गीतगोविन्द सर्ग ६ धृष्ट वैकुण्ठ

गीतगोविन्द सर्ग ६ धृष्ट वैकुण्ठ

कवि श्रीजयदेवजीकृत गीतगोविन्द के सर्ग १, सर्ग २,  सर्ग ३सर्ग ४, तथा सर्ग को पिछले अंक में आपने पढ़ा । अब गीतगोविन्द सर्ग  जिसका नाम धृष्ट वैकुण्ठ है। साथ ही द्वादश सन्दर्भ अथवा अष्ट पदि १२ का वर्णन किया गया है।

गीतगोविन्द सर्ग ६ धृष्ट वैकुण्ठ

श्रीगीतगोविन्द छटवां सर्ग धृष्ट वैकुण्ठ

Shri Geet govinda sarga 6 Dhrishta vaikuntha

गीतगोविन्द सर्ग  धृष्ट- वैकुण्ठ

श्रीगीतगोविन्दम्‌ षष्ठः सर्गः धृष्ट- वैकुण्ठः

अथ षष्ठः सर्गः

'धृष्ट- वैकुण्ठः'

अथ तां गन्तुमशक्तां चिरमनुरक्तां लतागृहे दृष्ट्वा ।

तच्चरितं गोविन्दे मनसिजमन्दे सखी प्राह ॥ १ ॥

अन्वय- अथ (अनन्तरं) चिरम् अनुरक्तां (एकान्तानुरागिणीं) तां प्रियतम-वैकल्यश्रवणेन दशमीदशोन्मुखीमिव) राधां लतागृहे (कुञ्जे) [ अपेक्षमाणां] [तथा सामर्थ्याभावात् स्वयं] गन्तुमशक्तां दृष्ट्वा [अति व्याकुला] सखी (दूती) मनसिजमन्दे ( मनसिजेन प्रियार्त्तिश्रवणजात - मनोदुःखेन मन्दे निरुत्साहीकृते) गोविन्दे (कृष्ण) तच्चरितं (तस्याः राधायाः चरितं ) प्राह । अनेन राधाया वासकसज्जावस्था प्रकटिता । तल्लक्षणो यथा - "कुरुते मण्डनं यातुसज्जिते वास- वेश्मनि । सातु वासकसज्जा स्याद् विदित-प्रिय- सङ्गमा ॥इति साहित्यदर्पणे ] ॥ १ ॥

अनुवाद – श्रीकृष्ण के पास जाने में असमर्थ तथा चिरकाल से उनमें अनुरक्त श्रीराधा को लतागृह में देखकर मदन - विकार से आर्त गोविन्द से सखी ने कहा-

बालबोधिनी - श्रीराधा श्रीकृष्ण के प्रति प्रबल अनुरागिणी होने पर भी विरहवेदना जनित क्षीणता के कारण उनके सन्निकट अभिसार के लिए नहीं जा सकीं। प्रियसखी लतागृह में राधिका को इस स्थिति में रखकर श्रीकृष्ण के निकट जाकर उनकी चेष्टाओं का वर्णन करती है। श्रीकृष्ण मदन – सन्ताप के कारण विषण्ण चित्त से बैठे हुए हैं। अतएव उनकी गति मन्द पड़ गयी है। श्रीराधा श्रीगोविन्द में अनुरक्ता हैं। लतागृह से संकेत स्थल का तात्पर्य है।

