गीतगोविन्द सर्ग ११ सामोद दामोदर

गीतगोविन्द सर्ग ११ सामोद दामोदर

कवि श्रीजयदेवजीकृत गीतगोविन्द के सर्ग १ से सर्ग १० तक को पिछले अंक में आपने पढ़ा । अब गीतगोविन्द सर्ग ११ जिसका नाम सामोद दामोदर है। साथ ही बीसवें सन्दर्भ अथवा बीसवें प्रबन्ध अथवा अष्ट पदि २० का वर्णन किया गया है। इस बीसवें प्रबन्ध का नाम 'श्रीहरितालराजिजलधरविलसित' है।

गीतगोविन्द सर्ग ११ सामोद दामोदर

श्रीगीतगोविन्दम्‌ एकादशः सर्गः सामोद दामोदरः

गीतगोविन्द सर्ग ११ सामोद दामोदर

Shri Geet govinda sarga 11 Samod Damodar

श्रीगीतगोविन्द ग्यारहवाँ सर्ग - सामोद दामोदर

अथ एकादशः सर्गः

सामोद - दामोदरः

सुचिर मनुनयेन प्रीणयित्वा मृगाक्षीं

गतवति कृतवेशे केशवे कुञ्जशय्याम् ।

रचित - रुचिर-भूषां दृष्टि मोषे प्रदोषे

स्फुरति निरवसादां कापि राधां जगाद ॥ १ ॥

अन्वय - [एवं प्रियां प्रसाद्य कुञ्जशय्यां गतवति श्रीकृष्णे]- कापि (सखी) दृष्टिमोषे (दृष्टि मुञ्चाति तमसावृणोति तथोक्ते दर्शनचौरे इत्यर्थः) प्रदोषे (सन्ध्यायां) स्फुरति (प्रकाशमाने सति) सुचिरं (दीर्घकालं व्याप्य) अनुनयेन मृगाक्षीं (श्रीराधां) प्रीणयित्वा (सन्तोष्य) कृतवेशे (परिहित शृङ्गारोचित-वेशे) केशवे (कृष्ण) कुञ्जशय्यां गतवति [सति] निरवसादां (अनुनयादिना अवसादरहितां स्फुर्तिमतीमित्यर्थः) [अतएव] रचित - रुचिर-भूषा (रचिता रुचिरा प्रियमनोहारिणी भूषा यया तां) राधां जगाद (वभाषे ) ॥ १ ॥

अनुवाद - मृगनयना श्रीराधा को चिरकाल तक अनुनय- विनय से प्रसन्न करके श्रीकृष्ण चले आये और मोहनवेश धारणकर निकुञ्ज मन्दिर स्थित शय्या पर अवस्थित हो उनकी प्रतीक्षा करने लगे, इधर दृष्टि- आच्छादनकारिणी सन्ध्या उपस्थित हुई तब विविध मनोहर अलङ्कार विभूषिता श्रीराधा से कोई सखी इस प्रकार कहने लगी-

पद्यानुवाद-

चिर अनुनयसे हो अनुकूल धरकर सुन्दर वेश,

जानेको उद्यत है जो अब कुंज शयन हरि देश ।

खेदरहित आतुर राधासे दृगहर संध्या काले

सखी एक हँस बोल उठी- हे मृगनयनी ! ब्रजवाले ॥

बालबोधिनी - इस प्रकार श्रीकृष्ण श्रीराधा का बहुत देर तक मनुहार करते रहे, अन्ततः श्रीराधा प्रसन्न हो गयीं और श्रीकृष्ण समाश्वस्त होकर निकुञ्ज गृह में केलि शय्या की रचना करने चले गये। मृगनयनी श्रीराधा उल्लसित हो गयीं। सारा खेद विषाद अपगत हो गया, हिरणी जैसी आँखों में भावों का उद्वेलन होने लगा। उनमें हर्ष समा गया। भीतर ही भीतर उमगने लगीं। अभिसरण के योग्य वेशभूषा नील निचोल (नीले वसन) को पहनने लगीं, जिसे कोई और न देख सके, उनसे मिलन योग्य मनोहर आभूषणों को स्वयं ही पहनने लगीं। इस आभरणों को भी कोई देख न सकेगा। तभी कोई सखी श्रीराधा से अनुरोधपूर्वक श्रीकृष्ण से मिलन के लिए प्रोत्साहित करते हुए कहने लगी- राधे, अब तो तुम्हें विश्वास हो गया न, मधुसूदन तुम्हारे अनुगत हैं। प्रदोष का अर्थ है- रात्रिकाल स्फुरित हो रहा है, इस समय दृष्टि में कुछ स्पष्ट नहीं होता।

