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कर्मकाण्ड

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अद्भुत रामायण सर्ग ४

अद्भुत रामायण सर्ग ४

अद्भुत रामायण सर्ग ४ में राजसभा में नारद और पर्वतऋषि का बंदररुप में आने और रामचन्द्र के जन्म लेने का कारण का वर्णन किया गया है।

अद्भुत रामायण सर्ग ४

अद्भुत रामायणम् चतुर्थ: सर्गः

Adbhut Ramayan sarga 4

अद्भुत रामायण चौथा सर्ग

अद्भुतरामायण चतुर्थ सर्ग

अद्भुत रामायण सर्ग ४

अथ अद्भुत रामायण सर्ग ४

तवागतौ समीक्ष्याथ राजा संभ्रांतमानसः ।

विव्यमासनमा विनय पूजयामास तावुभौ ॥ १ ॥

उन दोनों को आया देखकर राजा संभ्रान्त मन होकर दिव्य आसन पर बैठाकर दोनों की पूजा करता हुआ ।। १ ।।

उभौ देवऋषी दिव्यौ नित्यज्ञानवतां वरौ ।

समासोनी महात्मानौ कन्यार्थे मुनिसत्तमौ ॥ २ ॥

वे दोनों दिव्य देवऋषि नित्य ज्ञानवालों में श्रेष्ठ महात्मा कन्या के निमित्त उस आसन में बैठते हुए ॥ २ ॥

तावुभौ प्रणिपत्याग्रे कन्यां तां श्रीमतीं शुभाम् ।

स्थितां कमल- पत्राक्षों प्राह राजा यशस्विनीम् ॥ ३ ॥

उन दोनों को प्रणाम कर राजा कमललोचनी यशस्विनी अपनी कन्या से बोले ॥ ३ ॥

अनयोर्यं वरं भद्रे मनसा त्वमिहेच्छसि ।

तस्मै मालामिमां देहि प्रणिपत्य यथा विधि ॥ ४ ॥

हे भद्रे ! इन दोनों में जिसे मन से वरण करो उसी को यथाविधि प्रणाम कर यह माला पहरा दो ॥ ४ ॥

एवमुक्ता तु सा कन्या स्त्रीभिः परिवृता तदा ।

मालां हिरण्मयों दिव्यामादाय शुभलोचना ॥ ५॥

तस्थौ तामाह राजासौ वत्से कि त्वं करिष्यसि ॥ ६॥

स्त्रियों से युक्त जब उस कन्या से यह वचन कहा गया तब वह शुभ लोचना दिव्य सुवर्ण की माला को लेकर खडी रही तब राजा ने कहा हे वत्से ! तू क्या करेगी ॥ ५-६॥

अनयोरेकमुद्दिश्य देहि मालामिमां शुभे ।

सा प्राह पितरं त्रस्ता इमौ तु वानराननौ ॥ ७ ॥

इन दोनों में किसी एक को माला प्रदान कर । तब वह पिता से बोली इन दोनों का तो बानर का मुख है ।। ७।।

मुनिश्रेष्ठौ न पश्यामि नारदं पर्वतं तथा ।

अनयोर्मध्यतस्त्वेकं वरं षोडशवार्षिकम् ॥ ८ ॥

मुझे तो मुनिश्रेष्ठ नारद और पर्वत दीखते नहीं परंतु इन दोनों के बीच में एक सोलह वर्ष का युवा ॥ ८ ॥

