कालिका पुराण अध्याय ६७
कालिका पुराण
अध्याय ६७ में देवी के बलिदान विधान का वर्णन है ।
कालिका पुराण
अध्याय ६७
Kalika puran chapter 67
कालिकापुराणम् सप्तषष्टितमोऽध्यायः बलिविधानम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ६७
।।
श्रीभगवानुवाच ।।
क्रमस्तु
बलिदानस्य स्वरूपं रुधिरादितः ।
यथा स्यात्
प्रीतये सम्यक् तद् वां वक्ष्यामि पुत्रकौ ।। १ ।।
श्रीभगवान्
बोले-हे दोनो पुत्रों ! भगवती की प्रसन्नता के लिए बलिदान के क्रम और रक्त आदि का
स्वरूप,
जैसा होना चाहिए। उसे मैं तुम दोनों से भली-भाँति कहूँगा ॥१॥
वैष्णवीतन्त्रकल्पोक्तः
क्रमः सर्वत्र सर्वदा ।
साधकैर्बलिदानस्य
ग्राह्यः सर्वसुरस्य च ।।२।।
वैष्णवीतन्त्रकल्प
में बताई सभी देवताओं के साधकों द्वारा बलिदान की पद्धति ही सभी जगह और सदा अपनाई
जानी चाहिये ॥ २ ॥
पक्षिणः
कच्छ्पाः ग्राहाः मत्स्याः नवविधाः मृगाः ।
महिषो गोधिका
गावश्छागो रुरुश्च शूकरः ।।३।।
खड्गश्च
कृष्णसारश्च गोधिका शरभो हरिः ।
शार्दूलश्च
नरचैव स्वगात्ररुधिरं तथा ।
चण्डिका
भैरवादीनां बलय: परिकीर्तिताः ।।४।।
पक्षीगण,
कछुये, मगर, मत्स्य एवं नौ प्रकार के पशु, महिष, वृषभ, छाग, गोह, रुरु, सूअर, गैंडा, कृष्णसारमृग, शरभ, सिंह, शार्दूल, मनुष्य तथा साधक द्वारा अपने शरीर से निकाला रक्त,
ये सब, देवी और भैरव को प्रदान करने हेतु बलियाँ बताई गई हैं ।।
३-४ ।।
बलिभिः
साध्यते मुक्तिर्बलिभिः साध्यते दिवम् ।
बलिदानेन सततं
जयेच्छत्रूनृपान् नृपः ।।५।।
बलि से मुक्ति
प्राप्त होती है। बलि से ही स्वर्ग भी प्राप्त होता हैं। राजा बलिदान द्वारा ही
अपने शत्रु राजाओं को भी जीत लेता है ॥ ५ ॥
मत्स्यानां
कच्छपानां तु रुधिरैः सततं शिवा ।
मासैकं
तृप्तिमाप्नोति ग्राहैर्मासांस्तु त्रीनथ ॥
६ ॥
मृगाणां
शोणितैर्देवी नराणामपि शोणितैः ।
अष्टौ
मासानवाप्नोति तृप्तिं कल्याणदा च सा ।।७।।
गोधिकानां
गोरुधिरैर्वाषिकीं तृप्तिमाप्नुयात् ।।८।।
शिवा (काली)
निरंतर मत्स्यों और कछुओं के रक्त से एक मांस तक तृप्ति प्राप्त करती हैं तो मगर
के मांस से तीन माह, मनुष्यों एवं पशुओं के मांस से वे कल्याणदायिनी देवी,
आठ माह तक तृप्ति अनुभव करती हैं। गोह तथा बैलों के रक्त से
वे एक वर्षपर्यन्त तृप्ति का अनुभव करती हैं ।। ६-८।।
कृष्णसारस्य
रुधिरैः शूकरस्य च शोणितैः ।
प्राप्नोति
सततं देवी तृप्तिं द्वादशवार्षिकीम् ।। ९ ।।
कृष्णसारमृग और
सूअर के रक्त से देवी, बारह वर्षों तक निरन्तर तृप्ति, प्राप्त करती हैं ॥ ९ ॥
अजाविकानां रुधिरैः
पञ्चविंशतिवार्षिकीम् ।
महिषाणां च
खड्गानां रुधिरैः शतवार्षिकीम् ।। १० ।।
बकरी और
भेड़ों के रक्त से पच्चीस वर्षों तक और भैंसे तथा गैण्डों के रक्त से सौ वर्षों तक
तृप्ति,
प्राप्त करती हैं ॥१०॥
तृप्तिमाप्नोति
परमां शार्दूलरुधिरैस्तथा ।
सिंहस्य
शरभस्याथ स्वगात्रस्य च शोणितैः ।। ११ ।
देवी
तृप्तिमवाप्नोति सहस्रं परिवत्सरान् ।
मांसैरपि तथा
प्रीतिं रुधिरैर्यस्य यावती ।।१२।।
देवी
शार्दूलों के रक्त से परम-तृप्ति को प्राप्त करती हैं तथा वे सिंह,
शरभ, साधक द्वारा अर्पित अपने शरीर के रक्त से एक हजार वर्षों तक
तृप्ति प्राप्त करती हैं, जिसके रक्त अर्पण से देवी जितनी प्रसन्नता प्राप्त करती है।
उतना ही उसके मांस से भी प्राप्त करती हैं ।। ११-१२ ।।
कृष्णसारं
मृगं खड्गं तथा मत्स्यं च रोहितम् ।
वार्धीणसयुगं
चापि फलं तेषां पृथक् पृथक् ।। १३ ।।
कृष्णसारमृग,
खड्ग (गैण्डा), रोहितमछली तथा वार्धीणासयुगल के बलिदान के फल को अलग-अलग
कहता हूँ ।। १३॥
कृष्णसारस्य
मांसेन तथा खड्गेन चण्डिका ।
वर्षाणां च
शतान्येव तृप्तिमाप्नोति केवलम् ।। १४ ।।
कृष्णसारमृग
और खड्ग (गैंडे) के मांस से चण्डिका मात्र सौ वर्षों तक तृप्ति का अनुभव करती हैं
।। १४ ।।
रोहितस्य तु
मत्स्यस्य मांसैर्वार्ध्रीणसस्य च ।
तृप्तिं
प्राप्नोति वर्षाणां शतानि त्रीणि मत्प्रिया ।। १५ ।।
मेरी प्रिया
(शिवा) रोहितमत्स्य या वार्धीणस के मांस से तीन सौ वर्षों तक तृप्ति,
प्राप्त करती हैं ।। १५ ।।
तृप्नुवन्त्विन्द्रियक्षीणं
श्वेतं वृद्धमजापतिम् ।
वार्धीणसः
प्रोच्यतेऽसौ हव्ये कव्ये च सत्कृतः ।। १६ ।।
जिसकी
इन्द्रियाँ तृप्त हों एवं क्षीण न हुई हो अर्थात् जो समर्थ हो ऐसा बूढ़ा सफेद बकरा
वार्धीणस कहा जाता है किन्तु कोशग्रन्थों में यह शब्द गैंडे जैसे जानवर के लिए आया
है। जो देव कार्य (हव्य) तथा पितृकार्य (कव्य) में सम्माननीय हैं॥ १६ ॥
नीलग्रीवो
रक्तशीर्षः कृष्णपादः सितच्छदः ।
वार्ध्रिणसः
स्यात्पक्षी च मम विष्णोरपि प्रियः ।। १७ ।।
नीलेगले,
लालसिर, कालेपैर, श्वेतकन्धेवाला, ऐसे शरीरवाला पक्षी विशेष, वार्धीणस मुझे और विष्णु को भी प्रिय है ।।१७।।
नरेण बलिना
देवी सहस्रं परिवत्सरान् ।
विधिदत्तेन
चाप्नोति तृप्तिं लक्षं त्रिभिर्नरैः ।। १८ ।।
विधिपूर्वक
प्रदान की गई मनुष्य की एक बलि से देवी एक हजार वर्ष तक तथा तीन मनुष्यों की बलि
से लाखवर्ष तक तृप्ति पाती हैं ।। १८ ।।
नारेणेवाथ
मांसेन त्रिसहस्रं च वत्सरान् ।
तृप्तिमाप्नोति
कामाख्या भैरवी मम रूपधृक् ।।१९।
मेरे रूप
द्वारा धारण की हुई, कामाख्या भैरवी, नर-मांस से तीन हजार वर्षों तक तृप्ति का अनुभव करती हैं ॥
१९ ॥
मन्त्रपूतं
शोणितं तु पीयूषं जायते सदा ।
मस्तकं चापि
तस्यात्ति मांसं चापि तथा शिवा ।। २० ।।
मन्त्रपाठ से
पवित्र किया हुआ उसका रक्त, सदा अमृत हो जाता है। शिवा उसके मस्तक एवं मांस को भी खा
जाती है ।।२०।।
तस्मात् तु
पूजने दद्याद् बलेः शीर्षं च लोहितम् ।
भोज्ये होमे च
मांसानि नियुञ्जीयाद् विचक्षणः ।। २१ ।।
अतः
बुद्धिमान् साधक द्वारा पूजन में बलिपशु के रक्त और मस्तक दोनों अर्पित करना
चाहिये तथा भोजन एवं हवन में मांस का उपयोग किया जाना चाहिये ॥ २१ ॥
पूजासु
नाममांसानि दद्याद् वै साधकः क्वचित् ।
ऋते तु लोहितं
शीर्षममृतं तत्तु जायते ।। २२ ।।
पूजा में साधक
को रक्त एवं शिर के अतिरिक्त कभी भी कच्चा मांस नहीं चढ़ाना चाहिये क्योंकि शिर और
रक्त तो स्वयं ही अमृतः तुल्य होता है ॥२२॥
कूष्माण्डमिक्षुदण्डं
च मद्यमासवमेव च ।
एते बलिसमाः
प्रोक्तास्तृप्तौ छागसमाः सदा ।। २३ ।।
कूष्माण्ड
(भतुआ),
इक्षुदण्ड, मद्य, आसव, ये सब बलि के समान कहे गये हैं तथा तृप्ति की दृष्टि से छाग
के समान सदैव तृप्तिदायक हैं ।। २३ ।।
चन्द्रहासेन कत्र्
र्या वा छेदनं मुख्यमिष्यते ।
दात्रासिधेनुक्रकचशङ्कुलाभिस्तु
मध्यमम् ।।२४।।
क्षुरक्षुरप्रभल्लैश्च
वाधमं परिकीर्तितम् ।
एभ्योऽन्यैः
शक्तिबाणाद्यैर्बलिश्छेद्यः कदापि न ।
नात्ति देवी
बलिं तत्तु दाता मृत्युमवाप्नुयात् ।। २५ ।।
चन्द्रहास,
चाकू से बलि का छेदन (काटना) मुख्य (उत्तम) कहा गया है ।
