अष्टपदी २४

अष्टपदी २४ 

कवि श्रीजयदेवजीकृत गीत गोविन्द अन्तिम सर्ग १२ सुप्रीत पीताम्बर में २ अष्टपदी है। जिसका २३वाँ अष्ट पदि को पिछले अंक में आपने पढ़ा । अब यहाँ अष्ट पदि २४ दिया जा रहा है।

अष्टपदी २४

गीतगोविन्द बारहवाँ सर्ग अष्टपदी २४

Shri Geet govinda sarga 12 Ashtapadi 24

गीतगोविन्द सर्ग १२ सुप्रीत पीताम्बर अष्टपदी २४

श्रीगीतगोविन्दम्‌ द्वादशः सर्गः सुप्रीत-पीताम्बरः अष्ट पदि २४  

गीतम् ॥२४॥

रामकरीरागयतितालाभ्यां गीयते ।

कुरु यदुनन्दन ! चन्दनशिशिरतरेण करेण पयोधरे ।

मृगमद - पत्रकमत्र मनोभवमङ्गलकलशसहोदरे ॥ १ ॥

निजगाद सा यदुनन्दने क्रीड़ति हृदयानन्दने ॥ध्रुवपदम् ॥

अन्वय- हृदयानन्दने (हृदयमानन्दयति स्वचापल्येन क्रीड़नाय उन्मुखं करोतीति हृदयानन्दनः तस्मिन् चित्ताहादके) यदुनन्दने (श्रीकृष्ण) क्रीड़ति (विलसति सति) [सुरतान्तेऽपि चिक्रीडिषोदयात् अखण्डलीलात्वमुक्तम्] सा [राधा] [तं प्रति] निजगाद [क्रीड़नसमयेऽपि प्रियप्रेरणात् नित्यस्वाधीनभर्तृकात्वे प्राधान्यं द्योतितम्] । - अयि यदुनन्दन (महाकुलोद्भवत्वेन सर्वातिशायि-नामक-गुण-ख्यापनाय सम्बोधनमिदं) [यदि पुनर्मनोभव-मखारम्भः सम्भवति तदा] [चन्दनादपि] शिशिरतरेण; [शीतलत्वेन अव्यग्रतया करणयोग्यता सूचिता) [तव] करेण अत्र मनोभव- मङ्गल-कलस- सहोदरे (मनोभवस्य कामस्य यः मङ्गलकलसः तस्य सहोदरे तत्सदृशेः मङ्गलकलसोऽपि यथाविधानेन स्थाप्यते, अतस्त्वमपि तथा कुरु इत्यर्थः) [मम] पयोधरे (स्तने) मृगमद – पत्रकं (कस्तूरिका - पत्रावलीं) कुरु(रचय) ॥ १ ॥

अनुवाद – हृदय को आनन्द प्रदान करनेवाले यदुनन्दन के साथ क्रीड़ा करती हुई श्रीराधा ने कहा- हे यदुनन्दन ! चन्दन से भी अति शीतल अपने हाथों से मनोभव के मङ्गल कलश के समान मेरे पयोधरों पर मृगमद से पत्रक - रचना कीजिए ।

पद्यानुवाद-

चन्दन - शिशिर समान करोंसे कुच कलशों पर मेरे,

मृगमद पत्रक सुन्दर । सहचर चित्रित करो सबेरे ।

हे यदुनन्दन! हृदयानन्दन ! इतनी अनुनय मेरी,

पूर्ण करो हे असुरनिकन्दन ! लगा रहे क्यों देरी?

बालबोधिनी - प्रस्तुत पद में हृदयानन्दन ध्रुव पद है। श्रीकृष्ण श्रीराधा के हृदय को आनन्द प्रदान करनेवाले थे। यदुनन्दन – यदुवंश में उत्पन्न होनेवाले नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को अपने साथ क्रीड़ा करते देखकर श्रीराधा बोलीं- मुझे अपने हाथों से वैसा ही सजा दो, जैसे मैं भी पूरी की पूरी कृष्णभावित, कृष्णमयी हूँ। सर्वप्रथम मेरे स्तन - कलशों पर चन्दन के समान शीतल स्पर्श से कस्तूरी से पत्रावली की रचना करो। मङ्गल कलश पयपूर्ण होते हैं, सुनील आम्र-पल्लवों से सुसज्जित होते हैं, जिन्हें कामदेव की विश्वयात्रा के समय स्थापित कर दिया जाता है। इस पद से 'मयूरपदक' नामका नखक्षत भी व्यञ्जित हो रहा है। यहाँ कस्तूरी- पत्रक चित्रकारी का अनुनय किया जा रहा है।

अलिकुल- गञ्जन - सञ्जनकं रतिनायक- शायक- मोचने ।

त्वदधर - चुम्बन - लम्बित - कज्जलमुज्ज्वलय प्रियलोचने ॥

निज... ॥२॥

अन्वय - अयि प्रिय (प्रीतिभाजन), रति-नायक - शायक-मोचने (रतिनायकस्य मदनस्य शायकान् बाणान् कटाक्षादिरूपान् मोचयतीति तथोक्ते; कज्जलादिकमपि तत्रापेक्षितमस्तीति भावः) [म] लोचने (नेत्रे) अलिकुल- गञ्जन - सञ्जनकं (अलिकुल- गञ्जनं सञ्जनयति इति तादृशं भ्रमर-निकर-तिरस्कारकमित्यर्थः) त्वदधर चुम्बन - लम्बित - कज्जलम् (तवाधरचूम्बनेन, लम्बितं गलितं कज्जलं) उज्जलय (उज्जलं कुरु; पूर्ववत् विधेहीत्यर्थः) ॥ २ ॥

अनुवाद - हे प्रिये! रतिनायक कामदेव के सायकों को छोड़नेवाली मेरी आँखों का काजल तुम्हारे अधरों के चुम्बन से गलित हो गया है, अलि-कुल को भी तिरस्कृत करनेवाले कज्जल को मेरी आँखों में उज्ज्वल कीजिए ।

पद्यानुवाद-

रति नायक सायक मोचन ये, लोचन आँजो फिर से,

चुम्बन गलित हुआ कजल है, जिस पर भरे तरसे ।

हे यदुनन्दन! हृदयानन्दन ! इतनी अनुनय मेरी,

पूर्ण करो हे असुरनिकन्दन ! लगा रहे क्यों देरी ?

