अग्निपुराण अध्याय ७८
अग्निपुराण
अध्याय ७८ में पवित्राधिवासन की विधि का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अष्टसप्ततितमोऽध्यायः
Agni puran chapter 78
अग्निपुराण अठहत्तरवाँ अध्याय
अग्नि पुराण अध्याय ७८
अग्निपुराणम् अध्यायः ७८ पवित्राधिवासनकथनम्
अथाष्टसप्ततितमोऽध्यायः
ईश्वर उवाच
पवित्रारोहणं
वक्ष्ये क्रियार्च्चादिषु पूरणं।
नित्यं
तन्नित्यमुद्दिष्टं नैमित्तिकमथापरं ।। १ ।।
आषाढादि
चतुर्द्दश्यामथ श्रावणबाद्रयोः।
सितासितासु
कर्त्तव्यं चतुर्द्दश्यष्टमीषु तत् ।। २ ।।
कुर्य्याद्वा
कार्तिकीं यावत्तिथौ प्रतिपदादिके।
वह्निब्रह्माम्बिकेभास्यनागस्कन्दार्क्कशूलिनाम्
।। ३ ।।
दुर्गायमेन्द्रगोविन्दस्मरशम्भुसुधाभुजाम्
।
भगवान्
महेश्वर कहते हैं— स्कन्द ! अब मैं पवित्रारोहण का वर्णन करूँगा,
जो क्रिया, योग तथा पूजा आदि में न्यूनता की पूर्ति करनेवाला है। जो
पवित्रारोहण कर्म नित्य किया जाता है, उसे 'नित्य' कहा गया है तथा दूसरा, जो विशेष निमित्त को लेकर किया जाता है,
उसे 'नैमित्तिक' कहते हैं। आषाढ़ मास की आदि चतुर्दशी को तथा श्रावण और
भाद्रपद मासों की शुक्ल कृष्ण उभय- पक्षीय चतुर्दशी एवं अष्टमी तिथियों में
पवित्रारोहण या पवित्रारोपण कर्म करना चाहिये। अथवा आषाढ़ मास की पूर्णिमा से लेकर
कार्तिक मास की पूर्णिमा तक प्रतिपदा आदि तिथियों को विभिन्न देवताओं के लिये
पवित्रारोहण करना चाहिये। प्रतिपदा को अग्नि के लिये,
द्वितीया को ब्रह्माजी के लिये,
तृतीया को पार्वती के लिये, चतुर्थी को गणेश के लिये, पञ्चमी को नागराज अनन्त के लिये,
षष्ठी को स्कन्द के अर्थात् तुम्हारे लिये,
सप्तमी को सूर्य के लिये, अष्टमी को शूलपाणि अर्थात् मेरे लिये,
नवमी को दुर्गा के लिये, दशमी को यमराज के लिये, एकादशी को इन्द्र के लिये, द्वादशी को भगवान् गोविन्द के लिये,
त्रयोदशी को कामदेव के लिये, चतुर्दशी को मुझ शिव के लिये तथा पूर्णिमा को अमृतभोजी
देवताओं के लिये पवित्रारोपण कर्म करना चाहिये ॥ १-३अ ॥
सौवर्णं राजतं
ताम्रं कृतादिषु यथाक्रमम् ।। ४ ।।
कलौ
कार्प्पासजं वापि पट्टपद्मादिसूत्रकम्।
प्रणवश्चन्द्रमा
वह्निर्ब्रह्मा नागो गुहो हरिः ।। ५ ।।
सर्वेशः सर्वदेवाः
स्युः क्रमेण नवतन्तुषु।
अष्टोत्तरशतान्यर्द्धं
तदर्धं चोत्तमादिकम् ।। ६ ।।
एकाशीत्याऽथवा
सूत्रैस्त्रिंशताऽप्यऽप्यष्टयुक्तया।
पञ्चाशता वा
कर्त्तव्यं तुल्यग्रन्थ्यन्तरालकम् ।। ७ ।।
द्वादशाङ्गुलमानानि
व्यासादष्टाङ्गुलानि च।
लिङ्गविस्तारमानानि
चतुरङ्गुलकानि वा ।। ८ ।।
सत्ययुग आदि
तीन युगों में क्रमश: सोने, चाँदी और ताँबे के पवित्रक अर्पित किये जाते हैं,
किंतु कलियुग में कपास के सूत,
रेशमी सूत अथवा कमल आदि के सूत का पवित्रक अर्पित करने का विधान
है। प्रणव, चन्द्रमा, अग्नि, ब्रह्मा, नागगण, स्कन्द, श्रीहरि, सर्वेश्वर तथा सम्पूर्ण देवता - ये क्रमशः पवित्रक के नौ तन्तुओं के देवता
