गीतगोविन्द तृतीय सर्ग मुग्ध मधुसूदन
कवि श्रीजयदेवजीकृत गीतगोविन्द के प्रथम सर्ग सामोद-दामोदर और द्वितीय सर्ग अक्लेश केशव को पिछले अंक आपने पढ़ा । अब तृतीय
सर्ग जिसका नाम मुग्ध मधुसूदन है। मुग्ध अर्थात् मोहित होना या आसक्त होना।
इसमें श्रीकृष्ण को श्रीराधाजी के प्रति आसक्ति का
वर्णन किया गया है।
श्रीगीतगोविन्दम् तृतीयः सर्गः मुग्ध - मधुसूदनः
श्रीगीतगोविन्द तृतीय सर्ग मुग्ध -
मधुसूदनः
अथ तृतीयः सर्गः
मुग्ध - मधुसूदनः
कंसारिरपि संसार - वासना-बन्ध -
शृंखलाम् ।
राधामाधाय हृदये तत्याज
ब्रजसुन्दरीः ॥ १ ॥
अन्वय -
[एवं सर्गद्वयेन राधा-माधवयोः उत्कर्षवर्णन-प्रसङ्गतः श्रीराधाया उत्कण्ठां
निरूप्य इदानीं कृष्णोत्कण्ठां वर्णयति महाकविः] – [ यथा सा तस्मिन् उत्कण्ठिता तथा] कंसारिः (श्रीकृष्णः ) अपि संसार
वासना-बन्ध - श्रृंखलां (सम्यक्सारभूता या वासना तस्या बन्धे दृढ़ीकरणे श्रृंखला
निगड़रूपिणी तां) राधां हृदये (चेतसि ) आधाय (आ सम्यक् प्रकारेण निवेश्य )
व्रजसुन्दरीः [अन्याः व्रजाङ्गनाः इति शेषः] तत्याज [यथा विवेकी तारतम्येण
परमपदार्थ निश्चयात् तदेकचित्तः अन्यत् सर्वं त्यजति तद्वदिति भावः ] ॥ १ ॥
अनुवाद -
कंसारि श्रीकृष्ण ने श्रीराधा के पूर्व प्रणय का स्मरण कर उसे सर्वश्रेष्ठ प्रेम का
सार अनुभव करते हुए संसार वासना के बन्धन की श्रृंखलारूपी श्रीराधा को अपने हृदय में
धारणकर अन्य ब्रजाङ्गनाओं के प्रेम को अकिञ्चित्कर जानकर उन सबका परित्याग कर
दिया।
पद्यानुवाद-
जग बन्धन सम प्राणोंकी मानिनि
राधाको मनमें-
अङ्कित कर भूल गये हरि,
प्रिय ब्रजवधुओंको क्षणमें ॥
बालबोधिनी -
पूर्व वर्णित दो सर्गों में श्रीराधामाधव उत्कर्ष का निरूपण करते हुए अन्त में
श्रीराधा का श्रीकृष्ण के प्रति अनुराग – उत्कण्ठा का निरूपण किया है। अब इस सर्ग के
प्रारम्भ में श्रीकृष्ण का श्रीराधा के प्रति अनुराग एवं उत्कण्ठा प्रदर्शित की जा
रही है।
शारदीय रासलीला की स्मृति जाग उठी-
समस्त गोपियों के मध्य अन्तर्हित हो श्रीकृष्ण श्रीराधा के साथ रासस्थली से चले
गये तथा केश-प्रसाधन आदि शृङ्गारिक चेष्टाओं से श्रीराधा का प्रेमवर्द्धन किया ।
किन्तु अब श्रीराधा के सामने न होने से श्रीकृष्ण के हृदय में विरहजनित सन्ताप जाग
उठा और सन्तप्त होकर उन्होंने ब्रजसुन्दरियों का परित्याग कर दिया।
कंसारि
- श्रीकृष्ण कंस नामक राक्षसराज के शत्रु हैं, कं सुखं सारयति विस्तारयति कंसारिः । अर्थात्
सुख के विस्तार करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण ही कंसारि हैं।
संसार वासना - बद्ध-श्रृंखलाम्-
संसार = सम्यक् सार, इस समास – वाक्य के
अनुसार संसार पद आनन्दमय तथा भावमय मधुररस का वाचक है। मधुर रस विषयिणी सतत
प्रवृत्त रहनेवाली वृत्ति ही संसार वासना है। श्रीकृष्ण को अपने वश में बनाये रखने
के कारण रास में श्रीराधा ही श्रृंखला है। जिस प्रकार किसी वस्तु का श्रेष्ठत्व
निश्चित हो जाने पर अन्यान्य वस्तुओं को छोड़कर उस श्रेष्ठ – वस्तु को प्राप्त
करने की सुदृढ़ अभिलाषा होती है- वह श्रेष्ठ वस्तु ही उसके लिए आश्रय-स्वरूप हो
जाता है। वैसे ही इस प्रसङ्ग में श्रीराधा श्रीकृष्ण के लिए सुदृढ़ आश्रय स्वरूप
है अथवा जैसे कोई विवेकी पुरुष तारतम्य के द्वारा सारवस्तु का निश्चय कर उसमें
दत्तचित्त होकर अन्य वस्तुओं का परित्याग कर देता है, वैसे
ही यहाँ श्रीकृष्ण ने साक्षातरूप में अन्यान्य गोपियों का त्याग कर दिया।
व्रजसुन्दरी:
- इस पद में बहुवचन का प्रयोग होने का अभिप्राय यह है कि सौन्दर्य सम्पन्न अनेक
युवतियों का श्रीकृष्ण ने श्रीराधा के वियोग से सन्तप्त होकर परित्याग कर दिया।
इससे श्रीकृष्ण की श्रीराधा में अनुराग अतिशयता सूचित हो रही है। इस पद्य में 'पथ्या' छन्द है ॥ १ ॥
इतस्ततस्तामनुसृत्य
राधिकामनङ्ग-बाण- व्रण - खिन्न - मानसः ।
कृतानुतापः स कलिन्दनन्दिनी -
तटान्त - कुञ्जे विषसाद माधवः ॥ २ ॥
अन्वय -
सः माधवः अनङ्ग-बाण- व्रण- खिन्नमानसः (अनङ्गस्य मदनस्य बाणजनितेन व्रणेन खिनं
कातरं मानसं यस्य तादृशः सन् ) इतस्ततः तां राधिकाम् अनुसृत्य (अन्विष्य)
कृतानुतापः (कथमहं तस्याः सर्वोत्तमतां जानन्नपि अवज्ञातवान् इति जातमनस्तापः सन्
इत्यर्थः) कलिन्दनन्दिनी - तटान्तकुञ्जे (कलिन्दनन्दिनी यमुना तस्याः तटान्ते
कुलप्रान्ते यः कुञ्जः तत्र) विषसाद (विषादं कृतवान् ) ॥ २ ॥
अनुवाद –
अनङ्गबाण से जर्जरित श्रीकृष्ण 'हाय'! मैंने श्रीराधा का क्यों परित्याग किया- मेरा उनके साथ कैसे मिलन होगा- इस
