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तरङ्ग) में चरणायुध मन्त्र, शास्ता मन्त्र,
पार्थिवार्चन, धर्मराज, चित्रगुप्त
के मन्त्रों का प्रतिपादन करते हुये आसुरी (दुर्गा) विधि का प्रतिपादन किया गया
है।
मन्त्रमहोदधि एकोनविंशः तरङ्गः
मन्त्रमहोदधि - एकोनविंश तरङ्ग
मंत्रमहोदधि
तरंग १९
मंत्रमहोदधि उन्नीसवां तरंग
मन्त्रमहोदधिः
अथ एकोनविंशः तरङ्गः
अरित्र
चरणायुधमन्त्रस्य विधानमभिधीयते ।
मन्त्री यद्विधिना कृत्वा
साधयेत्स्वमनोरथान् ॥ १॥
अब चरणायुध मन्त्र का विधान
कहता हूँ जिसे करने से मन्त्रवेत्ता उस विधि से अनुष्ठान कर अपना सारा मनोरथ पूर्ण
कर सकता है ॥१॥
कुक्कुटमन्त्रकथनम्
तीक्ष्णोधीशेन्दु संयुक्तः
सद्योजातयुतो विधिः।
पिनाकीसूक्ष्मयुग्वर्ण त्रयमेतत्
पुनः पठेत् ॥ २॥
उत्कारी दीर्घसंयुक्ता मायाबीजं ततो
वदेत् ।
द्विरभ्यस्तं पुनर्वर्णत्रयं
पूर्वोदितं पुनः ॥ ३॥
कूर्मः सकर्णो वो दीर्घा मन्त्रोऽयं
समुदीरितः।
पाशाद्योंकुशबीजान्तोऽष्टादशाक्षरसंयुतः
॥ ४ ॥
अब चरणायुध मन्त्र का उद्धार
कहते हैं –
अर्घीश (ऊकार) एवं बिन्दु
(अनुस्वार) सहित तीक्ष्ण (य), अर्थात (यूँ०,
संद्योजात (ओ) के साध विधि (क) अर्थात् (को), सूक्ष्म
(इकार) सहित पिनाकी (ल) अर्थात् (लि), इन तीनों (यू को लि)
वर्णों को दो बार उच्चारण करना चाहिए । फिर दीर्घ (आ) संयुक्त उत्कारी (व) अर्थात्
वां इसके बाद मायाबीज (ह्रीं), फिर दो बार (यूं को लि यूँ को
लि), फिर सकर्ण (उकार सहित) कूर्म च अर्थात् (चु) दीर्घ व
(वा) इस मन्त्र के प्रारम्भ में पाश (आ) तथा अन्त में अंकुश (क्रों) लगाने से १८
अक्षर का चरणायुध मन्त्र बनता है ॥२-४॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार - ‘आं यूँकोलि यूँकोलि वा ह्रीं
यूँकोलि यूँकोलि चु वा क्रों (१८) ॥२-४॥
महारुद्रो मुनिश्चास्य च्छन्दोति
जगतीरितम् ।
मायाबीजं सृणिः शक्तिर्देवता
चरणायुधः ॥ ५॥
इस मन्त्र के महारुद्र ऋषि हैं,
अति जगति छन्द है, माया (ह्रीं) बीज है,
सृणि (क्रों) शक्ति है तथ चरणायुध देवता हैं ॥५॥
विनियोग विधि
- अस्य चरणायुधमन्त्रस्य महारुद्रऋषिरतिजगतीच्छन्दः चरणायुधो देवता ह्रीं बीजं
क्रों शक्तिरभीष्टसिद्धये जपे विनियोगः ॥५॥
वेदरामाक्षिरामाग्नि वह्निवर्णैः
षडङ्गकम् ।
कृत्वा वर्णान्प्रविन्यस्येन्मूनि
भाले भ्रुवोर्द्वयोः ॥ ६ ॥
अक्ष्णोः श्रुत्योर्नसोर्वक्त्रे कण्ठे
कुक्षौ च नाभितः ।
लिङ्गे गुदे जानुपादे न्यस्यैवं
संस्मरेत् प्रभुम् ॥ ७॥
अब इस मन्त्र का षडङ्गन्यास तथा
वर्णन्यास कहते हैं - मन्त्र के वेद ४ , राम
३, अक्षि २, राम, ३. अग्नि ३ तथा वहि ३ वर्णों से षडङ्गन्यास कर मन्त्र के एक वर्ण से
क्रमशः शिर, भाल, दोनों भ्रू, दोनों कान, दोनों नासिका, मुख,
कण्ठ, कुक्षि, नाभि,
लिङ्ग, गुदा, जाघँ और
दोनों पैरों पर न्यास कर चरनायुध का ध्यान करना चाहिए ॥६-७॥
विमर्श - षडङ्गन्यास - आं
यूँ कोलि हृदयाय नमः,
यूँ कोलि शिरसे स्वाहा, वा ह्रीं शिखायै वषट्,
यूँ कोलि कवचाय हुम् यूँ कोलि नेत्रत्रयाय वौषट,
वर्णन्यास
- ॐ आं नमः मूर्ध्नि, ॐ यूं नमः ललाटॆ,
ॐ कों नमः भ्रुवि, ॐ लि नमः वामभ्रुवि,
ॐ यूं नमः दक्षिणेनेत्रे, ॐ कों नमः वामनेत्रे,
ॐ लिं नमः दक्षिनकर्णे, ॐ वां नमः वामकर्णे,
ॐ ही नमः दक्षिणनासपुटे, ॐ यूं नमः वामनासापुटे,
ॐ कों नमः मुखे, ॐ लि नमः कण्ठे, ॐ यूँ नमः कुक्षै,
ॐ कों नमः नाभौ, ॐ लिं नमः लिगै, ॐ चुं नमः गुदे,
ॐ वां नमः जान्वो, ॐ क्रों नमः पादयोः ॥६-७॥
ध्यानवर्णनं बलिदानप्रकारश्च
सर्वालंकृति दीप्त कण्ठचरणौ हेमा
देहद्युतिः
पक्षद्वन्द्वविधूननेति कुशलः
सर्वामराभ्यचितः ।
गौरीहस्तसरोजगोरुणशिखः
सर्वार्थसिद्धिप्रदो
रक्तं चञ्चुपुट दधच्चलपदः
पायान्निजान्कुक्कुटान् ॥ ८॥
अब ध्यान कहते हैं -
जिनके कण्ठ और चर सभी प्रकार के
अलंकारो से जगमगा रहे हैं तथा जिनके शरीर की कान्ति सुवर्ण की आभा के समान है,
जो अपने दोनों पंखों के फैलाने में अत्यन्त कुशल हैं तथा समस्त देव
वर्गों से पूजित गौरी के हाथ में स्थित हैं । लाल कमल जैसी आभा के समान
शिखा से युक्त, रक्त चञ्चु वाले, चञ्चल
पैरों को धारण करने वाले हैं, ऐसे अपने साधकों के समस्त
मनोरथों को पूर्ण करने वाले चरनायुध देवता अपने भक्तों की रक्षा करे ॥८॥
एवं ध्यात्वा समासीनः शैलाग्रे
सरितस्तटे ।
वृषशून्ये पश्चिमस्थे यद्वा
शंकरसद्मनि ॥ ९॥
अब उक्त मन्त्र की साधना के लिए
स्थान का निर्देश करते हैं –
उक्त प्रकार से ध्यान कर,
पर्वत के शिखर पर, नदी के किनारे या जहाँ
वृषभादि न हो, पश्चिम दिशा में अथवा किसी शिवालय में मन्त्र
की साधना करनी चाहिए ॥९॥
लक्षं जपेद्दशांशेन
तिलैर्हवनमाचरेत् ।
शैवे पीठे यजेत् ताम्रचूडं
गौरीकरस्थितम् ॥ १० ॥
अब जप संख्या,
होम तथा पूजा विधि
कहते हैं -
इस मन्त्र का एक लाख की संख्या में
जप करना चाहिए और तिलों से उसका दशांश होम करना चाहिए । शैव पीठ पर,
गौरी के हाथ में स्थित ताम्रचूड का पूजन करना चाहिए ॥१०॥
आदावङ्गानि सम्पूज्य दलेषु
प्रयजेदिमान ।
शम्भुं गौरी गणपति कार्तिकेयं ततः
परम् ॥ ११॥
मन्दारं पारिजातं च महाकालं च
बर्हिणम् ।
दलाग्रेषु
सुराधीशप्रमुखानायुधान्वितान् ॥ १२ ॥
एवं कृते प्रयोगार्हो जायते
मन्त्रनायकः ।
उसकी विधि इस प्रकार है --
सर्वप्रथम षडङ्ग पूजा कर,
अष्टदल में शम्भु, गौरी,
गणपति, कार्तिकेय, मन्दार, पारिजात,
महाकाल एवं बर्हि (मयूर) - इन देवताओं का पूजन करना चाहिए ।
दलाग्र में इन्द्रादि दिक्पालों का,
तदनन्तर उनके आयुधों का पूजन करना चाहिए । ऐसा करने से यह
मन्त्ररात्र काम्य प्रयोगों के योग्य हो जाता है ॥११-१३॥
विमर्श - यन्त्र निर्माण विधि
- वृत्ताकार कर्णिका, अष्टदल एवं भूपुर
सहित यन्त्र का निर्माण करना चाहिए । उसी पर चरणायुध का पूजन करना चाहिए ।
पीठ पूजा विधि
- सर्वप्रथम (१९. ८ श्लोक में वर्णित चरणायुध का ध्यान कर मानसोपचार से उनका पूजन
कर अर्ध्य स्थापित करे । फिर शैव पीठ पर देवताओं का पूजनादि क्रम. १६. २२-२५
पर्यन्त श्लोकों की टीका की अनुसार करना चाहिए । फिर ‘ॐ नमो भगवते सकलगुणात्मकशक्ति युक्तायानन्ताय योगपीठात्मने नमः’ इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि पर्यन्त विधिवत् चरणायुध का पूजन कर उनकी
अनुज्ञा ले आवरण पूजा इस प्रकार करनी चाहिए ।
आवरण पूजा विधि
- सर्वप्रथम आग्नेयादि कोणों में चतुर्दिक्षु तथा मध्य में षडङ्गन्यास प्रोक्त
मन्त्रों से अङ्गपूजा करनी चाहिए । यथा -
आं यूं कों लिं हृदयाय नमः,
नैऋत्ये यू कों लिं शिरसे स्वाहा,
वा ह्रीं शिखायै वषट् वायव्यं,
वायव्ये, यूँ कों लिं कवचाय हुम् ऐशान्ये,
यूं को लिं नेत्रत्रयाय वौषट्
चतुर्दिक्षु । चुं वां क्रों अस्त्राय फट् पीठमध्ये,
फिर अष्टदल में पूर्वादि दिशाओं के
क्रम से शम्भु आदि ८ देवताओं की निम्न रीति से पूजा करनी चाहिए । यथा -
ॐ शम्भवे नमः पूर्वदले ॐ गौर्यै नमः आग्नेयदले,
ॐ गणपतये नमः दक्षिणदले, ॐ कार्तिकेयाय नमः
नैऋत्यदले,
ॐ मन्दाराय नमः पश्चिमदले, ॐ पारिजाताय नमः वायव्यदले,
