गीतगोविन्द सर्ग ९ मुग्ध मुकुन्द

गीतगोविन्द सर्ग मुग्ध मुकुन्द

कवि श्रीजयदेवजीकृत गीतगोविन्द के सर्ग १ सामोद दामोदर, सर्ग २ अक्लेश केशव, सर्ग ३ मुग्ध मधुसूदन, सर्ग ४ स्निग्ध मधुसूदन, सर्ग ५ आकाङ्क्ष पुण्डरीकाक्ष, सर्ग ६ धृष्ट वैकुण्ठ, सर्ग ७ नागर नारायण तथा सर्ग ८ विलक्ष्य लक्ष्मीपति को पिछले अंक में आपने पढ़ा । अब गीतगोविन्द सर्ग ९ जिसका नाम मुग्ध मुकुन्द है। साथ ही अट्ठारहवें सन्दर्भ अथवा अट्ठारहवें प्रबन्ध अथवा अष्ट पदि १८ का वर्णन किया गया है। इस अट्ठारहवें प्रबन्ध का नाम 'अमन्दमुकुन्द' है।

गीतगोविन्द सर्ग ९ मुग्ध मुकुन्द

श्रीगीतगोविन्दम्‌ नवमः सर्गः मुग्ध मुकुन्दः

गीतगोविन्द सर्ग मुग्ध मुकुन्द

Shri Geet govinda sarga 9 Mugdha Mukunda

श्रीगीतगोविन्द नौवाँ सर्ग - मुग्ध मुकुन्द

अथ नवमः सर्गः

(मुग्ध - मुकुन्दः)

तामथ मन्मथ - खिन्नां रति-रस-भिन्नां विषाद-सम्पन्नाम् ।

अनुचिन्तित - हरि-चरितां कलहान्तरितामुवाच रहसि सखी ॥ १ ॥

अन्वय - अथ अनन्तरम् (प्रणत्यापि मानानपगमात् श्रीकृष्णे अन्तर्हिते सति) सखी रहः (एकान्ते) कलहान्तरितां (कलहान्तरितावस्थां प्राप्तां ) [ अतएव ] मन्मथखिन्नां (मन्मथेन मदनेन खिन्ना सन्तप्ता तां) रतिरसभिन्नां (रतिरसेन सुरतानन्देन भिन्ना खण्डिता ताम्) विषादसम्पन्नां (विषादेन चित्तक्लेशेन सम्पन्ना युक्ता ताम्) अनुचिन्तित - हरि चरिताम् (अनुचिन्तितं पुनः पुनश्चिन्तितं हरेः चरितं चाटूक्ति-पाद-पतनादि यया तादृशीं ) [अन्तरुत्सुकामपि बहिर्मानावगुण्ठितां] तां [श्रीराधाम्] उवाच॥ [कलहान्तरितालक्षणम्-चाटुकारमपि प्राणनाथं रोषादपास्य या । पश्चात्तापमवाप्नोति कलहान्तरिता तु सा ॥ इति साहित्यदर्पणे ॥ १ ॥

अनुवाद मदनबाण से प्रपीड़िता, रतिवञ्चिता, विषादयुक्ता, कलहान्तरिता, शृङ्गार रस से युक्त श्रीहरि के चरित्र के विषय में सतत चिन्तन करने वाली श्रीराधा से सखी ने एकान्त में कहा-

पद्यानुवाद-

मन्मथखिन्ने !

