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कर्मकाण्ड

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अग्निपुराण अध्याय ८३

अग्निपुराण अध्याय ८३

अग्निपुराण अध्याय ८३ में निर्वाण दीक्षा के अन्तर्गत अधिवासन की विधि का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय ८३

अग्निपुराणम् त्र्यशीतितमोऽध्यायः

Agni puran chapter 83

अग्निपुराण तिरासीवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय ८३   

अग्निपुराणम् अध्यायः ८३ निर्वाणदीक्षाकथनम्

अथ त्र्यशीतितमोऽध्यायः      

ईश्वर उवाच

अथ निर्वाणदीक्षायां कुर्यान्मूलादिदीपनं ।

पाशबन्धनशक्त्यर्थं ताडनादिकृतेन वा ॥१॥

एकैकया तदाहुत्या प्रत्येकं तत्त्रयेण वा ।

वीजगर्भशिखार्धन्तु हूं फडन्तध्रुवादिना ॥२॥

ओं ह्रूं ह्रौं हौं ह्रूं फडिति मूलमन्त्रस्य दीपनं ।

ओं ह्रूं हौं हौं ह्रूं फडिति हृदय एवं शिरोमुखे ॥३॥

प्रत्येकं दीपनं कुर्यात्सर्वस्मिन् क्रूरकर्मणि ।

शान्तिके पौष्टिके चास्य वषडन्तादिनाणुना ॥४॥

वषड्वौषट्समोपेतैः सर्वकाम्योपरि स्थितैः ।

हवनं संवरैः कुर्यात्सर्वत्राप्यायनादिषु ॥५॥

भगवान् शंकर कहते हैं- षडानन स्कन्द ! तदनन्तर निर्वाण- दीक्षा में पाशबन्धन-शक्ति के लिये और ताड़न आदि के लिये मूल मन्त्र आदि का दीपन करे। उस समय प्रत्येक के लिये एक-एक या तीन-तीन आहुति देकर मन्त्रों का दीपन- कर्म सम्पन्न करे। आदि में प्रणव और अन्त में 'हूं फट्' लगाकर बीच में बीज, गर्भ एवं शिखाबन्ध स्वरूप तीन 'हूं' का उच्चारण करे। इससे मूल मन्त्र का दीपन होता है, यथा - ॐ हूं हूं हूं हूं फट्।' इसी से हृदय का दीपन होता है। यथा - ॐ हूं हूं हूं हूं फट् हृदयाय नमः।' फिर 'ॐ हूं हूं हूं हूं फट् शिरसे स्वाहा।' आदि कहकर सिर आदि अङ्गों का दीपन करे। समस्त क्रूर कर्मों में इसी तरह मूलादि का दीपन करना उचित है। शान्तिकर्म, पुष्टिकर्म और वशीकरण में आदिगत प्रणव- मन्त्र के अन्त में 'वषट्' जोड़कर उसी मन्त्र द्वारा प्रत्येक का दीपन करे । 'वषट्' और 'वौषट्' से युक्त तथा सम्पूर्ण काम्य- कर्मो के ऊपर स्थित शम्बर-मन्त्रों द्वारा आप्यायन आदि सभी कर्मों में हवन करना चाहिये ॥ १-५ ॥