प्रस्तुत श्लोक में मालिनी छन्द है ।

गीतगोविन्द सर्ग ११ अष्ट पदि २०- श्रीहरितालराजिजलधरविलसित

अथ विंश सन्दर्भः

गीतम् ॥२०॥

वसन्तरागयतितालाभ्यां गीयते ।

अनुवाद - श्रीगीतगोविन्द काव्य का यह बीसवाँ प्रबन्ध वसन्त राग तथा यति ताल में गाया जाता है।

विरचित चाटु-वचन - रचनं चरणे रचित - प्रणिपातम् ।

सम्प्रति मञ्जुल - वञ्जुल - सीमनि केलि - शयनमनुयातम् ॥

मुग्धे ! मधु - मथनमनुगतमनुसर राधिके ! ॥ १ ॥ ध्रुवम्

अन्वय- अयि मुग्धे (विचारमूढ़े) राधिके सम्प्रति (अधुना) विरचित चाटु-वचन-रचनं (विरचिता भङ्गया प्रतिपादिता चाटुवचनानां रचना येन तं) [चाटुवचनमात्रेण कथं ज्ञेयानुगतिः? तत्राह] चरण-रचित - प्रणिपातं (चरणे रचितः कृतः प्रणिपातः प्रणतिः येन तं पादानतमित्यर्थः) [त्वत्समीपे किमिति मया प्रार्थ्यते? तत्राह] सम्प्रति (तव प्रसादमालक्ष्य) मञ्जुलवञ्जुलसीमनि (मञ्जुलानां मनोज्ञानां वञ्जुलानां वेतसानां सीमनि मध्यप्रदेशे ) केलिशयनं (विहारशय्याम्) अनुघातम् (प्रस्थितम्) अनुगतं (शरणागतं) मधुमथनं (कृष्ण) अनुसर (अभिगच्छ) [अनुगतानु-गमनशैथिल्यात् मुग्धे इति सम्बोधनम्] ॥१ ॥

अनुवाद - हे मुग्धे राधिके ! विविध प्रकार के चाटुवाक्यों के अनुनय विनय द्वारा तुम्हारे चरणों में विनत होने वाले श्रीकृष्ण इस समय मनोहर वेतस वन के लता – कुञ्ज में केलि शय्या पर शयन कर रहे हैं, तुम उनके अनुगत होकर उनका अभिसरण करो।

पद्यानुवाद-

चल सखि, चल घनश्याम सदन में मंजुल वंजुल

कुंज केलि थल देख थके हरि तुझको पल-पल ।

की मनुहारे गिरे चरण तल भर लाये री नीर नयन में

चल सखि ! चल घनश्याम सदन में ॥

बालबोधिनी - सखी कहने लगी- हे राधिके। वे मधुरिपु श्रीकृष्ण तुम्हारे सम्पूर्ण रूप से अनुगत हो गये हैं। तुम उनके पास चलो एवं शीघ्र ही अभिसरण करो। देर मत करो। अपने मधुर-मधुर वचनों से उन्होंने तुमसे अनुनय विनय किया है। तुम्हारे चरणों में सर्वात्मभाव से प्रणिपात किया है। तुम्हारे स्वागत की तैयारी में संलग्न होकर इस समय वेतसी कुंज के अन्तर्गत केलि शय्या पर आसीन हो रहे हैं, तुम उनका अनुसरण करो हे मुग्धे ! तुम कितनी भोली हो, प्रिय के अभिसरण काल को भी नहीं जानती हो। चलो उनका अनुसरण करते हुए सर्वात्मभाव को प्राप्त हो जाओ।

