कालिका पुराण अध्याय ६८

कालिका पुराण अध्याय ६८                      

कालिका पुराण अध्याय ६८ में षोडशोपचार पूजा विधि अंर्तगत आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, मधुपर्क, स्नानीय इन छः पूजा उपचारों के विषय का वर्णन है ।

कालिका पुराण अध्याय ६८

कालिका पुराण अध्याय ६८                                        

Kalika puran chapter 68

कालिकापुराणम् अष्टषष्टितमोऽध्यायः आसनादिपूजोपचारवर्णनम्

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ६८                         

।। श्रीभगवानुवाच ।।

उपचारान् प्रवक्ष्यामि शृणु षोडश भैरव ।

यैः सम्यक् तुष्यते देवी देवोऽप्यन्यो हि भक्तितः ।। १ ।।

श्रीभगवान् बोले- हे भैरव ! अब मैं पूजा के उन सोलह उपचारों के विषय में कहूँगा, जिनके भक्तिपूर्वक प्रयोग से देवी-देवता तथा अन्य भी भली-भाँति प्रसन्न हो जाते हैं। तुम उन्हें सुनो ॥ १ ॥

कालिका पुराण अध्याय ६८ - आसनवर्णन 

आसनं प्रथमं दद्यात् पौष्पं दारवमेव वा ।

वास्त्रं वा चार्मणं कौशं मण्डलस्योत्तरे सृजेत् ।। २ ।।

सर्व-प्रथम मण्डल के उत्तरीभाग में पुष्पमय, लकड़ी का, वस्त्र, चमड़े या कुश का बना आसन, पूज्यदेव को समर्पित करे ॥ २ ॥

यदैव दीयते पद्मे मण्डलस्य तदुत्सृजेत् ।

वाक् पुष्पतोयैः कुसुमं बिना यच्छादकं भवेत् ।

पद्मस्य तद्बहिर्देशे द्वारादौ विनिवेदयेत् ।। ३ ।।

जो वाणी, पुष्प एवं जलप्रदान किये जायँ उन्हें मण्डल के पद्म पर उत्सर्जित करना चाहिये । पुष्प के बिना दिया जाने वाला ऐसा उपहार जो मण्डल को ढकने वाला हो, उसे पद्म के बाहर द्वार आदि स्थानों पर निवेदित करे ।। ३ ।।

अर्घ्यं पाद्यं चाचमनं स्नानीयं नेत्ररञ्जनम् ।

मधुपर्कं च गन्धं च पुष्पं पद्मे निवेदयेत् ।।४।।

मण्डलपूजन मे अर्घ्य, पाद्य, आचमनीय, स्नानीय, नेत्ररञ्जन (अञ्जन), मधुपर्क, गन्ध और पुष्प, पद्म पर निवेदित करे (चढ़ाये ) ।। ४ ।।

प्रतिमासु च यद्योग्यं गात्रे दातुं च तत् तनौ ।

दद्याद् योग्यं तु पुरतो नैवेद्यं भोजनादिकम् ।।५।।

प्रतिमा पूजन करते समय जो शरीर पर अर्पण के योग्य हो, उसे यथोचित अङ्गों पर अर्पित करे। उचित नैवेद्य एवं भोजन आदि देव के सम्मुख निवेदित करे ॥ ५ ॥

पौष्पासनं यद् विहितं यस्य तद् यदि गर्भकम् ।

निवेदयेत् तदा पद्मे विपुलं द्वारि चोत्सृजेत् ।। ६ ।।

जो पुष्प का आसन कहा गया है यदि वह गर्भक (कली के आकार का ) हो तो उसे मण्डल (यन्त्र) के ऊपर और बड़ा हो तो द्वार पर अर्पित करे ॥ ६ ॥

