्वमेकं नामाक्षरं ततः ॥ २० ॥

एवं पुनः पुनः प्रोक्तो विदर्भो मन्त्रवित्तमैः ।

१. मन्त्र का एक अक्षर उसके बाद नाम का एक अक्षर फिर मन्त्र का एक अक्षर तदनन्तर नाम का एक अक्षर इस प्रकार मन्त्र और नाम के अक्षरों का ग्रन्थन करना ग्रन्थन विन्यास है ।

२. प्रारम्भ में मन्त्र के दो अक्षर उसके बाद नाम का एक अक्षर इस प्रकार मन्त्र और नाम के अक्षरों के बारम्बार विन्यास को मन्त्र शास्त्रों को जानने वाले विदर्भ विन्यास कहते हैं ॥२०-२१॥

मन्त्रमादौ समुच्चार्य ततो नामाखिलं पठेत् ॥ २१ ॥

अन्ते व्युत्क्रमतो मन्त्रमेष सम्पुटईरितः ।

आदिमध्यावसानेषु नाम्नो मन्त्रस्तु रोधनम् ॥ २२ ॥

३. पहले समग्र मन्त्र का उच्चारण, तदनन्तर समग्र नामाक्षरों का उच्चारण करना फिर इसके बाद विलोम क्रम से मन्त्र बोलना संपुट विन्यास कहा जाता है ।

४. नाम के आदि, मध्य और अन्त में मन्त्र का उच्चारण करना रोधन विन्यास कहा जाता है ॥२१-२२॥

नामान्ते तु मनुर्योगो मन्त्रान्ते नामपल्लवः ।

५. नाम के अन्त मन्त्र बोलना योग विन्यास होता है ।

६. मन्त्र के अन्त में नामोच्चारण को पल्लवविन्यास कहते हैं ॥२३॥

जलादिमण्डलकथनम्

अर्द्धचन्द्रनिभं पार्श्वद्वये पद्मद्वयाङ्कितम् ॥ २३ ॥

जलस्य मण्डलं प्रोक्तं प्रशस्तं शान्तिकर्मणि ।

त्रिकोणं स्वस्तिकोपेतं वश्ये वह्नस्तु मण्डलम् ॥ २४ ॥

चतुरस्र वज्रयुक्त स्तम्भे भूमेस्तु मण्डलम् ।

(८) अब मन्त्र के आठवें प्रकार, मण्डल का लक्षण कहते हैं -

दोनों ओर दो दो कमलों से युक्त अर्द्धचन्द्राकार चिन्ह को जल का मण्डल कहा गया है, यह शान्तिकर्म में प्रशस्त कहा गया है । त्रिकोण के भीतर उपयोग स्वस्तिक का चिन्ह रखा अग्नि का मण्डल माना गया है, वश्यकर्म में इसका उपयोग प्रशस्त कहा गया है । वज्र चिन्ह से युक्त चौकोर भूमि का मण्डल कहा गया है जो स्तम्भन कार्य के लिए प्रशस्त कहा गया है ॥२३-२५॥

वृत्तं दिवस्तद्विद्वेष बिन्दुषट्काङ्कितं तु तत् ॥ २५ ॥

वायुमण्डलमुच्चाटे मारणे वह्निमण्डलम् ।

आकाश मण्डल वृत्ताकार होता है । यह विद्वेषण कार्य में प्रशस्त है, छह बिन्दुओं से अंकित वृत्त वायु मण्डल कहा गया है, जो उच्चाटन क्रिया में प्रशस्त है । मारण में पूर्वोक्त वह्निमण्डल का उपयोग करना चाहिए ॥२५-२६॥

पद्मादिषण्मुद्राकथनम

सरोरुहं पाशगदे मुसलं कुलिशं त्वसिः ॥ २६ ॥

 षण्मुद्राः कर्मषट्के स्युरथहोमे निगद्यते ।

 (९) अब मण्डल का लक्षण कह कर मुद्रा के विषय में कहते हैं - शान्ति आदि षट्‍कर्मों में पदम्‍, पाश, गदा, मुशल, वज्र एवं खड्‌ग मुद्राओं का प्रदर्शन करना चाहिए । अब आगे होम की मुद्रायें कहेगें ॥२६-२७॥

विमर्श - (१) पद्‌ममुद्रा - दोनों हाथों को सम्मुख करके हथेलियां ऊपर करे, अंगुलियों को बन्द कर मुट्ठी बॉधे । अब दोनों अंगूठों को अंगुलियों के ऊपर से परस्पर स्पर्श कराये । यह पद्‌म मुद्रा है ।

(२) पाशमुद्रा - दोनों हाथ की मुटिठयां बांधकर बाईं तर्जनी को दाहिनी तर्जनी से बांधे । फिर दोनों तर्जनियों को अपने-अपने अंगूठों से दबाये । इसके बाद दाहिनी तर्जनी के अग्रभाग को कुछ अलग करने से पाश मुद्रा निष्पन्न होती है ।

(३) गदामुद्रा - दोनों हाथों की हथेलियों को मिला कर, फिर दोनों हाथ की अंगुलियां परस्पर एक दूसरे से ग्रथित करे । इसी स्थिति में मध्यमा उगलियों को मिलाकर सामने की ओर फैला दे । तब यह विष्णु को सन्तुष्ट करने वाली गदा मुद्राहोती है ।

(४) मुशलमुद्रा - दोनों हाथों की मुट्ठी बांधे फिर दाहिनी मुट्ठी को बायें पर रखने से मुशल मुद्रा बनती है ।

(५) वज्रमुद्रा - कनिष्ठा और अंगूठे को मिलाकर त्रिकोण बनाने को अशनि (वज्रमुद्रा) कहते हैं अर्थात्‍ कनिष्ठा और अंगूठे को मिलाकर प्रसारित कर त्रिक्‍ बनाना वज्रमुद्रा है ।

(६) खड्‌गमुद्रा - कनिष्ठिका और अनामिका उंगलियों को एक दूसरे के साथ बांधकर अंगूठों को उनसे मिलाए । शेष उंगलियों को एक साथ मिला कर फैला देने से खड्‌गमुद्रा निष्पन्न होती है ॥२६-२७॥

मृग्यादिहोममुद्राकथनम्

मृगी हंसी सूकरीति होमे मुद्रात्रयं मतम् ॥ २७॥

मध्यमानामिकागुष्ठयोगे. मुद्रा मृगी मता ।

हंसीकनिष्ठाहीनानां सर्वासां योजने मता ॥ २८ ॥

मृगी, हंसी एवं सूकरी ये तीन होम की मुद्रायें हैं । मध्यमा अनामिका और अंगूठे के योग से मृगी मुद्रा, कनिष्ठा को छोड कर शेष सभी अङ्गुलियों का योग करने से हंसी मुद्रा और हाथ को संकुचित कर लेने से सूकरी मुद्रा बनती है । इस प्रकार इन तीन मुद्राओं का लक्षण कहा गया है । शान्ति कार्य में मृगी वश्य में हंसी तथा शेष स्तम्भनादि कार्यों में सूकरी मुद्रा का प्रयोग किया जाता है ॥२७-२८॥

सूकरीकरसङ्कोचे मुद्रा लक्षणमीरितम् ।

शान्तो वश्ये मृगी हंसी स्तम्भनादिषु सूकरी ॥ २९ ॥

कर्मानुरूपवर्णानां कथनम्

चन्द्रतोयधराकाशपवनानलवर्णकाः ।

षट्सु कर्मसु यन्त्रस्य बीजान्युक्तानि मन्त्रिभिः ॥ ३० ॥

(१०) अक्षर - शान्ति आदि षट्‌कर्मों में यन्त्र पर चन्द्र, जल, धरा, आकाश, पवन, और अनल वर्णो के बीजाक्षरों का क्रमशः लेखन करना चाहिए । ऐसा मन्त्र शास्त्र के विद्वानों ने कहा हैं ॥३०॥