ॐ महाकालाय नमः उत्तरदले, ॐ वर्हिणे नमः ईशानदले,
तत्पश्चाद्दलों के अग्रभाग में
अपनी अपनी दिशाओं में इन्द्रादि दिक्पालों की निम्नलिखित मन्त्रों से पूजा करनी
चाहिए । यथा -
ॐ इन्द्राय सायुधाय नमः पूर्वै, ॐ रं अग्नये सायुधाय नमः
आग्नेये,
ॐ मं यमाय सायुधायनमः दक्षिणे, ॐ क्षं निऋतये सायधाय नमः
नैऋत्ये,
ॐ वं वरुणाय सायुधायनमः पश्चिमे, ॐ यं वायवे सायुधाय नमः
वायव्ये,
ॐ सं सोमाय सायुधायनमः उत्तरे, ॐ हं ईशानाय सायुधाय नमः
ऐशान्ये,
ॐ आं ब्रह्मणे सायुधायनमः ऊर्ध्वम्, ॐ ही अनन्ताय सायुधाय नमः
अघः,
इस रीति से आवरण पूजा करने के बाद
धूप,
दीप, नैवेधादि उपचारों से सविधि चरणायुध की
पूजा करनी चाहिए ॥११-१२॥
प्रयोगादौ प्रजप्योऽसावयुतं
द्विशताधिकम् ॥ १३ ॥
दध्ना क्षीरेण मधुना चन्द्रेण
सितयान्वितैः ।
दद्याद् बलिं सताम्बूलैः
पायसैबलिमन्त्रतः ॥ १४ ॥
भोजनादौ भोजनान्ते
लक्ष्मीसम्प्राप्तये सुधीः ।
बलिमेतत् प्रदत्त्वाथ कुबेरो
धननाथताम् ॥ १५ ॥
शान्तौ पुष्टावपि बलिमेतमेव
प्रदापयेत् ।
काम्य-प्रयोगों में इस मन्त्र का दस
हजार दो सौ १०२०० की संख्या में जप करना चाहिए । फिर दूध,
दही, मधु, और शक्कर
मिश्रित पदार्थो की पान और खीर के साथ वक्ष्यमाण बलिमन्त्र से बलि देनी
चाहिए । विद्वान पुरुष लक्ष्मी प्राप्ति की इच्छा से भोजन के आदि तथा
समाप्ति में बलि देवे । इसी बलि देने के प्रभाव से कुबेर धनाध्यक्ष हो गए ।
सान्तिक तथा पौष्टिक कर्मों में भी इसी प्रकार की बलि देनी चाहिए ॥१३-१६॥
उक्तस्य वक्ष्यमाणस्य बलेमन्त्रोऽथ
कथ्यते ॥ १६ ॥
वामकर्णेन्दुयुक्छूरः
सबिन्दुश्चरमेऽद्रिजा ।
कुक्कुटद्वितयं पश्चादेह्येहीमं
बलिं वदेत् ॥ १७ ॥
गणयुग्मं गृह्णापय सर्वान् कामांश्च
देहि च ।
वायुः सचन्द्रः
कर्णेन्दुयुक्चक्रीगिरिनन्दिनी ।
यूं नमः कुक्कुटायेति मन्त्रो व्योम
युगाक्षरः ।
बलिं दद्यादनेनोक्त वक्ष्यमाणं च
साधकः ॥ १९॥
अब पूर्वचर्चित वक्ष्यमाण मन्त्र
को कहता हूँ - वामकर्ण (ऊं), इन्दु (बिन्दु)
सहित शूर (यूं), सानुस्वार चरम (क्षं), फिर अद्रिजा (ह्रीं), फिर दो बार कुक्कुट एह्येहि
इयं बलिं, फिर दो बार गृहण फिर ‘गृहणापय
सर्वान्माकांश्च देहि’ फिर सचन्द्र वायु (यं) कर्ण (उकार)
इन्दु सहित चक्री (क) अर्थात् (कुं) गिरिनन्दिनी (ह्रीं) तथा अन्त में यू नमः
कुक्कुटाय जोडने से ४० अक्षर का बलि मन्त्र बनता हैं इसी मन्त्र से साधक को पूर्व
तथा वक्ष्यमाण प्रयोगों में कुक्कुटेश्वर को बलि देनी चाहिए ॥१६-१९॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप -
यूं क्ष ह्रीं कुक्कुट कुक्कुट एह्येहि इयं बलिं गृहण गृहण गृहनापय सर्वान्कामन्देहि
यं कुं ह्रीं यूं नमः कुक्कुटाय (४०) ॥१६-१९॥
नृपवश्यादिफलकथनम्
लाजैसिमधुरोपेतैर्दद्यान मन्त्री
बलिं निशि ।
विविध प्रयोगों में बलिदान की विधि
- रात्रि में त्रिमधुर (घी दूध शक्कर) मिश्रित लावाओं की बलि देकर साधक सारे विश्व
को वश में कर लेता हैं ॥२०॥
वशयेदखिलं विश्वं त्रिदिनं
वौदनैर्नृपम् ॥ २० ॥
दुग्धमिश्रितगोधूमपिष्टैः
कुर्यादपूपकम् ।
आज्यकर्पूरयुक्तेन तेन दद्याद् बलिं
निशि ॥ २१ ॥
त्र्यहमेवं बलौ दत्ते सुखी
स्याद्वशयेज्जगत् ।
तीन दिन पर्यन्त भात की बलि देने से
राजा वशीभूत हो जाता है । दुग्धमिश्रित गेहूँ के आटे का मालपूआ बनाना चाहिए,
उसमें घी और कपूर मिला कर तीन दिन पर्यन्त रात्रि में बलि देने से
साधक सुखी हो जाता है तथा जगत् को वश में कर लेता है ॥२०-२२॥
करवीरैर्बिल्वपत्रैः पीतपुष्पैः
सुगन्धिभिः ॥ २२॥
सहस्रसंख्यैः प्रत्येक पूजयित्वा
जपेन्मनुम ।
सहस्र निशि सप्ताहं यमुद्दिश्य जन
सुधीः ॥ २३॥
स याति दासतां तस्य मनो वचनकर्मभिः
।
एक एक हजार कनेर के फूल,
बिल्वपत्र तथा सुगन्धित पीले फूलों से
पूजन कर एक सप्ताह पर्यन्त रात्रि में एक एक हजार इस मन्त्र का जप करना चाहिए ।
साधक जिस व्यक्ति का मन में ध्यान कर यह प्रयोग करता है वह व्यक्ति मनसा वचसा और
कर्मणा उसके वश में हो जाता है ॥२२-२४॥
छागलाबकयोर्मासैः सप्ताहं वितरेद्
बलिम् ॥ २४॥
सहस्रं प्रत्यहं जप्त्वा वशयेदखिलं
जगत् ।
प्रतिदिन मूलमन्त्र का एक एक हजार
जप एक सप्ताह पर्यन्त कर बकरा और लावक (गौरेया) पक्षी के मांस की बलि देने से साधक
सारे जगत् को अपने वश में कर लेता है ॥२४-२५॥
नृपोत्थिते सपत्नोत्थे भये जाते च
संकटे ॥ २५ ॥
आपद्यपि तथा न्यस्यां बलिं
दद्यात्सुखाप्तये ।
गोपनीयो विधिरयं बलेः कथ्यो न दुमतौ
॥ २६ ॥
राजभय,
शत्रुभय, संकट या अन्य आपत्ति प्राप्त होने पर
सुख प्राप्ति हेतु इस प्रकार की बलि देनी चाहिए । बलिदान के लिए बताई गई यह विधि
अत्यन्त गोपनीय है इसे दुष्टों को नहीं बताना चाहिए ॥२५-२६॥
मुक्तकेशउदावत्रो जपेद्
भानुसहस्रकम् ।
प्रत्यहं वसुघस्रान्तं
यमुद्दिश्याधियामिनि ॥ २७ ॥
तमाकर्षति दूरस्थमपि किं निकटस्थितम्
।
रात्रि के समय शिखा खोल कर
उत्तराभिमुख हो कर जो साधक जिस व्यक्ति का ध्यान कर लगातार ८ दिन तक प्रतिदिन १२
हजार की संख्या में जप करता है वह व्यक्ति चाहे दूर हो अथवा सन्निकट अवश्य ही साधक
के वश में हो जाता है ॥२७-२८॥
जातीफलैलाः सञ्चूर्ण्य कर्पूर मध्यतः
क्षिपेत् ॥ २८ ॥
अभिमन्त्र्यार्कसाहस्रं
सिन्दूरराजसायुतम् ।
ऊष्णीकृत्याग्नितापेन क्लेदयेद्
गाङ्गपाथसा ॥ २९ ॥
स्थापयेदायसे पात्रे
तत्स्पृष्टस्तम्भितो भवेत ।
जायफल और इलायची को एक में पीस कर,
उसमें कपूर और सिन्दूर मिला कर बारह हजार मूल मन्त्र से अभिमन्त्रित
कर आग पर तपावे । फिर गङ्गाजल से आर्द्र कर लोहपात्र में रखना चाहिए तो उसे स्पर्श
करने वाला व्यक्ति स्तम्भित हो जाता है ॥२८-३०॥
शत्रूच्चाटनं प्रयोगान्तरकथनम्
करिसदमनो वहिनमानीयायसभाजने ॥ ३० ॥
स्थापयित्वेन्धयेत् काष्ठैः
करवीरसमुद्भवैः ।
जहयात्तत्र धत्तूरबीजानि शतसंख्यया
॥ ३१॥
सिद्धार्थतैललिप्तानि विषकर्णयुतानि
च ।
सप्ताह एवं कृत्वारिं
स्थानादुच्चाटयेद् ध्रुवम् ॥ ३२ ॥
लोहार के घर से अग्नि लाकर,
लोह पात्र में रखकर, कनेर की लकडी से उसे
प्रज्वलित कर, उसमें सरसों के तेल तथा विषचूर्ण मिश्रित
धतूरे के बीजों से १०० आहुतियाँ देनी चाहिए । एक सप्ताह पर्यन्त इस प्रयोग को करने
से शत्रु का अपने स्थान से निश्चय ही उच्चाटय हो जाता है ॥३०-३२॥
पक्षं देशान्तरगतं मासं
सम्प्रापयेन्मृतिम् ।
निरन्तर पन्द्रह दिन पर्यन्त इस
प्रयोग को करने से शत्रु देश छोड कर भाग जाता है और एक मास तक इस प्रयोग को करने
से वह मृत्यु को प्राप्त करता है ॥३३॥
प्रयोगान्तराणि
तालपत्रं नराकारं कृत्वात्र
स्थापयेदसून ॥ ३३ ॥
जपेदष्टसहस्रं
तत्तीक्ष्णतैलविलेपितम् ।
तस्य खण्डानि पञ्चाशत् कृत्वा
पितृवनोत्थिते ॥ ३४ ॥
उन्मत्ततरुसन्दीप्ते जुहुयाज्जातवेदसि
।
एवं प्रकुर्वस्त्रिदिनं
मारयेन्मोहयेदरिम् ॥ ३५ ॥
ताड पत्र से मनुष्य की आकृति बना कर,
उसमें शत्रु की प्राण प्रतिष्ठा कर, भिलावे के
तेल का लेप कर आठ हजार मन्त्र का जप करे । फिर उसका ५० टुकडा कर धतूरे की लकडी से
प्रज्वलित श्मशान की अग्नि में होम करना चाहिए । इस प्रकार निरन्तर ३ दिन
