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कालिका पुराण अध्याय ६३

कालिका पुराण अध्याय ६३                      

कालिका पुराण अध्याय ६३  में त्रिपुरापूजन विधि का वर्णन है ।

कालिका पुराण अध्याय ६३

कालिका पुराण अध्याय ६३                                        

Kalika puran chapter 63

कालिकापुराणम् त्रिषष्टितमोऽध्यायः त्रिपुरापूजनविधिः

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ६३                         

।। ईश्वर उवाच ।।

वैष्णवीतन्त्रमन्त्रस्य यथापूर्वं मयोदितम् ।

मण्डलं प्रतिपत्त्या तु पर्यायो मण्डलस्य यः ।। १ ।।

स एवं प्रथमं कार्यः शिलायां पुष्पचन्दनैः ।

पात्रादीनां प्रतिष्ठानं तथैवात्रापि योजयेत् ॥ २ ॥

ईश्वर (शिव) बोले- मेरे द्वारा वैष्णवी- तन्त्र-मन्त्र के मण्डलप्रतिपत्ति- प्रसङ्ग में जिस मण्डल के निर्माण की विधि बताई गई है। पहले उसे ही शिला पर फूल एवं चन्दनों से बनाना चाहिये । तब पात्रादिका स्थापन भी उसी भाँति यहाँ भी करना चाहिये ॥ १-२ ॥

वैष्णवीतन्त्रमन्त्रस्य प्रोक्ता याः प्रतिपत्तयः ।

अत्र ताः सकला योज्या आसनाद्यैश्च पूजनम् ।।३।।

जो आसनादि पूजन की विधियाँ, वैष्णवीतन्त्र में बताई गई हैं। उन्हीं सबका प्रयोग यहाँ भी आसनादि द्वारा पूजन में करना चाहिये ॥ ३ ॥

तेभ्योऽन्यो यो विशेषोऽत्र तद् वक्ष्ये शृणु भैरव ।

प्रथमं भास्करायार्घ्यं प्रदद्याच्श्वेतसर्षपैः ।

पुष्पचन्दनसंवीतैः सगणाय महात्मने ॥४॥

हे भैरव ! अन्य से विशेष जो यहाँ करने योग्य है, उसे मैं इस समय बताऊँगा । तुम उसे सुनो ! पहले श्वेत (पीली) सरसों और पुष्प - चन्दन आदि से गणों के सहित महात्मा सूर्य को अर्घ्य प्रदान करे ॥४॥

आसनार्चनशेषे तु पीठोक्ताः सर्वदेवताः ।

पीठनाम्ना तु संयोज्या मण्डलस्य तु मध्यतः ।।५।।

आसन-पूजन के पश्चात् पीठों के सन्दर्भ में कथित देवताओं का उनके पीठ- नाम से संयोजित कर, मण्डल के मध्य में पूजन करे ॥ ५ ॥

ध्यानस्वरूपं भिन्नं तद् वैष्णव्या सह भैरव ।

कामायाः सर्वमन्यत् तु महामायास्तवोदितम् ।। ६ ।।

योगिनीस्तु चतुःषष्टिं पूजयेच्च पृथक् पृथक् ।।७।।

हे भैरव ! यहाँ उस वैष्णवी के ध्यान से भिन्न कामाख्या का ध्यान है। अन्य सब कुछ वही है जो तुम दोनों से महामाया के सन्दर्भ में बताया गया है। तब पीठपूजन के पश्चात् चौंसठ योगिनियों का अलग-अलग पूजन करे ॥ ६-७ ॥

गुहां मनोभवां चापि महोत्साहां तथा सखीम् ।

अनन्तरं पूजयेत् तु दिक्पालांश्च नवग्रहान् ।

रूपतस्तान् समुद्दिश्य पूजयेदिष्टसिद्धये ।। ८ ।।

तब अपनी अभीष्टसिद्धि के लिए मनोभवगुहा तथा उसकी सखी महोत्साहा का पूजन करना चाहिये । तत्पश्चात् दिक्पाल एवं नवग्रहों का पूजन, उनके रूपों को लक्ष्य करके करे ॥ ८ ॥

पूर्वद्वारे गणपतिं प्रथमं तु प्रपूजयेत् ।

नन्दिनं च हनूमन्तं पश्चिमद्वारि पूजयेत् ।। ९ ।।

भृङ्गी चोत्तरतः पूज्यो महाकालस्तु दक्षिणे ।

एते मम द्वारपाला देव्या द्वारे प्रपूजयेत् ।। १० ।।

सर्वप्रथम मण्डल के पूर्व द्वार पर गणेश, पश्चिम द्वार पर नन्दि एवं हनुमान का पूजन करे। भृङ्गी का उत्तरदिशा में तथा महाकाल का दक्षिणदिशा में पूजन किया जाना चाहिये। मेरे उपर्युक्त इन द्वारपालों का देवी के द्वारदेश में पूजन करना चाहिये ॥ ९-१०॥

पात्रामृतीकृतिविधौ कुर्याद्वै काममुद्रया ।

भूतापसारणं कुर्यात् पूर्वं तालत्रयेण तु ।। ११ ।।

पात्रों के अमृतीकरण की विधि काममुद्रा से सम्पन्न करनी चाहिये । भूता-पसारण का कार्य पहले तीन ताल से करना चाहिये ॥ ११ ॥

वामहस्ते दक्षिणेन पाणिना तालमाहरेत् ।

हूँ हूँ फडितिमन्त्रेण वेतालादींश्च सारयेत् ।।१२।।

सर्वमुत्तरतन्त्रोक्तं तन्त्रं कुर्यात् तु साधकः ।

अत्रोक्तेन स्वरूपेण प्राणायामं तथा चरेत् ।। १३ ।।

साधक हूँ हूँ फट् इस मन्त्र से बायें हाथ से दाहिने हाथ पर ताल देकर वेताल आदि को दूर हटाये । यह सब कार्य साधक को उत्तरतन्त्र में वर्णित पद्धति से करना चाहिये तथा यहाँ वर्णितस्वरूप का ध्यान करते हुए प्राणायाम करना चाहिये ।।१२-१३।।

स्नापयेत् प्रथमं देवीं मूलमन्त्रेण पूजकः ।।१४।।

मधुक्षीराज्यदधिभिर्गोमूत्रैर्गोमयैस्तथा ।

रत्नोदकैः शर्कराभिर्गुडरत्नकुशोदकैः ।। १५ ।।

पूजा करनेवाले को, मूलमन्त्र पढ़ते हुये, मधु, दूध, घी, दही, गोमूत्र, गोबर, रत्न (प्रक्षालित) जल, चीनी, गुड़रत्न और कुश मिश्रितजल से पहले देवी को स्नान कराना चाहिये ॥१४- १५॥

सितसर्षपमुद्राभ्यां तिलक्षीरैस्तथा यवैः ।

रक्तचन्दनपुष्पैश्च दूर्वाभिः रोचनायुतैः ।

नवभिर्वितरेदर्घ्यं शिलायां योनिसन्निधौ ।। १६ ।।

साधक, योनि के निकट, शिला पर सफेद (पीला) सरसों, मूँग, तिल, दूध, यव, लालचन्दन, पुष्प, दूर्वा और गोरोचन इन नव पदार्थों से युक्त, अर्घ्य प्रदान करे।। १६ ।।

आसनं पाद्यमर्घ्यं च तत आचमनीयकम् ।। १७ ।।

मधुपर्कं स्नानजलं वस्त्रं चन्दनभूषणम् ।

पुष्पं धूपं च दीपं च नेत्राञ्जनमतः परम् ।। १८ ।।

नैवेद्याचमनीये च प्रदक्षिणनमस्कृती ।  

एते षोडा निर्दिष्टा उपचारास्तु पीठतः ।।१९।।

आसन, पाद्य, अर्घ, आचमनीय, मधुपर्क, स्नानीयजल, वस्त्र, चन्दन, आभूषण, पुष्प, धूप और दीप, तदनन्तर नेत्र में अञ्जन, नैवेद्य, प्रदक्षिणा, नमस्कार, पीठपूजन के निर्दिष्ट, सोलह उपचार हैं ।। १७-१९।।

आवाहयेन्महादेवीं गायत्र्या कामयोगया ।

तामेव विद्धि वेताल गुह्यं भैरवदैवतम् ।। २० ।।

महादेवी का कामगायत्री से आवाहन करना चाहिये । हे वेताल और भैरव ! तुम दोनों उस गुह्यदेवी मन्त्र को जानो ॥ २० ॥

कालिका पुराण अध्याय ६३- आवाहनमन्त्र 

कामाख्ये त्वमिहागच्छ यथावन्मम सन्निधौ ।

पूजाकर्मणि सान्निध्यमिह कल्पय कामिनि ।। २१ ।।

कामाख्ये-कामिनी यह आवाहन मन्त्र है।

मन्त्रार्थ - हे कामाख्या देवी ! आप यथोचितरूप से यहाँ मेरे निकट आवें । हे कामिनी ! पूजाकर्म में, मेरे सान्निध्य में यहाँ उपस्थित हों ॥ २१ ॥

कामाख्यायै च विद्महे कामेश्वर्यै तु धीमहि ।

ततः कुर्यान्महादेवी ततश्चानु प्रचोदयात् ।। २२ ।।

एषा तु कामगायत्री पूजयेदनया शुभाम् ।

कामाख्यायै च विद्महे कामेश्वर्येतु धीमहि महादेवी प्रचोदयात् । कामेश्वर्यै-प्रचोदयात्।

हम कामाख्या को जानें कामेश्वरी का ध्यान करें। महादेवी हमें प्रेरित करें। यह कामगायत्री है। इसके द्वारा शुभदायिनी भगवती का पूजन करना चाहिये ॥ २२ ॥

पूजावसाने च बलीन्देव्याः प्रीत्यै निवेदयेत् ।। २३ ।।

रुद्राक्षमालया जाप्यमादायैव समाचरेत् ।

त्र्याक्षरैर्मूलमन्त्रस्य त्रिधावृत्तः प्रपूजयेत् ।। २४ ।।

पूजा समाप्ति के बाद देवी की प्रसन्नता के लिए बलि प्रदान करे। जप का कार्य रुद्राक्षमाला लेकर ही करे । त्र्यक्षरीमूलमन्त्र की तीन बार आवृत्तिकर पूजनकार्य-सम्पन्न करे ।। २३-२४ ॥

