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कर्मकाण्ड

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सूर्य अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र

सूर्य अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र    

जो मनुष्य भगवान् सूर्य के इस अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र (एक सौ आठ) का शुद्ध एवं एकाग्र चित्त से कीर्तन करता है, वह मनोवाञ्छित भोगों को प्राप्त कर लेता है।

सूर्य अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र

सूर्य अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम्  

मुनय ऊचुः

चिरात्प्रभृति नो ब्रह्मन् श्रोतुमिच्छा प्रवर्त्तते ।

नाम्नामष्टशतं ब्रूहि यत्त्वयोक्तं पुरा रवेः॥ ३३.३२ ॥

मुनियों ने कहा -ब्रह्मन्! हमारे मन में चिरकाल से यह इच्छा हो रही है कि भगवान् सूर्य के एक सौ आठ नामों का वर्णन सुनें। आप उन्हें बताने की कृपा करें।

ब्रह्मोवाच

अष्टोत्तरशतं नाम्नां श्रृणुध्वं गदतो मम ।

भास्करस्य परं गुह्यं स्वर्गमोक्षप्रदं द्विजाः॥ ३३.३३ ॥

ब्रह्माजी बोले-ब्राह्मणो! भगवान् भास्कर के परम गोपनीय एक सौ आठ नाम, जो स्वर्ग और मोक्ष देनेवाले हैं, बतलाता हूँ सुनो।