सर्वाभरणसंयुक्तमतसीपुष्पसंनिभम् ।

दीर्घबाहुं विशालाक्षं तुंगो रःस्थलमुत्तमम् ॥ ९ ॥

चामीकराभं करणपटयुग्मकशोभितम् ।

विभक्त त्रिवलीयुक्तनाभि व्यक्तकृशारदम् ॥ १० ॥

हिरण्याभरणोपेतं सुरंगकनखं शुभम् ।

पद्माकारकरं त्वेनं पद्मास्यं पद्मलोचनम् ॥ ११ ॥

पद्म पद्महृदयं पद्मनाभं श्रियावृतम् ।

दंतपंक्तिभिरत्यर्थं कुन्दकुड्मलसन्निभम् ॥ १२ ॥

हसतं मां समालोक्य दक्षिणं च प्रसार्य वै ।

पाणि स्थितमिमं छन्नं पश्यामि शुभमूर्धजम् ।। १३ ।।

सम्पूर्णं गहनों से युक्त अलसी के फूल के समान दीर्घ बाहु विशाल नेत्र ऊँचा श्रेष्ठ उरस्थल सुवर्ण के समान तेजवाले दो वस्त्रों से शोभित विभक्त त्रिवली से युक्त नाभि प्रगट कृश उदरवाला सुवर्ण के गहनों से युक्त सुन्दर नख, कमल के से हाथ कमलमुख कमललोचन कमल के से चरण कमलहृदय पद्मनाभ लक्ष्मी से युक्त चमेली के कली के समान दंतपंक्ति से शोभित मुझे देखकर हास्यकर दक्षिण हाथ फैलाये हैं इसही को मैं सुन्दर सिर आदि से युक्त देखती हूँ ॥९-१३ ॥

एवमुक्ते मुनिः प्राह नारदः संशयं गत: ।

कियंतो बाहवस्तस्य कन्ये वद यथातथम् ॥ १४ ॥

यह कहने पर नारदमुनि सन्देह को प्राप्त हो बोले हे कन्या ! यथार्थं कह उसके कितनी भुजा हैं ।। १४ ।।।

बाहुद्वयं च पश्यामीत्याह कन्या सुविस्मिता ।

प्राह तां पर्वतस्तत्र तस्य वक्षःस्थले शुभे ।। १५ ।।

किंच पश्यसि मे ब्रूहि करे कि धारयत्यपि ।

कन्या तमाह मालां वै चंचद्रूपामनुत्तमाम् ॥ १६ ॥

तब कन्या विस्मय को प्राप्त हो बोली दो भुजा देखती हूं, तब पर्वत बोले हे शुभे ! उसके वक्षस्थल में क्या है जो यह पुरुष धारण कर रहा है, सो वता, तव कन्या ने कहा वह पुरुष बहुत सुन्दर माला धारण किये है।।१५-१६।।

वक्षःस्थलेsस्य पश्यामि करे कार्मुकलायको ।

एवमुक्तो मुनिश्रेष्ठौ परस्परमनुत्तमौ ॥ १७ ॥

मनसा चितयंतौ तौ मायेयं कस्यचिद्भ वेत् ।

मायावी तस्करो नूनं स्वयमेव जनार्दनः ॥ १८ ॥

और हाथ में धनुषवाण धारण किये हैं, जब यह कहा तब वे दोनों मुनि श्रेष्ठ मन में विचारने लगे यह किसकी माया है, यह मायावी तस्कर अवश्य ही श्रीकृष्ण हैं ।। १८ ।।

आगतो नान्यथा कुर्यात्कथं मेऽन्यो मुखं त्विदम् ।

गोलांगूलीयमित्येवं चितयामास नारदः ।। १९ ।।

वही आ गये हैं नहीं तो इस प्रकार का हमारा मुख किस प्रकार का हो सकता हैं, कि गोलांगुल का मुख हो गया, यह नारदजी चिन्ता करने लगे ।। १९ ।

पर्वतोऽपि तथैवैतद्वानरत्वं कथं मया ।

प्राप्तमित्येव सहसा चितामापेदिवांस्तथा ॥ २० ॥

पर्वत कहने लगे हमारा वानर का मुख किस प्रकार हो गया ? इस प्रकार बडी चिन्ता हुई । २० ॥