कामाख्यायाः षडङ्गानि आह्वानानन्तरे तथा ।

वैष्णवीतन्त्रमन्त्रस्य कराङ्गन्यासयोश्च ये ।। २५ ।।

स्वराः प्रोक्तास्तैः स्वरैस्तु सार्धचन्द्रैः सबिन्दुकैः ।

मूलमन्त्राद्यक्षराभ्यां युगपत्तु नियोजितैः ।। २६ ।।

आह्वान के पश्चात् कामाख्या के षडङ्गों में वैष्णवी - तन्त्र-मन्त्र के करन्यास और अङ्गन्यास के मन्त्रों में कहे गये स्वरों में अर्धचन्द्र और बिन्दु, सहित मूलमन्त्र के प्रारम्भ के दो मन्त्रों का संयुक्तरूप से प्रयोग करे ।।२५-२६।।

कनिष्ठादिक्रमेणैव ह्यङ्गन्यासं समाचरेत् ।

अङ्गन्यासकरन्यासौ कृत्वा पश्चात्तु साधकः ।। २७ ।।

हृच्छिरस्तु शिखावर्मनेत्रास्योदरपृष्ठतः ।

बाह्वोः पाण्योर्जङ्घयोश्च पादयोश्चापि विन्यसेत् ।। २८ ।।

कनिष्ठा के क्रम से ही साधक, अङ्गन्यास आदि करे। तब अङ्गन्यास, करन्यास करने के पश्चात् हृदय, सिर, शिखा, कवच, नेत्र, उदर, पीठ, बाहुओं, हाथों, जंघों और पैरों में भी न्यास करे ।। २७-२८ ॥

अभयं वरदं हस्तमक्षमालां च सूत्रकम् ।

पूजयेच्छशिनं सूर्यं शिरश्चान्द्रकलां तथा ।। २९ ।।

रक्तपद्मं शवं चैव लौहित्यं ब्रह्मपुत्रकम् ।

मनोभवं शिलां तत्र शक्तिस्थां शवमध्यतः ।। ३० ।।

देव्याः प्रपूजयेद्भक्तः करवालं च पार्श्वतः ।

साधक देवी के हाथों में अभय और वरद मुद्रा, अक्षमाला, एवं सूत्रक (पाश) का, मस्तक पर सूर्य, चन्द्र और चन्द्रकला, लालकमल, शव और लौहित्य ब्रह्मपुत्र, मनोभवशिला, वहीं शव के मध्यविराजिता शक्तिदेवी व उनके बगल में करवाल (खड्ग) का भक्तिपूर्वक पूजन करे ।। २९-३०।।

पीठाधिदेवतास्तत्र यजेत् कामेश्वरीं शुभाम् ।। ३१ ।।

त्रिपुरां पूजयेन्मध्ये पीठप्रत्यधिदेवताम् ।

शारदां च महोत्साहां मध्य एव प्रपूजयेत् ।। ३२ ।।

साधक पीठाधिदेवताओं का पूजन कर शुभदात्री कामेश्वरी देवी का पूजन करे । मध्य में पीठ की प्रत्यधिदेवता, त्रिपुरा, शारदा और महोत्साहा का भी पूजन करे ।। ३१-३२।।

चण्डेश्वरी महादेवी देव्या निर्माल्यधारिणी ।

योनिमुद्रा समाख्याता कामाख्यायाः विसर्जने ।। ३३ ।।

महादेवी चण्डेश्वरी देवी कामेश्वरी का निर्माल्य धारण करने वाली तथा योनिमुद्रा कामाख्या के विसर्जन हेतु, मुद्रा बताई गई है ॥ ३३ ॥

इदं द्रव्यं तु सिन्दूरचन्दनागुरुकुंकुमैः ।

इति यो हि मया प्रोक्तो विशेषः परिपूजने ।। ३४ ।।

देवी कामाख्या के पूजन में सिन्दूर, चन्दन, अगर, कुंकुम मेरे द्वारा कामाख्या के पूजन हेतु विशेष द्रव्य बताये गये हैं ॥३४॥

एभिर्विशेषैः सहितं वैष्णवीतन्त्रगोचरम् ।

सर्वं कल्पं समासाद्य कामाख्यां परिपूजयेत् ।। ३५ ।।

(उपर्युक्त) इन विशेष निर्देशों के सहित वैष्णवीतन्त्र में दिखाये गये सभी कल्पों का समावेश कामाख्यापूजन में करना चाहिये ॥३५॥

अनेनैव विधानेन कामाख्यां यस्तु पूजयेत् ।

मनोभवगुहामध्ये स याति परमां गतिम् ।। ३६ ।।

इसी विधि से जो साधक मनोभवगुहा में कामाख्या देवी का पूजन करता है, वह परम गति को प्राप्त करता है ॥ ३६ ॥

ब्रह्माणी चण्डिका रौद्री गौरीन्द्राणी तथैव च ।

कौमारी वैष्णवी दुर्गा नारसिंही च कालिका ।। ३७ ।।

चामुण्डा शिवदूती च वाराही कौशिकी तथा ।

माहेश्वरी शाङ्करी च जयन्ती सर्वमङ्गला ।। ३८ ।।

काली कपालिनी मेधा शिवा शाकम्भरी तथा ।

भीमा शान्ता भ्रामरी च रुद्राणी चाम्बिका तथा ।। ३९ ।।

क्षमा धात्री तथा स्वाहा स्वधापर्णा महोदरी ।

घोररूपा महाकाली भद्रकाली भयङ्करी ।। ४० ।।

क्षेमकरी चोग्रचण्डा चण्डोग्रा चण्डनायिका ।

चण्डा चण्डवती चण्डी महामोहा प्रियङ्करी ।। ४१ ।।

बलविकरिणी देवी बलप्रमथिनी तथा ।

मदनोन्मथिनी देवी सर्वभूतस्यदमनी ।। ४२ ।।

उमा तारा महानिद्रा विजया च जया तथा ।

पूर्वोक्ताः शैलपुत्र्याद्या योगिन्यष्टौ च याः क्रमात् ।। ४३ ।।

ताभिरेभिश्च सहिताः चतुःषष्टिं च योगिनीः ।

पूजयेन्मण्डलस्यान्तः सर्वकामार्थसिद्धये ।। ४४ ।।

साधक को अपनी समस्त कामनाओं की सिद्धि के लिए ब्रह्माणी, चण्डिका, रौद्री, गौरी, इन्द्राणी, कौमारी, वैष्णवी, दुर्गा, नारसिंही कालिका, चामुण्डा, शिवदूती, वाराही, कौशिकी, माहेश्वरी, शाङ्करी, जयन्ती, सर्वमङ्गला, काली, कपालिनी, मेधा, शिवा, शाकम्भरी, भीमा, शान्ता, भ्रामरी, रुद्राणी, अम्बिका, क्षमा, धात्री, स्वाहा, स्वधा, अपर्णा, महोदरी, घोररूपा, महाकाली, भद्रकाली, भयङ्करीट, क्षेमकरी, उग्रचण्डा, चण्डोग्रा, चण्डनायिका, चण्डा, चण्डवती, चण्डी, महामोहा, प्रियंकरी, बलविकरिणी देवी, बलप्रमथिनी मदनोन्मथिनी देवी, सर्वभूतस्यदमनी, उमा, तारा, महानिद्रा, विजया, जया, तथा पहले बताई गई शैलपुत्री आदि क्रमशः आठयोगिनियाँ उनके सहित कुल चौंसठ योगिनियों का मण्डल में पूजन करना चाहिये ॥३७-४४॥

नानाविधं तु नैवेद्यं पानं पायसमेव च ।

मोदकापूपपिष्टादि देव्यै सम्यक् प्रदापयेत् ।। ४५ ।।

अनेक प्रकार के नैवेद्य, पेयपदार्थ, खीर, मोदक (लड्डू), अपूप (पुआ), पिष्ट(चूर्ण) आदि देवी को भलीभाँति अर्पित करना चाहिये ॥४५ ॥

एवं तु पूजयेद् देवीं कामाख्यां वरदायिनीम् ।

भक्तियुक्तो नरो यस्तु स सर्वान् लभते प्रियान् ।। ४६ ।।

जो मनुष्य (साधक) वर देने वाली कामाख्या देवी का इस प्रकार से भक्ति-युक्त होकर पूजन करता है। वह अपनी सभी प्रिय कामनाओं को प्राप्त कर लेता है ॥४६॥

महोत्साहा तु या देवी महामाया तु सा स्मृता ।

वैष्णवीतन्त्रमन्त्रेण सा पूज्या योनिमण्डले ।। ४७ ।।

महोत्साहा नाम की देवी, जिसे महामाया नाम से स्मरण किया जाता है, का साधक, वैष्णवीतन्त्र के मन्त्रों से योनिमण्डल पर पूजन करे ॥ ४७ ॥

तदेव मण्डलं चास्य ह्यङ्गन्यासं तथैव च ।

सा एव पूजापर्याये तद्ध्यानं सैव देवता ।। ४८ ।।

वैसा ही मण्डल, वैसे ही अङ्गन्यास, पूजाविधान, ध्यान करे क्योंकि वे महामाया देवी वस्तुत: महोत्साहा ही हैं ॥४८॥

तन्त्रं तदेवमुक्तं तु तस्मान्नान्यं तु किञ्चन ।

मण्डलादिविसृष्ट्यर्थं महामायामहोत्सवे ।। ४९ ।।

महामाया महोत्सव में मण्डल आदि बनाने के लिए जो पद्धति बताई गई हैं। उससे अन्य और कुछ विशेष नहीं है ॥ ४९ ॥

यत्प्रोक्तं तेन तां देवीं महोत्साहां तु मण्डले । .