हैं। उत्तम श्रेणी का पवित्रक एक सौ आठ सूत्रों से बनता है। मध्यम श्रेणी का चौवन
तथा निम्न श्रेणी का सत्ताईस सूत्रों से निर्मित होता है। अथवा इक्यासी,
पचास या अड़तीस सूत्रों से उसका निर्माण करना चाहिये। जो
पवित्रक जितने नवसूत्री से बनाया जाय, उसमें बीच में उतनी ही गाँठें लगनी चाहिये। पवित्रकों का
व्यास मान या विस्तार बारह अङ्गुल, आठ अङ्गुल अथवा चार अङ्गुल का होना चाहिये। यदि शिवलिङ्ग के
लिये पवित्रक बनाना हो तो उस लिङ्ग के बराबर ही बनाना चाहिये ॥ ४-८ ॥
तथैव
पिण्डिकास्पर्शं चतुर्थं सर्वदैवतम्।
गङ्गावतारकं
कार्य्यं सुजातेन सुधौतकम् ।। ९ ।।
ग्रन्थिं
कुर्य्याच्च वामेन अघोरेणाथ शोधयेत्।
रञ्जयेत्
पुरुषेणैव रक्तचन्दनकुङ्कुमैः ।। १० ।।
कस्तूरीरोचनाचन्द्रैर्हरिद्रागैरिकादिभिः।
ग्रन्थयो दश
कर्त्तव्या अथवा तन्तुसङ्ख्यया ।। ११ ।।
अन्तरं वा
यथाशोभमेकद्विचतुरङ्गुलम्।
प्रकृतिः
पौरुषी वीरा चतुर्थी त्वपराजिता ।। १२ ।।
जयाऽन्या
विजया षष्ठी अजिता च सदाशिवा।
मनोन्मनी
सर्वमुखी ग्रन्थयोऽभ्यधिकाः शुभाः ।। १३ ।।
कार्य्या वा
चन्द्रवह्न्यर्कपवित्रं शिववद्धदि।
एकैकं
निजमूर्त्तौ वा पुप्तके गुरुके गणे ।। १४ ।।
(इस प्रकार तीन तरह के पवित्रक बताये गये। इसी तरह एक चौथे
प्रकार का भी पवित्रक बनता है, जो सभी देवताओं के उपयोग में आता है। वह उनकी पिण्डी या
मूर्ति के बराबर का बनाया जाना चाहिये। इस तरह बने हुए पवित्रक को 'गङ्गावतारक' कहते हैं। इसे 'सद्योजात"* मन्त्र
के द्वारा भलीभाँति धोना चाहिये। इसमें 'वामदेव* मन्त्र से ग्रन्थि लगावे 'अघोर"* मन्त्र से इसकी शुद्धि करे तथा 'तत्पुरुष* मन्त्र से रक्तचन्दन एवं रोली द्वारा इसको रँगे।
अथवा कस्तूरी, गोरोचना, कपूर,
हल्दी और गेरू आदि से मिश्रित रंग के द्वारा पवित्रक मात्र को
रँगना चाहिये। सामान्यतः पवित्रक में दस गाँठें लगानी चाहिये अथवा तन्तुओं की
संख्या के अनुसार उसमें गाँठें लगावे। एक गाँठ से दूसरी गाँठ में एक,
दो या चार अङ्गुल का अन्तर रखे। अन्तर उतना ही रखना चाहिये,
जिससे उसकी शोभा बनी रहे। प्रकृति (क्रिया),
पौरुषी, वीरा, अपराजिता, जया, विजया, अजिता, सदाशिवा, मनोन्मनी तथा सर्वतोमुखी - ये दस ग्रन्थियों की अधिष्ठात्री
देवियाँ हैं। अथवा दस से अधिक भी सुन्दर गाँठें लगानी चाहिये। पवित्रक के
चन्द्रमण्डल, अग्निमण्डल तथा सूर्य मण्डल से युक्त होने की भावना करके,
उसे साक्षात् भगवान् शिव के तुल्य मानकर हृदय में धारण
करे-मन ही मन उसके दिव्य स्वरूप का चिन्तन करे। शिवरूप से भावित अपने स्वरूप को,
पुस्तक को तथा गुरुगण को एक- एक पवित्रक अर्पित करे ॥ ९-१४
॥
* १-४. सद्योजात'
आदि पाँच मूर्तियों के मन्त्र पचहत्तरवें अध्याय को
टिप्पणी में दिये गये हैं।
स्यादेकैकं
तथा द्वारदिक्पालकलशादिषु।
हस्तादिनवहस्तान्तं
लिङ्गानां स्यात्पवित्रकम्।। १५ ।।
अष्टाविंशतितो
वृद्धं दशभिर्द्दशभिः क्रमात्।
द्व्यङ्गुलाभ्यन्तरास्तत्र
