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अथ एकाशीतितमोऽध्यायः
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वाक्ष्यामि
भोगमोक्षार्थं दीक्षां पापक्षयङ्करीं ।
मलमायादिपाशानां
विश्लेषः क्रियते यया ॥१॥
ज्ञानञ्च
जन्यते शिष्ये सा दीक्षा भुक्तिमुक्तिदा ।
भगवान्
महेश्वर कहते हैं— स्कन्द ! अब मैं भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिये दीक्षा की विधि
बताऊँगा,
जो समस्त पापों का नाश करनेवाली है तथा जिसके द्वारा मल और
माया आदि पाशों का निवारण किया जाता है। जिससे शिष्य में ज्ञान की उत्पत्ति करायी
जाती है,
उसका नाम 'दीक्षा' है। वह भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। पशु(पाश-बद्ध जीव)
शुद्ध विद्या द्वारा अनुग्राह्य कहा गया है। वह तीन प्रकार का होता है-पहला
विज्ञानाकल, दूसरा प्रलयाकल तथा तीसरा सकल ॥ १अ ॥
विज्ञातकलनामैको
द्वितीयः प्रलयाकलः ॥२॥
तृतीयः सकलः
शास्त्रेऽनुग्राह्यस्त्रिविधो मतः ।
तत्राद्यो
मलमात्रेण मुक्तोऽन्यो मलकर्मभिः ॥३॥
कलादिभूमिपर्यन्तं
स्तवैस्तु सकलो यतः ।
उनमें से
प्रथम अर्थात् 'विज्ञानाकल' पशु केवल मलरूप पाश से युक्त होता है*,
दूसरा अर्थात् 'प्रलयाकल' पशु मल और कर्म इन दो पाशों से आबद्ध होता है* तथा तीसरा अर्थात् 'सकल' पशु कला आदि से लेकर भूमिपर्यन्त सारे तत्त्वसमूहों से
बँधा होता है (अर्थात् वह मल, माया तथा कर्म-त्रिविध पाशों से बँधा हुआ बताया गया है। ) * ॥ २-३ अ ॥
*१. जो परमात्मा के स्वरूप को पहचान कर जप, ध्यान
तथा संन्यास द्वारा अथवा भोग द्वारा कर्मों का क्षय कर डालता है और कर्मों का क्षय
हो जाने के कारण जिसके लिये शरीर और इन्द्रिय आदि का कोई बन्धन नहीं रहता, उसमें
केवल मलरूपी पाश (बन्धन) रह जाता है, उसे 'विज्ञानाकल' कहते हैं। मल तीन प्रकार के होते हैं-' आणव
मल', 'कर्मज
मल', तथा
'मायेय-मल' । विज्ञानाकल
में केवल आणय-मल रहता है। वह विज्ञान (तत्वज्ञान) द्वारा अकल-कलारहित (कलादि भोग बन्धनों
से शून्य) हो जाता है, इसलिये उसकी 'विज्ञानाकल' संज्ञा होती है।
*२. जिस जीवात्मा के देह, इन्द्रिय
आदि प्रलयकाल में लीन हो जाते हैं, इससे उसमें मायेय मल तो नहीं रहता, परंतु
आणव और कर्मज ये दो मलरूपी पाश (बन्धन) रह जाते हैं. वह प्रलयकाल में ही अकल (कलारहित)
होने के कारण 'प्रलयाकल' कहलाता है।
*
३ जिस जीवात्मा में आणव, मायेय
और कर्मज तीनों मल (पाश) रहते हैं, वह कला आदि भोग-बन्धनों से युक्त होने के कारण 'सकल' कहा
गया है। पाशुपत दर्शन के अनुसार विज्ञानाकल पशु (जीव ) के भी दो भेद हैं-'समाप्त
कलुष' और 'असमाप्त
कलुष' ।
(१)
जीवात्मा जो कर्म करता है, उस प्रत्येक कर्म की तह मल पर जमती रहती है। इसी
कारण उस मल का परिपाक नहीं होने पाता किंतु जब कर्म का त्याग हो जाता है, तब
तह न जमने के कारण मल का परिपाक हो जाता है और जीवात्मा के सारे कलुष समाप्त हो
जाते हैं, इसीलिये वह 'समाप्त-कलुष' कहलाता है। ऐसे जीवात्माओं को भगवान् आठ प्रकार के
'विद्येश्वर' पद पर
पहुंचा देते हैं। उनके नाम ये हैं-
अनन्तश्चैव
सूक्ष्म तथैव च शिवोत्तमः।
एकनेत्रस्तथैवैकरुद्रक्षापि
त्रिमूर्तिकः ॥
श्रीकण्ठश्च
शिखण्डी च प्रोक्ता विद्येश्वरा इमे ।
'(१) अनन्त, (२) सूक्ष्म, (३) शिवोत्तम, (४) एकनेत्र, (५) एकरुद्र, (६) त्रिमूर्ति,
(७) श्रीकण्ठ और
(८) शिखण्डी।'
(२) 'असमाप्त-कलुष' वे हैं, जिनकी कलुषराशि अभी समाप्त नहीं हुई है। ऐसे
जीवात्माओं को परमेश्वर 'मन्त्र' स्वरूप दे देता है। कर्म तथा शरीर से रहित किंतु
मलरूपी पाश में बँधे हुए जीवात्मा ही 'मन्त्र' हैं और इनकी संख्या सात करोड़ है। ये सब अन्य
जीवात्माओं पर अपनी कृपा करते रहते हैं। 'तत्त्व-प्रकाश'
नामक ग्रन्थ में उपर्युक्त विषय के संग्राहक
श्लोक इस प्रकार हैं-
पशवस्त्रिविधाः
प्रोक्ता विज्ञानप्रलयाकली सकलः।
मलयुक्तस्तत्राद्यो
मलकर्मयुतो द्वितीयः स्यात् ॥
मलमायाकर्मयुतः
सकलस्तेषु द्विधा भवेदाद्यः ।
आधः
समाप्तकनुषोऽसमाप्तकलुषो द्वितीयः स्यात् ॥
आद्या
ननु गृह्य शिवो विद्येशत्वे नियोजयत्यष्टौ ।
मन्त्रांश्च
करोत्यपरान् से चोक्ताः कोट्यः सप्त ॥
'प्रलयाकल' भी दो प्रकार के होते हैं-'पक्वपाराद्वय' और 'अपक्वपाशद्वय' ।
(१) जिनके मल तथा कर्मरूपी दोनों पाशों का परिपाक
हो गया है, वे 'पक्वपाशद्वय' होकर मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।
(२)
'अपक्वपाशद्वय' जीव
पुर्यष्टकमय देह धारण करके नाना प्रकार के कर्मों को करते हुए नाना योनियों में
घूमा करते हैं।
'सकल' जीवों के भी दो हैं-'पक्वकलुष' भेद
और 'अपक्वकलुष'।
(१)
जैसे-जैसे जीवात्मा के मल, कर्म तथा माया- इन पाशोंका परिपाक बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे
ये सब पाश शक्तिहीन होते जाते हैं। तब वे पक्वकलुष जीवात्मा 'मन्त्रेश्वर' कहलाते
हैं। सात करोड़ मन्त्ररूपी जीव-विशेषों के, जिनका ऊपर वर्णन हो चुका है, अधिकारी
ये ही ११८ मन्त्रेश्वर जीव हैं।
(२)
अपक्वकलुष जीव भवकूप में गिरते हैं।
नारदपुराण
में शैव-महातन्त्र की मान्यता के अनुसार पाँच प्रकार के पाश बताये गये हैं-
(१)मलज, (२)
कर्मज, (३)
मायेय (मायाजन्य), (४) तिरोधान शक्तिज और (५) बिन्दुज ।
आधुनिक
शैव दर्शन में चार प्रकार के पाशों का उल्लेख है-मल,
रोध, कर्म तथा माया ।
रोध
शक्ति या तिरोधान शक्ति एक ही वस्तु है। 'बिन्दु' मायास्वरूप है। वह 'शिवतत्त्व' नाम
से भी जानने योग्य है यद्यपि शिवपद प्राप्तिरूप परम मोक्ष की अपेक्षा से वह भी पाश
ही है, तथापि
विद्येश्वरादि-पद की प्राप्ति में परम हेतु होने के कारण बिन्दु-शक्ति को 'अपरा