स्नानपूर्वं पूजयेत्तु मध्वाज्यादिभिरासवैः ।। ५० ।।

वहाँ जो बताया गया है उसी से मण्डल पर देवी महोत्साहा का भी पहले स्नान पूर्वक मधु, घी आदि आसवों से पूजन करना चाहिये ॥ ५० ॥

शृणुतं त्रिपुरामूर्तेः कामाख्यायाः प्रपूजनम् ।

एतस्या मूलमन्त्रं तु पूर्वमुत्तरतन्त्रके ।। ५१ ।।

तुम दोनों त्रिपुरा के रूप में कामाख्या के पूजन विधान को सुनो। इसका मूलमन्त्र उत्तरतन्त्र में पहले ही बताया गया है ॥ ५१ ॥

युवयोरिष्टयोः सम्यक् क्रमात् तत् प्रतिपादितम् ।

वाग्भवं कामबीजं तु डामरं चेति तत्त्रयम् ।।५२।।

सर्वधर्मार्थकामादिसाधकं कुण्डलीयुतम् ।

त्रीण्यस्मात् पुरतो दद्याद् दुर्गा ध्याता महेश्वरी ।। ५३ ।।

तुम दोनों के इष्ट के सम्बन्ध में वहाँ सम्यक्रूप से प्रतिपादन किया गया है । वाग्भव ऐं, काम बीज क्लीं और डामर ये तीन ही कुण्डली से युक्त हो सभी धर्म-अर्थ और काम आदि का साधक होता है। इन तीनों का पहले उच्चारण कर – महेश्वरी दुर्गा का ध्यान करना चाहिये ।।५२-५३ ॥

त्रिपुरेति ततः ख्याता कामाख्याकामरूपिणी ।

तस्यास्तु स्नपनं यादृक्कामाख्यायाः प्रकीर्तितम् ।। ५४ । ।

इसीलिए कामरूपिणी कामाख्या, त्रिपुरा नाम से प्रसिद्ध हुईं। जैसा कामाख्या देवी की स्नान कराने की विधि बताई गई है। वैसा ही त्रिपुरा की भी समझनी चाहिये ॥ ५४ ॥

तेनैव स्नपनं कुर्यान्मूलमन्त्रेण पूजकः ।

त्रिकोणं मण्डलं चास्यास्त्रिपुरं तु त्रिरेखकम् ।। ५५ ।।

पूजन करनेवाला पुरुष उसी भाँति मूलमन्त्र से स्नपन करे तत्पश्चात् उसे त्रिपुरा हेतु तीन रेखाओं का त्रिकोणात्मक मण्डल बनाना चाहिये ।। ५५ ।।

मन्त्रं तु अक्षरं ज्ञेयं तथा रूपं त्रयं पुनः ।

त्रिविधा कुण्डली शक्तिस्त्रिदेवानां च सृष्टये ।

सर्वं त्र्यं त्रयं यस्मात् त्रिपुरा तेन सा स्मृता ।। ५६ ।।

इसके मन्त्र के तीनों अक्षरों को उन्हीं का रूप जानना चाहिये। तीन प्रकार से कुण्डलीशक्ति, ब्रह्मा, विष्णु और शिव जैसे तीन देवताओं की सृष्टि हेतु कार्यरत हैं। इसके पूजन में सब कुछ तीन-तीन के क्रम में प्रयुक्त होता है। इसीलिए उसे त्रिपुरा कहते हैं ॥ ५६ ॥

उदीच्याद्यथ पूर्वान्ता रेखाः कार्यास्तु मण्डले ।। ५७।।

त्रित्रिरेखास्तु कर्तव्याः ता एव पुष्पचन्दनैः ।

ऐशान्यामथ नैऋत्यां मन्त्रं कृत्वा तु संलिखेत् ।। ५८ ।।

नैर्ऋत्यां चैव वायव्यां ततो ह्यैशान्यगां पुनः ।

एवं त्रिकोणं विलिखेन्मण्डलस्यान्तरे पुनः ।। ५९ ।।

मण्डल- निर्माण हेतु उत्तर से पूर्व की ओर जाने वाली रेखाएँ पुष्प और चन्दन से तीन रेखायें इसी प्रकार करनी चाहिये। ईशानकोण से नैर्ऋत्य, नैर्ऋत्य से वायव्य और वायव्य से ईशान की ओर इस प्रकार से मण्डल के अन्दर त्रिकोण का निर्माण करना चाहिये ।। ५७-५९॥

ऐशान्याद्यास्तु या रेखा सा तु शक्तिर्निगद्यते ।

नैर्ऋत्यां वायवीं याता ततो ह्यैशान्यगा तु या ।। ६० ।।

सा तु शम्भुः समाख्याता शक्त्या शम्भुं विभेदयेत् ।

ऐशान्य से जो रेखा प्रारम्भ होती है, उसे शक्ति कहते हैं। नैर्ऋत्य से वायव्य तथा पुनः ऐशान्य को जाने वाली रेखा शम्भु कही जाती है। शक्ति रेखा शम्भु को काटती है ॥ ६० ॥

शक्त्या विभिन्नं भूतेशं वेष्टयेत् कमलेन तु ।।६१ ।।

अष्टपत्रेण तां ध्यात्वा त्रिवर्णां प्राक् प्रपूजयेत् ।

त्रिभिस्त्रिभिस्तु रेखाभिः शक्तिं शम्भुं च वेष्टयेत् ।। ६२।।

शक्ति से विभिन्न शिव को अष्टदलकमल से घेर देना चाहिये। उन महाशक्ति का ध्यान करते हुये पहले तीन अक्षरों वाली त्रिपुरा का पूजन करे। तीन-तीन रेखाओं से शम्भु और शक्ति दोनों को ही घेर दे ।। ६१-६२ ।

स्थानस्याभ्युक्षणं सम्यक् मार्जनं लिखनं तथा ।

अस्रमन्त्रप्रयोगाणां भूतानामपसारणम् ।। ६३ ।।

वैष्णवीतन्त्रमन्त्रोक्तं तथैवोत्तरतन्त्रके ।

यत् प्रोक्तं तत् तु सामान्यं प्राक् कुर्यात् साधको नरः ।। ६४ ।।

स्थान का अभ्युक्षण, मार्जन, मन्त्रलेखन, अस्त्र-मन्त्र का प्रयोग, भूतों का अपसारण आदि कार्य, पहले बताये हुए वैष्णवीतन्त्र तथा उत्तरतन्त्र में जैसा बताया गया है, सामान्यतः वैसा ही पहले साधकपुरुष करे ।। ६३-६४।।

त्रिपुराया विशेषेण सहितं पूजनक्रमम् ।

एतत् त्रिकोणं देवानां त्रयाणां स्थानमिष्यते ।। ६५ ।।

ऐशान्यां तु महादेवो नैर्ऋत्यां तु चतुर्भुजः ।

वायव्यां तु यथा ब्रह्मा षट्कोणेषु प्रकीर्तिताः ।। ६६।।

अब त्रिपुरा के विशेष पूजन का क्रम इस प्रकार हैं- यह पूर्ववर्णित त्रिकोण, ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों देवताओं का नियत स्थान है । ऐशान्य में शिव, नैर्ऋत्य में विष्णु तथा वायव्य में ब्रह्मा इसी प्रकार छ: कोणों में तीनो देवताओं की स्थिति कही गई है । ६५-६६ ॥

दलं त्वेकपुरं प्रोक्तं केशरं चापरं पुरम् ।

पुरं शेषं त्रिकोणं तु त्रिकोणं मण्डलं स्मृतम् ।। ६७।।

दलेषु केशरे चापि त्रिकोणे च त्रिधा त्रिधा ।

रेखास्तु विहिताः सम्यक् कुर्यात् तत्र पुनः पुनः ।। ६८।।

इसमें दल को एक पुर, केशर को दूसरा तथा त्रिकोण को तीसरा पुर समझना चाहिये । त्रिकोण ही मण्डल कहा गया है। दल, केशर, त्रिकोण रूपी तीनों पुरों में तीन- तीन रेखायें बताई गई हैं। जिन्हें बार-बार भली भाँति बनाना चाहिये ।। ६७-६८।।

उत्तरं तद् भवेद् द्वारं तस्य वै धनुराकृतिः ।

पूर्वद्वारं तु षट्कोणं चतुष्कोणं तु दक्षिणे ।।६९।।

पश्चिमं तोरणाकारं यथा चान्यत्र मण्डले ।

ऐशान्यां पञ्चबाणांस्तु लिखेद् वह्नौ च तद्धनुः ।। ७० ।।

नैर्ऋत्यां पुस्तकं चापि वायव्यामक्षमालिकाम् ।

एवं कृत्वा मण्डलं तु धृत्वा वामेन पाणिना ।। ७१ ।।

इस मण्डल के उत्तरीभाग में जो द्वार हो उसका आकार धनुष के आकार का, पूर्व का द्वार षट्कोण, दक्षिण का द्वार चतुष्कोण, पश्चिम का द्वार तोरणाकार होना चाहिये जैसा कि अन्यत्र बताया गया है। ईशानकोंण में कामदेव, अग्निकोण में उनके धनुष, नैर्ऋत्य कोण में पुस्तक और वायव्य में अक्षमालिका बनाये ।। ६९-७१ ॥

वाग्वेश्मने नमः इति मण्डलं पूजयेत् ततः ।

पूजयित्वा ततो भूताम् कालिकात्रितयेन तु ।। ७२ ।।

मूलमन्त्रेण पूर्वोक्तैर्मन्त्रैरपि समाचरेत् ।

नवभिश्छोटिकाभिस्तु त्रिधा कृत्वा तु वेष्टनम् ।। ७३ ।।

तब वाग्वेश्मने नमः इस मन्त्र से मण्डलपूजन करके तीन कालिका (क्री क्रीं, क्रीं) या मूलमन्त्र अथवा पूर्वोक्ततन्त्रों में बताये गये मन्त्रों से पूजन करे । नव छोटिकाओं (चुटकियों) से तीन बार घेरा करे ।। ७२-७३।।

अभ्युक्षणं ततः कुर्याद् भूतानामपसारणम् ।

प्रतिपत्तिस्तु पात्रस्य अर्ध्यार्थं नवधा पुनः ॥७४॥

तब साधक अभ्युक्षण, भूतों का अपसारण एवं अर्घ्य हेतु नव प्रकार के पात्रों की स्थापना करे ॥७४ ॥

पूर्ववत् साधकः कुर्याद् दहनं प्लवनं तथा ।

अमृतीकरणं कुर्यात् प्रथमं धेनुमुद्रया ।

योनिमुद्रां ततः कुर्यात् पात्रतोयं तु त्रिः स्पृशेत् ।। ७५ ।।

साधक, धेनुमुद्रा से दहन, प्लवन तथा अमृतीकरण करे। तत्पश्चात् योनिमुद्रा से पात्र स्थित जल का तीन बार स्पर्श करे ।। ७५ ।।

मार्तण्ड भैरवायार्घ्यं दूर्वाभिः सिद्धसर्षपैः ।

रक्तपुष्पैश्चन्दनैश्च सगणाय निवेदयेत् ।।७६।।

तब मार्तण्डभैरव (सूर्य) को गणों के सहित, सिद्धसर्षप (पीली सरसों), लाल चन्दन एवं पुष्प से युक्त अर्घ्य, निवेदन करे ॥ ७६ ॥