पौष्पं पुष्पौघरचितं कुशसूत्रादिसंयुतम् ।

अतिप्रीतिकरं देव्या ममाप्यन्यस्य भैरव ॥ ७ ॥

हे भैरव ! पुष्प से, पुष्पों के समूह से तथा कुश, सूत्र आदि से बना हुआ आसन, देवी को, मुझे तथा अन्य देवताओं को अत्यन्त प्रिय है ॥७॥

यज्ञकाष्ठसमुद्भूतमासनं मसृणं शुभम् ।

नोच्छ्रायं नातिविस्तीर्णमासनं विनियोजयेत् ॥८॥

यज्ञीयकाष्ठ से बना हुआ आसन, शुभ और कोमल हो, जो न बहुत ऊँचा और न अधिक विस्तृत हो, ऐसे आसन का उपयोग करे ॥८॥

अन्यद् दारुभवं चापि दद्यादासनमुत्तमम् ।।९।।

सकण्टकं क्षीरयुतं दारुसारविवर्जितम् ।

चैत्यश्मशानसम्भूतं वर्जयित्वा विभीतकम् ।।१०।।

काँटा युक्त, दूधवाले, गाँठयुक्त, चौरस्ते (चौराहे) या श्मशान में उत्पन्न काष्ठों तथा बहेड़े को छोड़, अन्य काष्ठों के बने उत्तम आसन ही देने चाहिये ॥ ९-१०॥

वल्कलं कोषजं शाणं वस्त्रमेतत् त्रयं मतम् ।

रोमजं कम्बलं चैतदनेन तु चतुष्टयम् ।

अनेन रचितं दद्यादासनं चेष्टभूतये ।। ११ ।।

वल्कल, कोश (रेशम), शाण (सन) के बने तीन प्रकार के वस्त्र बताये गये हैं। इनमें रोम से या कम्बल से बना सम्मिलित होने पर चार प्रकार के वस्त्र हो जाते हैं। जिनके बने आसन, साधक द्वारा ऐश्वर्यप्राप्ति हेतु अपने इष्टदेव को अर्पित किया जाना चाहिये ॥ ११ ॥

सिंहव्याघ्रतरक्षूणां छागस्य महिषस्य वा ।

गजानां तुरगाणां च कृष्णसारस्य चर्मणः ।। १२ ।।

सृमरस्याथ रामस्य मृगाणां नवभेदिनाम् ।

चर्मभिः सर्वदेवानामासनं प्रीतिदं श्रुतम् ।।१३।।

सिंह, बाघ, तरक्षु (लकड़बघा), बकरा, भैंसा, हाथी, घोड़ा, कृष्णसार, सृमर, राम आदि नव प्रकार के मृगों के चमड़ों से बने आसन, सभी देवताओं को अत्यधिक प्रसन्नता देने वाले सुने जाते है ॥ १२-१३ ॥

वस्त्रेषु कम्बलं शस्तमासनं देवतुष्टये ।

राङ्कवं चार्मणं श्रेष्ठं दारवं चन्दनोद्भवम् ।। १४ । ।

देवताओं की सन्तुष्टि हेतु वस्त्रों में कम्बल से बना, चमड़ों में राङ्कुमृग के चमड़े से बना, लकड़ी से बने आसनों में चन्दन से बना आसन, श्रेष्ठ होता है । । १४ ॥

यच्चासनं कुशमयं तदासनमनुत्तमम् ।

सर्वेषामपि देवानामृषीणां च यतात्मनाम् ।। १५ ।।

योगपीठस्य सदृशमासनं स्थानमुच्यते ।

आसनस्य प्रदानेन सौभाग्यं मुक्तिमाप्नुयात् ।। १६ ।।

का जो आसन कुश का बना होता है, वह सर्वश्रेष्ठ आसन है । वह, सभी देवताओं, ऋषियों और नियत आत्मा वालों के लिए योग-पीठ के समान, श्रेष्ठ आसन और उत्तमस्थान कहा गया है। आसन प्रदान करने से साधक सौभाग्य एवं मुक्ति को प्राप्त करता है ।।१५-१६॥