प्रकार अनुतापयुक्त होकर श्रीराधा का इधर उधर अन्वेषण करने लगे। कहीं भी न मिलने
पर यमुना के निकटवर्त्ती निकुञ्ज में विषण्णचित्त होकर पश्चात्ताप करने लगे ।
पद्यानुवाद-
अनुतापित पीड़ित फिरते,
मनसिज बाणोंके व्रणमें ।
हूले से जमुन - पुलिन पर,
भूले से वृन्दावनमें ॥
बालबोधिनी
– श्रीकृष्ण के अनुभाव का वर्णन किया जा रहा है। विरह में श्रीराधाजी की जो स्थिति
थी,
वही स्थिति अब श्रीकृष्ण की हो गयी है। श्रीकृष्ण श्रीराधा के विरह में
कामबाणों से विक्षत हो गये थे। यद्यपि वहाँ ब्रजसुन्दरियाँ समुपस्थित थीं, तथापि उन्हें उनसे उदासीनता ही बनी रही। मनः कान्ता श्रीराधा की उपस्थिति
उन्हें अधिक विषादयुक्त बना रही थी। सोचा कि आज श्रीराधा का मैं समादर नहीं कर
पाया, अतः वे यमुनातट प्रान्त के कुञ्ज में चली गयी हों।
विषादयुक्त मन से उनका अन्वेषण करने लगे- न मिलने पर अनुतप्त हो गये। यदि श्रीराधा
को अनुनयविनय के द्वारा मना लिया होता, तो वे फिर यहाँ से कहीं
न जातीं।
इस प्रकार पश्चात्ताप करते हुए
अनङ्गबाण से आहत श्रीराधा के लिए विषाद करने लगे।
माधवः
यह श्रीकृष्ण का नाम साभिप्राय है । मा-लक्ष्मी+ धव-पति = लक्ष्मीपति;
या मा-राधा + धव- प्रियतम= माधव; अर्थात् जो
श्रीराधा के प्राणप्रियतम हैं, उनका श्रीराधा के विरह में
व्याकुल होना उनकी ( श्रीराधा की) सौभाग्य- अतिशयता का प्रतीक है।
प्रस्तुत श्लोक में 'वंशस्थविला' नाम का वृत्त है। वदन्ति वंशस्थविले
जतौ जरौ - यह वंशस्थविला वृत्त का लक्षण है।
गीतम् ॥७॥
गुर्जरी रागेण यति तालेन च गीयते ।
मामियं चलिता विलोक्य वृतं वधू -
निचयेन ।
सापराधतया मयापि न निवारिताति भयेन
॥
हरि हरि हतादरतया गता सा कुपितेव
॥१॥ध्रुवम्
अन्वय -
इयं (राधा) वधूनिचयेन ( वधुनां नारीणां निचयेन समूहेन) वृतं (परिवेष्टितं) मां
[दूरतएव ] विलोक्य चलिता [अनेन अन्योन्यावलोकनं जातमिति गम्यते];
कथं तदैव नानुनीता मया दृष्टापि ] सापराधतया (आत्मानं सापराधं
मन्यमानेन इत्यर्थः) अतिभयेन (अतिभीतेनेत्यर्थः) मयापि न वारिता (निवारिता)। हरि
हरि (खेदसूचकमव्ययं - हा कष्टम् ) हतादरतया (अनादरवशेन) सा ( श्रीराधा) कुपितेव
(सञ्जात- कोपेव) गता (प्रस्थिता) ॥ १ ॥
अनुवाद -
वह श्रीराधा व्रजाङ्गनाओं से परिवेष्टित मुझको देखकर मान करके चली गयीं। अपने को
अपराधी समझकर भय के कारण मैं उसे रोकने का साहस भी न कर सका । हाय! वह समादृत न
होने के कारण क्रुद्ध सी होकर यहाँ से चली गयी।
पद्यानुवाद-
रूठ गयी अपमानित हो लख मुझको
गोपीजनमें ।
मैं अपराधी रोक न पाया उसको आकुल
क्षणमें ॥
बालबोधिनी—
हरिहरीति- खेदे - श्रीकृष्ण अपने विषाद
की अभिव्यक्ति कर रहे हैं। हाय! बड़े कष्ट की बात है कि प्रभूत गुणसम्पन्ना
श्रीराधा मुझे ब्रजसुन्दरी समूह से घिरा हुआ देखकर अपने को अनादृत एवं उपेक्षित
समझकर यहाँ से दूर चली गयीं। वे मेरे हृदय में प्रेयसी के रूप में विद्यमान हैं,
मेरे प्रति उनके आन्तरिक प्रेम का कभी व्यतिक्रम भी नहीं हुआ है,
फिर भी श्रीराधा के प्रति यह मेरा अपराध हो गया है। अपराधी होने के
कारण मैं भयभीत हो गया, उनसे अनुनय विनय भी नहीं कर सका,
उन्हें मना भी न सका । वे कुपित-सी होकर यहाँ से चली गयीं। मुझे
बड़ा विषाद हो रहा है ॥ १ ॥
किं करिष्यति किं वदिष्यति सा चिरं
विरहेण ।
किं धनेन किं जनेन किं मम जीवितेन
गृहेण-
हरि हरि हतादरतया ॥२॥
अन्वय -
सा चिरं विरहेण (दीर्घेण मद्विच्छेदेन) [काववस्थां प्राप्य] किं करिष्यति
(किमुपायं विधास्यति); [सखीं प्रति],
किं वदिष्यति इत्यहं न जाने । [तया बिना मम धनेन(गोधनेन ) किं ?
जनेन (व्रजजनेन ) किं ? गृहेण (गृहावस्थानेन)
किं ? [किं बहुना ] जीवितेन [वा] किम् [तां बिना
सर्वमेवाकिञ्चित्करमिति भावः] [हरि हरि हतादरेत्यादि सर्वत्र योजनीयम् ] ॥२॥
अनुवाद –
चिरकाल तक निदारुण विरह के ताप से परितप्त होकर न जाने वह क्या करेगी,
न जाने क्या कहेगी? अहो ! श्रीराधा के विरह में
मुझे धन, जन जीवन तथा निकेतन सब कुछ असार बोध हो रहा है।
पद्यानुवाद-
क्या न करेगी,
क्या बोलेगी विरह - विदग्धा वनमें ।
राधा बिन है शेष मुझे क्या जगती में,
जीवन में ॥
बालबोधिनी
- विरही श्रीकृष्ण की अवस्था का वर्णन करते हुए कहते हैं कि श्रीराधा के वियोग में
जो मुझ पर बीत रही है, वही उस पर भी बीत
रही होगी। कितनी आकुलता व्याकुलता अनुभव कर रही होगी ? इस
वियोगजनित दुःखानुभव का कारण मेरा अपराध ही है। मेरे ही कारण उसे इतना कष्ट हो रहा
है। जब उससे मिलूँगा तो न जाने वह कोप तथा ईर्ष्या आदि की अभिव्यक्ति कैसे करेगी?
