अष्टपदी २२
कवि
श्रीजयदेवजीकृत गीत गोविन्द सर्ग ११
सामोद दामोदर में ३ अष्टपदी
है। जिसका २०वाँ और २१ वाँ अष्ट पदि को पिछले अंक में आपने पढ़ा । अब यहाँ अष्ट पदि
२२ दिया जा रहा है। जिसका नाम सानन्द गोविन्दराग श्रेणिकुसुमाभरण है ।
गीतगोविन्द ग्यारहवाँ सर्ग अष्टपदी २२- सानन्द गोविन्दराग श्रेणिकुसुमाभरण
Ashtapadi
22
गीतगोविन्द सर्ग ११ सामोद दामोदर अष्टपदी २२- सानन्द गोविन्दराग श्रेणिकुसुमाभरण
श्रीगीतगोविन्दम् एकादशः सर्गः सामोद दामोदरः अष्ट पदि २२
गीतम् ॥२२॥
वराड़ीरागयतितालाभ्यां
गीयते ।
बालबोधिनी - एक सुकेशी हाथों में कंकण धारण कर, कानों में ढेर से पुष्प धारणकर लजाई हुई-सी
हाथ में चामर लेकर वीजन करती हुई जब दयित के साथ विनोदन करती है, ऐसे समय में उस वराङ्गना के गीत को वराड़ी राग कहा गया है ।
राधा - वदन-
विलोकन - विकसित- विविध-विकार - विभङ्गम् ।
जलनिधिमिव
विधु - मण्डल - दर्शन - तरलित- तुङ्ग-तरङ्गम् ॥१॥
हरिमेकरसं
चिरमभिलषित - विलासम् ।
सा ददर्श
गुरुहर्ष - वशंवद वदनमनङ्ग-निवासम् ॥ध्रुवपदम् ॥
अन्वय
- [एवं कुञ्ज
प्रवेशमुक्त्वा श्रीकृष्णस्य तद्दर्शनानन्द- विकारान् वर्णयन् तस्या स्तद्दर्शनमाह
] -सा (श्रीराधा) एकरसं (एकस्मिन्नेव आलम्बने श्रीराधारूपे रसो यस्य तं तस्याः
सर्वोत्तमत्व- निश्चयेन तदेकपरमित्यर्थः) [ननु अन्याङ्गनाभिः रममाणस्य
कुतस्तत्परत्वमित्यत आह] - चिरं (बहुकालं) अभिलषित-विलासं (पूर्वोक्तरूपेण
अभिलषितः आकाङ्क्षितः तया सह विलासो येन तम्) [अतस्तत्प्रसादावलोकनात्]
गुरुहर्षवशंवद-वदनं (गुरुहर्षस्य वशंवदम् आयत्तं वदनं मुखं यत्र तादृशं हर्षेण
स्मेराननमित्यर्थः) [अतएव] अनङ्गविकाशं (अनङ्गस्य कामस्य विकाशः यत्र तादृशं)
[तदेकनिष्ठत्वं दृष्टास्तेन स्पष्टयति] - राधावदनविलोकन विकसित-विविध- विकार -
विभङ्ग (राधावदनविलोकनेनैव विकसिताः प्रकटिताः विविधविकाराः कामजाः हर्षस्तम्भादयः
ते एव विभङ्गाः ऊर्म्मयः यत्र तादृशं) विधुमण्डलस्य चन्द्रमण्डलस्य दर्शनेन
तरलिताः चञ्चलीकृताः तुङ्गाः महान्तः तरङ्गाः यत्र तादृशं) जलनिधिं (समुद्रम्) इव
हरिं ददर्श [अत्र श्रीकृष्णसमुद्रयोः विकारोम्म्यश्च साम्यम्] ॥ १ ॥
अनुवाद - एकरस अर्थात् राधा विषयक अनुराग से युक्त तथा चिरकाल से श्रीराधा के साथ
विलास की अभिलाषा रखने वाले श्रीराधा- वदन अवलोकन जन्य हर्ष से प्रफुल्लित, श्रीकृष्ण रोमाञ्च आदि विविध सात्त्विक
मदन-विकाररूप भावों से युक्त हो रहे हैं। जिस प्रकार शशधर मण्डल के दर्शन से
समुद्र में उत्ताल-तरङ्ग समुदाय तरंगायित हो उठता है, उसी
प्रकार काम-रस के समुद्र स्वरूप, भावभङ्गिमा द्वारा
मदन-आसक्ति प्रकाशित करनेवाले श्रीकृष्ण को श्रीराधा ने निकुञ्ज गृह में देखा ।
पद्यानुवाद-
राधा वदन
विलोकनसे हैं विकसित विविध विकार
जैसे विधुको
जोह जलधि लहरों भर लाता ज्वार ।
बालबोधिनी - निकुञ्ज गृह में श्रीराधा ने श्रीकृष्ण को अत्यधिक स्नेह के साथ देखा, देखा श्रीकृष्ण की अनेक विशेषताओं को,
सारी विशेषताएँ श्रीराधा से ही सम्बन्धित । श्रीहरि समभावपूर्ण हैं,
एकरस हैं, एक ही शृङ्गार रस अपनी प्रधानता
बनाये हुए हैं, वे अनेक प्रकार के शृङ्गार रस के भावों से
परिपूर्ण हैं । राधाविषयक अनुराग ही उनमें उछल रहा है, चिरकाल
से श्रीराधा के साथ विलास करने की इच्छा संजोये हुए हैं, केलिकुंज
में श्रीराधा का आना ही उनके जीवन का सर्वस्व है, उनके दर्शन