शम्बरो रोहितो रामो न्यंकुरंकुः शशो रुरुः ।

एणश्च हरिणश्चेति मृगा नवविधा मताः ।।१७।।

हरिणश्चापि विज्ञेयो पञ्चभेदोऽत्र भैरव ।

ऋष्यः खड्गो रुरुश्चैव पृषतश्च मृगस्तथा ।। १८ ।।

एते बलिप्रदानेषु चर्मदानेषु कीर्तिताः ।। १९ ।

शम्बर, रोहित, राम, न्युकु, रङ्कु, शश, रुरु, एण और हरिण ये नव प्रकार के मृग कहे गये हैं । हे भैरव ! यहाँ हरिणों के भी पाँच भेद बताये गये हैं- १. ऋष्य (बारहसिंघा), खड्ग (गैंडा), रुरु, पृषत (चीतल) और मृग, ये सब बलिप्रदान एवं आसन हेतु चर्मदान में उपयुक्त कहे गये हैं ।। १७-१९॥

सर्वेषां तैजसानां च आसनं श्रेष्ठमुच्यते ।

आयसं वर्जयित्वा तु कांस्यं सीसकमेव वा ।। २० ।।

लोहा, कॉसा और सीसा को छोड़ कर सभी धातुओं के आसन श्रेष्ठ गये हैं । २० ॥

शिलामयं मणिमयं तथा रत्नमयं मतम् ।

आसनं देवताभ्यस्तु भुक्त्यै समुत्सृजेत् ।। २१ ।।

शिलाओं, मणियों तथा रत्नों से बने आसन देवताओं के भोग हेतु समर्पित करे ॥ २१ ॥

अत्रैव साधकानां च आसनं शृणु भैरव ।

यत्रासीनः पूजयंस्तु सर्वसिद्धिमवाप्नुयात् ।। २२ ।।

हे भैरव ! अब साधकों के उन आसन के विषय में सुनो, जहाँ बैठ कर पूजन करता हुआ साधक, सब प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है ॥२२॥

ऐन्धनं चार्मणं वास्त्रं तैजसं च चतुष्टयं ।

आसनं साधकानां च सततं परिकीर्तितम् ।

तत् सर्वमासनं शस्तं पूजाकर्मणि साधके ।। २३ ।।

लकड़ी, चमड़े, वस्त्र और धातुओं के बने चार प्रकार के आसन, साधकों के लिए सदैव उपयोगी बताये गये हैं। वे चारों प्रकार के ही आसन पूजाकर्म में साधकों के लिए सदैव श्रेष्ठ बताये गये हैं ।। २३॥

न यथेष्टासनो भूयात् पूजाकर्मणि साधकः ।

काष्ठादिकासनं कुर्यात् सितमेव सदा बुधः ।। २४ ।।

यदि पूजा हेतु साधक को उचित आसन न उपलब्ध हो तो विद्वान्, साधक काष्ठादि का सदैव श्वेत् आसन बनावे ॥ २४ ॥

चतुर्विंशत्यङ्गुलेन दीर्घं काष्ठासनं मतम् ।। २५ ।।

षोडशाङ्गुलविस्तीर्णमुच्छ्रायं चतुरङ्गुलम् ।

षडङ्गुलं वा कुर्यात् तु नोच्छ्रितञ्चात आचरेत् ।

पूर्वोक्तं वर्जयेद् वर्ज्यमासनं पूजनेष्वपि ।। २६ ।।

वह काष्ठ (लकड़ी) का बना आसन, चौबीस अङ्गुल लम्बा, सोलह अङ्गुल चौड़ा या चार अङ्गुल ऊँचा बताया गया है, किन्तु छः अङ्गुल से ऊँचा न प्रयोग करे । पहले जिस प्रकार के आसनों का निषेध किया जा चुका है। उनका पूजनकर्म में भी निषेध करना चाहिये ।। २५-२६ ॥