पाणिकच्छपिकां कृत्वा चिन्तनं योनिमुद्रया ।

आदौ मध्ये च कर्तव्यं क्रमाद् वेतालभैरव ।। ७७ ।।

हे वेताल और भैरव ! क्रमशः पूजन के आदि, मध्य और अन्त में पाणिकच्छप (कूर्म) मुद्रा और योनिमुद्रा द्वारा तीन बार ध्यान करना चाहिये ॥७७ ॥

अस्त्रमन्त्रेण पात्रस्य स्थापनार्थं तु मण्डलम् ।

षट्कोण तु लिखेत्पूर्वं तन्मन्त्रस्थापनेऽपि च ।। ७८ ।।

ऐं आँ क्लीमिति मन्त्रेण त्रिधा पात्रे जलं क्षिपेत् ।

त्रिधा गन्धं च पुष्पं च त्रिधा दूर्वाक्षतं पुनः ।। ७९ ।।

पात्र के स्थापन के लिए अस्त्रमन्त्र से षट्कोणमण्डल बनाये । उस मन्त्र की स्थापना के लिए ऐं आँ क्लीं इन मन्त्रों से तीन बार पात्र में जल, गन्ध, पुष्प, दूब, अक्षत आदि छोड़े ।। ७८-७९ ।।

ह्राँ ह्रीं ह्रूँ ह्रैं ह्रौंमिति च अङ्गुष्ठादि क्रमान्यसेत् ।

ॐ ह्र इत्यस्त्रमन्त्रेण पाणिपृष्ठतले तथा ।। ८० ।।

ॐ ह्राँ, ह्रीं ह्रूँ ह्रैं ह्रौं इन मन्त्रों से अङ्गुष्ठा से प्रारम्भ कर ॐ, ह्र: इस मन्त्र से पाणिपृष्ठतल (हाथ के पिछले भाग) में न्यास करना चाहिये ॥८०॥

हृदयादिक्रमात् पश्चान्यासं कुर्यात् त्रिधा त्रिधा ।

संयोज्य पाणयोः क्रमतश्चाङ्गुष्ठादि द्वयं द्वयम् ।।८१ ।।

तब तीन-तीन अंगुलियों के स्पर्श से हृदयादि क्रम से अङ्गन्यास करे तथा दो-दो के स्पर्श से अंगुष्ठादिक्रम में करन्यास करे ॥ ८१ ॥

त्रिधा त्रिघा पृथक् कुर्याच्छेषाङ्गानि च विन्यसेत् ।। ८२ ।।

कर्णरन्ध्रे तथा ब्रह्मद्वारं केशतलं तथा ।

नासिकारन्ध्रयुगलं जानुयुग्मं पदद्वयम् ।।८३ ॥

शेष अङ्गों का अलग तीन अंगुलियों से न्यास करना चाहिये । कान के छिद्र, ब्रह्मद्वार (सिर), केशतल (ललाट), नासिका के दोनों छिद्र, दोनों घुटने, दोनों पैर में भी न्यास करे ।। ८२-८३॥

त्रिधा त्रिधा न्यसेदेभिः षड्भिर्मन्त्रैः पृथक् पृथक् ।

प्राणायामं ततः कुर्यात् पूरकैः स्तम्भकैस्तथा ।

रेचकेनापि त्रिपुरामूर्तिं देवीं विचिन्तयेत् ।। ८४ । ।

तीन-तीन से अलग-अलग छः मन्त्रों से न्यास आदि करने के पश्चात् पूरक, स्तम्भक तथा रेचक प्राणायाम करते हुये, त्रिपुरारूपवाली देवी का चिन्तन करे ॥ ८४॥

दहनप्लवनं कृत्वा आद्यां मूर्तिं विचिन्तयेत् ।

त्रिधावृत्याथ हृदये तां मूर्तिं शृणु भैरव ।। ८५ ।।

दहन, प्लवन करने के पश्चात् आद्या के स्वरूप का चिन्तन, हृदय मध्य में तीनबार करे । अब हे भैरव ! तुम उस मूर्ति के विषय में सुनो ॥ ८५ ॥

कालिका पुराण अध्याय ६३- त्रिपुरा ध्यान 

सिन्दूरपुञ्जसंकाशां त्रिनेत्रां तु चतुर्भुजाम् ।। ८६ ।।

वामोर्ध्वे पुष्पकोदण्डं धृत्वाधः पुस्तकं तथा ।

दक्षिणोर्ध्वे पञ्चबाणानक्षमालां दधात्यधः ।। ८७ ।।

वे देवी सिन्दूरराशि के समान आभावाली, तीन नेत्रों से युक्त, बाईं ओर के ऊपरी हाथ में पुष्पधनुष, निचले हाथ में पुस्तक, दाहिनी ओर के ऊपरी हाथ में पाँचबाण और निचले में अक्षमाला धारण की हुई, अपनी चार भुजाओं से सुशोभित हैं ।।८६-८७ ।।

चतुर्णां कुणपानां तु पृष्ठेऽन्यं कुणपान्तरम् ।

निधाय तस्य पृष्ठे तु समपादेन संस्थिताम् ।। ८८ ।।

वे चार शवों की पीठ पर स्थित, पाँचवें शव की पीठ पर सम आसन से विराजमान हैं ॥८८॥

जटाजूटार्धचन्द्रेण समाबद्धशिरोधराम् ।

नग्नां त्रिवलिभेदेन चारुमध्यां मनोहराम् ।।८९।।

जिनका शिरोभाग जटाजूट और अर्धचन्द्र से भली-भाँति बँधा है। जो नग्न- शरीर और त्रिवली के कारण सुन्दर मध्य भाग (कटिप्रदेश) वाली सुन्दरी हैं ॥ ८९ ॥

सर्वालङ्कारसम्पूर्णां सर्वाङ्गसुन्दरीं शुभाम् ।

स्रवद्द्रविणसन्दोहां सर्वलक्षणसंयुताम् ।। ९० ।।

वे सब प्रकार के अलङ्कारों से परिपूर्ण हैं, सभी अङ्गों से सुन्दरी, शुभ लक्षणों से युक्त, झरते हुए धन की राशि हैं। वे सभी लक्षणों से युक्त हैं ॥ ९० ॥

एनां तु प्रथमं ध्यात्वा त्रिधात्मानं तु चिन्तयेत् ।

तद्रूपं च ततः पश्चात् पुष्पं तद्वाग्भवेन तु ।। ९१ ।।

स्वमस्तके पुनर्दद्यादङ्गन्यासं पुनस्तथा ।

मन्त्रद्वयं त्रिधा जप्त्वा वाग्भवाद्यं तु साधकः ।। ९२ ।।

सर्वप्रथम इस त्रिपुरा का ध्यान करने के पश्चात्, तीन रूपों में अपना ध्यान उसी के रूप में करे । तत्पश्चात् वाग्भव (ऐ) बीज से अपने मस्तक पर पुष्प चढ़ाये और साधक अङ्गन्यास, वाग्भव से प्रारम्भ दो-दो मन्त्रों का तीन बार जप कर करे ।। ९१-९२ ॥

अर्घ्यपात्रस्य तोयेषु तैस्तोयैः सेचयेच्छिरः ।

पूजोपकरणं चापि त्रिरभ्युक्ष्य तथैव तु ।। ९३ ।।

अर्धपात्र के जल में भी न्यास करे और उसी जल से साधक अपने सिर का सिञ्चन तथा पूजा के उपकरणों का तीन बार अभ्युक्षण करे ।। ९३ ।।

कामपीठं ततो ध्यात्वा पूजयेत् क्रमतस्त्विमान् ।

गणेशं च गणाध्यक्षं गणनाथं तथैव च ।। ९४ । ।

गणक्रीडं च पूर्वादिद्वारे मन्त्रेण पूजयेत् ।

हैरम्बबीजमेतेषां मन्त्रस्तु परिकीर्तितः ।। ९५ ।।

तब कामपीठ का ध्यान करके, क्रमशः गणेश का पूर्व में, गणाध्यक्ष का दक्षिण में, गणनाथ का पश्चिम में तथा गणक्रीड का उत्तर में, द्वारदेश में पूजन करे । इन सब के पूजन के लिए हेरम्बबीज-मन्त्र बताया गया है ।। ९५ ।।

विद्याशान्तिनिवृत्तिश्च प्रतिष्ठा द्वारपालकाः ।

कलान्ताः पूजयेत् सम्यक् पूर्वादिक्रमतस्तथा ।। ९६ ।।

विद्या, शान्ति, निवृत्ति और प्रतिष्ठा नामक द्वारपालों का नाम के अन्त में कला शब्द जोड़कर पूर्व आदि द्वारों पर भली-भाँति पूजन करे ॥९६ ॥

सिद्धपुत्रं ज्ञानपुत्रं तथा सहजपुत्रकम् ।

शेषं समयपुत्रं तु पूजयेद् बटुकानिमान् ।। ९७ ।।

तब सिद्धपुत्र, ज्ञानपुत्र, सहजपुत्र अन्तिम समयपुत्र, इन बटुकों का भी क्रमशः पूजन करे ।। ९७ ।।

प्रत्येकं तु श्रियं देवीं बटुकानां परे वरे ।

श्रीमित्यनेन मन्त्रेण पूर्वादौ पूजयेत् क्रमात् ।। ९८ । ।

प्रत्येक बटुक के पहले श्री तथा पश्चात् में देवी लगाकर सब से पहले श्रीं-बीज के साथ पूर्व-आदि क्रम से बटुकों का पूजन करे ॥९८॥

सिद्धस्य सहजस्याथ ज्ञानस्य समयस्य च ।

कुमारी पूजयेत् कोणे ऐशान्यादौ तु मण्डले ।। ९९ ।।

मण्डल के ऐशान्य आदिकोणों में सिद्धा, सहजा, ज्ञाना, समया नामक बटुकों की कुमारियों का क्रमशः पूजन करे ।।९९।।

गोरटं डामरं चैव लोहजङ्गं तथैव च ।

भूतनाथं क्षेत्रपालमीशानादौ प्रपूजयेत् ।। १०० ।।

गोरट, डामर, लोहजंघ, भूतनाथ, इन क्षेत्रपालों का मण्डल के ईशानादि कोणो में पूजन करे ॥ १०० ॥

मण्डलस्य च मध्ये तु पञ्चबाणान् प्रपूजयेत् ।

द्रावणं शोषणं चैव बन्धनं मोहनं तथा ।

आकर्षणं च मध्येन मन्त्रेणैव प्रपूजयेत् ।। १०१ ।।

मण्डल के मध्य में कामदेव के पञ्चबाण-द्रावण, शोषण, बन्धन, मोहन और आकर्षण का मध्यमन्त्र (क्लीं) से भलीभाँति पूजन करे ॥ १०१ ॥