अपनी प्रिय सखी के निकट 'निर्दय', 'निष्ठुर' कहकर मुझ पर अभियोग लगायेगी, न जाने क्या-क्या कहेगी? उसके अनन्तर मैं कहूँगा कि
राधे, तुम्हारे अभाव में धन, जन,
गोधन और गृह सम्पदा सब कुछ तुच्छ प्रतीत होता है ॥ २ ॥
चिन्तयामि तदाननं कुटिल भ्रु-
कोपभरेण ।
शोणपद्ममिवोपरि भ्रमताकुलं भ्रमरेण-
हरि हरि हतादरतया... ॥३॥
अन्वय-
कोपभरेण (कोपातिशयेन) कुटिलभ्रू (कुटिले वक्रे भ्रुवौ यत्र तादृशं) तदाननम्
(तस्याः प्रियतमाया आननम्) उपरि भ्रमता भ्रमरेण आकुलं (व्याप्तं) शोणपद्ममिव
(रक्तपङ्कजमिव) चिन्तयामि ॥ ३ ॥
अनुवाद
- मैं श्रीराधा के मँडराते हुए श्याम भ्रमरों के द्वारा परिवेष्टित आरक्त मुखकमल को
प्रत्यक्ष की भाँति देख रहा हूँ, जो रोष-भार से
कुटिल भ्रूलतायुक्त रक्तपद्म की शोभा को धारण किये हुए हैं।
पद्यानुवाद-
झुल रहा टेढ़ी भौंहोंमय,
भौंर भ्रमित मुख उसका ।
रंगा हुआ है रिससे सत्त्वर,
लाल कमल-सा जिसका ॥
बालबोधिनी -
श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि सम्प्रति मुझे श्रीराधा के मुखपद्म का स्मरण हो रहा है।
उनकी भौंहें क्रोध के कारण और अधिक कुटिल हो गयी होंगी। कोप के भार से श्रीराधा का
गोरा तथा लाल मुखड़ा कुटिल कान्तिवाली भौंहों से उसी प्रकार सुशोभित हो रहा है
जैसे लाल कमल के ऊपर मँडराते हुए काले भ्रमरों की पंक्ति व्याप्त हो ।
प्रस्तुत श्लोक में वाक्यार्थी उपमा
अलङ्कार है, क्योंकि यहाँ रोषमय मुख की उपमा
लाल कमल से तथा कुटिल काली भौंहों की समानता काले भ्रमरों की पंक्ति से की गयी है
॥ ३ ॥
तामहं हृदि सङ्गतामनिशं भृशं रमयामि
।
किं वनेऽनुसरामि तामिह किं वृथा
विलपामि-
हरि हरि हतादरतया ॥४ ॥
अन्वय -
किम् (कथं) वने ताम् अनुसरामि (अन्वेषयामि ) [न करकलितरत्नं मृग्यते नीरमध्ये
इत्याभिप्रायः ] ; [तामुद्दिश्य ]
वृथा किं (कथं) विलपामि [ एतद्विलपनं निष्फलमित्यर्थः]; अहं
हृदि सङ्गताम् (हृदयस्थां) [ अपि ] ताम् (राधाम्) अनिशं (निरन्तरं) भृशं (अत्यर्थं
) रमयामि ( तया सह विहरामि इत्यर्थः) ॥४॥
अनुवाद
- हाय! जब मैं सदा सर्वदा श्रीराधा को अपने हृदय-मन्दिर में प्रत्यक्ष अनुभव कर मन
ही मन प्रगाढ़रूप से आलिङ्गन करता हूँ, तब
मैं उसके लिए क्यों वृथा ही विलाप कर रहा हूँ, क्यों उसको
वन-वन में ढूँढ़ता फिर रहा हूँ ?
पद्यानुवाद-
राजित है वह सुन्दर प्रतिमा
मन-मन्दिरमें मेरे,
साँसें करती रहतीं जिसके फेरे
साँझ-सबेरे ।
किस वनमें प्रिय जाऊँ,
खोजूँ पदचिह्नोंको तेरे ?
कब तक रहूँ बरसता,
आँखोंमें बदलीको घेरे ?
बालबोधिनी –
विरह में अतिशय व्याकुल अन्तर्मन में श्रीराधा की स्फूर्ति प्राप्त होने पर
श्रीकृष्ण कहते हैं, श्रीराधा तो
अहर्निश मेरे मन-मन्दिर में रहनेवाली मेरी प्रियतमा प्रेयसी हैं और अपनी
हृदयस्थिता उन श्रीराधा के साथ मैं अत्यधिक रमण करता रहता हूँ। वे मुझसे कभी
वियुक्त होतीं ही नहीं। वन में जब है ही नहीं, तो उसमें उनको
खोजने से क्या लाभ है और यहाँ देखकर मैं जो विलाप कर रहा हूँ वह भी व्यर्थ है ॥ ४
॥
तन्वि खिन्नमसूयया हृदयं तवाकलयामि
।
तन्न वेद्मि कुतो गतासि तेन
तेऽनुनयामि –
हरि हरि हतादरतया... ॥५ ॥
अन्वय
- हे तन्वि (कृशाङ्गि) तव हृदयं (चेतः) असूयया (तदुत्कर्षज्ञानारोद्यमरूपे गुणे
दोषारोपणरूपया ईर्ष्यया) खिन्नम् ( नितरां व्यथितम् ) आकलयामि (सम्भावयामि);
तत् (तस्मात्) कुतः (कुत्र) गतासि इति न वेद्मि ( न जानामि);
तेन (हेतुना) ते (तुभ्यं ) न अनुनयामि ( पादग्रहणादिना न क्षमापयामि
॥५ ॥
अनुवाद -
हे कृशाङ्गि प्रतीत होता है, तुम्हारा हृदय
असूया से कलुषित हो गया है, परन्तु मैं क्या करूँ, तुम अभिमानिनी होकर कहाँ चली गयी हो पर मैं नहीं जानता हूँ कि तुम्हारे
मान को दूर करने के लिए कैसे अनुनय विनय करूँ ?
पद्यानुवाद-
जान रहा ईर्ष्यासे तन्वी! छिन्न
हृदय है तेरा ।
कहाँ गयी है?
सुन पायेगी क्या यह अनुनय मेरा ?
बालबोधिनी -
श्रीकृष्ण श्रीराधा की वियोगावस्था से अत्यन्त व्याकुल हैं,
उद्विग्न हैं। वे अपने समक्ष ही विद्यमान- सी श्रीराधा को मानकर
स्फूर्त्ति के उद्गमित होने पर श्रीराधा को 'तन्वि' पद से सम्बोधित करने लगे- हे राधे ! मैंने तुम्हें छोड़कर दूसरी
ब्रजाङ्गनाओं के साथ विहार किया । इसलिए तुम्हारा हृदय कलुषित हो गया है, तुम्हारे हृदय में अपनी उत्कर्षता के कारण दूसरों के प्रति ईर्ष्या भर गयी
है । दोषारोपण के कारण तुम्हारा हृदय खेदमय हो गया है। तुम यहाँ से अन्यत्र चली
गयी हो। यदि मैं जानता कि तुम कहाँ गयी हो तो तुम्हारा पादस्पर्श करके तुम्हें मना
लेता - तुमसे क्षमा माँग लेता ॥५ ॥
दृश्यसे पुरतो गतागतमेव मे विदधासि
।
किं पुरेव ससंभ्रमं - परिरम्भणं न
ददासि—
हरि हरि हतादरतया... ॥६॥
अन्वय
- [ प्रिये,] मे (मम) पुरतः (अग्रतः) एव
गतागतं (यातायातं) विदधासि (करोषि); [ पुरतः ] दृश्यसे
[तथापि] किं (कथं) पुरा इव (पूर्ववत्) ससम्भ्रमं (सावेगं यथा स्यात् तथा)
परिरम्भणं (आलिङ्गनं) न ददासि [पुरः स्थितायाः प्रियतमाया ईदृशी निष्ठुरता न
युक्ता इत्यभिप्रायः]॥६॥
अनुवाद
- हाय! तुम मेरे सामने आती जाती सी दिखायी दे रही हो,
पर पहले की भाँति अतिशय प्रेमोल्लास के कारण सम्भ्रम के साथ तुम
सहसा ही मेरा आलिङ्गन क्यों नहीं करती हो?