बालबोधिनी - हे प्रिय ! हे हृदयानन्दन ! श्रीराधा इस प्रकार आगे कहती हैं कि मेरी आँखों में नूतन कज्जल रेखा को आँजो। यह इतनी उज्ज्वल हो कि भ्रमर-समूह भी तिरस्कृत हो जायँ। मेरे ही कटाक्षपात से कामदेव के बाण चलते हैं। तुम्हारे द्वारा अधर चुम्बन करने से मेरी आँखों का काजल फैल गया है। इस पद से श्रीकृष्ण के द्वारा श्रीराधा के नेत्रों का चुम्बन भी अभिव्यक्त हो रहा है। आप ही तो मेरी आँखों का अञ्जन हैं।

हे मनोहरवेषधारिन् !

नयन - कुरङ्ग-तरङ्ग-विकास- निरासकरे श्रुतिमण्डले ।

मनसिज - पाश विलासधरे शुभवेश निवेशय कुण्डले ॥

निज... ॥३॥

अन्वय- अयि शुभवेश (सुन्दर-वेशधारिन्), नयन- कुरङ्ग- तरङ्ग-विकाश-निरासकरे (नयनमेव कुरङ्गः, तस्य तरङ्गः कुर्दनं तस्य या विकाशः स्फुरणं तस्य निरासं प्रत्याख्यानं करोतीति तस्मिन्) मनसिज-पाश-विलासधरे (मनसिजस्य कामस्य यः पाशः मृग-बन्धनरज्जुः तस्य विलासं शोभां धरतीति तथोक्ते) कुण्डले (सुरतभ्रष्टे इतिभावः) श्रुतिमण्डले (कर्णे) निवेशय (परिधापय) । [शुभकर्माणि कृतवेशस्य तव प्रियत्वात् ममापि तथा वेशकरणं युक्तमित्यभिप्रायः] ॥ ३ ॥

अनुवाद - हे शुभवेश! नयनरूपी कुरङ्ग-तरङ्ग के विकास को निरस्त करनेवाले तथा युवकों के मन को बाँधनेवाले कामदेव के पाश के समान मेरे श्रुतिमण्डल पर कुण्डल धारण कराइये ।

पद्यानुवाद-

मनसिज पाश विलास कुण्डलोंको कानोंमें धारो,

शुभ अंग! तरंग नयन पर हरिण वृन्दको कारो ।

हे यदुनन्दन! हृदयानन्दन ! इतनी अनुनय मेरी,

पूर्ण करो हे असुरनिकन्दन ! लगा रहे क्यों देरी ?

बालबोधिनी - श्रीराधा श्रीकृष्ण से कहती हैं- हे मनोहर- वेषधारिन् ! हे प्रिय पीताम्बरधारिन् ! हे हृदयानन्दन! हे क्रीड़ापरायण! आप मेरे कानों में कामदेव के पाश की शोभा को धारण करनेवाले कुण्डल पहना दीजिए। मेरे इस श्रुति – मण्डल में नेत्ररूपी हिरण की तरङ्ग का जो विकास है, प्रेक्षण- विशेष की जो विशेष वृत्ति है, उसे भी निरस्त करनेवाले, युवकों के मन को मोह लेनेवाले कुण्डल पहना दीजिए। इस पद से नेत्रों की श्रुतिगामिता युक्त हुई है। मृग के समान बंकिमता एवं चंचलता द्योतित हुई है।

भ्रमरचयं रचयन्तमुपरि रुचिरं सुचिरं मम सम्मुखे ।

जित - कमले विमले परिकर्मय नर्मजनकमलकं मुखे ॥

निज... ॥ ४ ॥

अन्वय - [अयि नाथ] मम सम्मुखे (समक्षमवस्थाय) जितकमले (जितं सुषमा पराजितं कमलं येन तादृशे) विमले (निर्मले) मुखे सुचिरं (बहुक्षणं व्याप्य) भ्रमरचयं (भ्रमरसमूहं) रचयन्तं (भ्रमर - पंक्तिबुद्धिं जनयन्तं) [अतएव सखीनां] नर्मजनकं (परिहासजनकं नेत्ररञ्जनमिति भावः) अलकं (चूर्णकुन्तलं) परिकर्मय (संस्कुरु विरचय इत्यर्थः) [अत्र मुखस्य कमलत्वेन, अलकस्य च भ्रमरत्वेन निरूपितम्] ॥४॥

अनुवाद - मनोहर और अमल कमलों को भी जीतनेवाले विमल एवं रुचिर मेरे मुख पर नर्म परिहास जनक भ्रमरों की शोभा प्रकाशित करने वाले मेरे मुख पर आप सुन्दर अलकावली को गूंथिए ।

पद्यानुवाद-

अमल कमल मुख पर पिय बिखरी ये अलकें सुलझाओ,

रह-रह झूम चूम उठते अलि, इनको दूर भगाओ! हे यदुनन्दन !

हे यदुनन्दन ! हृदयानन्दन ! इतनी अनुनय मेरी,

पूर्ण करो हे असुरनिकन्दन ! लगा रहे क्यों देरी ?

बालबोधिनी - श्रीराधा श्रीकृष्ण से कहती हैं- हे यदुनन्दन ! मेरे मुख की शोभा ने कमलों को भी जीत लिया है। आप इस मनोहर, विमल एवं अनवद्य मुख पर अलकों से प्रसाधन करें। मेरी अलकावली नर्म-परिहास वचनों की जननी है और नित्य निरन्तर पद्मों के ऊपर घिर आयी भौरों की भीड़ का भ्रम उत्पन्न करती है। आप ही तो मेरे मुखारविन्द के कुन्तल हैं।

प्रस्तुत पद में अलक भ्रमर पंक्ति के द्वारा मुखपद्म की उत्प्रेक्षा की गयी है। अतः यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है ।