वस्त्रं द्विहस्तान्नो दीर्घ सार्धहस्तान्न विस्तृतम् ।

नत्र्यङ्गुलात् तथोच्छ्रायं पूजाकर्मणि संश्रयेत् ।। २७ ।।

पूजाकर्म में आसन हेतु दो हाथ से लम्बा, डेढ़हाथ से चौड़ा तथा तीन अङ्गुल से ऊँचा वस्त्र न प्रयोग करे ॥२७॥

यथेष्टं चार्मणं कुर्यात् पूर्वोक्तं सिद्धिदायकम् ।

षडङ्गुलाधिकं कुर्यान्नोच्छ्रितं च कदाचन ।। २८ ।।

पूर्वोक्त वर्णित चमड़े का बना सिद्धिदायक आसन यथेष्ट लम्बा-चौड़ा प्रयोग किया जा सकता है किन्तु वह कभी भी छ: अंगुल से ऊँचा नहीं होना चाहिये ॥२८॥

काम्बलं चार्मणं शैलं महामायाप्रपूजने ।। २९ ।।

प्रशस्तमासनं प्रोक्तं कामाख्यायास्तथैव च ॥

त्रिपुरायाश्च सततं विष्णोश्चापि कुशासनम् ।। ३० ।।

महामाया, कामाख्या, त्रिपुरा के पूजन के लिए कम्बल, चमड़ा, पत्थर के बने आसन तथा विष्णु के लिए कुशा से निर्मित आसन उत्तम बताये गये हैं ।। २९-३०।।

बहुदीर्घं बहूच्छ्रायं तथैव बहुविस्तृतम् ।

दारुभूमिसमं प्रोक्तमश्मापि सर्वकर्मणि ।। ३१ ।।

लकड़ी और पत्थर के बने बहुत लम्बे-चौड़े, ऊँचे आसन सभी कर्मों में भूमि के समान बताये गये हैं ।। ३१ ॥

पृथक् पृथक् कल्पयेत् तु बहिर्द्वारि तथासनम् ।

न पत्रमासनं कुर्यात् कदाचिदपि पूजने ।। ३२ ।।

न प्राण्यङ्ग- समुद्भूतमस्थिजं द्विरदादृते ।

मातङ्गदन्तसञ्जातं कामिकेष्वासनं चरेत् ।

चार्मं पूर्वोदितं ग्राह्य तथा गन्धमृगस्य च ।। ३३ ।।

पृथक्-पृथक् आसनों की व्यवस्था मण्डल द्वार के बाहर बनाये व पूजन में कभी पत्ता का बना आसन, न प्रयोग करे। देवताओं के कामिक (सकाम) पूजन में पहले बताये चमड़ों से बने तथा गन्ध-मृग (कस्तूरीमृग ) के चमड़े एवं हाथी दाँत के आसन का प्रयोग करना चाहिए। हाथी के अतिरिक्त अन्य किसी प्राणी के अङ्ग या हड्डियों से बने आसन का पूजन में प्रयोग न करे ।। ३३॥

सलिले यदि कुर्वीत देवतानां प्रपूजनम् ।

तत्राप्यासन आसीना नोत्थितस्तु कदाचन ॥३४॥

यदि जल में देवताओं का पूजन करना हो तो वहाँ भी आसन पर बैठकर ही करना चाहिये। कभी भी खड़े होकर पूजन नहीं करे ॥ ३४ ॥

तोये शिलामयं कुर्यादासनं कौशमेव वा ।

दारवं तैजसं वापि नान्यदासनमाचरेत् ।। ३५ ।।

जल में शिलानिर्मित, लकड़ी, धातु या कुशा के बने आसन का उपयोग करे । अन्य चार्मज, वस्त्र या कम्बल के आसन का नहीं ॥ ३५ ॥