पद्यानुवाद-
मेरे सम्मुख दीख रही तू,
पल पल आती जाती।
क्यों न सजनि ! फिर सहज भावसे भुज
युगमें बँध जाती ॥
बालबोधिनी -
हे प्रिये कृशाङ्गि ! अपने सामने मैं तुमको यातायात करता हुआ देख रहा हूँ,
बस केवल तुम आती जाती ही हो, पर क्या कारण है
कि आज तुम मुझे आलिङ्गन पाश में नहीं बाँध रही हो? तुम इतनी
निष्ठुर क्यों बन गयी हो ? सच है कि विरही पुरुष की
उद्विग्नावस्था जब पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है, तब उस समय
उसकी भावना चरम अवस्था को प्राप्त हो जाती है। उस समय उसे लगता है कि उसका प्रेमी
वहीं है। श्रीराधा के वियोग के कारण श्रीकृष्ण इतने विकल हो गये हैं कि उनकी भावना
साक्षात्कृतावस्था तक पहुँच गयी है, सभी ओर श्रीराधा ही
श्रीराधा दिखायी दे रही है। वही, वही, बस
वही श्रीराधा सम्पूर्ण संसार में दिखायी दे रही है ॥ ६ ॥
क्षम्यतामपरं कदापि तवेदृशं न करोमि
।
देहि सुन्दरि दर्शनं मम मन्मथेन
दुनोमि—
हरि हरि हतादरतया... ॥७ ॥
अन्वय
- हे सुन्दरि, क्षम्यतां [अपराधमिमम् इति शेषः
] कदापि तव अपरम् ईदृशम् ( एवम्प्रकारं ) [ अप्रियमिति शेषः ] न करोमि (करिष्यामि);
[अतः] मम दर्शनं देहि, मन्मथेन (मनो मध्नातीति
मन्मथो विरहः तेन) दुनोमि (क्लेशं प्राप्नोमि ॥७॥
अनुवाद -
हे सुन्दरि ! मुझे क्षमा कर दो। अब तुम्हारे सामने ऐसा अपराध कभी नहीं करूँगा। अब
दर्शन दो,
मैं कन्दर्प पीड़ा से व्यथित हो रहा हूँ।
पद्यानुवाद-
क्या न क्षमा अब कर दोगी निज
अपराधीको रानी ?
मधुमयि ! दर्शन दे कष्टोंकी कर दो अन्त
कहानी ॥
भूल न होगी: अब भविष्यमें यह
आँखोंका पानी-
साक्षी है,
कवि 'जय' के स्वरमें
गूँजी मोहन - वाणी ॥
बालबोधिनी – श्रीकृष्ण
की उद्वेगावस्था की चरम सीमा यहाँ कवि द्वारा अभिव्यक्त हो रही है। मन में
श्रीराधा की स्फूर्ति होने लगी है, उनके
सामने वे अपने आराध्य की स्वीकृति करते हुए कह रहे हैं, हे
राधे ! मेरे अपराधों को क्षमा करो, जो कुछ हो गया उसे भूल
जाओ, भविष्य में अब कभी ऐसा अपराध नहीं करूँगा। मुझे दर्शन
दो, मैं तुम्हारा अति प्रिय हूँ, तुम
मेरी आँखों से ओझल मत होओ। तुम्हारे विरह में मैं कामताप से झुलसा जा रहा हूँ।
प्रस्तुत गीत में वर्णित नायक
श्रीकृष्ण धीर ललित हैं तथा परस्पर अनुराग जनित विप्रलम्भ- शृङ्गार इस गीत का
प्रधान रस है ।
वर्णितं जयदेवकेन हरेरिदं प्रवणेन ।
केन्दुविल्व-समुद्रसम्भव-रोहिणी-
रमणेन-
हरि हरि हतादरतया ॥८ ॥
अन्वय-
केन्दुबिल्व- समुद्र सम्भव - रोहिणी - रमणेन (केन्दु- बिल्वनामा ग्रामः स एव
समुद्रं तस्मात् सम्भवतीति तथोक्तः यः रोहिणीरमणः चन्द्रः तेन) जयदेवकेन प्रवणेन
(प्रणतेन सता; नम्रेण इत्यर्थः) हरेः
(कृष्णस्य) इदं (विरहगीतं ) वर्णितं (रचितम्) ॥८ ॥
अनुवाद -
केन्दुविल्व नामक ग्रामरूप समुद्र से जो चन्द्रमा की भाँति आविर्भूत हुए हैं,
जिन्होंने श्रीकृष्ण की विलापसूचक वचनावली का संग्रह किया है-ऐसे
कवि श्रीजयदेव विनम्रता के साथ इस गीत का वर्णन कर रहे हैं।
बालबोधिनी -
कवि श्रीजयदेवजी ने अत्यन्त विनयपूर्वक श्रीराधा के प्रति श्रीकृष्ण के विरह-विलाप
का वर्णन किया है। समुद्र से जैसे चन्द्रमा का उद्भव होता है,
उसी प्रकार केन्दुविल्व गाँव में जयदेव नामक कवि का आविर्भाव हुआ
है। श्रीजयदेव कवि का एक नाम पीयूषवर्षी है। पीयूषवर्षी चन्द्रमा का भी एक नाम है।
रोहिणीरमण चन्द्रमा का ही नाम है। चन्द्रमा से जैसे सभी लोग आनन्दित होते हैं,
उसी प्रकार इस गीतिकाव्य से भी सभी लोग आनन्दित होंगे ॥८ ॥
हृदि विसलता - हारो नायं
भुजङ्गम-नायकः
कुवलय-दल-श्रेणी कण्ठे न सा गरल -
द्युतिः
मलयज - रजो नेदं भस्म - प्रिया
-रहिते मयि
प्रहर नहर - भ्रान्त्याऽनङ्ग क्रुधा
किमु धावसि ? ॥९ ॥
अन्वय
- [ अधुना मन्मथमुपालभते ] - हे अनङ्ग, क्रुधा
(कोपेन) किमु (कथं ) धावसि ? [मदर्थञ्चेत्, तर्हि ] हरभ्रान्त्या (शङ्करभ्रमेण) प्रियारहिते मयि न प्रहर (प्रहारं मा
कुरु ) [ हरस्तु प्रियार्द्धाङ्गयुक्तः अतो नाहं हरोऽस्मि; तल्लक्षणादिकं
चेत् दृश्यते मयि इत्यपि न; तथाच हरभ्रान्ति वारयति ] हृदि (
मम वक्षसि) अयं विसलताहारः (विसलताया मृणालस्य हारः); [विरहतापशान्त्यर्थं
ध्रियते इति भावः] भुजङ्गम-नायकः (भुजगपतिः शेषः यः हरेण मालाकारेण हृदि ध्रियते
इति सः) न। कण्ठे कुवलय- दलश्रेणी (कुवलयानां नीलोत्पलानां दलश्रेणी दलपङ्क्तिः),
[शैत्याय ध्रियते इति भावः ]; सा (प्रसिद्धा)
गरलद्युतिः (हलाहलकान्ति; या हरकण्ठे विराजते सा) न। [किञ्च
] इदं (मम गात्रलग्नं) मलयज - रजः (चन्दनरेणुः) विरहताप - शान्त्यर्थं शैत्याय
सौगन्धाय ध्रियते इति भावः ] भस्म (हरगात्रलग्नं भषितं) न॥९॥
अनुवाद -
हे अनङ्ग ! क्या तुम मुझे चन्द्रशेखर जानकर रोष भरकर कष्ट दे रहे हो?
तुम्हारी यह कैसी विषमता है ? मेरे हृदय में
जो कुछ देख रहे हो, वह भुजङ्गराज वासुकी नहीं है, यह तो मृणाल लता निर्मित हार है। कण्ठदेश में विष की नीलिमा नहीं है,
नील कमल की माला है। यह प्रियाविहीन मेरी इस देह पर चिताभस्म नहीं,
यह तो चन्दन का अनुलेपन है। इसलिए हे मन्मथ ! तुम निवृत्त हो जाओ,
भ्रम में पड़कर मुझ पर व्यर्थ ही विषम बाण की वर्षा मत करो, क्रोध करके मेरी ओर क्यों दौड़ रहे हो ? और देखो !
