रुद्रयामल तंत्र पटल ४ भाग २

रुद्रयामल तंत्र पटल ४ भाग २

रुद्रयामल तंत्र पटल ४ भाग २ में मन्त्र दोषादि निर्णय के लिए उल्का चक्र वर्णित है (११२-१२३) । फिर इसके बाद रामचक्र का वर्णन किया गया है (१२४--१४७) । इसके बाद चतुष्चक्र (१४८-१६८) और सूक्ष्मचक्र का विवेचन किया गया है (१६९-१९२) ।
                           रुद्रयामल तंत्र पटल ४ भाग २

रुद्रयामल तंत्र पटल ४ उल्काचक्र

रुद्रयामल चतुर्थः पटलः - उल्काचक्रम्

तंत्र शास्त्ररूद्रयामल

मन्त्रदोषदिनिर्णयः

उल्काचक्रम्

अथान्यत् सम्प्रवक्ष्यामि सावधानावधारय ॥१११॥

उल्काचक्रं सर्वसारं मन्त्रदोषादिनिर्णयम् ।

मत्स्याकारमूर्ध्वमुखं सर्वन्त्रादि विग्रहम् ॥११२॥

हे शिव ! अब मन्त्र परीक्षा का अन्य प्रकार कहती हूँ सावधान होकर सुनिए । वह प्रकार उल्काचक्र है, जो सबका सार है, उससे सभी दोषादि का निर्णय हो जाता है, उसका आकार मत्स्य के समान ऊर्ध्वमुख है तथा वह सभी मन्त्रों का आदि विग्रह है ॥१११ - ११२॥

स्कन्धदेशावधिर्नाथ पुच्छापर्यन्तमेव च ।

एकाक्षरीदिमन्त्रदिद्वादशान्ताक्षरात्मकम्  ॥११३॥

विलिखेत् पृष्ठदेशे तु शुभाशुभविशुद्धये ।

त्रयोदशाक्षरान् वाथ एकविंशाक्षरान्तकम् ॥११४॥

हे नाथ ! मत्स्याकार उस चक्र के स्कन्ध देश से लेकर पुच्छपर्यन्त भाग में एकाक्षर मन्त्र के आदि अक्षर से लेकर द्वादश अक्षर पर्यन्त मन्त्रों को लिखे और शुभाशुभ फल की विशुद्धि के लिए उसके पृष्ठ देश पर १३ अक्षर से आरम्भ कर २१ अक्षर पर्यन्त मन्त्रों को लिखे ॥११३ - ११४॥

नेतव्यं साधकैर्मन्त्रं पृष्ठस्थमुदरस्थकम् ।

तथा श्रीशुभदं प्रोक्त कण्ठदिपुच्छाकान्तकम् ॥११५॥

द्वाविंशादि चतुस्त्रिशदक्षरान्तमनुं शुभम् ।

पुच्छस्थं नापि गृहणीयात् मुखस्थञ्च तथा ध्रुवम् ॥११६॥

इस प्रकार जो मन्त्र पृष्ठ से ले कर उदर पर्यन्त भाग से पड़े, साधक उसी को ग्रहण करे । कण्ठ से लेकर पुच्छ पर्यन्त २२ अक्षर से २४ अक्षर पर्यन्त मन्त्र भी श्री तथा शुभ देने वाला कहा गया है । पुच्छ पर पड़ने वाले तथा मुख पर पड़ने वाले मन्त्र निश्चित रुप से न ग्रहण करे ॥११५ - ११६॥

शीर्षस्थाञ्चापि गृहणीयात् तदक्षरं श्रृणु प्रभो ।

पञ्चत्रिंशादि द्विचतुर्द्वविशंशदन्मेव च ॥११७॥ 

मस्तकस्थं शुभं प्रोक्तं मुखवर्णान् श्रृणु प्रभो ।

त्रिचरत्वारिंशशदर्णादि एकपञ्चाशदन्तकम् ॥११८॥

हे प्रभो ! शीर्ष पर पड़ने वाले जिन अक्षर वाले मन्त्रों को ग्रहण करे उसे सुनिए वे ३५ अक्षर से प्रारम्भ कर ४२ अक्षर पर्यन्त वाले मन्त्र हैं । उपर्युक्त मस्तक ( शीर्ष ) पर लिखे गये अक्षर वाले मन्त्र शुभ देने वाले हैं । हे प्रभो ! अब मुख पर रहने वाले वर्णों को सुनिए । वे ४३ अक्षर से प्रारम्भ कर ५१ अक्षर पर्यन्त वाले मन्त्र हैं ॥११७ - ११८॥