पर्यन्त करते रहने से साधक शत्रु को मार देता है अथवा उसे मोहित कर लेता है (अथवा
पागल बना देता है) ॥३३-३५॥
साध्यक्षतरुकाष्ठेन कृत्वा
पुत्तलिका शुभाम् ।
तस्यामसून प्रतिष्ठाप्य सहस्रं
प्रजपेन्मनुम् ॥ ३६ ॥
चिताकाष्ठस्य कीलेन तां स्पृष्ट्वा
पितृकानने ।
छिन्द्याद्यदङ्ग शस्त्रेण तदङ्ग
तस्य नश्यति ॥ ३७॥
साध्य व्यक्ति के जन्म नक्षत्र
के वृक्ष की लकडी (द्र० ९. ५२) की सुन्दर प्रतिमा बना कर,
उसमें शत्रु की प्राण प्रतिष्ठा कर, चिता
के काष्ठ की बनी कील से उसे स्पर्श करते हुये श्मशान में एक हजार जप करना चाहिए ।
फिर उस प्रतिमा का जो अङ्ग शस्त्र से काटा जाता है शत्रु का वही अङ्ग नष्ट हो जाता
है ॥३६-३७॥
वैरिमूत्रयुतां मृत्स्नां
तत्पादरजसा सह ।
कुलालमृद्युतां कृत्वा पुत्तली
रचयेत्तथा ॥ ३८ ॥
तस्या हृदि पदे मूर्ध्नि
नामकर्मान्वित मनुम् ।
लिखेच्छमशानजागारैरसून
संस्थापयेत्ततः ॥ ३९ ॥
जप्तां सहस्रं मन्त्रेण
तीक्ष्णतैलविलेपिताम् ।
शस्त्रेण शतधा कृत्वा
जुहुयात्पितृभूवसौ ॥ ४० ॥
विभीतकाष्ठसन्दीप्ते यमाशावदनो निशि
।
शत्रोनिधनतारायां कृत्वैवं
मारयेदरिम् ॥ ४१॥
शत्रु के मूत्र से मिली मिट्टी और
उसके परि की मिट्टी दोनों की कुम्भकार की मिट्टी में मिला कर पुतली बनानी चाहिए,
उस पुतली के हृदय, पैर और शिर पर क्रमशः साध्य
का नाम और कर्म का नाम मूल मन्त्र पढकर चिता के कोयले से लिखना चाहिए । फिर उसमें
प्राण प्रतिष्ठा कर भिलावे के तेल का लेप कर एक हजार की संख्या में जप करने के बाद
शस्त्र से उस पुतली के १०० टुकडे कर, बहेडा ल्की लकडी से
प्रज्वलित श्मशनाग्नि में रात्रि के समय दक्षिणाभिमुख हो होम करना चाहिए । यह कर्म
शत्रु के निधन नक्षत्र (जन्म नक्षत्र से ७वें, १६वें
अथवा २५वें नक्षत्र) के दिन करे तो वह शत्रु मर जाता है ॥३८-४१॥
शत्रोर्गोमयमूर्तिकरणप्रयोगः
निधाय गोमयं भूमौ
प्रकुर्यात्प्रतिमां रिपोः ।
तालपत्रे समालिख्यं मनु नाम्ना
विदर्भितम् ॥ ४२ ॥
ततात्रं निक्षिपेत्तस्या हृदि
तत्प्रतिमोपरि ।
भूमि में गोमय रखकर उससे शत्रु की
प्रतिमा का निर्माण करना चाहिए । फिर ताडपत्र पर शत्रु के नाम के सहित मूल मन्त्र
लिखकर उसे प्रतिमा के हृदय स्थान पर स्थापित कर देना चाहिए । फिर उस पर गोबर और जल
से भरा हुआ मिट्टी या चाँदी का कलश रखना चाहिए ॥४२-४३॥
मुज्ज वा राजतं कुम्भं
गोमयोदकपूरितम् ॥ ४३ ॥
मनुं नामयुतं तालपत्रेणाढ्यं
निधापयेत् ।
तदसून स्थापयेत् कुम्भे त्रिसन्ध्यं
प्रजपेन्मनुम् ॥ ४४ ॥
उसमें भी ताडपत्र पर शत्रु के नाम
के साध मन्त्र लिखकर डाल देना चाहिए । फिर कुम्भ में शत्रु के प्राणों की
प्रतिष्ठा कर प्रतिदिन तीनों काल की सन्ध्याओं में कुम्भ का स्पर्श करते
हुये मूल मन्त्र का १०० बार जप करना चाहिए ॥४३-४४॥
प्रत्यहं शतसंख्याकं
छायायावद्भवेद्रिपोः ।
गोमयाम्भसि दृष्टायां तच्छायायां तु
साधकः ॥ ४५ ॥
अधस्थायाः
प्रतिकृतश्छिन्द्यादङ्गमभीप्सितम् ।
गोबर मिले जल में शत्रु की आकृति
दिखलाई पडते ही साधक कुम्भ के नीचे बनी उसकी प्रतिमा का स्वाभिलषित अङ्ग शस्त्र से
काट देवे । ऐसा करने से शत्रु का वह अङ्ग नष्ट हो जाता है ॥४५-४६॥
शस्त्रेण तस्य नाशाय मृतये हृदयं
गलम् ॥ ४६ ॥
प्रविद्धे कण्टकैर्मूर्ध्नि शिरो
रोगो भवेद्रिपोः ।
आधयो हृदये विद्धे पदोः पादव्यथा
भवेत् ॥ ४७ ॥
किं बहुना प्रतिमा का हृदय,
गला काटने पर शत्रु मर जाता हे । प्रतिमा के शिर में काँटा चुभाने
से शत्रु के शिर में भी पीडा होती है । हृदय में काँटा चुभाने से मानसिक पीडा तथा
पैर में काँटा चुभाने से पैर में दर्द होता है ॥४६-४७॥
दारुणा कुक्कुटं कृत्वा तत्रास्य
स्थापयेदसून ।
ते स्पृष्ट्वा पूर्ववद् ध्यात्वा
जपेद्रविसहस्रकम् ॥ ४८ ॥
उपचारैः समभ्यर्च्य
च्छादयेद्रक्तवाससा ।
रथे संस्थाप्य तं देवं दिक्षु
योधान्निधापयेत् ॥ ४९ ॥
चतुरो वर्म
संवीतानश्वारूढानुदायुधान् ।
तत्संयुतो रणे गच्छेज्जेतुं बलवतो
रिपून ॥ ५० ॥
लकडी का कुक्कुट बनाकर उसमें प्राण प्रतिष्ठा करनी चाहिए । फिर उसका
स्पर्श कर पूर्ववत् (द्र० १९. ८) ध्यान कर १२ हजार जप करना चाहिए । फिर विविध
उपचारों से उन चरणायुध का पूजन कर लाल कपडे से उसे ढँक देना चाहिए । फिर देव को रथ
में स्थापित कर उनके चारों ओर कवचधारी अश्वारोही ४ योद्धाओं को नियुक्त कर उसे साथ
लेकर शत्रु की जीतने के लिए रणभूमि में जाना चाहिए ॥४८-५०॥
वीराढ्यं कुक्कुटं दृष्ट्वा
पलायन्ते रणेऽरयः ।
भीता दशदिशः सर्वे हर्यक्षं करिणो
यथा ॥ ५१॥
फिर तो वीरों से घिरे उस कुक्कुट को
देखते ही शत्रु सेना भयभीत होकर चारों ओर भाग जाती है जैसे सिंह को देख कर हाथीयों
के झुण्ड भाग जाता है ॥५१॥
ताम्रचूडस्य मन्त्रेण
मोदकाद्यभिमन्त्रितम् ।
यस्मै ददीत भक्षाय स वशो मन्त्रिणो
भवेत् ॥ ५२ ॥
अष्टोत्तरं शतं जप्त्वा
रोचनाचन्दनादिभिः ।
विदधत्तिलकं भाले
दर्शनाद्वशयेज्जनान् ॥ ५३॥
ताम्रचूड मन्त्र से अभिमन्त्रित
मोदक जिसे दिया जाय वह मालिक के वश में हो जाता है । गोरोचन,
चन्दन, कुंकुम, कस्तूरी
एवं कर्पूर से बने चन्दन का इस मन्त्र् से १०८ बार अभिमन्त्रित कर तिलक लगाने से
उसे देखने वाले वशीभूत जो जाते हैं ॥५२-५३॥
उपासकसमृद्धिदः
शास्तृमन्त्रस्तद्विधिश्च
अथ वक्ष्ये
शास्तृमन्त्रमुपासकसमृद्धिदम् ।
शास्तारं मृगयेत्युक्त्वा
श्रान्तमश्वाग्निरूयुतः ॥ ५४॥
ढंगणावृतमित्युक्त्वा पानीयाथं वना
च दे ।
त्यशास्त्रेते ततो रैवते नमो मन्त्र
ईरितः ॥ ५५ ॥
अब उपासकों को समृद्धि प्रदान करने
वाला शास्ता मन्त्र को कहता हूँ-
उद्धार - ‘शास्तारं मृगया’ कहकर’ ‘श्रान्तमश्वा’
कहे, फिर ऊकार युक्त अग्नि (र) अर्थात् रु,
फिर ‘ढं गणावृतम्’, फिर ‘पानीयार्थं वना’, फिर ‘देत्य शास्त्रे
ते’, फिर ‘रैवते नमः’ कहने से मन्त्र निष्पन्न होता है ॥५४-५५॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप -
शास्तारं मृगयाश्वारुढं गणावृतम् ।
पानीयार्थं वनादेत्य शास्त्रे ते
रेवते नमः ॥५४-५५॥
द्वात्रिंशदोऽस्य ऋषी रैवतः
परिकीर्तितः ।
पंक्तिश्छन्दो देवता तु महाशास्ताऽखिलेष्टदः
॥ ५६ ॥
यह ३२ अक्षरों को मन्त्र हैं,
इसके ऋषि रैवत माने गये है, इसका छन्द पडिक्त
है तथा सर्वाभीष्टदायक महाशास्ता महाशास्त इसके देवता हैं ॥५६॥
विमर्श - विनियोग - अस्य
श्रीशास्तामन्त्रस्य रैवतऋषिः पंक्तिछन्दः महाशास्तादेवता स्वकीयाऽभीष्टसिद्धयर्थे
जपे विनियोगः ॥५६॥
पादैः सर्वेण पञ्चाङ्ग कृत्वात्मनि
विभुं स्मरेत् ।
साध्यं स्वपाशेन विबन्ध्य गाढं
निपातयन्तं खलु साधकस्य ।
पादाब्जयोर्दण्डधरं त्रिनेत्रं
भजेत शास्तारमभीष्टसिद्ध्यै ॥ ५७ ॥
उक्त श्लोक के एक एक चरणों से तथा
समस्त मन्त्र से पञ्चाङ्ग न्यास करे । फिर अपनी आत्मा में शास्ता प्रभु का इस
प्रकार ध्यान करे ।
जो साध्य को अपने पाश में जकड कर
साधक के पैरों में गिराने वाले हैं ऐसे दण्डधारी त्रिनेत्र प्रभु का अभीष्टसिद्धि
हेतु मैं ध्यान करता हूँ ॥५७॥
विमर्श - पञ्चाङ्गन्यास -
शस्तारं मृगयाश्रान्तं हृदयाय नमः, अश्वारुढं
गणावृत् शिरसे स्वाहा, पानीयार्थं वनादेत्य शिखायै वषट्.