क्रमादेकाङ्गुलान्तराः ।। १६ ।।
ग्रन्थयो
मानमप्येषां लिङ्गविस्तारसस्मितम्।
सप्तम्यां वा
त्रयोदश्यां कृतनित्यक्रियः शुचिः ।। १७ ।।
भूषयेत्
पुष्पवस्त्रद्यैः सायाह्ने यागमन्दिरं।
कृत्वा
नैमित्तिकीं सन्ध्यां विशेषेण च तर्प्पणम् ।। १८ ।।
परिगृहीते
भूभागे पवित्रे सूर्य्यमर्च्चयेत् ।
इसी प्रकार
द्वारपाल,
दिक्पाल और कलश आदि पर भी एक-एक पवित्रक चढ़ाना चाहिये।
शिवलिङ्गों के लिये एक हाथ से लेकर नौ हाथतक का पवित्रक होता है। एक हाथवाले
पवित्रक में अट्ठाईस गाँठें होती हैं। फिर क्रमशः दस-दस गाँठें बढ़ती जाती हैं। इस
तरह नौ हाथवाले पवित्रक में एक सौ आठ गाँठें होती हैं। ये ग्रन्थियाँ क्रमशः एक या
दो-दो अङ्गुल के अन्तर पर रहती हैं। इनका मान भी लिङ्ग के विस्तार के अनुरूप हुआ
करता है। जिस दिन पवित्रारोपण करना हो, उससे एक दिन पूर्व अर्थात् सप्तमी या
त्रयोदशी तिथि को उपासक नित्यकर्म करके पवित्र हो सायंकाल में
पुष्प और वस्त्र आदि से याग- मन्दिर (पूजा - मण्डप) को सजावे। नैमित्ति की
संध्योपासना करके, विशेषरूप से तर्पण – कर्म का सम्पादन करने के पश्चात् पूजा के
लिये निश्चित किये हुए पवित्र भूभाग में सूर्यदेव का पूजन
करे ।। १५- १८ अ ॥
आचम्य
सकलीकृत्य प्रणवार्घ्यकरो गुरुः ।। १९ ।।
द्वाराण्यस्त्रेण
सम्प्रोक्ष्य पूर्वादिक्रमतोऽर्च्चयेत्।
हां
शन्तिकलद्वारं द्वौ द्वौ द्वाराधिपौ यजेत् ।। २० ।।
निवृत्तिकलाद्वारायप्रतिष्ठाख्यकलात्मने।
तच्छाकयोः
प्रतिद्वारं द्वौ द्वौ द्वाराधिपौ यजेत् ।। २१ ।।
जन्दिने
महाकालाय भृङ्गिणेऽथ गणाय च।
वृषभाय च
स्कन्दाय देव्यै चण्डायचक्रमात् ।। २२ ।।
आचार्य को
चाहिये कि वह आचमन एवं सकलीकरण की क्रिया करके प्रणव के उच्चारणपूर्वक अर्घ्यपात्र
हाथ में लिये अस्त्र-मन्त्र (फट्) बोलकर पूर्वादि दिशाओं के क्रम से सम्पूर्ण
द्वारों का प्रोक्षण करके उनका पूजन करे । 'हां शान्तिकला-द्वाराय नमः ।'
'हां
विद्याकलाद्वाराय नमः ।' 'हां निवृतिकलाद्वाराय नमः ।'
‘हां
प्रतिष्ठाकलाद्वाराय
नमः ।' ---इन मन्त्रों पूर्वादि चारों द्वारों का पूजन करना नाहिये । प्रत्येक द्वार
की दक्षिण और वाम शाखाओं पर दो-दो द्वारपालों का पूजन करे ।
पूर्व
में 'नन्दिने नमः ।" ' महाकालाय नमः ।" इन मन्त्रों से नन्दी और महाकाल का, दक्षिण में 'भृङ्गिणे नमः।" ' गणाय
नमः ।" ---इन मन्त्रों से भृङ्गी और गण का,
पश्चिम में 'वृषभाय नमः ।" 'स्कन्दाय
नमः ।"---इन मन्त्रों से नन्दिकेश्वर वृषभ तथा स्कन्द का तथा उत्तर
दिशा में देव्यै नमः।" ' चण्डाय
नमः ।"---इन मन्त्रों से देवी तथा चण्ड नामक द्वारपाल का क्रमशः
पूजन करे ।। १९- २२॥
नित्यं च
द्वारपालादीन् प्रविश्य द्वारपश्चिमे।
इष्ट्वा
वास्तुं भूतशुद्धिं विशेषार्घ्यकरः शिवः ।। २३ ।।
प्रोक्षणाद्यं
विदायाथ यज्ञसम्बारकृन्नरः।
मन्त्रयेद्दर्भदूर्वाद्यैः
पुष्पाद्यैश्च हृदादिभिः ।। २४ ।।
शिवहस्तं
विधायेत्थं स्वशिरस्यधिरोपयेत्।