से उनमें आनन्द का उद्रेक हो गया, अनेक प्रकार के कम्प-
पुलकादि सात्त्विक विकार उदित हो उठे। ऐसा लग रहा था जैसे श्रीराधा का मुखमण्डल
कामदेव का निवास स्थान है, जिसे देखकर श्रीकृष्ण का मुखमण्डल
हर्ष से दीप्त हो उठा है और अपनी मिलन इच्छा को पूर्ण करना चाहता है, मानो श्रीराधा का मुख चन्द्रमण्डल हो, जिसे देखकर
कृष्णरूपी समुद्र चञ्चल हो उठा हो और उसमें ऊँची-ऊँची तरंगें उच्छलित हो रही हों।
श्रीराधा ने देखा श्रीकृष्ण उन्हें देखते ही विविध काम भावनाएँ प्रकाशित करने लगे
हैं ॥ १ ॥
हारममलतर-तारमुरसि
दधतं परिलम्ब्य विदूरम् ।
स्फुटतर फेन -
कदम्ब – करम्बितमिव यमुनाजल-पूरम् ॥
हरि.... ॥ २ ॥
अन्वय
- [अतः परं
सप्तमं यावत् श्रीहरिमेव विशिनष्टि] - उरसि (वक्षसि) विदूरं परिलम्ब्य (सुदीर्घमित्यर्थः)
अमलतरतारं (अमलतरः अत्युज्ज्वलः) तारः मुक्ताफलं यस्य तादृशम्; मुक्ताशुद्धौच तारः स्यात् इति विश्वः)
हारं दधतं ( धारयन्तं) [अतएव] स्फुटतरफेन-कदम्ब करम्बित-यमुना -जलपूरम् (स्फुटतरेण
फेन-कदम्बेन-फेन-चयेन करम्बितं खचितं यमुना-जलस्य पूरं प्रवाहमिव स्थितं) [हरिं सा
ददर्श इति शेषः] । [अत्र यमुना-जल-पूरेण श्रीहरेः फेनसमूहेन च हारस्य साम्यम्] ॥२॥
अनुवाद – श्रीहरि ने निज विमल उर-स्थल पर निर्मल मुक्ताओं से रचित मनोहर हार का परिधान
कर रखा है, जो उनके
हृदय का बार-बार आलिङ्गन कर रहा है। ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो यमुना नदी का जल
स्फुट रूप में विराजमान फेन – समूह को धारण कर रहा है।
पद्यानुवाद-
उर पर लहराता
है हरिके अमल तारका हार,
मानो
फेन-कदम्ब करम्बित जमुना- जलकी धार ।
हुलस उठी राधा
मधुवनमें।
विलस उठी राधा
अति मनमें ॥
बालबोधिनी
- प्रस्तुत पद में श्रीकृष्ण
की उपमा यमुना के आपूरित जल प्रवाह से की गयी है, उनके नीलवर्ण वक्षस्थल को बार-बार आलिङ्गन करनेवाला शुभ्र
जानुपर्यन्त लटकता हुआ शुभ मुक्ताहार ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो
यमुना का नीला जल सफेद फेन से मिश्रित होकर प्रकाशित हो रहा हो अथवा यमुना के जल में
फेन मिल गया हो ।
प्रस्तुत पद
श्रीराधा- दर्शन से श्रीकृष्ण में उद्भूत स्वेद नामक सात्त्विक भाव के प्रकाशन को
भी सूचित कर रहा है।
श्यामल -
मृदुल - कलेवर - मण्डलमधिगत - गौरदुकूलम् I
नील-नलिनमिव
पीत- पराग- पटल-भर- वलयित - मूलम् ॥
हरि.... ॥३॥
अन्वय- अधिगत- गौरदुकूलं (अधिगतं प्राप्तं परिहितमिति यावत् गौरं
पीतं दुकूलं पट्टाम्बरं येन तं ) [ तथा] श्यामल मृदुल - कलेवर - मण्डलं ( श्यामलं
मृदुलञ्च कोमलञ्च कलेवर- मण्डलं यस्य तं यथोचितावयव - सन्निवेश-प्रतिपादनार्थं
मण्डलत्वेनोक्तिः) [अतः] पीतपरागपटलभरवलयितमूलं ( पीतेन परागाणां मध्यस्थरजसां पटल
भरेण समूहातिशयेन वलयितं वेष्टितं मूलं यस्य तं) नीलनलिनम् (नीलोत्पलम् ) इव [हरिं
ददर्श]। [नीलकमलेन श्रीहरेः परागेण च पीतवसनस्य साम्यम् ] ॥३॥
अनुवाद
– श्रीहरि ने अपने श्यामल
मृदुल कलेवर पर पीत वसन धारण किया है, ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो नीलपद्म सुवर्णपर्ण के पराग-निलय से
साङ्गोपाङ्ग सराबोर हो गया हो।
पद्यानुवाद-
श्यामल कोमल वपु
पर सज्जित सुन्दर गौर दुकूल,
पीत पराग पटल
है राजित ज्यों नलिनीके फूल ।
बालबोधिनी – श्रीहरि का श्रीविग्रह श्यामवर्ण है, जिस पर उन्होंने पीत वर्ण का पीताम्बर धारण कर रखा है,
वह इस प्रकार सुशोभित हो रहा है, जैसे नीलकमल