मुक्ति' कहा
गया है। उसे आधुनिक शैव दर्शन में 'पाश' नाम नहीं दिया गया है। इसलिये यहाँ शेष चार पाशों
(मल, कर्म, रोध
और माया) के ही स्वरूप का विचार किया जाता है-
(१)
जो आत्मा के स्वाभाविक ज्ञान तथा क्रिया-शक्ति को ढक ले, वह 'मल' (अर्थात्
अज्ञान) कहलाता है। यह मल आत्मास्वरूप का केवल आच्छादन ही नहीं करता, किंतु
जीवात्मा को बलपूर्वक दुष्कर्म में प्रवृत्त करनेवाला पाश भी यही है।
(२)
प्रत्येक वस्तु में जो सामर्थ्य है, उसे 'शिवशक्ति' कहते हैं। जैसे अग्नि में दाहिका शक्ति । यह
शक्ति जैसे पदार्थ में रहती है, वैसा ही भला-बुरा स्वरूप धारण कर लेती है; अतः
पाश में रहती हुई यह शक्ति जब आत्मा के स्वरूप को ढक लेती है, तब
यह 'रोध
शक्ति' या 'तिरोधान
पाश' कहलाती
है। इस अवस्था में जीव शरीर को आत्मा मानकर शरीर के पोषण में लगा रहता है; आत्मा
के उद्धार का प्रयत्न नहीं करता।
(३)
फल की इच्छा से किये हुए 'धर्माधर्म' रूप कर्म को ही 'कर्मपाश' कहते हैं।
(४)
जिस शक्ति में प्रलय के समय सब कुछ लीन हो जाता है तथा सृष्टि के समय जिसमें से सब
कुछ उत्पन्न हो जाता है, वह 'मायापाश' है।
अतः
इन पाशों में बँधा हुआ पशु जब तत्त्वज्ञान द्वारा इनका उच्छेद कर डालता है, तभी
वह 'परम
शिवतत्त्व' अर्थात् 'पशुपति पद' को प्राप्त होता है।
दीक्षा
ही शिवत्व-प्राप्ति का साधन है। सर्वानुग्राहक परमेश्वर ही आचार्य शरीर में स्थित
होकर दीक्षाकरण द्वारा जीव को परम शिवतत्त्व की प्राप्ति कराते हैं ऐसा ही कहा भी
है-'योजयति परे तत्त्वे स दीक्षयाऽऽचार्यमूर्तिस्थः।'
'अपक्वपाशद्वय प्रलयाकल' जीव
तथा 'अपक्वकलुष
सकल' जीव
जिस पुर्यष्टक देह को धारण करते हैं, वह पञ्चभूत तथा मन,
बुद्धि, अहंकार- इन आठ तत्त्वों से युक्त होने के कारण 'पुर्वष्टक' कहलाता
है। पुर्वष्टक शरीर छत्तीस तत्वों से युक्त होता है। अन्तर्भोग के साधनभूत कला, काल, नियति, विद्या, राग, प्रकृति
और गुण ये सात तत्त्व, पञ्चभूत, पञ्चतन्मात्रा,
दस इन्द्रियाँ,
चार अन्तःकरण और पाँच शब्द आदि विषय ये छत्तीस
तत्त्व हैं। अपक्वपाशद्वय जीवों में जो अधिक पुण्यात्मा हैं, उन्हें
परम दयालु भगवान् महेश्वर भुवनेश्वर या लोकपाल बना देते हैं।
निराधाराथ
साधारा दीक्षापि द्विविधा मता ॥४॥
निराधारा
द्वयोस्तेषां साधारा सकलस्य तु ।
आधारनिरपेक्षेण
क्रियते शम्भुचर्यया ॥५॥
तीव्रशक्तिनिपातेन
निराधारेति सा स्मृता ।
आचार्यमूर्तिमास्थाय
मायातीव्रादिभेदया ॥६॥
शक्त्या यां कुरुते
शम्भुः सा साधिकरणोच्यते ।
इयं चतुर्विधा
प्रोक्ता सवीजा वीजवर्जिता ॥७॥
साधिकारानधिकारा
यथा तदभिधीयते ।
इन पाशों से
मुक्त होने के लिये जीव को आचार्य से मन्त्राराधन की दीक्षा लेनी होती है। वह
दीक्षा दो प्रकार की मानी गयी है-एक 'निराधारा' और दूसरी 'साधारा' उपर्युक्त तीन पशुओं में से विज्ञानाकल और
प्रलयाकल— इन दो पशुओं के लिये निराधारा दीक्षा बतायी गयी है
और सकल पशु के लिये साधारा आचार्य की अपेक्षा न रखकर शम्भु द्वारा ही तीव्र
शक्तिपात करके जो दीक्षा दी जाती है, वह 'निराधार' कही गयी है। आचार्य के शरीर में स्थित होकर
भगवान् शंकर अपनी मन्दा, तीव्रा आदि भेदवाली शक्ति से जिस
दीक्षा का सम्पादन करते हैं, वह 'साधारा'
कहलाती है। यह साधारा दीक्षा सबीजा, निर्बीजा,
साधिकार और अनधिकारा- इन भेदों के द्वारा जिस तरह चार* प्रकार की हो जाती है, वह
बताया जाता है ॥ ४-७अ ॥
* शारदापटल में दीक्षा के चार भेदों
का विस्तार से वर्णन है। वे चार भेद हैं-क्रियावती, वर्णमयी, कलावती
और वेधमयी । क्रियावती दीक्षा में कर्मकाण्ड का पूरा उपयोग होता है। स्नान,
संध्या, प्राणायाम, भूतशुद्धि,
न्यास, ध्यान, पूजा,
शङ्ख-स्थापन आदि से लेकर शास्त्रोक्त पद्धति से हवन पर्यन्त कर्म
किये जाते हैं। षडध्वा के शोधन क्रम से पृथक् पृथक् आहुति देकर, शिव में विलीन करके पुनः सृष्टि-क्रम से शिष्य का चैतन्ययोग सम्पादित होता
है। गुरु शिष्य से अपनी एकता का अनुभव करता हुआ आत्मविद्या का दान करता है।
गुरु-मन्त्र प्राप्त करके शिष्य धन्य धन्य हो जाता है।
'वर्णमयी
दीक्षा' न्यासरूपा है। अकारादि वर्ण प्रकृतिपुरुषात्मक हैं।
शरीर भी प्रकृतिपुरुषात्मक होने के कारण वर्णात्मक ही है। इसलिये पहले समस्त शरीर में
वर्णों का सविधि न्यास किया जाता है। श्रीगुरुदेव अपनी आज्ञा और इच्छाशक्ति से उन
वर्णों को प्रतिलोम- विधि अर्थात् संहार क्रम से विलीन कर देते हैं। यह क्रिया
सम्पन्न होते ही शिष्य का शरीर दिव्य हो जाता है और गुरु के द्वारा वह परमात्मा में
मिला दिया जाता है। ऐसी स्थिति होने के पश्चात् श्रीगुरुदेव पुनः शिष्य को पृथक्
करके दिव्य शरीर की सृष्टि क्रम से रचना करते हैं। शिष्य में परमानन्दस्वरूप
दिव्यभाव का विकास होता है और वह कृतकृत्य हो जाता है।
'कलावती
दीक्षा की विधि निम्नलिखित है-मनुष्य के शरीर में पाँच प्रकार की शक्तियाँ
प्रतिष्ठित हैं। पैर के तलवे से जानु- पर्यन्त 'निवृत्ति-शक्ति'
है, जानु से नाभि पर्यन्त प्रतिष्ठा-शक्ति'
है, नाभि से कण्ठ- पर्यन्त 'विद्या शक्ति' है, कण्ठ से
ललाट पर्यन्त 'शान्ति-शक्ति' है,
ललाट से शिखा पर्यन्त 'शान्यतीतकला शक्ति'
है। संहार क्रम से पहली को दूसरी में, दूसरी को
तीसरी में और अन्तिम कला को शिव में संयुक्त करके शिष्य शिवरूप कर दिया जाता है।
पुनः सृष्टिक्रम से इसका विस्तार किया जाता है और शिष्य दिव्य भाव को प्राप्त होता
है।
'बेधमयी
दीक्षा' षट्चक्र-वेधन ही है। जब गुरु कृपा करके अपनी शक्ति से
शिष्य का षट्चक्रभेद कर देते हैं, तब इसी को 'वेधमयी 'दीक्षा' कहते हैं।
गुरु पहले शिष्य के छः चक्रों का चिन्तन करते हैं और उन्हें क्रमशः कुण्डलिनी