शास्त्रे ते रैवते नमः कवचाय हुम् शस्तारं ... रैवते नमः अस्त्राय फट् ॥५७॥
लक्षमेकं जपेन्मन्त्रं दशांशं
जुहुयात्तिलैः।
शैवे पीठे यजेद्देवमादावङ्गानि
पूजयेत् ॥ ५८ ॥
दलेष्वष्टसु गोप्तारं पिङ्गलाक्षं
ततः परम् ।
वीरसेनं शाम्भवं च त्रिनेत्रं
शूलिनं तथा ॥ ५९ ॥
दक्षं च भीमरूपं च
दिक्पालानस्त्रसंयुतान् ।
एवं सिद्धो मनुः सर्वमभीष्टं
मन्त्रिणेऽर्पयेत् ॥ ६०॥
इस मन्त्र का एक लाख जप तथा तिलों
से उसका दशांश होम करना चाहिए । शैव पीठ पर शास्ता का पूजन करना चाहिए । आवरण पूजा
में सर्वप्रथम पञ्चाङ्ग का पूजन, फिर अष्टदल
में गोप्ता, पिंगलाक्ष, वीरसेन,
शाम्भव, त्रिनेत्र, शूली,
दक्ष एवं भीमरुप का पूजन करे । तदनन्तर आयुधों के साथ दिक्पालों का
पूजन करना चाहिए । इस विधि से सिद्ध किया गया मन्त्र साधक को समस्त अभीष्टदल
प्रदान करता है ॥५८-६०॥
विमर्श - यन्त्र - वृत्ताकार
कर्णिका अष्टदलं एवं भूपुर युक्त यन्त्र पर महाशास्ता का पूजन करना चाहिए । इनका
पूजन मन्त्र चरणायुध पूजन के समान है । महाशास्ता की पीठ पूजा विधि - पूर्वोक्त है
। द्र० १६. २२-२५ की टीका है ।
आवरणपूजाविधि
- प्रथम आग्नेयादि कोणों में पञ्चाङ्ग पूजा करनी चाहिए ।
यथा - शस्तारं मृगयाश्रान्तं हृदयाय
नमः आग्नेये,
अश्वारुढं गणावृतं शिरसे स्वाहा,
नैऋत्ये,
पानीयार्थं वनोदत्य शिखायै वषट्,
वायव्ये,
शास्त्रे ते रैवते नमः,
ऐशान्ये,
शास्तारं ... शास्त्रे ते रैवते नमः,
चतुर्दिक्षु ।
इसके बाद अष्टदल में पूर्वादिदल
के क्रम से योद्धा आदि की पूजा करनी चाहिए । यथा -
ॐ गोप्त्रे नमः पूर्वदले, ॐ पिङ्गलाय नमः आग्नेयदले,
ॐ वीरसेनाय नमः दक्षिणदले, ॐ शाम्भवाय नमः नैऋत्यदले,
ॐ त्रिनेत्राय नमः पश्चिमदले, ॐ शूलिने नमः वायव्यदले,
ॐ दक्षाय नमः उत्तरदले, ॐ भीमरुपाय नमः ऐशान्ये,
इसके बाद भूपुर में
इन्द्रादि सायुध दिक्पालों की पूर्वादि दिशाओं के क्रम से पूर्ववत् पूजन करना
चाहिए (द्र०. १९. १०-१२) । इस प्रकार आवरण पूजा पूर्ण करनी चाहिए । ॥५८-६०॥
मध्याहनेञ्जलिना तस्मै जलं दत्वा
जलार्थिने ।
गोत्रादिभ्यस्तद् गणेभ्यो
दद्यादष्टौ जलाञ्जलीन् ॥ ६१॥
मध्याह्न काल होने पर पिपासित
शास्ता देव को अञ्जलि से जल देना चाहिए । फिर गोप्ता आदि उनके ८ गणों को भी ८
अञ्जलि जल प्रदान करना चाहिए । इस प्रकार जल से तर्पित गणों के सहित शास्ता अभीष्ट
प्रदान करते हैं ॥६१॥
जलसन्तर्पितः शास्ता सगणोऽभीष्टदो
भवेत् ।
निशि तस्मै बलिं दद्याद् गायत्र्या
चाभिमन्त्रितम् ॥ ६२॥
तदने प्रजपेन्मूलमष्टोत्तरशतं सुधीः
।
भूताधिपाय शब्दान्ते विद्महे
पदमीरयेत् ॥ ६३॥
महादेवाय च ततो धीमहीति पदं वदेत् ।
तन्नः शास्ता प्रचो वर्णा दयादिति च
कीर्तयेत् ॥ ६४ ॥
गायत्र्येषोदिता
शास्तुः सर्वाभीष्टप्रदा नृणाम् ।
रात्रि के समय वक्ष्यमाण शास्ता गायत्री मन्त्र से अभिमन्त्रित बलि भी देनी चाहिए । इसके बाद बुद्धिमान साधक को मूल
मन्त्र का १०८ की संख्या में जप करना चाहिए । ‘भूताधिपाय’
के बाद ‘विद्महे’, फिर ‘महादेवाय’ के बाद ‘धीमहि’
पद बोलना चाहिए । तदनन्तर ‘तन्नः शास्ता
प्रचोदयात्’, कहना चाहिए । इस प्रकार का महाशास्त गायत्री
मन्त्र समस्त अभीष्टदायक कहा गया है ॥६२-६५॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है –
भूताधिपाय विद्महे महादेवाय धीमहि
।
तन्नः शास्ता प्रचोदयात् ॥६२-६४॥
पार्थिवलिङ्गविधानं
बालगणेश्वरमन्त्रश्च
अथ पार्थिवलिङ्गस्य विधानमभिधीयते ॥
६५॥
स्नातो नित्यं विधायादौ गत्वा
शुद्धां भुवं सुधीः।
उपरिष्टामपाकृत्य
षडणेनाधिमन्त्रयेत् ॥ ६६ ॥
आकाशः पृथिवीरोषस्थितो
बिन्दुसमन्वितः ।
पथिवी तु चतुर्थ्यन्ता नमोऽन्तः
स्यात्षडर्णकः ॥ ६७ ॥
अब पार्थिवेश्वर के पूजन की विधि
कहता हूँ -
बुद्धिमान् साधक स्नान आदि नित्य
क्रिया करने के पश्चात् किसी शुद्धभूमि पर जा कर ऊपर से ८ अंगुल मिट्टी हटाकर
वक्ष्यमाण षडक्षर मन्त्र से भूमि को आमन्त्रित करे । पृथ्वी (ल),
शेष (आ) एवं बिन्दु से युक्त आकाश (ह) अर्थात् (हलां), फिर पृथ्वी का चतुर्थन्त पृथिव्यै, इसके बाद नमः
लगाने से षडक्षर मन्त्र निष्पन्न होता है ॥६५-६७॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप -
हलां पृथिव्यै नमः ॥६५-६७॥
ततो मृदमुपादाय कृत्वा निःशर्करां
ततः ।
पात्रे निदध्यात् संशुद्धे प्रत्यहं
पूजनाय ताम् ॥ ६८ ॥
सुदिने सद्गुरोर्मन्त्री
गणेश्वरकुमारयोः।
हराद्याश्च मनून्सप्त गृह्णीयाद्यागसिद्धये
॥ ६९ ॥
इस प्रकार मिट्टी लेकर से कूट पीसकर
ताम्र पात्र में रख लेना चाहिए । पार्थिव पूजन के लिए साधक को किसी उत्तम
मूहूर्त में सद्गुरु के पास जा कर गणेश, कुमार
तथा हर आदि के वक्ष्यमाण ७ मन्त्रों की दीक्षा लेनी चाहिए ॥६८-६९॥
अथार्चनं शुभे घस्त्रे
आरभेतेष्टसिद्धये ।
कृत नित्यक्रियः शुद्धः प्रदायाऱ्या
विवस्वते ॥ ७० ॥
मृदमादाय तोयेन सुधया मन्त्रितेन च ।
आसिञ्च्य पिण्डये स्वेष्टमानां
पात्रे निधापयेत् ॥ ७१॥
किसी शुभ मुहूर्त्त में इष्ट सिद्धि
के लिए पार्थिवेश्वर का पूजन प्रारम्भ करना चाहिए । नित्य कर्म करने के बाद
शुद्ध होकर पार्थिव पूजन से पहले साधक को पूर्वोक्त विधि से सूर्य नारायण
को अर्ध्य देना चाहिए (द्र० १५. ३२-४४) । फिर मिट्टी ले कर सुधा बीज (वं) से अभिमन्त्रित
जल से आर्द्र कर अपेक्षित मात्रा में (अंगुष्ठ मात्र) मिट्टी का गोला बना बना कर
किसी पात्र में रख देवे ॥७०-७१॥
ततः कालमनुस्मृत्य कामनामपि
हृद्गताम् ।
लिङ्गानि पार्थिवानीह
पूजयेऽमुकसंख्यया ॥ ७२ ॥
उसके बाद देश काल और मानसिक कामना
का स्मरण करते हुये ‘अमुक संख्यकं
पार्थिवशिवलिङमर्चयिष्ये’ इस प्रकार का संकल्प करना चाहिए
॥७२॥
विमर्श - संकल्पविधि - ॐ
अद्येत्यादि देशकालो संकीर्त्यामुक गोत्रोत्पन्नोऽमुक शर्मा वर्मा गुप्तांहममुक
कामनयाऽमुक कालपर्यन्तमुकसंख्यकानि पार्थिवशिवलिङ्गानि अर्चयिष्ये ॥७०-७२॥
संकल्प्यैवं मृदः पिण्डादादायाल्पां
मृदं सुधीः ।
एकादशार्णमन्त्रेण कुर्याद
बालगणेश्वरम् ॥ ७३॥
इस प्रकार संकल्प करने के बाद साधक
मिट्टी के गोले से थोडी मिट्टी लेकर वक्ष्यमाण एकादशाक्षर मन्त्र से बालगणेश्वर की
मूर्ति बनावे ॥७३॥
मायागणेशभूबीजैर्डेन्तो गणपतिः पुटः
।
एकादशार्णमन्त्रोऽयं स्मृतो
बालगणेशितुः ॥ ७४ ॥
बालगणेश्वर मन्त्र का उद्धार
- माया (ह्रीं), फिर गणेश (गं) तथा भू बीज
(ग्लौं) इन तीन बीजों से संपुटित चतुर्थ्यन्त गणपती इस प्रकार कुल ११ अक्षरों का
बाल गणेश मन्त्र बनता है ॥७४॥
विमर्श - बालगणेश्वरमन्त्र का स्वरुप
- ‘ह्रीं गं ग्लौं गणपतये ग्लौं गं ह्रीं ॥७४॥
वराभयलसत्पाणिपद्म बालगणेश्वरम् ।
निर्माय स्थापयेत् पीठे लिङ्गानि
रचयेत्ततः ॥ ७५ ॥
वर और अभय मुद्रा हाथों में धारण
करने वाले गणेश्वर की मूर्ति बनाकर पूजा पीठ पर स्थापित करना चाहिए । फिर लिङ्ग
निर्माण करना चाहिए ॥७५॥
लिङ्गमानकथनं
कुमारमन्त्रश्च
हरमन्त्रेण गृह्णीयादक्षमात्राधिका
मृदम् ।
महेश्वरस्य मन्त्रेण लिङ्गं
कुर्यात्तया शुभम् ॥ ७६ ॥
अंगुष्ठमानादधिकं
वितस्त्यवधिसुन्दरम् ।
पार्थिवं रचयेल्लिङ्गं न न्यूनं
नाधिकं च तत् ॥ ७७॥
हर मन्त्र (ॐ नमो हराय) से वहेडे के