अपने पीले पराग से परिपूर्ण रूप से परिवेष्टित-मंडित हो रहा हो। इस बात की भी
सूचना दी जा रही है कि श्याम वर्ण के वक्षःस्थल पर तुम गौराङ्गी की शोभा भी
अत्यधिक होगी। इस प्रकार विपरीत रति भी प्रदर्शित हुई है।
तरल -
दृगञ्चल-चलन- मनोहर - वदन - जनित - रतिरागम् ।
स्फुट -
कमलोदर - खेलित - खञ्जन - युगमिव शरदि तडागम् ॥
हरि.... ॥ ४ ॥
अन्वय- तरल- द्रुगञ्चल-चलन- मनोहर वदन-जनित-रतिरागम् (तरलस्य
चञ्चलस्य दृगञ्चलस्य चलनेन कटाक्षक्षेपेण मनोहरं यत् वदनं तेन जनितः उत्पादितः
रतिरागः सुरतौत्सुक्यं येन तं) [अतएव] शरदि (शरत्काले)
स्फुटकमलोदर-खेलित-खञ्जनयुगम् (स्फुटं विकसितं यत् कमलं पद्मं तस्य उदरे अभ्यन्तरे
खेलितं क्रीड़ापरं खञ्जनयुगं यत्र तादृशं) तड़ागम् इव [हरिं सा ददर्श इति शेषः]
[अत्र श्रीहरे: तड़ागेन वदनस्य कमलेन, नयनयोश्च खञ्जनयुगलेन साम्यम्] ॥४॥
अनुवाद - जिन श्रीकृष्ण का मनोहर वदन शरद् काल के निर्मल सरोवर में विकसित नील कमल की
शोभा के समान है, उस मुख पर चंचल नयनों की अपाङ्ग भङ्गिमा श्रीराधा के प्रति इस प्रकार
मदन- अनुराग उद्दीप्त करा रही है, मानो कमल पर खञ्जन पक्षी
क्रीड़ापरायण हो रहे हों।
पद्यानुवाद-
तरल दृगंचल
चलन मनोहर वदन उदित रति- राग,
खेल रहे खंजन
कंजोदर मानो शरद तड़ाग ।
हुलस उठी राधा
मधुवनमें ।
विलस उठी राधा
अति मनमें ॥
बालबोधिनी - जब श्रीराधा ने निकुंज सदन में प्रवेश किया, तब श्रीकृष्ण के नेत्र अति चंचल हो उठे, उनके मन्द मन्द मुस्कान से युक्त अति मनोहर मुखड़े को देखकर श्रीराधा के मन
में रतिविलास करने की इच्छा उत्पन्न हो उठी। श्रीकृष्ण का सस्मित मुख उस शरद्कालीन
प्रफुल्लित कमल के समान लग रहा था, जिस पर दो खञ्जन पक्षी
क्रीड़ा कर रहे हों। वस्तुतः उनके नेत्रों की चंचलता क्रीड़ापरायण खंजरीट खगों के
(खञ्जन पक्षी के) समान लग रही थी । श्रीराधा को देखकर श्रीकृष्ण अविकारी ही रहे।
अतएव यहाँ उनकी उपमा शरदकालीन तड़ाग से दी गयी है।
प्रस्तुत
श्लोक में नेत्रों की चंचलता रतिराग को व्यक्त कर रही है, उनके भ्रू-क्षेप (कटाक्ष) श्रीराधा के
मन्मथ को अभिवृद्धित करनेवाले हैं। शरद्काल में खंजन खग का वर्णन उचित ही है। 'कमलोदर' पद से 'पद्मासन'
नामक रतिविशेष भी सूचित हुआ है। उनका मनोहर मुख युवतियों में रति की
अभिलाषा उत्पन्न करनेवाला है।
वदन-कमल-परिशीलन-मिलित-मिहिर-सम-कुण्डल-शोभम् ।
स्मित-रुचि-कुसुम-समुल्लसिताधर-पल्लव-कृत-रति-लोभम् ॥
हरि.... ॥५ ॥
अन्वय-
वदन-कमल-परिशीलन-मिलित-मिहिर-सम-कुण्डल-शोभम्
(वदनमेव कमलं तस्य परिशीलनाय विकाशाय मिलिताभ्यां समागताभ्यां मिहिरसमाभ्यां
सूर्यसदृशाभ्यां कुण्डलाभ्यां शोभा यत्र तादृशं सूर्यमण्डलद्वयमिव कुण्डलयुगलं
धारयन्त-मित्यर्थः) [तथाच] स्मित-रुचि-कुसुम-समुल्लसिताधर-पल्लव- कृत-रति-लोभम्
(स्मितरुचिः मृदुहास्यप्रभा स एव कुसुमं तेन समुल्लसितः यः अधर - पल्लवः तेन कृतः
उत्पादितः [तस्याः] रतिलोभो येन तादृशम्) [हरिं सा ददर्श ] ॥५ ॥
अनुवाद
– श्रीकृष्ण के वदन कमल की शोभा का परिशीलन करने के लिए अरुण
वर्ण के सदृश लोहित वर्णीय मणिमय कुण्डलद्वय अति सुन्दर रूप से शोभा पा रहे हैं
एवं रुचिर मन्द मन्द हास्यप्रभा की कान्ति से युक्त होकर उल्लसित, स्फूर्त्तियुक्त अधर - पल्लव श्रीराधा की
रति-लालसा को समुद्भूत करा रहे हैं।
पद्यानुवाद-
वदन कमल पर
रविसे राजित युग कुण्डल अति सुन्दर ।
हिल पल्लवसे
होंठ जताते चुम्बन हित ज्यों आतुर ॥