दात्र (दाव), असिधेनु (चाकू विशेष), क्रकच (आरा), शङ्कुला (दुधारी तलवार) से छेदन करना मध्यम तथा क्षुर,
क्षुरप्र और भाले से किया गया अधम कहा गया है। इनसे
अतिरिक्त शक्ति, बाण आदि से कभी भी बलि पशु को नहीं काटना चाहिये। इस प्रकार से दी गई बलि का
देवी भक्षण नहीं करती और देने वाला साधक भी मृत्यु को प्राप्त करता है ।। २४-२५॥
हस्तेन
छेदयेद् यस्तु प्रोक्षितं साधकः पशुम् ।
पक्षिणं वा
ब्रह्मवध्यामवाप्नोति सुदुःसहाम् ।।२६।।
जो साधक
प्रोक्षण किये हुए बलिपशु या पक्षी को हाथ से काटता है,
वह ब्रह्मवधजन्य दुःसह पाप का भागी होता है ॥ २६ ॥
नामन्त्र्य
खण्डं तु बलिं नियुञ्जीत विचक्षणः ।। २७ ।।
बुद्धिमान्
साधक को बिना आमन्त्रण किये खड्ग का बलि में उपयोग नहीं करना चाहिये ॥ २७ ॥
खड्गस्यामन्त्रणे
मन्त्रा यावन्तः कथिताः पुरा ।
महामायाबलौ ते
वै योज्यास्तत्रोदिता बुधैः ।। २८ ।।
जो मन्त्र
महामाया की बलि हेतु पहले बताये गये हैं, विद्वानों द्वारा खड्ग के आमन्त्रण हेतु उनका ही प्रयोग
किया जाना चाहिये ॥ २८ ॥
तैः सार्धमेते
मन्त्रास्तु योज्याः खड्गादिमन्त्रणे ।
पूजने
शारदादीनां कामाख्यायाः विशेषतः ।। २९ ।।
उनके साथ
शारदा और कामाख्या के पूजन में खड्ग आदि के अभिमन्त्रित करने में इन मन्त्रों को
भी जोड़ लेना चाहिये ॥ २९ ॥
द्विः कालीति
ततो देव्या वज्रेश्वरिपदं ततः ।
ततोऽनु
लौहदण्डायै नमः शेषे तु योजयेत् ॥३०॥
दो बार काली
(काली-काली) कहकर वज्रेश्वरि शब्द तत्पश्चात् लौहदण्डायै और अन्त में नमः शब्द
जोड़ने से, काली-काली वज्रेश्वरि लौहदण्डायै नमः बनता है, जिसका अर्थ होता है काली वज्रेश्वरी लौहदण्डा को नमस्कार है
॥३०॥
सम्पूज्यान मन्त्रेण
खड्गमादाय पाणिना ।
कालरात्र्यास्तु
मन्त्रेण तं खड्गमभिमन्त्रयेत् ।। ३१ ।।
इस मन्त्र से
पूजन कर खड्ग को हाथ में लेकर कालरात्रि के मन्त्र से खड्ग को अभिमन्त्रित करे
॥३१॥
नेत्रबीजस्य मध्यं
तु द्विरावर्त्य प्रयोजयेत् ।
ततोऽनु
कालिकालीति करालोष्ठी ततः परम् ।
हान्तादींश्च तृतीयेन
स्वरेणैकादशेन वै ।।३२।।
योजिता
नादबिन्दुभ्यां द्वौ तत् पश्चान्नियोजयेत् ।। ३३ ।।
नेत्रबीज के
मध्यबीज की दो आवृत्ति करके काली काली करालोष्ठी कहकर ह जिसके अन्त में है उस
शवर्ण को तृतीय या एकादश स्वर एवं हान्तादि को चन्द्रबिन्दु सहित पहले दो बार
जोड़े ॥३२-३३॥
फेत्कारिणिपदं
तस्मात् खादयच्छेदयेत्यतः ।
सर्वान्
दुष्टानिति ततो द्विर्मारय लुलायकम् ।। ३४।।
खड्गेन छिन्धि
छिन्धीति ततः किलकिलेति वै ।
ततः
चिकिचिकीत्येवं ततः पिबपिबेति च ।। ३५ ।।
ततोऽनु रुधिरं
चेति स्फ्रैं स्फ्रैंकिरि किरीति च ।
कालिकायै नम
इति कालरात्र्यास्तु मन्त्रकम् ।। ३६ ।।
तब फेत्कारिणि
शब्द उसमें खादय, तत्पश्चात् छेदय और सर्वान् दुष्टान् पुनः दो बार मारय कह कर,
लुलायकम् खड्गेन् छिन्धि छिन्धि तदनन्तर किल किल तब चिकिचिकि
पिब पिब रुधिरं च स्फ्रैं स्फ्रैं किरकिरी कालिकायै नमः यह ह्रीं ह्रीं श्रीं
श्रीं श्रीं श्रीं श्रीं काली काली करालोष्ठी फेत्कारिणि खादय छेदय सर्वान्
दुष्टान् मारय मारय लुलाय्कम् खड्गेन् छिन्धि छिन्धि किल किल चिकि चिकि पिब पिब
रुधिरं च स्फ्रैं स्फ्रैं किरि किरि कालिकायै नमः कालरात्रि का मन्त्र कहा गया
है ।। ३४-३६।।
इत्यनेन तु
मन्त्रेण करवालेऽभिमन्त्रिते ।
कालरात्री स्वयं
तत्र प्रसीदत्यरिहानये ।। ३७।।
इस उपर्युक्त मन्त्र
से करवाल को अभिमन्त्रित करने से स्वयं कालरात्रि, शत्रुनाश हेतु प्रसन्न होती हैं ।।३७।।
बले:
पूर्वोदिता मन्त्रा नित्यं गुह्यास्तु साधकैः ।
अयं
मन्त्रस्तु वक्तव्यस्तस्य हत्याविहानये ।। ३८ ।।
बलि-प्रकरण में पूर्व बताये मन्त्र,
साधकों द्वारा नित्य गुप्त रखे जाने चाहिये। उस बलिपशु के
हत्या के दोष की हानि के लिए यह मन्त्र कहे ॥ ३८ ॥
यज्ञार्थे
पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयम्भुवा ।
अतस्त्वां
घातयिष्यामि तस्माद् यज्ञे वधोऽवधः ।। ३९ ।।
मन्त्र - यज्ञार्थे........वधोऽवधः
मन्त्रार्थ-स्वयं स्वयंभुव ब्रह्मा ने यज्ञ के निमित्त,
पशुओं की सृष्टि की है इसीलिए मैं तुम्हें मारूंगा। यज्ञ
में किये गये इस वधकार्य से वध का दोष नहीं हो ।। ३९ ।।
ततो
दैवतमुद्दिश्य काममुद्दिश्य चात्मनः ।
छेदयेत् तेन
खड्गेन बलिं पूर्वाननं तु तम् ।। ४० ।।
तब देवता को
तथा अपनी कामना को ध्यान में रखकर उस अभिमन्त्रित षड्ग से पूर्व की ओर मुँह किये
हुए,
उस बलि-पशु को काट दे ॥ ४० ॥
अथवोत्तरवक्त्रं
स्वयं पूर्वमुखस्तथा ।
पूर्वोक्तान्
सैन्धवादींस्तु वक्त्रेऽवश्यं नियोजयेत् ।। ४१ ।।
अथवा स्वयं
पूर्व मुँह हो उत्तर मुँह बलिपशु का वध करे तब पहले (अन्यतन्त्रों में) बताये
सैन्धव (नमक) आदि का उसके मुँह में लेप अवश्य करे ॥ ४१ ॥
सौवर्णं राजतं
ताम्रं रैत्यं पत्रपुटं च वा ।
माहेयं
कांस्यमथवा यज्ञकाष्ठमयं च वा ।
पात्रं
रुधिरदानाय कर्त्तव्यं विभवावधि ।। ४२ ।।
रुधिरदान हेतु
साधक को सोने, चाँदी, ताँबा, रैत्य (रेत का), मिट्टी का, पत्ते के दोनें का, काँसे या यज्ञकाष्ठ का पात्र, सम्पत्ति के अनुसार बनाना चाहिये ॥४२॥
न लौहे वल्कले
वापि वैत्रे राङ्गेऽथ सैसके ।
दद्याद्रक्तं
बलीनां तु भूमौ स्रुचि स्रुवे तथा ।। ४३ ।।
लोहा,
वल्कल (वृक्ष की छाल), बेंत, राङ्गा या सीसा (काँच) के बने पात्रों,
स्रुचि, स्रुवा या भूमि पर बलि पशु का रक्त नहीं देना चाहिये ॥४३॥
न घटे भूतले
वापि देयं क्षुद्रे न भाजने ।
रुधिराणि
प्रदद्यात्तु भूतिकामो नरोत्तमः ।। ४४ ।।
जो उत्तम राजा
अपना ऐश्वर्य चाहता हो वह न घड़े में, न पृथ्वी पर और न किसी छोटे पात्र में ही रुधिर का समर्पण
करे ॥४४॥
नरस्य तु सदा
रक्तं माहेये तैजसेऽथवा ।
दद्यान्नरपतिस्तत्तु
न पत्रादौ कदाचन ।।४५ ।।
राजा को
मनुष्य के रक्त को सदैव मिट्टी या धातु के पात्र में देना चाहिये । पत्ते आदि के
दोने में नहीं ॥ ४५ ॥
हयमेधमृते
दद्यान्न कदाचिद्वयं बलिम् ।
तथा
दिक्पालमेघे तु गजं दद्यान्नराधिपः ।।४६।।
राजा को
अश्वमेघ के अतिरिक्त कभी भी घोड़े की बलि नहीं देनी चाहिये और दिक्पालनामक यज्ञ
में ही हाथी की बलि देनी चाहिये ॥४६ ॥
न कदाचित् तदा
देव्यै प्रदद्याद्वयहस्तिनौ ।
हयाकर्षे
चामरं तु बलिं दद्यान्नराधिपः ।। ४७ ।।
राजा ऊपर
बताये अवसर के अतिरिक्त कभी भी हाथी या घोड़े की बलि न दे। उसे घोड़े के बदले चामर
की बलि देनी चाहिये ॥४७॥
सिंहं
व्याघ्रं नरं चापि स्वगात्ररुधिरं तथा ।
न दद्यात्
ब्राह्मणो मद्यं महादेव्यै कदाचन ।।४८ ।।
ब्राह्मण साधक
को सिंह,
बाघ, मनुष्य या अपने शरीर के रक्त अथवा मद्य (मदिरा) से कभी भी
महादेवी के लिए बलि नहीं देनी चाहिये ॥ ४८ ॥
सिंहं
व्याघ्रन्नरं दत्वा ब्राह्मणो नरकं व्रजेत् ।
इहापि स्यात्
स हीनायुः सुखसौभाग्यवर्जितः ।। ४९ ।।