ततः स्वसव्यभागस्थं मण्डले शुद्धविग्रहं ।

शिष्यं सम्पूज्य तत्सूत्रं सुषुम्णेति विभावितं ॥६॥

मूलेन तच्छिखाबन्धं पादाङ्गुष्ठान्तमानयेत् ।

संहारेण मुमुक्षोस्तु बध्नीयाच्छिष्यकायके ॥७॥

पुंसस्तु दक्षिणे भागे वामे नार्या नियोजयेत् ।

शक्तिं च शक्तिमन्त्रेण पूजितान्तस्य मस्तके ॥८॥

संहारमुद्रया.अदाय सूत्रं तेनैव योजयेत् ।

नाडीन्त्वादाय मूलेन सूत्रे न्यस्य हृदार्चयेत् ॥९॥

अवगुण्ठ्य तु रुद्रेण हृदयेनाहुतित्रयं ।

प्रदद्यात्सन्निधानार्थं शक्तावप्येवमेव हि ॥१०॥

तत्पश्चात् अपने वामभाग में स्थित और मण्डल में विराजमान शुद्ध शरीरवाले शिष्य का पूजन करके, एक उत्तम सूत्र में सुषुम्णा नाड़ी की भावना करके, मूल मन्त्र से उसको शिखाबन्धतक ले जाकर, वहाँ से फिर पैरों के अँगूठे तक ले आवे। तत्पश्चात् संहार- क्रम से उसे पुनः मुमुक्षु शिष्य की शिखा के समीप ले जाय और वहीं उसे बाँध दे। पुरुष के दाहिने भाग में और नारी के वामभाग में उस सूत्र को नियुक्त करना चाहिये। इसके बाद शिष्य के मस्तक पर शक्तिमन्त्र से पूजित शक्ति को संहारमुद्रा द्वारा लाकर उक्त सूत्र में उसी मन्त्र से जोड़ दे। सुषुम्णा नाड़ी को लेकर मूल मन्त्र से उसका सूत्र में न्यास करे और हृदय-मन्त्र से उसकी पूजा करे। तदनन्तर कवच- मन्त्र से अवगुण्ठित करके हृदय मन्त्र द्वारा तीन आहुतियाँ दे। ये आहुतियाँ नाड़ी के संनिधान के लिये दी जाती हैं। शक्ति के संनिधान के लिये भी इसी तरह आहुति देने का विधान है ॥ ६-१० ॥

ओं हां वर्णाध्वने नमो हां भवनाध्वने नमः ।

ओं हां कालाध्वने नमः शोध्याध्वानं हि सूत्रके ॥११॥

न्यस्यास्त्रवारिणा शिष्यं प्रोक्ष्यास्त्रमन्त्रितेन च ।

पुष्पेण हृदि सन्ताड्य शिष्यदेहे प्रविश्य च ॥१२॥

गुरुश्च तत्र हूङ्कारयुक्तं रेचकयोगतः ।

चैतन्यं हंसवीजस्थं विश्लिष्येदायुधात्मना ॥१३॥

ओं हौं हूं फट्

आछिद्य शक्तिसूत्रेण हां हं स्वाहेति चाणुना ।

संहारमुद्रया सूत्रे नाडीभूते नियोजयेत् ॥१४॥

ओं हां हं हां आत्मने नमः

व्यापकं भावयेदेनं तनुत्राणावगुण्ठयेत् ।

आहुतित्रितयं दद्याथृदा सन्निधिहेतवे ॥१५॥

तदनन्तर 'ॐ हां तत्त्वाध्वने नमः ।',' ॐ हां पदाध्वने नमः ।', 'ॐ हां वर्णाध्वने नमः ।', 'ॐ हां मन्त्राध्वने नमः ।', 'ॐ हां कलाध्वने नमः ।', 'ॐ हां भुवनाध्वने नमः । - इन मन्त्रों से पूर्वोक्त सूत्र में छ: प्रकार के अध्वाओं का न्यास करके अस्त्र-मन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित जल से शिष्य का प्रोक्षण करे। फिर अस्त्र-मन्त्र के जपपूर्वक पुष्प लेकर उसके द्वारा शिष्य के हृदय में ताड़न करे। इसके बाद हूंकारयुक्त रेचक प्राणायाम के योग से वहाँ शिष्य के शरीर में प्रवेश करके, उसके भीतर हंस –बीज में स्थित जीवचैतन्य को अस्त्र-मन्त्र पढ़कर वहाँ से विलग करे। इसके बाद 'ॐ हः हूं फट् ।' इस शक्तिसूत्र से तथा 'हां हां स्वाहा।' इस मन्त्र से संहारमुद्रा द्वारा उक्त नाड़ीभूत सूत्र में उस विलग हुए जीवचैतन्य को नियुक्त करे। 'ॐ हां हां हामात्मने नमः।' इस मन्त्र का जप करते हुए जीवात्मा के व्यापक होने की भावना करे। फिर कवच मन्त्र से उसका अवगुण्ठन करे और उसके सांनिध्य के लिये हृदय- मन्त्र से तीन बार आहुतियाँ दे ॥ ११-१५ ॥