प्रस्तुत श्लोक में 'राधिके' में '' प्रत्यय उसके मुग्धत्व को द्योतित करता है। मधुसूदन का अनुसरण करो। विलम्ब मत करो, यह ध्रुव पद है। तञ्जुल आदि विभाव से निकुंज उपादान इत्यादि प्रकट हो रहा है।

घन - जघन-स्तन- भार भरे ! दरमन्थरचरणविहारम् ।

मुखरित - मणिमञ्जीरमुपैहि विधेहि मरालनिकारम् ॥

मुग्धे.... ॥२॥

अन्वय - [एतन्निशम्य मौनेन सम्मतिमूहमाना शीघ्रं गमनप्रकारमाह] -अयि घन-जघन-स्तन-भारभरे (जघनेच स्तनौच जघनस्तनं घनं संहतं यत् जघनस्तनं तस्य भारस्य भरः अतिशयो यस्याः तत्सम्बुद्धौ) [अतएव] दर-मन्थर-चरण-विहारं (दरमन्थरः ईषन्मन्दः चरणविहारः पादविक्षेपः यथा स्यात् तथा) मुखरितमणिमञ्जीरं (मुखरितौ शब्दिती मणिमञ्जीरौ रत्ननूपुरौ यत्र तत् यथा तथा) उपेहि (कृष्णमुपगच्छ) [तेन] मरालनिकारं (मरालानां राजहंसानां निकारं परिभवं) विधेहि (गमनेन मरालं पराजयस्वेत्यर्थः); [नूपुर-ध्वनेर्हंसपरिभावित्वादिति भावः] ॥ २ ॥

अनुवाद - हे परस्पर गुरु भारयुक्त स्तन और जघन युगल शालिनि राधे ! तुम ईषत् मन्द मन्थर गति से चरणों को विन्यस्त करते हुए मणिरचित नूपुरों से मनोहर शब्द करते हुए मराल – गमन की शोभा को भी पराजित करते हुए श्रीकृष्ण के समीप चलो।

पद्यानुवाद-

जीन पयो धन सघन नव, मणि नूपुरका

झन-झन-झन खा ले मन्थर गति अति सखि ।

अभिनव हर हंसोंकी चाल चरणमें

चल सखि ! चल घनश्याम सदन में ॥

बालबोधिनी - स्थूल उरुद्वय एवं पीन पयोधरों से विभूषित श्रीराधा ! तुम स्तन भार एवं श्रोणी भार से झुकी जा रही हो। तुम धीरे-धीरे चलो, तुम्हारी विलम्बित लयमयी चाल हंसों को भी लज्जित करनेवाली है। तुम धीरे - धीरे मन्थर गति से उस मंजुल केलि–कुञ्ज में पधारो। अपने मणिमय नूपुरों से सुसज्जित कदमों को ऐसे विन्यस्त करो कि उनका मधुर रस-वर्द्धक नाद होता रहे। हे मुग्धे! अब इन शिथिल पादारविन्दों को पृथ्वी पर रखते हुए हंस की चाल को पराजित करते हुए मधुसूदन के समीप चलो। देर मत करो। इन मणिनूपुरों को मुखरित होने दो।

शृणुरमणीयतरं तरुणीजनमोहन - मधु-रिपु-वरावम् ।

कुसुम - शरासन शासन - वन्दिनि पिकनिकरे भज भावम् ॥

मुग्धे.... ॥३॥

अन्वय - [तत्र च गत्वा] - रमणीयतरं (अतिमनोहर) [अतएव] तरुणी-जन-मोहन-मधुरिपु-रावम् (तरुणीजनानां युवतीनां मोहनं मोहजनकं मधुरिपोः कृष्णस्य रावं वचनं) शृणुः [तथा] कुसुम-शरासन-शासन-वन्दिनि (कुसुम शरासनस्य पुष्पधन्वनः कामस्य शासनम् आदेशः " हे युवत्यः कान्तसन्नाहमन्तरेण मद्बाणात् अन्यो रक्षिता नास्ति, अतो मानं त्यजत" इति कामाज्ञा तस्य वन्दिनि स्तावके) पिक-निकरे (कोकिलसमूहे) भावं (अनुरागं) भज [इदानीं कोकिल समूहे कृतं विद्वेषं त्यक्त्वा तेषामालापं सुखेन शृणु इत्यर्थः] ॥ ३ ॥