सिंह,
बाघ, मनुष्य की बलि देकर ब्राह्मण नरक को जाता है तथा इस लोक में
वह हीन आयुवाला और सुख-सौभाग्य से वर्जित होता है ।। ४९ ।।
स्वगात्ररुधिरं
दद्याच्चात्मवध्यामवाप्नुयात् ।
मद्यं दत्त्वा
ब्राह्मणस्तु ब्राह्मण्यादेव हीयते ।। ५० ।।
अपने शरीर से
निकला हुआ रक्त देकर वह आत्महत्या के पाप का भागी होता है । मदिरा-दान से तो
ब्राह्मण,
ब्रह्मणत्व से ही हीन हो जाता है ॥ ५० ॥
न कृष्णसारं
वितरेद् बलिं तु क्षत्रियादिकः ।
ददतः
कृष्णसारं तु ब्रह्महत्या भवेद् यतः ।। ५१ ।।
कृष्णसारमृग
के बलिदान से ब्रह्महत्या का पाप लगता है इसलिए क्षत्रिय आदि को कभी भी
कृष्णसारमृग की बलि नहीं देनी चाहिये ॥ ५१ ॥
यत्र सिंहस्य
व्याघ्रस्य नरस्य विहितो वधः ।
ब्रह्मणोक्ता
तु बल्यादौ तत्रायं विहितः क्रमः ।। ५२ ।।
जहाँ ब्राह्मण
आदि द्वारा सिंह, बाघ या मनुष्य के वध का विधान कहा गया हो वहाँ बलि के पूर्व
इस क्रम का आयोजन करना चाहिये ॥ ५२ ॥
कृत्वा घृतमयं
व्याघ्रं नरं सिंहं च भैरव ।। ५३ ।।
अथवा पूपविकृतं
यवक्षोदमयं च वा ।
घातयेच्चन्द्रहासेन
तेन मन्त्रेण संस्कृतम् ।।५४।।
हे भैरव ! घी,
पूआ या जौ के आटे की बाघ, सिंह और मनुष्य की मूर्ति बनाकर,
चन्द्रहास को मन्त्र से अभिमन्त्रित कर उससे उस मूर्ति का
वध करना चाहिये ।।५३-५४॥
प्रभूतबलिदाने
तु द्वौ वा त्रीन् वायतः कृतान् ।
पूजयेत्
प्रमुखान् कृत्वा सर्वान् मन्त्रेण साधकः ।। ५५ ।।
यदि बहुत अधिक
बलिदान करना हो तो साधक दो या तीन को आगे कर उन्हें प्रमुखता दे,
सभी का मन्त्र से पूजन करे ॥ ५५ ॥
सामान्यपूजा
कथिता बलीनां पूर्वतो मया ।
विशेषो यत्र
यत्रास्ति तन्मत्तः शृणु भैरव ।। ५६ ।।
हे भैरव ! बली
की सामान्यपूजा मैंने पहले ही कहा है। अब जहाँ-जहाँ जो विशेष पूजन करना है उसे
मुझसे सुनो ॥५६॥
महिषं
प्रददेद् देव्यै भैरव्यै भैरवाय वा ।
अनेनैव तु
मन्त्रेण तदा तं पूजयेद् बलिम् ।।५७।।
जब देवी,
भैरवी या भैरव हेतु महिष (भैंसे) की बलि देनी हो तो इस वाह-नमोस्तुते
मन्त्र से उस बलिपशु का पूजन करना चाहिये ॥५७॥
यथा वाहं
भवान् द्वेष्टि यथा वहसि चण्डिकाम् ।
तथा मम रिपून्
हिंस शुभं वह लुलायक ।।५८।।
यमस्य
वाहनस्त्वं तु वररूपधराव्यय ।
आयुर्वित्तं
यशो देहि कासराय नमोऽस्तु ते ।। ५९ ।।
मन्त्रार्थ - हे लुलायक, महिष - जिस प्रकार आप वाह (घोड़े) से द्वेष करते हैं और जिस
प्रकार आप चण्डिका को वहन करते हैं उसी प्रकार आप मेरे शत्रुओं का वध करें एवं
मेरे लिये शुभ को वहन करें। हे अव्यय ! हे श्रेष्ठ धारण करने वाले। आप यमराज के
वाहन हैं,
आप हमें यश, आयु और वित्तप्रदान करें। हे कासर ! आपको नमस्कार है
।।५८-५९।।
खड्गस्य तु
यदा दानं क्रियते तन्त्रमन्त्रकम् ।
जलेनाभ्युक्ष्य
कुर्वीत गुहाजातेति भाषयन् ।। ६० ।
खड्ग का जब
तन्त्र-मन्त्र पूर्वक दान करना हो तो गुहाजात कहते हुए सर्वप्रथम खड्ग का जल से
अभ्युक्षण करना चाहिये ॥ ६० ॥
दैवे पैत्रे च
शुभगः खड्गस्त्वं खड्गसन्निभः ।
छिन्धि
विघ्नान् महाभाग गुहाजात नमोऽस्तु ते ।। ६१ । ।
उस समय दैवे.....नमोस्तुते
मन्त्र पढ़े। मन्त्रार्थ - हे खड्ग आप देवतासम्बन्धी,
पितरोंसम्बन्धी कार्यों में खड्ग (गैण्डे) के समान शुभ को
प्रदान करने वाले हैं। हे महाभाग ! आप विघ्नों को काट डालिये। हे गुहाजात ! आपको
नमस्कार है ।६१॥
प्रदाने
कृष्णसारस्य मन्त्रोऽयं परिकीर्तितः ।
कृष्णसार
ब्रह्ममूर्ते ब्रह्मतेजोविवर्धन ।
चतुर्वेदमयं
प्राज्ञ प्रज्ञां देहि यशो महत् ।।६२।।
कृष्णसार मृग
की बलिप्रदान करने के लिए यह मन्त्र कृष्णसार- महत् कहा गया है। मन्त्रार्थ-
हे ब्रह्मरूप कृष्णसार ! हे ब्रह्मतेज बढ़ाने वाले ! हे चारों वेदों के स्वरूप,
हे बुद्धिमान् ! आप मुझे विशेषबुद्धि तथा महान्यश प्रदान
करें ।। ६२ ।।
तथा
शरभपूजायां मन्त्रमेतत् प्रकीर्तितम् ।। ६३ ।।
त्वमष्टपादो विभ्रष्टचन्द्रभागसमुद्भव
।
अष्टमूर्ते
महाबाहो भैरवाख्य नमोऽस्तु ते ।। ६४ ।।
यथा भैरवरूपेण
वराहो निहतस्त्वया ।
तथा शरभरूपेण
रिपून् विघ्नान् निषूदय ।। ६५ । ।
तथा शरभ पूजा
में यह मन्त्र बताया गया है— त्वमष्टपादो-निषूदय । हे आठ पैरों से युक्त, हे चन्द्रमा के टूटे अंश से उत्पन्न ! हे आठरूपोंवाले भैरव
नामक महाबाहु । आपको नमस्कार है। आपके द्वारा जिस प्रकार भैरवरूप से वाराह का वध
किया गया वैसे ही अपने शरभरूप से आप मेरे शत्रुओं एवं विघ्नों को नष्ट कीजिए ।
६३-६५॥
हरिस्त्वं
हररूपेण यथा वहसि चण्डिकाम् ।
तथा शुभानि मे
नित्यं बहुविघ्नांश्च सूदय ।। ६६ ।।
त्वं हरिः
सिंहरूपेण जगत्प्रत्यूहरूपिणम् ।
जघान येन
सत्येन हिरण्यकशिपुं हरन् ।
इत्येवं
सिंहपूजायां क्रम उक्तो मयानघ ।।६७।।
हे अनघ (निष्पाप) ! सिंहपूजा में मेरे द्वारा यह
क्रम (मन्त्रक्रम) हरिस्त्वं-हरन् कहा गया है। मन्त्रार्थ - हे हरि
! जिस प्रकार आप अपने शिवरूप में चण्डिका को वहन करते हैं उसी प्रकार मेरे लिए
नित्य शुभों को वहन करें। आपने विष्णु होते हुए भी जिस सिंह के रूप से संसार के
विघ्नस्वरूप हिरण्यकशिपु का हरण करते हुए अपने जिस सत्वबल से उसे मार डाला था। उसी
से मेरे बहुत से विघ्नों को आप नष्ट कीजिए।। ६६-६७।।
नरे
स्वगात्ररुधिरे पर्यायं शृणु भैरव ।।६८।।
पीठे चेद्
दीयते मर्त्यो बलि दद्यात् श्मशानके ।
श्मशानं
हेरुकाख्यं तु तत्पूर्वं प्रतिपादितम् ।। ६९ ।।
हे भैरव ! अब
मनुष्य या अपने शरीर के रक्त से बलि की विधि सुनो। यदि कामरूपपीठ में मनुष्य की
बलि देनी हो तो हेरुक नामक श्मशान में, जिसके विषय में पहले ही बताया गया है,
बलि करना चाहिये ।। ६८-६९ ।।
कामाख्यानिलये
शैले ओड्रादौ विद्धि तत् क्रमम् ।
मम रूपं
श्मशानं तद् भैरवाख्यं च कथ्यते ।।७० ।।
कामाख्या देवी
के निवासस्थान, पर्वत पर, ओड्रपीठ के आदि में उसकी स्थिति समझो। यह श्मशान मेरा ही स्वरूप है तथा भैरव
नाम से पुकारा जाता है ।। ७० ।।
तत्राङ्गत्वं
तपः सिद्धौ त्रिभागां तु भविष्यति ।
पूर्वाङ्ग भैरवाख्ये
तु समुत्सृष्टिर्नरस्य तु ।। ७१ ।।
दक्षिणाङ्गे
शिरो दद्याद् भैरव्या मुण्डमालया ।
रुधिरं
पश्चिमाङ्गे तु हेरुकाख्यै नियोजयेत् ।। ७२ ।।
दत्त्वा सम्पूज्य
तु नरं विसृज्यागमनक्रमे ।
पीठश्मशानेषु
बलिं नेत्रेत्तु बलिदीपकम् ।।७३।
वहाँ की गई
सिद्धि तीन भागों में बँट जाती हैं, भैरव नामक पूर्व बलिभाग में मनुष्य को डाल कर दक्षिणीभाग
में मुण्डमालाधारिणी भैरवी द्वारा शिर प्रदान करे । रुधिर को हेरुकाख्य के
पश्चिमीभाग में अर्पित करे। आगमन के क्रम में उस मनुष्य का पूजन कर पीठ में,
श्मशान में, बलि दे तथा नेत्र पर बलि- दीपक प्रज्ज्वलित करे।।७१-७३॥
अन्यत्रापि
यतो यत्र दीयते यन्महाबलिः ।
तत्राप्यन्यत्र
चोत्सृज्यच्छित्वान्यत्र शिरोऽमृतम् ।
नियोजयेत्
साधकस्तु विसृज्य न विलोकयेत् ।। ७४ ।।
