अद्भुत रामायण सर्ग ५

अद्भुत रामायण सर्ग ५

अद्भुत रामायण सर्ग ५ में जानकी के जन्म लेने का कारण कथन अंतर्गत कौशिक आदि ब्राह्मण की कथा का वर्णन किया गया है।

अद्भुत रामायण सर्ग ५

अद्भुत रामायणम् पञ्चम: सर्गः

Adbhut Ramayan sarga 5

अद्भुत रामायण पाँचवाँ सर्ग

अद्भुतरामायण पंचम सर्ग

अद्भुत रामायण सर्ग ५

अथ अद्भुत रामायण सर्ग ५

भरद्वाज शृणुष्वाथ सीताजन्मनि कारणम् ।

पुरा त्रेतायुगे कश्चित्कौशिको नाम वै द्विजः ॥ १ ॥

हे भरद्वाज ! अब सीता के जन्म का कारण सुनो । प्राचीन समय में त्रेतायुग में 'कौशिक' नाम का कोई एक ब्राह्मण ( था ) ॥१ ॥

वासुदेवपरो नित्यं नामगानरतः सदा ।

भोजनाशनशय्यासु सदा तद्गतमानसः ।

उदारचरितं विष्णोर्गायमानः पुनः पुनः ॥ २ ॥

(वह) वासुदेवपरायण और सदा उनके नाम संकीर्तन में रत रहता था। वह नित्य निरंतर भोजन और शयन के समय भी प्रभु में मन लगाये रहता था तथा विष्णु के उदार चरित्र का बार-बार गायन करता रहता था ।। २ ।।

विष्णुस्थलं समासाद्य हरेः क्षेत्रमनुत्तमम् ।

अगायत हरि तत्र तालवल्गुलयान्वितम् ॥ ३ ॥

विष्णु के स्थानक नारायण के श्रेष्ठ क्षेत्र को प्राप्त कर वह वहाँ सुन्दर ताल एवं लय से युक्त प्रभु का गान करता था ॥ ३ ॥

मूर्च्छनामूर्च्छायोगेन श्रुतिमंडलवेदितम् ।

भक्तियोगसमापन्नो भिक्षामश्नाति तत्र वै ॥ ४ ॥

मूर्च्छना मूर्च्छा के योग से श्रुतिमंडल से वेदित भक्तियोग को प्राप्त होकर भिक्षा का भोजन करता था ॥ ४ ॥

तत्रैनं गायमानं च दृष्ट्वा कश्चिद्द्द्विजस्तदा ।

पद्माक्ष इत विख्यातस्तनं चान्नं ददौ सदा ॥ ५ ॥

पद्माक्ष नाम से सुविख्यात कोई एक ब्राह्मण इसे गाता हुआ देखकर हमेशा उसे अन्न देता था ॥ ५ ॥

सकुटुंबो महातेज अश्नन्नन्नं च तस्य थे ।

कौशिको तदा हृष्टो गायन्नास्ते हरि प्रभुम् ॥ ६ ॥

वह महातेजस्वी कौशिक कुटुम्ब सहित उसका दिया भोजन करता था, और (कौशिक) हमेशा प्रसन्न होकर हरि का गान करता था ।। ६ ॥

शृण्वन्नास्ते स पद्माक्षः काले काले च भक्तितः ।

कालयोगेन संप्राप्ताः शिष्या वै कौशिकस्य च ॥७ ॥

वह पद्माक्ष समय-समय पर भक्तिपूर्वक उसका श्रवण करता था । कौशिक को समय बीतने पर शिष्य प्राप्त हुए ॥ ७ ॥

सप्तराजन्यवैश्यानां विप्राणां कुलसंभवाः ।

ज्ञानविद्याधिका शुद्धा वासुदेवपरायणाः ॥ ८ ॥

क्षत्रिय, वैश्य और ब्राह्मण कुल में उत्पन्न (हुए), शुद्धहृदय के, ज्ञान- विद्या में अधिक वासुदेवपरायण ऐसे सात शिष्य थे ॥ ८ ॥

तेषामपि तथान्नाद्यं पद्माक्षः प्रददौ स्वयम् ।

शिष्यैश्च सहितो नित्यं कौशिको हृष्टमानसः ॥ ९ ॥

पद्माक्ष उनको भी अन्न प्रदान करता था। शिष्यों के साथ कौशिक सदा प्रसन्न रहता था ॥ ९ ॥