बालबोधिनी
- उस समय निकुंज में
श्रीकृष्ण के कानों में विभूषित दोनों कुण्डल ऐसे लग रहे थे मानो दो सूर्य उनके
प्रफुल्लित मुखकमल का स्पर्श प्राप्त करने के लिए कपोलों पर मिलित हो रहे हों। इस
प्रसंग से अर्थात् मिहिर-प्रकाश से रतिकाल का अन्त भी सूचित हो रहा है। उस पर भी
श्रीकृष्ण मन्द मन्द मुस्करा रहे हैं। स्मित कान्ति से उनका वदनकमल और भी रुचिर
एवं समुज्ज्वलित लग रहा है। उनके अधरपल्लव रति-लोभ की तृष्णा अभिव्यक्त कर रहे हैं
और श्रीराधा के अधर पान के लिए उत्कण्ठित हो रहे हैं। श्रीकृष्ण के ऐसे मुखकमल को
देखकर श्रीराधा के मन में भी रति - इच्छा समद्भूत हो गयी। श्रीराधा ऐसे सौन्दर्य -
सार भूषण श्रीकृष्ण को देखती रहीं ।
शशि-किरण-च्छुरितोदर
- जलधर - सुन्दर - सकुसुम - केशम् ।
तिमिरोदित-विधुमण्डल
- निर्मलमलयज - तिलकनिवेशम् ॥
हरि.... ॥६॥
अन्वय- शशि-किरण-च्छुरितोदर -जलधरसुन्दर -सकुसुमकेश (शशिनः
चन्द्रस्य किरणैः छुरितं व्याप्तम् उदरं यस्य तादृशः यः जलधरः तद्वत् सुन्दराः
सकुसुमाः कुसुमखचिताः केशाः यस्य तम्) [अत्र केशानां जलधरेण पुष्पाणाञ्च
इन्दूकिरणेन साम्यम्] [तथा च] तिमिरोदित-विधुमण्डल-निर्मल-मलयज-तिलकनिवेशं (तिमिरे
अन्धकारे उदितं विधुमण्डलमिव निर्मलः मलयजतिलक - निवेश: चन्दन-तिलक-विन्यासः यस्य
तम्) [हरिं सा ददर्श] [अत्र ललाटस्य तिमिरेण, तिलकस्य च इन्दुमण्डलेन साम्यम्] ॥६॥
अनुवाद – कुसुमों से अलंकृत श्रीकृष्ण का केश-पाश चन्द्रकिरणों से अनुरञ्जित होकर
नवजलधर माला के समान प्रतीत हो रहा है, ललाट पर धारण किया चन्दनतिलक इस प्रकार शोभा प्राप्त कर रहा
है, मानो निर्मल आकाश में अन्धकार के मध्य पूर्ण विधुमण्डल
उदित हुआ हो।
पद्यानुवाद-
घनमें इंदु
किरण सम सज्जित सुन्दर कुसुमित केश,
तिमिरोदित विधु
मण्डल मानो मलयज - तिलक-निवेश ।
हुलस उठी राधा
मधुवनमें ।
विलस उठी राधा
अति मनमें ॥
बालबोधिनी
– श्रीकृष्ण की सुन्दर अलकावली पुष्पों से समलंकृत हो रही थी।
उन प्रफुल्लित समुज्ज्वलित पुष्पों की शोभा ऐसी लग रही थी मानो काली काली घटाओं के
मध्य में चन्द्रमा छिप रहा हो। अथवा उन काले केशों के मध्य में चन्द्रकिरण व्याप्त
हो रही है अथवा बादलों के बीच में से चन्द्रमा उदित हो रहा हो। छोटे-छोटे बादलों के
बीच में जहाँ चाँदनी आलोकित होती है वहाँ फूलों के गुम्फन स्पष्ट दिखायी देते हैं।
जहाँ नहीं होती, वे कजरारे
बने रहते हैं। श्रीकृष्ण के श्यामवर्ण के मस्तक पर मलयगिरि का चन्दन का तिलक ऐसी
शोभा दे रहा था मानो अंधकार के बीच पूर्ण चन्द्रमण्डल उदित हुआ हो। श्रीराधा मिलन से
श्रीकृष्ण का परिधान एवं शृङ्गार गौरवर्ण हो गया है, श्रीराधामय
हो गया है। ऐसे गौरमय श्रीश्यामसुन्दर को श्रीराधा देखती रहीं ।
विपुल -
पुलक-भर-दन्तुरितं रति-केलि - कलाभिरधीरम् ।
मणिगण -
किरण-समूह- समुज्ज्वल- भूषण - सुभग- शरीरम् ॥
हरि.... ॥७ ॥
अन्वय- विपुल - पुलक-भर-दन्तुरितं (विपुलो महान् यः पुलकभरः
रोमाञ्चातिशयः तेन दन्तुरितं विषमीकृतं क्वचिदुतं क्कचिच्चानतमिति यावत् ) [ अतएव
तद्दर्शनात् हृदि उद्गतैः] रतिकेलिकलाभिः (सुरतक्रीड़ाविलासैः) अधीरं (व्याकुलं )
[तथाच] मणिगण-किरण-समूह- समुज्ज्वल-भूषण-सुभग- शरीरम् (मणिगणानां रत्नसमूहानां
परिहितानामित्यर्थः किरणसमूहैः समुज्ज्वलानि भूषणानि अलङ्काराः तैः सुभगं सुन्दरं
शरीरं यस्य तादृशं ) [हरिं सा ददर्श इति शेषः] ॥७ ॥
अनुवाद