ततो राजा प्रणम्यासौ नारदं पर्वतं तथा ।

भवद्भयां किमिदं भद्रौ कृतं बुद्धि विमोहनम् ॥ २१ ॥

तब राजा प्रणाम कर नारद और पर्वत से बोले, यह तुम्हारी बुद्धि में मोह किस प्रकार से हुआ है ।। २१ ।।

स्वस्थौ भवंतौ तिष्ठेतां यदि कन्यार्थमुद्यतौ ।

एवमुक्तो मुनिश्रेष्ठौ नृपमूचतुरुल्बणौ ॥ २२ ॥

यदि कन्या के स्वीकार की इच्छा है तो आप स्वस्थ होकर स्थित पूजिये, यह सुनकर वे दोनों मुनिश्रेष्ठ राजा से कहने लगे ।। २२ ।।

त्वमेव मोहं कुरुषे नावामिह कथंचन ।

आवयोरेकमेषा ते वरयत्वेव भामिनी ॥ २३ ॥

राजन् तुमने ही मोह किया है, और हम भी किसी प्रकार से मोह नहीं करते हैं, यह कन्या हम दोनों में किसी एक को वरण कर ले ।। २३ ।।

ततः सा कन्यका भूयः प्रणिपत्य च देवताम् ।

पित्रा नियुक्ता सहसा मुनिशापभयाद्विज ।। २४ ॥

तब वह कन्या फिर देवता को प्रणाम करके शाप के डर से पिता से नियुक्त की गई ।। २४ ।।

मालामादाय तिष्ठन्ती तयोर्मध्ये समाहिता ।

पूर्ववत्पुरुषं दृष्ट्वा माल्ये तस्मै ददौ हि सा ॥ २५ ॥

सावधान हो उन दोनों के बीच में माला लेकर स्थित हुई और पूर्ववत् उस पुरुष को देखकर वह माला उसी को पहरा दी ।। २५ ।।

अनंतरं च सा कन्या दृष्ट्वा न मनुजैः पुरः ।

ततो नादः समभवत्किमेतदिति विस्मयात् ॥ २६ ॥

फिर उस कन्या को मनुष्यों ने नहीं देखा तब यह क्या हुआ इस प्रकार का शब्द होने लगा ।। २६ ।

तामादाय गतो विष्णुः स्वस्थानं पुरुषोत्तमः ।

पुरा तदर्थमनिशं तपस्तप्त्वा वरांगना ॥। २७ ॥

श्रीमतीयं समुत्पन्ना सा गता च तथा हरिम् ।

तावुभौ मुनिशार्दूलो शिवत्वामित्येव दुःखितौ ॥ २८ ॥

उसको लेकर पुरुषोत्तम विष्णु भगवान् अपने स्थान को चले गये, पहले भगवान् के निमित्त बड़ा तप करके यह श्रेष्ठ स्त्री उत्पन्न हुई थी और नारायण को प्राप्त हुई और वह मुनिश्रेष्ठ परस्पर तुमको धिक्कार है इस प्रकार कहकर दुःखी हुए ।। २७- २८ ।।

वासुदेवं प्रति सदा जग्मतुर्भवनं हरेः ।

तावागतौ समीक्ष्याह श्रीमतीं भगवान्हरिः ।। २९ ।।

और वासुदेव के स्थान को गये। उन दोनों को आया देखकर भगवान्ने श्रीमती से कहा ।। २९ ।।

मुनि श्रेष्ठौ समायातो गूढस्वात्मान- मत्र वं ।

तथेत्युक्ता च सा देवी ग्रहसंती चकार ह ॥ ३० ॥

दोनों मुनिश्रेष्ठ आते हैं, तू अपनी आत्मा को छिपा ले, यह कहने पर वह देवी हँसकर रूप छिपाती भई ।। ३० ।।

नारदः प्रणिपत्याग्रे प्राह दामोदरं हरिम् ।

किमिदं कृतवानद्य मम त्वं पर्वतस्य च ॥ ३१ ॥

तब नारदजी प्रणाम कर दामोदर हरि से कहने लगे हे भगवन् ! आपने मेरा और पर्वत का यह क्या रूप कर दिया।।३१।।