शिवोऽहमादिः
सर्वज्ञो मम यज्ञप्रधानता ।। २५ ।।
अत्यर्थं
भावयेद्देवं ज्ञानखड्गकरो गुरुः।
नेर्ऋतीं
दिशमासाद्य प्रक्षिपेदुदगाननः ।। २६ ।।
अर्घ्याम्बुपञ्चगव्यञ्च
समस्तान् मखमण्डपे।
चतुष्पथान्तसंस्कारैर्वीक्षणाद्यैः
सुसंस्कृतैः ।। २७ ।।
विक्षिप्य
विकिरांस्तत्र कुशकूर्च्चोपसंहरेत् ।
तानीशदिशि
वर्द्धन्यामासनायोपकल्पयेत् ।। २८ ।।
इस प्रकार
द्वारपाल आदि की 'नित्य पूजा करके पश्चिम द्वार से होकर याग- मन्दिर में प्रवेश करे। फिर वास्तुदेवता का पूजन करके भूतशुद्धि
करे । तत्पश्चात् विशेषार्ध्य हाथ में लेकर अपने
में शिवस्वरूप की भावना करते
हुए पूजा सामग्री का प्रोक्षण
आदि करके यज्ञभूमि का संस्कार
करे। फिर कुश, दूर्वा और फूल आदि हाथ में लेकर 'नमः' आदि के
उचारणपूर्वक उसे अभिमन्त्रित करे। इस प्रकार शिवहस्त का विधान करके
उसे अपने सिर पर रक्खे और यह
भावना करे कि मैं सबका आदि कारण सर्वज्ञ शिव हूँ तथा यज्ञ में मेरी ही प्रधानता
है। इस प्रकार आचार्य भगवान् शिव का अत्यन्त
ध्यान करे और ज्ञानरूपी खड्ग हाथ में लिये
नैर्ऋत्य दिशा में जाकर
उत्तराभिमुख हो अर्ध्य का जल छोड़े तथा यज्ञ मण्डप में चारों ओर
पचगव्य छिड़के। चतुष्पथान्त संस्कार और
उत्तम संस्कारयुक्त वीक्षण आदि के द्वारा
वहाँ सब ओर गौर सर्षप आदि बिखरने योग्य वस्तुओं को बिखेरकर
कुशनिर्मित कूर्च के द्वारा
उनका उपसंहार करे । फिर उनके द्वारा ईशानकोण में वर्धनी
एवं कलश की स्थापना के लिये आसन
की कल्पना करें ।।२३-२८।।
नैर्ऋते
वास्तुगीर्वाणा द्वारे लक्ष्मीं प्रपूजयेत्।
पश्चिमाभिमुखं
कुम्भं सर्वदान्योपरि स्थितम् ।। २९ ।।
प्रणवेन
वृषारूढं सिहस्थां वर्द्धनीन्ततः।
कुम्भे शाङ्गं
शिवन्देवं वर्द्धन्यामस्त्रमर्च्चयेत् ।। ३० ।।
दिक्षु
शक्रादिदिक्पालान् विष्णुब्रह्मशिवादिकान्।
वर्द्धनीं
सम्यगादाय घटप्टष्ठानुगामिनीं ।। ३१ ।।
शिवाज्ञां
श्रावयेन्मन्त्री पूर्वादीशानगोचरम्।
अविच्छिन्नपयोधारां
मूलमन्त्रमुदीरयेत् ।। ३२ ।।
समन्ताद्
भ्रामयेदेनां रक्षार्थं शस्त्ररूपिणीम्।
पूर्वं
कलशमारोप्य शस्त्रार्थन्तस्य वामतः ।। ३३ ।।
तत्पश्चात्
नैर्ऋकोण में वास्तुदेवता का तथा द्वार पर लक्ष्मी का पूजन करे।
फिर पश्चिमाभिमुख कलश को सप्तधान्य के ऊपर स्थापित करके प्रणव के
उच्चारणपूर्वक यह भावना करे कि 'यह शिवस्वरूप कलश नन्दिकेश्वर वृषभ के ऊपर आरूढ़
है। साथ ही वर्धनी सिंह के ऊपर स्थित
है,
ऐसी भावना करे। कलश पर सार्ङ्ग
भगवान् शिव की और वर्धनी में
अस्त्र की पूजा करे। इसके बाद पूर्वादि दिशाओं में इन्द्र आदि दिक्पालों का तथा
मण्डप
के मध्यभाग में ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि का पूजन करे ।
तत्पश्चात् कलश के पृष्ठभाग का अनुसरण करनेवाली वर्धनी को भलीभांति हाथ
में लेकर मन्त्रज्ञ गुरु भगवान शिव का आज्ञा सुनावे। फिर पूर्व से लेकर प्रदक्षिणक्रम से चलते हुए ईशानकोणतक जल की अविच्छिन्न