फल से कुछ अधिक परिमाण की मिट्टी लेकर माहेश्वर मन्त्र (ॐ नम: महेश्वराय) मन्त्र
से अंगुष्ठ मात्र से लम्बाई में अधिक तथा बितस्ति से स्वल्प (१२ अंगुल) परिमाण का
सुन्दर लिङ्ग निर्माण करना चाहिए । पार्थिवेश्वर के समस्त लिङ्ग की एक समान आकृति
होनी चाहिए, न्यूनाधिक नहीं ॥७६-७७॥
शलपाणेस्तु मन्त्रेण लिङ्गं पीठे
निधापयेत ।
एवमन्यानि कुर्वीत यथा
संकल्पमादरात् ।। ७८॥
फिर ‘ॐ शूलपाणये नमः’ इस शूलपाणि मन्त्र से लिङ्ग को पीठ
पर स्थापित करना चाहिए । इसी प्रकार संकल्पोक्त अन्य सभी लिङ्गों का निर्माण कर
पीठ पर स्थापित करना चाहिए ॥७८॥
अवशिष्टमृदा कुर्यात्कुमारं तस्य
मन्त्रतः ।
स्थापयेल्लिङ्गपंक्त्यन्ते
स्वमन्त्रेणार्चयेच्च तम् ।। ७९ ॥
ऊपर बालगणेश्वर और पाथिवेश्वर शिव
लिङ्ग के निर्माण तथा पीठ पर स्थापन प्रकार कह कर कुमार रचना का प्रकार
कहते हैं ।
शेष मिट्टी से वक्ष्यमामाण कुमार
मन्त्र द्वार ष्ण्मुख कुमार का निर्माण करना चाहिए । फिर उन्हें लिङ्ग की पंक्ति
के अन्त में स्थापित कर उनके मन्त्र से उनक पूजन करना चाहिए ॥७९॥
वाग्वर्मकर्णबिन्द्वादयश्चरमो
मीनकेतनः ।
कुमाराय नमोन्तोऽयं गुहमन्त्रो
दशाक्षरः ॥ ८० ॥
कुमार कार्तिकेय मन्त्र का उद्धार
- वाग् (ऐं) वर्म (हुं) कर्ण एवं बिन्दु सहित चरम (क्षुं) फिर मीनकेतन (क्लीं)
अन्त में ‘कुमाराय नमः’ यह १० अक्षर का कुमार मन्त्र मन्त्र कहा गया है ॥७९-८०॥
विमर्श - मन्त्र
का स्वरुप - ऐं हुं क्षुं क्लीं कुमाराय नमः ॥७९-८०॥
मन्त्रेणावाहयेद्देवं प्रतिलिङ्ग
पिनाकिनः ।
ततो लिङ्गस्थितं ध्यायेत्सुप्रसन्नं
महेश्वरम् ॥ ८१॥
‘ॐ नमः पिनाकिने’ इस मन्त्र से प्रत्येक लिङ्ग में शिव
का आवाहन कर लिङ्ग में स्थित प्रसन्न मुख भगवान् सदाशिव का इस प्रकार ध्यान
करना चाहिए ॥८१॥
धान्यं पूजाविधिः आवरणदेवताश्च
दक्षाकस्थं गजपतिमुखं
प्रामृशन्दक्षदोष्णा
वामोरुस्थागपति तनयांके गुहं चापरेण
।
इष्टाभीतिपरकरयुगे
धारयन्निन्दुकान्तिः
सोव्यादस्मास्त्रिभुवननतो
नीलकण्ठस्त्रिनेत्रः ॥ ८२॥
दाहिनी गेद में स्थित गणपति
के मुख को अपनी दाहिनी भुजा से तथा वामाङ्ग मे विराजमान पार्वती की गोद में
बैठे कुमार को अपनी बायीं भुजा से स्पर्श करते हुये अन्य दोनों हाथों में
वर एवं अभयमुद्रा धारण किए हुये, चद्रमा जैसी गौर आभा वाले, त्रिलोक पूजित, नीलकण्ठ भगवान् सदाशिव हमारी रक्षा करें ॥८२॥
एवं ध्यात्वा पशुपतेर्मन्त्रेण
स्नापयेच्छिवम ।
शिवमन्त्रेण गन्धादीनपयेद्वसुरेतसे
॥८३॥
इस प्रकार ध्यान कर पशुपति
मन्त्र - ‘ॐ नमः पशुपतये नमः’ इस मन्त्र सं शिव को स्नान कराना चाहिए । तदनन्तर - ‘ॐ नमः शिवाय’ इस शिवमन्त्र से गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, एवं नैवेद्य आदि उपचारों से भगवान् सदाशिव का पूजन करना चाहिए ॥८३॥
प्रागादिवामावर्तेन दिक्ष्वष्टौ
परिपूजयेत् ।
शवं भवं रुद्रमुग्रं भीमं पशुपतिं
तथा ॥ ८४॥
महादेवमथेशानं
क्रमात्क्षित्यादिमूर्तिकान् ।
क्षित्यप्तेजोनिलाकाशयजमानेन्दुभास्कराः
॥८५॥
क्षित्यादयः स्युः शर्वाद्यास्तत
इन्द्रादिकान्यजेत् ।
पूर्वादि ८ दिशाओं में वामावर्त्त
के क्रम से क्षित्यादि मूर्तियों वाले शर्व आदि ८ देवताओं का पूजन करना चाहिए ।
१. शर्व,
२. भव, ३. रुद्र, ४.
उग्र, ५. भीम, ६. पशुपति, ७. महादेव एवं यजमान, ७. इन्द्र और ८. भास्कर की
मूर्त्तियां हैं । इनके पूजन के पश्चात् इन्द्रादि दिक्पालों का पूजन करना चाहिए
॥८४-८६॥
विमर्श
- श्लोक १९. ८२ में वर्णित पार्थिव शिव का कर पाद्यादि उपचारों से पुष्पाञ्जलि
पर्यन्त विधिवत् लिङ्ग पूजन कर आवरण पूजा करनी चाहिए । आवरण पूजा में पूर्वादि दिशाओं
में वामावर्त क्रम से शर्वादि अष्ट मूर्तियों की पूजा करनी चाहिए ।
आवरण पूजा
- ॐ शर्वाय क्षितिमूर्तये नमः पूर्वे,
ॐ भवाय जलमूर्तये नमः ईशाने, ॐ रुद्राय तेजोमूर्तये नमः
उत्तरे,
ॐ उग्राय वायुमूर्तये नमः वायव्ये, ॐ भीमाय आकाशमूर्तये नमः पश्चिमे,
ॐ पशुपतये यजमानमूर्तये नमः नैऋत्ये, ॐ महादेवाय चन्द्रमूर्तये नमः
दक्षिणे,
ॐ ईशानाय सूर्यमूर्तये नमः आग्नेये,
तत्पश्चात इन्द्रादि दिक्पालों का
पूर्वादि क्रम से पूर्ववत् पूजन करना चाहिए (द्र० १९. १२ की टीका) ॥८६॥
धूपदीपनिवेद्यानि नमस्कारप्रदक्षिणाः
॥ ८६॥
जपं
च कृत्वा विसृजेन्महादेवस्य मन्त्रतः ।
अब उत्तरपूजा तथा विसर्जन विधि
कहते हैं - आवरण पूजा के बाद धूप, दीप, नैवेद्य, नमस्कार एवं प्रदक्षिणा आदि करनी चाहिए ।
फिर सदाशिव मन्त्र (ॐ नमः शिवाय) का जप कर महादेव मन्त्र (ॐ नमो महादेवाय)
से विर्सजन करना चाहिए ॥८६-८७॥
विमर्श - विनियोग - ॐ अस्य
श्रीसदाशिवमन्त्रस्य वामदेवऋषिः पङिक्तश्छन्दः श्रीसदाशिवो देवता ॐ बीजं नमः
शक्तिः शिवायेति कीलकं आत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादिन्यास
- ॐ वामदेवाय ऋषये नमः शिरसि,
ॐ पङ्क्तिश्छन्दसे नमः मुखे, ॐ श्रीसदाशिवदेवतायै नमः
हृदि
ॐ बीजाय नमः गुहये ॐ नमः शक्तये नमः पादयोः
ॐ शिवाय कीलकाय नमः सर्वाङ्गे ।
कराङ्गन्यास
- ॐ अङ्गुष्ठाम्यां नमः, ॐ नं तर्जनीभ्यां नमः,
ॐ मं मध्यमाभ्यां नमः ॐ शिं अनामिकाभ्यां नमः ॐ वां कनिष्ठिकाभ्या नमः,
ॐ यं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । एवमेव हृदयादि न्यासं कुर्यात्
इसके बाद सदाशिव का ध्यान इस
प्रकार करे -
ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं
चारुचन्द्रावतंसं
पद्मासीनं
समन्तात्स्तुममरगणैर्व्याधकृत्तिं वसानं
विश्वाद्यं विश्ववन्द्यं निखिलभयहरं
पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम् ॥८६-८७॥
हरादिमन्त्रकथनम्
तारनत्यादिका उन्ता हराधा मनवोद्रयः
॥ ८७ ॥
हर आदि के ७ मन्त्र - प्रारम्भ में
प्रणव,
फिर ‘नमः’ उसके बाद हर
आदि का चतुर्थ्यन्त रुप (हराय) लगासे से पार्थिवेश्वर पूजन में प्रयुक्त ७ मन्त्र
निष्पन्न होते हैं ॥८७॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप -
१. ॐ नमो हराय, २. ॐ नमो महेशाय, ३. ॐ नमः शूलपाणये, ४. ॐ नमः पिनाकिने, ५. ॐ नमः पशुपतये, ६. ॐ नमः शिवाय, ७. ॐ नमो महादेवाय ॥८७॥
प्रतिलिङ्ग यजेद्देवमखिलानि सहैव वा
।
पूजितौ निजमन्त्राभ्यां
विसृजेद्गणराड्गुहौ ॥ ८८ ॥
प्रत्येक लिङ्ग का इस विधि से पूजन
करे अथवा समस्त लिङ्गो का एक साथ उक्त विधि से पूजन करे । बालगणेश्वर एवं कुमार
कार्तिकेय का भी उनके पूजन के बाद विर्सजन कर देवे ॥८८॥
धनपुत्रादिकामैस्तु शिवोर्च्यः
प्रोक्तलक्षणः ।
विद्याकामैश्चिन्तनीयः परशुं हरिणं
वरम् ॥ ८९ ।।
ज्ञानमुद्रां
दधद्धस्तैर्वटमूलमुपाश्रितः।
अब विविध कामनाओं के लिए विविध
पार्थिवेश्वर का ध्यान कहते हैं -
धन एवं पुत्रादि की कामना करने वाले
लोगों को पूर्वोक्त विधि से शिव का पूजन करना चाहिए । विद्या की कामना
वालों को वट कं मूल में स्थित अपने चारों हाथों में परशु,
हरिण, वर एवं ज्ञान मुद्रा धारण करने वाले भगवान्
दक्षिणामूर्ति का ध्यान करना चाहिए ॥८९-९०॥
पुंसोविरुद्धयोः सन्धौ
कुर्याल्लिङ्गानि साधकः ॥ ९० ॥
नदीतीरद्वयानीतमृदा तानि च पूजयेत्
।
तत्र ध्येयो हरिहरः शंखपमाहिशूलभृत्
॥ ९१ ॥
दो विरोधियों में सन्धि कराने के