मृगमद - रस- वलितं ललितं कुरु तिलकमलिक - रजनीकरे ।

विहित - कलङ्क - कलं कमलानन! विश्रमित- श्रमशीकरे ॥

निज... ॥५ ॥

अन्वय - हे कमलानन (सरोजवदन) विश्रमित-श्रम-शीकरे (विश्रमिता अपगता श्रमशीकराः श्रमाम्बुकणाः यत्र तादृशे) अलिक - रजनीकरे (अलिकं ललाटं रजनीकरः चन्द्रइव तस्मिन्) मृगमद - रसेन (कस्तूरिका-द्रवेण) वलितं (रचितं) [अतएव] विहित - कलङ्क कलं (विहिता कृता कलङ्कस्य कला रेखा येन तादृशं ललाटस्य बालचन्द्रत्वेन मृगमदतिलकस्य च कलङ्क- कलात्वेन निरूपितं) तिलकं ललितं (सुन्दरं यथा तथा) कुरु (रचय) ॥५ ॥

अनुवाद - हे कमललोचन! रति के श्रम से उत्पन्न स्वेदबिन्दुओं से युक्त, मृग-लाञ्छन की शोभा धारण करनेवाले अर्द्ध-चन्द्र के समान मेरे भाल पर मनोहर कस्तूरीसे सुन्दर तिलक रचना कीजिए।

पद्यानुवाद-

मृगमद रससे वलित ललित अति तिलक अलिक पर मेरे,

रचो, चन्द्रको, भास उठे ज्यों मृगछाया हो घेरे!

हे यदुनन्दन ! हृदयानन्दन ! इतनी अनुनय मेरी,

पूर्ण करो हे असुर निकन्दन! लगा रहे क्यों देरी ?

बालबोधिनी - श्रीराधा श्रीकृष्ण से कहती हैं- हे कमलवदन ! हे हृदयानन ! मेरा ललाट चन्द्रमा के समान है, आप उस पर ललित मनोहर तिलक रचना कीजिए। इस तिलक को कस्तूरी मृगमद रस से ही रचिये। जिस प्रकार अष्टमी का अर्द्धचन्द्र कलङ्क रेखाओं से सुशोभित होता है, उसी प्रकार मेरे मुख पर भी मृगलांछन के समान मेरे विशाल भाल पर तिलक स्थापित कीजिए। रति-काल में प्रवाहित होनेवाले श्रम-जलकण भी अब शुष्क शान्त हो गये हैं। यहाँ इस पद से पुनः उद्दीपन विभाव भी सूचित हो रहा है। हे कृष्ण, आप ही तो मेरे सौभाग्य के केन्द्रबिन्दु हैं, आप ही मेरे ललाट के तिलक हैं।

मम रुचिरे चिकुरे कुरु मानद ! मनसिज-ध्वज - चामरे ।

रति - गलिते ललिते कुसुमानि शिखण्डि - शिखण्डक - डामरे ॥

निज... ॥ ६ ॥

अन्वय- अयि मानद (सम्मानप्रद) मानसज-ध्वज- चामरे (मानसजस्य कामस्य यो ध्वजः तस्य चामरे चामरतुल्ये) रतिगलिते (सम्भोगावेगेन विकीर्णे) शिखण्डि-शिखण्डक-डामरे (शिखण्डिनो मयूरस्य शिखण्डकस्य पुच्छस्य इव डामरः आटोपो यस्य तस्मिन् मानसजध्वजादावाटोपनादिकमपि तदुपयोग्यमेवेत्यर्थः) [अतएव] रुचिरे (स्वभाव-सुन्दरे) ललि (मनोहरे) मम चिकुरे (कुन्तले) कुसुमानि (पुष्पमाल्यं) कुरु (विनिवेशय) ॥ ६ ॥

अनुवाद - हे मानद ! रतिकाल में शिथिल हुए कामदेव की ध्वजा के चामर के समान तथा मयूर पुच्छ से भी मनोहर मेरे मनोहर केशों में कुसुम सजा दीजिए।

पद्यानुवाद-

मोर पंख, चामर ध्वज मनसिजसे सुन्दर अलकोंसे,

गिरे सुमन क्रीड़ामें, उनको गूँथो चुन पलकोंसे ।

हे यदुनन्दन ! हृदयानन्दन ! इतनी अनुनय मेरी,

पूर्ण करो हे असुरनिकन्दन ! लगा रहे क्यों देरी ?

बालबोधिनी - श्रीराधा श्रीकृष्ण को इस पद में 'मानद' शब्द से सम्बोधित करती हैं। मानद अर्थात् मान प्रदान करनेवाले श्रीकृष्ण, अपनी प्रेयसियों को सम्मान देनेवाले श्रीकृष्ण, 'मानद्यति' अर्थात् मानिनी रमणियों के मान को खण्डित करनेवाले श्रीकृष्ण ! आप अपनी शोभा से मयूरों के शिखण्डक अर्थात् मयूरपिच्छ को भी तिरस्कृत करनेवाले हैं, मेरे कृष्ण-कुन्तल मनोभव के ध्वज-चमर के समान मनोहर एवं रुचिर हैं, रतिकाल में इनका बन्धन खुल गया है आप इनमें कुसुमों को सुसज्जित कर दें । आप ही कुसुम-गुम्फित केशपाश बनकर महकें ।

सरस-घने जघने मम शम्बर- दारण-वारण- कन्दरे ।

मणि - रसना - वसनाभरणानि शुभाशय ! वासय सुन्दरे ॥

निज... ॥७ ॥

अन्वय- अयि शुभाशय (सदाशय शुद्धान्तःकरणस्यैव क्रियासिद्धेस्तथा सम्बोधनं प्रयुक्तम्) सरसघने (सरसं रागोद्दीपकं च तत् घनं निबिड़ं चेति तथोक्ते) शम्बरदारण- वारण- कन्दरे (शम्बरदारणः मदनः स एव वारणो हस्ती तस्य कन्दरे गह्वररूपे मदनावासस्थले इत्यर्थः) [स्वभावत एव] सुन्दरे मम जघने मणिरसनावसनाभरणानि (मणिमयकाञ्च वसनम् आभरणानि च) वासय ( यथास्थानं परिधापय) ॥७ ॥

अनुवाद - हे शोभन हृदय! मेरी कामदेवरूपी मदोन्मत्त हाथी की कन्दरारूपी सरस, सुन्दर, सुभग, स्निग्ध, स्थूल जघनस्थली को मणि, करधनी, वस्त्र तथा आभूषणों से अलंकृत कीजिए।

पद्यानुवाद-

सरस जघन घन पर मणि रसना वसनाभरण फबीले,

पहनाओ सत्वर शुभ आशय ! (कँपते नयन लजीले !)