त्वमेव नूनं गोविंद कन्यां तां हृतवानसि ।

तच्छ्रुत्वा पुरुषो विष्णुः पिधाय श्रोत्रमच्युतः ॥ ३२ ॥

पाणिभ्यां प्राह भगवन्भवता किमुदीरितम् ।

कानवादो न भावोऽयं मुनिवृत्तेरहो किल ॥ ३३ ॥

हे गोबिन्द ! निश्चय ही आपने उस कन्या का हरण किया है ! यह सुनकर पुरुषोत्तम अपने हाथ दोनों कानों पर धरकर बोले, हे भगवन् ! आपने क्या कहा है, यह कामवाद का भाव नहीं हे मुनि ! यह आपकी मुनिवृत्ति है क्या? ।।३२- ३३।।

एमुक्तो मुनिः प्राह वासुदेवं स नारदः ।

कर्णमूले मम कथं गोलांगूलमुखं त्विति ॥ ३४ ॥

यह वचन सुन नारदजी भगवान् वासुदेव से कर्णमूल में बोले मेरे गोलांगूल मुख कर दिया ।। ३४ ।।

तदाकर्ण्य महाबुद्धिर्देवो नारायणो हरिः ।

कर्णमूले तमाहेब वानरास्यं कृतं मया ॥ ३५ ॥

पर्वतस्य तथा विप्र गोलांगूलमुखं तव ।

यथा भवांस्तथा सोऽपि प्रार्थयामास निर्जने ॥ ३६ ॥

यह वचन सुन महाबुद्धिमान् नारायण कर्णमूल में कहने लगे कि, मैंने तुम्हारे गोलांगूलमुख कर दिया था और हे विप्र ! इसी प्रकार पर्वत का वानर का मुख कर दिया था जैसे तुमने एकान्त में प्रार्थना की थी इसी प्रकार इन्होंने प्रार्थना की थी ।। ३५- ३६ ।

मामेव भक्तिवशगस्तथास्म्यकरवं मुने ।

न स्वेच्छया कृतं तद्वां प्रियार्थं नान्यथा त्विति ।। ३७ ।।

हे मुने । दोनों की भक्ति में तत्पर होने के कारण मैंने ऐसा किया था; मैंने स्वेच्छा से नहीं किया आपकी प्रीति के निमित्त ही ऐसा किया है ।। ३७।।

याचते यच्च यश्चैव तच्च तस्य ददाम्यहम् ।

न दोषोऽत्र गुणो वापि युवयोर्मम वा द्विज ।। ३८ ।

हमारा भक्त जो कुछ याचना करता है वही वस्तु मैं उसको देता हूं ब्राह्मणो ! इसमें मेरा वा तुम्हारा गुण दोष नहीं है ।। ३८ ।।

पर्वतोऽपि तथा प्राह तस्याप्येवं जगाद सः ।

शृण्वतोरुभयोस्तत्र प्राह दामोदरो वचः ॥३९॥

यही बात पर्वत के पूछने पर नारायण ने कही थी और दोनों के श्रवण करते दामोदर वचन कहने लगे ।। ३९ ।।

प्रियं भवतोः कृतवान्सत्येनायुधमालभे ।

नारदः प्राह धर्मात्मा आवयोर्मध्यतः स्थितः ॥ ४० ॥

धनुष्माद्विभुजःको नु तां हृत्वा गतवान्किल ।

तच्छ्रुत्वा वासुदेवोऽसौ प्राह नौ मुनिसत्तमौ ॥४१॥

मैं सत्य तथा आयुध की सौगन्ध करता हूँ कि आपका प्रिय ही किया है तब धर्मात्मा नारदजी कहने लगे हम दोनों के मध्य में धनुष धारण किये दो भुजवाले पुरुष कौन थे जो उसको हरण कर ले गये, यह वचन सुन मुनिश्रेष्ठ उन दोनों से बोले ।। ४०- ४१ ।।