लिए नदी के दोनों किनारों की मिट्टी लाकर, उससे
शिव लिङ्ग बनाकर, उसका पूजन करना चाहिए । इस प्रयोग में शंख,
पद्म, सर्प एवं शूलधारी हरिहर की उभयात्मक
मूर्ति का ध्यान करना चाहिए ॥९०-९१॥
इन्द्रनीलशरच्चन्द्रनिभो
भूषणपुजवान् ।
दम्पत्योरविरोधार्थमर्द्धनारीश्वरः
स्मृतः ॥ ९२ ॥
इन्द्रनील जैसी आभा वाले श्री
हरि तथा शरच्चन्द्र के समान हर का ध्यान करना चाहिए । आभूषणों से अलंकृत इन
दोनों में ऐक्य की भावना करते हुये शिवलिङ्ग पूजन करना चाहिए ॥९२॥
पति और पत्नी में अविरोध के लिए
(प्रेम संपादनार्थ) अर्द्धनारीश्वर का ध्यान कर पार्थिव पूजा करनी चाहिए।
जिनके चारों हाथों में क्रमशः अमृतकुम्भ, पूर्णकम्भ,
पाश एवं अंकुश है ॥९३॥
पीयूषपूर्णकलशं दधत् पाशांकुशावपि ।
उच्चाटनादिषु ध्यानकथनं
उच्चाटे मारणे द्वेषे ध्यातव्यः
पुनरीदृशः ॥ ९३ ॥
कालीहस्ताम्बुजालम्बः
शूलप्रोतद्विषच्च यः ।
मुण्डमालालसत्कण्ठो
राववित्रासिताखिलः ॥ ९४ ॥
इत्थं तु कामनाभेदाद् ध्यानभेदाः
प्रकीर्तिताः ।
पूजयेत्कार्यवशतो लक्षावधिसहस्रतः ॥
९५ ।।
उच्चाट्न,
मारण एवं विद्वेषण आदि में काली के कर का अवलम्बन कर अपने
त्रिशूल से प्रचण्डं शत्रु समूह को छिन्न-छिन्न करते हुये मुण्डमाला धारी अपने
प्रचण्ड अट्टाहस से सबको भयभीत करते हुये भगवान् सदाशिव का ध्यान कर लिङ्ग पूजा
करनी चाहिए । इस प्रकार विधि कामनाओं के भेद से भिन्न भिन्न ध्यान बतलाए गए हैं
॥९३-९५॥
छोटे एवं बडे कार्यो के भेद से १०००
से लेकर एक लाख तक की संख्या मे पार्थिव पूजन करना चाहिए ॥९५॥
लक्षलिङ्गपूजाफलकथनम्
लक्षपार्थिवलिङ्गानां पूजनाद् भुवि
मुक्तिभाक् ।
लक्षं तु गुडलिङ्गानां पूजनात्
पार्थवो भवेत् ॥ ९६ ॥
एक लाख की संख्या मे शिव लिङ्ग पूजन
करने से पृथ्वी पर मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है । गुड निर्मित एक लाख
लिङ्गों के पूजन से साधक राजा बन जाता है ॥९६॥
या नारी गुडलिङ्गानि सहस्रं
पूजयेत्सती ।
भर्तुः सुखमखण्ड सा प्राप्यान्ते
पार्वती भवेत् ॥ ९७॥
जो स्त्री पातिव्रत्य धर्म का पालन
करते हुये गुड निर्मित एक हजार लिङ्गों की पूजा करती है,
वह पति का सुख तथा अखण्ड सौभाग्य प्राप्त कर अन्त में पार्वती
के स्वरुप में मिल जाती है ॥९७॥
नवनीतस्य लिङ्गानि
सम्पूज्येष्टमवाप्नुयात् ।
भस्मनो गोमयस्यापि बालुकायास्तथा
फलम् ॥ ९८ ॥
नवनीत निर्मित्त लिंगों का पूजन कर
मनुष्य अभीष्ट वस्तुओं को प्राप्त कर लेता है । भस्म,
गोमय एवं बालुका बने लिङ्गो के पूजन का भी यही फल कहा गया है ॥९८॥
क्रीडन्ति पृथुका भूमौ कृत्वा
लिङ्गं रजोमयम् ।
पूजयन्ति विनोदेन तेऽपि स्युः
क्षितिनायकाः ॥ ९९ ॥
जो लडके धूलि का लिङ्ग बनाकर उससे
खेलते है एवं विनोद में उसकी पूजा करते हैं । वे इसके प्रभाव से राजा हो जाते हैं
॥९९॥
लिङ्गपूजाया नानाफलानि
प्रातर्गोमयलिङ्गानि नित्यं
यस्त्रीणि पूजयेत् ।
बृहतीबिल्वयोः पत्रैर्नैवेद्यं
गुडमर्पयेत् ॥ १००॥
एवं मासत्रयं कुर्वन्ननल्पं लभते
धनम् ।
अब धन के लिए लिङ्ग पूजन प्रयोग
कहते हैं -
जो व्यक्ति प्रातःकाल तीन महीने तक
गोमय निर्मित तीन लिङ्गो का पूजन करता है और उस पर भटकटैया तथा बिल्वपत्र चढाकर
गुड का नैवेद्य अर्पित करता है वह प्रचुर संपत्ति प्राप्त करता है ॥१००-१०१॥
एकादशैवलिङ्गानि गोमयोत्थानि यो
यजेत् ॥ १०१॥
प्रातर्मध्याह्नयोः
सायं निशीथे प्रतिवासरम ।
म सर्वाः सम्पदो यायात् षण्मासा
देवमाचरन् ॥ १०२॥
जो व्यक्ति गोमय निर्मित एकादश
लिङ्गो का छः मास पर्यन्त प्रातः मध्याहन सायंकाल और अर्धरात्रि - इस प्रकार
काल-चतुष्टय में निरन्तर पूजन करता है वह सब प्रकार की संमृद्धि प्राप्त कर लेता
है ॥१०१-१०२॥
एकादशं यजेन्नित्यं शालिपिष्टमयानि
सः ।
लिडानि मासमात्रेण सकल्मषं च यं
दहेत ॥ १०३॥
अब पापराशि को नष्ट करने के लिए
प्रयोग कहते हैं -
जो साठी के चावल पिष्ट का एकादश
लिङ्ग बनाकर एक मास पर्यन्त नित्य (बिना व्यवधान के) पूजन करता है,
वह अपनी सारी पापराशि जला देता है ॥१०३॥
स्फाटिकं पूजितं
लिङ्गमेनोनिकरनाशकम् ।
सर्वकामप्रदं
पुंसामुदुम्बरसमुद्भवम् ॥ १०४ ॥
रेवाश्मजं सर्वसिद्धिप्रदं
दुःखविनाशनम् ।
यथाकथञ्चिल्लिङ्गस्य पूजा नित्यं
कृतेष्टदा ॥ १०५॥
स्फटिक के लिङ्ग की पूजा से साधक के
सभी पाप दूर हो जाते हैं । तांबे से बना लिङ्ग साधक की सभी मनोकामनाओं को पूर्ण
करता है । नर्मदेश्वर लिङ्ग के पूजन से सारी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं तथा सारे
दुःखों का नाश होता है । चाहे जिसे किसी भी प्रकार से हो प्रतिदिन लिङ्ग का पूजन
अभीष्टफलदायक कहा गया है ॥१०४-१०५॥
यो यजेत् पिचुमन्दोत्थैः
पत्रैर्गोमयजं शिवम् ।
क्रुद्धं महेश्वरं ध्यायन् स
पराजयते रिपून ॥ १०६ ॥
जो व्यक्ति गोबर का शिवलिङ्ग बनाकर
क्रुद्ध महेश्वर का ध्यान करते हुये नीम की पत्तियों से उनका पूजन करता है वह
शत्रुओं का विनाश कर देता है ॥१०६॥
यो लिङ्ग पूजयेन्नित्यं शिवभक्तिपरायणः
।
मेरुतुल्योऽपि तस्याशु पापराशिर्लयं
व्रजेत् ॥ १०७ ॥
जो व्यक्ति भगवान् शिव की भक्ति में
तत्पर हो कर प्रतिदिन लिङ्ग का पूजन करता है उसके सुमेरु तुल्य भी महान् पाप नष्ट
हो जाते हैं ॥१०७॥
दोग्ध्रीणां तु गवां लक्ष यो
दद्याद्वेदपाठिने ।
पार्थिवं योऽर्चयेल्लिङ्गं
तयोर्लिङ्गार्चको वरः ॥ १०८ ॥
जो व्यक्ति वेदपाठियों को एक लाख
दुधारु सवत्सा गौ का दान करे और जो दूसरा साधक पार्थिवशिवलिङ्ग का पूजन करे
तो उन दोनों मे पार्थिवशिवलिङ्ग का पूजन करने वाला व्यक्ति श्रेष्ठ है ॥१०९॥
चतुर्दश्यां तथाष्टम्यां पौर्णमास्यां
विधुक्षये ।
पयसा स्नापयेल्लिङ्गं धरादानफलं
व्रजेत् ॥ १०९ ।।
चतुर्दशी,
अष्टमी, पौर्णमासी तथा अमावस्या को दुग्ध से
शिव लिङ्ग को स्नान कराने वाला व्यक्ति पृथ्वीदान के समान फल प्राप्त करता है
॥१०९॥
लिङ्गपूजा विधायाऽग्रे स्तोत्रं वा
शतरुद्रियम् ।
प्रजपेत्तन्मना भूत्वा शिवे स्वं
विनिवेदयेत् ॥ ११० ॥
अब लिङ्ग पूजन के बाद का उत्तर
कर्म कहते हैं -
लिङ्ग पूजा के बाद उनके संमुख
यजुर्वेदोक्त ‘नमस्ते रुद्र’ इत्यादि किसी स्तोत्र का अथवा, शतरुद्रिय इत्यादि का
पाठ करना चाहिए । फिर स्वयं को भगवान् सदाशिव में अपने को समर्पित कर देना चाहिए ॥११०॥
यत्संख्याकं यजेल्लिङ्गं तन्मितं
होममाचरेत् ।
आज्यान्वितैस्तिलैरग्नौ घृतैर्वा
पायसेन वा ॥ १११ ॥
शिवमन्त्रेण तस्यान्ते ब्राह्मणान्
भोजयेच्छतम् ।
एवं कृते समस्तेष्टसिद्धिर्भवति
निश्चितम् ॥ ११२ ॥
जितनी संख्या में लिङ्गो का पूजन
करे,
उतनी ही संख्या में घृत मिश्रित तिलों से, अथवा
घृत से, अथवा मात्र पायस से, विधिवत्
स्थापित अग्नि में - ॐ नमः शिवाय - इस मन्त्र से होम करना चाहिए । इसके बाद
१०० ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए । ऐसा करने साधक के सभी मनोरथ निश्चित रुप से
पूर्ण हो जाते हैं ॥१११-११२॥
नरकरोधकरो
यमधर्ममन्त्रः ध्यानादि च
प्रणवांकुशहल्लेखापाशाः
कम्भौतिकेन्दुमत् ।
वैवस्वताय धर्मान्ते राजावर्णाः
प्रभञ्जनः ॥ ११३॥
भक्तानुग्रहवर्णान्ते कृते नम
उदीरितः।
चतुर्विंशति वर्णात्मा मन्त्रः
शमनदैवतः ॥ ११४ ॥