विष्णुस्थले हरि तत्र आस्ते गायन्यथाविधि ।

तत्रैव मालवो नाम वैद्यो विष्णुपरायणः ॥ १० ॥

वहाँ विष्णु के स्थान में विधिपूर्वक नारायण का गान करता (हुआ) मालव नाम का विष्णुपरायण एक वैद्य (भी) निवास करता था ॥ १० ॥

दीपमालां हनित्यं करोति प्रीतमानसः ।

मालतीनाम भार्यासीत्तस्य नित्यं प्रतिव्रता ।। ११ ।।

(वह) प्रसन्न चित्त होकर सदा विष्णु के लिए दीपमाला करता था । सदा पतिव्रता मालती नाम की उसकी पत्नी थी ।। ११ ।।

गोमयेन समालिप्य हरेः क्षेत्रं समंततः ।

भर्त्रा सहास्ते संप्रीता शृण्वती गानमुत्तमम् ॥ १२ ॥

वह विष्णु के क्षेत्र को चारों ओर से गोबर से पोतकर प्रसन्न मन होकर पति के साथ उत्तम गान का श्रवण करती थी १२

कुशस्थलीसमुत्पन्ना ब्राह्मणाः शंसितव्रताः ।

पंचाशद्वै समापन्ना हरेर्गानार्थमुत्तमाः ॥ १३ ॥

कुशस्थली में जन्म लेनेवाले सुन्दर व्रतवाले पचास उत्तम ब्राह्मण गान के लिए (वहाँ) आ पहुँचे ।। १३ ।।

साधयंतो हि कार्याणि कौशिकस्य महात्मनः ।

गानविद्यार्थतत्त्वज्ञाः शृण्वंतो ह्यवसंस्तु ते ॥ १४ ॥

महात्मा कौशिक के कार्य को साधित करते हुए गानविद्या के तत्त्व को जाननेवाले वे (हरिगान) सुनते हुए वहाँ रहने लगे ॥ १४ ॥

ख्यातमासीत्तदा तस्य गानं वै कौशिकस्य च ।

श्रुत्वा राजा समभ्येत्य कालिंगो वाक्यमब्रवीत् ॥ १५ ॥

उन दिनों कौशिक का गान सर्वत्र प्रसिद्ध हो गया था । कलिंगराज यह सुनकर स्वयं वहाँ आकर बोले- ॥ १५ ॥

कौशिकाद्यगणैः साधं गायस्वेह च मां पुनः ।

शृणुध्वं च तथा यूयं कुशस्थलजना अपि ॥ १६ ॥

"हे कौशिक ! अपने गणों के साथ तुम हमारा गान करो, तथा हे कुशस्थलवासी लोग ! तुम उसका श्रवण करो॥ १६ ॥

तच्छ्रुत्वा कौशिकः प्राह राजानं सां त्वयन्गिरा ।

न जिह्वाग्रे महा- राज वाणी च मम सर्वदा ।। १७ ।।

यह सुनकर वाणी से राजा को (आश्वस्त) करते हुए कौशिक बोला- "हे महाराज ! जिह्वा के अग्र भाग पर मेरी वाणी हमेशा ॥ १७ ॥

हरेरन्यमपींद्र वा स्तौति नापि न बक्ति च ।

एवमुक्ते च तच्छिष्या वसिष्ठो गौतमोऽरुणिः ।। १८ ।।

विष्णु को छोड़कर इन्द्र की भी स्तुति नहीं करती या (उसके बारे में) बोलती भी नहीं ।" इस प्रकार कहने पर उसके शिष्य वसिष्ठ, गौतम, आरुणि ॥ १८ ॥

सारस्वतस्तथा वैश्यश्चित्रमालस्तथा शिशुः ।

ऊचुस्तं पार्थिवं तत्त्वं यथा प्राह स कौशिकः ॥ १९ ॥

सारस्वत, वैश्य, चित्रमाल और शिशु जिस प्रकार कौशिक ने कही थी, उस प्रकार यथार्थं बात राजा को कहने लगे९।।

