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कर्मकाण्ड

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गुरु अष्टक

गुरु अष्टक

गुरु अष्टक में आदि गुरु शंकराचार्य ने गुरु की महिमा बताते हुए कहते हैं कि गुरु कितने तरीकों से शिष्यों की रक्षा करते हैं, और आत्मज्ञान प्राप्ति में शिष्यों की मदद करते हैं।

गुरु अष्टक

गुर्वष्टकं

Guru Ashtakam

गुरु अष्टकम्   

     शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं

            यशश्चारु चित्रं धनं मेरुतुल्यम् ।

     मनश्चेन्न लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे

            ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ १॥

आप का शरीर भले ही सुंदर हो, आप की पत्नी भी सुंदर हो, आप का यश चारों दिशाओं में हो, मेरु पर्वत की तरह विशाल धन संपत्ति हो, पर यदि आप का मन गुरु के चरणकमलों में न लगता हो तो फिर इन सब का क्या अर्थ है, क्या अर्थ है, क्या अर्थ है, क्या अर्थ है ?

     कलत्रं धनं पुत्रपौत्रादि सर्वं

            गृहं बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम् ।

     मनश्चेन्न लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे

            ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ २॥

आप के पास पत्नी हो, धनसम्पत्ति हो, पुत्र, पौत्र आदि सब, घर, भाई-बहन, सभी सगे संबंधी भी हों पर आप का मन यदि गुरु के चरणकमलों में न लगता हो तो इन सब का क्या अर्थ है, क्या अर्थ है, क्या अर्थ है, क्या अर्थ है ?

     षडङ्गादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या

            कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति ।

     मनश्चेन्न लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे

            ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ ३॥

आप के होठों पर सभी वेद एवं उनके छः अंग हों, आप सुंदर कविता करते हों, गद्य पद्य की सुंदर रचना करते हों, पर आप का मन यदि गुरु के चरणकमलों में न लगता हो तो इन सब का क्या अर्थ है, क्या अर्थ है, क्या अर्थ है, क्या अर्थ है?

     विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः

            सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः ।

     मनश्चेन्न लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे

            ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ ४॥

कोई ऐसा सोच सकता है कि 'मेरा विदेशों में बहुत आदर सन्मान होता है, मुझे अपने देश में धन्य माना जाता है, सदाचार के मार्ग पर मुझसे बढ़ कर कोई और नहीं है,' पर उसका मन यदि गुरु के चरणकमलों में न लगता हो तो इन सब का क्या अर्थ है, क्या अर्थ है, क्या अर्थ है, क्या अर्थ है ?

     क्षमामण्डले भूपभूपालबृन्दैः

            सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम् ।

     मनश्चेन्न लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे

            ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ ५॥

किसी का हर समय गुणगान होता रहता हो एवं सारे जगत के राजा, महाराजा, सम्राट उनके सामने उपस्थित हो कर उनका सन्मान करते हों पर यदि उसका मन गुरु के चरणकमलों में न लगता हो तो इन सब का क्या अर्थ है, क्या अर्थ है, क्या अर्थ है, क्या अर्थ है ?

     यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापा-

            ज्जगद्वस्तु सर्वं करे यत्प्रसादात् ।

     मनश्चेन्न लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे

            ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ ६॥

"मेरे परोपकार, दान के कार्यों एवं मेरे कौशल का यश चारों दिशाओं में फैला हुआ है, जगत की सारी वस्तुएं मेरे गुणों के पुरस्कार के रूप में मेरे हाथों में हैं" ऐसा होने पर भी यदि मन गुरु के चरणकमलों में न लगता हो तो इन सब का क्या अर्थ है, क्या अर्थ है, क्या अर्थ है, क्या अर्थ है ?

     न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ

            न कान्तामुखे नैव वित्तेषु चित्तम् ।

     मनश्चेन्न लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे

            ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ ७॥

वैराग्य द्वारा, बाहरी आकर्षणों, योग एवं ध्यान जैसी सफलताओं, पत्नी के सुंदर मुख एवं पृथ्वी की समस्त धन, संपत्ति से भी मन दूर हट गया हो पर यदि मन गुरु के चरणकमलों में न लगता हो तो इन सब का क्या अर्थ है, क्या अर्थ है, क्या अर्थ है, क्या अर्थ है ?

     अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये

            न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्घ्ये ।

     मनश्चेन्न लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे

            ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ ८॥

वन में रहने का या घर में रहने का मन का आकर्षण समाप्त हो गया हो, कोई भी सिद्धि प्राप्त करने की इच्छा समाप्त हो गयी हो, अपने शरीर को पुष्ट, स्वस्थ रखने की परवाह भी न रही हो पर यदि मन गुरु के चरणकमलों में न लगता हो तो इन सब का क्या अर्थ है, क्या अर्थ है, क्या अर्थ है, क्या अर्थ है ?

गुरु अष्टक महात्म्य                      

     गुरोरष्टकं यः पठेत्पुण्यदेही

            यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही ।

     लभेद्वाञ्छितार्थं पदं ब्रह्मसंज्ञं

            गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम् ॥

जो तपस्वी, राजा, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु-अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु के वचनों में आसक्त है, वह पुण्यशाली शरीरधारी अपने इच्छितार्थ एवं ब्रह्मपद इन दोनों को सम्प्राप्त कर लेता है यह निश्चित है।

इतिश्री: गुरु अष्टकम् ॥

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