धारा गिरावे और मूलमन्त्र का उच्चारण
करे । शस्त्ररूपिणी वर्धनी को यज्ञमण्डप
के रक्षा लिये उसके चारों ओर घुमावे । पहले कलश को आरोपित
करके उसके वामभाग में शस्त्र के लिये वर्धनी को स्थापित
करे ।।२९-३३।।
समग्रासनके
कुम्भे यजेद्देवं स्थिरासने।
वर्द्धन्यां
प्रणवस्थायामायुधन्तदनु द्वयोः ।। ३४ ।।
भगलिङ्गसमायोगं
विदध्याल्लिङ्गमुद्रया।
कुम्भे
निवेद्य बोधासिं मूलमन्त्रजपन्तथा ।। ३५ ।।
तद्दशांश्न
वर्द्धन्यां रक्षां विज्ञापयेदपि ।
गणेशं
वायवेऽभ्यर्च्य हरं पञ्चामृतादिभिः ।। ३६ ।।
स्नापयेत्
पूर्ववत् प्रार्च्य कुण्डे च शिवपावकम्।
विधिवच्च चरुं
कृत्वा सम्पाताहुतिशोधितम् ।। ३७ ।।
देवाग्न्यात्मविभेदेन
दर्व्या तं विभजेत्त्रिधा।
दत्वा भागौ
शिवाग्निभ्यां संरक्षेद्भागमात्मनि ।। ३८ ।।
उत्तम एवं
सुस्थिर आसनवाले कलश पर भगवान शंकर का तथा प्रणव पर स्थित हुई
वर्धनी में उनके आयुध का पूजन करे ।
तदनन्तर उन दोनों का
लिङ्गमुद्रा के द्वारा
परस्पर संयोग कराकर भगलिङ्ग संयोग का सम्पादन
करें । कलश पर ज्ञानरूपी खड्ग
अर्पित करके मूलमन्त्र का जप करें। उस
जप
के दशांश होम से वर्धनी में रक्षा शोषित करे। फिर वायन्यकोण में गणेशजी की
पूजा करके पञ्चामृत आदि से भगवान् शिव को स्नान करावे और पूर्ववत् पूजन करके कुण्ड में शिवस्वरूप अग्नि की पूजा करे । इसके बाद विधिपूर्वक चरु
तैयार करके उसे सम्पाताहुति की विधि शोधित
करे । तदनन्तर भगवान् शिव, अग्नि और आत्मा के भेद से तीन अधिकारियों के लिये चम्मच से
उस चरु के तीन भाग करे तथा अग्निकुण्ड में शिव एवं अग्नि का भाग देकर शेष भाग
आत्मा के लिये सुरक्षित रखे ॥ ३४-३८ ॥
शरेण वर्म्मणा
देयं पूर्वतो दन्तधावनम्।
तस्माद्घोरशिखाभ्यां
वा दक्षिणे पश्चिमे मृदां ।। ३९ ।।
सद्योजातेन च
हृदा चोत्तरे वामनीकृतम् ।
जलं वामेन
शिरसा ईशे गन्धान्वितं जलम् ।। ४० ।।
पञ्चगव्यं
पलाशादिपुटकं वै समन्ततः।
ऐशान्यां
कुसुमं दद्यादाग्नेय्यां दिशि रोचनां ।। ४१ ।।
अगुरुं
निर्ऋताशायां वायव्यां च चतुः समम्।
होमद्रव्याणि
सर्वाणि सद्योजातैः कुशैः ।। ४२ ।।
दण्डाक्षसूत्रकौपीनभिक्षापात्राणि
रूपिणे।
कज्जलं
कुङ्कुमन्तैलं शलाकां केशशोधनीं ।। ४३ ।।
ताम्बूलं
दर्पणं दद्यादुत्तरे रोचनामपि।
आसनं पादुके
पात्रं योगपट्टातपत्रकम् ।। ४४ ।।
ऐशान्यामीशमन्त्रेण
दद्यादीशानतुष्टये।
तत्पुरुष-
मन्त्र के साथ 'हूँ' जोड़कर उसके उच्चारणपूर्वक पूर्व दिशा में इष्टदेव के लिये
दन्तधावन- अर्पित करे। अघोर मन्त्र के अन्त में 'वषट्' जोड़कर उसके उच्चारणपूर्वक उत्तर दिशा में आँवला अर्पित
करे। वामदेव-मन्त्र के अन्त में 'स्वाहा'
जोड़कर उसका उच्चारण करते हुए जल निवेदन करे। ईशान- मन्त्र* से ईशानकोण में सुगन्धित जल समर्पित करे ।
पञ्चगव्य और पलाश आदि के दोने सब दिशाओं में रखे। ईशानकोण में पुष्प,
अग्निकोण में गोरोचन, नैर्ऋत्यकोण में अगुरु तथा वायव्यकोण में चतुःसम* समर्पित करे तुरंत के पैदा हुए कुशों के साथ समस्त