मुखस्थमन्तमशुभं न गृहणीयात् कदाचन ।

पृष्ठस्थं श्रृणु यत्नेन निरर्थकमहाश्रमम् ॥११९॥

श्रमगात्रस्य पीडाभिर्देवता कुप्यतेऽनिशम् ।

द्विपञ्चाशदक्षरादि एकषष्टितमान्तकान् ॥१२०॥

वर्णान् पुच्छास्थितानेतान् नेत्रस्थान् श्रृणु वल्लभ ।

द्विषष्टितमवर्णादि चतुःषष्ट्‌यक्षरान्तकान् ॥१२१॥

मुख पर रहने वाले तथा अन्त ( = पुच्छ ) में रहने वाले मन्त्र अशुभ हैं । उन्हें किसी भी अवस्था में ग्रहण न करे ।

अब पीठ पर रहने वाले अक्षर मन्त्रों को सुनिए । ऐसे तो वे निरर्थक हैं । महाश्रम देने वाले हैं । श्रम के कारण गात्र की पीडा से देवता निरन्तर कुपित हो जाते हैं वे ५२ अक्षर से आरम्भ कर ६१ अक्षरों वाले मन्त्र हैं । यही वर्ण पुच्छ पर स्थित रहने वाले हैं । हे वल्लभ ! अब नेत्र पर रहने वाले वर्णों को सुनिए । वे ६२ अक्षर से आरम्भ कर ६४ अक्षरों वाले मन्त्र हैं ॥११९ - १२१॥

अङ्कं लोचनसंस्थं च ततोऽन्यं रसनास्थितम् ।

तत्सर्वं शुभदं प्रोक्तमेतदन्यतमं स्मृतम् ॥१२२॥

वैष्णवांनाञ्च शैवानां शाक्ताना मन्त्रजापने ।

ततोऽन्यदेवभक्तानां भुक्तिमुक्तिप्रदं नृणाम् ॥१२३॥

ये अङ्क लोचन पर स्थित रहने वाले हैं, इसके अतिरिक्त अन्य सभी जिह्वा पर स्थित रहने वाले हैं । इन दोनों में कोई एक शुभदायक कहा गया है अथवा सभी शुभदायक हैं । वैष्णवों के लिए, शैवों के लिए, शक्तों के लिए अथवा अन्य देवताओं के भक्तों के लिए मन्त्र जप में नेत्रस्थ मन्त्र भुक्ति तथा मुक्ति देने वाले हैं ॥१२२ - १२३॥

रुद्रयामल चतुर्थ पटल - रामचक्र

चतुर्थः पटलः - रामचक्रम्

मन्त्रदोषादिनिर्णयः

तंत्र शास्त्ररूद्रयामल

रामचक्रम्

अथ वक्ष्ये महादेव चक्रसारं सुदुर्लभम् ।

रामचक्रं महाविद्या सर्वमन्दिरमेव च ॥१२४॥

सर्वसिद्धिप्रदं मन्त्रं निजनामस्थमाश्रतेत् ।

तदैव सिद्धिमाप्नोति सत्यं सत्यं महेश्वर ॥१२५॥

रामचक्र --- हे महादेव ! अब अत्यन्त दुर्लभ चक्रसार कहती हूँ वह रामचक्र है जो महाविद्या का ही नहीं अपितु सभी मन्त्रों का मन्दिर है । जिसमें अपना नाम आवे वही मन्त्र समस्त सिद्धियों को देने वाला है।उसी का आश्रय लेना चाहिए । हे महेश्वर ! उसके आश्रय मात्र से साधक सिद्धि प्राप्त कर लेता है - यह सत्य है, यह सत्य है ॥१२४ - १२५॥

तत्प्रकारं श्रृणु क्रोधभैरव प्रियवल्लभ ।

नवाङ्कान् प्रलिखेद्‍ विद्वान् वामदक्षिणभागतः ॥१२६॥

तन्मध्ये क्रमशो दद्यात् तथा सप्तदशाङकान् ।

दक्षिणादिक्रमेणैवमुक्ताविद्याः समालिखेत् ॥१२७॥

हे प्रियवल्लभ ! हे क्रोधभैरव ! अब उसका प्रकार सुनिए । विद्वान ‍ साधक बायीं ओर से दक्षिण ओर नव अङ्क (रेखा ) खींचे । उसके मध्य में क्रमशः १७ अङ्क ( रेखा ) खींचे । फिर दक्षिणादि क्रम से इस प्रकार उक्त विद्याओं को लिखे ॥१२६ - १२७॥