स्वराः सठौ चन्द्रवर्णा भूतवर्णा उदीरिताः।

चन्द्रार्णहीनास्ते ग्राह्या वशीकृत्यादिकर्मणि ॥ ३१॥

सोलह, स्वर, स एवं ठ ये अठारह चन्द्र वर्ण के बीजाक्षर हैं, चन्द्रवर्ण से हीन पञ्चभूतो के अक्षर जलादि तत्वों के बीजाक्षर वश्यादि कर्मों के लिए उपयुक्त है । कुछ आचार्यो ने स व ल ह य एवं र को क्रमशः चन्द्र जल, भूमि, आकाश और वायु एवं का बीजाक्षर कहा है ॥३१॥

केचित् सवलहान्यं रमाहुश्चन्द्रादिवर्णकान् ।

जातिरूपवर्णकथनम्

शान्त्यादिकर्मसु ज्ञेया जातयः षडभूः क्रमात् ॥ ३२ ।।

नमः स्वाहा वषड् वौषट् हुं फट् षण्मन्त्रवित्तमैः ।

शान्ति आदि षट्‌कर्मों में मन्त्रशास्त्रज्ञों ने क्रमशः नमः, स्वाहा, वषट्‍, वौषट, हुम्‍ एवं फट्‍ इन छः को जातित्वेन स्वीकार किया है ॥३२॥

भूतोदयकथनम्

नासापुटद्वयाधस्ताद्यदाप्राणगतिर्भवेत् ॥३३॥

तोयोदयस्तथा ज्ञेयः शान्तिकर्मणि सिद्धिदः ।

नासादण्डाश्रितगतौ प्राणे स्तम्भे धरोदयः ॥ ३४ ॥

पुटमध्यगतौ तस्मिन्द्वेषे व्योमोदयः शुभः ।

पुटोपरिष्टाद्गमने प्राणे स्यात्पावकोदयः ॥ ३५ ।।

 (११) अब मन्त्र के ग्यारहवें प्रकार, भूतों का उदय कहते हैं - जब दोनों नासापुटों के नीचे तक श्वास चलता हो तब जलतत्त्व का उदय समझना चाहिए, जो शान्ति कर्म में सिद्धिदायक होता है । नाक के मध्य में सीधे दण्ड की तरह श्वास गति होने पर पृथ्वीतत्त्व का उदय समझना चाहिए, यह स्तम्भन काम में सिद्धिदायक होता है । नासा छिद्रों के मध्य में श्वास की गति होने पर आकाशतत्त्व का उदय समझना चाहिए, जो विद्वेषण में सिद्धिदायक है । नासापुटों के ऊपर श्वास की गति होने पर अग्नितत्त्व का उदय समझना चाहिए ॥३३-३५॥

तदा कर्मद्वये सिद्धिर्मारणे च वशीकृतौ ।

प्राणेतिर्यग्गतौ ज्ञेय उच्चाटे मारुतोदयः ॥ ३६ ॥

ऐसे समय में मारण एवं वशीकरण दोनों कार्यो में सफलता मिलती है । श्वास की गति तिर्यक्‍ (तिरछी) होने पर वायुतत्त्व का उदय समझना चाहिए जो उच्चाटन क्रिया में शुभावह होता है ॥३६॥

समित्कथनम्

दूर्वायाः समिधः शान्तौ गोघृतेन समन्विताः ।

दाडिमप्रसुवो होमे वश्येजाघृतसंयुताः ॥ ३७॥

मेषीघृताक्ताः समिधः स्तम्भे राजतरूद्भवाः।

धत्तूरसमिधो द्वेषे अतसीतैलसंयुतः ॥ ३८ ॥

चूतजाः कटुतैलाक्ता उच्चाटनविधौ मताः।

कटुतैलयुताः शस्ता मारणे खदिरोद्भवाः ॥ ३९ ॥

 (१२) अब मन्त्र के बारहवें प्रकार, विभिन्न समिधाओं को कहते हैं - शान्ति कार्य में गोघृत मिश्रित दूर्वा से, वश्य में बकरी के घी से मिश्रित अनार की समिधा से स्तम्भन में भेंडी का घी मिला कर अमलतास वृक्ष की समिधा से, विद्वेषण में अतसी के तेल मिश्रित धतूरे की समिधा से, उच्चाटन में सरसों के तेल से मिश्रित आम की वृक्ष की समिधा से तथा मारण में कटुतैल मिश्रित खैर की लकडी की समिधा से होम करना चाहिए ॥३७-३९॥

मालाकथनम्

शंखजा पद्मबीजोत्था निम्बारिष्टफलोद्भवा ।

प्रेतदन्तभवा वाहरदोत्था खरदन्तजा ॥ ४० ॥

 (१३) अब तेरहवें प्रकार में माला की विधि कहते हैं - शान्ति आदि षट्‌कर्मों में शंख की शान्ति में, कमवलगट्टा की वश्य में, नींबू की स्तम्भन में, नीम की विद्वेषण में, घोडे के दाँत उच्चाटन में तथा गदहे के दाँत की जप माला मारण कर्म में उपयोग करना चाहिए ॥४०॥

जपमालाः क्रमाज्ञयाः शान्तिमुख्येषु कर्मसु ।

मालागणनाप्रकारः

मध्यमायां स्थितां माला ज्येष्ठेनावर्तयेत्सुधीः ॥ ४१॥

शान्तौ वश्ये तथा पुष्टौ भोगमोक्षार्थके जपे ।

अनामांगुष्ठयोगेन स्तम्भनादौ जपेत्सुधीः ॥ ४२ ॥

तजन्यङ्गुष्ठयोगेन द्वेषोच्चाटनयोः पुनः ।

कनिष्ठागुष्ठसंयोगान्मारणे प्रजपेत्सुधीः ॥ ४३ ॥

शान्ति, वश्य, पुष्टि, भोग एवं मोक्ष के कर्मों में मध्यमा में स्थित माला को अंगूठे से घुमाना चाहिए । स्तम्भनादि कार्यो के लिए बुद्धिमान साधक को अनामिका एवं अंगूठे से जप करना चाहिए । विद्वेषण एवं उच्चाटन में तर्जनी एवं अंगूठे से जप करना चाहिए तथा मारण में कनिष्ठिका एवं अंगूठे से जप करने का विधान है ॥४१-४३॥

मणिसंख्याकथनम्

अष्टोत्तरशतं संख्यातदद्ध च तदर्द्धकम् ।

मणीनां शुभकार्ये स्यात्तिथिसंख्याभिचारके ॥ ४४ ॥

अब प्रसङ्ग प्राप्त माला की मणियों की गणना कहते हैं - शुभकार्य के लिए माला में मणियों की संख्या १०८, ५४ या २७ कही गई है, किन्तु अभिचार (मारण) कर्म मे मणियों की संख्या १५ कही गई है ॥४४॥

शान्त्यादिकर्मणि अग्निकथनम्

शान्तिर्वश्य लौकिकाग्नौ स्तम्भनं वटजेऽनले ।

द्वेषः कलितरूत्पन्ने शेषे पितृवनस्थिते ॥ ४५ ॥

 (१४) अब चौदहवें प्रकार वाले अग्नि के विषय में कहते हैं -

शान्ति और वशीकरण कर्म में लौकिक अग्नि में, स्तम्भन में बरगद के काठ की बनी अग्नि में, विद्वेषण में बहेडे की लकडी की अग्नि में तथा उच्चाटन एवं मारण के प्रयोगों में श्मशानाग्नि में होम का विधान है ॥४५॥