शक्ति में विलीन करते हैं। छः चक्रों का विलयन बिन्दु में करके तथा बिन्दु को कला में,
कला को नाद में, नाद को नादान्त में, नादान्त को उन्मनी में, उन्मनी को विष्णुमुख में और
तत्पश्चात् गुरुमुख में संयुक्त करके अपने साथ ही उस शक्ति को परमेश्वर में मिला
देते हैं। गुरु की इस कृपा से शिष्य का पाश छिन्न-भिन्न हो जाता है। उसे दिव्य बोध
की प्राप्ति होती है और वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार यह 'बोधमयी दीक्षा' सम्पन्न होती है।
समयाचारसंयुक्ता
सवीजा जायते नृणां ॥८॥
निर्वीजा
त्वसमर्थानां समयाचारवर्जिता ।
समर्थ पुरुषों
को जो समयाचार से युक्त दीक्षा दी जाती है, उसे 'सबीजा' कहते
हैं और असमर्थ पुरुषों को दी जानेवाली समयाचारशून्य दीक्षा 'निर्बीजा'
कही गयी है ॥ ८अ ॥
नित्ये नैमित्तिके
काम्ये यतः स्यादधिकारिता ॥९॥
साधिकारा
भवेद्दीक्षा साधकाचार्ययोरतः ।
निर्वीजा
दीक्षितानान्तु यदास मम पुत्रयोः ॥१०॥
नित्यमात्राधिकारत्वद्दीक्षा
निरधिकारिका ।
द्विविधेयं
द्विरूपा हि प्रत्येकमुपजायते ॥११॥
एका क्रियावती
तत्र कुण्डमण्डलपूर्विका ।
मनोव्यापारमात्रेण
या सा ज्ञानवती मता ॥१२॥
जिस दीक्षा से
साधक और आचार्य को नित्य- नैमित्तिक एवं काम्य कर्मों में अधिकार प्राप्त होता है, वह 'साधिकारा दीक्षा'
है। 'निर्बीजा दीक्षा' में
दीक्षित होनेवाले लोगों को तथा समयाचार को दीक्षा लेनेवाले साधारण शिष्य एवं
पुत्रकसंज्ञक शिष्यविशेष को नित्यकर्म मात्र के अधिकारी होने के कारण जो दीक्षा दी
जाती है, वह 'निरधिकारा दीक्षा'
कहलाती है। साधारा और निराधारा भेद से जो दीक्षा के दो भेद बताये
गये हैं, उनमें से प्रत्येक के निम्नाङ्कित दो रूप (या भेद)
और होते हैं- एक तो 'क्रियावती' कही
गयी है, जिसमें कर्मकाण्ड की विधि से कुण्ड और मण्डल की
स्थापना एवं पूजा की जाती है। दूसरी 'ज्ञानवती दीक्षा'
है, जो बाह्य सामग्री से नहीं, मानसिक व्यापारमात्र से साध्य है ॥ ९-१२॥
इत्थं
लब्धाधिकारेण दीक्षा.अचार्येण साध्यते ।
स्कन्ददीक्षां
गुरुः कुर्यात्कृत्वा नित्यक्रियां ततः ॥१३॥
प्रणवार्ग्यकराम्भोजकृतद्वाराधिपार्चणः
।
विघ्नानुत्सार्य
देहल्यां न्यस्यास्त्रं स्वासने स्थितः ॥१४॥
कुर्वीत
भूतसंशुद्धिं मन्त्रयोगं यथोदितं ।
तिलतण्डुलसिद्धार्थकुशदूर्वाक्षतोदकं
॥१५॥
सयवक्षीरनीरञ्च
विशेषार्घ्यमिदन्ततः ।
तदम्बुना
द्रव्यशुद्धिं तिलकं स्वासनात्मनोः ॥१६॥
पूजनं
मन्त्रशिद्धिञ्च पञ्चगव्यञ्च पूर्ववत् ।
लाजचन्दनसिद्धार्थभस्मदूर्वाक्षतं
कुशान् ॥१७॥
विकिरान्
शुद्धलाजांस्तान् सधूपानस्त्रमन्त्रितान् ।
शस्त्राम्बु प्रोक्षितानेतान्
कवचेनावगुण्ठितान् ॥१८॥
नानाग्रहणाकारान्
विघ्नौघविनिवारकान् ।
इस प्रकार
अधिकार प्राप्त आचार्य द्वारा दीक्षा- कर्म का सम्पादन होता है।* स्कन्द ! गुरु को चाहिये कि वह नित्यकर्म का
विधिवत् अनुष्ठान करके शिष्य का दीक्षाकर्म सम्पन्न करे। प्रणव के जपपूर्वक गुरु
अपने कर कमल में अर्घ्य - जल ले द्वारपालों का पूजन करे। फिर विघ्नों का निवारण
करने के अनन्तर, द्वार
देहली पर अस्त्रन्यास करके अपने आसन पर बैठे। शास्त्रोक्त विधि से भूतशुद्धि एवं
अन्तर्याग करे। तिल, चावल, सरसों,
कुश, दूर्वाकुर, जौ,
दूध और जल— इन सबको एकत्र करके विशेषार्ध्य
बनावे। उसके जल से समस्त द्रव्यों (पूजन-सामग्रियों) की शुद्धि करे। फिर
तिलक-सम्बन्धी अपने सम्प्रदाय के मन्त्र से भालदेश में तिलक लगावे। फिर पूर्ववत्
पूजन, मन्त्र- शोधन तथा पञ्चगव्य प्राशन आदि कार्य करने
चाहिये। क्रमशः लावा, चन्दन, सरसों,
भस्म, दूर्वा, अक्षत,
कुश और अन्त में पुनः शुद्ध लावा- ये सब 'विकिर'
(बिखरनेयोग्य द्रव्य) कहे गये हैं। इन सब वस्तुओं को एकत्र करके सात
बार अस्त्र- मन्त्र से अभिमन्त्रित करे। अस्त्र-मन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित जल से
इनका प्रोक्षण करके फिर कवच मन्त्र (हुम्) से अवगुण्ठन करके यह भावना करे
कि ये विघ्नसमूह का निवारण करनेवाले नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र हैं ॥ १३-१८अ ॥
* सोमशम्भु की 'कर्मकाण्ड-क्रमावली' (श्लोक
६१९-६२०अ) में 'इर्त्थ लब्धाधिकारेण दीक्षाचार्येण
साध्यते।' इस पंक्ति के बाद दो श्लोक और अधिक उपलब्ध
होते हैं, जो इस प्रकार हैं-
स च
सद्देशसम्भूतः सुमूर्तिः श्रुतशीलवान् ॥
ज्ञानाचारो
गुणोपेतः क्षमी शुद्धाशयो वरः ।
देशकालगुणाचारो
गुरुभक्तिसमन्वितः ॥
शिवानुध्यानवान्
शस्तो विरक्तश्च प्रशस्यते ।
'दीक्षा
प्राप्त शिष्य यदि उत्तम देश में उत्पन्न सुन्दर शरीरवाला, शास्त्राध्ययन
एवं शील से सम्पन्न, ज्ञानी, सदाचारी,
गुणवान् क्षमाशील, शुद्ध अन्तःकरण से युक्त,
श्रेष्ठ, देश-कालोचित गुण और आचार से सुशोभित,
गुरुभक्त, शिवध्यानपरायण तथा विरक्त हो तो वह
उत्तम माना गया है और उसकी प्रशंसा की जाती है।'
दर्भाणान्तालमानेन
कृत्वा षट्त्रिंशता दलैः ॥१९॥
सप्तजप्तं
शिवास्त्रेण वेणीं बोधासिमुत्तमं ।
शिवमात्मनि
विन्यस्य सृष्ट्याधारमभीप्सितं ॥२०॥
निष्कलं च
शिवं न्यस्य शिवोऽहमिति भावयेत् ।
उष्णीषं शिरसि
न्यस्य अलं कुर्यात्स्वदेहकं ॥२१॥
गन्धमण्डनकं
स्वीये विदध्याद्दक्षिणे करे ।
विधिनात्रार्चयेदीशमित्थं
स्याच्छिवमस्तकं ॥२२॥
विन्यस्य
शिवमन्त्रेण भास्वरं निजमस्तके ।
शिवादभिन्नमात्मानं
कर्तारं भावयेद्यथा ॥२३॥
मण्डले
कर्मणां साक्षी कलशे यज्ञरक्षकः ।
होमाधिकरणं
वह्नौ शिष्ये पाशविमोचकः ॥२४॥
स्वात्मन्यनुगृहीतेति
षडाधारो य ईश्वरः ।
सोऽहमेवेति
कुर्वीत भावं स्थिरतरं पुनः ॥२५॥
तदनन्तर
प्रादेशमात्र लंबे कुश के छत्तीस दलों से वेणीरूप बोधमय उत्तम खड्ग बनाकर उसे सात