हे यदुनन्दन ! हृदयानन्दन ! इतनी अनुनय मेरी,

पूर्ण करो हे असुरनिकन्दन ! लगा रहे क्यों देरी ?

बालबोधिनी - श्रीराधा श्रीकृष्ण से कहती हैं- हे शोभन हृदय ! हे हृदयानन्दन! हे प्राणनाथ! हे शुभाशय ! आपके करकमल समस्त शुभों के आशय हैं, आपका हृदय अति सरस सभी मङ्गलों का मूल है। आप मेरी जघन-स्थली, श्रोणी-तट को मणिमय करधनी, वसन एवं आभरणों से अलंकृत कर दीजिए। मेरी जघनस्थली सरस, स्निग्ध और सान्द्र है। कामदेवरूपी मदोन्मत्त हाथी के निवास हेतु कन्दरा के समान सुन्दर एवं मनोहर है। आप यहाँ वस्त्र एवं आभूषण धारण कराइये। आप ही मेरे कटि तट के अलंकार हैं।

प्रस्तुत पद में अनुकूल नायक है, प्रगल्भा नायिका है। तथा संभोग शृङ्गार रस है।

श्रीजयदेव - वचसि रुचिरे सदयं हृदयं कुरु मण्डने ।

हरिचरण - स्मरणामृत - निर्मित- कलि- ल - कलुष - ज्वर - खण्डने ॥

निज... ॥८ ॥

अन्वय- हरिचरण - स्मरणामृत-कृत- कलि- कलुष - ज्वरखण्डने (हरिचरणयोः स्मरणमेव अमृतं तेन कृतं कलिकलुषज्वरेण यः सन्तापः तस्य खण्डनं येन तस्मिन्) जयदे (जयं श्रीकृष्णं ददातीति जयदस्तस्मिन्) मण्डने (अलङ्काररूपे) श्रीजयदेव - वचसि हृदयं (चित्त) सदयं [यथास्यात् तथा] [भक्तिरसपूर्ण] कुरु [स्निग्धान्तःकरणस्यैव एतच्छ्रवणयोग्यत्वादिति भावः] ॥८ ॥

अनुवाद – श्रीहरि के चरणों के स्मरणरूपी अमृत से कलि-कलुष-ज्वर को विनष्ट करनेवाली, कल्याणदायिनी, मनोहारिणी कवि जयदेव की वाणी को समलंकृत करने में अपने हृदय को सदय बनायें।

पद्यानुवाद-

कलिकी कलुष गरल मारक यह कवि श्रीजयदेवकी वाणी,

हरि-चरणोंके स्मरणामृत-सी बनती जग कल्याणी !

हे यदुनन्दन ! हृदयानन्दन ! इतनी अनुनय मेरी,

पूर्ण करो हे असुरनिकन्दन ! लगा रहे क्यों देरी ?

बालबोधिनी - प्रस्तुत अष्टपदी श्रीराधा भाव की एक सुनिश्चित योजना है। श्रीराधा के प्रेम की चरम परिणति है कि वह स्वयं को श्रीकृष्ण में विलीन कर देना चाहती है, वह श्रीकृष्ण के हाथों से कृष्णमय बन जाना चाहती है। उसका हृदय श्रीकृष्ण का है, उसके वस्त्र, शृङ्गार एवं आभूषण सभी तो श्रीकृष्ण हैं। इस अष्टपदी में श्रीराधा के प्रेम की अनुभूति की गहराई रस बनकर बरसी है। श्रीराधा कहती हैं- हे यदुनन्दन ! मण्डन अर्थात् शृङ्गार के निमित्त अपने हृदय को सदय बनाओ, दयापरायण होकर मण्डन बन जाओ। यह मण्डन वाणी का मण्डन जयदेव की पत्नी के सामीप्य के कारण उत्कर्षप्रद हो गया है। इस अष्टपदी का विषय कवि जयदेव की वाणी है। '' पद से तात्पर्य है कि जैसे श्रीराधा को सुसज्जित करने में आप सदय बनेंगे, उसी प्रकार मेरी वाणी को भी अलंकृत करने के लिए सदय बन जाइए । अन्य पदों को भी जयदेव की वाणी एवं श्रीराधा के अलंकारों का विशेषण मानना चाहिए। यह वाणी हरि-चरणों के स्मरण का अमृत है, जो कलिकाल के कलुषित ज्वर के रोष को शान्त करनेवाला है। हरि-चरण-स्मरण-अमृत ही सभी पापों का खण्डन करनेवाला है। यह अमृत ही कवि जयदेव की वाणी है। इस काव्य- वर्षामृत की स्मृति ही सबका कल्याण करनेवाली है।

गीतगोविन्द सर्ग १२ सुप्रीत पीताम्बर

रचय कुचयो पत्रश्चित्रं कुरुष्व कपोलयोः

घटय जघने काञ्चीं मुग्धस्रजा कबरीभरम् ।

कलय वलयश्रेणी पाणौ पदे कुरुनूपुरा –

विति निगदितः प्रीतः पीताम्बरोऽपि तथाकरोत् ॥ १ ॥

अन्वय - [अयि प्राणेश्वर] [मम] कुचयोः (स्तनयोः) पत्रं (चित्रविशेषं) रचयः कपोलयोः (गण्डयोः) चित्रं कुरुष्व; जघने काञ्चीं घटय (परिधापय); त्रजा (मालया) कबरीभरं (केशपाशं) अञ्च (अलगुरु); पाणी वलयश्रेणीं कलय (विन्यस्य); पदे (चरणे) नूपुरौ कुरु (परिधापय) - इति [अत्यावशभरण] राधया निगदितः (अनुरुद्धः) पीताम्बरः (श्रीकृष्णः) अपि प्रीतः [सन्] तथा (श्रीराधोक्तं तत्तत् सर्वमेव) अकरोत् (सम्पादितवान्) [अपिशब्देन रतान्तर्वसन- व्यत्ययाभावेऽपि तदाज्ञाकरणात् तस्या- खण्डित - तदधीनत्वं द्रढ़ीकृतम्॥१॥