रतिरसभिन्ने ! शोक-विपन्ने राधे! ।

हरि चिन्तन रत ! सलिल नयनगत! बैठी हो चुप साधे ॥

मानिनि ! मत अब मान करो।

बालबोधिनी - श्रीराधा श्रीकृष्णोक्त सभी वाक्यों का तिरस्कार करती हैं, उनके युक्ति युक्त वचनों एवं प्रणत-भाव-समुदाय को छल चातुरी समझकर मन ही मन उनके व्यवहार की समालोचना करती हैं। प्रणयकोप से अनेक प्रकार के आक्षेप लगाती हैं। वे जितना भी प्रणत होते जाते हैं, उनका मान उतना ही बढ़ता जाता है, पुनः स्वकृत कलह को सोच-सोच कर सन्तप्त होती हैं, उद्विग्न होती हैं, केवल हरि की ही चिन्ता करती हैं- इस प्रकार श्रीराधा की कलहान्तरितावस्था की पाँच विशेषताओं का वर्णन किया गया है-

मन्मथखिन्ना – काम की उद्विग्नता से श्रीराधा को अत्यधिक कष्ट की अनुभूति हो रही है।

रतिरसभिन्ना - काम-केलि रस से वञ्चित होने के कारण विषादशालिनी हो रही हैं।

विषादसम्पन्नाम्-सम्भोग के प्रति अनुरक्ति होने के कारण वे भावशबलता की स्थिति तक पहुँच चुकी हैं।

अनुचिन्तितहरिचरितां - वे बार-बार श्रीकृष्ण के चरित्र का ही चिन्तन कर रही थीं।

कलहान्तरिता- सखियों के सामने अपने पैरों पर पड़ते हुए प्राणबल्लभ को देखकर भी जो नायिका उन्हें बुरा-भला कहती है तथा निषेध करती है, उसे कलहान्तरिता नायिका कहते हैं। उसमें प्रलाप, सन्ताप, ग्लानि, दीर्घनिःश्वास आदि चेष्टाएँ लक्षित होने के कारण उसे कलहान्तरिता कहा जाता है । कलहान्तरिता नायिका का लक्षण यह है-

प्राणेश्वरं प्रणयकोपविशेष-भीतं या चाटुकारमवधीर्य विशेषवाग्मिः ।

सन्तप्यते मदनवह्निशिखासमूहैर्वाष्पकुलेह कलहान्तरिता हिसा स्यात् ॥

गीतगोविन्द सर्ग अष्ट पदि १८ - अमन्दमुकुन्द

अथ अष्टादश: सन्दर्भः ।

गीतम् ॥ १८ ॥

गुर्जरीराग- यतितालाभ्यां गीयते ।

गीतगोविन्द काव्य का प्रस्तुत अठारहवाँ प्रबन्ध गुर्जरी राग तथा यति ताल के द्वारा गाया जाता है।

हरिरभिसरति वहति मधुपवने

किमपरमधिकसुखं सखि ! भवने ॥ १ ॥

माधवे मा कुरु मानिनि । मानमये ॥ध्रुवपदम् ॥

अन्वय- अये मानिनी ( मानवति राधे) मृदुपवने (मलयमारुते) बहति [ सति] हरिः (कृष्णः) अभिसरति (सङ्केतस्थानमायाति); [तस्मात्] माधवे मानं मा कुरु (मधुवंशोद्भवे श्रिया महासम्पत्तेः पत्यौ चेति मानानर्हत्वादिति भावः) कथं वञ्चकेऽस्मिन् मानो न विधेय इत्याह ] - सखि भवने (कृष्णविहीने गृहे) अपरम् (अन्यत्) अधिकसुखं किम् [अस्ति ] [ माधवाभि- सरणादन्यत् सुखं नास्त्येवेति भावः ] ॥ १ ॥

अनुवाद - हे मानिनि! देखो, इस समय मन्द मन्द वासन्ती समीर प्रवाहित हो रहा है, श्रीकृष्ण अभिसार के लिए तुम्हारे सङ्केत भवन में आ रहे हैं। हे सखि ! इससे अधिक बढ़कर और सुख क्या हो सकता है?