आसनारोपसंस्थानं स्थानाभावे तु पूजकः ।

आसनं कल्पयित्वा तु मनसा पूजयेज्जले ।। ३६ ।।

यदि आसन बिछाने की व्यवस्था हो तो उपर्युक्त आसनों की व्यवस्था करे अन्यथा साधक, मानसिक आसन की व्यवस्था कर, जल में पूजन करे यदि उचित आसन न मिले तो भी मानसिक आसन की परिकल्पना से ही जल में पूजन करे॥३६॥

यद्यासितुं न संस्थानं विद्यते तोयमध्यतः ।

अन्यत्र वा तदा स्थित्वा देवपूजां समाचरेत् ।। ३७।।

जल में या अन्य स्थान पर जहाँ आसन बिछाने की व्यवस्था न हो वहाँ मानसिक-आसन की कल्पना से ही स्थित हो, देवपूजन सम्पन्न करे ॥३७॥

इत्येतत् कथितं पुत्र पूज्यपूजकसङ्गतम् ।

आसनं पाद्यमधुना शृणु वेताल भैरव ॥३८॥

हे वेताल और भैरव नामक दोनों पुत्रों ! यह पूज्य-पूजक के विचार से आसन बताया गया । अब तुम दोनों पाद्य के विषय में सुनो ॥ ३८ ॥

कालिका पुराण अध्याय ६८ - पाद्यवर्णन 

पादार्थमुदकं पाद्यं केवलं तोयमेव तत् ।

तत् तैजसेन पात्रेण शङ्खेनापि प्रदापयेत् ।। ३९ ।।

पैर ( प्रक्षालन) के निमित्त जो केवल जल दिया जाता है, उसे पाद्य कहते हैं। इसे धातु के पात्र या शङ्ख से प्रदान करे ।। ३९ ।।

धर्मार्थकाममोक्षाणां संस्थानं पाद्यमिष्यते ।

तदासनोत्तरं दद्यान्मूलमन्त्रेण सर्वतः ।।४०।

पाद्य, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष का संस्थान बताया गया है। उसे सब जगह, आसन-दान के पश्चात् मूलमन्त्र से प्रदान करना चाहिये ॥४०॥

कालिका पुराण अध्याय ६८ - अर्घ्यवर्णन 

कुशपुष्पाक्षतैश्चैव सिद्धार्थश्चन्दनैस्तथा ।

तोयैर्गन्धैर्यथालब्यैरर्यं दद्यात् तु सिद्धये ।।४१।।

साधक यथोपलब्ध कुश, पुष्प, अक्षत, चन्दन, गन्ध (सुगन्धित पदार्थ) और जल से सिद्धि की कामना सहित अर्घ्यप्रदान करे ॥ ४१ ॥

अर्घ्येण लभते कामानर्येण लभते धनम् ।

पुत्रायुः सुखमोक्षाणि दानादर्घ्यस्य वै लभेत् ।। ४२ ।।

अर्घ्य से कामनायें प्राप्त होती हैं। अर्घ्य से धनप्राप्त होता है। अर्घ्यदान से ही पुत्र, आयु, सुख या मोक्ष प्राप्त होता है ॥४२॥

न दद्याद् भास्करायार्घ्यं शङ्खतोयैर्विचक्षणः ।

तथा न शुक्तिपात्रेण विष्णवेऽर्घ्यं निवेदयेत् ।। ४३ ।।

बुद्धिमान् साधक, शङ्ख स्थित जल, सूर्य को तथा सीपी का जल, विष्णु को अर्घ्य के रूप में प्रदान न करे ॥४३॥

कालिका पुराण अध्याय ६८ - आचमनीयवर्णन 

दद्यादाचमनीयं तु सुगन्धिसलिलैः शुभैः ।

कर्पूरवासितैर्वापि कृष्णागुरुविधूपितैः ।। ४४ ।।

यथा तथा सुगन्धैर्वा प्रसङ्गैः फेनवर्जितैः ।

तत् तैजसेन पात्रेण शङ्खेनापि प्रदापयेत् ।। ४५ ।।

शुभ, सुगन्धित जल, कर्पूर से सुगन्धित तथा काले अगर से धूपित यथोपलब्ध सुगन्ध से युक्त, फेन से रहित, जल को, धातु के पात्र या शङ्खपात्र में लेकर आचमनीय प्रदान करे ।।४४-४५ ।।