प्रसंगात् काष्ठकथनम्

शुभे कर्मणि बिल्वार्कपलाशक्षीरवृक्षजैः ।

अशुभे विषवृक्षाक्षैर्निम्बधत्तूरशेलुजैः ॥ ४६॥

अग्नि प्रज्वलित करने के लिए समिधाओं के विषय में कहते हैं - शुभ कार्यो में वेल, आक, पलाश एवं दुधारु वृक्षों की समिधाओं से तथा अशुभ कर्मों में विषकृत कुचिला, बहेडा, नीबू, धतूरा एवं लिसोडे की समिधाओं से मान्त्रिक को अग्नि प्रज्वलित करनी चाहिए ॥४६॥

काष्ठः प्रदीपयेदग्निं होमकर्मणि मन्त्रवित् ।

अग्निजिह्वापूजनम्

वह्नर्जिवां सुप्रभाख्यां शान्तिकर्मणि पूजयेत् ॥ ४७॥

वश्य कार्ये हि रक्ताख्या स्तम्भने कनकाभिधाम् ।

विद्वेषे गगनां जिह्वामुच्चाटेप्यतिरक्तिकाम् ॥ ४८ ॥

कृष्णां तु मारणे चार्चेद् बहुरूपां तु सर्वतः।

अब अग्नि जिह्वाओं का तत्तत्कर्मों में पूजन का विधान कहते हैं - शान्ति कर्म में अग्नि की सुप्रभा संज्ञक जिह्वा का, वश्य में रक्तनामक जिह्वा का, स्तम्भन में हिरण्या नामक जिह्वा का,विद्वेषण में गगना नामक जिह्वा का, उच्चाटन में अतिरिक्तिका जिह्वा का तथा मारण में कृष्णा नामक अग्नि जिह्वा और सभी जगह बहुरुपा नामक अग्निजिह्वा का पूजन करना चाहिए ॥४७-४९॥

विप्रभोजनसंख्याकथनम्

भोज्ये संख्याविशेषोऽपि ज्ञेयः शान्त्यादिकर्मसु ॥ ४९ ॥

शान्तौ वश्ये भोजयेत होमाद्विप्रान दशांशतः।

शान्त्यादि कर्मों में ब्राह्मण भोजन के विषय में कुछ विशेषतायें हैं । शान्ति एवं वश्य में होम के दशांश संख्या मे ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए, यह उत्तम पक्ष माना गया हैं ॥४९-५०॥

उत्तमं तद्भवेत्कर्म तत्त्वांशेन तु मध्यमम् ॥ ५० ॥

होमाच्छतांशतो विप्रभोजनं त्वधमं तु तत् ।

शान्तेर्द्विगुणितं विप्रभोजनं स्तम्भने मतम् ॥ ५१॥

होम की संख्या के पच्चीसवें अंश की संख्या में ब्राह्मण भोजन मध्यम तथा शतांश संख्या में ब्राह्मण भोजन अधम पक्ष कहा गया है । स्तम्भन कार्य में शान्ति की संख्या से दूने ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए । इसी प्रकार विद्वेषण एवं उच्चाटन में शान्ति संख्या से तीन गुने ब्राह्मणों को तथा मारण में संख्या के तुल्य ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए ॥५०-५१॥

त्रिगुणं द्वेषणोच्चाटे मारणे होमसम्मितम् ।

विप्रलक्षणम्

अतिशुद्धकुलोत्पन्नाः साङ्गवेदविदोऽमलाः ॥ ५२॥

सदाचाररता विप्रा भोज्या भोज्यैर्मनोहरैः ।

पूज्यास्ते देवताबुद्ध्या नमस्कार्याः पुनः पुनः ॥ ५३॥

सन्तोष्या मधुरैर्वाक्यैर्हिरण्यादिप्रदानतः ।

अचिराल्लभतेऽभीष्टं गृहीतायां तदाशिषि ॥ ५४॥

एनोभिचारकर्मोत्थं नश्यतिद्विजवाक्यतः ।

अब भोजनार्ह ब्राह्मणों का स्वरुप कहते हैं -

अत्यन्त विशुद्ध कुलों में उत्पन्न साङ्‌गवेद के विद्वान पवित्र निर्मल अन्तःकरण वाले सदाचार परायण ब्राह्मणों को विविध प्रकार के मनोहर भोज्य पदार्थो से भोजन कराना चाहिए । उनमें देवबुद्धि रखकर पूजन करना चाहिए तथा बारम्बार उन्हे प्रणाम करना चाहिए । मधुर वाणी से तथा सुर्वणदि दे दान से उन्हे सन्तुष्ट करना चाहिए । इस प्रकार के ब्राह्मणों द्वारा दिए गए आशीर्वाद के प्राप्त करने से साधक के समस्त अभिचारादि पाप नष्ट हो जाते हैं, तथा शीघ्र ही उसे मनोऽभिलषित पदार्थो की प्राप्ति हो जाती है ॥५२-५५॥

लेखनद्रव्यकथनम्

चन्दनं रोचनारात्रिर्गृहधूमश्चिताभवः ॥ ५५ ॥

अङ्गारोऽष्टविषाणीति शान्त्यादौ यन्त्रलेखने ।

पूर्वोक्तं लेखनद्रव्यं गृह्णीयात्तदपि ध्रुवम् ॥ ५६ ॥

विषष्टककथनम्

पिप्पलीमरिच शुण्ठी श्येनविष्ठा च चित्रकः ।

गृहधूमोन्मत्तरसो लवणं च विषाष्टकम् ॥ ५७ ॥

 (१५) अब लेखन द्रव्य के विषय में कहते हैं -

चन्दन, गोरोचन, हल्दी, गृहधूम, चिता का अङ्गार तथा विषाष्टक यन्त्र लेखन के द्रव्य कहे गए हैं । यन्त्र तरङ्ग (२०) में पूर्वोक्त द्रव्यादि भी तत्तत्कामनाओं में लेखन द्रव्य कहे गए हैं । वे भी ग्राह्य हैं । १. पिप्पली, २. मिर्च, ३. सोंठ, ४. बाज पक्षी की विष्टा, ५. चित्रक (अण्डी), ६. गृहधूम, ७. धतूरे का रस तथा ८. लवण ये ८ वस्तुयें विषाष्टक कही गई हैं ॥५५-५७॥

भूर्जपत्रादिलेखनाधारकम्

शान्तौ वश्ये लिखेद् भूर्जे स्तम्भने द्वीपिचर्मणि ।

खरचर्मणि विद्वेषे उच्चाटे ध्वजवाससि ॥ ५८॥

नरास्थिनि लिखेद्यन्त्र मारणे मन्त्रवित्तमः ।

ये त्वाधाराः स्मृता यन्त्रतरङ्गे तेऽपि सम्मताः ॥ ५९ ॥

शान्ति और वश्य कर्म में भोज पत्र पर, स्तम्भन में व्याघ्र चर्म पर, विद्वेष में गदहे की खाल पर, उच्चाटन में ध्वज वस्त्र पर, और मारण में मनुष्य की हड्डी पर, मान्त्रिक को मन्त्र लिखना चाहिए । यत्र तरङ्ग (२०) में विविध प्रयोगों में यन्त्र लिखने के जो जो आधार कहे गए हैं वे भी यन्त्राधार में ग्राह्य हैं ॥५८-५९॥