- श्रीराधा- अवलोकन से श्रीकृष्ण का शरीर विपुल पुलकों से
रोमाञ्चित हो रहा है, रति-केलि-विषयक विविध कथा मन में समुदित होने से वे अति अधीर हो रहे हैं, श्रीविग्रह मणियों की किरणों से समुज्ज्वलित होकर अतीव मनोहर धुति को
धारण कर रहा है।
पद्यानुवाद-
विपुल पलक भर
ललक केलि रति दिखते अधिक अधीर ।
मणि गण किरण
समूह समुज्ज्वल भूषण सुभग शरीर ॥
बालबोधिनी - श्रीराधा श्रीकृष्ण को देख रही हैं कि उनका सम्पूर्ण शरीर पुलकित हो रहा है, अद्भुत रोमांच से युक्त हो रहा है, रति-क्रीड़ा के लिए वे एक विचित्र आकुल प्रत्याशा से अधीर तो हो ही रहे थे,
श्रीराधा-मिलन से तो रति-केलि-कला में उपयोगी चुम्बनादि क्रियाओं में
व्यस्त होने के कारण और भी चंचल हो उठे। मणिमय भूषणों की कान्ति से देदीप्यमान
होने के कारण उनका श्रीविग्रह अत्यधिक सुशोभित हो रहा था, जिन
आभूषणों को उन्होंने धारण कर रखा था, उन आभूषणों में लगी हुई
मणियों के किरणसमूह से सभी आभूषण चमचमा रहे थे-ऐसे मणिमय अलंकारों से सुन्दर
वपुवाले श्रीकृष्ण को श्रीराधा ने देखा ।
श्रीजयदेवकवि
- भणित- विभव- द्विगुणीकृत - भूषणभारम् ।
प्रणमत हृदि
विनिधाय हरिं सुचिरं सुकृतोदय - सारम् ॥
हरि.... ॥८ ॥
अन्वय
- [भोः साधवः]
श्रीजयदेव - भणित-विभव-द्विगुणीकृत- भूषण - भारं श्रीजयदेवस्य भणितमेव विभवः
समृद्धिः तेन द्विगुणीकृतः नितरां परिवर्द्धित इत्यर्थः भूषणस्य अलङ्कारस्य भार:
गौरवं यत्र तादृशं ) [यैः स्वयमलंकृतं ते अलङ्काराः जयदेवस्य उपमादि- वाग्विलासैः
द्विगुणीकृता इत्यर्थः ] [ तथा ] सुकृतोदयसारम् (सुकृतस्य पुण्यविशेषस्य य उदय
आविर्भावः फलमितियावत् तस्य सारभूतं) हरिं सुचिरं [ यथा तथा] हृदि (चित्तमध्ये)
विनिधाय (भक्तिभरण स्थापयित्वा) प्रणमत ॥८ ॥
अनुवाद
- श्रीजयदेव कवि द्वारा
विरचित विविध अलंकृत वाक्यरूप अलंकार से जिनके परिहित भूषण-राशि की शोभा द्विगुणित
हो गयी है, हे रसिक
भक्तों! कृत- पुण्यों के फलस्वरूप उन श्रीकृष्ण को हृदय में यत्न के साथ धारण कर
आप उन्हें प्रणाम करें।
पद्यानुवाद-
श्रीजयदेवकथित
हरि-वर्णन द्विगुणित भूषण भार,
हो हियमें
अंकित जब जनके उदित पुण्यका सार ।
हुलस उठी राधा
मधुवनमें ।
विलस रही राधा
उपवनमें ॥
बालबोधिनी
- प्रस्तुत प्रबन्ध के इस
आठवें पद्य के द्वारा कवि जयदेव कहते हैं कि हे भक्तजनों! कवि शिरोमणि जयदेव की
कविता के कारण श्रीकृष्ण के आभूषणों की शोभा द्विगुणित हो गयी है अथवा जयदेव कवि
द्वारा कथित श्रीकृष्ण का वैभव द्विगुणित अलंकारों से युक्त है। चिरकाल से सञ्चित
पुण्योदय के तत्त्वरूप श्रीकृष्ण को चित्त में धारण कर उन्हें प्रणाम कीजिए। बड़े
पुण्यों से ऐसे श्रीकृष्ण मन में उदित होते हैं, वे श्रीराधा के संग से जुड़कर द्विगुणित भूषण के भार से श्रीराधा
से जुड़कर द्विगुणित हो जाते हैं। ऐसे श्रीकृष्ण जिन्हें श्रीराधा निरन्तर देख रही
हैं, नित्यकाल के लिए हृदय में विराजमान हो जायें ।
श्रीगीतगोविन्द
काव्य के इस बाईसवें प्रबन्ध का नाम 'सानन्द गोविन्दराग श्रेणिकुसुमाभरण' है।
गीतगोविन्द ग्यारहवाँ सर्ग सामोद दामोदर
अतिक्रम्यापाङ्ग
श्रवणपथपर्यन्तगमन-
प्रयासेनेवाक्ष्णोस्तरलतरतारं
पतितयोः ।
तदानीं
राधायाः प्रियतम-समालोकसमये
पपात
स्वेदाम्बुप्रकर व हर्षाश्रुनिकरः ॥ १ ॥
अन्वय
- [अथ
श्रीकृष्णस्य श्रीराधिकादर्शनानन्द-विकारमुक्त्वा इदानीं
श्रीराधायास्तद्दर्शनानन्दविकारमाह ] - तदानीं प्रियतम-समालोक समये (प्रियतमस्य