प्रस्तुत श्लोक में आर्या छन्द है।

गीतगोविन्द सर्ग - धृष्ट- वैकुण्ठ अष्ट पदि १२  

द्वादश: सन्दर्भः ।

गीतम् ॥१२॥

गुणकरी रागेण रूपकतालेन गीयते ।

यह बारहवाँ प्रबन्ध गुणकरी राग तथा रूपक ताल द्वारा गाया जाता है।

पश्यति दिशि दिशि रहसि भवन्तम् ।

तदधर-मधुर-मधूनि पिवन्तम् ॥

नाथ हरे ! सीदति राधाऽऽवासगृहे ॥१ ॥ ध्रुवपदम्

अन्वय - [राधा] रहसि (एकान्ते) दिशि दिशि (प्रतिदिशं) तदधरमधुर-मधुनि (तस्याः एव राधायाः अधरस्य मधुराणि मधुनि) पिवन्तं भवन्तं पश्यति हे नाथ हरे, [त्वयि अनुरक्ततया सन्ताप एवानुभूतस्तया इति नाथशब्दः, त्वया च तस्या लज्जाधैर्यादि- हरणात् हरिशब्दोऽपि प्रयुक्तः ] राधा वासगृहे (सङ्केतभवने) सीदति (त्वदागमनप्रतीक्षया क्रमशः अवसन्ना भवति) [त्वन्मयं जगत् प्रतिभाति तस्याः तथापि त्वं मनसापि तां न स्मरसीति सन्तापकत्वमेवेत्यर्थः ] ॥ १ ॥

अनुवाद - हे नाथ! हे हरे ! श्रीराधा अपने आवास गृह में सीझ रही हैं, अत्यन्त दुःखी हो रही हैं, स्वाधर के मधुर सुधापान में सकुशल आपको मन-ही-मन सकल दिशाओं में देख रही हैं।

पद्यानुवाद- 

पल-पल दिशि दिशि देख रही है मधुर अधर रस पीते,

कहाँ दूर हो, कहाँ निकट हो हे मेरे मनचीते ?

हे हरि, राधा आवास गृहे कब तक वियोग का त्रास सहे ॥

बालबोधिनी – श्रीराधा की चेष्टाओं का वर्णन करती हुई सखी कहती है- हे श्रीकृष्ण ! श्रीराधा आवासगृह में अर्थात् संकेत स्थान पर अवसाद को प्राप्त हो रही हैं। एकान्त में बैठी हुई वह प्रत्येक दिशाओं में अपनी भावना की तीव्र प्रबलता से सर्वत्र आपको देख रही हैं। सभी दिशाएँ उनके लिए कृष्णमयी हो गयी हैं। लता गृह में आपके चरित्र की मधुर मधुर बातों का वह सप्रेम श्रवण-पान कर रही हैं- ऐसा अर्थ भी किया जा सकता है। चिरकालीन प्रेम की प्रकृति ही ऐसी होती है कि मन और शरीर में तालमेल नहीं रहता, मन कुछ करना चाहता है, पर शरीर साथ नहीं देता। निढाल पड़ी हैं वह ।

त्वदभिसरण – रभसेन वलन्ती ।

पतति पदानि कियन्ति चलन्ती-

नाथ हरे ! सीदति.... ॥२॥

अन्वय - [ यद्येतादृशी सा तर्हि कथं ना गच्छतीत्याह ]-त्वदभिसरण - रभसेन (तव अभिसरणे यः रभसः उत्साहः हर्षो वा तेन) वलन्ती (उत्सहमाना वलयुक्ता वा ) [सती] कियन्ति पदानि चलन्ती [ सामर्थ्याभावात् मूच्छिता] पतति [अतः स्वयमागन्तुमसमर्था] हे नाथ.... एवं सर्वत्र ] ॥२॥

अनुवाद - श्रीराधा अपने अभिसरण के उत्साह से उत्सुक हो प्रसाधनादि कार्यों में व्यस्त होती हुई ज्यों ही कुछ कदम चलती हैं, त्यों ही गिर जाती हैं।

पद्यानुवाद-

यह कहकर तुमसे मिलने को, ज्यों व्याकुल हो बढ़ती ।

गिर पड़ती है पथ में क्षण में, क्षण में है उठ पड़ती ॥

हे हरि राधा आवास गृहे । कब तक वियोग का वास गृहे ॥

बालबोधिनी - हे श्रीकृष्ण ! प्रसाधनादि कार्यों में लगी हुई श्रीराधा अभिसार करने के लिए बड़े वेग से उठती हैं, किन्तु विरह में अत्यन्त क्षीण होने के कारण विवश होकर वह कुछ ही कदम चलकर भूमि पर मूर्च्छित होकर गिर जाती हैं।