कुण्डकथनम्

वृत्तं पद्म चतुष्कोणं त्रिषट्कोणं दलेन्दुवत् ।

तोयेशसोमशक्राणां या तु वाय्वोर्यमस्य च ॥ ६० ।।

 (१६) अब मन्त्र के १६वें प्रकार, कुण्ड के विषय में कहते हैं -

शान्ति आदि षट्‌कर्मों में क्रमशः वृत्तकार, पद्‌माकार, चतुरस्त्र, त्रिकोण, षट्‌कोण और अर्द्धचन्द्रकार कुण्ड का निर्माण पश्चिम उत्तर-पूर्व नैऋत्य वायव्य और दक्षिण दिशा में करना चाहिए ॥६०॥

आशासु क्रमतः कुण्डं शान्तिमुख्येषु कर्मसु ।

स्रुकस्रुवादिकथनम्

सौवर्णी यज्ञवृक्षोत्थौ लुक्सुबौ शान्तिवश्ययोः ॥ ६१ ॥

(१७) स्त्रुवा और स्त्रुची - शान्ति में सुवर्ण की एवं वश्य में यज्ञवृक्ष की स्त्रुवा और स्त्रुची बनानी चाहिए । शेष स्तम्भनादि कार्यों में लौह की स्त्रुवा और स्त्रुची बनानी चाहिए ॥६१॥

स्तम्भनादिषु कार्येषु स्मृतौ लोहमयौ हि तौ ।

लेखनीकथनम्

हेमजा रूप्यजा जाती सम्भवा लेखनी शुभे ॥ ६२ ॥

वश्ये दूर्वाकुरोत्पन्नास्तम्भनेऽगस्त्यवृक्षजा ।

राजवृक्षभवा वा स्याद्विद्वेषे तु करजजा ॥ ६३॥

शुभे कर्मणि रम्याहे लेखनी रचयेत्सुधीः ।

बिभीतकोत्थितोच्चाटे मारणे तु पुमस्थिजा ॥ ६४ ॥

रिक्तातिथौ कुजदिने विष्टौ तामशुभे पुनः ।

(१८) अब मन्त्र के उन्नीसवें प्रकार, लेखनी के विषय में कहते हैं -

शान्ति कर्म में सोने, चांदी, अथवा चमेली की, वश्य कर्म में दूर्वा की, स्तम्भन में अगस्त्य वृक्ष की अथवा अमलतास की, विद्वेषण में करञ्ज की, उच्चाटन में बहेडे की तथा मारण में मनुष्य की हड्डी की लेखनी से यन्त्र लिखना चाहिए । शुभ कर्म में साधक को शुभमुहूर्त में अशुभ कार्य में रिक्ता (चौथ, नवमी, चतुर्दशी) तिथियों में मङ्गलवार के दिन तथा विष्टी (भद्रा) में लेखनी का निर्माण करना चाहिए ॥६२-६५॥

शान्त्यादौ भक्ष्यान्नादिकथनम्

भक्ष्यं च तर्पणं द्रव्यं तत्पात्रमथ कीर्त्यते ॥ ६५॥

शान्तौ वश्ये हविष्यान्न स्तम्भने परमान्नकम् ।

माषामुद्गाश्च विद्वषे गोधूमाभ्रशने स्थलात् ॥ ६६ ॥

मसूरान्नं तथा श्यामा अजादुग्धोत्थपायसम् ।

मारणे प्रोदितं भक्ष्य मन्त्रिणां कर्मकुर्वताम् ॥ ६७ ॥

अब उक्तकर्मों में भक्ष्यपदार्थों को, तर्पण द्रव्यों को तथा उपयोग में लाये जाने योग्य पात्रों के विषय में कहता हूँ -

शान्ति और वश्य कर्म करते समय हविष्यान्न, स्तम्भन करते समय खीर, विद्वेषण करते समय उडद एवं मूँग, उच्चाटन करते समय गेहूँ तथा मारण करते समय मान्त्रिक को मसूर एवं काली बकरी के दूध में बने खीर का भोजन करना चाहिए ॥६५-६७॥

शान्त्यादौ तर्पणजलपात्रकथनम्

शान्तौ वश्ये हरिद्राक्तं जलं तर्पण ईरितम् ।

शान्ति कर्म में तथा वश्य कर्म में हल्दी मिला जल, स्तम्भन और मारण कर्म में मिर्च मिला कुछ गुणगुना जल तथा विद्वेषण एवं उच्चाटन में भेड़ के खून से कमकश्रत जल तर्पण द्रव्य कहा गया है ॥६८॥

मरिचाचं कवोष्णं तत्स्तम्भने मारणे तथा ॥ ६८ ॥

मेषरक्तान्वितं तोयं विद्वेषोच्चाटयोर्मतम् ।

स्वर्णपात्रं तर्पणेस्याच्छान्तौ वश्ये च कर्मणि ॥ ६९ ॥

स्तम्भने मृत्तिकापात्रं विद्वेषे खदिरोद्भवम् ।

लोहनिर्मितमुच्चाटे कुक्कुडाण्डं तु मारणे ॥ ७० ॥

आसनप्रकार:

मृद्वासने समासीनः शान्तौ वश्ये प्रतर्पयेत् ।

शान्ति एवं वश्य कर्म में सोने के पात्र में, स्तम्भन में मिट्टी के पात्र में, विद्वेषण में खैर के पात्र में, उचाटन में लोहे के पात्र में तथा मारण में मुर्गी के अण्डे में तर्पण करना चाहिए ॥६८-७१॥

जानुभ्यामुत्थितः स्तम्भे द्वेषादावेकपास्थितः ॥ ७१ ॥

शान्ति एवं वश्य कर्म में मृदु आसन पर बैठकर तर्पण करना चाहिए । स्तम्भन में घुटनों से उठकर तथा विद्वेषण आदि में एक पैर से खडे हो कर तर्पण करना चाहिए ॥७१॥

षट्कर्मणां विधिः प्रोक्त एवं मन्त्रज्ञतुष्टये ।

सम्यक्कृत्वा न्यासजातमात्मरक्षां विधाय च ॥ ७२ ॥

हमने मन्त्र साधकों के सन्तोष के लिए षट्‍कर्मों (शान्ति, वश्य, स्तम्भन, विद्वेषण उच्चाटन और मारण) की विधि बताई है । सर्वप्रथम विधिवत्‍ न्यास  द्वारा आत्मरक्षा करने के बाद ही काम्य कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिए । अन्यथा हानि और असफलता ही प्राप्त होती है ॥७२॥

काम्यकर्मोपसंहारकथनम्

काम्यं कर्मप्रकर्तव्यमन्यथाभिभवो भवेत् ।

शुभं वाप्यशुभं वापि काम्यं कर्म करोति यः ॥ ७३ ॥

तस्यारित्वं व्रजेन्मन्त्रो न तस्मात्तत्परो भवेत् ।

जो व्यक्ति शुभ अथवा अशुभ किसी भी प्रकार का काम्य कर्म करता है मन्त्र उसका शत्रु बन जाता है इसलिए काम्यकर्म न करे । यही उत्तम है ॥७३-७४॥