बार जपते हुए शिव- मन्त्र से अभिमन्त्रित करे । फिर उसे शिवस्वरूप मानकर भावना द्वारा
अपने हृदय में स्थापित करे। साथ ही जगदाधार भगवान् शिव की जो झाँकी अपने को अभीष्ट
हो, उसी रूप में उनका ध्यान चिन्तन करके निष्कल
परमात्मा शिव का अपने भीतर न्यास करे तत्पश्चात् यह भावना करे कि 'मैं साक्षात् शिव हूँ।' फिर सिर पर (मूल मन्त्र से
अभिमन्त्रित) श्वेत पगड़ी रखकर अपने शरीर को (गन्ध, पुष्प
एवं आभूषणों से) अलंकृत करे। तत्पश्चात् गुरु अपने दाहिने हाथ पर सुगन्ध-द्रव्य
अथवा कुङ्कुम द्वारा मण्डल का निर्माण करे। फिर उस पर विधिपूर्वक भगवान् शिव की
पूजा करे। इससे वह 'शिवहस्त' हो जाता
है। उस तेजस्वी शिवहस्त को शिव-मन्त्र से अपने मस्तक पर रखकर यह दृढ़ भावना करे कि
'मैं शिव से अभिन्न और सबका कर्ता साक्षात् परमात्मा शिव ही
हूँ।' जब गुरु ऐसी भावना कर ले, तब वह
यज्ञमण्डप में कर्मों का साक्षी, कलश में यज्ञ का रक्षक,
अग्नि में होम का अधिष्ठान, शिष्य में उसके
अज्ञानमय पाश का उच्छेद करनेवाला तथा अन्तरात्मा में अनुग्रहीता- इन पाँच आकारों में
अभिव्यक्त ईश्वररूप हो जाता है। गुरु इस भाव को अत्यन्त दृढ़तर कर ले कि 'वह परमेश्वर मैं ही हूँ' ॥ १९ – २५ ॥
ज्ञानखड्गकरः
स्थित्वा नैर्ऋत्याभिमुखो नरः ।
सार्घ्याम्बुपञ्चगव्याभ्यां
प्रोक्षयेद्यागमण्डपं ॥२६॥
चतुष्पथान्तसंस्कारैः
संस्कुर्यादीक्षणादिभिः ।
विक्षिप्य विकरांस्तत्र
कुशकूर्चोपसंहरेत् ॥२७॥
तानीशदिशि
वर्धन्यामासनायोपकल्पयेत् ।
नैर्ऋते
वास्तुगीर्वाणान् द्वारे लक्ष्मीं प्रपूजयेत् ॥२८॥
आप्ये रत्नैः
पूरयन्तीं हृदा मण्डपरूपिणीं ।
साम्बुवस्त्रे
सरत्ने च धान्यस्थे पश्चिमानने ॥२९॥
ऐशे कुम्भे
यजेच्छम्भुं शक्तिं कुम्भस्य दक्षिणे ।
पश्चिमस्यान्तु
सिंहस्थां वर्धनीं खड्गरूपिणीं ॥३०॥
तदनन्तर
ज्ञानरूपी खड्ग हाथ में लिये गुरु यज्ञमण्डप के नैर्ऋत्यकोणवाले भाग में
उत्तराभिमुख स्थित हो, अर्घ्य, जल और पञ्चगव्य से उस मण्डप का प्रोक्षण
करे। ईक्षण आदि चतुष्पथान्त-संस्कारों द्वारा उसका संस्कार करे। फिर यज्ञमण्डप में
बिखरनेयोग्य पूर्वोक्त वस्तुओं को बिखेरकर कुश की कूँची से उन सबको बटोर ले और
उन्हें ईशानकोण में स्थापित वार्धानी (जलपात्र) में आसन के लिये रख दे।
नैर्ऋत्यकोण में वास्तुदेवताओं का और पश्चिम द्वार पर लक्ष्मी का पूजन करे।
साथ ही यह भावना करे कि 'वे मण्डपरूपिणी लक्ष्मी देवी रत्नों
के भण्डार से यज्ञमण्डप को परिपूर्ण कर रही हैं।' इस प्रकार
ध्यान एवं आवाहन कर हृदय- मन्त्र 'नमः' के द्वारा अर्थात् 'लक्ष्म्यै नमः ।'-
इस मन्त्र से उनकी पूजा करनी चाहिये। इसके बाद ईशानकोण में सप्तधान्य
पर स्थापित किये हुए वस्त्रवेष्टित पञ्चरत्नयुक्त एवं जल से परिपूर्ण पश्चिमाभिमुख
कलश पर भगवान् शंकर का पूजन करे। फिर उस कलश के दक्षिण भाग में सिंह पर
विराजमान पश्चिमाभिमुखी शक्ति खड्गरूपिणी वार्धानी का पूजन करे ॥ २६-३० ॥
दिक्षु
शक्रादिदिक्पालान्विष्ण्वन्तान् प्रणवासनान् ।
वाहनायुधसंयुक्तान्
हृदाभ्यर्च्य स्वनामभिः ॥३१॥
प्रथमन्तां
समादाय कुम्भस्याग्राभिगामिनीं ।
अविच्छिन्नपयोधरां
भ्रामयित्वा प्रदक्षिणं ॥३२॥
शिवाज्ञां
लोकपालानां श्रावयेन्मूलमुच्चरन् ।
संरक्षत
यथायोगं कुम्भं धृत्वाथ तां धारेत् ॥३३॥
ततः स्थिरासने
कुम्भे साङ्गं सम्पूज्य शङ्करं ।
विन्यस्य
शोध्यमध्वानं वर्धन्यामस्त्रमर्चयेत् ॥३४॥
तदनन्तर पूर्व
आदि दिशाओं में इन्द्र आदि दिक्पालों का और इसके अन्त में विष्णु भगवान् का पूजन
करे। ये सब के सब प्रणवमय आसन पर विराजमान हैं तथा अपने-अपने वाहनों और आयुधों से
संयुक्त हैं-ऐसी भावना करके उनके नामों के अन्त में 'नमः' पद जोड़कर उन्हीं से उनकी पूजा करे। यथा- 'इन्द्राय नमः ।', 'विष्णवे नमः ।' इत्यादि । पहले पूर्वोक्त वार्धानी को भलीभाँति हाथ में ले, उसे कलश के सामने की ओर से ले जाकर प्रदक्षिणक्रम से उसके चारों ओर घुमावे
और उससे जल की अविच्छिन्न धारा गिराता रहे। साथ ही मूलमन्त्र का उच्चारण करते हुए
लोकपालों को भगवान् शिव की निम्नाङ्कित आज्ञा सुनावे- 'लोकपालगण!
आप लोग यथाशक्ति सावधानी के साथ इस यज्ञ की रक्षा करें।' यों
आदेश दे, नीचे एक कलश रखकर उसके ऊपर उस वार्धानी को स्थापित
कर दे। तत्पश्चात् सुस्थिर आसनवाले कलश पर भगवान् शंकर का साङ्ग पूजन करे। इसके
बाद कला आदि षडध्वा का न्यास करके शोधन करे और वार्धानी में अस्त्र की पूजा करे ।।
३१-३४ ॥
ओं हः
अस्त्रासनाय हूं फट् । ओं ओं अस्त्रमूर्तये नमः । ओं हूं फट्पाशुपतास्त्राय नमः ।
ओं ओं हृदयाय हूं फट्नमः । ओं श्रीं शिरसे हूं फट्नमः । ओं यं शिखायै हूं फट्नमः ।
ओं गूं कवचाय हूं फट्नमः । ओं फटस्त्राय हूं फट्नमः
चतुर्वक्त्रं
सदंष्ट्रञ्च स्मरेदस्त्रं सशक्तिकं ।
समुद्गरत्रिशूलासिं
सूर्यकोटिसमप्रभं ॥३५॥
भगलिङ्गसमायोगं
विदध्याल्लिङ्गमुद्रया ।
अङ्गुष्ठेन
स्पृशेत्कुम्भं हृदा मुष्ट्यास्त्रवर्धनीं ॥३६॥
भुक्तये
मुक्तये त्वादौ मुष्टिना वर्धनीं स्पृशेत् ।
कुम्भस्य
मुखरक्षार्थं ज्ञानखड्गं समर्पयेत् ॥३७॥
शस्त्रञ्च
मूलमन्त्रस्य शतं कुम्भे निवेशयेत् ।
तद्दशांशेन
वर्धन्यां रक्षां विज्ञापयेत्ततः ॥३८॥
यथेदं
कृतयत्नेन भगवन्मखमन्दिरं ।
रक्षणीयं
जगन्नाथ सर्वाध्वरधर त्वया ॥३९॥
पूजा के
मन्त्र इस प्रकार हैं – ॐ हः अस्त्रासनाय हूं फट् नमः ।', 'ॐ ॐ
अस्त्रमूर्तये हूं फट् नमः ।', ॐ हूं फट् पाशुपतास्त्राय नमः
।', 'ॐ ॐ हृदयाय हूं फट् नमः । ', 'ॐ
श्रीं शिरसे हूं फट् नमः । ', ' ॐ यं शिखायै हूं फट् नमः ।'
'ॐ शुं कवचाय हुं फट् नमः । ॐ हूं फट् अस्त्राय हूं फट् नमः।'