ततस्त्रिष्वथ कोणेषु पूजयेत् तु त्रियोगिनीः ।। १०२ ।।

भगं च भगजिह्वां च भगास्यामुत्तरादिकम् ।

क्रमात्तु पूज्यास्तिस्रोऽन्या अन्या मध्ये त्रिकोणके ।।१०३।।

तब तीनों कोणों में तीन योगिनियों, भग, भगजिह्वा और भगास्या का उत्तर आदि दिशाओं में पूजन करे। इसी प्रकार अन्य तीन योगिनियों का त्रिकोण के मध्य में क्रमश: पूजन करे ।। १०२-१०३।।

भगमालिनीं तु प्रथमे द्वितीये तु भगोदरीम् ।

तृतीये भगारोहां तु योगिनीं कामरूपिणीम् ।। १०४ ।।

पहले में भगमालिनी, दूसरे में भगोदरी, तीसरे में भगारोहा नाम वाली कामरूपिणी योगिनियों का पूजन करे ।।१०४।।

अनङ्गकुसुमां देवीं तथैवानङ्गमेखलाम् ।

अनङ्गमदनां चैव ह्यनङ्गमदनातुराम् ।। १०५ ।।

अनङ्गवेशां चानङ्गमालिनीं मदनातुराम् ।

दलकेशरमध्ये तु ह्यष्टमीं मदनांकुशाम् ।। १०६ ।।

शैलपुत्र्यादयश्चाष्टौ त्रिपुरापूजनक्रमे ।

एतन्नामभिरव्यग्रा बभूवुः कामयोगिनीः ।। १०७ ।।

अनङ्गकुसुमा, अनङ्गमेखला, अनङ्गमदना, अनङ्गमदनातुरा, अनङ्गवेशा, अनङ्गमालिनी, मदनातुरा और आठवीं मदनांकुशा तथा त्रिपुरापूजन क्रम में वर्णित शैलपुत्री आदि योगिनियों का अष्टदलकमल के आठ दलों में पूजन करना चाहिये । इन नामों से अव्यग्ररूप से कामयोगिनियाँ बताई गई हैं ।। १०५-१०७॥

वाग्भवेन तथा दुर्गां नेत्रबीजान्तकेन तु ।

अङ्गन्यासं समन्त्रैस्तु षड्भिरष्टाविमान् पुनः ।। १०८ ।।

पूजयेत् क्षेत्रपालांस्तु मध्ये किञ्जल्कपत्रयोः ।

हेतुकं त्रिपुरघ्नं च अग्निजिह्वं तथैव च ।। १०९ ।।

अग्निवेतालसंज्ञं च कालं चाथ करालकम् ।

एकपादं भीमनाथमुत्तरादिक्रमेण तु ।

एभिरेवष्टभिर्मन्त्रैः कामराजेन संयुतैः ।। ११० ।।

वाग्भव से अन्तिम नेत्रबीज ह्रीं से दुर्गा के छः मन्त्रों से अङ्गन्यास करे तत्पश्चात् कमल पत्रों के मध्य में हेतुक, त्रिपुरघ्न, अग्निजिह्व, अग्निवेताल, काल, करालक, एकपाद, भीमनाथ नामक आठ क्षेत्रपालों का कामराज (क्लीं) सहित इन आठ मन्त्रों से, उत्तर से प्रारम्भ कर क्रमश: पूजन करे ।।१०८- ११० ॥

नवैतानसिताङ्गादीन् नायकान् पूजयेत् क्रमात् ।। १११ ।।

मण्डलस्य चतुर्दिक्षु द्वौ द्वौ पूर्वादिषु क्रमात् ।

पद्ममण्डलयोर्मध्ये शेषमेकं तु पूजयेत् ।। ११२ ।।

मण्डल के पूर्व आदि चारों दिशाओं में असिताङ्गादि नौ नायकों में क्रमश: दो-दो का और अन्तिम एक का पद्म एवं मण्डल के मध्य में पूजन करे ।। १११-११२ ॥

असिताङ्गो रुरुश्चण्डः क्रोधोन्मत्तौ भयङ्करः ।

कपाली भीषणश्चैव संहारश्चेति वै नव ।। ११३ ।।

असिताङ्ग, रुरु, चण्ड, क्रोध, उन्मत्त, भयंकर, कपाली, भीषण और संहार ये नौ भैरव कहे गये हैं ॥ ११३ ॥

ऐशान्यादिक्रमाद् द्वे द्वे नायिकां पूजयेन्नरः ।

पद्ममण्डलयोर्मध्ये अग्नौ द्वे च प्रपूजयेत् ।। ११४।।

ब्रह्माणीं भैरवीं चैव तथा माहेश्वरीमपि ।

कौमारी वैष्णवीं चैव नारसिंहीं तथैव च ।। ११५ । ।

वाराहीं च तथेन्द्राणीं चामुण्डां चण्डिकां यथा ।

आधारशक्तिप्रभृतीन् मण्डलस्य तु मध्यतः ।। ११६ ।।

ऐशान्य आदि के क्रम से दो-दो नायिकाओं का साधक पूजन करे तथा पद्म और मण्डल के बीच अग्रिकोण में दो अन्य का, इस प्रकार ब्रह्माणी, भैरवी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, नारसिंही, वाराही, इन्द्राणी, चामुण्डा और चण्डिका इन दशों नायिकाओं का क्रमशः तथा आधारशक्ति आदि का मण्डल के मध्यभाग में पूजन करे ।। ११४ - ११६ ॥

वैष्णवी तन्त्रकल्पोक्तान् सर्वान् भैरव पूजयेत् ।

शिवस्य पञ्च याः प्रोक्ताः सद्योजातादयः पुरा ।। ११७ ।।

मूर्तयस्ताः पद्ममध्ये पञ्चप्रेतत्वमागताः ।

ताः पञ्च पूजयेन्मध्ये रक्तपद्मं शवं तथा ।

सिहं च पूजयेत् तत्र जगदाधारसंज्ञितम् ।। ११८ ।।

वैष्णवीतन्त्रकल्प में बताये गये सभी भैरवों का और सद्योजात आदि शिव की जो पाँच मूर्तियाँ बताई गई हैं, वेदी के मध्य में पञ्चप्रेतत्व को प्राप्त हैं, `उनका पद्म के मध्य में पूजन करे । मण्डल के मध्य में ही रक्तकमल, शव, सिंह और जगदाधार नामक आसनों का पूजन भी करे । ११७-११८ ॥

जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनीम् ।

दुर्गा क्षमां शिवां धात्री स्वधां स्वाहां च पूजयेत् ।। ११९ । ।

वहीं जयन्ती, मङ्गला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वधा और स्वाहा का भी पूजन करे ॥११९ ॥

उग्रचण्डा प्रचण्डा च चण्डोग्रा चण्डनायिका ।। १२० ।।

चण्डा चण्डवती चैव चण्डरूपातिचण्डिका ।

एताः सम्पूजयेन्मध्ये मण्डलस्य विशेषतः ।। १२१ ।।

मण्डल के मध्य में, विशेष करके उग्रचण्डा, प्रचण्डा, चण्डोग्रा, चण्डनायिका, चण्डा, चण्डवती, चण्डरूपा, अतिचण्डिका का पूजन करे ॥ १२०-१२१ ॥

आदित्यादीन् ग्रहान् सर्वान् रूपतो ह्यस्त्रसंयुतान् ।

क्रमात् प्रत्येकमुद्दिश्य पार्श्वे पार्श्वे प्रपूजयेत् ।। १२२ ॥

आदित्यादि सभी ग्रहों का उनके रूप और अस्त्रों के सहित क्रमशः एक-एक को लक्ष्य कर मण्डल के पार्श्वभाग में, पूजन करे ॥ १२२ ॥

दिक्पालानां तु मन्त्रेण तथा सर्वांस्तु दिक्पतीन् ।

अस्त्रमन्त्रैस्तु तान् सर्वांस्तेषां मन्त्रैस्तु भैरव ।। १२३ ।।

भैरव ! दिक्पालों के मन्त्र से सभी दिग्पतियों का तथा नामित देवताओं का अस्त्रमन्त्रों एवं उनके नाममन्त्रों से पूजन करना चाहिये ॥ १२३ ॥

नाथं कामेश्वरं तत्र एकवक्त्रं चतुर्भुजम् ।

भस्मश्वेतं मध्यहृदि रक्तपुष्पैस्तु कुङ्कुमैः ।। १२४।।

त्रिशूलं च पिनाकं च वामहस्तद्वये स्थितम् ।

उत्पलं बीजपूरं च दक्षिणद्वितये तथा ।। १२५ ।।

श्वेतपद्मोपरिस्थं च ध्यात्वा मध्ये प्रपूजयेत् ।

कामाख्यां मूर्तितो ध्यात्वा कामाख्यामपि पूजयेत् ।। १२६ । ।

वहीं मण्डल के मध्य में एक मुहँवाले, चार भुजाओं से युक्त, भस्म के समान श्वेतवर्ण के कामेश्वर, जो अपने बाईं ओर के दोनों हाथों में त्रिशूल और पिनाक धनुष, दक्षिण के दोनों हाथों में नीलकमल और बीजपूर धारणकर, श्वेतकमल पर स्थित हैं । इस प्रकार से उनका हृदय के मध्य में ध्यान कर, रक्तपुष्प और कुङ्कुम से पूजन करे। साथ ही कामाख्या मूर्ति का ध्यान कर, कामाख्या का भी पूजन करे ।। १२४-१२६ ।।

कामेश्वरीं तत्र देवीं पूजयेत् परमेश्वरीम् ।

वक्ष्यमाणेन रूपेण तत्र वेतालभैरवौ ।। १२७ ।।

हे वेताल और भैरव ! पहले बताये गये रूप के अनुसार वहीं परमेश्वरी कामेश्वरी का पूजन करे ॥ १२७॥

करालं क्षेत्रपालं च कर्त्रिखर्परधारिणम् ।

पूजयेदीशमत्यर्थं दंष्ट्राभिन्नाधरं भयम् ।। १२८ ।।

क्षेत्रपाल कराल का जो कैंची और खप्पर धारण किये हुए हैं और दाँत से ओंठ काटते हुए, भयंकर किन्तु शिव के अत्यन्तप्रिय हैं, उनका पूजन करे ॥ १२८ ॥