अब धर्मराज मन्त्र का उद्धार
कहते हैं -
प्रणव (ॐ),
अङ्कुश (क्रों), हृल्लेखा (ह्रीं), पाश (आं), कं जलबीज (वं), जो
भौतिक ए और बिन्दु से युक्त हो अर्थात् (वैं) फिर ‘वैवस्वताय
धर्म; पद के बाद ‘राजा’ पद तथा प्रभञ्जन (य) फिर ‘भक्तानुग्रह’ शब्द के बाद कृते नमः’ जोडने से २४ अक्षरों का
धर्मराजमन्त्र निष्पन्न हो जाता है ॥११३-११४॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप -
ॐ क्रों ह्रीं आं वैं वैवस्वताय धर्मराजाय भक्तानुग्रकृते नमः (२४) ॥११३-११४॥
त्रिनेत्रपञ्चबाणाद्रियुग्माणैरङ्गकं
मनोः ।
विधाय सावधानेन मनसा चिन्तयेद्यमम्
॥ ११५ ॥
अब षडङ्गन्यास कहते हैं -
मन्त्र के ३, २, ५,
५, अद्रि ७ एवं २ वर्णों से षडङ्गान्यास करना
चाहिए । तदनन्तर मनोयोग पूर्वक धर्मराज का ध्यान करना चाहिए ॥११५॥
विमर्श - विनियोग - अस्य
श्रीधर्मराजमन्त्रस्य वामदेवऋषिर्गायत्रीच्छन्दः शमनादेवता ममाभीष्टसिद्ध्यर्थे
जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास
- ॐ क्रों ह्रीं हृदाय नमः, आं वैं शिरसे स्वाहा,
वैवस्वताय शिखायै वषट्, धर्मराजाय कवचाय हुम्,
भक्तानुग्रकृते नेत्रत्रयाय वौषट्, नमः अस्त्राय फट् ।
पान्थःसंयुत मेघसन्निभतनुः
प्रद्योतनस्यात्मजो
नृणां पुण्यकृतां शुभावहवपुः पापीयसां
दुःखकृत् ।
श्रीमद्दक्षिणदिक्पतिर्महिषगोभूषाभरालंकृतो
ध्येयः संयमिनीपतिः पितृगणस्वामी
यमो दण्डभृत् ॥ ११६ ।।
ध्यान
- जिन सूर्यपुत्र का सजलमेघ के समान श्याम शरीर है, जो पुण्यात्माओं को सौम्य रुप में तथा पापियों को दुःखदायक भयानक रुप में
दिखाई पडते हैं, जो ऐश्वर्य सम्पन्न दक्षिणदिशा के अधिपति,
महिष पर सवारी करने वाले, अनेक आभूषणों से
अलंकृत संयमिनी नगरी के तथा पितृगणों के स्वामी, प्राणियों
का नियमन करने वाले तथा दण्ड धारण करने वाले हैं इस प्रकार के धर्मराज का ध्यान
करना चाहिए ॥११६॥
अभ्यस्तोऽयं सिद्धमन्त्रः
सकलापद्विनाशनः।
नरकप्राप्तिरोद्धास्याद्रिपुभीतिनिवर्तकः
॥ ११७॥
अभ्यास करने से सिद्ध हुआ यह मन्त्र
साधक की सारी आपत्तियों का नाश करता है, नरक
जाने से रोकता है तथा शत्रुभय का निवर्तक है ॥११७॥
चित्रगुप्तमन्त्रस्तद्विधिश्च
प्रणवो हृद्विचित्राय धर्मान्ते
लेखकाय च ।
यमवान्ते हिकाधीतिकारिणे
पदमुच्चरेत् ॥ ११८ ॥
क्षुधातन्द्री क्रियोत्कारी
वह्निया/शसंयुताः।
यामिनीशयुता मूर्ध्नि जन्मसम्पत्पदं
ततः ॥ ११९ ॥
प्रलयं कथय द्वन्द्वं
स्वाहाऽष्टात्रिंशदक्षरः ।
मन्त्रोऽयं चित्रगुप्तस्य
सर्वदुःखौघनाशनः ॥ १२० ॥
अब चित्रगुप्त के मन्त्र का
उद्धार कहते हैं - प्रणव (ॐ), फिर हृद्
(नमः), फिर ‘विचित्राय धर्म’ लेखकाय यमवाहिकाधिकारिणे’ पद का उच्चारण करना चाहिए
। फिर क्षुधा (य), तन्द्री (म), क्रिया
(ल), उत्कारी (ब), वहिन (र) एवं (य) इन
वर्णों में अर्घीश एवं इन्दु लगाने से निष्पन्न र्य्म्ल्व्यूं, फिर ‘जन्म सम्पत्लयं’ पद का
उच्चारण कर २ बार कथय और अन्त में ‘स्वाहा’ जोडने से ३८ अक्षरों का चित्रगुप्त मन्त्र बनता है जो सारे पापों एवं
दूःखों को दूर करने वाला है ॥११८-१२०॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार - ॐ नमः विचित्राय धर्मलेखकाय यमवाहिकाधिकारिणे र्य्म्ल्ब्यूं
जन्मसंपत्प्रलयं कथय कथय स्वाहा (३८) ।
सप्तषण्णव
वस्वङ्गैर्नेत्राणैर्मनुसम्भवैः ।
प्रविधाय षडङ्गानि चिन्तयेत्
कर्मलेखकम् ॥ १२१ ॥
षडङ्गन्यास
- मन्त्र के ७, ६, ९,
८, ६, एवं २ वर्णों से
षडङ्गन्यास करना चाहिए । फिर सबके कर्मों का लेखा जोखा रखने वाले चित्रगुप्त का इस
प्रकार ध्यान करना चाहिए ॥१२१॥
विमर्श - विनियोग पूर्ववत्
है केवल ‘धर्मराजमन्त्रस्य’ के स्थान पर ‘चित्रगुप्तमन्त्रस्य’ कहना चाहिए ।
षडङ्गन्यास विधि
- ॐ नमः विचित्राय हृदयाय नमः,
धर्मलेखकाय शिरसे स्वाहा यमवाहिकाधिकारिणे शिखायै वषट्
र्य्म्ल्ब्यूं जन्मसंपत्प्रलयं
कवचाय हुम्
कथयं कथय नेत्रत्रयाय वौषट् स्वाहा
अस्त्राय फट् ॥१२१॥
किरीटोज्ज्वलं
वस्त्रभूषाभिरामं
चित्रासनासीनमिन्दुप्रभास्यम् ।
नृणां पापपुण्यानि पत्रे लिखन्तं
भजे चित्रगुप्त सखायं यमस्य ॥ १२२ ॥
ध्यान
- किरीट के प्रकाश से उज्ज्वल तथा वस्त्र एवं आभूषण से मनोहर,
चन्द्रिका के समान प्रसन्न मुख वाले, विचित्र
आसन पर बैठ कर सारे मनुष्यों के पाप और पुण्यों को बही के पत्र पर लिखते हुये,
यमराज के सखा चित्रगुप्त का मैं भजन करता हूँ ॥१२२॥
सिद्धमन्त्रमिमं पुंसां जपतां
चित्रगुप्तकः ।
प्रसन्नो गणयेत् पुण्यं नैव पापं
कदाचन ॥ १२३ ॥
इस सिद्धमन्त्र का जप करने वाले
मनुष्यों से प्रसन्न हुये चित्रगुप्त केवल उनके पुण्यों का ही लेखा जोखा करते हैं
पापो का नहीं ॥१२३॥
आसुरीमन्त्रः ध्यानं तद्विधिश्च
वक्ष्याम्यथर्ववेदोक्तमासुरीविधिमुत्तमम्
।
कटुके कटुकान्ते तु पत्रेन्ते सुभगे
पदम् ॥ १२४ ॥
अनन्तसुरिरक्तन्ते पदं
स्याद्रक्तवाससे ।
अथर्वणस्य दुहिते केशवोघोभगीबली ॥
१२५॥
अघोरकर्मशब्दान्ते कारिके अमुकस्य च
।
गतिं दहद्वयं कर्णोः पविष्टस्य गुदं
दह ॥ १२६ ॥
दहसुप्तस्य तन्द्रीनो दहयुग्मं
प्रबुद्ध च ।
भृगुः सवालीहृदयं दहद्वन्द्वं
हनद्वयम् ॥ १२७ ॥
पचयुग्मं तावदन्ते दहतावत् पचेति च
।
यावन्मे वशमायाति वर्मास्त्रे
वह्निवल्लभा ॥ १२८ ॥
तारादिरासुरीमन्त्रो
दशोत्तरशताक्षरः ।
अब अर्थववेदोक्त आसुरी विद्या
के प्रयोगों की श्रेष्ठतम विधि कहता हूँ -
‘कटुके कटुके’ के बाद ‘पत्रे सुभगे’, फि
अनन्त (आ), फिर ‘सुरिरक्ते’ के बाद ‘रक्तवाससे अथर्वणस्य दुहिते, पद, तदनन्तर केशव (अ), फिर ‘घो’ भगी बली (रे) तथा ‘अधोम
कर्म’ पद के बाद ‘कारिके’ ‘अमुकस्य’ साध्य नाम षष्ठयन्त, फिर
‘गतिं’, फिर २ बार दह, फिर कर्ण (उ), फिर ‘पविष्टस्य
गुदं’, फिर दो बार दह, फिर ‘सुप्तस्य’, फिर तन्द्री (म), ‘नो’
तथा २ बार ‘दह’ फिर ‘प्रबुद्ध’ स बाली भृगु (स्य) हृदयं, फिर २ बार ‘दह’, २ बार ‘हन’ तथा दो बार ‘पच’, फिर ‘तावत्’ ‘दह’ ‘तावत्’ ‘पच’ यावन्मे वशमायति,
फिर वर्म (हुं), अस्त्र (फट्) तथा अन्त में
वहिनवल्लभा (स्वाहा) और प्रारम्भ में तार (ॐ) लगाने से ११० अक्षरों का आसुरी
मन्त्र निष्पन्न होता है ॥१२४-१२९॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप -
ॐ कटुके कटुकपत्रे सुभगे आसुरिरक्ते रक्तवाससे अथर्वणस्य दुहिते अघौरे अघोरकर्मकारिके
अमुकस्य गतिं दह दह उपविष्टस्य गुदं दह दह सुप्तस्य मनो दह दह प्रबुद्धस्य हृदयं
दह दह हन हन पच पच तावद्दह तावत्पच यावन् मे वशमायाति हुं फट् स्वाहा । (आसुरी
दुर्गा की संज्ञा है) ॥१२४-१२९॥
अङ्गिरास्तु ऋषिश्छन्दो विराड्
दुर्गासुरी मता ॥ १२९॥
देवता प्रणवो बीजं शक्तिः
पावकनायिका ।
विनियोग एवं षडङ्गन्यास
- इस मन्त्र के अंगिरा ऋषि हैं, विराट् छन्द
तथा आसुरी दुर्गा देवता है, प्रणव बीज तथा स्वाहा शक्ति
॥१२९-१३०॥
विमर्श - विनियोग विधि - ॐ
अस्य आसुरीमन्त्रस्य अंगिरा ऋषिर्विराट् छन्दः आसुरीदुर्गादेवता ॐ बीजं स्वाहा
शक्तिरात्मनोऽभीष्टसिद्ध्यर्थ जपे विनियोगः ॥१२९-१३०॥
हृन्नवाणैः शिरोगाणैः
शिखासप्ताक्षरैर्मता ॥ १३० ॥
वर्माष्टभिर्नेत्रमीशैरस्त्रं
बाणरसाक्षरैः ।
हुं फट् स्वाहेति सर्वत्र पठेदङ्गेषु