श्रीकराश्च तथा प्रोत्रुः प्रार्थिवं विष्णुतत्पराः ।

श्रोत्राणीमानि शृण्वंतिहरेरन्यं न पार्थिवम् ॥२०॥

विष्णुपरायण श्रीकर राजा से कहने लगे- हमारे कान हरि के सिवा किसी भी दूसरे राजा के (गुणानुवाद) नहीं सुनते ॥ २० ॥

मा ते कीर्ति वयं तस्माच्छृणुमो नैव वा स्तुतिम् ।

तच्छ्रुत्वा पार्थिवो रुष्टो गोयतामिति चाब्रवीत् ॥ २१ ॥

अतः हम आपकी कीर्ति या स्तुति नहीं सुनेंगे ।" यह सुनते ही क्रोधित होकर राजा ने कहा, 'गाओ' ॥ २१ ॥

स्वभृत्यान्ब्राह्मणा होते कीर्ति शृण्वंति वै यथा ।

न शृण्वंति कथं तस्माद्गीयमानां समंततः ॥२२॥

(ऐसा) अपने सेवकों से कहा (कि), जिस प्रकार ये ब्राह्मण हमारी कीर्ति सुनें (उस प्रकार गाओ) । चारों ओर गायी जानेवाली (हमारी कीर्ति) को ये क्यों नहीं सुनते? ।। २२ ।।

एवमुक्तास्ततो भृत्या जगुः पार्थिवसत्तमम् ।

निरुद्धकर्णा विप्रास्ते गाने वृत्ते सुदुःखिताः ॥ २३ ॥

इस प्रकार के वचन कहे जाने पर सेवक लोग द्वारा (उस) पार्थिवश्रेष्ठ (की कीर्ति) का गान होने पर उन अत्यन्त दुःखी ब्राह्मणों ने अपने कान बन्द कर लिये ॥ २३ ॥

काष्ठशंकुभिरन्योन्यं श्रोत्राणि बिभिदुः किल ।

कौशिकाद्यास्तु तां ज्ञात्वा मनोवृत्ति नृपस्य वै ॥ २४ ॥

(राजा ने मन में सोचा कि) इनके कान का लकड़ी की कीलों से भेदन किया जाय । राजा की इस मनोवृत्ति को जानकर कौशिक वगैरह (को दुःख हुआ कि) ॥ २४ ॥

निर्बन्धं कुरुते कस्मात्स्वगानेऽसौ नृपः स्थिरम् ।

इत्युक्त्वा सुनियता जिह्वाग्रं चिच्छिदुः स्वकम् ॥ २५ ॥

"यह राजा अपने गान के लिए दुराग्रह क्यों करता है ?" ऐसा कह कर अच्छी तरह से नियंत्रित उन लोगों ने (अपने-आप) अपनी जिह्वा के अग्र भाग का छेदन कर दिया ।। २५ ।।

ततो राजा सुसंक्रुद्धः स्वदेशात्तान्व्यवासयत् ।

आदाय वित्तं सर्वेषां ततस्ते जग्मुरुत्तराम् ॥२६॥

तब राजा ने अतिशय क्रोधित होकर अपने देश से उनको निर्वासित कर दिया । उन सबका (सारा) द्रव्य छीन लिया गया। तब वे (ब्राह्मण) उत्तर दिशा की ओर चल पड़े ॥ २६ ॥

दिशामासाद्य कालेन कालधर्मेण योजिताः ।

तानागतान्यमो दृष्ट्वा किंकर्तव्यमिति स्म ह ॥ २७ ॥

समय बीतने पर (दक्षिण) दिशा को प्राप्त करके यम से योजित हुए। उनको आते हुए देख 'मुझे क्या करना चाहिए' (ऐसा सोचकर) यम- ॥। २७ ॥

विस्मितस्तत्क्षणे विप्र ब्रह्मा प्राह सुराधिपान् ।

कौशिकादीन्द्विजानद्य वासुदेवपरायणान् ।। २८ ।।

गानयोगेन ये नित्यं पूजयंति जनार्दनम् ।

तानादाय भद्रं वो यदि देवत्वमिच्छथ ।। २९ ।।

विस्मित हुए, उस समय (हे विप्र!) ब्रह्मा ने देवाधिपतियों से कहा - "वासुदेवपरायण कौशिक ब्राह्मण (जो कि) गानयोग से हमेशा जनार्दन की पूजा करते हैं, यदि आपको देवत्व की इच्छा हो तो उन्हें ले आइए । आपका कल्याण हो" ।। २८-२९ ।।