श्रीकृष्णस्य दर्शनकाले) अपाङ्गम् (नेत्रप्रान्तं) अतिक्रम्य श्रवण पथपर्यन्त
गमनप्रयासेनैव (कर्णान्तपर्यन्तं बहुदूरमित्यर्थः गमनप्रयासेनैव ) तरलतर-तारं
(तरलतरा अतिचञ्चला तारा नेत्रकनीनिका यत्र तद्यथा तथा) पतितयोः राधायाः अक्ष्णोः
(नेत्रयोः अतृप्तयोरिति शेषः) स्वेदाम्भः - प्रकरः (श्रमजातधर्मजलप्रवाहः ) इव
हर्षाश्रुनिकरः ( आनन्दाश्रुचयः) पपात । [अत्रायं भावः - यः अत्यन्तं गच्छति
गतिवेगवशात् स घर्माक्तः भूमौ पतति पतित्वाच झटिति उत्थाय किमहं केनापि दृष्ट इति
सलज्जः तरलतरतारः दिशः अवालोकयति; द्रुततरगमनायासात् तस्य तनोः धर्मवारि प्रसरति च तद्वत्
श्रीकृष्णावलोकनसमये श्रीराधायाः नेत्रयुग्मम् अपाङ्गमतिक्रम्य कर्णयुगलं यावत्
गतं तेन च सुदूरगमनश्रमादिव आनन्दाश्रु- व्याजेन धर्मवारि निःससार ] ॥ १ ॥
अनुवाद
– प्राणेश्वर के मिलन
क्षणों में श्रीराधा के अतृप्त नयन – युगल ने अपाङ्ग को अतिक्रमण कर श्रवण-पथ
पहुँचने का प्रयास किया। इस प्रयास में चंचल बने नेत्रों से पसीने के प्रसार के
रूप में हर्ष ही अश्रु धारा बनकर प्रवाहित होने लगा ।
बालबोधिनी
– चिरकाल के विरह के
पश्चात् जब श्रीराधा का श्रीकृष्ण के साथ मिलन हुआ तो श्रीराधा के नेत्र अपाङ्गों
(कटाक्षपातों) का अतिक्रमण करके कानों तक पहुँच गये। इसी श्रम से मानो उनके
नेत्रों में पसीना आनन्दाश्रु के रूप में जलधारा के समान बहने लगा। इतने समय बाद
प्रियतम को देखा तो हर्ष स्थिर न रह सका, आँखों से छलछलाने लगा। रतिक्रीड़ा के आस्वादन से आँखें पसीना
पसीना हो गयीं। बड़ी-बड़ी आँखें कानों तक पहुँचना चाहती थीं और इसी प्रयास में
उनमें शैथिल्य आ गया। शिथिलता के कारण वे नमित हो गयीं, झुक गयी,
जलमय हो गयीं। नेत्र – प्रान्त का अतिक्रमण करके श्रवण पथ तक जाने के
प्रयास में स्वेद - अम्बु छलछलाया। नेत्रों में प्रिय दर्शन की आकांक्षा से अति
चंचलत्व तो हो रहा था।
श्रीराधा का
सात्विक भाव प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत श्लोक में उपमा अलंकार है और शिखरिणी छंद
है।
भजन्त्यास्तल्पान्तं
कृत-कपट - कण्डूति - पिहित-
स्मितं याते
गेहाद् बहिरबहिताली - परिजने ।
प्रियास्यं
पश्यन्त्याः स्मरशर- समाहूत-सुभगं
सलज्जा
लज्जापि व्यगमदिव दूरं मृगदृशः ॥ २ ॥
अन्वय
- [ततः
शय्यान्तिकं गतायास्तस्याः प्रियदर्शनावेशेन लज्जा विगलिता इत्याह ]
-कृत-कपट-कण्डूति- पिहित-स्मितं ( कृता या कपटकण्डूतिः छलकण्डुयनं तया पिहितम्
आच्छादितं स्मितम् ईषद्धास्यं यथा तथा) अवहिताली - परिजने ( तत्सुखानुकूल्ये
अवहितः सावधानः यः आलीपरिजनः सखीजनः तस्मिन्) गेहात् (निकुञ्जभवनात्) बहिः याते
(प्रस्थिते) [सति] तल्पान्तं (शय्यान्तिकं) भजन्त्याः (गच्छन्त्याः)
स्मरशरसमाहूतसुभगं ( स्मरशरेण समाहूतं यत् हास्यकटाक्षादिकं तेन सुभगं सुन्दरं
यथास्यात् तथा यद्वा स्मरशरसमाहूतसुभगमिति प्रियास्य- मित्यस्य विशेषणम्)
प्रियास्यं (श्रीकृष्णवदनं) पश्यन्त्याः मृगदृशः (मृगाक्ष्याः श्रीराधायाः)
लज्जापि सलज्जा [सती] दूरं व्यगमदिव (विशेषेण अगमदिव) [सखीसमक्षं श्रीराधा सलज्जा
आसीत् अधुना तासां कुञ्जभवनात् बहिर्गमनेन सा लज्जां विहाय यथाभिलषितं विजहार
इत्यर्थः] ॥ २ ॥
अनुवाद – श्रीराधा की सुखाभिलाषिणी सहचरियाँ कुरङ्गनयना राधिका को केशव की शय्या पर
उपवेशन करते देख सावधानी से कपट-कण्डूयन का बहाना करती हुई हास्य संवरण पूर्वक