अनुवाद - हे प्राण प्रिय ! आप मेरे कुचों पर पत्र रचना कीजिए। मेरे कपोलों पर चित्रावली रचना कीजिए, जघन-स्थली को करधनी से सजा दीजिए। बालों में मनोहर कबरी बन्धन कीजिए, हाथों में कंगन पहनाइए, पैरों में नूपुर पहना दीजिए। श्रीराधा ने इस तरह जो कुछ कहा, पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर वैसा ही किया।

पद्यानुवाद-

कुच पर पत्र, चित्र गालों पर,जघन करधनी,

केशे सुमन सजाओ, राधा बोली- हे पीताम्बर वेशे ।

कलय-वलय कर पद मणि नूपुर पहनाओ हे मेरे ।

हरि विहँसे कह - प्रिये! समर्पित हूँ चरणोंमें तेरे ॥

बालबोधिनी - प्रस्तुत श्लोक में कवि जयदेव इस अष्टपदी के सूत्रों की पुनः अवतारणा करते हुए कह रहे हैं कि पीताम्बर श्रीकृष्ण को श्रीराधा के द्वारा जो कुछ भी कहा गया, उन्होंने प्रसन्न मन से सब वैसा ही सम्पन्न किया। 'अपि' पद से घोषित होता है कि श्रीराधा का जो-जो अभीष्ट था, श्रीकृष्ण के द्वारा वैसा वैसा शृङ्गार अत्यन्त प्रीतिपूर्वक सम्पन्न हुआ। श्रीराधा का सानुनय आग्रह है कि हे यदुनन्दन ! स्तनों पर पत्रावली की चित्रकारी कर दीजिए, मेरे गालों पर मकर आदि की चित्र रचना कर दीजिए। मेरी कमर में आप करधनी पहना दीजिए, मेरे बालों से माला निर्माल्य हो गयी है - आप मनोहर माला से मेरे केशों को ग्रंथन कर दीजिए, हाथों में कंगन पहना दीजिए, मेरे पैरों में मणिमय नूपुर पहना दीजिए। श्रीकृष्ण द्वारा यह पूरा ही शृङ्गार सम्पादित किया गया- अत्यन्त प्रीति एवं आनन्द के साथ। श्रीकृष्ण ही श्रीराधा के सम्पूर्ण मण्डन बन गये ।

प्रस्तुत श्लोक में हरिणी छंद यथा संख्या अलंकार, प्रगल्भा नायिका, दक्षिण नायक तथा शृङ्गार रस का संयोग पक्ष निरूपित हुआ है।

यद्गान्धर्व-कलासु कौशलमनुध्यानं च यद्वैष्णवं

यच्छृङ्गार विवेक - तत्त्व - रचना - काव्येषु लीलायितम् ।

तत्सर्वं जयदेव पण्डित - कवेः कृष्णैकतानात्मनः

सानन्दाः परिशोधयन्तु सुधियः श्रीगीतगोविन्दतः ॥ २ ॥

अन्वय - [अथोपसंहारेऽपि स्वाभीष्टोपासनायाः सर्वोत्तमता निश्चयावेशेन कारुण्योदयात् तत्र सन्दिहानान् भक्तरसिकजनान् प्रत्याह] - भोः सुधियः (श्रीकृष्णभक्तिरसोल्लासितचित्ताः साधवः) [भवन्तः] सानन्दाः (आनन्देन सहिताः सन्तः) कृष्णैकतानात्मनः (कृष्ण एकतानः एकाग्रः अनन्यवृत्तिरिति यावत् आत्मा मनः यस्य तस्य; श्रीकृष्णैकान्तभक्तस्यैव सर्वगुणाश्रयत्वादित्यर्थः; यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चने इत्युक्तेः) जयदेव-पण्डितेकवेः (पण्डासदसद्विवेचिका बुद्धिः तया अन्वितः कविः सत्काव्य- कर्त्ताः जयदेव एव पण्डितकविस्तस्य) सर्वतोभावेन शोधयन्तु आशङ्कापङ्कमुद्धार्य निश्चिन्वन्तु इत्यर्थः) [तत् किमित्याह] - यत् गान्धर्वकलासु (सङ्गीतशास्त्रोक्त- गीतराग- तालादिषु) कौशलं (नैपुण्यं) [तदेव निर्वन्धानुसारेण जानन्तु इत्यर्थः] [न केवलमेतत् अपि तु यत् वैष्णवं (वेवेष्टि विश्वं व्याप्नोतीति विष्णुः सर्वव्यापनशीलस्य विष्णुः अचिन्त्या-नन्तशक्तेः स्वयं भगवतः श्रीकृष्णस्य भजन-विषयक) अनुध्यानं (अनुचिन्तनं स्वाभीष्ट-तल्लीलाविचार-समाधानात् अनुक्षण- चिन्तनमित्यर्थः) [तदपि एतद्दृष्ट्येव निश्चिन्वन्तु नित्यत्व-सर्वोत्तमत्वनिश्चयात् द्रढ़ीकुर्वन्तु इतिभावः] यदपि शृङ्गारविवेकतत्त्वं (तत्रापि दुरूहगतेः शृङ्गारस्य महाप्रेमरसस्य विवेके विचारे यत् तत्त्वं दुरूहातिदुरूह व्रजलीलागतं) [तदपि निश्चिन्वन्तु]; काव्येषु यत् लीलायितं (विलसितं रासलीलादि व्यञ्जनाविशेष ग्रथनं) [तदपि परिशेषयन्तु एतदनुसारेण निश्चिन्वन्तु] ॥ २ ॥

अनुवाद - जो गान्धर्व कलाओं में कौशल हैं, श्रीकृष्ण का जो ध्यान है, शृङ्गार रस का जो वास्तविक तत्त्व - विवेचन है, भगवद्लीला का जो काव्य में वर्णन है, उन सबको भगवान् श्रीकृष्ण में एकाग्रचित्त रखनेवाले विद्वान् श्रीगीतगोविन्द नामक काव्य से आनन्दपूर्वक परिशोधन करें। अर्थात् समझें और समझायें ।