पद्यानुवाद-

मन्द मन्द मधु वायु विहरती,

लायी उसको यहाँ, सिहरती,

बैठी जिसका ध्यान धरो ।

मानिनि ! मत अब मान करो ॥

बालबोधिनी - हे सखी! अब तुम्हें लक्ष्मीपति माधव से मान नहीं करना चाहिए, वे मधुवंश में उत्पन्न हुए हैं, महासम्पत्ति के अधिकारी हैं, फिर भी तुम्हें मना रहे हैं, मनाते चले जा रहे हैं- तुम मान करना छोड़ दो। वासन्ती बयार प्रवाहित हो रही है, हरि स्वयं तुम्हारे अभिसार के लिए आ रहे हैं - तुम्हारे ही भवन में अर्थात् घर में इससे बढ़कर सुख और क्या हो सकता है? उनका आगमन सुख की परावधि है - राधे ! तुम उनका सम्मान करो।

ताल – फलादपि गुरुमतिसरसम्

किं विफली कुरुषे कुच - कलशम् ?

माधवे..... ॥२ ॥

अन्वय - [सुखमस्तु तेन मम किम् ? इति चेत् स्तनाभ्यां किमपराद्धमिति सोत्प्रासमाह ] - तालफलात् अपि गुरुं ( स्थौल्येन काठिन्येन वर्त्तुलत्वेन च तालफलादपि श्रेष्ठ) अतिसरसं ( रसभरपूर्ण) कुचकलसं (स्तनकुम्भं) किमु (किमर्थ) विफलीकुरुषे (व्यर्थयसि तदनुभवं बिना अस्य विफलीकरणं न युक्तमित्यर्थः ] ॥ २ ॥

अनुवाद - सुपक्व ताल- फल से भी गुरुतर (भारी) एवं अति रसपूर्ण इन कुच – कलशों को विफल क्यों कर रही हो?

पद्यानुवाद-

लज्जित ताल- फलोंकी गुरुता,

कुच- कलशोंकी अनुपम रसता,

रसमयि! रसका दान करो ।

मानिनि ! मत अब मान करो ॥

बालबोधिनी - सखी कहती हैं कि हे राधे ! तुम्हारे कुच कलश ताल फल से भी श्रेष्ठ हैं। रस शास्त्रों में ताल फल को अति गुरु एवं रसमय फल बताया गया है। अतः जिन कुच – कलशों की रसता एवं गुरुता के सम्मुख ताल फल का गुरुत्व एवं रसत्व भी निकृष्ट हो जाता है, उनकी सार्थकता तो हरि में है, हरि के स्पर्श में है, इन कलशों का गुरुत्व उन्हीं के लिए है और तुम उनका उद्देश्य ही नष्ट कर रही हो । स्तनों की विस्तृति अभिव्यक्त करने के लिए ही उनकी तुलना कलशों से की गयी है। मान छोड़ दो एवं श्रीहरि को इस रस-विलास का अनुभव करने दो।

कति न कथितमिदमनुपदमचिरम् ।

मा परिहर हरिमतिशय - रुचिरम् ॥

माधवे... ॥३॥

अन्वय - [तदुपदेशं बिना इत्थं क्रियते इत्याह ] इदम् अनुपदम् (पदे पदे) अचिरम् (अधुनैव) कति (कतवार) [मया] न कथितम् [यत्] अतिशय रुचिरं (अतिसुन्दरं ) हरिं (मनोहरणशीलं ) मा परिहर (मा त्याक्षीः) ॥ ३ ॥

अनुवाद - मैं तुम्हें कितनी बार कह रही हूँ कि तुम निरतिशय सुन्दर मनोहर श्रीहरि का परित्याग मत करो।

पद्यानुवाद-

हरि-तन कलित ललित हियहारी,

भूलो मान, बनो बलिहारी,

विनती इतनी कान धरो ।

मानिनि ! मत अब मान करो ॥

बालबोधिनी - सखी कहती है-हे राधे ! मैं तुम्हें पुनः पुनः समझा रही हूँ कि तुम मान मत करो। श्रीहरि रूप- लावण्य में सबसे सुन्दर हैं- तुम अपना मान छोड़कर उनका अभिसरण करो, अपना मनोभाव बदलो, श्रीहरि अतिशय रुचिर हैं, सबके मन को हर लेनेवाले हैं, उनका त्याग कभी भी उचित नहीं है।

किमिति विषीदसि रोदिषि विकला ?