इसके बाद पाशुपतास्त्र के स्वरूप का इस प्रकार चिन्तन करे- 'उनके चार मुख हैं। प्रत्येक मुख में दाढ़े हैं। उनके हाथों में शक्ति,
मुद्गर, खड्ग और त्रिशूल हैं तथा उनकी प्रभा
करोड़ों सूर्यों के समान है।' इस प्रकार ध्यान करके
लिङ्गमुद्रा के प्रदर्शन द्वारा भगलिङ्ग का समायोग करे। हृदय-मन्त्र (नमः)
- का उच्चारण करते हुए अङ्गुष्ठ से कलश का स्पर्श करे और मुट्ठी से खड्गरूपिणी
वार्धानी का भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिये पहले मुट्ठी से वार्धानी का ही स्पर्श
करना चाहिये। फिर कलश के मुखभाग की रक्षा के लिये उस पर पूर्वोक्त ज्ञान- खड्ग
समर्पित करे। साथ ही मूल मन्त्र का एक सौ आठ बार जप करके वह जप भी कलश को निवेदन
कर दे। उसके दशमांश का जप करके वार्धानी में उसका अर्पण करे। तदनन्तर भगवान्से
रक्षा के लिये प्रार्थना करे- 'सम्पूर्ण यज्ञों को धारण
करनेवाले भगवान् जगन्नाथ ! बड़े यत्न से इस यज्ञ मन्दिर का निर्माण किया
गया है ? कृपया आप इसकी रक्षा करें' ॥
३५-३९ ॥
प्रणवस्थं
चतुर्बाहुं वायव्ये गणमर्चयेत् ।
स्थण्डिले शिवमभ्यर्च्य
सार्घ्यकुण्डं व्रजेन्नरः ॥४०॥
निविष्टो
मन्त्रतृप्त्यर्थमर्घ्यगन्धघृतादिकं ।
वामेऽसव्ये तु
विन्यस्य समिद्दर्भतिलादिकं ॥४१॥
कुण्डवह्निस्रुगाज्यादि
प्राग्वत्संस्कृत्य भावयेत् ।
मुख्यतामूर्ध्ववक्त्रस्य
हृदि वह्नौ शिवं यजेत् ॥४२॥
स्वमूर्तौ
शिवकुम्भे च स्थण्डिले त्वग्निशिष्ययोः ।
सृष्टिन्यासेन
विन्यस्य शोध्याध्वानं यथाविधि ॥४३॥
कुण्डमानं
मुखं ध्यात्वा हृदाहुतिभिरीप्सितं ।
वीजानि
सप्तजिह्वानामग्नेर्होमाय भण्यते ॥४४॥
इसके बाद
वायव्यकोण में प्रणवमय आसन पर विराजमान चार भुजाधारी गणेशजी का पूजन करे।
तत्पश्चात् वेदी पर शिव का पूजन करके अर्घ्य हाथ में लिये साधक यज्ञकुण्ड के पास
जाय। वहाँ बैठकर मन्त्र- देवता की तृप्ति के लिये बायें भाग में अर्घ्य, गन्ध और घृत आदि को तथा दाहिने भाग में
समिधा, कुशा एवं तिल आदि को रखकर कुण्ड, अग्नि, स्रुक् तथा घृत आदि का पूर्ववत् संस्कार करके,
हृदय में ऊर्ध्वमुख अग्नि की प्रधानता का चिन्तन करे तथा अग्नि में
भगवान् शिव का पूजन करे। फिर गुरु अपने शरीर में शिव कलश में, मण्डल में, अग्नि और शिष्य की देह में सृष्टिन्यास की
रीति से न्यासकर्म का सम्पादन करके अध्वा का विधिपूर्वक शोधन करने के पश्चात्
कुण्ड की लंबाई- चौड़ाई के अनुसार ही अग्निदेव के मुख की लंबाई- चौड़ाई का चिन्तन
करके अग्निजिह्वाओं के नाम- मन्त्र के अन्त में 'नमः'
( एवं 'स्वाहा') बोलकर
अभीष्ट वस्तु की आहुतियाँ देते हुए अग्निदेव को तृप्त करे। अग्नि की सात जिह्वाओं के
सात बीज हैं। होम के लिये उनका परिचय दिया जाता है ॥ ४०-४४ ॥
विरेफावन्तिमौवर्णौ
रेफषष्ठस्वरान्वितौ ।
इन्दुविन्दुशिखायुक्तौ
जिह्वावीजानुपक्रमात् ॥४५॥
हिरण्या वनका
रक्ता कृष्णा तदनु सुप्रभा ।
अतिरिक्ता
बहुरूपा रुद्रेन्द्राग्न्याप्यदिङ्मुखा ॥४६॥
रेफरहित
अन्तिम दो वर्णों के सभी ( अर्थात् सात) अक्षर यदि रकार और छठे स्वर (ऊ)-पर आरूढ़
हों और उनके भी ऊपर चन्द्रबिन्दुरूप शिखा हो तो वे ही अग्नि की सात जिह्वाओं के
क्रमश: सात बीज-मन्त्र हैं। (यथा-य्रुঁ ल्रुঁ व्रुঁ श्रूঁ ष्रुঁ स्रुঁ ह्रुঁ )* अग्नि की सात जिह्वाओं
के नाम इस प्रकार हैं- हिरण्या, कनका, रक्ता, कृष्णा, सुप्रभा, अतिरक्ता तथा बहुरूपा। ईशान, पूर्व, अग्नि, नैर्ऋत्य,
पश्चिम, वायव्य तथा मध्य दिशा में क्रमशः इनके
मुख हैं। (अर्थात् एक त्रिभुज के ऊपर दूसरा त्रिभुज बनाने से जो छः कोण बनते हैं,
वे क्रमशः ईशान, पूर्व, अग्नि,
नैर्ऋत्य, पश्चिम तथा वायव्यकोण में स्थित
होते हैं। अग्नि की हिरण्या आदि छः जिह्वाओं को इन्हीं छः कोणों में स्थापित करे
तथा अन्तिम जिह्वा 'बहुरूपा' को मध्य में)* ॥ ४५-४६ ॥
*१. ये सात बोज अग्नि की 'हिरण्या' आदि
सात जिह्वाओं के नाम के आदि में लगाये जाते हैं और अन्त में 'नमः' पद जोड़कर नाम-मन्त्रों से ही उनकी पूजा की
जाती है। यथा-'ॐ य्रुঁ हिरण्यायै नमः। ','ल्रुঁ कनकायै नमः', 'व्रुঁ रक्तायै नमः ॥ श्रूঁ कृष्णायै नमः ।' ' ष्रुঁ सुप्रभायै नमः । ',
' स्रुঁ अतिरक्तायै नमः
।',' ह्रुঁ बहुरूपायै नमः ।'
*२. सोमशम्भु ने इन जिह्वाओं के स्वरूप तथा कामना भेद
से विभिन्न कर्मों में इनके उपयोग के विषय में इस प्रकार लिखा है-
हिरण्या
तप्तहेमाभा कनका वज्रसुप्रभा । रक्तोदिवारुणप्रख्या कृष्णा नीलमणिप्रभा ॥
सुप्रभा
मौक्तिकग्रोतातिरक्ता पद्मरागवत् । चन्द्रकान्तशरच्चन्द्रप्रभेव बहुरूपिणी ॥
फलं
तु कामभेदेन क्रमादासामुदीर्यते । वश्याकर्षणयोराद्या कनका स्तम्भने रिपोः ॥
विद्वेषमोहने
रक्ता कृष्णा मारणकर्मणि । सुप्रभा शान्तिके पुष्टी सुरतोच्चाटने मता ॥
एकैव
बहुरूपा तु सर्वकामफलप्रदा ॥ (कर्मकाण्ड-क्रमावली ६६४-६६७)
क्षीरादिमधुरैर्होमं
कुर्याच्छान्तिकपौष्टिके ।
अभिचारे तु
पिण्याकसक्तुकञ्चुककाञ्चिकैः ॥४७॥
लवणैराजिकातक्रकटुतैलैश्च
कण्टकैः ।
समिद्भिरपि
वक्राभिः क्रुद्धो भाष्याणुना यजेत् ॥४८॥
कदम्बकलिकाहोमाद्यक्षिणी
सिद्ध्यति ध्रुवं ।
बन्धूककिंशुकादीनि
वश्याकर्षाय होमयेत् ॥४९॥
बिल्वं
राज्याय लक्ष्मार्थं पाटलांश्चम्पकानपि ।
पद्मानि
चक्रवर्तित्वे भक्ष्यभोज्यानि सम्पदे ॥५०॥
दूर्वा
व्याधिविनाशाय सर्वसत्त्ववशीकृते ।
प्रियङ्गुपाटलीपुष्पं
चूतपत्रं ज्वरान्तकं ॥५१॥
शान्तिक एवं
पौष्टिक कर्म में खीर आदि मधुर पदार्थों द्वारा होम करे। परंतु अभिचार कर्म में
सरसों की खली, सत्तू,
जौ की काँजी, नमक, राई,
मट्ठा, कड़वा तेल, काँटे
तथा टेढ़ी-मेढ़ी समिधाओं द्वारा क्रोधपूर्वक भाष्याणु (भाष्यमन्त्र) - से हवन करे।* कदम्ब की कलिकाओं द्वारा होम करने से निश्चय ही