इत्युक्ता लोकपालास्ते कौशिकेति पुनः पुनः ।

मालतीति तथा केचित्पद्माक्षीति तथापरे ॥ ३० ॥

इस प्रकार (संबोधनपूर्वक) प्रेरित किये गये वे लोकपाल बार-बार 'हे कौशिक', तो कोई 'हे मालति', तथा अन्य 'हे पद्माक्ष', ॥ ३० ॥

क्रोशमानाः समभ्येत्य तानादाय विहायसा ।

ब्रह्मलोकं गताः शीघ्रं मुहूर्तार्द्धन वै सुराः ॥ ३१ ॥

इसी प्रकार पुकारते हुए उनके पास जाकर आकाश मार्ग से उन्हें ले जाकर वे देवता लोग आधे मुहूर्त में ही शीघ्र ब्रह्मलोक (में) पहुँच गये ॥३१॥

कौशिकादींस्तथा दृष्ट्वा ब्रह्मा लोकपितामहः ।

प्रत्यागम्य यथान्यायं स्वागतेनाभ्यपूजयत् ॥ ३२ ॥

उस प्रकार कौशिकादि को देखकर लोकपितामह ब्रह्माजी ने अभिवादनपूर्वक उनका यथायोग्य स्वागत किया ।। ३२ ।।

ततः कोलाहलश्चाभूदतिगौरवमुल्बणम् ।

ब्रह्मणा च कृतं दृष्ट्वा देवानां द्विजसत्तम ॥ ३३ ॥

तब हे द्विजश्रेष्ठ ! ब्रह्माजी द्वारा संपन्न किये गये इस स्वागत को देखकर देवताओं में बड़ा भारी कोलाहल मच गया ।। ३३ ।।

हिरण्यगर्भो भगवांस्तान्निवार्य सुरोत्तमान् ।

कौशिकादींस्तदादाय मुनिर्देवैः समावृत्तः ॥ ३४ ॥

भगवान् हिरण्यगर्भ (ब्रह्माजी) ने सारे देवताओं का निवारण किया। देवताओं के साथ कौशिकादि को लेकर वह मुनि ॥ ३४ ॥

विष्णुलोकं ययौ शीघ्रं वासुदेव परायणः ।

तत्र नारायणो देवः श्वेतद्वीपनिवासिभिः ।। ३५ ।।

वासुदेवपरायण शीघ्र ही विष्णुलोक को गये । वहाँ भगवान् नारायण श्वेतद्वीप में निवास करनेवाले ॥ ३५ ॥

ज्ञानयोगेश्वरैः सिद्धैविष्णुभक्तिपरायणैः ।

नारायणसमदिव्यं रचतुर्बाहुधरैः शुभैः ॥ ३६ ॥

विष्णुचिह्नसमापन्नैर्दीप्यमानैरकल्मषैः ।

अष्टाशीतिसहस्रैस्तु सेव्यमानो मनोजवेः ॥ ३७ ॥

ज्ञानयोगेश्वर, सिद्ध, विष्णुभक्तिपरायण, नारायण के समान दिव्य, चार भुजाओं को धारण करनेवाले, विष्णु के शुभ चिह्नों (शंख-चक्रादि) से युक्त, देदीप्यमान, पापरहित, अट्ठासी हज़ार मनोवेगी उन (महात्माओं) से सेवित ।। ३६-३७ ॥

अस्माभिर्नारदाद्यैश्च सनकाद्यैरकल्मषैः ।

भूतैर्नानाविधैश्चैव दिव्यस्त्रीभिः समंततः ॥ ३८ ॥

तथा हम, नारद (वग़ैरह), निष्पाप सनकादि, अनेक प्रकार के प्राणियों तथा दिव्य स्त्रियों से चारों ओर से ॥३८॥