विहसति युवतिसभा तव सकला ॥

माधवे... ॥४ ॥

अन्वय - [ एतदाकर्ण्य साश्रुनेत्रां प्रत्याह ] - विकला ( व्याकुला) [सती] किमिति (किमर्थं ) विषीदसि (विषण्णा भवसि ) रोदिषि च [माविषीद मारोद इत्यर्थः ] ; [ तव एवं व्याकुलतामवलोक्य ] सकला (समग्रा) युवति सभा (प्रतिपक्ष-युवति - समूहः ) विहसति (विशेषेण हसति ॥ ४ ॥

अनुवाद - तुम इतनी शोकविह्वल होकर क्यों रो रही हो ? तुम्हारे विकलता प्रदर्शक इन हाव भावों को देखकर तुम्हारी प्रतिपक्षी युवतियाँ प्रमुदित हो रही हैं।

पद्यानुवाद-

सिसक सिसक रोती हो विकले,

तरुण सखी हँसती है, तरले।

क्यों झूठा अभिमान करो ?

मानिनि ! मत अब मान करो ॥

बालबोधिनी सखी की बातों को सुनकर श्रीराधा सिसक-सिसक कर रोती हैं, बिलखती हैं। तब सखी कहती है- हे राधे ! इस समय तुम विषाद क्यों कर रही हो, क्यों बिलख रही हो ? तुम्हारी प्रतिपक्षी युवतियाँ तुम्हारे इन हाव-भावों को देखकर तुम्हारा उपहास कर रही हैं। कितनी नादान हो तुम, साक्षात् श्रीहरि तुम्हारे चरणों में लुण्ठन कर रहे हैं और तुम रोती ही जा रही हो ।

सजल - नलिनीदल- शीलितशयने ।

हरिमवलोकय सफलय नयने ॥

माधवे ॥५ ॥

अन्वय - [ यथेयं युवतिसभा न विहसति तथोपदिश इत्याह ] - सजल - नलिनी-दल- शीलित शयने (सजलैः नलिनीदलैः शीलिते रचिते शयने शय्यायां ) हरिम् अवलोकय; नयने (नेत्रे) सफलय (सफलीकुरु); [ त्रिभुवननयनमहोत्सवावलोकनात् अन्यत् फलं नास्तीति भावः ] ॥५ ॥

अनुवाद- तुम सजल कमल के दल से रचित शीतल शय्या पर श्रीकृष्ण को प्रेमभरी दृष्टि से अवलोकन कर नयन – युगल को सफल बनाओ।

पद्यानुवाद-

सजल कमल जल शीतल शयने-

प्रिय राजित हैं, कल चलनयने !

पूरे सब अरमान करो।

मानिनि ! मत अब मान करो ॥

बालबोधिनी - सखी श्रीराधा से कह रही है- हे राधे ! देखो, इस अभिसरण - स्थल पर हीरक-हारों से युक्त शीतल कमल-पल्लवों से रची सेज पर श्रीहरि लेट गये हैं, तुम उनका अवलोकन करो जिनके लिए तरस रही हो, उनके साथ कैसा कलह ? वे तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं, तुम मान ही नहीं छोड़ रही हो ।

जनयसि मनसि किमिति गुरुखेदम् ?

