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कर्मकाण्ड

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देवीरहस्य पटल ५४

देवीरहस्य पटल ५४   

रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध के पटल ५४ में दीक्षा विधि निरूपण के विषय में बतलाया गया है।

देवीरहस्य पटल ५४

रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् चतुष्पञ्चाशत्तमः पटल: दीक्षाविधिः

Shri Devi Rahasya Patal 54   

रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य चौवनवाँ पटल

रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्यम् चतुष्पञ्चाशत्तम पटल

देवीरहस्य पटल ५४ दीक्षा विधि निरूपण

अथ चतुष्पञ्चाशत्तमः पटल:

दीक्षाविधिनिरूपणम्

श्रीभैरव उवाच

दीक्षाविधिं प्रवक्ष्यामि साधकानां हितेच्छया ।

विधाय विधिवद् दीक्षां पशुत्वात् स विमुच्यते ॥ १ ॥

दीयते परमा सिद्धिः क्षीयते कर्मवासना ।

आप्यते परमं धाम तेन दीक्षा स्मृता शिवे ॥ २ ॥

ब्रह्मादिकीटपर्यन्तं जगत् सर्वं महेश्वरि ।

पशुत्वान्मोहितं देव्या तस्माद् दीक्षां चरेत् कलौ ॥३॥

श्रीदेव्याः सेवया देवि चक्रार्चनपुर: सरम् ।

साधकः पशुभावेन मुक्तो ज्ञानं भजेत् ततः ॥४॥

दीक्षाविधि निरूपण- श्रीभैरव ने कहा कि साधकों के हित की इच्छा से अब मैं दीक्षाविधि का वर्णन करता हूँ। विधिवत् दीक्षा प्राप्त करके साधक पशुत्व से विमुक्त हो जाता है। इसे दीक्षा इसलिये कहा जाता है कि यह परमा सिद्धि देती है। कर्मवासना का नाश करती है। परम धाम को प्राप्त कराती है। ब्रह्म से कीट तक जगत् में सभी पशुत्व से मोहित हैं। इसलिये कलियुग में दीक्षाकार्य अवश्य करना चाहिये। श्रीचक्रार्चन करके श्रीदेवी की सेवा में निरत साधक पशुभाव से मुक्त होकर साधक ज्ञानलाभ करता है और तत्पश्चात् भजन करता है।।१-४।।

देवीरहस्य पटल ५४- दीक्षाप्रशंसा

दीक्षितो याति चरणं दीक्षाहीनो भवेत् पशुः ।

दीक्षितस्तु भवेज्ज्ञानी पशुभावोज्झितो विभुः ॥५॥

सर्वपातकमुक्तो हि लभेत् स परमां गतिम् ।

यस्य दीक्षा शिवे नास्ति जीवनान्तं च जन्मिनः ॥६ ॥

स जातु नोत्तरेद् देवि निरयाम्बुनिधेः क्वचित् ।

दीक्षाहीनस्य देवेशि पशोः कुत्सितजन्मनः ॥७॥

पापौघोऽन्तिकमायाति पुण्यं दूरं पलायते ।

तस्माद्यलेन दीक्षैषा ग्राह्या कृतिभिरुत्तमैः ॥८ ॥

दीक्षा प्रशंसा- दीक्षित देवी के चरणों में लीन होता है और दीक्षाहीन सांसारिक पाशों से बँधा पशु होता है। दीक्षित ज्ञानी होता है और पशुभाव से मुक्त होकर विभु होता है। दीक्षित सभी पापों से मुक्त होकर परमगति-लाभ करता है। जिसकी दीक्षा नहीं होती, वह पुनर्जन्म ग्रहण करता है। दीक्षाविहीन नरक में जाता है और नरकसागर के जल को पार नहीं कर पाता है। दीक्षाहीन मरने के बाद कुत्सित पशुयोनि में जन्म लेता है। पापों का समूह उसे घेर लेता है और पुण्य उससे दूर भागते हैं। इसीलिये यह दीक्षाग्रहण का कार्य उत्तम माना गया है ।।५-८।।