विहित- विशद-विस-किसलय-वलया ।

जीवति परमिह तव रति-कलया- नाथ हरे ! सीदति.... ॥३॥

अन्वय - [ कथं तर्हि जीवतीत्याह ] विहित-विशदविस- किशलय वलया (विहितं कृतं विशदविसानां शुभ्रमृणालानां किसलयानाञ्च वलयं यया तादृशी) [सती] परं (केवलं) तव रतिकलया (रमणावेशेन) इह जीवति ॥ ३ ॥

अनुवाद - विमल - धवल मृणाल एवं नव पल्लव विरचित वलय- समूह को पहने वह केवल आपके साथ रमण करने की इच्छा से जी रही हैं।

पद्यानुवाद-

किसलय कोमल वलय धार कर

रति - चिन्ता-रस साने।

बालबोधिनी – मृणाल के सूत्रों से और उसकी कोपलों से श्रीराधा ने स्वयं को वलयित कर लिया है, जिससे कामजन्य संताप से मुक्ति मिले। अतिशय क्षीण और कृशा होने पर भी आपके साथ रमण करने की इच्छा से आनन्दित होकर उन्होंने अभी तक प्राणों को धारण कर रखा है। तुम्हारे प्रेम की विधि अभी भी उनके प्राणों में बसी है। तुम्हारे प्रेम का एक पूरा तन्त्र प्राण की तन्त्री में बज रहा है। रमण का आवेश ही उनके प्राण धारण का कारण है।

मुहरवलोकित - मण्डन - लीला ।

मधुरिपुरहमिति भावन - शीला- नाथ हरे ! सीदति.... ॥४ ॥

अन्वय - [ तत्प्रकारमेवाह - मुहुः (पुनः पुनः ) [ स्वस्मिन्नेव ] अवलोकित-मण्डनलीला (अवलोकिता तवैव मण्डनस्य बर्हगुञ्जादिभूषणस्य लीला विलासो यया सा ) [ अतएव ] अहं मधुरिपुः (श्रीकृष्णः) इति भावनशीला (भावनपरा कृष्ण एवाहमिति चिन्तनपरा इति भावः) ॥४ ॥

अनुवाद - मैं ही मधुरिपु हूँ इस प्रकार की भावनामयी होकर वह मुहुः मुहुः आपके आभूषणों और अलंकरणों को देखती हैं।

पद्यानुवाद-

कभी रचाती रास मुग्ध हो, माधव निज अनुमाने।

हे हरि राधा आवास गृहे, कब तक वियोगका त्रास सहे ?

बालबोधिनी - हे श्रीकृष्ण ! आपके साथ एकप्राण हो मैं ही मधुसूदन हूँ, मैं ही श्रीराधाप्राण श्रीकृष्ण हूँ, ऐसी भावना करती हुई स्वयं में आपका आरोपण कर लेती हैं, तद्रूप हो जाती हैं। ये मुकुट, कुण्डल, वनमाला आदि अलङ्कार श्रीराधा के साथ रमण करने योग्य हैं- इस भावना से पुनः पुनः उन अलङ्कारों को धारण करती हैं। स्त्री - योग्य आभूषणों को छोड़कर तुम्हारे विरह के दुःख से पुरुषायित सुरत योग्य आभूषणों को धारण करती हुई तद्रूपता को प्राप्त हुई वह अपना समय बिताती हैं। वह माधव बनकर श्रीराधा का शृङ्गार देखती हैं।

त्वरितमुपैति न कथमभिसारम् ।

हरिरिति वदति सखीमनुवारम्- नाथ हरे ! सीदति.... ॥५ ॥

अन्वय - [पुनः स्फूर्त्यपगमेतु आत्मानं पृथङ्मत्वा] हरिः कथं त्वरितम् अभिसारं ( सङ्केतस्थानं) न उपैति (आगच्छति) इति अनुवारं (पुनः पुनः) सखीं (मां) वदति (पृच्छति ॥५ ॥

अनुवाद - बार-बार अपनी सखी से पूछती हैं- सखि ! श्रीकृष्ण अभिसरण के लिए शीघ्र ही क्यों नहीं आते?