यक्षिणी सिद्ध हो जाती है। वशीकरण और आकर्षण की सिद्धि के लिये बन्धूक (दुपहरिया)
और पलाश के फूलों का हवन करना चाहिये। राज्यलाभ के लिये बिल्वफल का और लक्ष्मी की
प्राप्ति के लिये पाटल (पाड़र) एवं चम्पा के फूलों का होम करे। चक्रवर्ती सम्राट्
का पद पाने के लिये कमलों का तथा सम्पत्ति के लिये भक्ष्यभोज्य पदार्थों का
होम करे दूर्वा का हवन किया जाय तो उससे व्याधियों का नाश होता है। समस्त जीवों को
वश में करने के लिये विद्वान् पुरुष प्रियङ्गु तथा कदली के पुष्पों का हवन करे। आम
के पत्ते का होम ज्वर का नाशक होता है। ४७- ५१ ॥
* सोमशम्भु के ग्रन्थ में इसके बाद यह एक श्लोक
अधिक है-
विद्याधरत्वलाभाय
चन्द्रागुरुयुतं पुरम् अथवा पद्मकिञ्जल्कैर्जुहुयात् साधकोत्तमः ॥
'साधक-
शिरोमणि को चाहिये कि वह 'विद्याधर पद' की प्राप्ति के लिये कपूर, अगरु और गुग्गुल से अथवा
कमल के केसरों से हवन करे।'
मृत्युञ्जयो
मृत्युजित्स्याद्वृद्धिः स्यात्तिलहोमतः ।
रुद्रशान्तिः
सर्वशान्त्यै अथ प्रस्तुतमुच्यते ॥५२॥
मृत्युञ्जय
देवता या मन्त्र का उपासक मृत्यु विजयी होता है। तिल का होम करने से अभ्युदय की
प्राप्ति होती है। रुद्रशान्ति समस्त दोषों की शान्ति करनेवाली होती है। वे अब
प्रस्तुत प्रसंग को पुनः प्रारम्भ करते हैं *
॥ ५२ ॥
* इस प्रसंग सोमशम्भु ने कुछ अधिक
प्रयोग लिखे हैं। उनका कथन है कि-
विषमज्वरनाशाय
चूतपत्राणि होमयेत् । घृतेन सह सार्द्राणि घृतप्लुतानि ज्वारिणः ॥
ॐ
अमुकस्य व्यरं नाशय जुं सः वौषट् । जले वरुणमभ्यर्च्य दृष्ट्यर्थं ग्रहसंयुतम् ॥
तिलान्
वारुणमन्त्रेण जुहुयाद् गुह्यकेन वा । मेघानाप्लाविताशेषदिगन्त धरणीतलान् ॥
धारयेत्तिलहोमेन
शीघ्र पाशुपताणुना । ॐ श्लीं पशु हूं फट् मेषान् स्फुटीक्रियताम् हूं फट् ॥
सर्वोपद्रवनाशाय
रुद्रशान्त्या तिलादिभिः। विधिना यजनं कुर्यादथ प्रस्तुतमुच्यते ॥
(कर्मकाण्ड-क्रमावली ६७६ - ६८० )
अर्थात्
'विषमज्वर का नाश करने के लिये आमके
पत्तों का हवन करे। उन पत्तों को घी से आर्द्र करके अथवा घी में डुबोकर उनकी आहुति
दे । पत्तों की आहुति घी की आहुति के साथ देनी चाहिये। इससे ज्वरग्रस्त पुरुष को
लाभ होता है। उस पुरुष का नाम लेकर कहे- ॐ अमुकपुरुषस्य ज्वरं नाशय जुं सः वौषट् ।
'वृष्टि
के लिये निम्नाङ्कित प्रयोग करे। जल में ग्रहों सहित वरुणदेव का पूजन करके वारुण
अथवा गुह्यक मन्त्र से तिलों की आहुति दे । तिल के इस होम से मनुष्य आकाश में ऐसे
मेघों को स्थापित कर सकता है, जो सम्पूर्ण दिगन्तों तथा
पृथ्वी को वर्षा के जल से आप्लावित करने में समर्थ हों। फिर शीघ्र ही पाशुपतमन्त्र
से उन मेघों को वर्षा के लिये विदीर्ण करे। मन्त्र इस प्रकार है - ॐ श्लीं पशु हूं
फट् मेघान् स्फुटीक्रियताम् हूं फट् । 'समस्त उपद्रवों के
नाश के लिये रुद्रमन्त्र से शान्ति-अभिषेक करे तथा तिल आदि से विधिपूर्वक होम यज्ञ
करे। अब प्रस्तुत विषय का प्रतिपादन करते हैं।'
आहुत्यष्टशतैर्मूलमङ्गानि
तु दशांशतः ।
सन्तर्पयेत
मूलेन दद्यात्पूर्णां यथा पुरा ॥५३॥
तथा
शिष्यप्रवेशाय प्रतिशिष्यं शतं जपेत् ।
दुर्निमित्तापसाराय
सुनिमित्तकृते तथा ॥५४॥
शतद्वयञ्च
होतव्यं मूलमन्त्रेण पूर्ववत् ।
मूलाद्यष्टास्त्रमन्त्राणां
स्वाहान्तैस्तर्पणं सकृत् ॥५५॥
शिखासम्पुटितैर्वीजैर्ह्रूं
फडन्तैश्च दीपनं ।
ओं हौं शिवाय
स्वाहेत्यादिमन्त्रैश्च तर्पणं ॥५६॥
ओं ह्रूं
ह्रौं ह्रीं शिवाय ह्रूं फडित्यादिदीपनं ।
एक सौ आठ
आहुतियों से मूल का और उसके दशांश आहुतियों से अङ्गों का तर्पण करे। यह हवन अथवा
तर्पण मूलमन्त्र से ही करना चाहिये। फिर पूर्ववत् पूर्णाहुति दे शिष्यों का दीक्षा
में प्रवेश कराने के लिये प्रत्येक शिष्य के निमित्त मूलमन्त्र का सौ बार जप करना
चाहिये। साथ ही दुर्निमित्तों का निवारण तथा शुभ निमित्तों की सिद्धि के लिये
मूलमन्त्र से पूर्ववत् दो सौ आहुतियाँ देनी चाहिये । पहले बताये हुए जो अस्त्र
सम्बन्धी आठ मन्त्र हैं, उनके आदि में मूल और अन्त में 'स्वाहा'
जोड़कर पाठ करते हुए एक-एक बार तर्पण करे। मूल मन्त्र में जो बीज
हों, उन्हें 'शिखा' (वषट्)-से सम्पुटित करके अन्त में 'हूं फट् ' जोड़कर जप करे तो उससे मन्त्र का दीपन
होता है। 'ॐ हूं शिवाय स्वाहा।' इत्यादि मन्त्रों से तर्पण किया जाता है। इसी प्रकार 'ॐ शिवाय हूं फट् ' इत्यादि दीपन-मन्त्र हैं ॥ ५३–५६अ ॥
ततः शिवाम्भसा
स्थालीं क्षालितां वर्मगुण्ठितां ॥५७॥
चन्दनादिसमालब्धां
बध्नीयात्कटकं गले ।
वर्मास्त्रजप्तसद्दर्भपत्राभ्यां
चरुसिद्धये ॥५८॥
वर्माद्यैरासने
दत्ते सार्धेन्दुकृतमण्डले ।
न्यस्तायां
मूर्तिभूतायां भावपुष्पैः शिवं यजेत् ॥५९॥
वस्त्रबद्धमुखायां
वा स्थाल्यां पुष्पैर्वहिर्भवैः ।
चुल्ल्यां
पश्चिमवक्त्रायां न्यस्तायां मानुषात्मना ॥६०॥
न्यस्ताहङ्कारवीजायां
शुद्धायां वीक्षणादिभिः ।
धर्माधर्मशरीरायां
जप्तायां मानुषात्मना ॥६१॥
स्थालीमारोपयेदस्त्रजप्तां
गव्याम्बुमार्जितां ।
तदनन्तर
शिव-मन्त्र से अभिमन्त्रित जल से धोयी हुई बटलोई को कवच – मन्त्र से अवगुण्ठित करके
उसमें रोली चन्दन आदि लगा दे। फिर उसके गले में 'हूं फट् ' मन्त्र से अभिमन्त्रित उत्तम कुश और सूत्र बाँध दे। इससे चरु की
सिद्धि होती है। फिर धर्म आदि चार पायों से युक्त चौकी आदि का आसन देकर उसके ऊपर
बने हुए अर्धचन्द्राकार मण्डल में उस बटलोई को रखे तथा उसे आराध्यदेवता की मूर्ति
मानकर उसके ऊपर भावात्मक पुष्पों से भगवान् शिव का पूजन करे। अथवा उस बटलोई के मुख
को वस्त्र से बाँध दे और उस पर बाह्य पुष्पों से शिव का पूजन करे । इसके बाद
पश्चिमाभिमुख रखे हुए चूल्हे को देख- भालकर शुद्ध करके उसमें अहंकार-बीज का न्यास