बाल्ये वा यौवने वापि वार्धक्येऽपि सुरेश्वरि ।

अन्यया निरयी पापी पितॄन् स्वान्निरयं नयेत् ॥ ९ ॥

अन्ते पशुमनुष्यः सन् पशुयोनिं व्रजेच्छिवे ।

पूर्वपुण्यार्जितां प्राप्य वासनां परमार्थदाम् ॥ १० ॥

गुरुं कुलीनं तन्त्रज्ञं सर्वाङ्गैः सुमनोहरम् ।

लब्ध्वा भक्त्या प्रणम्यादौ तोषयित्वा विशेषतः ।। ११ ।।

प्रणामैर्वन्दनैर्देवि दक्षिणाम्बरपूर्वकम् ।

सिद्धसाध्यारिनिर्णीतां दीक्षां देव्या यथाविधि ॥ १२ ॥

गृह्णीयात् परया भक्त्या साधको येन जायते ।

गुरुश्च शिष्यं रम्याङ्गं सर्वाङ्गः सुमनोहरम् ।।१३।।

गुरुभक्तिरतं बालं कुलीनं गर्भदीक्षितम् ।

देवीभक्तिरतं भक्तं पापभीतं कृतात्मकम् ॥ १४ ॥

दृष्ट्वा दीक्षां परां दद्यात् कृतभागी भवेत्ततः ।

बाल्यावस्था, युवावस्था या वृद्धावस्था में भी जो इसे ग्रहण नहीं करता, वह नारकी पापी अपने पितरों को भी नरक में धकेल देता है। अन्त में पाशबद्ध मनुष्य पशुयोनि में जन्म लेता है। पूर्वजन्मों के पुण्य के प्रभाव से ही उसमें परमार्थ प्रदान करने वाली वासना रहती है। कुलीन, तन्त्रज्ञ, साङ्गोपाङ्ग सुन्दर गुरु को देखकर पहले उसे भक्तिसहित प्रणाम करे और विशेष प्रकार से सन्तुष्ट करे। इसके लिये गुरु को प्रणाम करे, वन्दना करे, दक्षिणा वस्त्र आदि प्रदान करे। तदनन्तर सिद्ध, साध्य, अरि का निर्णय करके यथाविधि मन्त्रदीक्षा ग्रहण करे। जो साधक परम भक्ति से दीक्षा ग्रहण करता है, वह सर्गाङ्ग रमणीक एवं मनोहर हो जाता है। गुरुभक्ति में रत बालक, कुलीन, गर्भदीक्षित, देवीभक्तिनिरत, भक्त, पाप से भयभीत, कृतात्मक को जानकर जो दीक्षा देता है, वह गुरु कृतभागी होता है ।। ९-१४।।

देवीरहस्य पटल ५४- दीक्षाकालनिर्णयविषयकप्रश्नः

श्रीदेव्युवाच

भगवन् करुणाम्भोधे साधकानां हितेच्छया ।

कदा दीक्षा परा ग्राह्या साधकैस्तद्वदस्व मे ।। १५ ।।

दीक्षाकाल विषयक प्रश्न- श्री देवी ने कहा कि हे भगवन् करुणासागर! साधकों के हित के लिये यह बतलाइये कि साधक को परा दीक्षा कब ग्रहण करनी चाहिये ।। १५ ।।

देवीरहस्य पटल ५४- दीक्षाकालनिर्णयः

श्रीभैरव उवाच

सुदिने शुभनक्षत्रे सङ्क्रान्तावयनद्वये ।

नवरात्रिदिने पित्रोः श्राद्धे स्वजनिवासरे ।। १६ ।।

नववर्षदिने देवि चन्द्रसूर्योपरागके ।

शिवरात्र्यां स्वजन्मर्क्षे दीक्षां कुर्याद्विचक्षणः ॥ १७॥

दीक्षाकालनिर्णय- श्री भैरव ने कहा कि शुभ दिन, शुभ नक्षत्र, संक्रान्ति, उत्तरायण, दक्षिणायन, नवरात्रि दिन पितरों के श्राद्धदिवस, अपने जन्मदिन, नव-वर्षदिवस, चन्द्र-सूर्यग्रहण, शिवरात, अपने जन्मनक्षत्र में बुद्धिमान द्वारा दीक्षा ग्रहण करना चाहिये ।। १६-१७।।