उदकं दीयते यत् तु प्रसन्नं फेनवर्जितम् ।

आचमनाय देवेभ्यस्तदाचमनमुच्यते ।। ४६ ।।

जो प्रसन्न (स्वच्छ), फेन रहित, जल, देवताओं के आचमन हेतु दिया जाता है, उसे आचमनीय कहते हैं ॥ ४६ ॥

केवलं तोयमात्रेण तद् वा दद्यान्न मिश्रितम् ।

वासितं तु सुगन्धाद्यैः कर्तव्यं यदि लभ्यते ।। ४७ ।।

यदि उपलब्ध हो तो सुगन्ध आदि से सुगन्धित जल से आचमनीय अथवा केवल बिना कुछ उसमें मिलाये जलमात्र से ही आचमनीय प्रदान करे ॥४७॥

आयुर्बलं यशोवृद्धिं प्रदायाचमनीयकम् ।

लभते साधको नित्यं कामांश्चैव यथोत्थितान् ।। ४८ ।।

आचमनीय प्रदान करके साधक, आयु, बल, यश की वृद्धि और अभिलषित कामनाओं को नित्य प्राप्त करता है ॥४८॥

कालिका पुराण अध्याय ६८ - मधुपर्कवर्णन 

दधिर्सर्पिर्जलं क्षौद्रं सिता ताभिश्च पञ्चभिः ।

प्रोच्यते मधुपर्कस्तु सर्वदेवौघतुष्टये ।। ४९ ।।

दधि, घी, जल, मधु, मिश्री इन पाँच पदार्थों से युक्त पदार्थ, मधुपर्क कहा जाता है। वह सभी देवसमूह को तृप्तिप्रदान करने वाला है ।। ४९ ।।

जलं तु सर्वतः स्वल्पं सितादधिघृतं समम् ।

सर्वेभ्यश्चाधिकं  क्षौद्रं मधुपर्के प्रयोजयेत् ।। ५० ।।

मधुपर्क बनाने में जल सबसे कम, मिश्री, दही, घी समान मात्रा में तथा शहद का सर्वाधिक प्रयोग करना चाहिये ॥५०॥

तद् दद्यात् कांस्यपात्रेण रौक्मश्वेतमयेन वा ।

ज्योतिष्टोमाश्वमेधादौ पूर्वे चेष्टे च पूजने ।। ५१ ।।

वह मधुपर्क, सोना, शंख या काँसे के पात्र में ज्योतिष्टोम, अश्वमेध आदि यज्ञ में तथा अपने इष्टदेव के पूजन में प्रदान करे ।।५१।।

मधुपर्कः प्रदिष्टोऽयं सर्वदेवौघतुष्टिदः ।। ५२ ।।

धर्मार्थकाममोक्षाणां साधक: परिकीर्तितः ।

मधुपर्क: सौख्यभोग्य-तुष्टि पुष्टि - प्रदायकः ।। ५३ ।।

ऊपर इस प्रकार का वर्णित, मधुपर्क सभी देवसमूह को तुष्टि देने वाला तथा धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष का साधक कहा गया है। यह सौख्य, भोग्य, तुष्टि व पुष्टि प्रदान करने वाला है ॥५२-५३॥