करे। तत्पश्चात् उसे कुण्ड के दक्षिण भाग में रखे और यह भावना करे कि इस चूल्हे का
शरीर धर्माधर्ममय है।' फिर उसकी शुद्धि के लिये उसके
स्पर्शपूर्वक अस्त्र-मन्त्र का जप करे। इसके बाद अस्त्र-मन्त्र (फट् ) - के
जप से अभिमन्त्रित गाय के घी से मार्जित हुई उस बटलोई को चूल्हे पर चढ़ावे ॥ ५७- ६१अ
॥
गव्यं
पयोऽस्त्रसंशुद्धं प्रासादशतमन्त्रितं ॥६२॥
तुण्डलान्
श्यामकादीनां निक्षिपेत्तत्र तद्यथा ।
एकशिष्यविधानाय
तेषां प्रसृतिपञ्चकं ॥६३॥
प्रसृतिं
प्रसृतिं पश्चाद्वर्धयेद्द्व्यादिषु क्रमात् ।
कुर्याच्चानलमन्त्रेण
पिधानं कवचाणुना ॥६४॥
शिवाग्नौ
मूलमन्त्रेण पूर्वास्यश्चरुकं पचेत् ।
सुखिन्ने तत्र
तच्चुल्ल्यां श्रुवमापूर्य सर्पिषा ॥६५॥
स्वाहान्तैः
संहितामन्त्रैर्दत्वा तप्ताभिघारणं ।
संस्थाप्य
मण्डले स्थालीं सद्दर्भेऽस्त्राणुना कृते ॥६६॥
प्रणवेन
पिधायास्यां तद्देहलेपनं हृदा ।
सुशीतलो
भवत्येवं प्राप्य शीताभिघारणं ॥६७॥
विदध्यात्संहितामन्त्रैः
शिष्यं प्रति सकृत्सकृत् ।
धर्माद्यासनके
हुत्वा कुण्डमण्डलपश्चिमे ॥६८॥
सम्पातञ्च
स्रुचा हुत्वा शुद्धिं संहितया चरेत् ।
चरुकं
सकृदालभ्य तयैव वषडन्तया ॥६९॥
धेनुमुद्रामृतीभूतं
स्थण्डिलेशान्तिकं नयेत् ।
उसमें
अस्त्र-मन्त्र से शुद्ध किये हुए गोदुग्ध को सौ बार प्रासाद-मन्त्र ( हौं )
से अभिमन्त्रित करके डाले। फिर उस दूध में साँवा आदि के चावल छोड़े। उसकी मात्रा
इस प्रकार है- एक शिष्य की दीक्षा-विधि के लिये पाँच पसर चावल डाले और दो-तीन आदि
जितने शिष्य बढ़ें, उन सबके लिये क्रमशः एक-एक पसर चावल बढ़ाता जाय। फिर अस्त्र-मन्त्र से आग
जलावे एवं कवच - मन्त्र (हुम्) -से बटलोई को ढक दे। साधक पूर्वाभिमुख हो
उक्त शिवाग्नि में मूल- मन्त्र के उच्चारणपूर्वक चरु को पकावे। जब वह अच्छी तरह
सीझ जाय, तब वहाँ स्रुवा को घी से भरकर स्वाहान्त संहिता
मन्त्रों द्वारा उस चूल्हे में ही 'तप्ताभिधार' नामक आहुति दे। तदनन्तर मण्डल में चरु स्थाली को रखकर अस्त्र-मन्त्र से उस
पर कुश रख दे। इसके बाद प्रणव से चूल्हे में उल्लेखन और हृदय- मन्त्र से लेपन करके
पूर्ववत् 'तप्ताभिघार' के स्थान में 'सीताभिघार' नामक आहुति दे। इस तरह चूल्हा शीतल होता
है। सीताभिघार- आहुति की विधि यह है कि संहिता मन्त्रों के अन्त में 'वौषट्' पद जोड़कर उसके द्वारा कुण्ड मण्डप के
पश्चिम भाग में दर्भ आदि के आसन पर प्रत्येक शिष्य के निमित्त से एक-एक आहुति दे ।
फिर स्रुक्द्वारा सम्पात - होम करने के पश्चात् संहिता – मन्त्र से शुद्धि करे।
फिर अन्त में 'वषट्' लगे हुए
उसी संहिता- मन्त्र द्वारा एक बार चरु लेकर धेनुमुद्रा द्वारा उसका अमृतीकरण करे।
इसके बाद वेदी पर उसके द्वारा शान्ति - होम करे ॥ ६२-६९अ ॥
साज्यभागं
स्वशिष्याणां भागो देवाय वह्नये ॥७०॥
कुर्यात्तु
स्तोकपालादेः समध्वाज्यमितिदं त्रयं ।
नमोऽन्तेन
हृदा दद्यात्तेनैवाचमनीयकं ॥७१॥
साज्यं
मन्त्रशतं हुत्वा दद्यात्पूर्णां यथाविधि ।
मण्डलं
कुण्डतः पूर्वे मध्ये वा शम्भुकुम्भयोः ॥७२॥
रुद्रमातृगणादीनां
निर्वर्त्यान्तर्बलिं हृदा ।
शिवमध्येऽप्यलब्धाज्ञो
विधायैकत्वभावनं ॥७३॥
सर्वज्ञतादियुक्तोऽहं
समन्ताच्चोपरि स्थितः ।
ममांशो
योजनास्थानमधिष्ठाहमध्वरे ॥७४॥
शिवोऽहमित्यहङ्कारी
निष्क्रमेद्यागमण्डपात् ।
तत्पश्चात्
गुरु अपने शिष्यों के लिये, अग्निदेवता के लिये तथा लोकपालों के लिये घृतसहित भाग नियत करे। ये तीनों
भाग समान घी से युक्त होते हैं। इन सबके नाम मन्त्रों के अन्त में 'नमः' पद लगाकर उनके द्वारा उनका भाग अर्पित करे
और उसी मन्त्र से उन्हें आचमनीय निवेदित करे। तदनन्तर मूल मन्त्र से एक सौ आठ
आहुति देकर विधिवत् पूर्णाहुति होम करे। इसके बाद मण्डल के भीतर कुण्ड के पूर्वभाग
में अथवा शिव एवं कुण्ड के मध्यभाग में हृदय- मन्त्र से रुद्र मातृकागण आदि के
लिये अन्तर्बलि अर्पित करे। फिर शिव का आश्रय ले, उनकी आज्ञा
पाकर एकत्व की भावना करते हुए इस प्रकार चिन्तन करे- मैं सर्वज्ञता आदि गुणों से
युक्त और समस्त अध्वाओं के ऊपर विराजमान शिव हूँ। यह यज्ञस्थान मेरा अंश है। मैं
यज्ञ का अधिष्ठाता हूँ' यों अहंकार – शिव से अपने ऐकात्म्य-बोधपूर्वक गुरु यज्ञमण्डप से बाहर
निकले । ७०–७४अ ॥
न्यस्तपूर्वाग्रसन्धर्भे
शस्त्राणुकृतमण्डले ॥७५॥
प्रणवासनके
शिष्यं शुक्लवस्त्रोत्तरीयकं ।
स्नातञ्चोदङ्मुखं
मुक्त्यै पूर्ववक्त्रन्तु भुक्तये ॥७६॥
ऊर्ध्वं कायं
समारोप्य पूर्वास्यं प्रविलोकयेत् ।
चरणादिशिखां
यावन्मुक्तौ भुक्तौ विलोमतः ॥७७॥
चक्षुषा
सप्रसादेन शैवं धाम विवृण्वता ।
अस्त्रोदकेन
सम्मोक्ष्य मन्त्राम्बुस्नानसिद्दये ॥७८॥
भस्मस्नानाय
विघ्नानां शान्तये पापभित्तये ।
सृष्टिसंहारयोगेन
ताडयेदस्त्रभस्मना ॥७९॥
फिर
अस्त्र-मन्त्र (फट् ) - द्वारा निर्मित मण्डल में पूर्वाग्र उत्तम कुश
बिछाकर, उसमें प्रणवमय आसन की भावना करके, उसके ऊपर स्नान किये हुए शिष्य को बिठावे। उस समय शिष्य को श्वेत वस्त्र
और श्वेत उत्तरीय धारण किये रहना चाहिये। यदि वह मुक्ति का इच्छुक हो तो उसका मुख
उत्तर दिशा की ओर होना चाहिये और यदि
वह भोग का
अभिलाषी हो तो उसे पूर्वाभिमुख बिठाना चाहिये। शिष्य के शरीर का घुटनों से ऊपर का
ही भाग उस प्रणवासन पर स्थित रहना चाहिये, नीचे का भाग नहीं। इस प्रकार बैठे हुए शिष्य की ओर गुरु
पूर्वाभिमुख होकर बैठे। मोक्षरूपी प्रयोजन की सिद्धि के लिये शिष्य के पैरों से
लेकर शिखातक के अङ्गों का क्रमशः निरीक्षण करना चाहिये और यदि भोगरूपी प्रयोजन की
सिद्धि अभीष्ट हो तो इसके विपरीत क्रम से शिष्य के अङ्गों पर दृष्टिपात करना उचित