देवीरहस्य पटल ५४- गुरोर्दीक्षादानम्

तत्रादौ शुभनक्षत्रे स्नात्वा संपूज्य भैरवम् ।

गत्वा नदीतटं देवि तथा देवालयं क्वचित् ॥ १८ ॥

देवता गुरुं नत्वा नत्वा सन्तोषहेतवे ।

द्वीपं वोपवनं पुण्यं देवानामपि दुर्लभम् ॥ १९ ॥

देवतायतनं वापि प्राप्याशु प्रणमेत् ततः ।

तत्रादावासनं देवि संशोध्य गुरुमर्चयेत् ॥ २० ॥

भूतान्निःसार्य देवेशि स्वाङ्गन्यासं चरेत् ततः ।

प्राङ्मुखो गुरुरासीनश्चोत्तराभिमुखं शिशुम् ॥ २१ ॥

गुरु द्वारा दीक्षा दान-पहले शुभ नक्षत्र में स्नान करके भैरव का पूजन करने के पश्चात् तब नदी के किनारे या देवालय में जाकर देवता के आगे गुरु को प्रणाम करे। गुरु के सन्तोष के लिये उसे बार-बार प्रणाम करे। अथवा द्वीप या परम पुण्य देवों को भी दुर्लभ देवालय या वापी मिलने पर शीघ्र ही उसे प्रणाम करे। वहाँ स्थानशोधन करके गुरु का अर्चन करे। भूतोत्सारण करके अपने अङ्गों में न्यास करे। गुरु स्वयं उत्तरमुख बैठकर शिष्य को पूर्व मुख बैठाये ।। १८-२१।।

संस्थाप्य विधिवद् देवि देवीं स्मृत्वा परामयः ।

देवताग्रे पराप्रीत्यै दीक्षां दद्याद्यथाविधि ॥ २२ ॥

कर्णमूले महाविद्यां श्रीविद्यां साधकेश्वरः ।

आनन्दसक्तहृदयः शनैस्त्रिस्त्रि: समर्पयेत् ॥ २३॥

गणेशस्य च गायत्र्यास्ततो मृत्युञ्जयस्य च ।

इष्टदेव्याः शिवस्यापि ततो विद्यां समर्पयेत् ॥ २४ ॥

विधिवत् देव-देवी का स्मरण करके देवीमय हो जाये देवता के सामने यथाविधि दीक्षा प्रदान करे। साधकोत्तम के कान में गुरु धीरे से श्रीविद्या को तीन बार सुनाये और समर्पित करे। गुरु इस समय स्वयं आनन्दित रहे। पहले गणेश, तब गायत्री, तब मृत्युञ्जय, तब इष्टदेवी के मन्त्रों को शिष्य के कान में तीन-तीन बार कहकर अन्त में शिवविद्या समर्पण करे ।। २२-२४ ।।

शिष्यो दीक्षां तु संप्राप्य गुरुमभ्यर्च्य शक्तितः ।

तोषयित्वा प्रणामैश्च दक्षिणाभिः शुभाम्बरैः ॥ २५ ॥

तदाज्ञां सहसादाय पूजायै परमेश्वरि ।

यन्त्रं मन्त्रं च मालां च पञ्चाङ्गं परमेश्वरि ।। २६ ।।

पुनर्जातु शिवे शिष्यो गुरवेऽपि न दर्शयेत् ।

इति दीक्षाविधेः सारभूतं गुह्यं रहस्यकम् ।

गुह्यातिगुह्यगुप्तं तु न प्रकाश्यं मुमुक्षुभिः ॥ २७ ॥

दीक्षा-प्राप्ति के बाद शिष्य अपनी शक्ति के अनुसार गुरु का अर्चन करे। गुरु को प्रणाम से, दक्षिणा से, शुभ वस्त्रों से सन्तुष्ट करे। इसके बाद गुरु की आज्ञा लेकर यन्त्र, मन्त्र, माला एवं पञ्चाङ्ग गुरु से प्राप्त करे। इन सभी चीजों को लेने के पश्चात् शिष्य पुनः गुरु को भी न दिखावे। इस प्रकार दीक्षाविधि का सार, गुह्य रहस्य का वर्णन पूरा हुआ। यह गुह्याति-गुह्य है और मोक्षार्थियों के लिये भी अप्रकाश्य है ।। २५-२७।।

इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे श्रीदेवीरहस्ये दीक्षानिरूपणं नाम चतुष्पञ्चाशत्तमः पटलः ॥ ५४ ॥

इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में दीक्षा निरूपण नामक चतुष्पञ्चाशत्तम पटल पूर्ण हुआ।

आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 55 

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