विद्यादेहञ्च विन्यस्य शान्त्यतीतावलोकनं ।

तस्यामितरतत्त्वाद्यं मन्त्रभूतं विचिन्तयेत् ॥१६॥

ओं हां हौं शान्त्यतीतकलापाशाय नम इत्यनेनावलोकयेत्

द्वे तत्त्वे मन्त्रमप्येकं पदं वर्णाश्च षोडश ।

तथाष्टौ भुवनान्यस्यां वीजनाडीकथद्वयं ॥१७॥

विषयञ्च गुणञ्चैकं कारणं च सदा शिवं ।

सितायां शान्त्यतीतायामन्तर्भाव्य प्रपीडयेत् ॥१८॥

ओं हौं शान्त्यतीतकलापाशाय हूं फट्

संहारमुद्रया.अदाय विदध्यात्सूत्रमस्तके ।

पूजयेदाहुतींस्तिस्रो दद्यात्सन्निधिहेतवे ॥१९॥

तत्त्वे द्वे अक्षरे द्वे च वीजनाडीकथद्वयं ।

गुणौ मन्त्रौ तथाब्जस्थमेकं कारणमीश्वरं ॥२०॥

पदानि भानुसङ्ख्यानि भुवनानि दश सप्त च ।

एकञ्च विषयं शान्तौ कृष्णायामच्युतं स्मरेत् ॥२१॥

ताडयित्वा समादाय मुखसूत्रे नियोजयेत् ।

जुहुयान्निजबीजेन सान्निध्यायाहुतित्रयं ॥२२॥

तत्पश्चात् विद्यादेह का न्यास करके उसमें शान्त्यतीतकला का अवलोकन करे। उस कला के अन्तर्गत इतर तत्त्वों से युक्त आत्मा का चिन्तन करे। 'ॐ हूं शान्त्यतीतकलापाशाय नमः।' इस मन्त्र से उक्त कला का अवलोकन करे। दो तत्त्व, एक मन्त्र, एक पद, सोलह वर्ण, आठ भुवन, , ख आदि बीज और नाड़ी, दो कलाएँ, विषय, गुण और एकमात्र कारणभूत सदाशिव इन सबका श्वेतवर्णा शान्त्यतीतकला में अन्तर्भाव करके'ॐ हूं शान्त्यतीतकलापाशाय हूं फट् ।' इस मन्त्र से प्रताड़न करे। संहारमुद्रा द्वारा उक्त कलापाश को लेकर सूत्र के मस्तक पर रखे और उसकी पूजा करे । तदनन्तर उसके सांनिध्य के लिये पूर्ववत् तीन आहुतियाँ दे । शान्त्यतीतकला का अपना बीज है- 'हूं' दो तत्व, दो अक्षर, बीज, नाड़ी, , ख- ये दो अक्षर दो गुण, दो मन्त्र, कमल में विराजमान एकमात्र कारणभूत ईश्वर, बारह पद, सात लोक और एक विषय इन सबका कृष्णवर्णा शान्तिकला के भीतर चिन्तन करे। तत्पश्चात् पूर्ववत् ताड़न करके सूत्र के मुखभाग में इन सबका नियोजन करे। इसके बाद सांनिध्य के लिये अपने बीज मन्त्र द्वारा तीन आहुतियाँ दे शान्तिकला का अपना बीज है-'हूं हूं ' ॥ १६-२२ ॥