कालिका पुराण अध्याय ६८ -स्नानीयवर्णन 

पिष्टातकोऽथ कस्तूरी रोचनं कुङ्कुमं तथा ।

गुडः क्षौद्रं पञ्चगव्यं सर्वोषधिगणस्तथा ।। ५४ ।।

सिता निर्णेजनं तैलं स्निग्धस्नेहेन तत्तिलाः ।

प्रान्ते तोयमिति प्रोक्तं स्नानीयं कल्पकोविदैः ।। ५५ ।।

कल्प (पूजा विधि) जानने वालों द्वारा सुगन्धयुक्त चूर्ण, कस्तूरी, गोरोचन, कुङ्कुम, गुड़, मधु, पञ्चगव्य, सर्वौषधि, मिश्री, निर्णेजन (साबुन), तेल, स्निग्ध स्नेहयुक्त तिल, अन्त में जल इन के मिश्रण को स्नानीय कहा जाता है ।।५४-५५॥

स्वर्णरत्नोदकं चैव कर्पूराद्यधिवासितम् ।

तैजसैः कांस्यपात्रैर्वा शङ्खैर्वा तन्निवेदयेत् ।। ५६ ।।

स्वर्ण और रत्नयुक्त जल, कपूर से सुगन्धित स्नानीय जल को धातु, काँसा, या शङ्ख के पात्र में निवेदित करे॥५६॥

मण्डले केशरे देयमादित्यप्रतिमासु च ।

शिवलिङ्गे तथा भोगे पीठे देवतनौ तथा ।।५७।।

स्नानीयपदार्थ, मण्डल में पद्म के केशर पर सूर्य की प्रतिमा पर शिव के लिङ्ग पर, भोग (सर्प) की पीठ पर तथा देवता के शरीर पर देना चाहिये ॥ ५७॥

सद्यः स्निग्धे मृन्मये वा सर्पिः सिन्दुरजे तथा ।

श्रीचन्दनप्रतिष्ठे वा लेपयेत् प्रतिमातनौ ।

स्वस्तिकस्थापिते खड्गे स्नापयेद् दर्पणेऽथवा ।। ५८ ।।

अत्यन्त कोमल, मिट्टी की बनी, घी और सिन्दूर से बनी, श्री चन्दन पर प्रतिष्ठित प्रतिमा के शरीर पर स्नानीय का लेप करना चाहिये किन्तु स्वास्तिक पर स्थापित होने पर, खड्ग पर, दर्पण पर स्नान कराना चाहिये ।। ५८ ।।

एवं दद्यात् तु स्नानीयं महादेव्यै विशेषतः ।

रवि विष्णुशिवेभ्यो वा यत्र तत्र प्रपूजने ।। ५९ ।।

इस प्रकार से सूर्य, विष्णु, शिव आदि को या जहाँ कहीं पूजन करना हो विशेष कर महादेवी को, स्नानीय प्रदान करे ।। ५९ ।।

पूजकः स्नानदानात् तु चिरायुरुपजायते ।

सम्यक् स्नानप्रदानात् तु कल्पान्तं स्वर्गभाग्भवेत् ।। ६० ।।

उपर्युक्त रीति से स्नान कराने से पूजक, चिरायु होता है तथा विधिपूर्वक स्नान-दान से वह कल्पपर्यन्त स्वर्ग-सुख का भोग करता है ॥ ६० ॥

यदेव दीयते पाद्यं गन्धपुष्पादिकं तथा ।

उपाचारांस्तथा सर्वानर्घ्यपात्राहितैर्जलैः ।। ६१ ।।

अमृतीकरणाद्यैस्तु संस्कृतैस्त्वभिषिच्य तैः ।

प्रदद्यादिष्टदेवेभ्यो गृह्णाति च ततः स्वयम् ।। ६२ ।।

पाद्य गन्ध-धूप-दीप आदि सभी उपचारों का अर्घ्य पात्र के अमृतीकरण आदि द्वारा संस्कारित जल से अभिषेक कर, इष्टदेवता को अर्पित करे तो देवता उसे स्वयं ग्रहण करते हैं ।। ६१-६२॥