काम्यकर्महेतुकथनम्

विषयासक्तचित्तानां सन्तोषाय प्रकाशितम् ॥ ७४ ॥

पूर्वाचार्योदितं काम्यं कर्मनैतद्धितावहम् ।

काम्यकर्मप्रसक्तानां तावन्मानं भवेत्फलम् ॥ ७५॥

अब प्रश्न होता है कि यदि काम्य कर्म करने का निषेध है तो इतनी बडी विधियुक्त पुस्तक के निर्माण का क्या हेतु है? इसका उत्तर देते हैं - विषयासक्त चित्त वालों के सन्तोष के लिए प्राचीन आचार्यों ने काम्य कर्म की विधि का प्रतिपादन किया है किन्तु यह हितकारी नहीं है । काम्य कर्म वालों के लिए केवल कामना सिद्धि मात्र फल की प्राप्ति होती है ॥७४-७५॥

निष्कामभजने फलकथनम्

निष्काम भजतां देवमखिलाभीष्टसिद्धयः ।

प्रतिमन्त्रं समुदिता ये प्रयोगाः सुखाप्तये ।

तदा शक्ति विहायैव निष्कामो देवतां भजेत ॥ ७६ ॥

किन्तु निष्काम भाव से देवताओं की उपासना करने वालों की सारी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है । केवल सुख प्राप्ति के लिए प्रत्येक मन्त्रों के जितने भी प्रयोग बतलाये गए हैं उनकी आसक्ति का त्याग कर निष्काम रुप से देवता की पूजा करनी चाहिए ॥७६॥

वेदोक्तकर्मकरणस्योत्कृष्टता

वेदे काण्डत्रयं प्रोक्तं कर्मोपासनबोधनम् ।

साधनं काण्डयुग्मोक्तं तृतीये साध्यमीरितम् ॥ ७७ ॥

तस्माद्वेदोदितं कुर्यादुपासीत च देवताः ।

शुद्धान्तःकरणस्तेन लभते ज्ञानमुत्तमम् ॥ ७८ ॥

कार्यकारणसङ्घातं प्रविष्टश्चेतनात्मकः।

जीवो ब्रह्मैव सम्पूर्णमिति ज्ञात्वा विमुच्यते ॥ ७९ ॥

मनुष्यदेहं सम्प्राप्य उपासीत च देवताः।

यो न मुच्येत संसारान्महापापयुतो हि सः॥ ८० ॥

आत्मज्ञानाप्तये तस्माद्यतितव्यं नरोत्तमैः ।

कर्मभिर्देवसेवाभिः कामाधरिगणक्षयात् ॥ ८१॥

वेदों में कर्मकाण्ड, उपासना और ज्ञान तीन काण्ड बतलाये गए हैं । ज्योतिष्टोमेन यजेत्‍ यह कर्मकाण्ड है, सूर्यो ब्रह्मेत्युपासीतयह उपासना है, ये दोनों काण्ड ज्ञान के साधन हैं अयमात्मा ब्रह्म यह ज्ञान है जो स्वयं में साध्य है । यही उक्त दोनों में ही वेदोक्त मार्ग के अनुसार प्रवृत्त होना चाहिए । देवता की उपासना से अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है । जिससे उत्तम ज्ञान की प्राप्ति होती है । कार्यकारणसंघात शरीर में प्रविष्ट हुआ जीव ही परब्रह्म है । इसी ज्ञान से साधक मुक्त हो जाता है । अतः मनुष्य देह प्राप्त कर देवताओं की उपासना से मुक्ति प्राप्त कर लेनी चाहिए । जो मनुष्य देह प्राप्त कर संसार बन्धन से मुक्त नही होता, वही महापापी है ॥८०॥

इसलिए उपासना और कर्म से काम-क्रोधादि शत्रुओं का नाश कर आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए सत्पुरुषों को सतत्‍ प्रयत्न करते रहना चाहिए ॥७७-८१॥

देवतोपास्तिं कुर्वता भविष्यद्विचार्य प्रवर्तितव्यम्

चिकीर्षुर्देवतोपास्तिमादौ भावि विचारयेत् ।

स्नानदानादिकं कृत्वा स्मृत्वा हरिपदाम्बुजम् ॥ ८२ ॥

शिवं मनसि ध्यात्वा निद्रां कुर्वतो स्वप्नप्रकारः

शयीत कुशशय्यायां प्रार्थयेवृषभध्वजम् ।

भगवन् देवदेवेश शूलभृद् वृषवाहन ॥ ८३॥

इष्टानिष्टे समाचक्ष्व मम सुप्तस्य शाश्वत ।

नमोऽजाय त्रिनेत्राय पिङ्गलाय महात्मने ॥ ८४॥

वामाय विश्वरूपाय स्वप्नाधिपतये नमः ।

स्वप्ने कथय मे तथ्यं सर्वकार्येष्वशेषतः ॥ ८५॥

क्रियासिद्धि विधास्यामि त्वत्प्रसादान्महेश्वर ।

एभिर्मन्त्रैः शिवं प्रार्थ्य निद्रां कुर्यान्निराकुलः ॥ ८६ ॥

देवता की उपासना करने वाले को अपना भविष्य विचार कर उसमें प्रवृत्त होना चाहिए । उसकी विधि इस प्रकार है -

स्नान और दान आदि करने के बाद भगवान्‍ विष्णु के चरण कमलों का ध्यान कर कुश की शय्या पर सोना चाहिए । तथा भगवान शिव से भगवान देवदेवेश...... त्वत्प्रसादान्महेश्वर पर्यन्त तीन श्लोकों से (द्र० २५. ८३. ८६) से प्रार्थना कर निश्चिन्त हो सो जाना चाहिए ॥८२-८६॥

स्वप्नं दृष्टं निशि प्रातर्गुरवे विनिवेदयेत् ।

तमन्तरेण मन्त्रज्ञः स्वयं स्वप्नं विचारयेत् ॥ ८७॥

प्रातःकाल उठने पर देखा हुआ स्वप्न अपने गुरुदेव से बतला देना चाहिए । उनके न होने पर स्वयं साधक को अपने स्वप्न के भविष्य के विषय में विचार कर लेना चाहिए ॥८७॥

शुभस्वप्नकथनम्

लिङ्ग चन्द्रार्कयोर्बिम्बं भारती जान्हवीं गुरुम् ।

रक्ताब्धितरणं युद्धे जयोऽनलसमर्चनम् ॥ ८८॥

शिखिहंसरथांगाढ्ये रथे स्नानं च मोहनम् ।

आरोहणं सारसस्य धरालाभश्च निम्नगा ॥ ८९ ॥

प्रासादः स्यन्दनः पद्म छत्रं कन्या द्रुमःफली ।

नागो दीपो हयः पुष्पं वृषभोश्वश्च पर्वतः ॥ ९० ॥

सुराघटो ग्रहास्तारा नारी सूर्योदयोप्सराः ।

हर्म्यशैलविमानानामारोहो गगने गमः ॥ ९१॥

मद्यमांसादनं विष्ठालेपो रुधिरसेचनम् ।

दध्योदनादनं राज्याभिषेको गोवृषध्वजाः ॥ ९२ ॥

सिंहसिंहासनं शङ्खो वादित्रं रोचनादधि ।

चन्दनं दर्पणश्चैषां स्वप्ने संदर्शनं शुभम् ॥ ९३॥

अब शुभाशुभ स्वप्न के विषय में कहते हैं -

लिङ्ग चन्द्र और सूर्यकर बिम्ब, सरस्वती, गङ्गा, गुरु, लालवर्ण वाले समुद्र में तैरना, युद्ध में विजय, अग्नि का अर्चन, मयूरयुक्त, हंसयुक्त अथवा चक्रयुक्त रथ पर बैठना, स्नान, संभोग, सारस की सवारी, भूमिलाभ, नदी, ऊचे ऊचे महल, रथ, कमल, छत्र, कन्या, फलवान्‍ वृक्ष, सर्प अथवा हाथी, दीया, घोडा, पुष्प, वृषभ और अश्व, पर्वत, शराब का घडा, ग्रह नक्षत्र, स्त्री, उदीयमान सूर्य अप्सराओं का दर्शन, लिपे पोते स्वच्छ मकान पर, पहाड पर तथा विमान पर चढना, आकाश यात्रा, मद्य पीना, मांस खाना, विष्टा का लेप, खून से स्नान, दही भात का भोजन, राज्यभिषेक होना (राज्य प्राप्ति), गाय, बैल और ध्वजा का दर्शन, सिंह और सिंहासन, शंख बाजा, गोरोचन, दधि, चन्दन तथा दर्पण इनका स्वप्न में दिखलायी पडना शुभावह कहा गया है ॥८८-९३॥