विद्यायां सप्त तत्त्वानि पादानामेकविंशतिं ।

षड्वर्णान् सञ्चरं चैकं लोकानां पञ्चविंशतिं ॥२३॥

गुणानान्त्रयमेकञ्च विषयं रुद्रकारणं ।

अन्तर्भाव्यातिरिक्तायां जीवनाडीकथद्वयं ॥२४॥

अस्त्रमादाय दध्याच्च पदं द्व्यधिकविंशतिं ।

लोकानाञ्च कलानाञ्च षष्टिं गुणचतुष्टयं ॥२५॥

मन्त्राणां त्रयमेकञ्च विषयं कारणं हरिं ।

अन्तर्भाव्य प्रतिष्ठायां शुक्लयान्ताडनादिकं ॥२६॥

विधाय नाभिसूत्रस्थां सन्निधायाहुतीर्यजेत् ।

ह्रीं भुवनानां शतं साग्रं पदानामष्टविंशतिं ।२७॥

वीजनाडीसमीराणां द्वयोरिन्द्रिययोरपि ।

वर्णन्तत्त्वञ्च विषयमेकैकं गुणपञ्चकं ॥२८॥

हेतुं ब्रह्माण्डमन्त्रस्थं शम्बराणां चतुष्टयं ।

निवृत्तौ पीतवर्णायामन्तर्भाव्य प्रताडयेत् ॥२९॥

आदौ यत्तत्त्वभागान्ते सूत्रे विन्यस्यपूजयेत् ।

जुहुयादाहुतीस्तिस्रः सन्निधाय पावके ॥३०॥

सात तत्त्व, इक्कीस पद, छ: वर्ण, एक शम्बर, पचीस लोक, तीन गुण एक विषय, रुद्ररूप कारणतत्त्व, बीज, नाड़ी और क, ख ये दो कलाएँ - इन सबका अत्यन्त रक्तवर्णवाली विद्याकला में अन्तर्भाव करके आवाहन और संयोजनपूर्वक पूर्वोक्त सूत्र के हृदयभाग में स्थापित करके अपने मन्त्र से पूजन करे और इन सबकी संनिधि के लिये पूर्ववत् तीन आहुतियाँ दे । आहुति के लिये बीज- मन्त्र इस प्रकार है- 'हूं हूं हूं।' चौबीस तत्त्व, पचीस वर्ण, बीज, नाड़ी, , ये दो कलाएँ, बाईस पद, साठ लोक, साठ कला, चार गुण, तीन मन्त्र, एक विषय तथा कारणरूप श्रीहरि का शुक्लर्णा प्रतिष्ठा कला में अन्तर्भाव करके ताड़न आदि करे। फिर इन सबका पूर्वोक्त सूत्र के नाभिभाग में संयोजन करके संनिधिकरण के लिये तीन आहुतियाँ दे। उसके लिये बीज-मन्त्र इस प्रकार है-'हूं हूं हूं हूं।' एक सौ आठ भुवन या लोक, अट्ठाईस पद, बीज, नाड़ी और समीर की दो-दो संख्या, दो इन्द्रियाँ, एक वर्ण, एक तत्त्व, एक विषय, पाँच गुण, कारणरूप कमलासन ब्रह्मा और चार शम्बर- इन सबका पीतवर्णा निवृत्तिकला में अन्तर्भाव करके ताड़न करे। इन्हें ग्रहण करके सूत्र के चरणभाग में स्थापित करने के पश्चात् इनकी पूजा करे और इनके सांनिध्य के लिये अग्नि में तीन आहुतियाँ दे । आहुति के लिये बीज-मन्त्र यों है- 'हूं हूं हूं हूं हूं' ॥ २३- ३० ॥