तिन्तिडी कल्पवृक्षं च सुच्छायं रत्नभूषितम् ।

त्रिकूटं कृष्णवर्णं च नीलशैलं महाद्युतिम् ।। १२९ । ।

मनोभवां गुहां तत्र पञ्चव्यामायतां शुभाम् ।

रत्नमण्डलसंयुक्तां रक्तवर्णां सुवर्त्तुलाम् ।। १३० ।।

सुखप्रद छाया वाले रत्नों से सुशोभित कल्पवृक्षरूपी तिन्तिडी का काले रंग के महान् द्युतिवाले त्रिकूट, नीलपर्वत, पाँच व्याम (परोसा) विस्तृत, रत्नमण्डल से संयुक्त, लाल रंग की सुन्दर, घुमावदार, मनोभवागुफा का भी वहीं पूजन करे ।। १२९-१३०॥

अपराजितां च वल्लीं च व्यामत्रयसुविस्तृताम् ।

आरक्तवर्णां सततं कुसुमैरुपशोभिताम् ।। १३१ ।।

तीनव्याम तक विस्तृत, लालरंग की, पुष्पों से निरन्तर सुशोभित, अपराजितावल्ली का भी वहीं पूजन करे॥१३१॥

बटुकं कम्बलाख्यं तु स्वर्णगौरं गजासनम् ।

द्विभुजं दक्षिणे दण्डपाणिं वामे कपालकम् ।

बिभ्रतं पुरतो देव्याः पूज्यो विघ्नविपत्तये ।। १३२।। 

विघ्नों पर विपत्ति हेतु, दाहिने हाथ में दण्ड और बायें हाथ में कपाल धारण किये हुए, दो भुजाओं वाले, हाथी पर विराजमान, सुनहले गौरवर्ण के, देवी के आगे स्थित, कम्बल नामक बटुक का पूजन करना चाहिये ॥ १३२ ॥

भैरवः पाण्डुनाथश्च रक्तगौरश्चतुर्भुजः ।। १३३ ।।

गदां पद्मं च शक्तिं च चक्रं चापि करेषु च ।

बिभ्रद् देव्याः पुरोभागे पूज्योऽयं विष्णुरूपधृक् ।। १३४।।

लाल गौरवर्णवाले, अपनी चारो भुजाओं में गदा, पद्म, शक्ति और चक्र धारण किये हुए, विष्णुरूपधारी, पाण्डुनाथ नामक भैरव का देवी के अगलेभाग में पूजन करना चाहिये ।। १३३-१३४।।

श्मशानं हेरुकाख्यं च रक्तवर्णं भयङ्करम् ।

असिचर्मधरं रौद्रं भुञ्जानं मनुजामिषम् ।। १३५ ।।

तिसृभिर्मुण्डमालाभिर्गलद्रक्ताभिराजितम् ।

अग्निनिर्दग्धविगलद्दन्तप्रेतोपरिस्थितम् ।

पूजयेच्चिन्तनेनैव शस्त्रवाहनभूषणम् ।। १३६ ।।

तब जो लालरंग के, भय उत्पन्न करने वाले, खड्ग और ढालधारी, भयानक, मनुष्य का मांस भोजन करते, बहते हुए रक्त से युक्त तीन मुण्डमालाओं से सुशोभित, आग से जले और टूटे हुए दाँत वाले प्रेत पर स्थित हैं, ऐसे शस्त्र, वाहन और आभूषण से युक्त रूप में हेरुक नामक श्मशान, ध्यान करते हुये साधक का पूजन करे ।। १३५-१३६॥

महोत्साहां योगिनीं तु महामायास्वरूपिणीम् ।

ध्यानतो रूपतस्तां तु देव्या अग्रे प्रपूजयेत् ।। १३७ ।।

महामाया के स्वरूपवाली महोत्साहा नाम की योगिनी का उसी (महामाया) के रूप में ही ध्यान करते हुए देवी के आगे पूजन करे।। १३७ ।।

पुरी चन्द्रवतीं देव्या नीलपर्वतपूर्वतः ।। १३८ । ।

योजनद्वयविस्तीर्णामर्धयोजनमायताम् I

उच्चैरनेकप्रासाद सौधसद्मविभूषिताम् ।। १३९ ।।

मणिरत्नसुवर्णौघजातप्रासादविस्तृतम् ।

क्रीडासरोवरैः सद्भिः सञ्छन्नां विकचैः कचैः ।

संयुतां पूजयेत् तत्र देव्या अग्रे समन्त्रकम् ।। १४० ।।

नीलपर्वत के पूर्व में दो योजन लम्बी और आधी योजन चौड़े अनेक ऊँचे मन्दिरों भवनों तथा आवासों से सुशोभित है। जिसमें मणिरत्न और सोने के समूह से बना हुआ एक विस्तृत महल है। जहाँ अच्छे जल और खिले हुए कमलों से युक्त क्रीडासरोवरों से युक्त, देवी की चन्द्रवती नाम की ऐसी पुरी का, वहीं देवी के अग्रभाग में मन्त्र के सहित पूजन करे ।। १३८ - १४० ।।

लौहित्यं रक्तगौराङ्गं नीलवस्त्रविभूषितम् ।। १४१ ।।

रत्नमालासमायुक्तं चतुर्बाहुसमन्वितम् ।

पुस्तकं श्वेतपद्मं च बिभ्रतं दक्षिणे करे ।। १४२ ।।

वामे शक्तिध्वजं चैव शिशुमारस्थितं शुभम् ।

पीठेश्वरानिमान् मध्ये मन्त्रैरेतैः प्रपूजयेत् ।। १४३ ।।

लाल गोराई के शरीर वाले, नीलवस्त्र धारण किये हुए, रत्नों की माला से युक्त, चार भुजाओं वाले, दाहिनी ओर के हाथों में पुस्तक और श्वेतकमल एवं बायीं ओर के हाथों में शक्ति और ध्वजा लिए हुए, शिशुमार पर स्थित, शुभ, लौहित्य (ब्रह्मपुत्र) का पूजन करे । इस प्रकार पीठ के इन स्वामियों का मण्डल के मध्य में, उनके मन्त्रों से पूजन करना चाहिये ॥१४१-१४३।

नाथं कामेश्वरं देवं प्रासादेन प्रपूजयेत् ।

कामेश्वर्यास्तु मन्त्रेण यजेत् कामेश्वरीं शुभाम् ।। १४४ ।।

देव कामेश्वरनाथ का प्रासादमन्त्र से पूजन करे और कामेश्वरी के मंत्र से शुभफलदायिनी कामेश्वरी देवी का पूजन करे ॥ १४४ ॥

द्वावुपान्तौ बलेनैव मदनान्ते च तत्क्रमात् ।

योजयेन्नादबिन्दुभ्यां मायाकरणमन्त्रकम् ।। १४५ ।।

क्रमशः बल (ब) और मदन (म) के अन्त में आने वाले वर्ण (भ) को उपान्त (ओ) स्वरों तथा नाद बिन्दु (चन्द्र बिन्दु) से युक्त कर लिखने से मायाकरणमन्त्र बनता है ।। १४५ ।।

चण्डिकानेत्रबीजस्य यच्छेषमक्षरं तु तत् ।

कल्पं तिन्तिडिकावृक्षमन्त्रमेतत् प्रकीर्तितम् ।। १४६ ।।

चण्डिका नेत्रबीज का अन्तिम अक्षर जो है उसी के रूप में तिन्तिडिका वृक्ष का यह मन्त्र भी बताया गया है ।। १४६ ॥

उग्राया मध्यबीजं तु नीलशैलस्य मन्त्रकम् ।

मनोभवस्य बीजं तु महादेवेन संहितम् ।। १४७।।

उग्रा का मध्यबीज ही नीलशैल का मंन्त्र है तथा मनोभव का बीज महादेव के समान है ॥ १४७॥

आदिस्थेनेन्दुना बिन्दुयुक्तं वान्तेन योजितम् ।

मनोभवगुहायां तु मन्त्रमेतत् प्रकीर्तितम् ।। १४८ ॥

आदि में स्थित चन्द्र-बिन्दु युक्त व के पश्चात् आनेवाला वर्ण श, अकार युक्त होने पर मनोभवगुहा का मन्त्र कहा गया है।। १४८।।

वैष्णवीतन्त्रमन्त्रस्य यच्छेषं बीजमस्वरम् ।

तदधो वान्तसंश्लिष्टं चतुर्थस्वरसंयुतम् ।

चन्द्रबिन्दुसमायुक्तं तन्मत्रञ्चापराजितम् ।। १४९।।

वैष्णवीतन्त्रमन्त्र का जो अन्तिमवर्ण है वही स्वर रहित, रूप में नीचे की ओर वान्त श् से मिलकर चतुर्थ स्वर, दीर्घ ईकार युक्त एवं चन्द्र-बिन्दु से भलीभाँति युक्त हो अपराजिता का मन्त्र बनता है ।।

हयग्रीवस्वरूपस्य विष्णोर्यद्वीजमुत्तमम् ।

कम्बलस्य तु तन्मन्त्रं पूजनं परिकीर्तितम् ।। १५० ।।

हयग्रीवरूपधारी विष्णु का जो उत्तमबीजमन्त्र है वही पूजन हेतु कम्बल का मन्त्र कहा गया है ।। १५० ।।

केवलः सप्ररोहादिषष्ठस्वरसमन्वितः ।

चन्द्रबिन्दुसमायुक्तं हयग्रीवस्य बीजकम् ।। १५१ ।।

केवल (ॐ), प्ररोह के सहित आदि (क) षष्ठ स्वर ऊ और चन्द्र बिन्दु से युक्त होकर ॐ लूँ ऐसा हयग्रीव का बीजमन्त्र बनता है ॥ १५१ ॥

भैरवं पाण्डुनाथं च वनमालिस्वरूपिणम् ।

वाराहेण तु बीजेन पूजयेत् तु विधानतः ।। १५२ ।।

पाण्डुनाथ भैरव वनमाला धारण किये हुये हैं इन का वाराह के बीजमन्त्र से विधिपूर्वक पूजन करना चाहिये ।। १५२ ।।

सपरौ द्वावनुस्वारविसर्गाभ्यां तु संयुतौ ।

महाभैरवमन्त्रेण भैरवान्तेन पूजयेत् ।। १५३।।

इसके पश्चात् आने वाला ह वर्ण क्रमश: अनुस्वार और विसर्ग से युक्त, भैरव ह के पश्चात् वर्ती वर्णयुक्त महाभैरवमंत्र क्ष से पूजन करे ।। १५३ ॥