निकुंजगृह से बाहर चली गयीं, तब स्मरपरवशा श्रीराधा अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के मुखमण्डल का मनोहर
कटाक्ष निक्षेप के द्वारा अवलोकन करने लगीं और उनकी लज्जा भी सलज्जभाव से वहाँ से
दूर चली गयी।
बालबोधिनी- ज्यों ही श्रीराधा ने लता – निकुंज में प्रवेश किया, सेज पर आसीन हुई तभी सावधान सखियाँ समझ गईं
कि अब उनके यहाँ रुकने का कोई औचित्य ही नहीं है, उनकी
उपस्थिति श्रीराधामाधव के मधुर मिलन में बाधक बन सकती है। वे चतुर सखियाँ बहाना
बनाने लगीं, कान आदि खुजलाने लगीं और मुस्कराते हुए लता-
निकुंज से बाहर चली गयीं। फूलों की शैया पर विराजमान श्रीराधा कामदेव के बाणों से
वशीभूत हो श्रीकृष्ण को ऐसे देखने लगीं मानो उन्हें पुनः स्मर के शरों से बींध रही
हों। श्रीराधा की ऐसी प्रगल्भता देखकर लता भी लज्जित हो गयीं और उस मृगनयनी
श्रीराधा को छोड़कर सखियों के समान स्वयं भी दूर चली गयीं। अब इस रति व्यापार में
लाज भी कहाँ रहेगी, देखते-देखते श्रीराधा ने श्रीकृष्ण को
प्राप्त कर लिया।
प्रस्तुत
श्लोक में रसवद् अलंकार एवं शिखरिणी छन्द है।
सानन्दं
नन्दसूनुर्दिशतु मितपरं सम्मदं मन्दमन्दं
राधामाधाय
बाहोर्विवरमनु दृढं पीडयन्प्रीतियोगात् ।
तुङ्गौ तस्या
उरोजावतनु वरतनोर्निगतौ मा स्म भूतां
पृष्ठं
निर्भिद्य तस्माद्बहिरिति वलितग्रीवमालोक्यन्वः ॥ ३ ॥
अनुवाद - नन्दपुत्र श्रीकृष्ण ने श्रीराधा को मन्द मन्द अपनी बाहों के अन्तराल में रखा, प्रीतिपूर्वक उनका गाढ़ आलिङ्गन किया। पुनः
ग्रीवा को घुमाकर ऐसे देखने लगे मानो श्रीराधा के उन्नत उरोज उनकी पीठ को भेदकर
बाहर न निकल जायें- ऐसे श्रीकृष्ण सभी का आनन्द विधान करें।
बालबोधिनी
- नन्दपुत्र श्रीगोपाल एवं
श्रीराधा का मिलन हुआ। इस मिलन से श्रीकृष्ण अतिशय आनन्द से परिपूर्ण हो गये और
धीरे-धीरे श्रीराधा को अपनी बाहों के विवर में भर लिया। श्रीराधा शिरीष कुसुमों से
भी बहुत अधिक सुकोमल हैं, इसलिए उन्हें बहुत कोमलता के साथ गले लगाया । पुनः अत्यन्त प्रीतिपूर्वक
श्रीराधा का गाढ़ आलिङ्गन किया। यहाँ 'दृढं पीडयन्' इस पद से श्रीकृष्ण का अतिशय अनुराग प्रकट हो रहा है। पुनः अपनी ग्रीवा को
वलायित करके उन्हें देखने लगे कि कहीं श्रीराधा के तुङ्ग उरोज उनकी पीठ को भेदकर
बाहर न निकल जायें। इस प्रसंग में श्रीराधा के उरोज पृष्ठ का काठिन्य एवं
तीक्ष्णत्व अभिव्यक्त हो रहा है। यहाँ श्रीराधा की प्राकृतिक रूप से अति रमणीयता
एवं सौकुमार्यता निदर्शित हुई है - वे फूलों से भी अधिक कोमल है।
प्रस्तुत
श्लोक में शृङ्गार रस, वैदर्भी रीति एवं प्रसाद गुण है ।
जयश्री - विन्यस्तैर्महित
इव मन्दार कुसुमैः
स्वयं
सिन्दुरेण द्विप-रण- मुदा मुद्रित इव ।
भुजापीड़-क्रीड़ाहत
- कुवलयापीड-करिणः
प्रकीर्णाग्बिन्दुर्जयति
भुजदण्डो मुरजितः ॥४ ॥
अन्वय
- [तत्र तया
अभिलाष - विशेषेण आलोच्यमानं श्रीकृष्णस्य भुजदण्डं स्मरन् तत्सौन्दर्यं वर्णयति
कविः] - भूजापीड़- क्रीड़ाहत - कुवलयापीड़करिणः (भूजापीड़ेन बाहुभ्यां सम्यक्
पीड़नेन क्रीड़या अवलीलया हतस्य कुवलयापीड़ाख्यस्य कंसकरिणः) प्रकीर्णासृग्विन्दुः
(प्रकीर्णाः विक्षिप्ता लग्ना यावत् असृग्विन्दवः शोणितविन्दवः यत्र तादृशः)
जयश्रीविन्यस्तैः ( जयश्रिया विजयलक्ष्म्या विन्यस्तैः अर्पितैः) मन्दा-कुसुमैः
(देवतरुपुष्पैः) महितः (अर्चितः) इव [जय श्रीपूजितत्वेन हेतुना उत्पेक्षान्तरमाह ]
- द्विप-रण- मुदा (द्विपेण करिणा सह यः रणः संग्रामः तेन मुदा हर्षेण) स्वयं