इत्यादाय कलासूत्रे योजयेच्छिष्यविग्रहात् ।

सवीजायान्तु दीक्षायां समयाचारयागतः ॥३१॥

देहारम्भकरक्षार्थं मन्त्रसिद्धिफलादपि ।

इष्टापूर्तादिधर्मार्थं व्यतिरिक्तं प्रबन्धकं ॥३२॥

चैतन्यबोधकं सूक्ष्मं कलानामन्तरे स्मरेत् ।

अमुनैव क्रमेणाथ कुर्यात्तर्पणदीपने ॥३३॥

आहुतिभिः स्वमन्त्रेण तिसृभिस्तिसृभिस्तथा ।

ओं हौं शान्त्यतीतकलापाशाय स्वाहेत्यादितर्पणं

ओं हां हं हां शान्त्यतीतकलापाशाय हूम्फडित्यादिदीपनं

तत्सूत्रं व्याप्तिबोधाय कलास्थानेषु पञ्चसु ॥३४॥

सङ्गृह्य कुङ्कुमाज्येन तत्र साङ्गं शिवं यजेत् ।

हूम्फडन्तैः कलामन्त्रैर्भित्त्वा पाशाननुक्रमात् ॥३५॥

नमोऽन्तैश्च प्रविश्यान्तः कुर्याद्ग्रहणबन्धने ।

ओं हूं हां हौं हां हूं फट्शान्त्यतीतकलां गृह्णामि बध्नामि

चेत्यादिमन्त्रैः कलानां ग्रहणबन्धनादिप्रयोगः

पाशादीनाञ्च स्वीकारो ग्रहणं बन्धनं पुनः ॥३६॥

पुरुषं प्रति निःशेषव्यापारप्रतिपत्तये ।

इस प्रकार सूत्रगत पाँच कलाओं को लेकर शिष्य के शरीर में उनका संयोजन करे। सबीजादीक्षा में समयाचार- पाश से, देहारम्भक धर्म से, मन्त्रसिद्धि के फल से तथा इष्टापूर्तादि धर्म से भी भिन्न चैतन्यरोधक सूक्ष्म प्रबन्धक का कलाओं के भीतर चिन्तन करे। इसी क्रम से अपने मन्त्र द्वारा तीन-तीन आहुतियाँ देते हुए तर्पण और दीपन करे। ॐ हूं शान्त्यतीत-कलापाशाय स्वाहा।' इत्यादि मन्त्र से तर्पण करे। 'ॐ हूं हूं शान्त्यतीतकलापाशाय हूं हूं फट्।'- इत्यादि मन्त्र से दीपन करे। पूर्वोक्त सूत्र को व्याप्ति- बोध के लिये पाँच कला- स्थानों में सुरक्षापूर्वक रखकर उस पर कुकुम आदि के द्वारा साङ्ग- शिव का पूजन करे। फिर कला – मन्त्रों के अन्त में 'हूं फट्।'- इन पदों को जोड़कर उनका उच्चारण करते हुए क्रमशः पाशों का भेदन करके नमस्कारान्त कला मन्त्रों द्वारा ही उनके भीतर प्रवेश करे। साथ ही उन कलाओं का ग्रहण एवं बन्धन भी करे। 'ॐ हूं हूं हूं शान्त्यतीतकलां गृह्णामि बध्नामि च । - इत्यादि मन्त्रों द्वारा कलाओं के ग्रहण एवं बन्धन आदि का प्रयोग होता है। पाश आदि का वशीकरण (या भेदन), ग्रहण और बन्धन तथा पुरुष के प्रति सम्पूर्ण व्यापारों का निषेध - यह बारंबार प्रत्येक कला के लिये आवश्यक कर्तव्य है ।। ३१-३६अ ॥

उपवेश्याथ तत्सूत्रं शिष्यस्कन्धे निवेशयेत् ॥३७॥

विस्तृताघप्रमोषाय शतं मूलेन होमयेत् ।

शरावसम्पुटे पुंसः स्त्रियाश्च प्रणितोदरे ॥३८॥

हृदस्त्रसम्पुटं सूत्रं विधायाभ्यर्चयेद्धृदा ।

सूत्रं शिवेन साङ्गेन कृत्वा सम्पातशोधितं ॥३९॥

निदध्यात्कलशस्याधो रक्षां विज्ञापयेदिति ।

शिष्यं पुष्पं करे दत्वा सम्पूज्य कलशादिकं ॥४०॥

प्रणमय्य वहिर्यायाद्यागमन्दिरमध्यतः ।

मण्डलत्रितयं कृत्वा मुमुक्ष्वनुत्तराननान् ॥४१॥

भुक्तये पूर्ववक्त्रांश्च शिष्यांस्तत्र निवेशयेत् ।

तदनन्तर शिष्य को बिठाकर, पूर्वोक्त सूत्र को उसके कंधे से लेकर उसके हाथ में दे और भूले- भटके पापों का नाश करने के लिये सौ बार मूल- मन्त्र से हवन करे। अस्त्र - सम्बन्धी मन्त्र के सम्पुट में पुरुष के और प्रणव के सम्पुट में स्त्री के सूत्र को रखकर उसे हृदय मन्त्र से सम्पुटित करके उसी मन्त्र से उसकी पूजा करे। साङ्ग- शिव से सूत्र को सम्पात - शोधित करके कलश के नीचे रखे और उसकी रक्षा के लिये इष्टदेव से प्रार्थना करे। शिष्य के हाथ में फूल देकर कलश आदि का पूजन एवं प्रणाम करने के अनन्तर याग मन्दिर के मध्यभाग से बाहर जाय । वहाँ तीन मण्डल बनाकर मुक्ति की इच्छा रखनेवाले शिष्यों को उत्तराभिमुख बिठावे और भोग की अभिलाषा रखनेवाले शिष्यों को पूर्वाभिमुख ॥। ३७ – ४१अ ॥