सेव्यमानोऽथ मध्ये सहलद्वारसंवृत्ते ॥

सहस्रयोजनायामे दिव्ये मणिमये शुभे ॥ ३९ ॥

सेव्यमान (थे) तथा सहस्रद्वार से युक्त सहस्र योजन लम्बे, दिव्य, मणिमय, शुभ ॥ ३९ ॥

विमाने विमले चित्रे भद्रपीठासने हरिः ।

लोककार्यप्रसक्तानां वत्वा दृष्टि समास्थितः ॥ ४० ॥

(पवित्र) निर्मल चित्र विचित्र विमान में भद्रपीठ आसन पर हरि लोककार्य में संलग्न पुरुषों की ओर देखते हुए स्थित थे ॥ ४० ॥

तस्मिन्कालेऽथ भगवान्कौशिकाद्यैश्च संवृतः ॥

आगम्य प्रणि- पत्याने तुष्टाव गरुडध्वजम् ॥४१॥

उस समय कौशिकादि से संवृत भगवान (ब्रह्मा) ने आकर प्रणाम करके गरुड़ध्वज (विष्णु) की स्तुति की ॥ ४१ ॥

ततोऽवलोक्य भगवान्हरिर्नारा- यणः प्रभुः ॥

कौशिकेत्याह संप्रीत्या तान्सर्वांश्च कथाक्रमम् ॥ ४२ ॥

तब भगवान् नारायण प्रभु (उन्हें) देखकर प्रसन्नतापूर्वक बोले- "कौशिक !" और बाद में यथाक्रम उन सबसे बोले ॥ ४२ ॥

जयघोषो महानासीन्महाश्चर्ये समागते ।

ब्रह्माणमाह विश्वात्मा शृणु ब्रह्मन्यथोदितम् ॥ ४३ ॥

(यह ) महान आश्चर्य (घटित) होने पर बड़ा जयघोष होने लगा । विश्वात्मा (नारायण) ब्रह्माजी से कहने लगे- "हे ब्रह्मन् ! मेरा कहना सुनिए ॥ ४३ ॥

कौशिकस्य च ये विप्राः साध्यसाधन- तत्पराः ॥

हिताय संप्रवृत्ता वै कुशस्थलनिवासिनः ॥ ४४ ॥

कुशस्थल के निवासी जो ब्राह्मण कौशिक के साध्य को सिद्ध करने में तत्पर हैं (उन कौशिक के) हित के लिए प्रवृत्त हैं ॥ ४४ ॥

कीर्तिश्रवणे युक्ता गानतस्वार्थकोविदाः ॥

अनन्यदेवताभक्ताःसाध्या देवा भवत्विमे ।। ४५ ।।

मेरी कीर्ति का श्रवण करने में युक्त हैं, गान के तत्त्वार्थ को अच्छी तरह से जानते हैं, (तथा) देवता के अनन्य भक्त हैं वे साध्य देव हो जायँ ।। ४५।।

मत्समीपे तथा ह्यस्य प्रवेशं देहि सर्वदा ॥

एवमुक्त्वा पुनर्देवः कौशिकं प्राह माधवः ॥ ४६ ॥

तथा उन्हें सर्वदा हमारे समीप प्रवेश दिया जाय ।" ऐसा कहकर भगवान माधव पुनः कौशिक से कहने लगे - ॥ ४६ ॥

स्वशिष्यंस्त्वं महाप्राज्ञ दिग्बलो नाम वै सदा ॥

गणाधिपत्यमापन्नो यत्राह तत्समास्व वै ॥४७॥

"महाप्राज्ञ ! तुम अपने शिष्यों के साथ 'दिग्बल' नामक गणाधिपत्य को प्राप्त करके जहाँ मैं स्थित हूँ वहाँ निवास करो" ।। ४७ ।।

मालतीमालवं चेति प्राह दामोदरो वचः ॥

मम लोके यथाकामं भार्यया सह मालव ॥ ४८ ॥

और मालती सहित मालव से दामोदर ये वचन कहने लगे-" हे मालव ! तुम पत्नी के साथ मेरे लोक में अपनी इच्छा के अनुसार ॥ ४८ ॥

दिव्यरूपधरः श्रीमाञ्छृण्वन्गानमिहानुगैः ।

आस्व नित्यं यथाकामं यावल्लोका भवंति वै ॥ ४९ ॥

दिव्य रूप धारण किये, श्रीयुक्त होकर अनुचरों के सहित गान-श्रवण करते हुए तब तक निवास करो, जब तक ये लोक हैं" ॥ ४९ ॥