अनुवाद - तुम तरुणियों के मन मोहक भ्रमरों (श्रीकृष्ण) के रमणीयतर सुमधुर वचनों का श्रवण करो। कन्दर्प के सुमधुर आदेश का प्रचार करनेवाले कोकिल समूह के गान में निज भावों को प्राप्त करो।

पद्यानुवाद-

मधुवाणी मोहनकी सुन ले

मोहित युवजन जिस पर गुन ले ।

कुसुम शरासन शासन धुन ले ॥

कूक उठी कोकिल मधुवन में ।

चल सखि । चल घनश्याम सदन में ॥

बालबोधिनी - सखि ! चल भी पड़ो। सुनो न, तुम्हारे अभिसार हेतु कितने ही मंगल संकेत हो रहे हैं। यह वसन्त ऋतु है। चहुँ दिशाओं से भ्रमरों का गुंजन निनादित हो रहा है। ये तुम्हारी नूपुर ध्वनि से ताल मेल बिठाने के लिए विकल हो रहे हैं। रमणीय तरुणीजनों के चित्त को मोहित करनेवाली इन भ्रमरों की ध्वनि सुनो, सखि! जैसा यह मधुप श्यामवर्ण का है वैसे ही श्रीकृष्ण श्यामवर्ण के हैं। उनके अभिसरण हेतु संकेत नाद तरुणियों के चित्त को मंगल कर देते हैं। भला उनकी सानुनयपूर्ण चाटुकारोक्तियाँ किसके मन को आन्दोलित नहीं करतीं। देखो, सुनो इस मधुमास में कामदेव की आज्ञाकारिणी कोकिलाएँ भी कूक उठी हैं। इनका पंचम स्वर मानो कामदेव की आज्ञा का उद्घोष कर रहा है। कामदेव की वन्दिनी होकर भी ये कूज रही हैं, तुम भी इन कोकिलाओं में अपने भावों को समाहित कर दो। कामदेव के आदेश को प्रसारित प्रचारित होने दो। कामदेव के कुसुमसायक मनोज की आज्ञा का डिम-डिम नाद (उद्घोष) करो। कामदेव का आदेश है-सभी विलासी तरुण-तरुणियाँ वसन्त ऋतु में उन्मुक्त विहार करें।

प्रस्तुत श्लोक में 'मधुप' शब्द से श्रीकृष्ण उपलक्षित हो रहे हैं।

'कुसुमशरासन शासन वन्दिनि पद से कोकिलाओं के विभावत्व को प्रकट किया गया है।

अनिल- तरल- किसलय-निकरेण करेण लतानिकुरम्बम् ।

प्रेरणमिव करभोरु ! करोति गतिं प्रति मुञ्च विलम्बम् ॥

मुग्धे.... ॥ ४ ॥

अन्वय - [मद्वचनमनुमोदमाना लतासन्ततिरपि त्वां प्रेरयतीत्याह] - अयि करभोरु ("मणिबन्धादाकनिष्ठं करस्य करभो बहिः" इति अमर - शासनात् करभः कनिष्ठाङ्गुलितो मणिबन्धपर्यन्तः करस्य बहिर्भागः तद्वत् यद्वा करिशावक शुण्डवत् ऊरु यस्याः तत्सम्बुद्धौ) लतानिकुरम्बं (लतासमूहः) [अपि] अनिलतरल-किशलयनिकरेण (अनिलेन वायुना तरलः चञ्चलः यः किशलयनिकरः तद्रूपेण) करेण प्रेरणमिव करोति; [तस्मात्] गति (गमनं) प्रति विलम्बं मुञ्च [अचेतनानुकूल्येनापि त्वच्चेतो न द्रवतीत्यभिप्रायः । वस्तुतस्तु उद्दीपनमेवैतत् सर्वम्] ॥४॥