है, अर्थात् उस दशा में शिखा से लेकर पैरोंतक के अङ्गों का
क्रमशः निरीक्षण करना चाहिये।* उस समय गुरु
की दृष्टि में शिष्य के प्रति कृपाप्रसाद भरा हो और वह दृष्टि शिष्य के समक्ष शिव के
ज्योतिर्मय स्वरूप को अनावृतरूप से अभिव्यक्त कर रही हो। इसके बाद अस्त्र-मन्त्र
से अभिमन्त्रित जल से शिष्य का प्रोक्षण करके मन्त्राम्बु- स्नान का कार्य सम्पन्न
करे (प्रोक्षण-मन्त्र से ही यह स्नान सम्पन्न हो जाता है) । तदनन्तर विघ्नों की
शान्ति और पापों के नाश के लिये भस्म स्नान करावे। इसकी विधि यों है-
अस्त्र-मन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित भस्म लेकर उसके द्वारा शिष्य को सृष्टि संहार
योग से ताडित करे ( अर्थात् ऊपर से नीचे तथा नीचे से ऊपर तक अनुलोम-विलोम क्रम से
उसके ऊपर भस्म छिड़के) ॥ ७५ - ७९ ॥
*सोमशम्भु की 'कर्मकाण्ड-क्रमावली' श्लोक
७०४ में दृष्टिपात का क्रम इसके विपरीत है। वहाँ 'मुक्तौ भुत
विलोमतः ' के स्थान में 'भुक्त्यै
मुक्त्यै विलोमतः पाठ है।
पुनरस्त्राम्बुना
प्रोक्ष्य सकलीकरणाय तं ।
नाभेरूर्ध्वं
कुशाग्रेण मार्जनीयास्त्रमुच्चरन् ॥८०॥
त्रिधा.अलभेत
तन्मूलैरघमर्षाय नाभ्यधः ।
द्वैविध्याय च
पाशानां आलभेत शराणुना ॥८१॥
तच्छरीरे शिवं
साङ्गं सासनं विन्यसेत्ततः ।
पुष्पादिपूजितस्यास्य
नेत्रे नेत्रेण वा हृदा ॥८२॥
बध्वामन्त्रितवस्त्रेण
सितेन सदशेन च ।
प्रदक्षिणक्रमादेनं
प्रवेश्य शिवदक्षिणं ॥८३॥
सवस्त्रमासनं
दद्यात्यथावर्णं निवेदयेत् ।
फिर सकलीकरण के
लिये पूर्ववत् अस्त्र- जल से शिष्य का प्रोक्षण करके उसकी नाभि से ऊपर के भाग में
अस्त्र-मन्त्र का उच्चारण करते हुए कुशाग्र से मार्जन करे और हृदय मन्त्र का
उच्चारण करके पापों के नाश के लिये पूर्वोक्त कुशों के मूलभाग से नाभि के नीचे के
अङ्गों का स्पर्श करे । साथ ही समस्त पाशों को दो टूक करने के लिये पुनः
अस्त्र-मन्त्र से उन्हीं कुशों द्वारा यथोक्तरूप से मार्जन एवं स्पर्श करे।
तत्पश्चात् शिष्य के शरीर में आसनसहित साङ्ग – शिव का न्यास करे। न्यास के पश्चात्
शिव की भावना से ही पुष्प आदि द्वारा उसका पूजन करे। इसके बाद नेत्र-मन्त्र ( वौषट्
) अथवा हृदय-मन्त्र (नमः) से शिष्य के दोनों नेत्रों में श्वेत, कोरदार एवं अभिमन्त्रित वस्त्र से पट्टी
बाँध दे और प्रदक्षिणक्रम से उसको शिव के दक्षिण पार्श्व में ले जाय वहाँ षडुत्थ (छहों
अध्वाओं से ऊपर उठा हुआ अथवा उन छहों से उत्पन्न) आसन देकर यथोचित रीति से शिष्य को
उस पर बिठावे ॥ ८०-८३ अ ॥
संहारमुद्रयात्मानं
मूर्त्या तस्य हृदम्बुजे ॥८४॥
निरुध्य
शोधिते काये न्यासं कृत्वा तमर्चयेत् ।
पूर्वाननस्य
शिष्यस्य मूलमन्त्रेण मस्तके ॥८५॥
शिवहस्तं
प्रदातव्यं रुद्रेशपददायकं ।
शिवसेवाग्रहोपायं
दत्तहस्तं शिवाणुना ॥८६॥
शिवे
प्रक्षेपयेत्पुष्पमपनीयार्चकन्तारं ।
तत्पात्रस्थानमन्त्राढ्यं
शिवदेवगणानुगं ॥८७॥
विप्रादीनां
क्रमान्नाम कुर्याद्वा स्वेच्छया गुरुः ।
संहारमुद्रा द्वारा
शिवमूर्ति से एकीभूत अपने आपको उसके हृदय कमल में अवरुद्ध करके उसका काय-शोधन करे।
तत्पश्चात् न्यास करके उसकी पूजा करे। पूर्वाभिमुख शिष्य के मस्तक पर मूल मन्त्र
से शिवहस्त रखना चाहिये, जो रुद्र एवं ईश का पद प्रदान करनेवाला है। इसके बाद शिव-मन्त्र से शिष्य के
हाथ में शिव की सेवा की प्राप्ति के उपायस्वरूप पुष्प दे और उसे शिव पर ही चढ़वावे
। तदनन्तर गुरु उसके नेत्रों में बँधे हुए वस्त्र को हटाकर उसके लिये
शिवदेवगणाङ्कित स्थान, मन्त्र, नाम आदि
की उद्भावना करे, अथवा अपनी इच्छा से ही ब्राह्मण आदि वर्णों
के क्रमशः नामकरण करे ।। ८४-८७अ ॥
प्रणतिं
कुम्भवर्धन्योः कारयित्वानलान्तिकं ॥८८॥
सदक्षिणासने
तद्वत् सौम्यास्यमुपवेशयेत् ।
शिष्यदेहविनिष्क्रान्तां
सुषुम्णामिव चिन्तयेत् ॥८९॥
निजग्रहलीनाञ्च
दर्भमूलेन मन्त्रितं ।
दर्भाग्रं
दक्षिणे तस्य विधाय करपल्लवे ॥९०॥
तम्मूलमात्मजङ्घायामग्रञ्चेति
शिखिध्वजे ।
शिव-कलश तथा
वार्धानी को प्रणाम करवाकर अग्नि के समीप अपने दाहिने आसन पर पूर्ववत् उत्तराभिमुख
शिष्य को बिठावे और यह भावना करे कि 'शिष्य के शरीर से सुषुम्णा निकलकर मेरे शरीर में विलीन हो गयी
है।' स्कन्द। इसके बाद मूलमन्त्र से अभिमन्त्रित दर्भ लेकर
उसके अग्रभाग को तो शिष्य के दाहिने हाथ में रखे और मूलभाग को अपनी जंघा पर। अथवा
अग्रभाग को ही अपनी जंघा पर रखे और मूलभाग को शिष्य के दाहिने हाथ में ॥। ८८-९०अ ॥
शिष्यस्य हृदयं
गत्वा रेचकेन शिवाणुना ॥९१॥
पुरकेण
समागत्य स्वकीयं हृद्यान्तरं ।
शिवाग्निना
पुनः कृत्वा नाडीसन्धानमीदृशं ॥९२॥
हृदा
तत्सन्निधानार्थञ्जुहुयादाहुतित्रयं ।
शिवहस्तस्थिरत्वार्थं
शतं मूलेन होमयेत् ।
इत्थं
समयदीक्षायां भवेद्योग्यो भवार्चने ॥९३॥
शिव मन्त्र द्वारा
रेचक प्राणायाम की क्रिया करते हुए शिष्य के हृदय में प्रवेश की भावना करके पुनः
उसी मन्त्र से पूरक प्राणायाम द्वारा अपने हृदयाकाश में लौट आने की भावना करे। फिर
शिवाग्नि से इसी तरह नाडी-संधान करके उसके संविधान के लिये हृदय-मन्त्र से तीन
आहुतियाँ दे । शिवहस्त की स्थिरता के लिये मूल मन्त्र से एक सौ आहुतियों का हवन
करे। इस प्रकार करने से शिष्य समय दीक्षा में संस्कार के योग्य हो जाता है ॥९१- ९३॥
इत्यादिमहापुराणे
आग्नेये समयदीक्षाकथनं नाम एकाशीतितमोऽध्यायः ॥८१ ॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'समय-दीक्षा की योग्यता के आपादक-विधान का वर्णन' नामक
इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८१ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 82
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