शृणु मम वचनमनीहित भेदम् ॥

माधवे... ॥६॥

अन्वय - [ एतदाकर्ण्य खिद्यन्तीं प्राह] - किमिति (कथं ) मनसि (चित्ते) गुरुखेदं (महत् कष्टं) जनयसि ( सहसे इत्यर्थः) [नैव विधेयम् ] अनीहितभेदं ( अनीहितम् अचेष्टित- मनभिलषितमिति यावत् विरहदुःखं तस्य भेदो यस्मात् तादृशं; यथा युवयोः पुनरपि विरहो न भवेदेवम्भूवमित्यर्थः) मम वचनं शृणु [तथा सति पुनस्ते विरहदुःखं मा भवितेत्यर्थः] ॥६॥

अनुवाद - तुम मन-ही-मन इतनी क्षुब्ध क्यों हो रही हो? मेरी बात सुनो, मैं बिना किसी भेद के तुमसे हित की बात कहती हूँ।

पद्यानुवाद-

खेद - भारसे बोझिल मन क्यों ?

काँप रहा है मृदु तन क्यों यों ?

बालबोधिनी सखी की ये सब बात सुनकर भी श्रीराधा दुःखी हो रही थीं, तब सखी ने पुनः कहा- हे प्रिय सखि! मन में इतना द्वेष क्यों भरा हुआ है, क्यों व्यर्थ की आशंकाएँ तुम्हारे मन में उठ रही हैं? इतना भारी दुःख क्यों कर रही हो - इस विदारक विरह से तुम इच्छारहित चेष्टारहित अभिलाषारहित हो गई हो। देखो, मेरी बात सुनो, मैं तुम्हारा अहित नहीं चाहती हूँ- यह समझ लो। तुममें और श्रीकृष्ण में किसी भी प्रकार का भेद नहीं है।

हरिरुपयातु वदतु बहु-मधुरम् ।

किमिति करोषि हृदयमतिविधुरम् ॥

माधवे ॥७ ॥

अन्वय - [श्रोतव्यमेवाह ] - हरिः उपयातु (समीपमागच्छतु) बहु मधुरं (चाटु) वदतु। किमिति (कथं ) हृदयम् अतिविधुरं (व्याकुलं करोषि ? [ श्रीहरेर्मधुरवचनेन मोदस्व चित्तं मा खेदय इत्यर्थः]॥७॥

अनुवाद – श्रीहरि को अपने निकट आने दो, सुमधुर बातें करने दो, क्यों हृदय को इतना अधिक दुःखी कर रही हो?

पद्यानुवाद-

जा बोलोंसे गान झरो ।

मानिनि ! मत अब मान करो ॥

बालबोधिनी - सखी कहती है- हे प्रिय राधे, हरि को अपने समीप आने दो, उन्हें मधुर बातें कहने दो। उनसे तुम्हारा पृथक् रहना ठीक नहीं है। उनके चाटु वाक्यों से स्वयं को आनन्दित कर उन्हें भी आनन्द प्रदान करो। तुम्हारा हृदय उन्हीं के लिए व्याकुल है, तुम अपने हृदय के विरुद्ध ऐसा क्यों करती हो? व्यर्थ में ही हृदय को अतिशय वञ्चित कर रही हो, इसी तरह मान करके अपने चित्त को सन्तप्त करना ठीक नहीं है, मान छोड़ दो।

श्रीजयदेव - भणितमति - ललितम् ।

सुखयतु रसिकजनं हरि-चरितम् ॥

माधवे... ॥८ ॥

अन्वय- हरि चरितं ( हरेः चरितं यत्र तत्) [ अतः ] अतिललितं ( अतिमनोहरं ) श्रीजयदेव-भणितं (श्रीजयदेवोक्तिः) रसिकजनं (श्रीकृष्णलीलारहस्यरसज्ञं भक्तजनं) सुखयतु (सुखी- करोतु ॥८ ॥

अनुवाद - श्रीजयदेव कवि द्वारा विरचित अति सुललित श्रीकृष्ण चरित कथा रसिकजनों का सुख-वर्द्धन करे।