मायाविनौ महात्मानौ बहवः संति सत्तमौ ।

तत्र सा श्रीमती देवी हृता केनापि सुव्रतौ ॥ ४२ ॥

हे महात्माओ सत्तमो ! संसार में बहुत से माया वाले हैं सो उनमें किसी ने हरण कर ली होगी ॥४२॥

चक्रपाणिरहं नित्यं चतुर्बाहुरिति स्थितिः ।

तस्मान्नाहमतथ्यो वं भवद्भयांविदितं हि तत् ॥ ४३ ॥

और मैं तो चक्रपाणि तथा चार भुजावाला हूं यह स्थिति है सो मैं वहां नहीं हूंगा यह वार्ता आपको विदित ही है ।।४३।।

इत्युक्तौ प्रणिपत्यैनमूचतुः प्रीतमानसौ ।

कोऽत्र दोषस्तव विभो नारायण जगत्पते ॥ ४४ ॥

यह कहने पर वे दोनों प्रणाम कर कहने लगे हे जगत्पते ! इसमें आपका क्या अपराध है ।। ४४ ।।

दौरात्म्यं तु नृपस्यैव मायां हि कृतवानसौ ।

इत्युक्त्वा जग्मतुस्तस्मान्मुनी नारदपर्वतौ ॥ ४५ ॥

अंबरीषं समासाद्य शापेनैनमयोजयत् ।

नारदः पर्वतश्चैव यस्मादावामिहागतौ ॥ ४६ ॥

यह राजा ही की दुरात्मता है उसने अवश्य माया की है यह कहकर वहां से पर्वत और नारद चले और अम्बरीष के निकट जाकर उसको शाप दिया जब कि नारद और हम पर्वत इस स्थान पर आये थे ।।४५-४६ ।।

आहूय पश्चादन्यस्मै कन्यां त्वं दत्तवानसि ।

मायायोगेन तस्मात्वां तमोऽज्ञाभिभविष्यति ॥४७॥

तब तुमने हमको बुलाकर दुसरे के निमित्त कन्यादान की इस कारण हमारे शाप से तू अज्ञानी हो जायगा ।।४७।।

तेन नात्मानत्यर्थं यथावत्त्वं हि वेत्स्यसि ।

एवं शापे प्रवृत्ते तु तमोराशि रथोत्थितः ॥ ४८ ॥

अपने आत्मा का तुझको यथावत् विचार न रहेगा, इस प्रकार शाप देने पर महान तमोराशि उपस्थित हुई।।४८।।

नृपं प्रति ततश्चक्रं विष्णोः प्रादुरभूत्क्षणात् ।

चत्रवित्रासितं घोरं तावुभावभ्यगात्तमः ॥ ४९ ॥

जब वह अन्धकार राजा की ओर को चला उसी समय विष्णु का चक्र प्रगट हुआ तब वह अन्धकार चक्र से विद्रावित होकर उन दोनों के प्रति धावमान हुआ ।। ४९ ।।

ततः संत्रस्तसर्वांगी धावमानौ महामुनी ।

पृष्ठतश्चक्रमालोक्य तमोराशि च दुर्मदम् ॥ ५० ॥

कन्यासिद्धिरहो प्राप्तस्त्यावयोरिति वेगितौ ।

लोकालोकलामनिशं भावमानौ तमोऽदितौ ॥ ५१ ॥

तब सब अंग से व्याकुल हो वे महामुनि धावमान हुए, पीछे चक्र और उस तमोराशि को देखकर बोले अहो ! कन्या की यह सिद्धि हमको प्राप्त हुई, इस प्रकार दिनरात लोकालोक पर्वत के प्रति धावमान हुए ।। ५०-५१।।