अकारदिक्षकारान्तं सर्वस्मिन् मन्दिरे लिखेत् ।

बालादिदेवताः सर्वा भ्रामर्यन्ताश्च देवताः ॥१२८॥

अस्याकाशविधे गेहे सान्तनित्यं फलप्रदम् ।

पुनर्विलोममार्गेण आदिक्षान्तार्णामन्दिरे ॥१२९॥

रक्तदन्तादि श्रीविद्या मन्त्रान्तं विलिखेद्‍ बुधः ।

क्षकाराद्यनुलोमेन अकारन्तं लिखेत् ततः ॥१३०॥

सभी गृहों में अकार से लेकर क्षकारान्त वर्ण लिखे । फिर उसमें बाला देवता से प्रारम्भ कर भ्रामरी पर्यन्त देवता मन्त्र लिखे । इसके बीच में रहने वाले आकाश गृह में सान्त ( मन्त्र ) नित्य फलप्रद है । फिर अकारादि से लेकर क्षकारान्त गृह में विलोम रीति से रक्तदन्ता से लेकर श्री विद्या पर्यन्त मन्त्रों को लिखे । फिर उसी में अनुलोम क्रम से क्षकारादि वर्णों से प्रारम्भ कर उकारान्त अक्षरों को लिखे ॥१२८ - १३०॥

पुनस्तच्छेषविद्याश्च शेषगेहे लिखेत् सदा ।

कायशोधनमुख्यादि शैलवासिनि मन्त्रकम् ॥१३१॥

पञ्चविंशतिगेहस्थं गणयेत साधकस्ततः ।

गृहस्थमङ्कं वक्ष्यामि श्रृणु योगीशवल्लभ ॥१३२॥

बालागृहादिशेषान्तं मुनिहस्तविधौ गृहे ।

क्रमेण श्रूणु तत्सर्वं सावधानावधारय ॥१३३॥

दक्षिणावर्तयोगेन गणयेत् क्रमशो बुधः ।

वसुसप्तपञ्चमेषुवहिनवेदानलस्तथा ॥१३४॥

मुनिषष्ठाद्यवेदाश्च सप्तेषुमुनयस्तथा ।

पञ्चवेदेषुवसवो वेदषुवहनयस्तथा ॥१३५॥    

वहिनवेदाश्च सम्र्पोक्त आकाशं तदनन्तरम् ।

आकाशानन्तरे गेहे अनलं परिकीर्तितम् ॥१३६॥

इसके बाद शेष गृहों में शेष विद्यायें लिखे । फिर काय शोधन मुख्य से आरम्भ कर शैलवासिनि पर्यन्त मन्त्र को लिखे । फिर साधक २५ गृहों में रहने वाले मन्त्रों की गणना करे । अब हे योगीशवल्लभ ! उन गृहों में रहने वाले अङ्कों को कहता हूँ उन्हें सुनिए । बाला के गृह से लेकर शेष गृह पर्यन्त मुनि ७, हस्त २ अर्थात ‍ कुल २७ गृहों में क्रमषः स्थापित किये जाने वाले अंकों को सावधान होकर सुनो -

बुद्धिमान् पुरुष इन गृहों की गणना दाहिनी ओर से करे । वसु ८, सप्त ७, पंचम ५, वह्नि ३, वेद ४, अनन्त ३, मुनि ७, षष्ठ ६, आद्य १, वेद ४, सप्त ७, इषु ५, मुनि ७, पञ्च ५, वेद ४, इषु ५, वसु ८, वेद ४, इषु ५, वह्नि ३, वह्नि ३, वेद ४ - इन अंकों को स्थापित करे । इसके बाद आकाश है । आकाश के बाद अग्नि का गृह है ॥१३३ - १३६॥