अनुवाद - हे करिशुण्ड सम रमणीय उरु युगल शालिनि ! पवन वेग से चञ्चल लता-समुदाय नये-नये पल्लवों द्वारा मानो तुम्हें संकेत करते हुए प्रेरित कर रहा है। अतः हे करभोरु ! अब जाने में विलम्ब मत करो।

पद्यानुवाद-

लतापुंजके पल्लव हिलकर,

बुला रहे ज्यों उठा सहज कर,

हे करभोरु । गमन कर सत्वर ।

मद छाया है मलय पवनमें,

चल सखि ! चल घनश्याम सदनमें ॥

बालबोधिनी - सखी कहती है- हे करभोरु ! अर्थात् हाथी की सूँड़ के समान जंघाओं वाली! वायु से चञ्चल पल्लवरूपी हाथों से लताओं के समूह तुम्हें श्रीहरि के पास जाने की प्रेरणा दे रहे हैं, चलो, सारी प्रकृति तुम्हें आगे ले जाने के लिए विकल है, अब विलम्ब मत करो। यह मन्द मन्द बयार चल रही है। किसलय के आन्दोलन-संकेत तुम्हें प्रोत्साहित कर रहे हैं। अचेतन चेतन के समान तुम्हें प्रतिबोधित कर रहे हैं। अतः तुम्हारी इष्ट-सिद्धि अवश्यम्भावी है। त्वरित गति से चलो, जल्दी करो। तुममें अनुरक्त प्रियतम श्रीकृष्ण वञ्जुल लतागृह में विलास शय्या पर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। चलते समय तुम्हारे पैरों का ऊपरी हिस्सा हथेली या हथेली की ढलान जैसा लगता है।

स्फुरित- मनङ्ग-तरङ्ग-वशादिव सुचित हरि - परिरम्भम् ।

पृच्छ मनोहर - हार - विमल - जलधारममुं कुचकुम्भम् ॥

मुग्धं.... ॥५ ॥

अन्वय - [एवं भावमुद्दीप्य विकारान् दर्शयति] - यदि मद्वचन- मनात्मीयमिति मन्यसे तर्हि] - अनङ्गतरङ्गवशात् (कामावेशहेतोः) स्फुरितमिव (कम्पितमिव) [अतएव] सूचित-हरि-परिरम्भं (सूचितः प्रकटितः हरेः कृष्णस्य परिरम्भः आलिङ्गनं येन तथोक्तं) [वामस्तन- कम्पनं हि प्रियसङ्गमं सूचयतीति प्रसिद्धिः]; [तथा] मनोहर-हार-विमल-जलधारम् [मनोहर: हार एव विमला स्वच्छा जलधारा यत्र तादृशं [कुचोऽयं कलसत्वेन निरूपितः कम्पितश्चानङ्ग-तरङ्गवशात् तस्मात् हारोऽपि जलधारात्वेन निरूपितः] अमुं कुचकुम्भं पृच्छ (प्रियतम-समीपे गमनमधुन । युक्तं नवेति जिज्ञासस्व) ॥५ ॥

अनुवाद - मनोहर हाररूपी विमल जलधाराओं से परिशोभित अनङ्ग-तरङ्ग के वशीभूत श्रीहरि के परिरम्भण के सूचक अपने इन प्रस्फुरित कुच कुम्भों से ही पूछ कर देखो।