प्रथमे पञ्चगव्यस्य प्राशयेच्चुल्लकत्रयं ॥४२॥

पाणिना कुशयुक्तेन अर्चितानन्तरान्तरं ।

चरुन्ततस्तृतीये तु ग्रासत्रितयसम्मितं ॥४३॥

अष्टग्रासप्रमाणं वा दशनस्पर्शवर्जितं ।

पालाशपुटके मुक्तौ भुक्तौ पिप्पलपत्रके ॥४४॥

हृदा सम्भोजनं दत्वा पूतैराचामयेज्जलैः ।

दन्तकाष्ठं हृदा कृत्वा प्रक्षिपेच्छोभने शुभं ॥४५॥

न्यूनादिदोषमोषाय मूलेनाष्टोत्तरं शतं ।

विधाय स्थिण्डिलेशाय सर्वकर्मसमर्पणं ॥४६॥

पूजाविसर्जनञ्चास्य चण्डेशस्य च पूजनं ।

पहले कुशयुक्त हाथ से तीन चुल्लू पञ्चगव्य पिलावे । बीच में कोई आचमन न करे। तत्पश्चात् दूसरी बार प्रत्येक शिष्य को तीन या आठ ग्रास चरु दे। मुक्तिकामी शिष्य को पलाश के दोने में और भोगेच्छु को पीपल के पत्ते से बने हुए दोने में चरु देकर उसे हृदय मन्त्र के उच्चारणपूर्वक दाँतों के स्पर्श के बिना खिलाना चाहिये। चरु देकर गुरु स्वयं हाथ धो शुद्ध होकर पवित्र जल से उन शिष्यों को आचमन करावे। इसके बाद हृदय-मन्त्र से दातुन करके उसे फेंक दे।* उसका मुखभाग शुभ दिशा की ओर हो तो उसका शुभ फल होता है। न्यूनता आदि दोष को दूर करने के लिये मूल- मन्त्र से एक सौ आठ बार आहुति दे स्थण्डिलेश्वर (वेदी पर स्थापित पूजित शिव) को सम्पूर्ण कर्म समर्पित करे। तदनन्तर इनकी पूजा और विसर्जन करके चण्डेश का पूजन करे ॥ ४२-४६अ ॥

* 'दन्तकाष्ठं हृदा कृत्वा प्रक्षिपेत् क्षोभने शुभम्।' इस पंक्ति कै स्थान में सोमशम्भु की 'कर्मकाण्ड-क्रमावली में इस प्रकार पाठ उपलब्ध होता है-

दन्तकाष्ठं हृदा दत्त्वा तद्दन्ताग्रविचर्वितम् ॥

धौतमूर्ध्वमुखं भूमौ क्षेपयेत्पातमुन्नयेत् । प्राक्पश्चिमोत्तरे चोर्ध्वं वदने पातमुत्तमम् ॥

सर्वेषामेव शिष्याणामितरास्यमशोभनम् । अशोभननिषेधार्थं शतमस्त्रेण होमयेत् ॥ ( ७९७-७९९ )

अर्थात् 'इसके बाद हृदय-मन्त्र से दन्तकाष्ठ देकर उसे चबाने को कहे। शिष्य के दन्ताग्रभाग से जब वह अच्छी तरह चर्वित हो जाय (कंच लिया जाय तो उसे धोकर उसका मुखभाग ऊपर की ओर रखते हुए पृथ्वी पर फेंकवा दे। जब वह गिर जाय तो उसके सम्बन्ध में निम्नाङ्कित प्रकार से शुभाशुभ का विचार करे। यदि उस दातुन का मुखभाग पूर्व, पश्चिम, उत्तर अथवा ऊर्ध्व दिशा को ओर हो तो उसका वह गिरना उत्तम माना गया है। इसके सिवा दूसरी दिशा की ओर उसका मुख हो तो वह सभी शिष्यों के लिये अशुभ होता है अशुभ का निवारण करने के लिये अस्त्र-मन्त्र से सी आहुतियाँ दे।'