अन्य स्थानों
में भी जहाँ-जहाँ जो महाबलि दी जाती है वहाँ (अन्य स्थान पर) बलि का छेदन कर,
साधक को अमृतरूप शिर को अन्यत्र रखना चाहिये। साधक एक बार
बलि विसर्जित कर पुनः उसे न देखे ॥ ७४ ॥
सुस्नातं
मनुजं दीप्तं पूर्वाह्णनियताशनम् ।
मांसमैथुनभोग्येन
हीनं स्रक्चन्दनोक्षितम् ॥ ७५ ॥
कृत्वोत्तरामुखं
तं तु तदङ्गेष्वङ्गदेवताः ।
पूजयेत् तं तु
नाम्ना तु दैवतेन च मानुषम् ।।७६ ।।
साधक भलीभाँति
स्नान किये हुए, मनुष्य को, जो दीप्त हो, जो पूर्वाह्न में नियत भोजन कर लिया हो,
मांस-मैथुन के भोग्य से हीन हो और चन्दन तथा माला धारण किये
हो,
उसे उत्तर मुँह खड़ा करके, अङ्ग देवताओं के नामोल्लेख पूर्वक, उस मनुष्य के अङ्गों में पूजन करे ।। ७५-७६ ।।
तद्ब्रह्मरन्ध्रे
ब्रह्माणं तन्नासायां च मेदिनीम् ।। ७७ ।।
कर्णयोस्तु
तथाकाशं जिह्वायां सर्वतोमुखम् ।
ज्योतींषि
नेत्रयोर्विष्णुं वदने परिपूजयेत् ।।७८ ।।
उसके
ब्रह्मरन्ध्र में ब्रह्मा, नासिका में पृथ्वी, कानों में आकाश, जिह्वा में सर्वतोमुख शिव, नेत्रों में नक्षत्रों का, मुख में विष्णु का सब प्रकार से पूजन करे ।। ७७-७८ ।।
ललाटे
पूजयेच्चन्द्रं शक्रं दक्षिणगण्डतः ।
वामगण्डे तथा
वह्निं ग्रीवायां समवर्तिनम् ।। ७९ ।।
केशाग्रे
निर्ऋति मध्ये ध्रुवोपि प्रचेतसम् ।
नासामूले तु
श्वसनं स्कन्धे चापि धनेश्वरम् ।
हृदये
सर्पराजं तु पूजयित्वा पठेदिदम् ।।८०।।
ललाट में
चन्द्रमा,
दक्षिण गण्डस्थल में इन्द्र, वाम गण्डस्थल में अग्नि, गले में समवर्तिन (यम), केश के अगले भाग में निर्ऋति तथा भौहों के मध्य में प्रचेतस
(वरुण), नासामूल में वायु, स्कन्ध में धनेश्वर (कुबेर), हृदय में सर्पराज (वासुकी) का पूजन कर,
इन (निम्नलिखित) नरवर्य सति मन्त्रों को पढ़े ।।
७९-८० ॥
नरवर्य्य महाभाग
सर्वदेवमयोत्तम ।
रक्ष मां
शरणापन्नं सपुत्रपशुबान्धवम् ।। ८१ ।।
सराज्यं मां
सहामात्यं चतुरङ्गसमन्वितम् ।
महातपोभिर्ज्ञानैश्च
यज्ञैर्यत् साध्यतेऽमृतम् ।
रक्ष
परित्यज्य प्राणान्मरणे नियते सति ।।८२।।
राक्षसाश्च
पिशाचाश्च वेतालाद्याः सरीसृपाः ।
तन्मे देहि
महाभाग त्वं चापि प्राप्नुहि श्रियम् ।। ८३ ।।
त्वत्कण्ठनालगलितैः
शोणितैरङ्गसंयुतैः ।
नृपाश्च
रिपवश्चान्ये न मां ते घ्नन्तु त्वत्कृते ।। ८४ ।।
आप्यायस्वात्मवन्मृत्वा
मरणे नियते सति ।। ८५ ।।
मन्त्रार्थ - हे मनुष्यों में श्रेष्ठ ! हे महाभाग ! हे सभी देवों के
स्वरूप होने से उत्तम, मुझ शरण में आये हुए की पशु-पुत्र और बान्धर्वो के सहित आप
रक्षा करें। मृत्यु सुनिश्चित है इसलिए अपने प्राणों का त्यागकर राज्य,
अमात्य एवं चतुरङ्ग सहित मेरी रक्षा करें। महान् तपस्या,
ज्ञान और यज्ञ के द्वारा जो अमरता प्राप्त होती है,
हे महाभाग वह आप मुझे प्रदान करें तथा आप स्वयं शोभा को
प्राप्त करें। आपके लिए राक्षस, पिशाच, वेताल, सरीसृपवर्ग, राजा या अन्य शत्रुगण मुझे न मारें । मृत्यु तो नियत है,
अतः स्वयं मरकर अपने कण्ठ के नाल से बहे हुए रक्त तथा अङ्ग से
आप हमारी वृद्धि करें ।। ८१-८५ ॥
एवं सम्पूज्य
विधिवत् पूर्वतन्त्रैश्च पूजयेत् ।
पूजितो
मत्स्वरूपोऽयं दिक्पालाधिष्ठितो भवेत् ।। ८६ ।।
अधिष्ठितस्तथान्यैश्च
ब्रह्माद्यैः सकलैः सुरैः ।
कृतपापोऽपि
मनुजो निष्पाप्मा स तु जायते ।। ८७ ।।
इस प्रकार
विधिपूर्वक पूजन कर पूर्वतन्त्रों में वर्णित विधि से भी पूजन करे। उक्तरीति से
पूजे जाने पर यह (पशुरुपीनर) मेरा (शिव का ) स्वरूप हो,
दिक्पाल पद पर अधिष्ठित होता है तथा वह ब्रह्मादि अन्य
समस्त देवताओं द्वारा अधिष्ठित होता है । इससे वह मनुष्य पापी होते हुए भी निष्पाप
हो जाता है ।।८६-८७।।
तस्य
निष्कलुषस्याशु पीयूषं शोणितं भवेत् ।
प्रीणाति च
महादेवी जगन्माता जगन्मयी ।। ८८ ।।
उस निष्कलुष
का रक्त,
शीघ्र ही अमृत हो जाता है तथा महादेवी जो जगत् की माता,
जगत्स्वरूपा हैं, उनको प्रसन्न करता है ।। ८८ ।।
सोऽपि कायं
परित्यज्य मानुषं नचिरान्मृतः ।
भवेद्
गणानामधिपो मयापि बहुसत्कृतः ।। ८९ ।।
वह
(बलिपशुरुपीमनुष्य) भी मरकर शीघ्र ही मनुष्य शरीर को छोड़कर गणों का स्वामी हो
जाता है मेरे द्वारा बहुत सम्मानित होता है ।। ८९ ॥
इतोऽन्यथा
पापयुक्तं मलमूत्रवसायुतम् ।
तं बलिं न हि
गृह्णाति कामाख्यान्यापि नामतः ।। ९० ।।
इससे अतिरिक्त
स्थिति में पापयुक्त, वसा - मल मूत्रादि से युक्त, उस बलि को कामाख्या या अन्य देवियाँ नाम मात्र को भी ग्रहण
नही करतीं ।। ९० ।।
अन्येषां
महिषादीनां बलीनामथ पूजनात् ।
कायो
मेध्यत्वमायाति रक्तं गृह्णाति वै शिवा ।। ९१ ।।
अन्य महिष
(भैंसा) आदि बलियों के पूजन से उनका शरीर, पवित्रता को प्राप्त करता है तथा उसके रक्त को शिवा ग्रहण
कर लेती हैं ।। ९१ ॥
अन्येभ्योऽपि
च देवेभ्यो यदा यत्तु प्रदीयते ।
तदर्चितं
प्रदद्यात् तु पूजिताय सुराय वै ।। ९२ ।।
अन्य देवताओं
को भी जब जो दिया जाता है वह उसी पूजे गये देवता को दिया जाना चाहिये ॥ ९२ ॥
काणं पङ्गुं
चातिवृद्धं रोगिणं च गलद्व्रणम् ।
क्लीबं
हीनाङ्गमथवा वृद्धलिङ्ग कुलक्षणम् ।। ९३ ।।
श्वित्रिणं
चातिह्रस्वं च महापातकिनं तथा ।
अद्वादशकवर्षीयं
शिशुसूतकसंयुतम् ।।९४।।
ऊर्ध्वं
संवत्सराच्चापि महागुरुनिपातिनम् ।
बलिकर्मणि
चैतांस्तु वर्जयेत् पूजितानपि ।। ९५ ।।
काने,
लूले, अत्यन्तवृद्ध, रोगी, रक्त बहते घावोंवाले, नपुंसक, हीन अंग या वृद्ध लिङ्गवाले, बुरे लक्षणोंवाले, सफेद दागवाले, बहुत छोटे, महापापी, बारह वर्ष से कम, सूतकयुक्त बच्चे, एक वर्ष से ऊपर के शिशु, महागुरु का वध करने वाले, पूजे गये पशुपक्षी, विशेष कर मनुष्यों का बलिकर्म में निषेध करना चाहिये ।।
९३-९५ ।।
पशूनां
पक्षिणां वापि नराणां च विशेषतः ।
स्त्रियं न
दद्यात् तु बलीन् दत्त्वा नरकमाप्नुयात् ।। ९६ ।।
सङ्घातबलिदानेषु
योषितं पशुपक्षिणः ।
बलिं
दद्यान्मानुषीं तु त्यक्त्वा सङ्घातपूजितम् ।। ९७ ।।
स्त्रियों की
बलि न दे। स्त्रीबलि देने से साधक नरक को प्राप्त करता है। यदि सामूहिक बलिदान हो
तो मनुष्य की स्त्रियों को छोड़कर पशु पक्षियों की सामूहिकरूप से पूजी गयी
स्त्रियों की बलि दे ।। ९६-९७ ।।
न
त्रिमासीयकान्यूनं पशुं दद्याच्छिवाबलिम् ।
न च
त्रैपक्षिकान्यूनं प्रदद्याद् वै पतत्रिणाम् ।। ९८ ।।
न तीन मास से
कम अवस्था के पशु की बलि दे और न तो तीन- पक्ष (डेढ़ मास) से कम अवस्था के पक्षी
की ही शिवा को बलि दे ।। ९८ ।।
काणव्यङ्गादिदुष्टं
तु न पशुं पक्षिणं तथा ।
देव्यै
दद्यात् यथा मर्त्यं तथैव पशुपक्षिणौ ।। ९९ ।।
छिन्नलाङ्गूलकर्णादीन्
भग्नदन्तास्तथैव च ।
भग्नशृङ्गादिकं
वापि न दद्यात् तु कदाचन ।। १०० ।।
न ब्राह्मणं
बलिं दद्याच्चाण्डालमपि पार्थिव ।
नोत्सृष्टं
द्विजदेवेभ्यो भूपतेस्तनयं तथा ।। १०१ ।
हे राजन!