बालबोधिनी - प्रस्तुत श्लोक में विद्वानों की प्रार्थना के व्याज से आत्मप्रशंसा करते हैं। हे सुधी जनो! जयदेव पण्डित कवि का सर्वस्व गीतगोविन्द है । आप गीतगोविन्द को ही समझें और समझायें। गीतगोविन्द की भी रसवत्ता की परख करें। प्रामाणिक वस्तु की परख आवश्यक है। गान्धर्वविद्या संगीत शास्त्र का ही पर्याय है। अतः गान्धर्वविद्या में जो भी विचक्षणता एवं कुशलता हो सकती है, इस काव्य में उसे लिपिबद्ध कर दिया गया है। श्रीभगवान् सम्बन्धी वैष्णव साधना के ध्यान-चिन्तन की जो शुद्ध परिणति है, उसका भी निदर्शन रस में कर दिया गया है। शृङ्गार रस का जो संयोग विप्रलम्भादिरूप से विवेचन है, उसका भी सर्वोत्कृष्ट वर्णन इसमें किया गया है। शृङ्गाररस प्रधान काव्य प्रणयन की जो लीला है, वह भी इसमें उत्तम रूप से रूपायित हुई है । कवि जयदेव श्रीकृष्ण में ही अपने मन और बुद्धि को एकान्तिक रूप से अभिनिविष्ट करनेवाले हैं। उनकी यह रचना श्रीकृष्ण का एकाग्र ध्यान करने के लिए ही है। विष्णुभक्त कला कुशलता की विवेकपूर्ण तत्त्व रचना की, ध्यान चिन्तन की लीला वर्णन की, सर्वोत्कृष्टता एवं अद्भुतता की परिशुद्धि का स्वरूप देखना चाहें अथवा परखना चाहें तो इस महान प्रबन्ध-काव्य गीतगोविन्द के माध्यम से करें ।

साध्वी माध्वीक! चिन्ता न भवति भवतः शकरे कर्कशासि ।

द्राक्षे द्रस्यन्ति के त्वाममृत ! मृतमसि क्षीर! नीरं रसस्ते ।

माकन्द ! क्रन्द कान्ताधर ! धर न तुलां गच्छ यच्छत्ति भावं

यावच्छृङ्गारसारं शुभमिव जयदेवस्य वैदग्ध्यवाचः ॥ ३ ॥

अन्वय - [अथ हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीर" इति शुकोक्तप्रायत्वात् एतच्छ्रवणकीर्त्तनस्मरणानुमोदनप्रभावमाह] - इह (मर्त्यलोके) यावत् जयदेवस्य वचांसि (पदावली) विष्वक् (सर्वतः) शृङ्गार-सारस्वतं (शृङ्गार रस सन्दर्भीयं भावं) यच्छन्ति (ददति) तावत् हे माध्वीक (मधो) भवतः चिन्ता साध्वी न भवति (मधुरत्वेऽपि त्वयि मादकत्वादित्यर्थः); हे शकर त्वं कर्करा (कङ्करवत् कठिना) असि (कङ्करवत् प्रतीयसे इतिभावः; मादकत्वाभावेऽपि तव कठिनत्वादित्यर्थः); हे द्राक्षे के त्वां द्रक्ष्यन्ति (कोमलत्वेऽपि निन्द्यदेशोद्भवत्वादित्यर्थः) हे अमृत त्वं मृतम् असि (मरणान्तरं सुरलोके - प्राप्यत्वादित्यर्थः); हे क्षीर ते रसः नीरं (नीरवतृ, आवर्त्तनाद्यपेक्षत्वात्), हे माकन्द (चूत) त्वं क्रन्द (रुदिहि त्वगष्ट्यादिहेयांशसाहित्यात्); हे कान्ताधर (अतिलोभनीय-प्रियाधर), त्वं धरणितलं (पातालम् असुरालयं गच्छ (अधोदातृनामत्वात् तवात्र स्थितिरपि न युक्तेत्यर्थः; श्रीजयदेव-वर्णित - मधुराख्यभक्ति- रसास्वादनिर्वृतजनास्त्वयि घृणामेव प्रदर्शयिष्यन्तीति भावः) ॥ ३ ॥

अनुवाद - अरे माध्वीक ( द्राक्षासव ) ! तुम्हारा चिन्तन ठीक नहीं है। हे शर्करे (शक्कर)! तुम अति कर्कशा हो । हे द्राक्षे ! (अंगूर) तुम्हें कौन देखेगा। हे अमृत ! तुम तो मृत तुल्य हो । हे दुग्ध ! तुम्हारा स्वाद तो जल के समान है। हे माकन्द (पके आम)! तुम अब क्रन्दन करो। हे कान्ता के अधर ! तुम अब पाताल चले जाओ, जब तक शृङ्गार के सार सर्वस्व शुभमय कवि जयदेव की विदग्धतापूर्ण वाणी हैं, तुम्हारा कोई काम नहीं है।

बालबोधिनी - प्रस्तुत श्लोक में कवि जयदेव ने श्रीगीतगोविन्द काव्य की माधुर्य वैदग्धी का वर्णन किया है। सार रूप में काव्य उज्ज्वलतम शृङ्गार रस की मंगलमयी प्रस्तुति है, इसकी मधुरता की ऊँचाई इतनी अनुपमेय हो गयी है कि संसार की कोई भी मधुर वस्तु इसके सामने फीकी पड़ गई है। कोई भी मधुर वस्तु सुधी वैष्णवों के लिए माधुर्य का परिवेषण नहीं कर सकती। कवि जयदेव के विदग्धतापूर्ण वचन स्वयं ही शुभ हैं, सम्पूर्ण सार के सार हैं, जो सार है वह शृङ्गार रस है और शृङ्गार रस का सार गीतगोविन्द है । जो कुछ भी शुभ और मंगल है वह है श्रीकृष्ण और श्रीराधा का मंगल चरित । गीतगोविन्द जैसी रस माधुर्य वैचित्री कहीं भी तो नहीं है, जिसका भगवद्भक्त रसिकजन आस्वादन कर सकें। इन शृङ्गार सार सर्वस्व वचनावली के सामने सम्पूर्ण संसार का एकाग्रभूत माधुर्य धूमायित हो गया है। नीरस हो गया है। ग्रन्थकार कहते हैं- हे माध्वीक! अंगूर से बनी मदिरा ! तुम्हारी क्या चिन्ता करें, तुम्हारी मधुरता व्यर्थ है। सज्जनों के लिए तुम्हारी मादकता किस काम की? हे शकरे! तुम मीठी हो तो क्या हुआ, कितनी कर्कशा हो, क्या तुम गवेषणा के योग्य हो, तुममें तो सार ही नहीं है, हे द्राक्षे ! तुम डरो मत, तुम्हारी ओर क्या कोई रसिकजन कभी देख सकता है? हे अमृत ! तुम्हें तो गर्व ही नहीं करना चाहिए, तुम तो मरे हुए ही हो, हे क्षीर रस (दूध) मैं रस हूँ, यह जानकर गर्व मत करो, क्योंकि तुम्हारा रस तो नीर ही है। हे माकन्द पके हुए रस फल, तुम्हें तो रोना ही है, रसिकजन तुम्हारा जरा भी चिन्तन नहीं करेंगे। हे कामिनी के अधर ! तुम्हारा भी कोई स्थान नहीं है, तुम तो असुरों के निवास स्थान पाताल में चले जाओ। काव्य रस के रसिकों को इसमें माधुर्य प्रतीत नहीं होता ।