होमद्रव्य भी अर्पित करे। दण्ड, अक्षसूत्र, कौपीन तथा भिक्षापात्र भी देवविग्रह को अर्पित करे। काजल,
कुङ्कुम, सुगन्धित तेल, केशों को शुद्ध करनेवाली कंघी,
पान, दर्पण तथा गोरोचन भी उत्तर दिशा में अर्पित करे। तत्पश्चात्
आसन,
खड़ाऊँ, पात्र, योगपट्ट और छत्र- ये वस्तुएँ भगवान् शंकर की प्रसन्नता के
लिये ईशानकोण में ईशान- मन्त्र से ही निवेदन करे ॥ ३९-४४अ ॥
*१. ॐ ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां
ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणो ब्रह्माशिवो मेऽस्तु सदाशिवोम् ।
*२. एक गन्धद्रव्य,
जिसमें दो भाग कस्तूरी, चार
भाग चन्दन, तीन भाग कुङ्कुम और तीन भाग कपूर रहता है।
पूर्वस्याञ्चरुकं
साज्यं दद्याद् गन्धादिकं नवे ।। ४५ ।।
पवित्राणि
समादाय प्रोक्षितान्यर्घ्यवारिणा।
संहितामन्त्रपूतानि
नीत्वा पावकसन्निधिं ।। ४६ ।।
कृष्णाजिनादिनाऽऽच्छाद्य
स्मरन् संवत्सरात्मकम्।
साक्षइणं
सर्वकृत्यानां गोप्तारं शिवमव्ययं ।। ४७ ।।
स्वेति हेति
प्रयोगेण मन्त्रसंहितया पुनः।
शोधयेच्च
पवित्राणि वाराणामेकविंशतिं ।। ४८ ।।
गृहादि
वेष्टयेत्सूत्रैर्गन्धाद्यं रवये ददेत्।
पूजिताय
समाचम्य कृतन्यासः कृतार्घ्यकः ।। ४९ ।।
नन्द्यादिब्योऽथ
गन्धाख्यं वास्तोश्चाथ प्रविश्य च ।
शस्त्रेभ्यो
लोकपालेब्यः स्वनाम्ना शिवकुम्भके ।। ५० ।।
पूर्व दिशा में
घी सहित चरु तथा गन्ध आदि भगवान् तत्पुरुष को अर्पित करे। तदनन्तर अर्घ्यजल से
प्रक्षालित तथा संहिता मन्त्र से शोधित पवित्रकों को लेकर अग्नि के निकट पहुँचावे।
कृष्ण मृगचर्म आदि से उन्हें ढककर रखे। उनके भीतर समस्त कर्मो के साक्षी और
संरक्षक संवत्सरस्वरूप अविनाशी भगवान् शिव का चिन्तन करे। फिर 'स्वा'
और'हा'
का प्रयोग करते हुए मन्त्र-संहिता के पाठपूर्वक इक्कीस बार
उन पवित्रकों का शोधन करे। तत्पश्चात् गृह आदि को सूत्रों से वेष्टित करे। सूर्यदेव को
गन्ध,
पुष्प आदि चढ़ावे। फिर पूजित हुए सूर्यदेव को आचमनपूर्वक
अर्घ्य दे । न्यास करके नन्दी आदि द्वारपालों को और वास्तुदेवता को भी गन्धादि
समर्पित करे। तदनन्तर यज्ञ मण्डप के भीतर प्रवेश करके शिव
कलश पर उसके चारों ओर इन्द्रादि लोकपालों और उनके शस्त्रों की अपने- अपने नाम
मन्त्रों से पूजा करे ॥ ४५-५० ॥
वर्द्धन्यै
विघ्नराजाय गुरवे ह्यात्मने यजेत्।
अथ
सर्वौषधीलिप्तं धूपितं पुष्पदूर्वया ।। ५१ ।।
आमन्त्रय च
पवित्रं तत् विधायाञ्जलिमध्यगम्।
आसस्तविधिच्छिद्रपूरणे
च विधि प्रति ।। ५२ ।।
प्रभवामन्त्रयामि
त्वां त्वदिच्छावाप्तिकारिकां।
तत्सिद्धिमनुजानीहि
यजतश्चिदचित्पते ।। ५३ ।।
सर्वथा सर्वदा
शम्भो नमस्तेऽस्तु प्रसीद मे।
आमन्त्रितोऽसि
देवेश सह देव्या गणेश्वरैः ।। ५४ ।।
मन्त्रेसैर्ल्लेकपालैश्च
सहितः परिचारकैः।
निमन्त्रयाम्यहन्तुभ्यं
प्रभाते तु पवित्रकम् ।। ५५ ।।
नियमञ्च
करिष्यामि परमेश तवाज्ञया।
इसके बाद