सिन्दूरेण मुद्रितः (राजितः) इव [ एतादृशः ] मुरजितः (मुरारेः श्रीहरेः) भुजदण्डः
जयति [अतएव विप्रलम्भानन्तरप्राप्यानन्देन सहितो गोविन्दो यत्र सोऽयम् एकादशः
सर्गः ) ॥ ४ ॥
अनुवाद - बाहु-युद्ध में कुवलयापीड़ नामक हस्ती को मार देने से रुधिर (रक्त) बिन्दुओं से
सुशोभित, हाथी के साथ युद्ध के उल्लास में सिन्दूर
से चिह्नित, विजय श्री द्वारा मन्दार पुष्पों से विभूषित
मुरजित कृष्ण का विशाल भुजदण्ड जयजयकार को प्राप्त हो।
बालबोधिनी
- कवि जयदेव कहते हैं कि
श्रीकृष्ण का मंगलकारी भुजदण्ड आपका कल्याण करे, उनकी भुजाएँ सर्वोत्कृष्ट हैं, जगत-वन्दनीय
हैं। वे मुरजित हैं। उन्होंने अपनी दण्डाकार भुजाओं से मुर नामक दैत्य को परास्त
कर दिया था। अपने इसी प्रचण्ड भुजदण्ड की क्रीड़ा से उन्होंने कंस के कुवलयापीड़
नामक हाथी को मार डाला था। उसको मारने से जो रक्त की बूंदें उनकी भुजाओं पर पड़ गई
थीं, उन्हें देखकर ऐसा लगता था मानो विजयलक्ष्मी ने स्वयं ही
पारिजात के फूलों से उनकी पूजा की हो। वे स्वयं भी उस हाथी को मारकर अत्यन्त
प्रसन्न हुए थे। उनकी इसी प्रसन्नता ने ही सिन्दूर का रूप धारण कर लिया था। ऐसा कहा
जाता है कि उन्हें हाथी के उन्नत कुंभ को देखकर श्रीराधा का स्मरण हो आया था। रक्त
बिन्दुओं से सुशोभित उनकी भुजाएँ आनन्दरूपी सिन्दूर से अलंकृत हो रही थीं अथवा
विजयश्री द्वारा अर्पित किये गये मन्दार पुष्पों से समलंकृत हो रही थीं ऐसा
प्रचण्ड भुजदण्ड आप सबका मंगल-विधान करे। हे श्रीकृष्ण के भुजदण्ड ! आपकी जय हो,
जय हो ।
प्रस्तुत
श्लोक में शिखरिणी छन्द है। अनुप्रास और उत्प्रेक्षा अलंकार की संसृष्टि है ।
पाञ्चाली रीति, आरभटीवृत्ति
तथा वीर रस है ।
सौन्दर्यैकनिधेरनङ्ग
- ललना - लावण्य-लीलाजुषो
राधाया हृदि
पल्वले मनसिज क्रीड़ेकरङ्गस्थले
रम्योरोजसरोजखेलनरसित्वादात्मनः
ख्यापय-
न्ध्यातुर्मानसराजहंसनिभतां
देयान्मुकुन्दो मुदम् ॥५ ॥
अनुवाद – सौन्दर्य की निधि, अनङ्गललना रति के सदृश लावण्यमयी श्रीराधा के हृदय-सरोवर के मनोहर रङ्ग
स्थल स्तन - कमल पर क्रीड़ा परायण हुए एकाग्रचित्त, अपना
ध्यान करने वालों के मानस राजहंसत्व को ख्यापित करनेवाले श्रीमुकुन्द आपको आनन्द
प्रदान करें।
बालबोधिनी
- श्रीमुकुन्द जो सभी
मनुष्यों को क्लेशों से मुक्त कर उन्हें आनन्द प्रदान करते हैं। प्रस्तुत श्लोक में
पाठक तथा श्रोताओं को आशीर्वाद देते हुए कवि शिरोमणि जयदेव का कथन है कि श्रीराधा
ही समग्र सौन्दर्य की एकमात्र निधि हैं, उनका वक्षःस्थल श्रीकृष्ण की क्रीड़ाभूमि है। कवि ने श्रीराधा
के वक्षःस्थल की उपमा सरोवर से की है। जिस तरह सरोवर में कमल विकसित होते हैं,
उसी प्रकार श्रीराधा के वक्षःस्थल-तड़ाग में दोनों स्तन ही मनोहर
कमल हैं, श्रीकृष्ण क्रीड़ा करनेवाले राजहंस हैं। ऐसे राजहंस
श्रीकृष्ण का जो लोग ध्यान करते हैं, उन ध्यान करनेवाले
ध्याताओं के हृदय – स्थल में विहार करनेवाले मानसरोवर के राजहंस के समान श्रीकृष्ण
अपने सभी भक्तों का मंगल विधान करें।
प्रस्तुत
श्लोक में रूपक एवं आशीः अलंकार है और शार्दूलविक्रीडित छन्द है।
इति
श्रीजयदेवकृतौ श्रीगीतगोविन्दे राधिकामिलने सानन्द- दामोदरो नामैकादशः सर्गः ।
इस प्रकार
सामोद दामोदर नामक ग्यारहवें सर्ग की समाप्ति हुई।
आगे जारी........ गीतगोविन्द सर्ग 12
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