तत्पश्चात् सर्वगेहेषु सर्वाङ्क दक्षतः श्रृणु ।

वहिन वहिनवेदवहिन वेदवहनय एव च ॥१३७॥

श्रवणक्षिवेदबाण वेदेषु सप्तकस्तथा ।

षष्ठाष्टसप्तमाः प्रोक्ता वहन्यग्नीषु मुनिस्तथा ॥१३८॥

मुनीषु बाणवेदाश्च मुन्यग्निवहनयस्तथा ।

वहिनवेदबाणसत अष्टाङ्कवेदबाणकाः ॥१३९॥   

पञ्चसप्तानलाग्निश्च वहनीषुबाणबाणकाः ।

बाणवेदकान्तवेदकान्तश्रुतिचतुर्थकाः ॥१४०॥

रामर्षिमुनिषष्ठाश्च सप्तेषु रामवेदकाः ।

वेदसप्ताष्टवसवो नवमाष्टमसप्तमाः ॥१४१॥

वहन्यग्निवेदबाणाश्च वस्वष्टानलवेदकाः ।

सप्ताष्टमाश्च सम्प्रोक्ता गृहाङ्का परिकीर्तिताः ॥१४२॥

इसके बाद के सभी गृहों में दक्षिणावर्त क्रम से जिस प्रकार सभी अंक दिये जाने चाहिए , हे महाभैरव उन्हें सुनिए- वह्नि ३, वह्नि ३, वेद ४ , वह्नि ३ , वेद ४ , वह्नि ३ , श्रवण २ , अक्षि २ , वेद ४ , बाण ५ , वेद ४, इषु ८ , सप्तक ७ , षष्ठ ६ , अष्ट ८ , सप्तम ७ , फिर वह्नि ३ , अग्नी ३ , इषु ५ , मुनि ७ , फिर मुनि ७ , इषु ५ , बाण ५ , वेद ४ , मुनि ७ , अग्नि ३ , वह्नि ३ , वह्नि ३ , वेदा ४ , बाण ५ , सप्त ७ , अष्ट ८ , अंक ९ , वेद ४ , बाण ५ , पंच ५ , सप्त ७ , अनल ३ , अग्नि ३ , वह्नि ३ , इषु ५ , बाण ५ , बाण ५ , बेदकान्त ३ या ५ , वेदकान्त ३ या ५ , श्रुति ४ , चतुर्थक ४ , राम ३ , ऋषि ७ मुनि ७ , षष्ठ ६ , सप्त ७ , इषु ५ , राम ३ , वेक ४ , वेद ४ , सप्त ७ , अष्ट ८ , वसु ८ , नवम ९ , अष्टम ८ , सप्तम ७ , वह्नि ३ , अग्नि ३ , वेद ४ , बाण ५ , वसु ८ , अष्ट ८, अनल ३, वेद का ४, सप्त ७, अष्टम ८ ये अन्य गृहों मे लिखे जाने वाले अंक मैने कह दिया है ॥१३७ - १४२॥

येषां मनसि या विद्या सदा तिष्ठति भावने ।

तामाश्रित्य जपेद्विद्वान् तदा सिध्यति निश्चितम् ॥१४३॥

स्वनाम देवतानाम पूरयेत् षोडशाङ्ककैः ।

हरेन्निजगृहस्थेन चाङ्केन साधकोत्तमः ॥१४४॥

कृतशेषं बहुतरं शुभं देवस्य निश्चितम् ।

अल्पाङ्कसाधकस्यापि सौख्यमेव न संशयः ॥१४५॥

जिनके मन में भावना द्वारा जिस विद्या का निवास होता है, विद्वान् साधक उसी का आश्रय ले कर जप करे तो वह निश्चित रुप से सिद्ध हो जाता है । अपना नाम तथा मन्त्र देवता को नाम को १६ अङ्कों से पूर्ण करे । फिर उत्तम साधक अपने नाम वाले गृह के अङ्क से भाग देवे । यदि अधिक शेष आवे तो वे देवता शुभ करते हैं यह निश्चित है । साधक के लिए अल्पाङ्क शेष भी सुखकारी होता है इसमें संशय नहीं ॥१४३ - १४५॥

उक्तक्रमेण गणयेत् साधकः स्थिरमानसः ।

महाविद्यानायिकादियज्ञभूतादिसाधने ॥१४६॥

सम्प्रोक्तं चक्रसारञ्च सर्वतन्त्रेषु गोपितम् ।

ततश्चचक्राविचारेण सिद्धिमाप्नोति साधकः ॥१४७॥

साधक स्थिर बुद्धि से ऊपर कही गई विधि के अनुसार महाविद्या नायिका के साधन में, यज्ञ के साधन में तथा भूतादि साधनों में उक्त क्रम से ही गणना करे । हे सदाशिव ! सभी तन्त्रों में अत्यन्त गोपनीय चक्रसार हमने कहा, उस चक्र के विचार से साधक अवश्य ही सिद्धि प्राप्त करता है ॥१४६ - १४७॥

रुद्रयामल चौंथा पटल - चतुष्चक्र

चतुर्थः पटलः - चतुष्चक्रम्

चतुश्चक्रं प्रवक्ष्यामि शृणुष्व पार्वतीपते ।

वामदक्षिणयोगेन रेखापञ्चकमालिखेत् ॥१४८॥

चतुष्चक्र --- हे पार्वतीपते ! अब चतुष्चक्र कहती हूँ । बायीं ओर से दाहिनी ओर पाँच रेखा खींचे ॥१४८॥

पूर्वपश्चिमभेदेन रेखाः पञ्च समालिखेत् ।

चतुष्कोष्ठे दक्षभागे चतुष्कोष्ठे च मन्त्रवित् ॥१४९॥

तदधश्च चतुष्कोष्ठे तद्वामस्थे चतुर्गहे ।

प्रलिखेत क्रमशश्चाद्ये चतुर्मन्दिरमध्यके ॥१५०॥

शीघ्रञ्च शीतलं जप्तं सिद्धञ्चापि ततः परम् ।

अकारञ्च उकारञ्च लृसोकारं ततः परम् ॥१५१॥

ऊद्‌र्ध्वस्थमिति वर्णं तु शीतलस्थं श्रृणु प्रभो ।

अकारच उकारञ्च (लृ लृ)सौकारञ्च ततः परम् ॥१५२॥

फिर पूर्वदिशा से पश्चिम दिशा में भी पाँच रेखा खींचे । फिर दाहिनी ओर के चार चार कोष्ठकों में तथा बायीं ओर के चार चार कोष्ठकों में साधक वर्णों को इस प्रकार लिखे - प्रथम चार मन्दिर में जिनकी १ . शीघ्र, २ . शीतल, ३ . जप्त और ४ . सिद्ध संज्ञा है । उसमें प्रथम गृह में उकार, ऊकार, लृकार, तथा सौंकार लिखे । ये वर्ण शीघ्र अथवा ऊर्ध्वस्थ कोष्ठ में लिखे । हे प्रभो ! शीतल गृह में रहने वाले वर्णों को सुनिए वे अकार, उकार लृ लृ सोकार हैं ॥१४९ - १५२॥