पद्यानुवाद-

कवि जयदेव कथित यह वाणी ।

रसिकजनोंको हो सुखदानी ॥

रस परिपूरित प्राण करो ।

मानिनि ! मत अब मान करो ॥

बालबोधिनी - गीतगोविन्द काव्य के इस अठारहवें प्रबन्ध का नाम अमन्दमुकुन्द है । श्रीहरि की प्रसन्नता एवं रसिक भगवद्भक्तों की प्रसन्नता ही इस गान का एकमात्र उद्देश्य और फल है। कवि जयदेव कह रहे हैं मैंने जो यह श्रीकृष्ण का चरित वर्णन किया है, वह अति ललित है, यह रसिकों के हृदय में आनन्द का विधान करे।

स्निग्धे यत्परुषासि यत्प्रणमति - स्तब्धासि यद्रागिणि

द्वेषस्थासि यदुन्मुखे विमुखतां यातासि तस्मिन्- प्रिये ।

तद्युक्तं विपरीतकारिणि तव श्रीखण्डचर्चा विषं

शीतांशुस्तपनो हिमं हुतवहः क्रीडामुदो यातनाः ॥

अन्वय - [अथ तस्यां निरुत्तरायां राधायां सखी सेर्यमेवाह] - [राधे] तस्मिन् प्रिये (कृष्ण) स्निग्धे (स्नेहार्द्रे) [अपि] यत् परुषा (निष्ठुरा कटुभाषिणीत्यर्थः) [ असि], प्रणमति (प्रणते) [अपि] यत् स्तब्धा (दण्डवस्थिता) असि, रागिण (अनुरागवति) [अपि] यत् द्वेषस्था (विरक्ता) असि उन्मुखे ( त्वन्मुखाव- लोकनोत्सुके) अपि विमुखतां (प्रतिकूलतां) याता ( प्राप्ता) असि, अयि विपरीतकारिणि (प्रतिकूलवर्त्तिनि) [तदेतत् ते यद्विपरीतं यातं] तद्युक्तम् (अनुरूपम्); [ततः किम् इत्यते आह] - तव श्रीखण्डचर्चा (चन्दन-विलेपनं) विषम् [विषमिव उद्वेजिका], शीतांशुः चन्द्रः तपनः (सूर्यवत् सन्तापकः), हिमं हुतबह: (अग्निः) [अग्निरिव दाहकं ], तथा क्रीड़ामुदः (क्रीड़या मुदः आमोदाः रतिजनित हर्षा इति यावत्) यातनाः [सम्पद्यन्ते] [विपरीतबुद्धेः सर्वमेव विपरीतं भवतीति भावः] ॥१॥

अनुवाद - राधे ! श्रीकृष्ण ने विविध विनय वचनों से अनुरोध किया और तुम अत्यन्त कठोर बन गयीं। वे तुम्हारे निकट प्रणत हुए और तुमने उनकी ओर से मुख फेर कर उनकी उपेक्षा की, उन्होंने कितना प्रबल अनुराग दिखाया, तुम द्वेष कर रही हो। वे तुम्हारे प्रति उन्मुख हुए और तुम उनसे विमुख बनी रहीं। हे विपरीत आचरण - कारिणी ! इस आचरण-वैपरीत्य के कारण ही तुम्हें चन्दन विलेपन विष की भाँति, स्निग्ध सुशीतल चन्द्र प्रखर दिनकरसम, सुशीतल हिमकर हुताशनवत् और रतिजनित हर्ष विषम यातना सदृश अनुभूत हो रहा है।