प्रस्तुत श्लोक में स्रग्धरा छंद, आरमयी वृत्ति, वैदर्भी रीति और गुणकीर्तन नाम का नाट्यालङ्कार है। इस ग्रन्थ के आदि मध्य और अन्त में मङ्गल ही मङ्गल है । अतः यहाँ शुभ शब्द का उपादान है। तिरस्कृतोपदालङ्कार है।

इत्थं केलिततीर्विहृत्य यमुनाकूले समं राधया

तद्रोमावलि - मौक्तिकावलि-युगे वेणी भ्रमं विभ्रति ।

तत्राह्लादि - कुच - प्रयागफलयोर्लिप्सावतोर्हस्तया-

र्व्यापाराः पुरुषोत्तमस्य ददतु स्फीतां मुदा सम्पदम् ॥४॥

अनुवाद - इस प्रकार यमुना कूल पर श्रीराधा के साथ विविध केलि क्रीड़ाओं के द्वारा विहार करके श्रीराधा की रोमावली एवं मुक्तावली दोनों ही प्रयाग के संगम का भ्रम उत्पन्न कर रहे थे। उस प्रयाग के फल आह्लादकारी दोनों कुच हैं। उनको प्राप्त करने की इच्छावाले पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के दोनों हस्त कमलों में समस्त व्यापार पाठ में और श्रोताओं को आनन्दरूप सम्पत्ति प्रदान करें।

बालबोधिनी - कवि जयदेव कहते हैं कि श्रीपुरुषोत्तम के हस्त व्यापार अपने पाठकों एवं श्रोताओं को अतिशय आनन्द सम्पत्ति प्रदान करें। इन हाथों का यह वैशिष्ट्य है कि ये नित्य-निरन्तर वेणी संगम में आनन्दित होते रहते हैं। प्रयाग का फल कुच है। स्वाधीनभर्तृका श्रीराधा के साथ यमुना के तट पर श्रीकृष्ण स्वेच्छापूर्वक अनेक प्रकार की क्रीड़ाएँ करते हैं। श्रीराधा की रोमावली एवं मुक्तावली का संगम गंगा-यमुना नदी के संगम विलास का स्मरण कराता है। रोमावली की उपमा यमुना से की गई है; क्योंकि वह कृष्णवत् नीलवर्णा है। मुक्तावली उज्ज्वल है। अतः उसकी तुलना गंगा से की गई है। उनका संगम ही प्रयाग होता है। कुच द्वय उस प्रयाग स्नान के फल हैं, उसकी प्राप्ति ही स्नान के फल की प्राप्ति है। नीली नीली यमुना की धारा और उजली - उजली मौक्तिकावली के संगम के कारण श्रीराधा ही प्रयाग हैं। इस प्रयाग के आनन्दप्रद फल को प्राप्त करने की इच्छा से श्रीकृष्ण जो हस्त व्यापार कर रहे हैं, वे व्यापार समस्त पाठकों के लिए अभिवृद्धिशील आनन्द का विधान करें।

प्रस्तुत प्रबन्ध का नाम 'सुप्रीतपीताम्बर तालश्रेणी' है । प्रस्तुत श्लोक में सांगरूपकालंकार ही शार्दूलविक्रीड़ित छंद है, स्वाधीनभर्तृका नायिका है। पाञ्चाली रीति एवं गीति है। भारती वृत्ति है। धीरोदात्त गुणों से युक्त उत्तम नायक है।

पर्यङ्कीकृत - नाग- नायक - फणा-श्रेणी मणीनां गजे

संक्रान्त- प्रतिबिम्ब-संकलनया विभ्रदविभू-प्रक्रियाम् ।

पादोम्भोरुहधारि-वारिधि सुतामक्ष्मां दिदृक्षुः शतैः

कायव्यूहमिवाचरनुपचितीभूतो हरिः पातु वः॥

अन्वय - [अथ श्रीराधायाः पूर्वोक्तभावदर्शनात् तृप्तोत्कण्ठा- वगुण्ठितः श्रीकृष्णे नेत्रबाहुल्यमिच्छन् श्रीनारायणस्य लक्ष्मीदर्शनं श्लाघितवान् इति स्मरन् कविः आशिषं प्रयुङ्क्ते] -पर्यङ्कीकृत-नागनायक - फणा-श्रेणी- मणीनां गणे (पर्यङ्कीकृतस्य नागनायकस्य शेषस्य फणाश्रेण्यां ये मणयः रत्नानि तेषां गणे समूहे) संक्रान्तप्रतिविम्ब संकलनया (संक्रान्तानां मिलितानां प्रतिबिम्बानां प्रतिकृतीनां संकलनया प्रसरणेन) विभुप्रक्रियां (सर्वव्यापिभावं) विभ्रत् (धारयन्) उपचितीभूतः (वृद्धि प्राप्तः) पादाम्भोरुहधारि- वारिधिसुतां (चरणकमल-सेविनी या वारिधिसुता लक्ष्मीः तां) अक्ष्णां शतैः (नेत्रशतैः ) दिदृक्षुः (द्रष्टुमिच्छुः) [अतएव] कायव्यूहमिव (शरीरसमूहमिव) आचरन् हरिः (युष्मान्) पातु ( रक्षतु) ॥ २ ॥