वर्धनी में विघ्नराज, गुरु और आत्मा का पूजन करे। इन सबका पूजन करने के अनन्तर
सर्वोषधि से लिप्त, धूप से धूपित तथा पुष्प, दूर्वा आदि से पूजित पवित्रक को दोनों अञ्जलियों के बीच में
रख ले और भगवान् शिव को सम्बोधित करते हुए कहे- 'सबके कारण तथा जड़ और चेतन के स्वामी परमेश्वर! पूजन की
समस्त विधियों में होनेवाली त्रुटि की पूर्ति के लिये मैं
आपको आमन्त्रित करता हूँ। आपसे अभीष्ट मनोरथ की प्राप्ति करानेवाली सिद्धि चाहता
हूँ। आप अपनी आराधना करनेवाले इस उपासक के लिये उस सिद्धि का अनुमोदन कीजिये।
शम्भो ! आपको सदा और सब प्रकार से मेरा नमस्कार है। आप मुझ पर प्रसन्न होइये।
देवेश्वर! आप देवी पार्वती तथा गणेश्वरों के साथ आमन्त्रित हैं। मन्त्रेश्वरों,
लोकपालों तथा सेवकों सहित आप पधारें। परमेश्वर! मैं आपको
सादर निमन्त्रित करता हूँ। आपकी आज्ञा से कल प्रातः काल पवित्रारोपण तथा
तत्सम्बन्धी नियम का पालन करूंगा' ॥ ५१ - ५५अ ॥
इत्येवन्देवमामन्त्र्य
रेचकेनामृतीकृतम् ।। ५६ ।।
शिवान्तं मूलमुच्चार्य्य
तच्छिवाय निवेदयेत्।
जपं स्तोत्रं
प्रणामञ्च कृत्वा शम्भुं क्षमापयेत् ।। ५७ ।।
हुत्वा
चरोस्तृतीयांशं तद्ददीत शिवाग्नये ।
दिग्वासिब्यो
दिगीशेभ्यो भूतमातृगणेभ्य उ ।। ५८ ।।
रुद्रेभ्यः
क्षेत्रपादिभ्यो नमः स्वाहा बलिस्त्वयं।
दिङ्नागाद्यैश्च
पूर्वादौ क्षेत्राय चाग्नये बलिः ।। ५९ ।।
समाचम्य
विधिच्छिद्रपूरकं होममाचरेत्।
पूर्णां
व्याहृतिहोमञ्च कृत्वा रुन्धीत पावकं ।। ६० ।।
इस प्रकार
महादेवजी को आमन्त्रित करके रेचक प्राणायाम के द्वारा अमृतीकरण की क्रिया सम्पादित
करते हुए शिवान्त मूल मन्त्र का उच्चारण एवं जप करके उसे भगवान् शिव को समर्पित
करे। जप,
स्तुति एवं प्रणाम करके भगवान् शंकर से अपनी त्रुटियों के
लिये क्षमा-प्रार्थना करे। तत्पश्चात् चरु के तृतीय अंश का होम करे। उसे शिवस्वरूप
अग्नि को,
दिग्वासियों को, दिशाओं के अधिपतियों को, भूतगणों को, मातृगणों को, एकादश रुद्रों को तथा क्षेत्रपाल आदि को उनके नाममन्त्र के
साथ 'नमः स्वाहा'
बोलकर आहुति के रूप में अर्पित करे। इसके बाद इन सबका
चतुर्थ्यन्त नाम बोलकर 'अयं बलिः'
कहते हुए बलि समर्पित करे। पूर्वादि दिशाओं में दिग्गजों
आदि के साथ दिक्पालों को, क्षेत्रपाल को तथा अग्नि को भी बलि समर्पित करनी चाहिये।
बलि के पश्चात् आचमन करके विधिच्छिद्रपूरक*
होम करे। फिर पूर्णाहुति और व्याहृति- होम करके अग्निदेव को अवरुद्ध करे ॥ ५६-६० ॥
* विधि के पालन या सम्पादन में जो त्रुटि रह गयी हो, उसकी
पूर्ति करनेवाला।
तत ओमग्नये
स्वाहा स्वाहा सोमाय चैव हि।
ओमग्नीषोमाभ्यां
स्वाहाऽग्नये स्विष्टकृते तथा ।। ६१ ।
इत्याहुतिच्तुष्कन्तु
दत्वा कुर्य्यात्तु योजनाम्।
वह्निकुण्डार्च्चितं
देवं मण्डलाभ्यर्च्चिते शिवे ।। ६२ ।।
नाडीसन्धानरूपेण
विधिना योजयेत्तत्तः।
वंशादिपात्रे
विन्यस्य अस्त्रञ्च हृदयन्ततः ।। ६३ ।।
अधिरोप्य
पवित्राणि कलाभिर्वाऽथ मन्त्रयेत्।
षडङ्गं