बालबोधिनी – श्रीराधा के द्वारा जब कोई उत्तर प्रत्युत्तर नहीं दिया गया, तब सखी उसे सम्बोधित करती हुई बोली- राधे ! इस समय तुम्हें क्या हो गया है? विपरीत आचरण कर रही हो। कैसा उल्टा-पुल्टा व्यवहार कर रही हो, जिस प्रेम के लिए इतनी विकल विदग्ध हो रही थीं, जब वे मिलन हेतु आये तो विचित्र हो गयी हो, इस सुखद अवसर को अपने हाथों से खो रही हो, श्रीकृष्ण तुमसे कितना कोमल स्नेह कर रहे हैं, पर तुमने इतना मान कर लिया है कि उनके प्रति इतनी निठुर, रुक्ष, कठोर होकर उनसे पौरुष वाक्य कह रही हो। वे तुम्हारे पैरों में विनत हो रहे हैं और तुम स्तब्ध खड़ी हो। वे सर्वगुणसम्पन्न होकर भी तुम्हारे प्रति कितना अनुराग प्रकाश कर रहे हैं और तुम उनसे द्वेष कर रही हो। तुम्हारे श्रीमुख का दर्शन कर कितने उन्मुख - अभिमुख उल्लसित उत्सुक हो रहे हैं, और तुम उदासीन होकर विमुखता प्रदर्शित कर रही हो । शायद तुम्हारी मति पलट गयी है, विपरीत आचरण करनेवाली तुम्हारे लिए यह समुचित है कि ऐसे सुखदायी अवसर पर चन्दन का लेपन तुम्हें गरल सरिस सन्तप्त कर रहा है, चन्द्रमा की शीतल किरणें सन्तप्तकारी सूर्य की दाहक लपटें प्रतीत हो रही हैं, हिम कृशानु सरीखा दग्ध कर रहा है, रतिजनित आनन्द तुम्हारे लिए कष्टप्रद अनुभूत हो रही हैं, यह कैसी प्रतिकूलता तुम्हारे अन्तर्मन में समा गयी है - इस विपरीत व्यवहार का शीघ्र परित्याग करो।

सान्द्रानन्द - पुरन्दरादि- दिविषद्वृन्दैरमन्दादरा-

दानम्र मुकुटेन्द्र नीलमणिभिः सन्दर्शितेन्दिन्दिरम् ।

स्वच्छन्दं मकरन्द - सुन्दर - गलन्मन्दाकिनी - मेदुरं

श्रीगोविन्दपदारविन्दमशुभस्कन्दाय वन्दामहे ॥ २ ॥

अन्वय - [सम्प्रति श्रीकृष्णस्य ऐश्वर्यं वर्णायन्नाशिषा सर्ग समापयति ] - सान्द्रानन्द - पुरन्दरादि-दिविषद्वृन्दैः (वलेर्नियमानात् सान्द्रः निविड़ आनन्दो येषां तेषां पुरन्दरादीनां दिविषदां देवानां वृन्दैः) अमन्दादरात् (अधिकादरात्) आनम्रैः (सम्यक् प्रणतैः) [सद्भिः] मुकुटैन्द्रनीलमणिभिः (मुकुटस्थैः इन्द्रनीलमणिभिः) सन्दर्शितेन्दिन्दिरं (सन्दर्शितः इन्दिन्दिर भ्रमरो यत्र तादृशं) [तथा ] स्वच्छन्दं [ यथा तथा] मकरन्द- सुन्दर - गलन्मन्दाकिनीमेदुरं ( मकरन्दवत् सुन्दरं यथा तथा गलन्त्या क्षरन्त्या मन्दाकिन्या आकाशगङ्गया मेदुरं स्निग्धं ) श्रीगोविन्दपदारविन्दम् अशुभस्कन्दाय (अशुभानां भक्तिप्रतिबन्धकानां विनाशाय) वन्दामहे (प्रणमामः) [अतएव श्रीराधिकामानोपशमनचिन्तया मुग्धो मुकुन्दो यत्र सोऽयं सर्गो नवमः ] ॥ २ ॥

अनुवाद – बलि राजा का गर्व खर्व होने से महान आनन्द में निमग्न देवतागण बड़े आदर के साथ जिन चरणों में प्रणत हुए, इन्द्रनीलमणिमय मुकुट की शोभा निज चरणों में प्रतिबिम्बित होने से जो चरण नीलकुवलय सदृश प्रतीत हुए, मकरन्द के समान मनोहारिणी मन्दाकिनी जिन चरणों से अनायास ही स्वच्छन्दतापूर्वक निःसृत हुई है, समस्त अशुभों का निराकरण करनेवाले श्रीकृष्ण के उन श्रीचरणकमलों की हम वन्दना करते हैं।