पद्यानुवाद- 

बार-बार कहती है 'सखि !

कब आयेंगे वनमाली ?'

बालबोधिनी - सखी श्रीकृष्ण से कहती है- हे श्रीकृष्ण ! कभी-कभी तो ऐसा होता है कि श्रीराधा बार-बार मेरे सामने आती हैं और यही पूछती हैं- श्रीहरि इस संकेत स्थान पर मुझसे मिलने के लिए त्वरित क्यों नहीं आते ?

श्लिष्यति चुम्बति जलधर - कल्पम् ।

हरिरुपगत इति तिमिरमनल्पम्- नाथ हरे ! सीदति.... ॥६॥

अन्वय - [ पुनश्च अत्यावेशेन] हरिः उपगतः (आयातः) इति [बुद्धा] जलधर - कल्पं (मेघसदृशं) अनल्पं (प्रगाढ़) तिमिरं (अन्धकार) श्लिष्यति (आलिङ्गति) चुम्बति च ॥ ६ ॥

अनुवाद – जलधर के समान प्रतीत होनेवाले घने अन्धकार को "हरि आ गये" - ऐसा समझकर आलिङ्गन और चुम्बन करती हैं।

पद्यानुवाद- 

जान जलद सम तम को-"तुम हो" फूल उठी मतवाली।

करने लगी उसी का चुम्बनआलिङ्गन मधुमती ॥

बालबोधिनी - जब वह कुछ जलभरे मेघ के समान स्निग्ध नीलकान्तिवाले विपुल अन्धकार को देखती हैं तो उन्हें लगता है- 'श्रीकृष्ण, तुम आ गये हो और उस स्निग्ध अंधकार को ही अङ्क में भर लेती हैं और चुम्बन करने लगती हैं।

भवति विलम्बिनि विगलित-लज्जा ।

विलपति रोदिति वासक-सज्जा- नाथ हरे ! सीदति.... ॥७ ॥

अन्वय - [ पुनस्तदपगमे] भवति (त्वयि ) विलम्बिनि (कृतविलम्बे) वासकसज्जा (वासक-सज्जावस्थां प्राप्ताः सज्जित- विलासगृहा इत्यर्थः ) [ सा] विगलित-लज्जा (विगलिता लज्जा यस्याः तादृशी सती) विलपति रोदिति च ॥७॥

अनुवाद - जब श्रीराधा को बाह्यज्ञान होता है कि आप वह नहीं हैं, आप आने में देर कर रहे हैं, तो वह वासकसज्जा श्रीराधा लाज खोकर विलखने लगती हैं, रोने लगती हैं।

पद्यानुवाद- 

लख विलम्ब वह वासकसज्जालज्जा खो तन छीनी।

रोती और विलपती रहती, कवि 'जय'की यह वाणी ॥

बालबोधिनी - श्रीराधा वासकसज्जा नायिका के रूप में यहाँ निरूपित हुई हैं। जब श्रीराधा यह जान लेती हैं कि मैं जिसको आलिङ्गन कर चूम रही हूँ, वह श्रीकृष्ण नहीं प्रत्युत घना अन्धकार है तो वह अपने कृत्य पर लज्जित हो रोने -कलपने लगती हैं। उनकी बेसुधी ऐसी है कि आसपास के अंधकार के प्रसार को ही वह वर्ण भ्रान्ति से अपना प्रियतम मान लेती हैं। और फिर मेरे प्रियतम अभी तक क्यों नहीं आये कहकर बिलखने लगती हैं। वासकसज्जा - जो नायिका संकेत- कुञ्ज में उपस्थित होकर बड़े उत्साह से नायक की प्रतीक्षा करती हुई कुञ्ज को और उसमें पुष्प- शय्या को तथा स्वयं को सजाती हैं तथा नायक के पास बारम्बार दूती को भेजती हैं, उसे वासकसज्जा नायिका कहते हैं।