महादेव पार्वती के साथ अर्द्धाङ्ग में मिलित होकर सुख से विराज रहे हैं, परन्तु मेरी प्राणाधिका राधिका के साथ मिलन तो बहुत दूर की बात, वह कहाँ है, मैं भी नहीं जानता हूँ ॥९॥
पद्यानुवाद-
उर पर नाग नहीं है यह तो,
श्रेणी कुवलय दलकी ।
विषकी आभा नहीं कण्ठमें,
माला नील कमल की ॥
भस्म नहीं है शीतल करने,
विरह तापकी ज्वाला-
लगा रहा मलयज - रज तनमें,
मैं विरही मतवाला ॥
बालबोधिनी -
प्रेयसी श्रीराधा के विरह में कामदेव के बाणों से श्रीकृष्ण का अन्तःकरण जर्जरित
हो गया है। श्रीकृष्ण को ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे
कामदेव ने उसे चन्द्रमौली समझ लिया है, तभी तो अपने अभेद्य
बाणों का प्रहार उन पर कर रहा है, विह्वल होकर श्रीकृष्ण
कहते हैं हे अनङ्ग! देखो, महादेव सर्वदा अपनी प्रियतमा
पार्वती के साथ अर्द्धाङ्ग में मिलित होकर कैसे सुख से विराजमान हैं, परन्तु प्राणाधिका श्रीराधिका के साथ मेरा मिलन तो बहुत दूर की बात है,
वह कहाँ है, यह भी मुझे पता नहीं है। मन्मथ –
सन्ताप से पीड़ित श्रीकृष्ण को श्रीराधा की स्फूर्ति हो रही है। अतः वे साक्षात्
रूप में कह रहे हैं - हे अनङ्ग ! तुम क्यों व्यर्थ ही क्रोध करके मुझे शङ्कर समझकर
बार-बार मेरे ऊपर आघात करने के लिए दौड़ रहे हो। तुम्हें जो यह साँप की तरह कमलनाल
के सूतों की माला दिखती है, यह तो मृणाल – दण्ड का हार है,
मेरे गले में जो नील कमलों की पंक्ति है, उसे
तुम शङ्कर के गले में विष की नीलकान्ति मान रहे हो, मेरे
शरीर पर जो यह देख रहे हो वह भस्म नहीं है, वह तो प्रियतमा के
वियोगजनित सन्ताप को दूर करने के लिए मलयज चन्दन का लेप लगाया है, जो सूखकर भस्म में परिणत हो गया है। मैं तो प्रिया के बिना वैसे ही
निष्प्राण हो रहा हूँ; क्यों मेरे ऊपर प्रहार कर रहे हो ?
प्रस्तुत श्लोक में हरिणी छन्द,
अपह्नुति अलङ्कार तथा विप्रलम्भ-शृङ्गार चित्रित है। कुछ विद्वानों के
मतानुसार यहाँ भ्रान्तिमान अलङ्कार है ।
पाणौ मा कुरु चूत - शायकममुं मा
चापमारोपय
क्रीड़ा - निर्जित- विश्व ! मुच्छित
- जनाघातेन किं पौरुषम् ।
तस्या एव मृगीदृशो मनसिज !
प्रेङ्खत्कटाक्षाशुग-
श्रेणी - जर्जरितं मनागपि मनो
नाद्यापि सन्धुक्षते ॥ १० ॥
अन्वय
- [ न केवलमङ्गदाहात् शिवो मम वैरी, भवानपि
उल्लङ्घित- शासन-त्वात्, अतस्त्वय्यपि प्रहरिष्यामीत्यत आह]
- हे क्रीड़ानिज्जितविश्व (क्रीड़या निज्जितः विश्वं येन तत्सम्बुद्धौ ) हे मनसिज
(हे अनङ्ग) अमुं चूतशायकं (आम्रमुकुलरूपं बाण) पाणी (हस्ते) मा कुरु (मा गृहाण);
[ यदि पाणौ कृतवानसि तर्हि पाणौ एव आस्ताम्] चापं (धनुः) मा आरोगय
(शयेण मा सन्धेहि इत्यर्थः ); [ कथमेवं विधेयमित्यत आह] -
मूच्छितजनाघातेन ( मूर्च्छितस्य शरप्रहारेण मोहं गतस्य जनस्य आघातेन प्रहारेण
प्रहत प्रहारेण इत्यर्थः ) किं पौरुषं (कः पुरुषकारः ) ? (कथं
त्वं मूच्छितः इत्यत आह ) – [मम ] मनः तस्या एव मृगीदृशः
(मृगाक्ष्याः राधायाः) प्रेङ्खत्कटाक्षाशुग- श्रेणीजर्जरितं (प्रेङ्खन्तः
उच्छलन्तं ये कटाक्षाः ते एव आशुगाः बाणाः तेषां श्रेणीभिः पङ्क्तिभिः जर्जरितं
नितरां विद्धम्) [अतएव] अद्यापि मनागपि ( अत्यल्पमपि ) न सन्धुक्षते ( न प्रकृतिं
गच्छति ॥ २ ॥
अनुवाद -
हे कन्दर्प ! क्रीड़ा के छल से शरासन के बल पर समस्त विश्व को जीतनेवाले,
स्मर ज्वर से पीड़ित अत्यन्त दीनहीन जर्जरित मेरे जैसे व्यक्ति के
ऊपर प्रहार करने से तुम्हारा कौन सा पराक्रम सिद्ध होगा ? तुम
इस आम्रमञ्जरी के बाण को अपने हाथ में मत लो और यदि लेते भी हो तो उसे धनुष पर मत
चढ़ाओ। देखो! उस मृगनयना श्रीराधा के ही प्रसृमर कटाक्षों से जर्जरित मेरा मन अभी
तक स्वस्थ नहीं हो पाया है, अतएव मदनविकार से मूर्च्छित उस पर
प्रहार मत करो ॥ १० ॥
पद्यानुवाद-
शिवके धोखे 'अशिव' कृत्य क्यों करते मनसिज भोले !
रोष भरे बरसाते हो शर निशिदिन तरकस
खोले ।
आम्रमञ्जरीके बाणोंको मत निज करमें धरना
।
यदि धरना तो धनुपर धरकर सन्धान न करना
॥
देख रहे हो मृगनयनीके शरसे हियका छिदना
।
पुनः तुम्हारे बाणोंका क्या सह
पाऊँगा बिधना ॥
निज क्रीड़ासे जीत विश्वको उस पर शासन
करते ।
मूर्च्छित जनपर कर प्रहार क्यों शौर्य
प्रदर्शन करते ?
बालबोधिनी –
कामदेव ने मानो श्रीकृष्ण से कहा- मेरे शरीर को जलानेवाला वह शिव तो शत्रु है ही,
परन्तु आप भी मेरे शासन का उल्लंघन करनेवाले हैं, अतः आप पर भी बाणों का अनुसन्धान करूँगा। तब श्रीकृष्ण काम को उपालम्भ
देते हुए कहते हैं कि हे मनसिज ! मत लो हाथ में आम के बौरों का बाण ।
कामदेव के पुष्पबाण पाँच प्रकार के
होते हैं-
(१) आम्र मुकुल, (२) अशोक पुष्प, (३) मल्लिका पुष्प, (४) माधवी पुष्प, (५) बकुल पुष्प (मौलश्री) ।
वसन्त ऋतु होने के कारण आम्रमञ्जरी
वृक्षों के अग्रभाग में निकल आयी है। श्रीकृष्ण विचार कर रहे हैं कि कामदेव इसी
आम्रमञ्जरी को अपना बाण बनाकर राधा-विरह में व्यथित मुझ पर ही आघात करेगा। अतएव
उसे विरमित कर रहे हैं- तुम आम्रमञ्जरी के उस बाण को अपने करों में ग्रहण मत करो।
मा चापमारोपय
- यदि तुमने निज हाथों में धारण कर ही लिया है, तो
भी इसे अपने धनुष की प्रत्यंचा पर मत चढ़ाओ । हे क्रीड़ानिर्जित विश्व-अपने खेल से
ही विश्व को जीतनेवाले ! मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ, वह
बाण मुझ निष्प्राण का वध कर डालेगा। तुम विश्वविजयी हो, मैं
श्रीराधा के वियोग के कारण मृततुल्य हूँ। तुम्हारे जैसा वीर किसी मरे को मारने लगे,
तो तुम्हारा ही अपयश होगा, तुम्हारे पराक्रम की
प्रशंसा न होगी।
'मनसिज' इस
पद से श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि तुम तो मेरे मन से ही उत्पन्न हुए हो। जिससे
उत्पन्न हुए हो, उसी को मारने लग जाना तो कोई
उचित कार्य नहीं है।
तुम श्रीराधा के लिए मेरे प्रति
बाणों का प्रहार करना चाहते हो तो श्रीराधा के प्रसृमर कटाक्षपातरूपी बाण जो
तुम्हारे बाणों से भी अधिक तीक्ष्ण है, उसी
से जर्जरित हो गया हूँ। इस घायल पर असाध्य विषबाण का प्रहार क्यों ?