तदधो जगगेहस्थं वर्णं श्रृणु महाप्रभो ।

इकारञ्च ऋकारञ्च ततः परम् ॥१५३॥

उसके नीचे जपगृह में रहने वाले वर्णों को सुनिए । हे महाप्रभो ! इकार ऋकार उसके बाद एकार वर्ण हैं ॥१५३॥

सिद्धगेहस्थितं वर्णं श्रृणु सर्वसुखप्रदम् ।

तद्‍दक्षिणचतुगेहे स्थितान् वर्णान् वदामि तान् ॥१५४॥

आहलादञ्च प्रत्ययञ्च मुखञ्च शुद्धमित्यपि ।

एतत्कुलस्थान् सर्वाणीन् शुभाशुभफलप्रदान् ॥१५५॥  

हे शङ्कर ! अब सिद्ध गृह में रहने वाले सर्वसुखप्रद वर्णों को सुनिए प्रथम उसके दक्षिण के चार गृहों में रहने वाले वर्णों को कहती हूँ । उनके क्रमशः आह्लाद प्रत्यय, मुख तथा शुद्ध नाम है । अब उन - उन गृहों में रहने वाले शुभाशुभ फल देने वाले उन सभी वर्णों को कहती हूँ ॥१५४ - १५५॥

करकाञ्च ऋकारञ्च ञकारकम् ।

आहलादस्थमिति प्रोक्तं प्राप्तिमात्रेण सिद्धिदम् ॥१५६॥

प्रत्ययस्थं गकारञ्च घकारं टठामित्यपि ।

मुखस्थं हि ङ्कारञ्च चकारं डढामित्यपि ॥१५७॥

ककार ऋकार, ऋकार, अकार ये आह्लाद में रहने वाले वर्ण हैं जो प्राप्तिमात्र से सिद्धि प्रदान करते हैं । गकार, घकार, ट और ठ ये प्रत्यय संज्ञक गृह में रहने वाले वर्ण हैं । डकार, चकार, ड और ढ - ये मुख संज्ञक गृह के वर्ण हैं ॥१५६ - १५७॥

शुद्धस्थञ्च उकारञ्च जकारं णतमित्यपि ।

तदधःस्थं चतुर्गेहं लौकिक सात्त्विक तथा ॥१५८॥

मानसिंक राजसिक चतुर्गेहस्थितं त्विमम् ।

लौकिकस्थं थकारञ्च दकारञ्च मकारकम् ॥१५९॥

सात्त्विकस्थं धकारञ्च लकारञ्च यकारकम् ।

मानसिकञ्च श्रृणु भो पकारञ्च फमित्यपि ॥१६०॥

उकार, जकार, ण और त - ये शुद्ध गृह संज्ञक गृह में रहने वाले वर्ण हैं । उसके नीचे रहने वाले ४ गृह लौकिक, सत्त्विक, मानसिक, राजसिक हैं, जिनमें लौकिक गृह में रहने वाले थकार, दकार तथा मकार वर्ण हैं । धकार, लकार और यकार - ये सात्त्विक गृह के वर्ण हैं । हे प्रभो ! पकार, , म ये मानसिंहक गृह के वर्ण हैं ॥१५८ - १६०॥

श्रृणु राजसिकत्वञ्च भकारं वनमित्यपि ।

तन्नामस्थं चतुर्गेहं श्रृणु पञ्चानन प्रभो ॥१६१॥

हे प्रभो ! अब राजसिक गृह के वर्णों को सुनिए । वे भकार, व और न हैं । हे पञ्चानन प्रभो ! अब आगे के चार गृहों के नाम सुनिए ॥१६१॥

सुप्तं क्षिप्तञ्च लिप्तञ्च दुष्टमन्त्रं प्रकीर्तितम् ।

ऊद्‌र्ध्वगेहस्थितान् वर्णमन्त्रान् गृहणाति यो नरः ॥१६२॥

वर्जयित्वा सुप्तमन्त्रं क्षितं लिप्तञ्च दुष्टकम् ।

ऐहिके सिद्धिमाप्नोति परे मुक्तिमवाप्नुयात् ॥१६३॥    

उनके नाम सुप्त, क्षिप्त, लिप्त तथा दुष्ट मन्त्र हैं । उसमें प्रथम कहे गये ऊर्ध्व गृह स्थित वर्णों को जो साधक ग्रहण करते हैं । ( द्र० १५१ ) । किन्तु सुप्त, क्षिप्त, लिप्त तथा दुष्ट अक्षर वाले मन्त्र का परित्याग कर देते हैं । उन्हें इस लोक में सिद्धि प्राप्त होती हैं तथा उस लोक में मोक्ष प्राप्त होता है ॥१६२ - १६३॥