श्रीजयदेव - कवेरिदमुदितम् ।

रसिकजनं तनुतामतिमुदितम्- नाथ हरे ! सीदति.... ॥८ ॥

अन्वय- श्रीजयदेव - कवेः उदितम् (उक्तम्) इदं [ शृङ्गार रस भावितान्तःकरणं] रसिकजनम् अतिमुदितं (अतिप्रीतं) तनुताम् (कुरुताम् ) । [ एतेन शृङ्गार रसाविष्टैर्भक्तैरिव श्रीजयदेवोक्तवचन- मास्वादनीयमित्युक्तम् ] ॥८ ॥

अनुवाद - श्रीजयदेव कवि द्वारा रचित इस गान से रसिकजनों के हृदय में अतिशय हर्ष का उदय हो ।

पद्यानुवाद- 

सुनते हैं जो जन इस जगमें, पाते गति कल्याणी ॥

हे हरि राधा आवास गृहेकब तक वियोगका त्रास सहे?

बालबोधिनी - कवि जयदेव कहते हैं कि सखी ने जो श्रीराधा की चेष्टा निवेदन विषयक गीत गाया है, वह गीत श्रृंगार रस द्वारा विभावित चित्तमय रसिक भक्तों को अतिशय आनन्द प्रदान करे।

प्रस्तुत गीत में शृंगार रस के विप्रलम्भ भाव – रस का चित्रण है। समुच्चय स्वर है। शठ नायक है। चिन्ता से व्याकुल होनेवाली वासकसज्जा नायिका है।

विपुल - पुलक-पालिः स्फीत - सीत्कारमन्त- र्जनितजड़िमु काकु - व्याकुलं व्याहरन्ती ।

तव कितव ! विधायामन्द - कन्दर्प-चिन्तां रस - जलनिधिमग्ना ध्यानलग्ना मृगाक्षी ॥ १ ॥

अन्वय - [स्व-सख्यातिं स्मरणेन व्याकुला सा सेर्षमिव पुनराह ] - हे कितव (धूर्त्त गतप्राणामिव तां वनमानीय निश्चिन्तोऽसीति धूर्त्ततया सम्बोधनम् ) विपुल - पुलक-पालिः (विपुला महती पुलकानां रोमाञ्चानां पालिः पङ्क्ति यस्याः तवाङ्ग-स्पर्श- चिन्तनेन सञ्जातरोमाञ्चा इत्यर्थः) स्फीत-शीत्कारं (स्फीत: प्रवृद्धः शीत्कारः तव दशन-क्षतादि - कल्पनेन जनित इति भावः यत्र तद् यथा स्यात् तथा) अन्तः (अभ्यन्तरे) जति-जड़िम-काकु-व्याकुलं (जनितो योऽसौ जड़िमा जाड्यम् अस्फुटत्वमित्यर्थः तेन जाता या काकुः तया काक्वा ध्वनेर्विकारेण परिरम्भण- चुम्बनादि - स्मरण - जनितेन इति भावः व्याकुलं यथास्यात् तथा ) व्याहरन्ती ( ब्रुवती) सा मृगाक्षी ( मृगनयना, मृगी इव सरलचित्ता इत्यभिप्रायः) अमन्द कन्दर्प- चिन्तां (अमन्दा गाढ़ा या कन्दर्पचिन्ता कामचिन्ता तां) विधाय (परिकल्प्य ) तव रस - जलधि - निमग्ना ( रस - जलधौ शृङ्गार रस सागरे निमग्नाः एतेन आलम्बनं बिना कथं सा समुद्रमग्ना यथा काष्ठमवलम्बते जीवतीति अर्थात् ज्ञेयम् तथा इयमपि उपायान्तराभावात् त्वयि एव) ध्यानलग्ना (ध्याने तव चिन्तने लग्ना च) [वर्त्तते इति शेषः ] ॥ १ ॥