दूषित अङ्गोवाले की, काने, अङ्गहीन मनुष्य की ही भाँति पशु-पक्षी की भी देवी के लिए
बलि न दे और न कभी पूँछ, कान आदि कटे एवं दाँत टूटे हुए,
सींग आदि टूटे प्राणियों, न ब्राह्मण या चाण्डाल की ही बलि दे एवं न तो देवता और
ब्राह्मण के निमित्त छोड़े गये जीव या राजकुमार की ही बलि दे ।। ९९-१०१ ।।
रणेन विजितं दद्यात्तनयं
रिपुभूभृतः ।
स्वपुत्रं
भ्रातरं वापि पितरं चाविरोधिनम् ।। १०२ ।।
विट्पतिं च न
दद्यात्तु भागिनेयं च मातुलम् ।
अनुक्तान्नापि
दद्यात् तु तथाज्ञातान् मृगद्विजान् ।। १०३ ।।
युद्ध में
जीते हुये शत्रु या शत्रु-राजा के पुत्र की बलि दी जा सकती है किन्तु अपने पुत्र,
भाई, पिता, अविरोधी (मित्र), विट्पति (भडुआ), भगिना या मामा की और अन्य भी न बताये स्वजनों तथा पशुओं व
अज्ञात द्विजातियों (पक्षियों) की बलि नहीं करनी चाहिये ॥ १०२ - १०३।।
उक्तालाभे प्रदद्यात्तु
गर्दभं चोष्ट्रमेव च ।
लाभेऽन्येषां
न वितरेद् व्याघ्रमुष्टुं खरं तथा ।। १०४ ।।
साधक
उपर्युक्त (बलि हेतु निर्धारित पशुओं) के न मिलने पर गदहा एवं ऊँट की भी बलि दे
किन्तु अन्य पशुओं के सुलभ होने पर बाघ, ऊँट और गदहे की बलि न दे ।। १०४ ।।
सम्पूज्य
विधिवन्मर्त्य पशुं पक्षिणमेव वा ।
सञ्छिन्नं
चापि मन्त्रेण मन्त्रेणैव निवेदयेत् ।। १०५ ।।
नारं
मर्त्यशिरोरक्तं देव्याः सम्यग् निवेदयेत् ।। १०६ ।।
बलि हेतु
उपस्थित मनुष्य, पशु या पक्षी की पहले विधिवत् पूजा करे तब मन्त्रोचारण पूर्वक काटे तथा उन्हें
मन्त्रोच्चारण करते हुए देवी को निवेदित करे । इसमें मनुष्य के सिर का रक्त देवी
को भली-भाँति अर्पित करे ॥१०५-१०६॥
छागं तु वामतो
दद्यान्माहिषं वितरेत् पुरः ।
पक्षिणं वामतो
दद्यादग्रतो देहशोणितम् ।। १०७ ।।
छाग की बाई ओर,
भैंसे की सामने, पक्षियों की बाएँ तथा अपने शरीर से उत्पन्न रक्त की बलि
देवी को सामने से प्रदान करे ॥ १०७॥
क्रव्यादानां
पशूनां तु पक्षिणां तु शिरोऽसृजम् ।
वामे
निवेदयेत् पार्श्वे जलजानां च सर्वशः ।। १०८ ।।
मांसाहारी
पशुओं और पक्षियों के रक्तहीन सिर देवी के बाईं ओर तथा सभी जल से उत्पन्न जीवों के
शिर को पार्श्व में निवेदित करे ॥ १०८ ॥
कृष्णसारस्य
कूर्मस्य खड्गस्य शशकस्य च ।
ग्राहाणामथ मत्स्यानामग्रे
एव निवेदयेत् ।। १०९ ।।
कृष्णसार मृग,
कछुआ, गैंडा, खरगोश, ग्राह और मछलियों के देवी के अगले भाग में ही समर्पित करे ॥
१०९ ॥
सिंहस्य
दक्षिणे दद्यात् खड्गिनोऽपि च दक्षिणे ।
पृष्ठदेशे न
दद्यात् तु शिरो वा रुधिरं बलेः ।। ११० ।।
सिंह और गैंडे
की दक्षिणीभाग में बलि दे। बलिपशु के शिर या रक्त की बलि,
कभी भी पीछे की ओर न दे ।। ११० ।।
नैवेद्यं
दक्षिणे वामे पुरतो न तु पृष्ठतः ।
दीपं दक्षिणतो
दद्यात् पुरतो वा न वामतः ।। १११ । ।
नैवेद्य देवता
के दाहिने, बायें या सामने चढ़ाना चाहिये न कि पीछे की ओर, दीप, दाहिने या सामने देना चाहिये, बाईं ओर नहीं ।। १११ ।।
वामतस्तु तथा
धूपमग्रे वा न तु दक्षिणे ।
निवेदयेत्
पुरोभागे गन्धं पुष्पं च भूषणम् ।। ११२ ।।
धूप बाईं या
आगे की ओर देना चाहिये दहिनी ओर नहीं, इसी प्रकार चन्दन, पुष्प और आभूषण सामने की ओर से निवेदित करे ।। ११२ ।।
मण्डले
चेन्मध्यभागे वामदक्षादिपूर्ववत् ।
मदिरां
पृष्ठतो दद्यादन्यत् पानं तु वामतः ।। ११३ ।।
मण्डल में
पूजन करना हो तो पहले की ही भाँति मध्यभाग में बायें या दक्षिण की ओर निवेदित करना
चाहिये । यदि मदिरा अर्पित करनी हो तो पिछले भाग में तथा अन्य पेयपदार्थ वामभाग
में अर्पित करे ॥ ११३ ॥
अवश्यं विहितं
यत्र मद्यं तत्र द्विजः पुनः ।
नारिकेलजलं
कांस्ये ताम्रे वा विसृजेन्मधु ।। ११४ ।।
जहाँ मद्य का
प्रयोग आवश्यकरूप से विहित हो वहाँ ब्राह्मण, काँसे के पात्र में नारीयल का पानी या ताँबे के पात्र में
मधु चढ़ावे ॥ ११४ ॥
नापद्यपि
द्विजो मद्यं कदाचिद् विसृजेदपि ।
ऋते
पुष्पासवादुक्ताद् गुञ्जनाद् वा विशेषतः ।। ११५ । ।
आपत्तिकाल में
भी ब्राह्मण को कभी भी पुष्पों के रस या विशेषकर मधु के अतिरिक्त मदिरा का समर्पण
नहीं करना चाहिये ।। ११५ ।।
राजपुत्रस्तथामात्यः
सचिवः सौप्तिकादयः ।
दद्युर्नरबलिं
भूप सम्पत्त्या विभवाय च ।। ११६ ।।
हे राजा! राजा,
राजकुमार, अमात्य, सचिव, सौप्तिक आदि सम्पत्ति और वैभव के लिए नरबलि प्रदान करें ।।
११६ ॥
नृपाननुमते मर्त्यं
दत्त्वा पापमवाप्नुयात् ।
उपप्लवे रणे
वापि यथेच्छं वितरेन्नरम् ।
यः
कश्चिद्राजपुरुषो नान्यस्त्वपि कदाचन ।। ११७ ।।
राजा की आज्ञा
के बिना मनुष्य की बलि देने वाला साधक, पाप को प्राप्त करता है किन्तु मनुष्य विप्लव या युद्ध के
समय इच्छानुसार कार्य करे। यदि वह कोई राज-पुरुष हो तो ऐसा करे,
अन्य कभी न करे।। ११७ ॥
बलिदानदिनात्
पूर्वं दिवसे तु बलिं नरम् ।
मानस्तोकेति
मन्त्रेण देवीसूक्तेन येन च ।। ११८।।
गन्धद्वारेत्यनेनापि
खड्गशीर्षे निधाय च ।
तस्मिन् खड्गे
सुगन्धादि दत्त्वा तेनाधिवासयेत् ।। ११९ ।।
गन्धादिकं तु
खड्गस्थं गले तस्य प्रदापयेत् ।
अम्बेऽम्बिकेति
मन्त्रेण रौद्रेण भैरवस्य च ।। १२० ।।
बलिदानकर्म
में बलिदान के पहले दिन, बलिरूप मनुष्य को मानस्तोके -मन्त्र एवं देवीसूक्त
से खड्ग को सिर पर रखकर उस खड्ग पर गन्धद्वारा मन्त्र से सुन्दर गन्ध आदि देकर
अधिवास करे । गन्धादिक को उसके गले पर स्थित, खड्ग पर अम्बे - अम्बिके मन्त्र या रौद्रमन्त्र या
भैरव के मन्त्र से चढ़ाये ।। ११८-१२० ॥
एवं तु
संस्कृते मर्त्यं देवी रक्षति तं बलिम् ।। १२१ ।।
न तस्य
व्याधयश्चापि क्षुण्णताराजसी न च ।
न सूतकं दूषयेत्तज्ज्ञात्युत्पत्तिमृतादिकम्
।। १२२ ।।
इस प्रकार से
संस्कारित उस मनुष्यरुपी बलि की देवी रक्षा करती हैं। उसे किसी प्रकार की छोटी या
बड़ी व्याधियाँ नहीं होती और न तो उसे जाति, उत्पत्ति मृत्यु आदि सम्बन्धी कोई छूत ही लगती है
।।१२१-१२२।।
छिन्नं नरस्य
शीर्षं तु पतितं यत्र यत्र च ।
यच्छुभं
चाशुभं वापि पश्वादीनां च तच्छृणु ।। १२३ ।।
बलिप्रक्रिया
में मनुष्य या पशु आदि का कटा हुआ सिर जहाँ-जहाँ गिरता है,
उसका जो भी शुभ या अशुभ फल होता हैं,
उसे सुनो ।। १२३ ।।
छिन्नं
शिरस्तथैशान्यां नारं दिश्यथ राक्षसे ।
पतितं
राज्यहानिं च विनाशं च विनिर्दिशेत् ।। १२४।।
मनुष्य का कटा
हुआ सिर ईशान कोण में गिरने पर राज्यहानि और राक्षस- दिशा (नैर्ऋत्यकोण) में गिरने
पर विनाश की सूचना देता है ॥१२४ ॥
पूर्वाग्नियाम्यवारुण्य
- वायव्यादिगतं क्रमात् ।
श्रियं
पुष्टिं भय लाभं पुत्रलाभं धनं तथा ।
क्रमाद्
विनिर्दिशेन्नारं छिन्नशीर्षं तु भैरव ।। १२५ ।।
हे भैरव !