अनुवाद - जिस नाग-नायक शेषराज को जिन्होंने अपनी शय्या बना रखा है, उसकी असंख्य फनों की मणियों में प्रतिबिम्बित होने से जिनका विभुत्व विस्तार को प्राप्त कर रहा है, श्रीलक्ष्मीजी सदैव जिनके चरण कमलों का संवाहन करती हैं और जिन्हें वे सहस्र - सहस्र नेत्रों से देखना चाहती हैं, जो कायव्यूह की भाँति अनेकों विग्रह स्वरूपों में स्फीत हो रहे हैं, वे श्रीहरि आप सबकी रक्षा करें।

त्वामप्राप्य मयि स्वयम्बरपरां क्षीरोद-तीरोदरे

शंके सुन्दरि ! कालकूटमपिवमूढ़ो मृडानीपतिः ।

इत्थं पूर्वकथाभिरन्य मनसो विक्षिप्य वक्षोञ्चलं

पद्मायाः स्तनकोरकोपरि मिलनेत्रो हरिः पातु वः ॥

अन्वय - [एवं चिन्तयन् अत्युच्छलितोत्कण्ठया तदवलोकनाय तस्य वैचित्त्यापत्तेः पुनः श्रीनारायण चरित-वर्णन-कौतुकमातनोदिति स्मरन् पुनः अशिषयति] - अयि सुन्दरि (त्रिलोकसौन्दर्यसारभूते) क्षीरोदतीरोदरे (क्षीरोदस्य क्षीरसागरस्य तीरोदरे तटमध्ये) मयि स्वयंवरपरां (मदेकचित्तामित्यर्थः) त्वाम् अप्राप्य मूढ़ (तव सौन्दर्यविमुग्धः) मृडानीपतिः (गिरिजानाथः) कालकूटं (विषं) अपिवत् (वृथैव मे जीवितमिति मन्यमानः तत्त्यागार्थमिति भावः] [इति अहं] शङ्के (सम्भावयामि); [एतेन गिरिजाया अपि पद्मायाः सौन्दर्याधिक्यं सूचितम्] इत्थं (एवं) पूर्वकथाभिः (पुराणप्रसिद्धाभिस्तदश्रुतपूर्वाभिः) अन्यमनसः (विस्मितचित्तायाः) पद्मायाः (लक्ष्म्याः) वक्षोऽञ्चलं (वक्षःस्थमुत्तरीयवसनं) विक्षिप्य (अपसार्य) स्तनकोरकोपरि (कुचकुट्मलयोः उपरि ) मिलनेत्रः (संक्रान्तदृष्टिः) हरिः वः (प्रेमरसज्ञान् भक्तान् युष्मान्) पातु ॥

अनुवाद - हे सुन्दरि ! मूढ़ मृडानीपति रुद्र क्षीर-सागर के तट पर जब तुम्हें प्राप्त नहीं कर सके, तब तुमने स्वयं मुझे वरण कर लिया। इस प्रकार पूर्ण कथा को मन में स्मरण कर महापद्मारूपा श्रीराधा के स्तन कोरक के ऊपर जिन्होंने नेत्र भर-भरकर दर्शन प्राप्त किये, वे श्रीहरि आप सबकी रक्षा करें।

श्रीभोज -देव- प्रभवस्य रामा - देवीसुत श्रीजयदेवकस्य ।

पराशरादिबन्धुवर्गकण्ठे श्रीगीतगोविन्दकवित्वमस्तु ॥

इति श्रीजयदेवकृतौ गीतगोविन्द सुप्रीतपीताम्बरो नाम द्वादशः सर्गः ।

अन्वय - [अथ स्वमातृपितृस्मरणपूर्वकं पराशरादिमत-ज्ञातार एव अस्य अधिकारिणः इति तान् प्रति अशिषयति] - श्रीभोजदेव- प्रभवस्य (श्रीभोजदेवः प्रभवः जनको यस्य श्रीभोजदेव-सुतस्य) वामादेवी सुत-श्रीजयदेवकस्य (वामादेवी जयदेवजननी तस्याः सुतस्य श्रीजयदेवकस्य) पराशरादिप्रिय बन्धुकण्ठे (पराशरादीनां ये प्रियाः तन्मतज्ञाः तेषु अपि ये बन्धवः तन्मतसार- श्रीराधामाधवरहः- केलिज्ञानेन बन्धुत्वं प्राप्ताः तेषां कण्ठे) [भूषणवत्] [सर्वदा] श्रीगीतगोविन्दकवित्वं (श्रीगीतगोविन्दाख्यं काव्यं) अस्तु [ अनेन अस्य प्रबन्धस्य सर्व वेदेतिहास-पुराणादि- वेत्तृणां सम्मत्या सर्वसारत्वं दुरूहत्वञ्च वोधितम्] ॥ सर्गोऽयं समृद्धिदाख्य-सम्भोग रसानन्दितः पीताम्बरः प्रियाधीनत्वेन तद्वर्ण- वसन - प्रियः श्रीकृष्णो यत्र स इति सुप्रीत-पीताम्बरो नाम द्वादश: ॥ ६ ॥

अनुवाद – श्रीभोजदेव से उत्पन्न रामादेवी के पुत्र श्रीजयदेव कवि द्वारा प्रस्तुत इस प्रबन्ध काव्य श्रीगीतगोविन्द का काव्यत्व पराशर आदि प्रिय बन्धुओं के कण्ठ में सुशोभित हो।

बालबोधिनी - श्रीभोजदेव और श्रीरामादेवी (श्रीराधादेवी) के पुत्र श्रीजयदेव ने भगवान्‌ के प्रिय भक्तों पराशर आदि प्रिय मित्रों के कण्ठ में मुखरित विभूषित होने के लिए और प्रखरित होकर गगन में अनुगुंजित होने के लिए इस पदावली की रचना की है। रसरूप श्रीकृष्ण के स्मरण में अनोखे लीला-चित्र भक्त हृदयों में सदैव सुशोभित होते रहें, प्रिय प्रियतर-प्रियतम-प्राण सर्वस्व बन जावें ।

इस प्रकार २४ वाँ प्रबन्ध समाप्त हुआ ।

इस प्रकार श्रीगीतगोविन्द महाकाव्य में सुप्रीत पीताम्बर नामक अन्तिम सर्ग की बालबोधिनी वृत्ति समाप्त ।

समाप्तोऽयं श्रीगीतगोविन्दम्‌ ग्रन्थः

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