अथ सूर्य अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम्      

ॐ सूर्योऽर्य्यमा भगस्त्वष्टा पूषाऽर्कः सविता रविः।

गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः॥ ३३.३४ ॥

पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम् ।

सोमो बृहस्पतिः शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च ॥ ३३.३५ ॥

इन्द्रो विवस्वान्दीप्तांशुः शुचिः शौरिः शनैस्चरः।

ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दोवैश्रवणो यमः॥ ३३.३६ ॥

वैद्युतो जाठरश्चाग्निरैन्धनस्तेजसां पतिः।

धर्म्मध्वजो वेदकर्त्ता वेदाङ्गो वेदवाहनः॥ ३३.३७ ॥

कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिः सर्वामराश्रयः।

कलाकाष्ठामुहूर्त्तास्च क्षपा यामास्तथा क्षणाः॥ ३३.३८ ॥

संवत्सरकरोश्वतथः कालचक्रो विभावसुः।

पुरुषः शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तः सनातनः॥ ३३.३९ ॥

कालाध्यक्षः प्रजाध्यक्षो विश्वकर्म्मा तमोनुदः।

वरुणः सागरोंऽशश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा ॥ ३३.४० ॥

भूताश्रयो भूतपतिः सर्व्वलोकनमस्कृतः।

स्रष्टा संवर्त्तको वह्निः सर्व्वस्याऽऽदिरलोलुपः॥ ३३.४१ ॥

अनन्तः कपिलो भानुः कामदः सर्वतोमुखः।

जयो विशालो वरदः सर्व्वभूतनिषेवितः॥ ३३.४२ ॥

मनः सुपर्णो भूतादिः शीघ्रगः प्राणधारणः।

धन्वन्तरिर्धूमकेतुरादिदेवोऽदितेः सुतः॥ ३३.४३ ॥    

द्वादशात्मा रविर्दक्षः पिता माता पितामहः।

स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम् ॥ ३३.४४ ॥

देहकर्त्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुखः।

चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेयः करुणान्वित: ॥ ३३.४५ ॥

ॐ सूर्य, अर्यमा, भग, त्वष्टा, पूषा (पोषक), अर्क, सविता, रवि, गभस्तिमान् (किरणोंवाले), अज (अजन्मा), काल, मृत्यु, धाता (धारण करनेवाले), प्रभाकर (प्रकाश का खजाना), पृथ्वी, आप (जल), तेज, ख (आकाश), वायु, परायण (शरण देनेवाले), सोम, बृहस्पति, शुक्र, बुध, अङ्गारक (मङ्गल), इन्द्र, विवस्वान्, दीप्तांशु (प्रज्वलित किरणोंवाले), शुचि (पवित्र), सौरि (सूर्यपुत्र मनु), शनैश्चर, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, स्कन्द (कार्तिकेय), वैश्रवण (कुबेर), यम, वैद्युत (बिजली में रहनेवाली) अग्नि, जाठराग्नि, ऐन्धन (ईधन में रहनेवाली) अग्नि, तेज:पति, धर्मध्वज, वेदकर्ता, वेदाङ्ग, वेदवाहन, कृत (सत्ययुग), त्रेता, द्वापर, कलि, सर्वामराश्रय, कला, काष्ठा, मुहूर्त, क्षपा (रात्रि), याम (पहर), क्षण, संवत्सरकर, अश्वत्थ, कालचक्र, विभावसु (अग्नि), पुरुष, शाश्वत, योगी, व्यक्ताव्यक्त, सनातन, कालाध्यक्ष, प्रजाध्यक्ष, विश्वकर्मा, तमोनुद (अन्धकार को भगानेवाले), वरुण, सागर, अंश, जीमूत (मेघ), जीवन, अरिहा (शत्रुओं का नाश करनेवाले), भूताश्रय, भूतपति, सर्वलोकनमस्कृत, स्रष्टा, संवर्तक (प्रलयकालीन) अग्नि, सर्वादि,अलोलुप (निर्लोभ), अनन्त, कपिल, भानु, कामद (कामनाओं को पूर्ण करनेवाले), सर्वतोमुख (सब ओर मुखवाले), जय, विशाल, वरद, सर्वभूतनिषेवित, मन, सुपर्ण (गरुड़), भूतादि, शीघ्रग (शीघ्र चलनेवाले), प्राणधारण, धन्वन्तरि, धूमकेतु आदिदेव, अदितिपुत्र, द्वादशात्मा (बारह स्वरूपोंवाले), रवि, दक्ष, पिता, माता, पितामह, स्वर्गद्वार, प्रजाद्वार, मोक्षद्वार, त्रिविष्टप (स्वर्ग), देहकर्ता, प्रशान्तात्मा, विश्वात्मा, विश्वतोमुख, चराचरात्मा, सूक्ष्मात्मा, मैत्रेय तथा करुणान्वित (दयालु) ।

सूर्य अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र फलश्रुति   

एतद्वै कीर्त्तनीयस्य सूर्य्यस्यामिततोजसः।

नाम्नामष्टशतं रम्यं मया प्रोक्तं द्विजोत्त्माः॥ ३३.४६ ॥

सुरगणपितृयक्षसोवितं, ह्यसुरनिशाकरसिद्धबन्दितम् ।

वरकनकहुताशनप्रभं, प्रणिपतितोऽस्मि हिताय भास्करम् ॥ ३३.४७ ॥

सूर्योदये यः सुसमाहितः पठेत्, स पुत्रदारान् धनरत्नसञ्चयान् ।

लभेत जातिस्मरतां नरः स तु, स्मृतिञ्च मेधाञ्च स विन्दते पराम् ॥ ३३.४८ ॥

इमं स्तवं देववरस्य यो नरः प्रकीर्त्तयेच्छुद्धमनाः समाहितः।

विमुच्यते शोकदवाग्निसागराल्लभेत कामान्मनसा यथेप्सितान् ॥ ३३.४९ ॥  

ये अमित तेजस्वी एवं कीर्तन करने योग्य भगवान् सूर्य के एक सौ आठ सुन्दर नाम मैंने बताये हैं। जो मनुष्य देवश्रेष्ठ भगवान् सूर्य के इस स्तोत्र का शुद्ध एवं एकाग्र चित्त से कीर्तन करता है, वह शोकरूपी दावानल के समुद्र से मुक्त हो जाता और मनोवाञ्छित भोगों को प्राप्त कर लेता है।

इति श्री आदिब्राह्मे महापुराणे स्वयंभ्वृषिसंवादे सूर्य्यनामाष्टोत्तरशतं नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः॥ ३३ ॥

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