साधकः ॥ १३१॥
मन्त्र के ९ वर्णों से हृदय पर,
६ वर्णों से शिर, ७ वर्णों से शिखा, ८ वर्णों से कवच, ११ वर्णों से नेत्र तथा ६५ वर्णों
से अस्त्र पर न्यास करना चाहिए । सभी अङ्गो पर न्यास करते समय साधक को मन्त्र के
अन्त में ‘हुं फट् स्वाहा’ इतना और
पढना चाहिए ॥१३०-१३१॥
विमर्श - ऋष्यादिन्यास - ॐ
अङ्गिरसे ऋषये नमः, शिरसि,
ॐ विराट् छन्दसे नमः मुखे, ॐ आसुरीदुर्गादेवतायै नमः
हृदि,
ॐ ॐ बीजाय नमः गुह्ये ॐ स्वाहा शक्तये नमः पादयोः
षड्ङन्यास
- ॐ कटुके कटुकपत्रे हुं फट् स्वाहा हृदाय नमः,
सुभगे आसुरि हुं फट् स्वा शिरसे
स्वाहा,
रक्तेरक्तवाससे हुं फट् स्वाहा
शिखायै वषट्,
अथर्वणस्य दुहिते हुं फट् स्वाहा
कवचाय हुम्,
अघोरे अघोरकर्मकारिके हुं फट्
स्वाहा नेत्रत्रयाय वौषट्,
अमुकस्यं गति ... यावन्मेवशमायाति
हुँ फट् स्वाहा, अस्त्राय फट्
॥१३०-१३१॥
शरच्चन्द्र
कान्तिर्वराभीतिशूलं
सृणिं
हस्तपदैर्दधानाम्बुजस्था ।
विभूषा
वराढ्यादियज्ञोपवीता
मुदोथर्वपुत्री करोत्वासुरी नः ॥
१३२ ॥
अब अथर्वापुत्री भगवती आसुरी
दुर्गा का ध्यान कहते हैं -
जिनके शरीर की आभा शरत्कालीन चन्द्रमा
के समान शुभ है, अपने कमल सदृश हाथों में जिन्होंने
क्रमशः वर, अभय, शूल एवं अंकुश धारण
किया है । ऐसी कमलासन पर विराजमान, आभूषणों एवं वस्त्रों से
अलंकृत, सर्प का यज्ञोपवीत धारण
करने वाली अथर्वा की पुत्री भगवती आसुरी दुर्गा मुझे प्रसन्न रखें ॥१३२॥
अयुतं प्रजपेन्मन्त्रं
जुहुयात्तद्दशांशतः ।
घृताक्तराजिकां वह्नौ ततः सिद्धो
भवेन्मनुः ॥ १३३ ॥
इस मन्त्र का दश हजार जप करना चाहिए
। तदनन्तर घी मिश्रित राई से दशांश होम करने पर यह मन्त्र सिद्ध हो जाता है ।
(जयादि शक्ति युक्त पीठ पर दुर्गा की एवं दिशाओं में सायुध शशक्तिक
इन्द्रादि की पूजा करनी चाहिए) ॥१३३॥
अस्य मन्त्रस्यनानाफलानि
पञ्चाङ्गामासुरी मन्त्री गृहीत्वा
मन्त्रयेच्छंतम् ।
तया धूपितमात्मानं यो जिप्रेत् स
वशो भवेत् ॥ १३४ ।।
मध्वक्तमासुरी हुत्वा सहस्रं
वशयेज्जगत् ।
राजिकाप्रतिमां कृत्वा दक्षा
मस्तकावधि ॥ १३५॥
अब काम्य प्रयोग का विधान
कहते हैं - राई के पञ्चाङ्गो (जड शाखा पत्र पुष्प एवं फलों) को लेकर साधक
मूलमन्त्र से उसे १०० बार अभिमन्त्रित करे, तदनन्तर
उससे स्वयं को धूपित करे तो जो व्यक्ति उसे सूँघता है वही वश में हो जाता है । मधु
युक्त राई की उक्त मन्त्र से एक हजार आहुति देकर साधक जगत् को अपने वश में कर सकता
है ॥१३४-१३५॥
अष्टोत्तरशतं
खण्डाजुहुयादसिनादितान् ।
नार्याः प्रतिकृतेर्वामपादादिहवनं
चरेत् ॥ १३६ ॥
एवं प्रकुर्यात्सप्ताहं
राजीन्धनचितेऽनले ।
स सपत्नोऽपि मृत्यन्तं दासो जायेत
मन्त्रिणः ॥ १३७ ॥
स्त्रीलिङ्गोहः प्रकर्तव्यो मन्त्रे
नारी वशीकृतौ ।
अब वशीकरण आदि अन्य प्रयोग
कहते हैं -
स्त्री या पुरुष जिसे वश में करना
हो उसकी राई की प्रतिमा बना कर पुरुष के दाहिने पैर से मस्तक तक,
स्त्री के बायें पैर से मस्तक तक, तलवार से
१०८ टुकडे कर, प्रतिदिन विधिवत् राई की लकडी से प्रज्वलित
अग्नि में निरन्तर एक सप्ताह पर्यन्त इस मन्त्र से हवन करे, तो
शत्रु भी जीवन भर स्वयं साधक का दास बन जाता है । स्त्री को वश में करने के लिए
साध्य में (देवदत्तस्य उपविष्टस्य के स्थान पर देवदत्तायाः उपविष्टायाः इसी प्रकार
देवदत्तायाः सुदामा आदि) शब्दों को ऊह कर उच्चारण करना चाहिए ॥१३६-१३८॥
कटुतैलान्वितां राजी निम्बपत्रयुतां
रिपोः ॥ १३८ ॥
नामयुङ्मनुना हुत्वा ज्वरिणं कुरुते
रिपुम् ।
सरसों का तेल तथा निम्ब पत्र मिला
कर राई से शत्रु का नाम लगा कर मूलमन्त्र से होम करने से शत्रु को बुखार आ जाता है
॥१३८-१३९॥
एवं राजी सलवणां हुत्वां स्फोटो भवेदरेः
॥ १३९ ॥
अर्कदुग्धाक्त तद्धोमान्नेत्रे
नाशयते रिपोः ।
इसी प्रकार नमक मिला कर राई का होम
करने से शत्रु का शरीर फटने लगता है । आक के दूध में राई को मिश्रित कर होम करने
से शत्रु अन्धा हो जाता है ॥१३९-१४०॥
पालाशेन्धन दीप्तेऽग्नौ सप्ताहं
घृतसंयुताम् ॥ १४० ॥
साधको राजिका हुत्वा ब्राह्मणं
वशयेद्धवम् ।
क्षत्रियं तु गुडाभ्यक्ता वैश्यं
दधियुतां च ताम् ॥ १४१ ॥
शूद्रं लवणसंयुक्तां हुत्वा तां
साष्टकं शतम् ।
आसुरी समिधो हुत्वा मध्वक्ता लभते
निधिम् ॥ १४२ ॥
पलाश की लकडी से प्रज्वलित अग्नि
में एक सप्ताह तक घी मिश्रित राई का १०८ बार होम करने से साधक ब्राह्मण को,
गुडमिश्रित राई का होम करने से क्षत्रिय को, दधिमिश्रित
राई के होम से वैश्य को तथा नमक मिली राई के होम से शूद्र को वश में कर लेता है ।
मधु सहित राई की समिधाओं का होम करने से व्यक्ति को जमीन में गडा हुआ खजाना
प्राप्त होता है ॥१४०-१४२॥
तोयपूर्णे घटे मन्त्री
राजिकापल्लवान्विते ।
आवाह्य ता पूजयित्वा शतं मूलेन
मन्त्रयेत् ॥ १४३ ॥
तेनाभिषिक्तं मनुजमलक्ष्मीराधयो
रुजः ।
उपसर्गाः पलायन्ते
परित्यज्यातिदूरतः ।। १४४ ॥
जलपूर्ण कलश में राई के पत्ते डाल
कर उस पर आसुरी देवी का आवाहन एवं पूजन कर साधक मूलमन्त्र से उसे १०० बार
अभिमन्त्रित करे । फिर उस जल से साध्य व्यक्ति का अभिषेक करे तो साध्य की दरिद्रता,
आपत्ति, रोग एवं उपद्रव उसे छोडकर दूर भाग
जाते है ॥१४३-१४४॥
आसुरी कुसुमं शीतं
प्रियंगुर्नागकेसरः ।
मनःशिला च तगरमेतत्सर्व विचूर्णितम्
॥ १४५॥
शताभिमन्त्रितं साध्यमूर्ध्नि
क्षिप्तं वशंवदम् ।
राई का फूल,
प्रियंगु, नागकेशर, मैनसिल
एवं तगार इन सबको पीसकर मूलमन्त्र से १०८ बार अभिमन्त्रित करे। फिर उस चन्दन को
साध्य व्यक्ति के मस्तक पर लगा दे तो साधक उसे अपने वश में कर लेता है ॥१४५-१४६॥
निम्बकाष्ठसमिद्धेऽग्नावासुरी
सर्षपान्विताम् ॥ १४६ ॥
अष्टोत्तरशतं हुत्वा सप्ताहं
दक्षिणामुखः ।
विदध्यादचिराच्छत्रुं सूर्यसूनुगृहातिथिम्
॥ १४७ ॥
नीम की लकडी से प्रज्वलित अग्नि में
एक सप्ताह तक दक्षिणाभिमुख सरसों मिश्रित राई की प्रतिदिन १०० आहुतियाँ देकर साधक
अपने शत्रुओं को यमलोक का अतीथि बना देता है ॥१४६-१४७॥
किंकुर्यान्नृपतिः कुतः किंकु!
रिपवोऽखिलाः ।
कुद्धःकालोऽपि किंकुर्यादासुरी
चेदुपासिता ॥ १४८ ॥
यदि इस आसुरी विद्या की विधिवत्
उपासना कर ली जाय तो क्रुद्ध राजा समस्त शत्रु किं बहुना क्रुद्ध काल भी उसका कुछ
नहीं बिगाड सकता है ॥१४८॥
ग्रन्थकर्तुर्मत्रकथनोपसंहार
विषयकप्रार्थना
ग्रन्थाननेकानालोक्य
मन्त्रागुप्ततमा मया ।
हिताय सुधियां ख्याता
विस्तरादुपरम्यते ॥ १४९ ॥
मन्त्र शास्त्र के अनेक ग्रन्थों का
अवलोकन कर मैने विद्वानों के हित के लिए गुप्ततम मन्त्र इस अध्याय में कहे हैं ।
ग्रन्थ विस्तार के भय से अब आगे न कर यहीं उपसंहार करता हूँ ॥१४९॥
॥ इति श्रीमन्महीधरविरचिते
मन्त्रमहोदधौ ताम्रचूडकार्तवीर्यासुर्या मन्त्रादिनिरूपणं नाम एकोनविंशस्तरणः ॥१९॥
॥ इस प्रकार श्रीमन्महीधर विरचित
मन्त्रमहोदधि के एकोनविंश तरङ्ग कीमहाकवि पं० रामकुबेर मालवीय के द्वितीय आत्मज
डॉ. सुधाकर मालवीयकृत 'अरित्र'
नामक हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥१९॥
आगे पढ़ें- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग २०
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