प्रस्तुत श्लोक में शार्दूल
विक्रीड़ित छन्द तथा आक्षेपालङ्कार है ॥ १० ॥
भ्रूपल्लवो धनुरपाङ्ग-तरङ्गितानि
बाणा गुणः श्रवण- पालिरिति स्मरेण ।
तस्यामनङ्ग- जय - जङ्गम-देवताया-
मस्त्राणि निर्जित- जगन्ति
किमर्पितानि ॥ ११ ॥
अन्वय-
भ्रूपल्लवः (भ्रूः पल्लव इव तथोक्तः) धनुः (कार्मुकं) अपाङ्गतरङ्गितानि
(कटाक्षप्रेक्षितानि) बाणाः (शराः), श्रवणपालिः
(कर्णप्रान्तभागः) गुणः (मौर्वी) इति (एतानि) निर्जित- जगन्ति (निर्जितानि जगन्ति
यैः तादृशानि ) अस्त्राणि स्मरेण (कामेन) अनङ्ग-जय-जङ्गम-देवतायाम् (अनङ्गस्य जयः
त्रिभुवनपराभव स्तस्य या जङ्गमा चञ्चला देवता तदधिष्ठात्री देवीत्यर्थः तथाभूतायां
) तस्याम् (राधायाम्) अर्पितानि ( न्यस्तानि) किम् ? [ तत्प्रसादलब्धैरस्त्रैः
जगज्जित्वा पुनस्तत्रै- वार्पितानीति भावः ] ॥३॥
अनुवाद -
अहो ! भ्रु-पल्लवरूपी धनुष, अपाङ्ग भङ्गिमा,
तरङ्गरूपी बाण, नयन अवधि श्रवण प्रान्त तक
विस्तृत ज्या अर्थात् धनुष की डोरी इस सम्पूर्ण अमोघ अस्त्रविद्या के साधनरूपी
उपकरणों को कामदेव ने सम्पूर्ण जगत को निर्विशेषरूप में जीतकर उन अस्त्रों की
स्वामिनी, अपनी विजय की जङ्गम देवता श्रीराधा को पुनः अर्पित
कर दिया है।
पद्यानुवाद-
त्रिभुवन विजयी अस्त्रोंको,
अर्पित राधाको ऐसे-
कर समा गया स्मर उसमें कोई हारा हो
जैसे ।
भौंहोंमें 'धनुष' बसा है, शर-पाँत दीठमें
बैठी!
कानोंकी पाली दिखती,
मानो प्रत्यंचा ऐंठी ॥
बालबोधिनी
- श्रीकृष्ण श्रीराधा में कामबाण – समूह का आरोपण करते हुए कहते हैं कि संसार को
जीतनेवाले अस्त्रों को कामदेव श्रीराधा में ही निक्षिप्त कर दिया है क्या?
'तत्' शब्द से यहाँ 'पूर्वानुभूति'
अभिव्यक्त हुई है। 'तस्याम्' पद से सूचित किया है कि जिस श्रीराधा के वियोग से मैं व्याकुल हूँ,
जो मेरी मनःकान्ता है, उसी में श्रीकृष्ण ने
जगद्विजयी अस्त्रों को निक्षिप्त कर दिया है।
श्रीराधा के द्वितीय वैशिष्ट्य का
प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि श्रीराधा अनङ्गजयी जङ्गम देवता है। कामदेव तो
जगद्विजय करनेवाले चलते-फिरते देवता हैं। श्रीराधा से ही अस्त्रों को उपलब्ध करके
कामदेव ने जगत् जीता और पुनः उद्देश्य की पूर्ति हो जाने पर उसी देवता को उन
अस्त्रों को समर्पित कर दिया है।
कामदेव का जगद्विजयी अस्त्र है-
भ्रूपल्लव- धनुः । श्रीराधा की भौंहें नीली एवं स्निग्ध हैं;
इसलिए उनमें भ्रूपल्लव का आरोप है और टेढ़ी होने से उनमें धनुष का
आरोप है। श्रीराधा के 'अपाङ्ग तरङ्ग' ही
कामदेव के अपाङ्ग वीक्षणरूपी कटाक्षवेधक बाण हैं। बाण जिस प्रकार अभिलक्ष्य का
भेदन कर डालते हैं, उसी प्रकार श्रीराधा ने भी मेरे मन को
भेद डाला है। 'अस्त्र' शब्द से
अस्त्रविद्या साधन के उपकरण कहे जाते हैं।
इस प्रकार श्रीकृष्ण ने तत् तत्
आविष्कार समर्थ अवयवों में कामदेव के तत् तत् अस्त्रविद्या साधनोपकरणों की
उत्प्रेक्षा की है।
इस श्लोक में 'वसन्त तिलका छन्द है, उत्प्रेक्षा एवं रूपक
अलङ्कारों की संसृष्टि है ॥ ११ ॥
भ्रूचापे निहितः कटाक्ष - विशिखो
निर्मातु मर्मव्यथां
श्यामात्मा कुटिलः करोतु कबरी -
भारोऽपि मारोद्यमम् ।
मोहन्तावदयञ्च तन्वि तनुतां
विम्बाधरो रागवान्
सद्वृत्तं स्तन - मण्डलं तव कथं प्राणैर्मम
क्रीड़ति ॥ १२ ॥
अन्वय
- [ अधुना तत्कटाक्षादि स्मरणेन स्वस्य सातिशय-पीड़ां वर्णयति ] - हे तन्वि
(कृशाङ्गि) भ्रूचापे (भ्रूरेव चापो धनुः तत्र) निहितः (अर्पितः) कटाक्षविशिखः
(कटाक्ष एव विशिखः शरः) मर्मव्यथां (मर्माणि व्यथां) निर्मातु (विदधातु) [नात्राप्यनौचित्यं
चापार्पितबाणस्य मर्मव्यथादायक स्वभावत्वादिति भावः; श्यामात्मा (श्यामवर्णः अन्यत्र मलिनस्वभावः) कुटिलः (भङ्गिभृत्; अन्यत्र वक्रस्वभावः) कबरीभारः (केशपाशः) अपि मारोद्यमं (मारस्य अन्यत्र
मारणस्य उद्यमं) करोतु [कुटिलस्य मलिनस्वभावस्य च मारक स्वभावत्वादितिभावः];
अयञ्च रागवान् (रक्तवर्णः; अन्यत्र क्रोधनः)
विम्बाधरः (विम्बफलवत् अधरः) मोहं तावत् तनुतां (विदधातु) [स्वभावकोपनस्य
प्रहारादिना मोहजनकत्वादिति भावः]; तव सद्वृत्तं (सुगोलं
अन्यत्र सुचरित्रं) स्तनमण्डलं कथं मम प्राणैः क्रीड़ति (प्राणहरणरूपां क्रीड़ां
किमिति करोतीत्यर्थः) [सद्वृत्तस्य परपीड़ाकरणमनुचितमिति भावः] ॥ १२ ॥
अनुवाद
- हे छरहरी देहयष्टिवाली (इकहरे बदन वाली) राधे ! तुम्हारे भ्रूचाप से निक्षिप्त
कटाक्ष विशिख (बाण) मेरे हृदय को निदारुण पीड़ा से पीड़ित करे,
तुम्हारा श्यामल कुटिल केशपाश मेरा वध करने का उपक्रम करे, तुम्हारा यह बिम्बफल के समान राग-रञ्जित अधर मुझमें मोह उदित करे, किन्तु तुम्हारा यह सद्वृत्त (सुगोल ) मनोहर मण्डला स्तनयुगल सुचरित होकर
क्रीड़ा के छल से मेरे प्राणों के साथ क्यों क्रीड़ा कर रहा है ?