महोत्साहां महामायां द्वितीयाष्टाक्षरेण तु ।

देवीतन्त्रोदितेनैव पूजयेद् भूतिवृद्धये ।। १५४ ।।

देवीतन्त्र में उद्धृत द्वितीय अष्टाक्षरमन्त्र से महोत्साहा- महामाया का ऐश्वर्य वृद्धिहेतु पूजन करे।। १५४।।

आद्याक्षरं तु सामीन्दुबिन्दुभ्यां समलङ्क्रतम् ।

स्वनाम्नश्चन्द्रवत्यास्तु पूजामन्त्रं प्रकीर्तितम् ।। १५५ ।।

आद्य अक्षर (ॐ) चन्द्रबिन्दु से भलीभाँति अलङ्कृत हो अपने नाम के सहित चन्द्रावती का पूजा मन्त्र कहा गया है ।। १५५ ।।

सर्वलक्षणसम्पूर्ण सर्वालङ्कारभूषितम् ।। १५६ ।।

लौहित्यनंदराजस्य ब्रह्मपुत्रस्य भूतिदम् ।

ब्रह्मबीजं तु मन्मन्त्रं वह्निभार्यान्तमिष्यते ।। १५७।।

वह्निभार्या (स्वाहा) से पूर्ण होने वाला मेरा और ब्रह्मा का बीजमन्त्र ही सभी लक्षणों से सम्पूर्ण तथा सभी अलङ्कारों से सुशोभित, नदों के राजा, लौहित्य, ब्रह्मपुत्र का ऐश्वर्यदायीमन्त्र कहा जाता है।।१५६-१५७॥

द्वितीयं त्रिपुरारूपं तथैव तु तृतीयकम् ।

आवाहनार्थं देव्यास्तु चिन्तयेद् योनिमुद्रया ।। १५८ ।।

त्रिपुरा के द्वितीय एवं तृतीय रूप का देवी के आवाहन हेतु, योनिमुद्रा सहित ध्यान करना चाहिये ।। १५८।।

बन्धूकपुष्पसङ्काशां जटाजूटेन्दुमण्डिताम् ।

सर्वलक्षणसम्पूर्णां सर्वालङ्कारभूषिताम् ।। १५९ ।।

वे (द्वितीय त्रिपुरा) बन्धूक, (गुड़हल) के पुष्प के समान रङ्गवाली, जटाजूट तथा चन्द्रमा से सुशोभित हैं। वे सभी लक्षणों से भली-भाँति पूर्ण, सब प्रकार के आभूषणों से सुशोभित हैं ।। १५९ ।।

उद्यद्रविप्रभां पद्मपर्यङ्केषु सुसंस्थिताम् ।

मुक्तारत्नावलीयुक्तां पीनोन्नतपयोधराम् ।। १६० ।।

वलीविभङ्गचतुरामासवामोदमोदिताम् ।

नेत्राह्लादकरी शुभ्रां क्षोभणीं जगतां तथा ।। १६१ ।।

उनके शरीर की कान्ति, उगते हुए सूर्य की प्रभा के समान है। वे कमल के पलंग पर सुव्यवस्थितरूप से स्थित हैं। उन्होंने मोती और रत्नों की माला धारण कर रखी है। उनके स्तन, उन्नत और पुष्ट हैं। वे चार वलियों में विभक्त है। वे आसव (मधु) पान के आनन्द में मग्न हैं। उनकी छवि, नेत्रों को आह्लादित करने वाली, शुभ्र तथा समस्त जगत को क्षुब्ध करने (प्रभावित करने वाली) है ।। १६० १६१ ।।

त्रिनेत्रां योनिमुद्रायामीषद्धाससमायुताम् ।

नवयौवनसम्पन्नां मृणालाभचतुर्भुजाम् ।। १६२ ।।

उनके तीन नेत्र हैं, वे योनिमुद्रा में थोड़ी मुसुकान से युक्त हो, स्थित हैं । वे नवयौवन से सम्पन्न, कमलनाल के समान आभावाली और चारभुजाओं से युक्त हैं॥ १६३॥

वामोर्ध्वे पुस्तकं धत्ते अक्षमालां तु दक्षिणे ।

वामेनाभयदां देवीं दक्षिणाधः वरप्रदाम् ।। १६३ ।।

वे ऊपरी बायें हाथ में पुस्तक तथा दाहिने हाथ में रुद्राक्षमाला धारण की हैं। बाएँ हाथ से अभय तथा निचले दाहिने हाथ से वरप्रदान कर रही हैं ।। १६३ ॥

स्रवद्रक्तौघसूर्याभां शिरोमालां तु बिभ्रतीम् ।

आपादलम्बिनीं कल्पद्रुममासाद्य संस्थिताम् ।। १६४ ।।

वे सूर्य के समान आभावाली, बहते रक्त से युक्त पैर तक लम्बी मुण्डमाला धारण कर, कल्पद्रुम के निकट स्थित हैं ।। १६४ ॥

कंदर्पोपवनान्तस्थां कामाह्लादकरीं शुभाम् ।

द्वितीयां त्रिपुरां ध्यायेदेवंरूपां मनोहराम् ।। १६५ ।।

उपर्युक्तरूप में कन्दर्प (काम) वन में स्थित, काम को आह्लादित करने वाली, शुभदा, सुन्दर, उन द्वितीय त्रिपुरा का ध्यान करना चाहिये ॥ १६५ ॥

कालिका पुराण अध्याय ६३- तृतीय त्रिपुराध्यान 

तृतीयां त्रिपुरारूपं शृणु वेतालभैरव ।

जपाकुसुमसङ्काशां मुक्तकेशीं शुभाननाम् ।। १६६।।

सदाशिवं हसन्तं तु प्रेतवद् विनिधाय वै ।

हृदये तस्य देवस्य ह्यर्द्धपद्मासनस्थिताम् ।। १६७ ।।

हे वेताल एवं भैरव ! अब तुम दोनों तृतीय त्रिपुरा के रूप के विषय में सुनो ।

वे अढ़उल के पुष्प के समान लालवर्ण की, खुले केशों और सुन्दर मुख वाली हैं। वे हसंते हुए सदाशिव को प्रेत की भाँति सुलाकर, उन देव के हृदय पर अर्धपद्मासनमुद्रा में स्थित हैं ।। १६६-१६७ ।।

रक्तोत्पलैर्मिश्रितां तु मुण्डमालां पदानुगाम् ।

ग्रीवायां धारयन्तीं तु पीनोन्नतपयोधराम् ।। १६८ ।।

वे गले में, लम्बाई में पैरों का अनुगमन करती, लाल कमलों से युक्त मुण्डमाला धारण की हुई हैं। उनके स्तन उठे हुए और पुष्ट हैं ।। १६८ ।।

चतुर्भुजां तथा नग्नां दक्षिणोर्ध्वऽक्षमालिनीम् ।

वरदां तदधो वामे जगन्मायां तथाभयाम् ।। १६९ ।।

अधस्तु पुस्तकं धत्ते त्रिनेत्रां हसिताननाम् ।

स्रवद्रुधिरभोगार्थं तथा सर्वाङ्गसुन्दरीम् ।

एवंविधं तृतीयं तु रूपं ध्यायेत् तु पूजकः ।। १७० ।।

वे जगन्माया, नग्न शरीर तथा चारभुजाओंवाली हैं। उन्होंने ऊपरी दाहिने में अक्षमाला, उसके नीचे वरदमुद्रा, बाँयी भुजाओं में अभय मुद्रा एवं पुस्तक धारण किया है। वे तीन नेत्रोंवाली व हँसते हुए मुखवाली, टपकते रक्तपान की लालसा वाली और सभी अङ्गों से सुन्दर हैं। साधक देवी के तृतीय रूप का इस प्रकार ध्यान करे ।। १६९-१७०॥

आद्यं तु वाग्भवं रूपं द्वितीयं कामराजकम् ।

डामरं मोहनं चापि तृतीयं परिकीर्तितम् ।। १७१ ।।

पहलारूप वाग्भव ऐं, द्वितीय कामराज क्लीं तथा तृतीय डामर और मोहन कहा जाता है ।। १७१ ॥

एकैकं तु त्रिरूपाणि प्राग्विचिन्त्यार्थसाधकः ।। १७२ ।।

मन्त्रत्रयेण प्रत्येकं हृदि षोडशकैस्तथा ।

पूजयेदुपचारैस्तु बहिर्यद्वत्तथैव च ।। १७३ ।।

एक-एक के तीन रूपों का पहले ही ध्यान करके, अर्थसिद्धि हेतु साधक को मन्त्रत्रय से, षोडशोपचारों से जैसे बाहर पूजा की जाती है, अपने हृदय में भी पूजन करना चाहिए ।। १७२-१७३॥

मन्त्रत्रयं कृत्वाचमनमूर्तयः ।

तथैकत्र कर्तव्या एकतस्तत्र मध्यरूपे निवेशयेत् ।। १७४।।

तीनों मन्त्रों और मूर्तियों को एक करके एक साथ उनका मध्यरूप में निवेश करना चाहिये ॥ १७४॥

नासापुटेन निःसार्य दक्षिणेनाथ तां पुनः ।

अवतार्य कराभ्यां तु देवीमावाहयेत् त्रिधा ।। १७५ ।।

तत्पश्चात् उसे नाक के दाहिने छिद्र से निकाल कर हाथों से अवतरण करके देवी का तीन बार आवाहन करना चाहिये ॥ १७५ ॥

गायत्रीत्रयमुच्चार्य स्नापयेत् प्रथमं तु ताम् ।

आवाहने तु मन्त्रोऽयं पठितव्यश्च साधकैः ।। १७६।।

साधक द्वारा तीन बार गायत्रीमन्त्र पढ़कर, सर्वप्रथम देवी को स्नान कराना चाहिये और देवी के आवाहन हेतु निम्नलिखित मन्त्र पढ़ना चाहिये ॥ १७६ ॥

एहि देवि शुभावर्ते यज्ञेऽस्मिन् मम सन्निधौ ।

अव्युच्छिन्नां ततः शुभ्रां वाचं कण्ठस्य देहि मे ।। १७७ ।।

एह्येहि भगवत्यम्ब त्रिपुरे कामदायिनि ।

इमं भागबलिं गृह्य सान्निध्यमिह कल्पय ।। १७८ ।।

मन्त्र- एहि-कल्पय। मन्त्रार्थ - हे कामनाओं के पूर्ति करने वाली माता, त्रिपुरा देवी, हे सुन्दर अलकोंवाली देवी, यज्ञ में आप मेरे समीप पधारें तथा कभी न रुकने वाली सुन्दर वाणी, मेरे कण्ठ में, प्रदान करें। आप मेरे पास पधार कर अपने अंश की बली और नैवेद्य को ग्रहण करें ।। १७७-१७८ ।।