अनुवाद - हे शठ ! अति रोमांच से युक्त, अन्तर्जनित जड़ता एवं काकुध्वनि द्वारा स्पष्ट रूप से सीत्कार करती हुई वह मृगाक्षी राधिका आपके अतिशय तीव्र मदन –विकार के आवेश में आपके प्रेम रस सागर में निमज्जित हो किसी प्रकार प्राण धारण करती है।

पद्यानुवाद-

विपुल पुलक तन, अतुल ललक मन, ध्यान सुरति सुख-लीना ।

मिलन कल्पना रस- सागर में डूब रही मति दीना ॥

बालबोधिनी – श्रीराधा के प्रेमोन्माद का कन्दर्पोन्माद का चित्रण करती हुई सखी कहती है- हे शठ ! हे धूर्त! हे कपटी ! वह मृगनयनी राधिका तुम्हारे संश्लेष- आश्लेष के रस – सिन्धु में डूबती हुई ध्यान-परायण हो गयी है, तुम्हारे ध्यान में मग्न हो गयी है । उनको प्रतीत होता है कि तुमने उसे आलिंगित कर रखा है। इसलिए उनके शरीर के रोम-रोम में आनन्द हो गया है। आनन्दातिशयता के कारण वह विपुल रोमाञ्चित हो गयी है और सिसकारती हुई अन्तर- जाड्य के कारण कुछ-कुछ अस्फुट बोलती है, अपने भीतर काम के तीव्र आवेश को समेटे वह आनन्द – जलधि में डूब उतर रही है।

प्रस्तुत श्लोक में मालिनी छन्द तथा रसवदलंकार है ।

अङ्गेष्वाभरणं करोति बहुशः पत्रेऽपि सञ्चारिणि

प्राप्तं त्वां परिशङ्कते वितनुते शय्यां चिरं ध्यायति ।

इत्याकल्प - विकल्प - तल्प- रचना - सङ्कल्पलीला - शत-

व्यासक्तापि विना त्वया वरतनुर्नैषा निशां नेष्यति ॥ २ ॥

अन्वय - [ पुनरतिशीघ्रगमनाय तस्या वासकसज्जा- चेष्टितमाह ] - [ श्रीकृष्णो मामेवं पश्यन् मन्दमना भविष्यतीति तव अनुरञ्जनाय ] एषा वरतनुः (वराङ्गी) अङ्गेषु बहुश: आभरणं करोति (परिधत्ते); [ अनागत इति त्यजति च पुनरपि करोति - अनेन भूषण - बाहुल्यमित्याकल्पः ]; पत्रे सञ्चारिणि अपि (पक्ष्यादिना चलति सति) त्वां प्राप्तं (आगतं ) परिशङ्कते (तर्कयति ) [ अनेन विकल्पः ] ; [आगता कृष्णः अत्र शयिष्यते इति] शय्यां वितनुते (पारिपाट्येन विचरयति) [ अनेन तल्परचना ]; चिरं ध्यायति ( तव सङ्गमरसं चिन्तयतिच) [ अनेन सङ्कल्प- लीलाशतम् ] इति ( एवंरूपेण) आकल्प-विकल्प तल्परचना- सङ्कल्प- लीलाशत-व्यासक्तापि (आकल्पस्य भूषणस्य, विकल्पस्य वितर्कस्य, तल्पस्य शय्यायाश्च रचनायां तथा सङ्कल्पलीलाशतेषु परिकल्पित-विलाससमूहेषु व्यासक्तापि विनिवेशितचित्तापि ) त्वया बिना निशां न नेष्यति (न यापयिष्यति ) । [विरहव्याकुलया स्तस्या रात्रियापनमधुना सुदुष्करमिति भावः ] ॥ २ ॥