यद्यभाग्यवशात्सुतादिषु गेहेषु लभ्यते ।

तदा मन्त्रं शोधयेद्‍ वै सुप्तस्तम्भितकीलितैः ॥१६४॥

वर्द्धितैर्दोषजालस्थैरशुभं भूतशुद्धये ।

भूतलिया पुटीकृत्या जप्त्वा सिद्धिं ततो लभेत् ॥१६५॥

यदि अभाग्य वश मन्त्र वर्ण सुप्तादि गृहों में प्राप्त होते हों तो उस मन्त्र को सुप्त स्तम्भित और कील से तथा बढे हुये दोष जालों से उत्पन्न उनके अशुभ की भूतशुद्धि के लिए साधक को भूतलिपि ( द्र० ७ . १ - ४ ) से संपुटित कर जप करना चाहिए । तब सिद्धि प्राप्त होती है ॥१६४ - १६५॥

न तु वा वर्जयेद्‍ गेहं चतुष्कं वर्णवेष्टितम् ।

सुप्तनेगस्थितं वर्णं श्रृणु पञ्चानन प्रभो ॥१६६॥

वकारञ्च हकारञ्च ततोऽन्यद्‍गृअहसंस्थितम् ।

शकारञ्च लकारञ्च क्षिप्तगेहस्थितद्वयम् ॥१६७॥

धकारञ्च क्षकारञ्च लिप्तगेहस्थितं द्वयम् ।

दुष्टगेहस्थितं नाथ शकारगगनं तथा ॥१६८॥

निजं सौभाग्ययुक्तं यत्तमन्त्रं तदुपाश्रयेत् ।

मन्त्र वर्ण से वेष्टित चौथा ( सिद्ध ) गृह कदापि वर्जित न करे । हे पञ्चानन प्रभो ! अब सुप्त गेह में स्थित वर्णों को सुनिए । नकार और हकार सुप्त गेह स्थित वर्ण हैं । उससे अन्य क्षिप्त गृह में रहने वाले शकार तथा लकार ये दो वर्ण है । धकार तथा क्षकार ये दो वर्ण लिप्त गृह में रहने वाले हैं । इसी प्रकार, हे नाथ ! शकार तथा गगन ( ह ) ये दुष्टगृह में रहने वाले वर्ण हैं । इस प्रकार जो मन्त्र अपने सौभाग्य से युक्त हो उसी का आश्रय ग्रहण करना चाहिए ॥१६६ - १६८॥

रूद्रयामल चतुर्थ पटल - सूक्ष्मचक्र

चतुर्थः पटलः - सूक्ष्मचक्रम्

मन्त्रदोषादिनिर्णयः

सूक्ष्मचक्रं प्रवक्ष्यामि हिताहितफलप्रदम् ॥१६९॥

एतदुक्ताक्षरं शम्भो गृहीत्वा जपमाचरेत् ।

वामदक्षिणमारभ्य सप्तरेखाः समालिखेत् ॥१७०॥

सूक्ष्मचक्र --- अब शुभाशुभ फल देने वाले सूक्ष्म चक्र को कहती हूँ । हे शम्भो ! इसमें आये हुये अक्षरों वाले मन्त्र को ग्रहण कर जप करना चाहिए । बायी ओर से दाहिनी ओर सात रेखा खींचे ॥१६९ - १७०॥

भित्वा तदङ्कान् मन्त्री च रेखातुष्टयं लिखेत् ।

दक्षिणादिक्रमेणैव बद्धमन्दिरमध्यके ॥१७१॥

मन्त्रक्षराणि विलिखेङ्कचारेण साधकः ।

तदङ्कं श्रृणु यत्नेन नराणां भुक्तिमुक्तिदम् ॥१७२॥

फिर मन्त्रज्ञ साधक उन रेखाओं को काटते हुये चार रेखा खीचें । इस प्रकार बने हुये उन उन गृहों में दाहिनी ओर से अङ्कों के अनुसार मन्त्रों के अक्षरों को साधक लिखे । हे शिव ! उन उन अङ्कों को प्रयत्नपूर्वक सुनिए । जो मनुष्य को भोग तथा मोक्ष देने वाले हैं ॥१७१ - १७२॥