ब्रह्ममूलैर्व्वां हृद्वर्म्मास्त्रञ्च योजयेत् ।। ६४ ।।
तदनन्तर ॐ
अग्नये स्वाहा।' 'ॐ सोमाय स्वाहा।' 'ॐ अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा।'
'ॐ अग्नये
स्विष्टकृते स्वाहा ।'
- इन चार मन्त्रों से चार
आहुतियाँ देकर भावी कार्य की योजना करे। अग्निकुण्ड में पूजित हुए आराध्यदेव
भगवान् शिव को पूजामण्डल में पूजित कलशस्थ शिव में नाड़ीसंधानरूप विधि से संयोजित
करे। फिर बाँस आदि के पात्र में 'फट्' और 'नमः'
के उच्चारणपूर्वक अस्त्रन्यास और हृदयन्यास करके उसमें सब
पवित्रकों को रख दे। इसके बाद 'शान्तिकलात्मने नमः ।' 'विद्याकलात्मने नमः ।'' निवृत्तिकलात्मने नमः ।'प्रतिष्ठकलात्मने नमः ।'
'शान्त्यतीतकलात्मने
नमः ।'-इन कला- मन्त्र द्वारा उन्हें अभिमन्त्रित करे। फिर प्रणव मन्त्र
अथवा मूल मन्त्र से षडङ्गन्यास करके 'नमः',
'हुँ',
एवं 'फट्'
का उच्चारण करके उनमें क्रमशः हृदय,
कवच एवं अस्त्र की योजना करे ।। ६१–६४ ॥
विधाय सूत्रैः
संवेष्ट्य पूजयित्वाऽङ्गसम्भवैः ।
रक्षार्थं
जगदीशाय भक्तिनम्रः समर्पयेत् ।। ६५ ।।
पूजिते
पुष्पधूपाद्यैर्द्दत्वा सिद्धान्तपुस्तके।
गुरोः
पादान्तिकं गत्वा भक्त्या दद्यात् पवित्रकम् ।। ६६ ।।
निर्गत्य
वहिराचम्य गोमये मण्डलत्रये।
पञ्चगव्यञ्चरुन्दन्तधावनञ्च
क्रमाद यजेत् ।. ६७ ।।
यह सब करके उन
पवित्रकों को सूत्रों से आवेष्टित करे। फिर 'नमः',
'स्वाहा',
'वषट्',
'हुं',
'वौषट्',
तथा 'फट्' इन अङ्ग सम्बन्धी मन्त्रों द्वारा उन सबका पूजन करके उनकी
रक्षा के लिये भक्तिभाव से नम्र हो, उन्हें जगदीश्वर शिव को समर्पित करे। इसके बाद पुष्प,
धूप आदि से पूजित सिद्धान्त-ग्रन्थ पर पवित्रक अर्पित करके
गुरु के चरणों के समीप जाकर उन्हें भक्तिपूर्वक पवित्रक दे। फिर वहाँ से बाहर आकर
आचमन करे और गोबर से लिपे पुते मण्डलत्रय में क्रमशः पञ्चगव्य,
चरु एवं दन्तधावन का पूजन करे ।। ६५- ६७ ॥
आचान्तो
मन्त्रसम्बद्धः कृतसङ्गीतजागरः।
स्वपेदन्तः
स्मरन्नीशं बुभुक्षुर्दर्भसंस्तरे ।। ६८ ।।
अनेनैव
प्रकारेण मुमुक्षुरपि संविशेत्।
केवलम्भस्मशय्यायां
सोपवासः समाहितः ।। ६९ ।।
तदनन्तर
भलीभाँति आचमन करके मन्त्र से आवृत एवं सुरक्षित साधक रात्रि में संगीत की
व्यवस्था करके जागरण करे। आधी रात के बाद भोग- सामग्री की इच्छा रखनेवाला पुरुष मन
ही मन भगवान् शंकर का स्मरण करता हुआ कुश की चटाई पर सोये। मोक्ष की इच्छा
रखनेवाला पुरुष भी इसी प्रकार जागरण करके उपवासपूर्वक एकाग्रचित हो केवल भस्म की
शय्या पर सोवे ।। ६८-६९ ॥
इत्यादिमहापुराणे
आग्नेये पवित्राधिवासनविधिर्नाम अष्टसप्ततितमोऽध्यायः॥ ७८ ॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'पवित्राधिवासन की विधि का वर्णन'
नामक अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥७८॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 79
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