अनुवाद - वरतनु श्रीराधा कई बार अपने अंगों में अलङ्कार धारण करती हैं, पत्तों के संचरित होने पर 'आप आ गये हैं - इस प्रकार की परिशङ्का करती हैं, आपके लिए मृदु शय्या की रचना करती हैं, आपके आने में विलम्ब होने पर अधिक दुःखी होती हैं। इस प्रकार अलंकरण, विकल्प, तल्परचना, प्रेमालाप, संकल्प आदि अनेक प्रकार की लीलाओं में आसक्त रहकर भी आपके विरह में वह रात्रि नहीं बिता पा रही हैं।

पद्यानुवाद-

पत्तों की आहट से आने की जब शङ्का होती

सजा अंक मृदु शैया सत्वर उत्सुक है अति होती ।

कल्प, तल्प, संकल्प भावमें यद्यपि उलझी रहती

तुम बिन नहीं काट पाती निशि, घड़ियाँ गिनती रहती ॥

बालबोधिनी – वासकसज्जा की मनःस्थितियों का, आकुल क्रिया और चेष्टाओं का वर्णन करती हुई सखी श्रीकृष्ण से कहती है- श्रीराधा ध्यान आदि के द्वारा तुम्हारे साथ रमण करती हुई भी आपसे साक्षात् संयोग प्राप्त नहीं होने के कारण अति विकल हैं। हे माधव ! मेरी वरसुन्दरी सखी आपके आगमन की प्रत्याशा में आपको आकर्षित करनेवाले आभूषणों से अपने श्री अङ्गों को विभूषित करती हैं। तरु- पल्लव जब समीर से आन्दोलित होकर खड़खड़ाता है, तो उसे इस बात की शङ्का होती है कि आप आ रहे हैं। पुनः आप अवश्य आयेंगे- ऐसा सोचकर के किसलयों से सेज की रचना करती है। आपमें खोयी हुई आपकी ही बाट जोहती हुई आपका ही ध्यान करती हैं। आपको वहाँ प्रस्तुत न देखकर अत्यन्त दुःखित हो जाती हैं। इस प्रकार अलङ्कार-धारण, आपके आगमन की शङ्का, आपके निश्चित आगमन के संकल्प से शय्या रचना आदि अनेक प्रकार की क्रियाओं में तल्लीन रहकर भी आपके बिना रात्रि का अतिवाहन करने में नितान्त असमर्थ हैं।

प्रस्तुत श्लोक में शार्दूलविक्रीडित छन्द और समुच्चय अलङ्कार है।

किं विश्राम्यसि कृष्ण - भोगि भवने भाण्डीर - भूमीरुहे ।

भ्रातर्याहि न दृष्टि - गोचराभितः सानन्द - नन्दास्पदम् ॥

राधाया वचनं तदध्वग - मुखानन्दान्तिके गोपतो ।

गोविन्दस्य जयति सायमतिथि- प्राशस्त्य-गर्भा गिरः ?