अशुभस्वप्नकथनम्

तैलाभ्यक्तः कृष्णवर्णो नग्नो ना गर्तवायसौ ।

शुष्ककण्टकिवृक्षश्च चाण्डालो दीर्घकन्धरः ॥ ९४ ॥

प्रासादस्तलहीनश्च नैते स्वप्ने शुभावहाः ।

तैल की मालिश किए पुरुष का, काला अथवा नग्न व्यक्ति का, गङ्गा, कौआ, सूखा वृक्ष, काँटेदार वृक्ष, चाण्डाल बडे कन्धे वाला पुरुष, तल (छत) रहित पक्का महल इनका स्वप्न में दिखलाई पडना अशुभ है ॥९४-९५॥

शान्तिं कुर्वीत दुःस्वप्ने जपेन्मन्त्रमनन्यधीः ॥ ९५॥

अब्दत्रिकं जपं तस्य कुर्वतो विघ्नसम्भवः ।

विघ्नसङ्घमनादृत्य तदा जपपरो भवेत् ॥ ९६ ॥

सिद्धौ विश्वस्तचित्तः संस्तुरीयेऽब्दे ससिद्धिभाक् ।

दुःस्वप्न की शात्नि के उपाय - दुःस्वप्न दिखाई पडने पर उसकी शान्ति करानी चाहिए । तदनन्तर एकाग्रमन से इष्टदेव के मन्त्र को जप करना चाहिए । ३ वर्ष तक जप करने वाले को विघ्न की संभावना रहती है, अतः विघ्नसमूह की परवाह न कर अपने जप में तत्पर रहना चाहिए । अपने चित्त में विश्वस्त रहने वाला सिद्धपुरुष चौथे वर्ष में अवश्य ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥९५-९७॥

मन्त्रसिद्धेर्लक्षणम्

मनःप्रसादः सन्तोषः श्रवणं दुन्दुभिध्वनेः ॥ ९७ ॥

गीतस्य तालशब्दस्य गन्धर्वाणां समीक्षणम् ।

स्वतेजसः सूर्यसाम्येक्षणं निद्राक्षुधाजपः ॥ ९८ ॥

रम्यतारोग्यगाम्भीर्यमभावक्रोधलोभयोः ।

एवमादीनि चिह्नानि यदा पश्यति मन्त्रवित् ॥ ९९ ॥

सिद्धि मन्त्रस्य जानीयाद् देवतायाः प्रसन्नताम् ।

अब मन्त्र सिद्धि का लक्षण कहते हैं -

मन में प्रसन्नता आत्मसन्तोष, नगाड़े की ध्वनि, गाने की ध्वनि, ताल की ध्वनि, गन्धर्वो का दर्शन, अपने तेज को सूर्य के समान देखना, निद्रा, क्षुधा, जप करना, शरीर का सौन्दर्य बढना, आरोग्य होना, गाम्भीर्य, क्रोध और लोभ का अपने में सर्वथा अभाव, इत्यादि चिन्ह जब साधक को दिखाई पडे तो मन्त्र की सिद्धि तथा देवता की प्रसन्नता समझनी चाहिए ॥९७-१००॥

लब्धज्ञानिनः कृतार्थताकथनम्

ततो जपेधिकं यत्नं प्रकुर्याज्ज्ञानलब्धये ॥ १०० ॥

लब्धज्ञानः कृतार्थः स्यात्संसारात्प्रतिमुच्यते ।

ज्ञात्वात्मानं परं ब्रह्मवेदान्तैः प्रतिपादितम् ॥ १०१॥

अब मन्त्र सिद्धि के बाद के कर्त्तव्य का निर्देश करते हैं - मन्त्र सिद्धि प्राप्त कर लेने वाले साधक को ज्ञान प्राप्ति के लिए जप की संख्या में निरन्तर वृद्धि का यत्न करते रहना चाहिए । जब वेदान्त प्रतिपादित (अयमात्माब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि, तत्त्वामसि श्वेतोकेतो इत्यादि) तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त हो जाय तब साधक कृतार्थ हो जाता है और संसार बन्धन से छूट जाता है ॥१००-१०१॥

ग्रन्थसमाप्तौ मङ्गलाचरणम्

तं वन्दे परमात्मानं सर्वव्यापिनमीश्वरम् ।

यो नानादेवतारूपो नृणामिष्टं प्रयच्छति ॥ १०२ ॥

अब ग्रन्थ समाप्ति में पुनः मङ्गलाचरण करते हैं - सर्वव्यापी ईश्वर परमात्मा की मैं वन्दना करता हूँ, जो अनेक देवताओं का स्वरुप ग्रहण कर मनुष्यों के अभीष्टों को पूरा करते हैं ॥१०२॥

विलोक्य नानातन्त्राणि प्रार्थितो द्विजसत्तमैः ।

स्वमतेरनुसारेण कृतो मन्त्रमहोदधिः ॥ १०३ ॥

ग्रन्थ रचना का हेतु - श्रेष्ठ विद्वान्‍ ब्राह्मणों द्वारा प्रार्थना किये जाने पर अनेक तन्त्र ग्रन्थों का अवलोकन कर अपनी बुद्धि के अनुसार मैंने इस मन्त्र महोदधि नामक ग्रन्थ की रचना की है । यही इस ग्रन्थ की रचना का हेतु है ॥१०३॥

मंत्र महोदधि                

मन्त्रमहोदधि तरङ्ग २५          

मन्त्रमहोदधि पञ्चविंशः तरङ्गः

मंत्रमहोदधि पच्चीसवां तरंग    

ग्रन्थकर्तुस्तरंगानुक्रमणिकाकथनम्

बाणनेत्रमितास्तस्मिंस्तरङ्गाः सन्ति निर्मिताः।

तत्रानुक्रमणीं वक्ष्ये मन्त्रिणां सुखवृद्धये ॥ १०४ ॥

अब प्रसङ्ग प्राप्त मन्त्रमहोदधि की अनुक्रमणिका कहते हैं -

इस मन्त्रमहोदधि में पच्चीस तरङ्ग हैं । मान्त्रिकों की सुविधा के लिए अब उनकी अनुक्रमाणिका कहता हूँ ॥१०४॥

भूतशुद्धिस्तथा प्राणप्रतिष्ठान्यसनं लिपेः ।

पुरश्चर्याहोमविधिस्तर्पणाद्याद्य ईरितम् ॥ १०५॥

प्रथम तरङ्ग में भूतसुद्धि, प्राणप्रतिष्ठा, मातृकान्यास, पुरश्चरण और होम की विधि तथा तर्पण का विषय प्रतिपादन किया गया है ॥१०५॥