पद्माक्षमाह भगवान् धनदो भव मानद ॥

धनानामीश्वरो भूत्वा विहरस्व यथासुखम् ॥ ५० ॥

फिर भगवान ने पद्माक्ष से कहा- "हे माननीय ! तुम धनपति बनो । धन के स्वामी बनकर तुम यथासुख विहार करो" ।। ५० ।।

ब्रह्माणं च ततः प्राह कौशिकोऽभूद्गणाधिपः ।

गणाः स्तोष्यंति तं चाशु प्राप्तो मेऽस्ति सलोकताम् ॥ ५१ ॥

और बाद में भगवान ने ब्रह्माजी से कहा- "कौशिक गणाधिपति बने । गण उसकी स्तुति करेंगे और वह शीघ्र ही मेरी सलोकता को प्राप्त करेगा ।। ५१ ।।

एते च विप्रा नियतं मम भक्ता यशस्विनः ।

श्रोत्रच्छिदं यथाहत्य शंकुभिर्वै परस्परम् ।। ५२ ।।

और ये मेरे भक्त, यशस्वी, ब्राह्मण एक-दूसरे के कानों के छिद्रों को कीलों से आहत करके - ।। ५२ ।।

श्रोष्यामो नैव चान्यद्वै हरेः कीर्ति विनेति ये ।

महाव्रतधरा विप्र मम भक्तिपरायणाः ।। ५३ ।।

हरि की कीर्ति के सिवा दूसरा कुछ नहीं सुनेंगे- इस प्रकार के महान व्रत को धारण करनेवाले, मेरी भक्ति में परायण विप्र ।। ५३ ।

एते प्राप्ताश्च देवत्वं मम सान्निध्यमेव च ।

मालवो भार्यया सार्धं मत्क्षेत्रं परिगृह्य वै ॥ ५४ ॥

मानमानादिभिनित्यमभ्यर्च्य सतततं हि माम् ।

गानं शृणोति नियतो मत्कीर्तिचरितान्वितम् ॥ ५५ ॥

देवत्व को तथा मेरे सान्निध्य को प्राप्त हो । पत्नी के साथ मालव मेरे क्षेत्र को घेरकर हमेशा गान - मानादि से मेरी पूजा करके मेरी कीर्ति तथा चरित्रयुक्त गान श्रवण करता रहे ।। ५४-५५ ।।

तेनासौ प्राप्तवाँल्लोकं मम ब्रह्मन् सनातनम् ।

पद्माक्षोऽसौ महाभागः कौशिकस्य महात्मनः ।। ५६ ।।

इससे (उसे) हे ब्रह्मन् ! मेरा सनातन लोक प्राप्त हुआ है । महात्मा कौशिक का यह महाभाग (शिष्य) पद्माक्ष ।। ५६ ।।

धनेशत्वमवाप्तोऽसौ मम सान्निध्यमेवच ।

एवमुक्त्वा हरिस्तन्न समास्ते लोकपूजितः ॥५७॥

धनेशत्व को तथा मेरे सान्निध्य को प्राप्त हो ।" इस प्रकार कहकर समस्त लोकों से पूजित हरि स्थित हुए ।। ५७ ॥

ततो हरिभक्तजनैः समावृतः सुखेन तस्थौ कनकासने शुभे ।

भक्तैकगम्यो निजभक्तलोकान्स लाल यन्पाणिसरोहेण ॥ ५८ ॥

तब भक्तजनों से घिरे हुए केवल भक्तों के लिए ही गम्य, अपने हस्त-कमलों से भक्तों का लालन करते हुए हरि सुवर्ण के सुन्दर आसन पर विराजमान हुए ॥ ५८ ॥

इत्यायें श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये अद्भुतोत्तरकाण्डे कौशिकादि- वैकुंठगमनं नाम पंचमः सर्गः ॥५॥

॥ इस प्रकार श्रीवाल्मीकि -विरचित आदिकाव्य रामायण के अद्भुतोत्तर काण्ड में 'जानकी जन्म का कारण' नाम पाँचवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥ ५ ॥

आगे जारी...........अद्भुत रामायण सर्ग 6

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