मनुष्य का कटा हुआ सिर, पूर्व, अग्निकोण, दक्षिण, पश्चिम, वायव्य आदि दिशाओं में गिरने पर क्रमशः श्री,
पुष्टि, भयलाभ, पुत्रलाभ, धनप्राप्ति आदि सूचित करता है ।। १२५ ।।
उत्तरादिक्रमादेव
महिषस्यापि मस्तकः ।
पतितो
वायुकाष्ठान्ते सूचयेद् यच्छृणुष्व तत् ।। १२६ ।।
भाग्यहानिन्तथैश्वर्यं
वित्तं रिपुजयं भयम् ।
राज्यलाभं
श्रियं चापि क्रमाद् विद्धि तु भैरव ।। १२७ ।।
हे भैरव !
भैंसे का भी मस्तक, उत्तरदिशा से प्रारम्भ कर वायव्यकोण पर्यन्त गिरने पर जो
सूचित करता है, उसे सुनो। उसे क्रमशः भाग्य, हानि, ऐश्वर्य, धन, शत्रु पर विजय, भय, राज्यलाभ और श्रीप्राप्ति का सूचक जानो ।। १२६-१२७।
पशूनां चैव
सर्वेषां छागादीनामशेषतः ।
एवं फलं
क्रमाद् विद्यादृते जलभवाण्डौ ।। १२८ ।।
जल में
उत्पन्न और अण्डे से उत्पन्न प्राणियों के अतिरिक्त छाग (बकरा) आदि समस्त पशुओं का
भी फल इसी क्रम से जानना चाहिये ॥ १२८ ॥
जलजानां
पक्षिणां तु याम्यनैर्ऋत्ययोर्भयम् ।
अन्यत्र तु
श्रियं दद्यात् पतितं शातितं शिरः ।। १२९ ।।
जल से उत्पन्न
जीवों तथा पक्षियों का गिरा हुआ या कटकर गिरा हुआ सिर,
दक्षिण और नैर्ऋत्य दिशाओं में भय तथा अन्यत्र श्री प्रदान
करता हैं ।। १२९ ॥
यः स्यात्
कटकटाशब्दो दन्तानां छिन्नमस्तके ।
नराणां
पशुपक्ष्यादिग्राहादीनां च रोगदः ।। १३० ।।
मनुष्यों,
पशु, पक्षी, ग्राह आदि के मस्तक के कटने पर यदि उनके दाँतों के कट-कटाने
का शब्द होवे तो यह रोग देने वाला होता है ॥ १३० ॥
लोकतं
चक्षुषोर्जातं यदि स्त्रवति मस्तके ।
छिन्ने नरस्य
राज्यस्य तदा हानिं विनिर्दिशेत् ।। १३१ । ।
यदि मनुष्य के
मस्तक के कटने पर, उसके आँखों से लोतक (आँसू) बहे तो यह राज्य की हानि सूचित
करता है ।। १३१ ॥
महिषे मस्तके
नेत्राद् यदि स्रवति लोतकम् ।
छिन्ने
निवेदितं वैरिभूपमृत्युं तदादिशेत् ।। १३२ ।।
भैंसे का
मस्तक कटने पर यदि उसके नेत्र से आँसू बहे तो उसे निवेदित करने से बैरिराजा की
मृत्यु सूचित होती है ।। १३२ ।।
अन्येषामथ
पश्वादिबलीनां शिरसोऽर्दितात् ।
निर्गतं लोतकं
धत्ते परां भीतिं गदं तथा ।। १३३ ।
अन्य बलिपशुओं
के कटे हुए सिर से निकलने वाला आँसू, अत्यन्तभय और रोग प्रदान करता है ।। १३३ ॥
हसतिच्छिन्नशीर्षं
चेन्नारं स्यात् तु रिपुक्षयः ।
श्रीवृद्धिरायुषो
वृद्धिः सदा दातुरसंशयः ।। १३४।।
यदि मनुष्य का
कटा हुआ सिर हँसता है तो निसन्देह दाता के शत्रु का नाश,
दाता की श्रीवृद्धि और आयुष्यवृद्धि होती है ।। १३४।।
यद् यद्वाक्यं
निगदति तथा भवति चाचिरात् ।
हूङ्काराद्राज्यहानिः
स्याच्छ्लेष्मस्रावाच्च पञ्चता ।। १३५ ।।
वह उस समय
जो-जो वाक्य बोलता है, वह शीघ्र ही हो जाता है । वह यदि हुङ्कार करे तो राज्य हानि
तथा मुँह से लार चुवाये तो साधक की पञ्चता (मृत्यु) होती है ॥ १३५ ॥
देवानां यदि
नामानि भाषते छिन्नमस्तकः ।
विभूतिमतुलां
विद्यात् षण्मासाभ्यन्तरे तदा ।। १३६ ।।
यदि कटा हुआ
सिर,
देवताओं के नाम का उच्चारण करे तो छः मास के अन्तर्गत ही
साधक को अतुलविभूति की प्राप्ति होती है ॥ १३६ ॥
रुधिरादानकाले
तु शकृन्मूत्रे यदि स्रवेत् ।
कार्यं
तदाधश्चोर्ध्वं वा दातुः स्यान्मरणं तदा ।। १३७ ।।
रक्त-ग्रहण के
समय यदि बलिपशु को मल-मूत्र हो जाय या वह ऊपर नीचे करे तो दाता का उस समय मरण होता
है ।। १३७।।
आक्षेपाद्
वामपादस्य महारोगः प्रजायते ।
अन्यदाक्षेपचलनैः
कल्याणमुपजायते ।। १३८ ।।
उसके द्वारा
बायाँ पैर पटके जाने से महारोग उत्पन्न होता है अन्य (दाहिने) पैर के पटकने से
कल्याण उत्पन्न होता है ॥ १३८ ॥
माहिषस्य तु
रक्तस्य मानुषस्य तु साधकः ।
अङ्गुष्ठानामिकाभ्यां
तु किञ्चिदुद्धृत्य भूतले ।। १३९ ।।
महाकौशिकमन्त्रेण
निक्षिपेद् बलिमुत्तमम् ।
देवेभ्यः
पूतनादिभ्यो नैर्ऋत्यां दिशि पूर्वतः ।। १४० ।।
साधक भैसें या
मनुष्य के रक्त के कुछ अंश को अपनी-अनामिका और अँगूठे से (तत्व मुद्रा में) थोड़ा
धरती पर छिड़क दे । तत्पश्चात् महाकौशिकमन्त्र से देवताओं और पूतना आदि के निमित्त
पूर्व से नैऋत्यकोण पर्यन्त उत्तमबलि प्रदान करे ।। १३९-१४० ।।
महिषः पञ्चवर्षीयः
पञ्चविंशतिवार्षिकः ।
बलिर्देयो नरो
देव्यै तस्य रक्तं तु भूतये ।। १४१ ।।
ऐश्वर्यप्राप्ति
हेतु साधक को देवी के लिए पाँच वर्ष के भैंसे या पच्चीस वर्ष के मनुष्य की बलि
देनी चाहिये तथा उसका रक्त भी प्रदान करना चाहिये ॥ १४१ ॥
नेत्रबीजत्रयं
कामबीजं हन्ता प्रजापतिः ।
वह्निबीजं
षट्स्वराभ्यां संपृक्तश्च तथा परः ।। १४२ ।।
स एवैतास्तथैतावदादिवर्गान्तसंयुतः
।
षष्ठस्वरशिखाबिन्दुश्चन्द्रयुक्तस्तथापरः
।। १४३ ।।
द्विर्मासिकाबीजकान्तः
कौशिकीत्यभिमन्त्रणम् ।
एष बलिः
स्वाहेति मन्त्रोऽयं कौशिकी स्मृतः ।। १४४ ।।
नेत्रबीजत्रय,
काम बीज, हन्ता, प्रजापति, वह्नि बीज एवं षष्ट स्वर युक्त पर,
इसी प्रकार विसर्ग युक्त, छठे स्वर सहित शिखाविन्द और चन्द्र युक्त पर द्विर्मासिक कौशिकी
एषबलिः स्वाहा यह कौशिक मन्त्र कहा गया है ।। १४२-१४४ ।।
नृपो वैरिबलिं
दद्यात् खड्गमामन्त्र्य पूर्वतः ।
महिषं चाथ
छागं वा वैरिनाम्नाभिमन्त्र्य च ।। १४५ ।।
सूत्रेण वदने
बद्धं त्रिधा तस्य तु मन्त्रकैः ।
छित्त्वा
तस्योत्तमाङ्गं तु देव्यै दद्यात् प्रयत्नतः ।। १४६ ।।
राजा को पहले
की भाँति खड्ग को आमन्त्रित कर, अपने शत्रु को अथवा शत्रु के नाम से अभिमन्त्रित कर भैंसे
या बकरी की बलि देनी चाहिये। ऐसा करते समय पहले मन्त्रोच्चारपूर्वक सूत्र से उसके
शरीर को तीन बार बाँधे तब उसके उत्तम अङ्ग (शिर) को यत्नपूर्वक देवी को प्रदान
करना चाहिये ॥ १४५ - १४६ ॥
यदा यदा
रिपोर्वृद्धिबलिदानं तदा परम् ।
दद्यात् तदा
शिरश्छित्त्वा रिपोस्तस्य क्षयाय च ।। १४७ ।।
जब-जब शत्रु
की वृद्धि हो तब-तब उसके नाश हेतु उस शत्रु के सिर को काटकर,
श्रेष्ठ बलि देनी चाहिये ॥१४७॥
प्राणप्रतिष्ठां
च रिपोः कुर्यात् तस्मिन् पशावथ ।
तस्मिन्
क्षीणे रिपोः प्राणाः क्षीयन्ते विपदा युताः ।। १४८ ।।
उस बलिपशु में
अपने शत्रु के प्राणों की प्रतिष्ठा करनी चाहिये। ऐसा करने के कारण उस पशु के नष्ट
होने पर शत्रु के प्राण भी विपत्ति में पड़कर नष्ट हो जाते हैं ।। १४८ ।।
आदौ
विरुद्धरूपिणि चण्डिके च ततः परम् ।। १४९ ॥
वैरिणन्त्वमुकं
चेति याहीत्याम्रेडितं पुनः ।
वह्निभार्या
ततः पश्चात् खड्गमन्त्रं प्रकीर्तितम् ।। १५० ।।
पहले
विरुद्धरूपिणी तब चण्डिके तत्पश्चात् वैरिणन्तु, अमुकं पुनः यह कहकर वह्निजाया (स्वाहा) कहने से बना मन्त्र
(विरुद्धरूपिणी चण्डिके अमुकं वैरिणम् याहि आम्रेडितं स्वाहा ) खड्गमन्त्र
कहा गया है ।। १४९-१५०॥
स्वयं स वैरी
यो द्वेष्टि तमिमं पशुरूपिणम् ।
विनाशय
महामारी स्फें स्फें खादय खादय ।। १५१ ।।
इत्यनेन तु
मन्त्रेण बलेः शिरसि पुष्पकम् ।
दद्यात्
ततस्तद्रुधिरं द्व्यक्षराभ्यां निवेदयेत् ।।१५२।।
तब वह स्वयं सवैरि...खादय
मन्त्रार्थ - इस पशु के रूप में उपस्थित उस वैरी को जो मुझसे द्वेष करता है,
हे महामारी स्फें स्फें आप खाइये। इस मन्त्र से बलि के सिर
पर पुष्प चढ़ाये तब दो अक्षरों से उसका रक्त देवी को निवेदित करे ।। १५१-१५२।।
महानवम्यां
शरदि यद्येवं दीयते बलिः ।
तदा तदष्टाङ्गभवैर्मासैहोंमं
समाचरेत् ।। १५३।।
दुर्गातन्त्रेण
मन्त्रेण प्रणीते दहने शुचौ ।
एवं दत्त्वा
बलिं मर्त्यो रिपुक्षयमवाप्नुयात् ।। १५४ ।।
शरदऋतु
(शारदोत्सव) में महानवमी के दिन जब इस प्रकार से बलि दी जाती है तब आठ अङ्गों से