प्रथमे मन्दिरे नाथ भुजाङ्कं विलिखेत्ततः ।

विष्णुमन्त्रादिगेहे च वेदाङ्कं विलिखेद्‍ बुधः ॥१७३॥

तत्पश्चादष्टमाङ्कं च भुजाधः षष्ठमेव च ।

तद्‍गेहं शङ्कस्यापि तत्पश्चाद्‌दशमं गृहे ॥१७४॥

हे नाथ ! प्रथम गृह में मन्त्र का दूसरा अक्षर लिखे । इसके बाद विष्णु मन्त्रादि गृह में चौथा अक्षर लिखे । इसके बाद आठवाँ अक्षर लिखे । फिर दूसरे के नीचे छठाँ अक्षर लिखे वह गृह शङ्कर का भी है , इसके पीछे वाले गृह में दशवाँ अक्षर लिखे ॥१७३ - १७४॥

तत्पश्चाद्‌द्वादशाङ्कञ्च नायिकास्थानमेव च ।

षष्ठाधोयुगलाङ्कञ्च तत्पश्चादष्टमं तथा ॥१७५॥

तद्‌गृहं शम्भुना व्यस्तं तत्पश्चादष्टमं तथा ।

युगलाधोगृहे चापि चतुर्दशाक्षरं तथा ॥१७६॥

तद्‌दक्षिणे सूर्यगेहं चतुद्‌र्दशाक्षरान्वितम् ।

तत्पश्चात् षोडशाङ्ञ्च पुनरङ्कं लिखेत्ततः ॥१७७॥

तद्‌दक्षिणे वेदवर्णं तत्पश्चादष्टमाक्षरम् ।

ब्रह्ममन्दिरमेवं तत् षोडशाधः पुनः श्रृणु ॥१७८॥  

इसके बाद बारहवाँ अक्षर लिखे जो नायिका का स्थान कहा जाता है, छठे अक्षर के नीचे दूसरा अक्षर लिखे । इसके पश्चात् ‍ आठवाँ अक्षर लिखे । वह गृह भी शंभु से व्यस्त है । इसके पश्चात आठवाँ अक्षर लिखे इसके बाद दो के नीचे वाले गृह में १४ वाँ अक्षर लिखे । उसके दक्षिण सूर्य में चौदहवें अक्षर को लिखे । इसके बाद १६ वाँ अक्षर लिखे । फिर अङ्कों को लिखे । और उसके दक्षिण चौथा वर्ण और उसके बाद अष्टमाक्षर लिखे । इसी प्रकार ब्रह्म मन्दिर भी है अब १६ के नीचे फिर सुनिए १७५ - १७८॥

अष्टमाङ्कं ततो युग्ममष्टादशाक्षरं ततः ।

प्रथमस्थं द्वितीयस्थं गुहणीयाद्‍ शुभदं स्मृतम् ॥१७९॥

तृतीयस्थं महापापं सर्वमन्त्रेषु कीर्तितम् ।

द्वितीयं प्रथमं दुःखं तृतीयं सर्वभाग्यदम् ॥१८०॥

अष्टम अङ्क का अक्षर लिखे, इसके बाद दुसरा, फिर १८ वाँ अक्षर लिखे । सूक्ष्मचक्र का फलविचार - प्रथम में रंहने वाला द्वितीय में रहने वाला मन्त्राक्षर ग्रहण करे क्योंकि वह कल्याणकारी कहा गया है । तृतीय में रहने वाला मन्त्र वर्ण महापाप कारक है । ऐसा सभी मन्त्रों में कहा गया है । द्वितीय तथा प्रथम दुःखकारक है । किन्तु  तृतीय सर्व सौभाग्य प्रदान करने वाला है ॥१७९ - १८०॥

तृतीयञ्च तथा नाथ गृहणीयन्निजसिद्धये ।

तृतीये प्रथमं भद्रं द्वितीयं दुःखदायकम् ॥१८१॥

तृतीयञ्च तथा प्रोक्तमष्टाक्षरगृहं भयम् ।

चतुर्दशाक्षरं भद्रं सूर्यमन्त्रं द्वितीयकम् ॥१८२॥

इसलिए, हे नाथ ! अपनी सिद्धि के लिए तृतीय अवश्य ग्रहण करे । तृतीय में प्रथम तृतीय कल्याणकारी है और द्वितीय तृतीय दुःखदायी है । तृतीय तथा अष्टाक्षर वाला गृह भयदायक है । द्वितीय में रहने वाला १४ वाँ अक्षर वाला सूर्य मन्त्र कल्याण देने वाला है ॥१८१ - १८२॥