द्वितीयोर्मी गणेशस्य मन्त्राः सम्यक्समीरिताः ।

कालीकाल्यभिधानानां सुमुख्याश्च तृतीयके ॥ १०६ ॥

द्वितीय तरङ्ग में गणेश के विविध मन्त्र और उनकी सिद्धि के प्रकार कहे गए हैं ।

तृतीय तरङ्ग में काली तथा काली नाम से अभिहित दक्षिणाकाली आदि के अनेक मन्त्र एवं सुमुखी के मन्त्र का प्रतिपादन एवं काम्यप्रयोग कहा गया है ॥१०६॥

तारातुरीये सम्प्रोक्ता ताराभेदास्तु पञ्चमे ।

षष्ठे तरङ्गे गदिता छिन्नमस्ताशबर्यपि ॥ १०७ ॥

स्वयंवरामधुमती प्रमदा च प्रमोदया ।

चतुर्थ तरङ्ग  में तारा की उपासना तथा

पञ्चम तरङ्ग में तारा के भेद कहे गए हैं ।

छठे तरङ्ग  में छिन्नमस्ता, शबरी, स्वयम्बरा, मधुमती, प्रमदा, प्रमोदा, बन्दी जो बन्धन से मुक्त करती हैं - उनके मन्त्रों को बताया गया है ॥१०७-१०८॥

बन्दीबन्धनहारीति सप्तमे वटयक्षिणी ॥ १०८ ॥

तस्या भेदाश्च वाराही ज्येष्ठा कर्णपिशाचिनी ।

स्वप्नेश्वरी च मातङ्गी बाणेशी मदनेश्वरी ॥ १०९ ॥

सप्तम तरङ्ग में वटयक्षिणी, वटयक्षिणी के भेद, वाराही, ज्येष्ठा, कर्णपिशाचिनी, स्वप्नेश्वरी, मातङ्गी, बाणेशी एवं कामेशी के मन्त्रों को प्रतिपादित दिया गया है ॥१०८-१०९॥

अष्टमे विस्तरात्प्रोक्ता बाला बालाभिदा अपि ।

नवमे त्वन्नपूर्णोक्तां तद्भेदामोहनाद्रिजा ॥ ११० ॥

ज्येष्ठालक्ष्मीरत्र मन्त्रा उक्ता प्रत्यङिगरारिहा ।

अष्टम तरङ्ग में त्रिपुराबाला तथा उनके भेदों का विवेचन विस्तार से किया गया है ।

नवम तरङ्ग में अन्नपूर्णा, उनके भेद त्रैलोक्यमोहन गौरी एवं ज्येष्ठालक्ष्मी तथा उनके साथ ही प्रत्यंगिरा के भी मन्त्रों का निर्देश किया गया है ॥११०-१११॥

दशमे बगलावक्त्रावाराहीद्वितयं तथा ॥ १११ ॥

दशम तरङ्ग में बगलामुखी तथा वाराही को भी बतलाया गया है ॥१११॥

श्रीविद्यैकादशे प्रोक्ता द्वादशे तु तदावृतिः ।

त्रयोदशे त हनमान्विस्तरात प्रतिपादितः ॥ ११२॥

एकादश तरङ्ग में श्रीविद्या तथा

द्वादश तरङ्ग में उनके आवरण पूजा की विधि बताई गई है ।

त्रयोदश तरङ्ग में हनुमान के मन्त्रों एवं प्रयोगों का विशद्‍ रुप से प्रतिपादन किया गया है ॥११२॥

चतुर्दशे नारसिंहो गोपालो गरुडोऽपि च ।

अथ पञ्चदशे सूर्यो भौमो जीवः सितो मुनिः ॥ ११३॥

चतुर्दश तरङ्ग में नृसिंह, गोपाल एवं गरुड मन्त्रों का प्रतिपादन है ।

पञ्चदश तरङ्ग में सूर्य, भौम, बृहस्पति, शुक्र एवं वेदव्यास के मन्त्रों को बताया गया है ॥११३॥

षोडशोर्मों महामृत्युञ्जयो रुद्रो धनेश्वरः ।

जाह्नवीमणिकर्णी च प्रोक्ता सप्तदशेऽर्जुनः ॥ ११४ ।।

अष्टादशे कालरात्रिश्चण्डिकाया नवाक्षरः ।

षोडश तरङ्ग में महामृत्युञ्जय, रुद्र एवं गङ्गा तथा मणिकर्णिका के मन्त्र कहे गए हैं ।

सप्तदश तरङ्ग में कार्त्तवीर्यार्जुन के मन्त्र, दीपदान विधि आदि का वर्णन है ।

अष्टादश तरङ्ग में कालरात्रि के मन्त्र, नवार्णमन्त्र शतचण्डी और सहस्त्रचण्डी विधान का सविस्तार वर्णन किया गया है ॥११४-११५॥

एकोनविंशे चरणयुधः शास्तसमन्वितः ॥ ११५॥

पार्थिवार्चनकीनाशचित्रगुप्तासुरीविधिः ।

उन्नीसवें तरङ्ग में चरणायुध मन्त्र, शास्ता मन्त्र, पार्थिवार्चन, धर्मराज, चित्रगुप्त के मन्त्रों का प्रतिपादन करते हुये आसुरी (दुर्गा) विधि का प्रतिपादन किया गया है ॥११५-११६॥

विशे तरङ्गे यन्त्राणि स्वर्णाकर्षणभैरवः ॥ ११६ ॥

स्नानादिरन्तर्यागान्त एकविंशेर्चनाविधिः ।

द्वाविंशेऽयं समारभ्य पूजनं तद्भिदा अपि ॥ ११७ ॥

बीसवें तरङ्ग में विविध यन्त्र, स्वर्णाकर्षण भैरव की उपासना विधि तथा अनेक यन्त्रों का वर्णन है ।

इक्कीसवें तरङ्ग में स्नान से लेकर अर्न्तयाग तथा नित्यकर्म का वर्णन है ।

बाइसवें तरङ्ग में अर्घ्यस्थापन से लेकर पूजन पर्यन्त के कृत्य तथा पूजा के भेद बतलाये गये हैं ॥११६-११७॥

त्रयोविंशे तु दमनैः पवित्रैश्च सर्मचनम् ।

चतुर्विशे च भेदेन मन्त्राणां परिशेधनम् ॥ ११८ ॥

तरङ्गे चरमे प्रोक्तं कर्मषट्कमनुक्रमात् ।

एवं मन्त्रोदधावस्मिन् पञ्चविंशतिर्मयः ॥ ११९ ॥

त्रयोविंशति तरङ्ग में दमनक तथा पवित्रक से इष्टदेव के सर्मचन का विधान कहा गया है ।

चौबीसवें तरङ्ग में मन्त्र शोधन की नाना प्रकार की प्रक्रिया कही गई है ।

पच्चीसवें तरङ्ग में षट्‌कर्मों के समस्त विधान का निर्देश है ॥११८-११९॥

इस प्रकार मन्त्रमहोदधि के पच्चीस तरङ्गों में उक्त समस्त विषयों का वर्णन किया गया है ॥११६-११९॥

विशोधनीया विद्वनिः क्षन्तव्यं साहसं मम ।

चापलं निजबालानां क्षमते जनको यथा ॥ १२० ॥

अब ग्रन्थकार ग्रन्थ का उपसंहार कर विशेषज्ञों से प्रार्थना करते हैं कि आवश्यकता पडने पर विशेषज्ञों  को इसमें संशोधन कर लेना चाहिए, जिस प्रकार पिता अपने बालकों की चपलता क्षमा करता हैं उसी प्रकार मन्त्र के विषय में किए गए साहस को भी विज्ञजन क्षमा करेंगे ॥१२०॥