त्राहि नाहीति गोविंदं भाषमाणौ भयादितौ ।

विष्णुलोकं ततो गत्वा नारायण जगत्पते ॥ ५२ ॥

वासुदेव हृषीकेश पद्मनाभ जनार्दन ।

त्राह्यावां पुण्डरीकाक्ष नाथोऽसि पुरुषोत्तम ॥ ५३ ॥

और भय से कहने लगे है गोविन्द ! हमारी रक्षा करो ! इस प्रकार जगत्पति नारायण विष्णु के पास जाकर हे जगत्पते ! हे वासुदेव, हृषीकेश, पद्मनाभ, जनार्दन, पुण्डरीकाक्ष, नाथ पुरुषोत्तम ! आप हमारी रक्षा करो ॥ ५२- ५३  

इत्यूचतुर्वासुदेवं मुनी नारदपर्वतौ ।

ततो नारायणोऽचित्यः श्रीमाञ्छीवत्सलांछनः ॥ ५४ ॥

निवार्य चक्रं ध्वांतं च भक्तानुग्रहकाम्यया ।

अंबरीषश्च मन्डुक्तस्तथेो मुनिसत्तमौ ॥ ५५ ॥

नारद और पर्वत मुनि इस प्रकार वासुदेव से कहने लगे तब अचिन्त्य नारायण श्रीमान् भक्तवत्सल भक्तों के ऊपर अनुग्रह की इच्छा से चक्र को निवारण कर बोले जैसे तुम मेरे भक्त हो इसी प्रकार वह राजा मेरा भक्त है ।। ५४५५ ।।

अनयोर्नृपस्य च तथा हितं कार्य मया पुनः ।

आहूय तौ ततः श्रीमान्गिरा प्रहलादयन्हरिः ॥५६

इन दोनों का तथा राजा का भी हित मुझको करना है तब भगवान्ने उनको बुलाकर वाणी से प्रसन्न करते हुए ।। ५६ ।।

उवाच भगवान्विष्णुः श्रूयतामिति मे वचः ।

क्षमेतां मुनिशालौ भक्तसंरक्षणाय मे ॥ ५७ ॥

कहा आप दोनों हमारे वचन सुनिये हे मुनिश्रेष्ठो भक्तरक्षा के निमित्त जो कुछ कहा है वह क्षमा करिये ।। ५७ ।।

अपराद्धं च चक्रेण क्षमाशीला हि साधवः ।

ततस्तौ मुनिशार्दूलौ मायां तस्यावबुध्य च ॥५८॥

यह चक्र का अपराध है साघु क्षमाशील होते हैं सो आप क्षमा करिये तब वे दोनों मुनि उसकी माया को जान कर ।।५८।।

ददतुश्च ततः शापं विष्णुमुद्दिश्य कोपनौ ।

श्रीमतीहरणं विष्णो यत्कृतं छद्मना त्वया ।। ५९ ।।

क्रोध कर विष्णु को शाप देते हुए बोले हे विष्णो ! जो कि, आपने छल से श्रीमती का हरण किया है ।। ५९ ।।

यया मूर्त्या तथैव त्वं जायेथा मधुसूदन ।

अम्बरोषस्यान्ववाये राज्ञो दशरथस्य हि ॥ ६० ॥

पुत्रस्त्वं भविता पुत्री श्रीमती धरणी प्रजा ।

भविष्यति विदेहश्च प्राप्य तां पालयिष्यति ॥ ६१ ॥

हे जनार्दन ! जिस मूर्ति से आप उत्पन्न हुए हो उसी मूर्ति से अम्बरीष के कुल में राजा दशरथ के यहां तुम पुत्ररूप से जन्म लो और यह श्रीमती धरणी की पुत्री होगी, और विदेह इसका पालन करेगा ।। ६०-६१ ।। 