पद्यानुवाद-
हे तन्वि नेत्र - शर तेरे,
नित छेद रहे हैं उरको
वे व्याल केश भी रह-रह,
डँसते रहते हैं मुझको ।
वे सरस मधुर बिम्बाधर,
मुझको मोहाकुल करते
उन्नत उरोज सखि ! तेरे,
क्यों जी में जीवन भरते ॥
बालबोधिनी
– श्रीराधा का ध्यान करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं, राधे ! तुम्हारे भ्रुकुटि धनुष में आरोपित बाण ही मेरे अन्तःकरण को
प्रपीड़ित कर रहे हैं, तुम्हारे कटाक्ष की लहरें ही बाण हैं,
उनका ऐसा करना उचित ही है, क्योंकि धनुष से
सम्बन्धित बाण स्वाभाविकरूप से दूसरों के लिए दुःखदायी होते हैं- दूसरों को
विदीर्ण करना ही तो इनका धर्म है।
तुम्हारे काले कुञ्चित स्वाभाविक
रूप से वक्रता धारण किये हुए केश भी मारने का पराक्रम करते हैं,
यह भी अनुचित नहीं है, क्योंकि जिसका हृदय
कुटिल एवं मलिन होता है, वह दूसरों को मारने का प्रयास
स्वाभाविकरूप से करते ही हैं।
हे कृशाङ्गि राधे ! बिम्बफल सदृश
तुम्हारा यह रक्तिम अधर मुझे मूर्च्छित कर रहा है, उसमें भी कोई अनौचित्य नहीं हैं, क्योंकि जो रागी
होता है वह अनुराग में क्या नहीं करता? दूसरों को मोहित करने
का काम स्वाभाविकरूप से करता है।
किन्तु यह अवश्य ही अनुचित लगता है
कि तुम्हारा सुवर्त्तुल स्तनयुगल क्रीड़ा के छल से मेरे प्राणों को हरण करने की
चेष्टा क्यों कर रहा है? सज्जनों का ऐसा
आचरण तो अस्वाभाविक ही है। जो सद्वृत्त होता है, वह दूसरों के
प्राणों के साथ खिलवाड़ नहीं करता ।
प्रस्तुत श्लोक में शार्दूल
विक्रीड़ित छन्द तथा विरोधालङ्कार है ॥ १२ ॥
तानि स्पर्श - सुखानि ते च तरलाः
स्निग्धा दृशोर्विभ्रमा-
स्तद्वक्त्राम्बुज - सौरभं स च
सुधास्यन्दी गिरां वक्रिमा ।
सा विम्बाधर - माधुरीति
विषयासङ्गेपि चेन्मानसं
तस्यां लग्न-समाधि हन्त
विरह-व्याधिः कथं वर्द्धते ॥ १३ ॥
अन्वय-
तानि (पूर्वानुभूतानीत्यर्थः) स्पर्शसुखानि (अङ्गस्पर्श- जनितानि सुखानि ) [ एतेन
त्वगिन्द्रिय विषयासङ्गः प्राप्तः]; ते
च (पूर्वानुभूताः) तरलाः (चञ्चलाः) स्निग्धाः (स्नेहवर्षिणः) दृशोः (चक्षुषोः)
विभ्रमाः (विलासाः) [एतेन चक्षुरिन्द्रिय- विषयासङ्गलाभः]; तद्वक्त्राम्बुज-
सौरभं (तत् पूर्वानुभूतं वक्त्रमेव अम्बुजं तस्य सौरभं ) [ एतेन
घ्राणेन्द्रिय-विषयासङ्ग उक्तः]; स च (पूर्वानुभूतः)
सुधास्यन्दी (अमृतस्रावी) गिरां (वाचां) वक्रिमा (वक्रता भङ्गिविशेष इत्यर्थः)
[एतेन श्रवणेन्द्रिय- विषयासक्तिः सूचिता]; सा च विम्बाधर -
माधुरी (विम्बाधरस्य माधुरी मधुरता ) [ एतेन रसनेन्द्रिय विषयासक्तिः सूचिता];
सा च विम्बाधर - माधुरी (विम्बाधरस्य माधुरी मधुरता ) [ एतेन
रसनेन्द्रिय-विषयासङ्गः प्राप्तः ] । इति (एवं) विषयासङ्गेऽपि (विषयेषु आसङ्गे
व्यासक्तौ अपि) [मम] मानसं तस्यां (राधायां) लग्नसमाधि (लग्नः समाधिरेकाग्रता यस्य
तादृशं; तदेकासक्तमित्यर्थः) हस्त (खेदे) विरहव्याधिः
(विच्छेदयन्त्रणा) कथं वर्द्धते [वियुक्तयोरेव विरहः स्यात् अत्र मनसः संयोगो
वर्त्तते तत्कथमियं यातना इत्यभिप्रायः ] ॥ १३ ॥
अनुवाद
– एकान्त में प्रिया का ध्यान करते हुए मैं इसके उसी सुविमल स्पर्शजनित सुख का
अनुभव कर पुलकित हो रहा हूँ, उसके नयनयुगल की
चञ्चलता, सुस्निग्ध भङ्गिमा, विभ्रमता
और दृष्टिक्षेपता मुझे संजीवित कर रही है, उसके मुखारविन्द का
सौरभ मुझे आप्लावित कर रहा है, उसकी उस अमृत निस्यन्दी
वचन-परम्परा की वक्रिमा को श्रवण कर रहा हूँ। उसके बिम्बफल सदृश मनोहर अधर का मधुर
सुधारस का मैं आस्वादन कर रहा हूँ। उसमें समाधिस्थ मेरे मन की विषयासक्ति बनी हुई
है, फिर भी मुझमें विरह व्याधि की यातना अधिकाधिकरूप में
क्यों बढ़ती जा रही है?
पद्यानुवाद-
वे स्पर्शजनित सुख कोमल, चल दृष्टिक्षेप रस भीने
वह वदन कमल मधु सौरभ, वे वचन सुधा मधुलीने ।
वे मधुर अधर बिम्बा सम,तन्मय करते यों मनको
जैसे समाधिमें योगी,
विस्मृत कर देते तनको ।
संलग्न ध्यान सखि ! तुझमें पर विरह
व्यथा यह मेरी
भूली है लेश न मुझको,
घेरे हैं बनी अहेरी ॥ १३ ॥
बालबोधिनी
– भावना की प्रबलता से श्रीराधा के साथ विलास की स्फूर्ति होने पर अन्तःकरण में
बहती हुई विरह-व्याधिक प्रतिकूलता का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं- श्रीराधा
में मेरा मन समाधिस्थ हो गया है, तथापि विरह
क्यों मुझे सता रहा है, क्योंकि विरह तो वहाँ होता है जहाँ
खेद एवं वियोग होता है, जबकि मेरा मन तो श्रीराधा में संलग्न
है।
मनः संयोग के अभाव में विरह माना जा
सकता है,
परन्तु मन तो यहाँ संयुक्त है, फिर भी विरह
इसलिए है कि इन्द्रिय संयोग का अभाव है। अतः पर यह भी कहा गया है कि विषयों के न
रहने पर भी मन-ही-मन इन्द्रियसुख का अनुभव होने से उसे संयोग कहा जा सकता है,
परन्तु विरह बना हुआ होता है।
यथार्थ क्या है?