निर्माल्यमपनीयाथ शेषमग्नौ यजेच्चरोः ॥४७॥

कलशं लोकपलांश्च पूजयित्वा विसृज्य च ।

विसृजेद्गणमग्निञ्च रक्षितं यदि वाह्यतः ॥४८॥

वाह्यतो लोकपालानां दत्वा सङ्क्षेपतो बलिं ।

भस्मना शुद्धतोयैर्वा स्नात्वा या गालयं विशेत् ॥४९॥

गृहस्थान् दर्भशय्यायां पूर्वशीर्षान् सुरक्षितान् ।

हृदा सद्भस्मशय्यायां यतीन् दक्षिणमस्तकान् ॥५०॥

शिखाबद्धसिखानस्त्रसप्तमाणवकान्वितान् ।

विज्ञाय स्नापयेच्छिष्यांस्ततो यायात्पुनर्वहिः ॥५१॥

तत्पश्चात् निर्माल्य को हटाकर चरु के शेष भाग को अग्नि में होम दे। कलश और लोकपालों का पूजन एवं विसर्जन करके गण और अग्नि का भी, यदि वे बाह्य दिशा में रक्षित हों तो, विसर्जन करे। मण्डल से बाहर लोकपालों को भी संक्षेप से बलि अर्पित करके भस्म और शुद्ध जल के द्वारा स्नान करने के पश्चात् यागमण्डप में प्रवेश करे। वहाँ गृहस्थ साधकों को कुश की शय्या पर अस्त्र-मन्त्र से रक्षित करके सुलावे। उनका सिरहाना पूर्व की ओर होना चाहिये। जो साधक या शिष्य विरक्त हों उन्हें हृदय-मन्त्र से उत्तम भस्ममयी शय्या पर सुलावे उन सबके मस्तक दक्षिण दिशा की ओर होने चाहिये। सभी शिष्य अस्त्र-मन्त्र से रक्षित होकर शिखा मन्त्र से अपनी-अपनी शिखा बाँध लें। तदनन्तर गुरु उन्हें स्वप्न मानव का परिचय देकर सो जाने की आज्ञा प्रदान करे और स्वयं मण्डल से बाहर चला जाय ॥ ४७ - ५१ ॥

ओं हिलि हिलि त्रिशूलपाणये स्वाहा

पञ्चगव्यञ्चरुं प्राश्य गृहीत्वा दन्तधावनं ।

समाचम्य शिवं ध्यात्वा शय्यामास्थाय पावनीं ॥५२॥

दीक्षागतङ्क्रियाकाण्डं संस्मरन् संविशेद्गुरुः ।

इति सङ्क्षेपतः प्रोक्तो विधिर्दीक्षाधिवासने ॥५३॥

इसके बाद 'ॐ हिलि हिलि शूलपाणये नमः स्वाहा।' इस मन्त्र से पञ्चगव्य और चरु का प्राशन करके दन्तधावन ले आचमन करे। फिर भगवान् शिव का ध्यान करके पवित्र शय्या पर आकर दीक्षागत क्रियाकाण्ड का स्मरण करते हुए गुरु शयन करे।* इस प्रकार दीक्षाधिवासन की विधि संक्षेप से बतायी गयी । ५२ - ५३ ॥

* दीक्षागत क्रियाकाण्ड के स्मरणीय स्वरूप का वर्णन सोमशम्भु की 'कर्मकाण्ड-क्रमावली में इस प्रकार मिलता है- मन्त्राणां दीपनं प्रोक्तं ततः सूत्रावलम्बनम्। सुषुम्णानाडिसंयोगं शिष्यचैतन्ययोजनम् ॥

इत्यादिमाहापुराणे आग्नेये निर्वाणदीक्षायामधिवासनं नाम त्र्यशीतितमोऽध्यायः ॥८३॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'निर्वाण दीक्षा के अन्तर्गत अधिवासन की विधि का वर्णन' नामक तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८३ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 84 

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