उत्पन्न माँस से दुर्गातन्त्र के मन्त्रों से पवित्र,
अग्नि में, विधिपूर्वक होम करे, इस प्रकार बलि देने से मनुष्य अपने शत्रुनाश को प्राप्त
करता है ।। १५३ - १५४ ॥
नाभेरधस्ताद्रुधिरं
पृष्ठभागस्य च श्रिये ।
स्वगात्ररुधिरं
दद्यान्न कदाचन साधकः ।। १५५ ।।
साधक कभी-भी
अपने शरीर का, नाभि के निचले भाग या पृष्ठभाग से निकाला हुआ रक्त देवी को न दे ।।१५५॥
नोष्ठस्य
चिबुकस्यापि नेन्द्रियाणां च मानवः ।
कण्ठाधो
नाभितश्चोर्ध्वं बाह्वोः पाणिमृते तथा ।
प्रदद्याद्रुधिरं
घातं नातिकुर्याच्च साधकः ।। १५६ ॥
कण्ठ (गले) के
नीचे तथा नाभि के ऊपर, बाहु और हाथों को छोड़कर ओठ, चिबुक और इन्द्रियों का रक्त,
मनुष्य न दे और न तो साधक रक्त निकालने हेतु अधिक घात ही
करे ।। १५६ ॥
गण्डयोश्च
ललाटकस्य भ्रुवोर्मध्यस्य शोणितम् ।
कर्णाग्रस्य च
बाह्वोश्च गलयोरुदरस्य च ।। १५७ ।।
कण्ठाधो
नाभितश्चोर्ध्वं हृद्भागस्य यतस्ततः ।
पार्श्वयोश्चापि
रुधिरं दुर्गायै विनिवेदयेत् ।। १५८।।
साधक,
दुर्गा देवी को गण्डस्थल, ललाट, भौंहो के बीच का, कानों के अगले भाग का, बाहु, गला, पेट, कण्ठ के नीचे तथा नाभि के ऊपर,
हृदयभाग के इधर-उधर का, पार्श्व भाग का रक्त, निवेदित करे ।। १५७ - १५८ ।।
न
गुल्फतोऽसृक्प्रदद्यान्न जत्रोर्नापि वक्त्रतः ।
न च
रोगबिलादङ्गान्नान्यघाताच्च भैरव ।। १५९ ।।
हे भैरव !
गुल्फ (घुठ्ठी), दाढ़ी, मुँह,
रोगग्रस्त या अन्य के किये घाव से रक्त निकाल कर भी न
चढ़ावे ॥ १५९ ॥
तदर्थे च
कृताघातः सश्रद्धोऽक्षुब्धमानसः ।
श्रुते रक्तं प्रदद्यात्तु
पद्मपुष्पस्य पत्रके ।। १६० ।।
सौवर्णे राजते
कांस्ये लौहे फाले च वा नरः ।
निधाय देव्यै
दद्यात् तु तद्रक्तं मन्त्रपूर्वकम् ।। १६१ ।।
उस (स्वगात्र
से निकले रक्त के बलिदान) के लिए आघात, श्रद्धापूर्वक एवं बिना विचलित मन करना चाहिये । घात से
उत्पन्न रक्त को कमलपुष्प की पंखुड़ी, सोने, चाँदी, काँसा लोहे के पात्र या फाल में रखकर,
उस रक्त को देवी को मन्त्रपूर्वक अर्पित करना चाहिये ।।
१६०-१६१ ।।
खननं क्षुरिकाखड्गशङ्कुलादि
यदस्त्रकम् ।
घातेन
बृहदस्त्रस्य महाफलमवाप्नुयात् ।। १६२।।
पद्मपुष्पस्य
पत्रं तु यावद् गृह्णाति शोणितम् ।
तत्प्रमाणे
चतुर्भागाधिकं रक्तं तु साधकः ।। १६३ ।।
न कदाचित्
प्रदद्यातु नाङ्गच्छेदमथाचरेत् ।। १६४ ।।
क्षुरिका,
खड्ग, शङ्कुल आदि जैसे अस्त्र से खना जाय,
घात किया जाय। बड़े अस्त्र के घात से महान फल प्राप्त होता
है। कमल की पंखुड़ी में जितनी मात्रा में रक्त आता है उसके चौथाई भाग से अधिक रक्त
साधक को कभी नहीं चढ़ाना चाहिये और न कभी अपना कोई अंग ही काटना चाहिये ।। १६२-१६४
।।
यः
स्वहृदयसञ्जातमांसं माषप्रमाणतः ।
तिलमुद्गप्रमाणाद्
वा दैव्यै दद्यात् तु भक्तितः ।
षण्मासाभ्यन्तरे
तस्मात् काममिष्टमवाप्नुयात् ।। १६५ ।।
जो साधक अपने
हृदय से उत्पन्न एक माष (उर्द), तिल या मूँग की मात्रा में मांस,
देवी को भक्तिपूर्वक चढ़ाता है,
वह उसके कारण छः महीने के भीतर ही अपनी इष्टकामना को
प्राप्त कर लेता है ।। १६५ ।।
बाह्वोस्तु
स्कन्धयोर्वापि यो दद्याद् दीपवर्तिकाम् ।
हृदये वा
स्नेहपात्रं विना भक्त्या तु साधकः ।। १६६ ।।
क्षणमात्रेण
तद्दीपप्रदानस्य फलं शृणु ।। १६७ ।।
जो साधक अपनी
भुजाओं,
कन्धों या हृदय पर बिना घी के पात्र के भक्ति- पूर्वक,
क्षणमात्र के लिए भी दीप प्रदान करता है,
उसका फल सुनो।। १६६-१६७।।
भुक्त्वा च
विपुलान् भोगान् देवीगेहे यदृच्छया ।
कल्पत्रयं तु
संस्थाय सार्वभौमो नृपो भवेत् ।। १६८ ।।
वह बहुत अधिक
भोगों को प्राप्त कर, मृत्यु के बाद देवीलोक में तीन कल्पों तक निवास करता है
तत्पश्चात् पुनः जन्म लेकर राजा होता है ।। १६८ ।।
महिषस्य
शिरश्छिन्नं सप्रदीपं शिवापुरः ।
हस्ताभ्यां यः
समादाय अहोरात्रं तु तिष्ठति ।। १६९ ।।
स चिरायुः
पूतमूर्तिरिह भुक्त्वा मनोरमान् ।
भोगान्ते
मद्गृहगो गणानामधिपो भवेत् ।। १७०।।
बलि के
पश्चात् जलते हुए दीप के सहित, भैंसे के कटे सिर को हाथों में लेकर जो साधक देवी के मन्दिर
में एक दिन रात (२४ घण्टे) खड़ा रहता है, वह दीर्घायु और पवित्रात्मा होता है। वहाँ इस लोक के सुन्दर
भोगों को भोगकर, अन्त में, मेरे धाम में जाकर, गणों का स्वामी होता है ॥ १६९-१७०॥
नरस्य
शीर्षमादाय साधको दक्षिणे करे ।
वामेन रौधिरं
पात्रं गृहीत्वा निशि जाग्रतः ।। १७१ ।।
यावद्रात्रं
स्थितो मर्त्यो राजा भवति चेह वै ।
मृते मम गृहं
प्राप्य गणानामधिपो भवेत् ।। १७२ ।।
जो साधक,
मनुष्य के कटे हुये सिर को दाहिने हाथ में तथा उसके रक्त से
भरापात्र बायें हाथ में लेकर, रात भर जागता है एवं खड़ा रहता है। वह इस लोक में राजा होता
है और मरने पर मेरे लोक में जाकर गणों का स्वामी होता है ।। १७१-१७२ ॥
क्षणमात्रं
बलीनां यः शिरोरक्तं करद्वये ।
गृहीत्वा
चिन्तयेद् देवीं पुरस्तिष्ठति मानवः ।
स कामानिह सम्प्राप्य
देवीलोके महीयते ।। १७३ ।।
क्षणमात्र के
लिए भी बलिपशु के कटे हुए सिर के रक्त को दोनों हाथों में लेकर जो मनुष्य देवी के
सामने स्थित होकर, उनका ध्यान करता है, वह इस लोक में अपनी सभी कामनाओं को प्राप्त कर देवी लोक में
जाता है ।। १७३ ॥
महामाये
जगन्नाथे सर्वकामप्रदायिनि ।
ददामि देहरुधिरं
प्रसीद वरदा भव ।। १७४ ।।
स्वरक्तदानमंत्र
महामाये भव, मन्त्रार्थ- हे महामाये ! हे जगत् की स्वामिनी ! हे सभी कामनाओं को प्रदान
करने वाली! मैं आपको अपने शरीर का रक्त दे रहा हूँ, आप प्रसन्न हों तथा मेरे लिए वर देने वाली हों ।। १७४ ॥
इत्युक्त्वा
मूलमन्त्रेण नतिपूर्वं विचक्षणः ।
स्वगात्ररुधिरं
दद्याद् मानवः सिद्धसन्निभः ।। १७५ ।।
मूलमन्त्र
सहित इसे कहकर सिद्धतुल्य, बुद्धिमान् साधक, मनुष्य, अपने शरीर से निकला हुआ रक्त, नम्रतापूर्वक देवी को अर्पित करे ।। १७५ ।।
येनात्ममांसं
सत्येन ददामीश्वर भूतये ।
निर्वाणं तेन
सत्येन देहि हं हं नमो नमः ।। १७६ ।
इत्यनेन तु
मन्त्रेण स्वमांसं वितरेद् बुधः ।। १७७ ।।
"येनात्मक
मांसं नमः"
मन्त्रार्थ - हे ईश्वरी ! ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए, जिस निष्ठा से मैं अपने शरीर का मांस,
आपको प्रदान कर रहा हूँ, उसी सत्य से आप मुझे निर्वाण दीजिए। हं हं आपको
बार-बार नमस्कार है। इस मन्त्र से विद्वान्साधक अपना मांस देवी को अर्पित करे
।।१७६ - १७७।।
सौभाग्यं
सुखसम्पन्नं प्रदीपं परमं रुचिः ।
दीपयेन्मांसमिह
तं दीपं ह्रौं ह्रौं नमो नमः ।
इत्यनेन तु
मन्त्रेण दीपं दद्याद् विचक्षणः ।। १७८ ।।
मन्त्रार्थ–“सौभाग्यमय सुख-सम्पन्न यह परम सुन्दर प्रदीप जो इस मांस को प्रकाशित
कर रहा है ऐसे इस दीप को ह्रौं ह्रौं बार-बार नमस्कार है।" इस सौभाग्यं-
नमः मन्त्र से बुद्धिमान् साधक दीपप्रदान करे ।। १७८ ।।
महानवम्यां
शरदि रात्रौ स्कन्दविशाखयोः ।
यवचूर्णमयं
कृत्वा रिपुं मृन्मयमेव वा ।। १७९ ।।
शिरश्छित्त्वा
बलिं दद्यात् कृत्वा तस्य तु मन्त्रतः ।। १८० ।।
साधक शरदऋतु
की महानवमी की रात्रि में शत्रु की, जव के आटे या मिट्टी की मूर्ति बनाकर,
उसका सिर काट कर, उसकी बलि, मन्त्रों सहित स्कन्द और विशाख को देवे ।।१७९-१८०।।
अनेनैव तु मन्त्रेण
खड्गमामन्त्र्य यत्नतः ।
रक्तं
किलिकिली घोर घोराधारविहिंसकः ।। १८१ ।।
ब्रह्मशिष्याम्बिकाशिष्यममुकं
चारिसत्तमम् ।
मान्तो
विसर्गसहितः स च बिन्दुयुतोऽपरः ।। १८२।।
यत्नपूर्वक रक्तं-यःयं
इस मन्त्र से खड्ग का आमन्त्रण करे। मन्त्रार्थ- हे ब्रह्मा और आम्बिका के शिष्य !