मिलन में जो अनुभव होता था, वही अनुभव विरह में
भी हो रहा है। त्वचा से श्रीराधा के स्पर्शजनित पूर्वानुभूत सुख को ही अनुभव कर
रहा हूँ, चक्षु से उसके प्रेमाद्रनेत्रों की तरल प्रीति
रसधार को देख रहा हूँ, नासिका से श्रीराधिका के मुखकमल के
पूर्वानुभूत सौगन्ध का आघ्राण कर रहा हूँ। समाधि में प्रत्यक्षमाणा श्रीराधा की
वाणी की अमृत-स्राविणी वक्रिमा का श्रवणास्वादन कर रहा हूँ, तथैव
बिम्बफल सदृश अरुणिम सुकुमार अधराधर की मधुर सुधारस माधुरी में अवगाहन कर रहा हूँ।
इस प्रकार पाँचों प्रकार के विषयों का सम्बन्ध मेरे साथ बना हुआ है। तथापि न जाने
क्यों विरहजनित समाधि बढ़ती जा रही है?
प्रस्तुत श्लोक में शार्दूल
विक्रीड़ित छन्द है, समुच्चयालङ्कार तथा
विप्रलम्भ शृङ्गार है ॥ १३ ॥
तिर्य्यक-कण्ठ-विलोल - मौलि -
तरलोत्तंसस्य वंशोच्चरद्
गीति - स्थान - कृतावधान ललना-लक्ष
र्न संलक्षिताः ।
सम्मुग्धं मधुसूदनस्य मधुरे
राधामुखेन्दौ सुधा-
सारे कन्दलिताश्चिरं ददतु वः क्षेमं
कटाक्षोर्म्मयः ॥ १४ ॥
अन्वय
- [अधुना आशिषा सगँ समापयति ] - तिर्य्यक्- कण्ठ-विलोल-मौलि-तरलोत्तंसस्य (
तिर्य्यक् ईषद्वक्रः कण्ठः यस्य सः विलोलः चञ्चलः मौलिः मस्तकं तत्रत्य चूड़ा वा
यस्य तथाभूतः तथा तरलौ चञ्चलौ उत्तंसौ कुर्णकुण्डलौ यस्य सः;
विशेषण- समासः तादृशस्य) मधुसूदनस्य मधुरे (मनोहरे) राधामुखेन्दौ
(राधायाः मुखम् इन्दुरिव तस्मिन्) मृदुस्पन्दम् (ईषचञ्चलं यथास्यात् तथा ) कन्दलिताः
(पल्लविताः, अन्यगोपाङ्गनावदनोडुगणमपहारा तत्रैव उल्लसिताः
(वंशोच्चरद्- गीति-स्थान- कृतावधान- ललनालक्षैः (वंशात् वेणुतः उच्चरत् या गीतिः
तस्याः स्थानेषु पदेषु कृतम् अवधानं यैः तादृशैः ललनानां गोपसुन्दरीणां लक्षैः ) न
संलक्षिताः (अविज्ञाता इत्यर्थः) कटाक्षोर्म्मयः (कटाक्षाणाम् ऊम्र्म्मयः तरङ्गाः
अपाङ्गदर्शन- श्रेणीत्यर्थः) वः (युष्माकं) चिरं क्षेमं दधतु । [ अतएव
मुग्धमधुसूदनो रसविशेषास्वाद - चतुरस्ततो मुग्धो मधुसूदनो यत्र इत्ययं
सर्गस्तृतीयः ]॥ १४ ॥
अनुवाद -
त्रिभङ्ग भाव से अपनी ग्रीवा को बङ्किम करने के कारण जिनका शिरोभूषण (मुकुट) एवं
कुण्डल दोलायमान हो रहे हैं, लक्ष-लक्ष
गोप- रमणियाँ वेणु-ध्वनि के सुदीप्त उच्चारण स्थान पर ध्यान लगायी हुई उनके मध्य में
स्थित श्रीराधा के मनोहर तथा अमृतमय मुखारविन्द को स्नेहातिशयता के कारण
स्थिरदृष्टि से देखते हुए श्रीकृष्ण की कटाक्षपात राशिकी उर्मियाँ आप सबका मङ्गल
विधान करें ॥
बालबोधिनी -
तृतीय सर्ग के अन्तिम श्लोक में कवि ने श्रीराधा के वचनों को प्रमाणित किया है।
गोपाङ्गनाओं के मध्य में अवस्थित श्रीकृष्ण को श्रीराधा- दर्शन से भावानुभूति हुई
है,
उसी को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। कवि ने पाठकों एवं श्रोताओं को
आशीर्वाद प्रदान किया है कि मुग्ध - मधुसूदन आपका कल्याण विधान करें।
मधुसूदन –
जो श्रीराधा के मुखकमल की ईषत् चञ्चलता एवं संमुग्धता का दर्शन कर
अतिशय उल्लसित हुए हैं, सम्पूर्ण इतर कामनाओं का परित्याग कर
श्रीराधा में एकनिष्ठ हुए हैं— उनके कटाक्षपात की उर्मियाँ
स्नेहातिशयता के कारण श्रीराधा के सुललित एवं मधुमय मुखचन्द्र पर स्थिर हो गयी
हैं।
संमुग्ध – पद से श्रीराधा के मुख की
मनोज्ञ अतिशयता बतायी गयी है। 'मधुर' पद से श्रीराधा के मुख को अमृत से भी मधुर बताया गया है। मोहकता एवं
माधुर्य के कारण श्रीराधा के मुख को श्रीकृष्ण बड़े चाव से देखते हैं। 'सुधासार' से भी श्रीराधा के मुख का पीयूषत्व
अभिव्यक्त हो रहा है। श्रीकृष्ण को आह्लादित करने के कारण श्रीराधा में विधुत्व का
आरोप किया गया है।
स्थिर दृष्टि से श्रीकृष्ण श्रीराधा
के मुख को देख रहे थे, परन्तु श्रीकृष्ण की
इस क्रिया को वहाँ अवस्थित गोपियाँ देख न सकीं। गोपियों से आवृत श्रीकृष्ण बाँसुरी
के दीप्तस्थान से स्वरालाप कर रहे थे, सभी का ध्यान उन सुरों
में ही लगा हुआ था। सभी श्रवणजनित आनन्द में मग्न थीं । वंशीध्वनि से सभी के चित्त
को आकर्षित करने के साथ श्रीकृष्ण ने अपनी वंशी की तान से श्रीराधा को भी मोहित कर
लिया, जिसका अनुभव किसी गोपी को भी न हो सका - इससे
श्रीकृष्ण का चातुर्य प्रकाशित होता है।
श्रीकृष्ण की मुखमुद्रा का वर्णन
करते हुए कवि कहते हैं-'तिर्यक्-कण्ठ-विलोल-मौली-तरलोत्तंस्य'
अर्थात् श्रीकृष्ण की ग्रीवा को तिरछे किये हुए बङ्किम मुद्रा के
कारण उनके मुकुट तथा कर्णाभरण चञ्चल हो रहे थे। 'मौलि'
पद से मुकुट और शिर दोनों वाच्य हैं, तथापि
शिर का हिलना वेणुवादक का दोष है और न हिलना दक्षता । श्रीकृष्ण में अद्भुत
नैपुण्य था, अतः शिर नहीं हिल रहा था। मुकुट और कर्णाभूषण ही
आन्दोलित हो रहे थे।
प्रस्तुत श्लोक में शार्दूल
विक्रीड़ित छन्द तथा रूपकालङ्कार है।
इति श्रीगीतगोविन्द महाकाव्ये मुग्ध
मधुसूदनो नाम तृतीयः सर्गः ।
इस प्रकार गीत गोविन्द महाकाव्य में
मुग्ध मधुसूदन नामक तृतीय सर्ग की बालबोधिनी व्याख्या पूर्ण हुई।
आगे जारी........ गीतगोविन्द सर्ग 4
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