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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
तारा उपनिषद
तारोपनिषत् अथवा
तारोपनिषद अथवा तारा-उपनिषद अथर्ववेद के सौभाग्यकाण्ड में वर्णित है।
तारोपनिषत्
Tara upnishad
अथ तारोपनिषत्
।
ॐ तत्सत् ।
ब्रह्मतद्रूपं प्रकृतिपरं गगननाभं तत्परं
परमं
महत्सत्यं तदहं ह्रींकारं रक्तवर्णं नानाभिस्त्रीङ्कारं
पिङ्गलाभं हङ्कारं विशदाभं मद्-हृदयरूपं भूमण्डलं
फट्कारं
धूम्रवर्णं मद्खड्गमोङ्कारज्वलद्रूपं मन्मस्तकं
वेदा
मद्धस्ताश्चन्द्रार्कानला मन्नेत्रा दिवानक्तं मत्पादौ सन्ध्या मत्कर्णौ
संवत्सरो
मदुदरो मद्दष्ट्रा पङ्क्तौ मत्पार्श्वो
मत्पार्श्वै
वारर्तवो मदङ्गुल्यो
विद्या मन्नखाः पावको मन्मुखं मही मद्रसना
द्यौर्मन्मुखं गगनं मद्धृदयं भक्तिर्मम चर्मरसं मद्रधिरं
वाऽन्नं वासांसि
फलानि निरहङ्कारा अस्थीनि सुधामन्मज्जा स्थावराणि
मद्रोमाणि
पातालादिलोकौ मत्कुचौ ब्रह्मनादं मन्नाड्यं ज्ञानं मन्मनः
क्षमाबुद्धिः
शून्यं मदासनं नक्षत्राणि मद्भूषणानि ॥
'ॐ तत्सद्' यही ब्रह्म का स्वरूप है, जो प्रकृति से परे आकाश स्वरूप है,
वह परे से भी परे है, महत्सत्य है, वही मैं हूँ, ह्रींकार- स्वरूपा, नानाभिस्त्रींकार, पिङ्गल वर्णवाला हूँकार, स्वच्छवर्ण वाला मेरा हृदय, सारा भूमण्डल है, फट्कार धूम्रवर्ण वाला मेरा खड्ग है,
ॐकार से प्रज्वलित मेरा मस्तक है,
वेद हमारे हाथ हैं, सूर्य-चन्द्रमा और अग्नि ये मेरे तीन नेत्र हैं,
दिन-रात मेरे पैर हैं, सन्ध्या मेरे कान हैं, संवत्सर मेरा उदर और दाँत हैं,
पङ्क्ति मेरे पार्श्व हैं, वार, ऋतु मेरी अगुलियाँ हैं, अविद्या मेरे नख हैं, अग्नि मेरा मुख है, पृथ्वी मेरी जिह्वा है, द्यौलोक मेरा मुख है, आकाश मेरा हृदय है, भक्ति मेरी ढाल है, रस मेरा रुधिर है, अन्न मेरे वस्त्र हैं । फल मेरी अस्थियाँ हैं,
सुधा मेरी मज्जा है, स्थावर वृक्षादि मेरे रोम हैं,
पातालादि लोक मेरे कुचमण्डल हैं,
ब्रह्मनाद मेरी नाड़ियाँ हैं, ज्ञान मेरा मन है, क्षमा, बुद्धि और शून्य मेरा आसन है और नक्षत्र मेरे स्वरूप हैं ।
एतद्वैराटकं
मद्वपुः । मदुज्वलं सत्त्वं बिन्दुस्वरूपं
महा- कारस्वरूपज्ज्योतिर्मयं
विद्धि । शिरः- उग्रतारां महोग्रां नीलां
घनामेकजटां
महामायां प्रकृतिं मां विदित्वा यो जपति मद्रूपाणि
यो वेत्ति
मन्मन्त्रं यो जपति मद्रूपकल्पितां यो जपति मद्रूपाणि यो
वेत्ति मन्मन्त्रं यो जपति मद्रूपकल्पतां यो जपति भगं भजति
निर्विकल्पः
साधकः सदा मद्रूपो भवति ॥
यही मेरा
विराट स्वरूप है, सत्त्व ही मेरा जल है, बिन्दुस्वरूप महाकार स्वरूप, ज्योतिर्मय मेरा शिर है । उग्रतारा,
महोग्रा, नीला, धना, एकजटा, महामाया और प्रकृतिस्वरूपा मुझे जानकर,
जो मेरा जप करता है, मेरा रूप जानता है, मेरे मन्त्र का जप करता है, अथवा ऊपर के कल्पित रूप का ध्यान करता है,
उसे समस्त ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं और निर्विकल्प साधक तो
जप करने से मेरा स्वरूप ही हो जाता है।
सर्वाणि
कर्माणि साध्यानि (कृत्वा) निर्भयो भवति ।
गुरुन्नत्वा
स्तुत्वा वस्त्रभूषणानि दत्त्वा
इमानुपनिषद्विद्यां
प्राप्य मां यो जपति स जीवन्मुक्तो भवति ॥
गुरु को
नमस्कार कर, उनकी स्तुति कर, उन्हें वस्त्राभूषण प्रदानकर जो इस उपनिषद् विद्या को
प्राप्त करता है, तदनन्तर मेरा जप करता है, उसके सारे कर्म सिद्ध हो जाते हैं। वह निर्भय हो जाता है और
वह जीवन्मुक्त हो जाता है ।
इत्यथर्ववेदे
सौभाग्यकाण्डे तारोपनिषत्समाप्ता ॥
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