राक्षसापदः कश्चितां ते भार्या हरिष्यति ।

यतो राक्षसधर्मेण हृता च श्रीमती शुभा ॥ ६२ ॥

कोई राक्षसों में नीच वहां तुम्हारी भार्या को हरण करेगा जिस प्रकार तुमने राक्षस धर्म से श्रीमती का हरण किया है ।। ६२ ।।

अतस्ते रक्षसा भार्या हर्तव्या छद्मनाऽच्युत ।

यथा प्राप्तं महद्दुः खमावाभ्यां श्रीमतीकृते ॥ ६३ ॥

इसी प्रकार छल से राक्षस तुम्हारी भार्या को हरण करेगा जिस प्रकार हम दोनों को श्रीमती के कारण महादुःख प्राप्त हुआ है ॥ ६३ ॥

हाहेति रुदता लक्ष्यं तथा दुःखं च तत्कृते ।

इत्युक्तवन्तौ तौ विप्रौ प्रोवाच मधुसूदनः ॥ ६४ ॥

इसी प्रकार तुम भी वन में हाहाकार करते फिरोगे ! उन ब्राह्मणों के ऐसा कहने पर जनार्दन कहने लगे ।। ६४ ।।

अम्बरीषस्यान्ववाये भविष्यति महायशाः ।

श्रीमान्दशरथो नाम भूमिपालोऽतिधार्मिकः ॥ ६५ ॥

अम्बरीष के वंश में अवश्य ही श्रीमान् अधिक धर्मात्मा दशरथ राजा होंगे ।। ६५ ।।

तस्याहमग्रजः पुत्रो रामो नाम भवाम्यहम् ।

तत्र मे दक्षिणो बाहुर्भरतो भविता किल ॥ ६६ ॥

उनके यहां बडा पुत्र रामनाम वाला में हूँगा वह भरतजी मेरी दक्षिण भुजा होंगे ।। ६६ ।।

शत्रुघ्नो वामबाहुश्च शेषोऽसौ लक्ष्मणः स्वयम् ।

ऋषिशापो न चैव स्यादन्यथा चक्र गम्यताम् ॥ ६७ ॥

शत्रुघ्न बांई भुजा और शेष लक्ष्मणजी होंगे और ऋषि का शाप भी अन्यथा नहीं होगा ।। ६७ ।।

ऋषिशापतमोराशे यवा रामो भवाम्यहम् ।

तत्र मां समुपागच्छ गच्छेदानीं नृपं विना ॥ ६८ ॥

जिस समय ऋषि के शापरूपी तमोराशि से में रामनाम हूँगा तब तुम मेरे पास आओगे इस समय नृप के बिना जाओ ।। ६८ ।।

त्यक्त्वापि च मुनिश्रेष्ठाविति स्म प्राह माधवः ।

एवमुक्ते तमोनाशं तत्क्षणाच्च जगाम वै ॥ ६९ ॥

इस प्रकार मुनिश्रेष्ठ से त्यक्त हो विस्मित हो माधव बोले और उनके यह कहते ही तत्काल अंधकार का नाश होगया ।। ६९ ।।

आत्मार्थं संचितं तेन प्रभुणा भन्तरक्षिणा ।

निवारितं हरेश्चक्रं यथापूर्वमतिष्ठत ॥ ७० ॥

और भक्तों की रक्षा करनेवाले प्रभु ने अपने निमित्त उसको सञ्चित किया । और निवारण किया नारायण का चक्र यथापूर्व स्थित हुआ ।। ७० ।।

मुनिश्रेष्ठो भयान्युक्तौ प्रणिपत्य जनार्दनम् ।

निर्गतौ शोकसंतप्ता- वूचतुस्तौ परस्परम् ॥ ७१ ॥

और भय से मुक्त हुए ऋषि जनार्दन को प्रणाम कर शोक से संतप्त हो चले और परस्पर कहने लगे ।। ७१ ।।