ग्रन्थकर्तुः स्ववंशकथनम्

अहिच्छत्रद्विजच्छत्रवत्सगोत्रसमुद्भवः ।

आसीद्रत्नाकरो नाम विद्वान्ख्यातो धरातले ॥ १२१॥

अब ग्रन्थकार अपना स्ववंश परिचय देते हैं - अहिच्छत्र देश में द्विजो के छत्र के समान वत्स में उत्पन्न, धरातल में अपनी विद्वत्ता से विख्यात रत्नाकर नाम के ब्राह्मण हुये ॥१२१॥

तत्तनूजो रामभक्तः फनूभट्टाभिधोऽभवत ।

महीधरस्तदुत्पन्नः संसारासारता विदन ॥ १२२॥

निजदेशं परित्यज्य गतो वाराणसी पुरीम ।

सेवमानो नरहरिं तन्त्र ग्रन्थमिमं व्यधात् ॥ १२३॥

उनके लडके फनूभट्ट हुये, जो भगवान्‍ श्री राम के प्रकाण्ड भक्त थे । उनके पुत्र श्रीमहीधर हुये, जिन्होने संसार की असारता को जान कर अपना देश छोड कर काशी नगरी में आकर भगवान्‍ नृसिंह की सेवा करते हुये मन्त्रमहोदधि नामक इस तन्त्र ग्रन्थ की रचना की ॥१२२-१२३॥

कल्याणभिधपुत्रेण तथान्यैर्द्विजसत्तमैः ।

अनेकानागमग्रन्थान् विलोक्य तु मुनीश्वरैः ॥ १२४ ।।

एकग्रन्थे स्थितं सर्व मन्त्राणां सारमिच्छुभिः ।

सम्प्रार्थितः स्वमत्यासौ नाम्ना मन्त्रमहोदधिः ॥ १२५ ॥

अनेक ग्रन्थों में लिखे गए नाना प्रकार के मन्त्रों के सार को किसी एक ग्रन्थ में निबद्ध करने की इच्छा रखने वाले तथा आगम ग्रन्थों के मर्मज्ञ महामुनियों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों एवं कल्याण नामक स्वकीय पुत्र के द्वारा प्रार्थना किए जाने पर मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार इस मन्त्रमहोदधि नामक ग्रन्थ की रचना की है ॥१२४-१२५॥

ग्रन्थान्ते आशीः कथनम्

अविच्छिन्नान्वयाः सन्तु निजधर्मपरायणाः ।

मङ्गलानि प्रपश्यं तु सर्वे द्रोहपराङ्मुखाः ॥ १२६ ॥

अब ग्रन्थकार ग्रन्थ के अन्त में आशीर्वचन कहते हैं -

इस ग्रन्थ का अभ्यास करने वाले समस्त पाठकगण अपने धर्म में परायण रहें । सर्वदा कल्याण का दर्शन करें । द्रोह से सर्वथा पराङ्‌मुख रहें और उनकी वंशपरम्परा अविच्छिन्न रुप से चलती रहे ॥१२६॥

हरिः करोतु कल्याणं सर्वेषां जगदीश्वरः ।

प्रवर्तयन्त्विम ग्रन्थं यावद्वेदो रविः शशी ॥ १२७ ॥

अब जगदीश्वर से प्रार्थना करते हुये ग्रन्थ की समाप्ति करते हैं -

जगदीश्वर श्रीहरि सभी का कल्याण करें और जब तक वेद, सूर्य तथा चन्द्रमा रहें तब तक इस ग्रन्थ का प्रचार प्रसार करते रहें ॥१२७॥

श्लोकत्रयेण देवप्रार्थना

नरसिंहो महादेवो महादेवार्तिनाशनः ।

मुदे परो महालक्ष्म्या देवावर नतोऽस्तु मे ॥ १२८ ॥

समस्त देवगणों की विपत्ति को दूर करने वाले, देवगणों से वन्दित लक्ष्मी सहित श्रीनृसिंह देव हमें निरन्तर हर्ष प्रदान करते रहें ॥१२८॥

नृसिंहउत्सङ्गसमुद्रजायां समुद्रजद्वीपगृहे निषण्णः ।

समुद्रजोहीनमतिः सदाव्यात् समुद्रभक्ताखिलसिद्धिदायी ॥ १२९ ॥

क्षीर सागर के मध्य में स्थित श्वेत द्वीप के मण्डप में अपनी गोद में स्थित लक्ष्मी के साथ विराजमान, प्रसन्नता से पूर्ण भगवान्‍ श्री नृसिंह मेरी रक्षा करें, जो अञ्जलि आदि मुद्राओं से पूजा करने वाले अपने भक्तो को समस्त सिद्धियाँ प्रदान करते हैं वह भगवान्‍ श्रीनृसिंह मुझे रजोगुण रहित सद्‌बुद्धि दें ॥१२७-१२९॥

राजा लक्ष्मीनृसिंहो जयति सुखकर श्रीनृसिंह भजे यं

दैत्याधीशामहान्तोऽहसतनृहरिणा श्रीनृसिंहाय नौमि ।

सेव्यो लक्ष्मीनृसिंहादपर इह नहि श्रीनृसिंहस्य पादौ

सेवे लक्ष्मीनृसिंह वसतु मम मनः श्रीनृसिंहाव भक्तम् ॥ १३०॥

भगवान्‍ श्री लक्ष्मीनृसिंह की जय हो । मैं परमकल्याणकारी श्री नृसिंह की वन्दना करता हूं, जिन नृसिंह ने महबलवान्‍ बडे बडे दैत्योम का वध किया उन नरहरि को मैम प्रणाम करता हूँ ।

लक्ष्मीनृसिंह से बढ कर और कोई देवता नही है । इसलिए श्री नृसिंह के चरण कमलों की सेवा करनी चाहिए । यही सोंच कर श्रीनृसिंह मेरे मन में निवास करें । यह मेरा मन कभी भी नृसिंह से अलग न हो ॥१३०॥

विश्वेशो गिरिजाबिन्दुमाधवो मणिकर्णिका ।

भैरवो जाह्नवीदण्डपाणिर्मे तन्वतां शिवम् ॥ १३१ ॥

बाबा विश्वनाथ, भवानी अन्नपूर्णा, बिन्दुमाधव, मणिकर्णिका, भैरव, भागीरथी तथा दण्डपाणी मेरा सतत्‍ कल्याण करें ॥१३१॥

ग्रन्थनिर्मितिकालकथनम्

अब्दे विक्रमतो जाते बाणवेदनपैर्मिते ।

ज्येष्ठाष्टम्यां शिवस्याग्रे पूर्णो मन्त्रमहोदधिः ॥ १३२ ॥

विक्रम संवत्‍ १६४५ में ज्येष्ठ शुक्ला अष्टमी को बाबा विश्वनाथ के सान्निध्य में यह मन्त्रमहोदधि नामक ग्रन्थ पूर्ण हुआ ॥१३२॥

॥ इति श्रीमन्महीधरविरचिते मन्त्रमहोदधौ षट्कर्मादिनिरूपणंनाम पञ्चविंशस्तरङ्गः ॥ २५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीमन्महीधर विरचित मन्त्रमहोदधि के पच्चीसवां तरङ्ग की महाकवि पं० रामकुबेर मालवीय के द्वितीय आत्मज डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'अरित्र' नामक हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ २५ ॥

॥ मन्त्रमहोदधि तंत्र सम्पूर्ण ॥     

No comments:

vehicles

[cars][stack]

business

[business][grids]

health

[health][btop]