इति श्रीगीतगोविन्दे द्वादश: सन्दर्भः ।

अन्वय - [ इदानीं कविः एतद्वर्णन-व्याकुलः तस्य अभिसारात् पूर्वचरितं कथयन् सर्गान्ते आशिषं प्रयुङ्क्ते] - हे भ्रातः (पथिक !) कृष्णभोगि भवने (कृष्णसर्पस्य आश्रयस्थाने; पक्षे सम्भोगविशिष्टस्य श्रीकृष्णस्य भवने विहरणस्थाने) भाण्डीर - भूमीरुहे (भाण्डीर - वृक्षे लक्षणया तदीयतले इत्यर्थः ) किं (कथं ) विश्राम्यसि (विश्रामं माकुरु इत्यर्थः ) [ तर्हि इदानीं क्व यामि इत्यत आह ] - इतः (अस्मात् स्थानात्) दृष्टिगोचरं (इतो दृश्यते इति भावः) सानन्द-नन्दास्पदं (आनन्देन सह वर्त्तमानं नन्दस्य आस्पदं गृह; पक्षे उत्सवपूर्णमानन्दनिकेतनं) किं (कथं न यासि [ येन तव शङ्का न भवेदिति भावः ]। राधायाः तत् (एतत्) वचनम् (सङ्केतवाक्यम्) अध्वग मुखात् (पथिकवदनात् पथिक-वेशिन्या दूत्या मुखादिति भावः) नन्दान्तिके (नन्दसमीपे ) गोपतः (गोपयतः) गोविन्दस्य सायं ( सन्ध्यासमये) अतिथि प्राशस्त्य-गर्भा ( अतिथेस्तस्यैव प्राशस्त्यं प्रशंसादिरूपं तदेव गर्भोऽभिप्रायो यासां ताः) गिरः ( वाचः ) जयन्ति ( श्रीराधाया मनोरथंपूरयन्ति ) [ अतएव धृष्टः प्रगल्भो वैकुण्ठो यत्र इत्यायं सर्गः षष्ठः ] ॥ ३ ॥

अनुवाद – श्रीराधा ने सखी का विलम्ब देखकर श्रीकृष्ण के समीप बहाना बनाकर एक दूती को भेजा। उस दूती ने सायंकाल पथिक वेश में श्रीकृष्ण के समीप आकर श्रीराधा के द्वारा दिये हुए इन संकेत वाक्यों को कहा - " श्रीराधा के घर में अतिथि बनने पर उन्होंने मुझसे कहा कि हे भ्रात! इस भाण्डीर वृक्ष के तले विश्राम क्यों कर रहे हो? यहाँ तो श्रीकृष्ण (काल) सर्प रहता है। सामने ही दृष्टिगोचर होनेवाले आनन्दप्रद नन्दालय में चले जाओ। तुम वहाँ क्यों नहीं जा रहे हो?" कहीं उनके पिता श्रीनन्द महाराज इन बातों का भावार्थ समझ न लें, इसलिए श्रीकृष्ण उनसे गोपन करने के लिए श्रीराधाजी के द्वारा प्रेरित दूत को जो धन्यवाद दिया है, वे वाणियाँ जययुक्त हों।

बालबोधिनी - महाकवि जयदेव इस श्लोक के द्वारा आशीर्वाद देते हुए इस सर्ग का उपसंहार करते हैं। सायंकाल के अतिथि की प्रशंसा से युक्त श्रीगोविन्द की वाणियों की जय हो । जय-जयकार से श्रीकृष्ण की सर्वोत्कृष्टता सिद्ध होती है। जैसे श्रीकृष्ण ने पथिक के मुँह से निःसृत श्रीराधा-विषयक बात को छिपाने के लिए पथिक से कहा- हे भाई! यहाँ काले सर्प के घर में वटवृक्ष के नीचे क्यों विलाप कर रहे हो? यहाँ से सामने ही दृष्टिगोचर होनेवाले आनन्दप्रद नन्द के घर में चले जाओ, जो थोड़ी ही दूर पर स्थित है।

जब सखी को लौटने में विलम्ब होता हुआ देखा तो श्रीराधा ने एक दूती को कोई बहाना बनाकर श्रीकृष्ण के समीप भेजा। उस दूती ने सन्ध्या के समय पथिक वेश में श्रीकृष्ण के समीप जाकर श्रीराधा के द्वारा दिये हुए जो संकेत वाक्य कहे थे, उसको गोपन करनेके लिए श्रीकृष्ण ने जो प्रशंसायुक्त वाणी कही, उसकी जय हो ।

इति श्रीगीतगोविन्दे महाकाव्ये वासकसज्जावर्णने धृष्ट-वैकुण्ठो नाम षष्ठः सर्गः ॥

इति श्रीगीतगोविन्दमें धृष्ट वैकुण्ठनामक षष्ठसर्ग की बालबोधिनी वृत्ति ।

आगे पढ़ें........ गीतगोविन्द सर्ग 7 नागर - नारायण

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