नारायण्यै च विद्महे वाङ्मयायै च धीमहि ।

एवमुक्त्वा ततः पश्चात् तन्नो देवी प्रचोदयात् ।। १७९ ।।

नारायण्यै च विद्महे वाङ्मयायै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् । मैं नारायणी को जानता हूँ, वाङ्मया का ध्यान करता हूँ। वे देवी हमें प्रेरित करें ।। १७९ ।।

नारायण्यै विद्महे त्वां चण्डिकायै च धीमहि ।

शेषभागे प्रयुञ्जीत तन्नः कुब्जि प्रचोदयात् ।। १८० ।।

नारायण्यै विद्महे चण्डिकायै धीमहि तन्नः कुब्जिप्रचोदयात् । मैं आप नारायणी को जानता हूँ, चण्डिका का ध्यान करता हूँ, वे कुब्जी हमें प्रेरित करें ॥ १८०॥

महामायायै विद्महे त्वां सम्मोहिन्यै च धीमहि ।

पश्चादेवं प्रयुञ्जीत तन्नश्चण्डि प्रचोदयात् ।। १८१ ।।

महामायायै विद्महे सम्मोहिन्यै च धीमहि तन्नश्चण्डि प्रचोदयात् । मैं महामाया को जानता हूँ, सम्मोहिनी का ध्यान करता हूँ वे चण्डि हमें प्रेरित करें ।। १८१ ॥

एतास्तु त्रिपुरादेव्या गायत्र्यः परिकीर्तिताः ।

प्रत्येकं स्नापनं कुर्यात् त्रिपुराणां च तिसृभिः ।। १८२ ।।

ये तीनों त्रिपुरादेवी की गायत्रियाँ कहीं गई हैं। प्रत्येक से त्रिपुरा के एक-एक रूप को स्नान कराना चाहिये ।। १८२ ॥

वाग्भवेन तु मन्त्रेण प्रथमं पूजयेच्छिवाम् ।

कामराजेन वै पश्चाड्डामरेणापि पूजयेत् ।। १८३ ।।

सर्वप्रथम शिवा का वाग्भवमन्त्र (ऐं) से तब कामराजमन्त्र(क्लीं) से तत्पश्चात् डामरमन्त्र से पूजन करे ॥ १८३॥

पश्चादेनां त्रिभिर्मन्त्रैरेकत्रैव तु पूजयेत् ।

ततो मन्त्रेण वै दद्यादुपचारास्तु षोडश ।। १८४।।

अन्त में एक साथ तीनों मन्त्रों से इनका पूजन करे तथा मन्त्रोच्चारण के सहित पूजन के सोलहों उपचार समर्पित करे ।। १८४ ।।

कामाख्यातन्त्रगदितान् सम्पूज्याङ्गाक्षरान् पुनः ।

अङ्गन्यासस्य यन्मन्त्रैर्देव्या अङ्गानि पूजयेत् ।

शेषं तु मूलमन्त्रेण चाष्टाङ्गानां प्रपूजनम् ।। १८५ । ।

कामाख्यातन्त्र में सम्बन्धित अङ्गों और अक्षरों के जो मन्त्र बताये गये हैं उनसे देवी के अङ्गों का पूजन करे। शेष आठ अङ्गों का पूजन, मूलमन्त्र से करना चाहिये ।। १८५ ॥

एकैकं प्रक्रमं पूज्य त्रिपुरायै नमस्ततः ।

नवधा पूजयेद् देवीं त्रिपुरां कामरूपिणीम् ।। १८६ ।।

एक-एक प्रक्रम की पूजा करते हुए, अन्त में त्रिपुरायै नमः कहना चाहिये । इस प्रकार कामरूपधारिणी, त्रिपुरा देवी के नौ प्रक्रमों, आवरणों का पूजन करना चाहिये ॥ १८६॥

उत्तरादिचतुष्प पद्मस्यैतान् प्रपूजयेत् ।

ब्रह्माणं माधवं शम्भुं भास्करं च तथैव च ।। १८७ ।।

कमलपत्र के उत्तर आदि दिशाओं स्थित चारों दलों में क्रमश: इन ब्रह्मा, माधव (विष्णु), शम्भु (शिव) और भास्कर (सूर्य) का पूजन करना चाहिये ।। १८७॥

ऐशान्यादिषु तेष्वेवं क्रमाद् देवीः प्रपूजयेत् ।। १८८ ।।

जयन्तीं प्रथमं पश्चाद् वायव्यामपराजिताम् ।

नैर्ऋत्यां विजयां चैव तथाग्नेय्यां जयाह्वयाम् ।। १८९ ।।

ऐशान्यादि उपदिशाओं में स्थित अष्टदलकमल के पत्रों में क्रमशः इन देवियों का पूजन करना चाहिये। सर्वप्रथम जयन्ती का ऐशान्य में, तब अपराजिता का वायव्य में, विजया का नैर्ऋत्य में और जया नाम की देवी का अग्निकोण में पूजन करना चाहिये ।। १८८ - १८९ ।।

त्रिकोणे केशरस्यान्ते कामं प्रीतिं रतिं तथा ।

पूजयेत् पञ्चबाणांश्च पुष्पं चापं च पुस्तिकाम् ।। १९० ।।

अक्षमालां पञ्चशरान् रत्नपर्यंकमेव च ।

प्रेतपद्मशिवं चैव सम्यक् तत्रैव पूजयेत् । । १९१ ।।

त्रिकोण में केशर के अन्तर्गत काम, प्रीति, रति, पञ्चबाण, पुष्प-धनुष, पुस्तक, अक्षमाला, रत्नपर्यङ्क, प्रेत, कमल तथा शिव और पञ्चशवों का भी वहीं भली भाँति पूजन करे ॥। १९०-१९१ ॥

सम्पूज्य पूर्ववन्मालां स्फाटिकामेव भैरव ।

आदायाथोत्तरीयेण तामाच्छाद्य यत्नतः ।।१९२।।

पूर्वोद्धृतं जपेत् सम्यक् साधकस्त्रिपुंरामनुम् ।

जप्त्वा स्तुतिं पठित्वा च प्रणम्य च मुहुर्मुहुः ।। १९३ ।।

हे भैरव ! साधक पहले ही की भाँति स्फटिक की माला की पूजा करे, उसे हाथ में लेकर उत्तरीय (दुपट्टे) से प्रयत्न पूर्वक ढककर पहले बताये गये, त्रिपुरा के मन्त्र का भली-भाँति जप करे तथा जप समाप्त कर स्तुति पढ़ने के पश्चात् बार-बार प्रणाम करे ।। १९२-१९३॥

त्रिपुरायै बलिं दद्यात् सम्भवात् तत् त्रिजातिकम् ।

सफेनैस्तोयसंयुक्तैः शर्करामधुसैन्धवैः ।। १९४।।

अभ्युक्ष्य रुधिरं दद्यात् कामराजेन भैरव ।

छेदयेद् वाग्भवेनैव डामरैवितरेच्छिरः ।। १९५।।

हे भैरव ! तब साधक तीन जातियों में उत्पन्न पशु बलि त्रिपुरा को प्रदान करे । शर्करा, मधु और नमक मिश्रित फेनसहित जल से छिड़काव कर बलि पशु का रक्त, कामराजबीज (क्लीं) के उच्चारणपूर्वक देवी को अर्पित करे, ऐसा करते समय वाग्भवबीज से सिर काटे तथा डामर से उसे देवी को अर्पित करे ।। १९४-१९५ ।।

यत्र यत्र बलिं दद्यात् साधको देवतार्चने ।

वैष्णवीतन्त्रकल्पोक्तमादद्यात् पूजने बलिम् ।। १९६ ।।

साधक देव पूजन में जहाँ-जहाँ भी बलि प्रदान करे, वैष्णवीतन्त्रकल्प में वर्णित, बलि का ही पूजन में प्रयोग करे । १९६।।

ततो देव्यै बलीन् दद्यादेतद्वर्णक्रमात् पुनः ।

गोक्षीरं ब्राह्मणो दद्याद् गव्यमाज्यं तु राजजः ।

वैश्यस्तु माक्षिकं दद्याच्छूद्रः पुष्पासवादिकम् ।। १९७ ।।

तब देवी को अपने (साधक के) वर्णक्रम के अनुसार ब्राह्मण गाय का दूध, राजा या क्षत्रिय गोदधि, गोघृत, वैश्य माक्षिक (मधु) तथा शूद्र पुष्प एवं आसव आदि की भेंट चढ़ावे ।। १९७ ॥

घ्रात्वा पुष्पमथैशान्यां निर्माल्यं निक्षिपेद् बुधः ।

निर्माल्यधारिणी चास्या देवी त्रिपुरचण्डिका ।। १९८ ।।

अन्त में पुष्प को सूंघ कर विद्वान्साधक, निर्माल्य को ऐशान्यकोण में फेंक दे । इस देवी का निर्माल्य धारण करने वाली देवी त्रिपुरचण्डिका है ॥१९८॥

विसृज्यादौ योनिमुद्रां पद्ममुद्रां तथैव च ।। १९९ ।।

अर्धमुद्रां त्रिमुद्रां च प्रत्येकमपि दर्शयेत् ।

निर्माल्यमथ गृह्णीयात् कामराजाह्वयेन तु ।। २०० ।।

पहले विसर्जन कर देवी को योनिमुद्रा, पद्ममुद्रा तथा अर्धमुद्रा, ये तीन मुद्रायें एक-एक करके दिखाये, अन्त में कामराजमन्त्र से निर्माल्यग्रहण करे ।।१९९-२००॥

एवं यः पूजयेद् देवीं त्रिपुरां कामरूपिणीम् ।

स कामानखिलान् प्राप्य देवीलोकमवाप्नुयात् ।। २०१ ।।

इस प्रकार जो कामरूपिणीदेवी, त्रिपुरा का पूजन करता है, वह अपनी सभी कामनाओं को प्राप्त कर देवीलोक को प्राप्त करता है ॥ २०१ ॥

॥ इति श्रीकालिकापुराणे त्रिपुरापूजनविधिर्नाम त्रिषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६३ ॥

॥ श्रीकालिकापुराण में त्रिपुरापूजनविधि नामक तिरसठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।।६३ ॥

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 64

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