हे भयानकरूप तथा भयानक धारवाले, विशेषरूप से हिंसा अर्थात् बलिदान करने वाले खड्ग ! तुम
मेरे इस श्रेष्ठ शत्रुरक्त को किलि किलि तत्पश्चात् विसर्गयुक्त मान्त (य) तथा
पुनः बिन्दुयुक्त वही वर्ण बोलकर, बलिपशु आदि का शिर काटकर, उसकी बलि करे।। १८१-१८२।।
शिरश्छित्त्वा
बलिं दद्यात् कृत्वा तस्य तु मन्त्रतः ।
अनेनैवतुमन्त्रेणविन्दुना
च समन्वितः ।। १८३ ।।
ब्रह्माग्निर्योगचन्द्रेण
बिन्दुना च समन्वितः ।
फडन्तो बलिषु
प्रोक्तः खड्गस्कन्दविशाखयोः ।। १८४ । ।
बिन्दुयुत इसी
मंत्रसहित स्कन्द और विशाख के लिए बलि हेतु ब्रह्मा (क्ष) अग्नि (र्) तथा चन्द्र
और बिन्दु से समन्वित (ॐ) अन्त में फट् युक्त मन्त्र बताया गया है।। १८३-१८४॥
रक्तद्रव्यैः
शोधयित्वा कृत्रिमं तं बलिं रिपुम् ।
कुचन्दनस्य
तिलकं ललाटे विनिवेश्य च ।। १८५ ।।
रक्तमाल्याम्बरं
कृत्वा रक्तवस्त्रधरं तथा ।
कण्ठे बद्ध्वा
रक्तसूत्रैर्नाभौ शल्यं च कृत्रिमम् ।। १८६ ।।
दत्त्वोत्तरशिरः
स्कन्धं कृत्वा खड्गेन छेदयेत् ।
शिरस्तस्य ततो
दद्यात् स्कन्दमन्त्रेण मन्त्रितम् ।। १८७ ।।
उस बलिरूप
कृत्रिमशत्रु का लालपदार्थों से शोधन करके उसके ललाट पर कुचन्दन (रक्तचन्दन),
का चन्दन लगाये । तत्पश्चात् उसे लाल,
माला और वस्त्र से युक्त लालवस्त्रधारी बनाये तथा उसके गले
में लालधागों से बाँध कर एवं नाभि में कृत्रिम शल्य से भेदन करे। तब कन्धेसहित,
सिर को उत्तर की ओर करके उसे खड्ग से काट दे । तदनन्तर
स्कन्दमन्त्र से अभिमन्त्रित कर उसके सिर को देवी को अर्पित करे ।। १८५ -१८७।।
चतुर्दशस्वराग्निभ्यां
सम्पृक्तः स्यात् पुरः सकम् ।
परतः परतः पूर्वं
चन्द्रबिन्दुसमन्वितम् ।
स्कन्दस्य
मूलमन्त्रोऽयं तेन तस्मै बलिं सृजेत् ।। १८८ ।।
स जिसके पहले
है वह वर्ण ह, क्रमशः अग्नि (र) तब चौदहवाँ स्वर औ, तत्पश्चात् चन्द्र और बिन्दु से संयुक्त होकर स्कन्द का
मूलमन्त्र ह्रौं बनता है। इसी मन्त्र से उसे बलिप्रदान करें ।। १८८ ।।
चतुर्दशस्वराग्निभ्यां
तृतीयं तु च पूर्ववत् ।
प्रोक्तो
विशाखमन्त्रोऽयं तेन तस्मै बलिं सृजेत् ।। १८९ ।।
से तीसरे पहला
वर्ण व चौदहवें स्वर औ का तथा अग्नि से युक्त हो विशाख का मन्त्र ब्रौं कहा
गया है। इसलिये उसे उस मंत्र से बलि प्रदान करे ।। १८९ ॥
कालिका पुराण अध्याय ६७- स्कन्धविशाख ध्यान
कुटिलाक्षौ
कृष्णपिङ्गवर्णौ रक्ताङ्गधारिणौ ।
त्रिशूलं
करवालं च पाणिभ्यां दक्षिणे तथा । । १९० ।।
बिभ्रतौ नृकपालं
च कर्त्रिकां चाति वामतः ।
त्रिनेत्रौ
नरमुण्डानां मालामुरसि बिभ्रतौ ।।१९१ ।।
विकटौ
दशनैर्भीमैर्गणेशौ द्वारपालकौ ।
ध्यानेन
चिन्तयेद् देव्याः पुरतः संस्थितौ सदा ।।१९२।।
टेढ़ी आँखों
वाले,
काले और पीले वर्णोंवाले, रक्तमयअङ्ग धारण करने वाले, अपने दाहिने हाथों में त्रिशूल और करवाल (तलवार) एवं बाएँ
हाथों में नरमुण्ड और कर्त्रिका (कैंची), हृदय पर नरमुण्डों की माला धारण किये,
तीन नेत्रों से युक्त विकराल और देखने में भयानक हैं। इस
रूप में देवी के सामने उपस्थित दोनों गणों के स्वामियों,
द्वारपालों (स्कन्द और विशाख) का सदैव ध्यान करता हुआ चिन्तन
करे ।। १९०- १९२ ।।
चैत्रे
मास्यसिते पक्षे चतुर्दश्यां विशेषतः ।। १९३ ॥
बलिभिर्महिषैश्छागैः
मां च भैरवरूपिणम् ।
तोषयेन्मधुभिर्मासैस्तेन
तुष्याम्यहं सुतौ ।। १९४।।
हे पुत्रों !
चैत्रमास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को भैरवरूपी मुझे,
भैंसे, बकरे की बलि से मधु-मांस आदि से सन्तुष्ट करे। इससे मैं
प्रसन्न होता हूँ ।।१९३-१९४॥
चण्डिका
बलिदाने तु बलिशीर्षं जलेन च ।
अभिषिच्य तु
मन्त्रेण मूलेनैव निवेदयेत् ।। १९५ ।।
देवी के
बलिदान में बलि-पशु के सिर को जल से सींच कर मूलमन्त्र से अर्पित करे ॥१९५॥
ईषत् प्राणं
तु बहुधा चलितं पूर्वमर्चितम् ।
वीक्षेत्
कायसमृद्धिं तु सिद्धभावं च साधकः ।। १९६ ।।
जिसमें
थोड़ा-थोड़ा प्राण सञ्चार हो ऐसे पहले पूजे हुए बलिपशु की शरीर की शोभा (सिर) को
साधक सिद्धभावप्राप्त करने के लिए देखे ।। १९६॥
सितप्रेतो रथस्तेषां
योगपीठस्य सन्निभः ।
ध्यायाम्यस्मिन्
महामाये सिद्धिं बोधय ते नमः ।। १९७ ।।
सितप्रेतो...
नमः । मन्त्रार्थ -
योगपीठ के समीप श्वेतप्रेत के रथ में विराजमान हे महामाया! मैं आपका ध्यान करता
हूँ। आप मेरी सिद्धि का बोध करायें, आपको नमस्कार है ।।१९७॥
अनेनामन्त्रितं
शीर्षं न चिराद् यदि वेपते ।
तत्कार्यस्य
तदा सिद्धिरसिद्धिस्तु विपर्ययात् ।। १९८ ।।
इस मन्त्र से
अभिमन्त्रित सिर यदि देर तक न काँपे तो कार्य की सिद्धि जाने,शीघ्र इसके विपरीत असिद्धि समझे।।१९८।।
एवं ददद् बलिं
वीरो यथोक्तविधिनाऽमुना ।
बलिदानादेव चतुर्वर्गमाप्नोत्यसंशयम्
।। १९९ ।।
इस प्रकार
वीरसाधक,
इस बताई हुई विधि के अनुसार बलिदान करे तो इस बलिदान से ही
चतुर्वर्ग की प्राप्ति होती है। इसमें कोई संशय नहीं है ।। १९९ ।।
एवं
बलिप्रदानस्य क्रमो रूपं तथैव च ।
कथितो
रुधिराध्याय उपचाराञ् शृणुष्व मे ।।२०० ।।
इस प्रकार
रुधिराध्याय में बलिदान के रूप तथा क्रम को मैंने कहा अब तुम दोनों पूजा उपचारों
के विषय में सुनो ॥ २०० ॥
इति
श्रीकालिकापुराणे बलिविधाननाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः ॥६७॥
श्रीकालिकापुराण
में बलिविधाननामक सड़सठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। ६७ ॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 68
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