अर्घ्यपात्राणि तैस्तोयैर्विना यद्विनिवेदनम् ।

दीयते चेष्टदेवेभ्यः सर्वं तन्निष्फलं भवेत् ।। ६३।।

अर्घ्यपात्र से उन जलों की व्यवस्था किये बिना जो इष्टदेव को निवेदन किया जाता है, वह सब निष्फल होता है ॥ ६३॥

रागाल्लोभात् प्रमादाद् वा ह्यर्ध्यं पात्रामृतीकृतम् ।

तोयं स्रुतं स्यात् पात्रात् तु पुनः कुर्यात् तदामृतम् ।। ६४ ।।

क्योंकि राग से लोभ से या आलस्यवश अर्घ्य पात्र का अमृतीकृतजल यदि, पात्र से बह जाय तो पुनः अमृतीकरण करे ॥ ६४ ॥

स्वल्पावशेषतोये तु पात्रस्थे ह्यमृतीकृते ।

तत्रान्यदुदकं दद्यात् तत्तेनैवामृतं भवेत् ।। ६५।।

अमृतीकरणयुक्तपात्र में बचे हुये थोड़े से भी जल में अन्यजल डालकर समर्पित करे तो उसका उसी से अमृतीकरण हो जाता है ।। ६५ ।।

बहूनि यदि पुष्पाणि माला वा प्रचुरा यदि ।

दीयन्ते चार्ध्यपात्रस्थैर्जलैः संसिच्य चोत्सृजेत् ।। ६६ ।।

यदि बहुत पुष्प या मालाएँ पर्याप्त मात्रा मे चढ़ानी हों तो उसका अर्घ्यपात्र के जल से सिंचन कर, उसे अर्पित करे।।६६।।

अन्यतोयैर्यदुत्सृष्टमर्घ्यपात्रस्थितेतरैः ।

तन्न गृह्णातीष्टदेवो दत्तं विधिशतैरपि ।। ६७।।

अर्घ्य पात्र स्थितजल के अतिरिक्त अन्य जल से जो जो पाद्यादिक चढ़ाया जाता है। सैकड़ों विधियों से चढ़ाये जाने पर भी देवता उन पदार्थों को ग्रहण नहीं करते ॥ ६७ ॥

संस्कृते त्वर्घ्यपात्रे तु नवभिः प्रतिपत्तिभिः ।

तिष्ठन्ति सर्वतीर्थानि पीयूषाणि च सर्वतः ।।६८।।

नवप्रतिपत्तियों से संस्कृत किये, संस्कारित अर्घ्यपात्र में सभी तीर्थ और अमृत निवास करते हैं ॥ ६८ ॥

तस्मात् तत्र स्थितैस्योयैरभ्युक्ष्योपचारानुत्सृजेत् ।

न योग्यमर्घ्यपात्रेषु निधाय विनिवेदयेत् ।। ६९ ।।

इसलिए जिन्हें अर्घ्यपात्र में रखकर अर्पित करना उचित नहीं है, उन्हें उस अर्घ्यपात्र में स्थित जल से, उपचारों का अभ्युक्षण करके ही चढ़ावे ।।। ६९ ।।

इदं ते भैरव प्रोक्तं षट्कं चैवासनादिकम् ।

वस्त्रादि दश वक्ष्यामि शृणु विज्ञानवृद्धये ।। ७० ।।

हे भैरव ! यह मैंने तुमसे आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, मधुपर्क, स्नानीय इन छः पूजा उपचारों के विषय में कहा। अब तुम दोनों का ज्ञान बढ़ाने के लिए वस्त्रादि अन्य दस, पूजा उपचारों के विषय में कहूँगा, उसे सुनो ॥ ७० ॥

इति श्रीकालिकापुराणे आसनादिपूजोपचारवर्णने अष्टषष्टितमोऽध्यायः ।। ६८ ।।

श्रीकालिकापुराण में आसनादिपूजोपचारवर्णनसम्बन्धी अड़सठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।।६८ ॥

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 69 

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