तृतीयस्थं षोडशाङ्के महाकल्याणदायकम् ।

अष्टमूर्तिः षोडशाङ्के चतुर्थे शत्रुमारणम् ॥१८३॥

तृतीयगृहमध्यस्थं ब्रह्मकल्याणदायकम् ।

वस्वक्षंर सर्वशेषगृहमध्यस्थमेव च ॥१८४॥

अष्टमञ्च महाभद्रं क्षमं चित्तभयप्रदम् ।

अष्टादशाङ्कं शुभदं शेषगेहत्रये तथा ॥१८५॥

तृतीय में रहने वाला १६ वाँ अक्षर वाला मन्त्र महाकल्याणदायक है । चतुर्थ में १६ वाँ अक्षर वाला अष्टमूर्ति मन्त्र शत्रुओं का मारक है । यदि वही तृतीय गृह मध्यस्थ हो, तो महाकल्याण कारक है । सर्वशेष गृह के मध्य में रहने वाला आठ अक्षर वाला मन्त्र का अष्टम अक्षर महाभद्र है । क्ष तथा म वर्ण चित्त को भय देने वाले हैं तथा शेष तीन गृहों में अठारहवाँ अक्षर शुभकारी हैं ॥१८३ - १८५॥

येषां यदक्षराणाञ्च मन्त्रं चेतासि वर्तते ।

एतत् शुभाशुभं ज्ञात्वा मन्त्रवर्णं तदाभ्यसेत् ॥१८६॥

विष्णुमन्त्रस्थितं मन्त्रं नायिकास्थं शिवस्थकम् ।

सूर्यस्थं ब्रहासंस्थञ्च गृहणीयात् शाक्त एव च ॥१८७॥

जिन साधकों के चित्त में जिन - जिन अक्षरों वाले मन्त्र की कामना हो, उनके शुभाशुभ फल को जान कर ही मन्त्र वर्णों का अभ्यास करना चाहिए । विष्णु - मन्त्र में स्थित मन्त्र, नायिक ( महाविद्या मन्त्र ) में स्थित महामन्त्र, शिवमन्त्र में स्थित मन्त्र , इसी प्रकार सूर्य में रहने वाले तथा ब्रह्म में रहने वाले मन्त्रों को केवल शाक्त साधक ही ग्रहण करने का अधिकारी है ॥१८६ - १८७॥

वैष्णवो विष्णुमन्त्रार्थं शैवः शिवमुपाश्रयेत् ।

नायिकामन्त्रजापी च नायिकार्णं सदाभ्यसेत् ॥१८८॥

सूर्यमन्त्रविचारार्थी सूर्यमन्त्रं समाश्रयेत् ।

एकस्थं युगलस्थानं तृतीयस्थानमेव च ॥१८९॥

सामान्यतया वैष्णव विष्णु मन्त्र का तथा शैव केवल शैव मन्त्रों के ग्रहण का अधिकारी है । इसी प्रकार महाविद्याओं के मन्त्र का जप करने वाला नायिका मन्त्रों का अभ्यास करे । सूर्य मन्त्र का भक्त सूर्य मन्त्र का अभ्यास करे ॥१८८ - १८९॥

ज्ञात्वा मन्त्रं प्रगृहणीयात् अन्यथा चाशुभं भवेत् ।

एतदन्यतमं मन्त्रं दिव्यवीरेषु गीयते ॥१९०॥

एक स्थान में, दो स्थान में तथा तृतीय स्थान में स्थित मन्त्रों का ज्ञान कर ही मन्त्र ग्रहण करे । अन्यथा अनिष्ट की आशङ्का बनी रहती है । दिव्य तथा वीर पथ का उपासक इस ( सूक्ष्मचक्र ) में परीक्षित किसी भी मन्त्र को ग्रहण करे - ऐसा उनके संप्रदाय का कथन है ॥१८९ - १९०॥

ततश्चक्रं पशोरुक्तं सर्वसिद्धिप्रदं ध्रुवम् ।

एतच्चक्रप्रभावेण पशुर्वीरोपमः स्मृतः ॥१९१॥

सर्वसिद्धियुतो भूत्वा वत्सरात्तां प्रपश्यति ॥१९२॥

इसके बाद पाशुपतों का चक्र है जो निश्चय ही सर्वसिद्धिप्रद है । इस पाशुपत चक्र के प्रभाव से पाशुपत वीर मार्ग के उपासक के समान हो जाता है । ऐसा करने से भी साधक सर्व सिद्धियाँ प्राप्त कर संवत्सर के अन्त में शक्ति का दर्शन प्राप्त कर लेता है ॥१९१ - १९२॥

॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महामन्त्रोद्‌दीपने सर्वचक्रानुष्ठाने सिद्धमन्त्रप्रकरणे भावनिर्णये भैरवीभैरवसंवादे चतुर्थः पटलः ॥४॥

॥ इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के उत्तरतंत्र में महातंत्रोद्दीपन में सर्वचक्रानुष्ठान में सिद्धमन्त्र प्रकरण में भाव निर्णय में भैरव-भैरवी संवाद में चतुर्थपटल की डॅा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्णं हुई ॥ ४ ॥

शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र पञ्चम पटल     

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