अद्यप्रभृति देहांत मावां कन्यापरिग्रहम् ।

न करिष्याव इत्युक्त्वा प्रतिज्ञाय च तावृषी ॥ ७२ ॥

आजसे लेकर जन्मपर्यंत हम कन्या को स्वीकार नहीं करेंगे दोनों ऋषियों ने इस प्रकार की प्रतिज्ञा करी ॥ ७२ ॥

मानध्यानपरौ शुद्धौ यथापूर्वं व्यवस्थितौ ।

अम्बरीषोऽपि राजासौ परिपाल्य च मेदिनीम् ।। ७३ ।।

सभृत्यज्ञातिसंबंधो विष्णुलोकं जगाम वै ।

मानार्थमंबरीषस्य तथैव मुनिसंहयोः ॥ ७४ ॥

और मौन ध्यान में तत्पर होकर यथापूर्वक स्थित होगये और राजा अम्बरीष यथायोग्य पृथ्वी को पालनकर भृत्य ज्ञातियों के संबन्धियों के सहित विष्णुलोक को गये । अंबरीष और दोनों मुनियों के सम्मान के निमित्त ।।७३ -७४ ॥

रामो दाशरथिर्भूत्वा तमसा लुप्तबुद्धिकः ।

कदाचित्कार्यवशतः स्मृतिः स्यादात्मनः प्रभोः ।। ७५ ।।

वह दशरथ के पुत्र रामचन्द्र होकर तमसे आच्छादित हुए कभी कार्यवश से उनको अपनी स्मृति हो जाती थी ।। ७५ ।।

पूर्णार्थोऽपि महाबाहुरपूर्णार्थ इव प्रभु ।

अनुग्रहाय भक्तानां प्रभूणामीदृशी गतिः ॥ ७६ ॥

वह महाबाहु पूर्ण अर्थ होकर भी अपूर्ण अर्थ के समान दीखते थे भक्तों के अनुग्रह के अर्थ ही स्वामियों की ऐसी गति होती है ।। ७६ ॥

मायां कृत्वा महेशस्य प्रोत्थिता मानुषी तनुः ।

तस्मान्माया न कर्तव्या विद्वद्धिर्दोषदशभिः ॥ ७७ ॥

वह महेश की माया के आश्रित हो मानुषी शरीर के प्राप्त हुए इस कारण दोष जाननेवाले महात्माओं को माया का करना उचित नहीं है ॥ ७७ ॥

एतत्ते कथितं सर्वं रामजन्म- कथाश्रयम् ।

अंबरीषस्य माहात्म्यं मायावित्वं च वै हरेः ॥ ७८ ॥

यह रामजन्म की कथा का सम्पूर्ण आशय तुमसे कहा अम्बरीष का माहात्म्य हरि का माया में अवतार कहा ।। ७८ ।।

यः पठेच्छृणुयाद्वापि मायावित्त्वं हविभोः ।

मायां विसृज्य पुण्यात्मा विष्णु लोकं स गच्छति ॥ ७९ ॥

जो नारायण का यह चरित्र पढता सुनता है वह पुण्यात्मा माया त्यागकर विष्णुलोक को जाता है ।। ७९ ।।

दशरथसुतजन्मकारणं यः पठति शृणोत्यनुमोदते द्विजेन्द्रः ॥

व्रजति स भगवद्गृहातिथित्वं नहि शमनस्य भयं कुतश्चिदस्य ॥ ८० ॥

दशरथ के पुत्र का जन्मकारण जो पढता सुनता है और अनुमोदन करता है वह नारायण के घर का अतिथि होता है यमका भय उसको नहीं होता है ॥ ८० ॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदि काव्ये अद्भुतोत्तरकाण्डे श्रीरामजन्मोपक्रमश्चतुर्थः सर्गः ॥ ४ ॥

इस प्रकार वाल्मीकी श्रीमद्रामायण अद्भुतोत्तरकाण्ड आदिकाव्य में श्रीरामजन्म के कारण का वर्णन नामक चतुर्थ सर्ग पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥

आगे जारी...........अद्भुत रामायण सर्ग 5

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