बालबोधिनी - अब कवि जयदेव श्रीकृष्ण द्वारा श्रीराधा के प्रति कहे गये चाटु वाक्यों का स्मरण कर श्रीराधा की महिमा स्फूर्त होने से उनका सौभाग्य प्रतिपादित करने के लिए श्रीकृष्ण के ऐश्वर्य का वर्णन करने लगे हैं। उनका कहना है कि मैं अपने शिष्यों एवं प्रशिष्यों के साथ प्रेमाभक्ति के प्रतिबन्धक अशुभ समुदाय की शान्ति हेतु श्रीगोविन्द के चरणकमलों की वन्दना करता हूँ। श्रीगोविन्द के चरणकमलों का माहात्म्य बताते हुए कवि कहते हैं-

भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों की उपमा कमल से दी गयी हैउनके श्रीचरण, कमल के समान अति मनोहर हैं। जिस प्रकार कमल में पराग समाहित होता है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण के चरणों में समाहिता आकाशगङ्गा स्वच्छन्द रूप से निःसृत हो परागवत् मनोहारिणी प्रतीत होती है। पराग से सराबोर कमल पर जैसे भ्रमर सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार अतिशय आनन्द से ओतप्रोत हो अमन्द-आनन्दसन्दोह से परिपूर्ण होकर इन्द्रादि देवसमूह श्रीकृष्ण को साष्टाङ्ग प्रणाम करते हैं। उस समय प्रणाम करते हुए देवताओं के मस्तक पर स्थित किरीटों की इन्द्रनीलादि मणियों की कान्ति श्रीकृष्ण के चरणों में पतित होने से श्रीकृष्ण के चरणकमल कुवलय (नीलकमल ) सदृश प्रतीत होते हैं। नीलकमलों में जैसे भ्रमर - समुदाय सदा मंडराता रहता है, उसी प्रकार भक्तजनों का चित्त श्रीकृष्ण के चरणों में सदैव मंडराता रहता है, नित्य निरन्तर उन श्रीचरणों की महिमा का गान करता रहता है, योगीगण अपनी बाधाओं के निवारण के लिए उनके श्रीचरणकमल में सदैव ध्यान लगाये रहते हैं - उन श्रीमुकुन्द के श्रीचरणकमलों की महिमा का वर्णन करने की सामर्थ्य किसमें है? कितने कौतूहल का विषय है कि वे ही मुकुन्द श्रीराधाजी का मान उपशमित करने की चिन्ता में स्वयं मुग्ध हो रहे हैं, उन श्रीराधाजी की महिमा का क्या वर्णन किया जाय कि उनके श्रीचरणकमल को मस्तक पर धारण करने की प्रार्थना स्वयं मुकुन्द श्रीकृष्ण कर रहे हैं।

प्रस्तुत श्लोक में शार्दूलविक्रीड़ित छन्द है एवं रूपक अलङ्कार का प्रयोग है। चरणों में कमल का, गङ्गाजी में पराग का, मुकुट में जड़ित इन्द्रनीलादि मणियों में भ्रमर का आरोप किया गया है।

इति अष्टादश सन्दर्भः ।

इस प्रकार अठारहवाँ प्रबन्ध समाप्त हुआ ।

इति श्रीगीतगोविन्दे महाकाव्ये कलहान्तरिता वर्णने मुग्ध – मुकुन्दो नाम नवमः सर्गः ।

इस प्रकार श्रीगीतगोविन्द महाकाव्य में मुग्ध-मुकुन्द नामक नवम सर्ग की बालबोधिनी वृत्ति समाप्त ।

आगे जारी........ गीतगोविन्द सर्ग 10

Post a Comment

0 Comments