पद्यानुवाद-

प्रिय आलिंगनके आये क्षण,

मदन तरंगित कंपित मृदुतन ।

पूछ कुचोंसे हार धार जल ढरते ॥

जो वन कुम्भ शकुन में ।

चल सखि ! चल घनश्याम सदन में ॥

बालबोधिनी - सखी कहती है-हे राधे ! क्या सोच रही हो? अब तुम्हें और किस प्रमाण की आवश्यकता है। यदि तुम्हें मेरा विश्वास नहीं है तो मनोहर हाररूपी जलधारा वाले कुम्भ के समान अपने कुचों से पूछ लो । भला इनके प्रस्फुरण का कारण क्या है? ये कामदेव की तरंग से वशीभूत होकर तरंगायित हो रहे हैं और प्रिय आलिंगन की सूचना दे रहे हैं, इनकी रसधारा में ही श्रीहरि प्रेम सागर में निमग्न हो जायेंगे। इन्हें श्रीहरि के कर कमल स्पर्श की लालसा हो रही है। इन स्तनरूपी शकुन कलशों पर विद्यमान विमल मनोहर हार पावन एवं निर्मल जल की धारा के समान है। यही जल की धारा तरङ्गायमान होकर प्रिय प्राप्ति का संदेशा दे रही है । काम के आवेश से स्फुरित तुम्हारे स्तन ही तो फड़क कर शुभ शकुन बन रहे हैं। इसे अभिशाप समझकर अब तुम विलम्ब मत करो, शीघ्र चलो।

अधिगतमरिवल - सखीभिरिदं तव वपुरपि रति-रण- सज्जम् ।

चण्डि । रणित - रसना - व - डिण्डिममभिसर सरसमलज्जम् ॥

मुग्धे.... ॥ ६ ॥

अन्वय - [सम्प्रति माधवानुसरणे काञ्च्यादि-भूषणमेव त्वां वाद्यं व्यनक्तीत्याह] -अयि चण्डि (रतिरणप्रवीणे) [न केवलं तव मन एव, परन्तु] तव वपुः (शरीरम्) अपि रतिरणसज्जं (रतिरणे) सुरतसंग्रामे सज्जं (सज्जितं) [इति] अखिलसखीभिः (सहचरीवर्गैः) अधिगतं (परिज्ञातम्) [अन्यथा कथं काञ्च्यादि ग्रहणमति भावः] [अतः] रणितरसनारवडिण्डिमं (रणिता शब्दिता या रसना काञ्ची तस्याः रवः ध्वनिरेव डिण्डिमः रणवाद्यभेदः यत्र तादृशं यथा तथा) सरसम् (सोत्साहम्) [अतएव] अलज्जं (लज्जाशून्यं यथा तथा) अभिसर (प्रियाभिमुखमनङ्गरङ्गभूमिं याहि) [रणसज्जितस्य विलम्बो भीतिमेव आसञ्जयति इत्यर्थः] ॥ ६ ॥

अनुवाद - हे रतिरणनिपुणे! हे चण्डि ! तुम्हारा यह शरीर रति -रण हेतु सुसज्जित हो रहा है। यह विलक्षणता तुम्हारी सखियों ने जान ली है। अतः लज्जा का परित्याग कर मणिमय मेखला के मनोहर सिञ्जन से डिण्डिम ध्वनि करती हुई परमोत्साह के साथ अभिसरण हेतु गमन करो ।

पद्यानुवाद-

ज्ञात सखीसे लज्जित कैसे,

रति-रण-हित सज्जित है जिससे,

किंकिणी मिस बजती है जैसे।

मेरे स्मरकी सकल भुवनमें,

चल सखि ! चल घनश्याम सदन में ॥

बालबोधिनी - सखी श्रीराधाजी से कहती है कि अब क्यों ठसक रही हो, तुम्हारी अभिलाषा तो हद के पार चली गयी है। फिर ठहराव क्यों ? श्रीकृष्ण के साथ अभिसार करने में कैसी लज्जा, तुम्हारी सखियाँ ही हैं, बस यहाँ और कोई नहीं है। व्यर्थ ही क्यों कोप कर रही हो। तुम्हारी सभी सखियों को यह बात अच्छी तरह मालूम हो गई है कि तुम्हारा शरीर रतिरूप संग्राम के लिए तत्पर है। यह शरीर अलंकारों से मण्डित हो रहा है। अर्थात् रति-क्रीड़ा उपयोगी सम्पूर्ण उपादानों से विभूषित हो रहा है। युद्ध की वरांगना बनकर तुम प्रस्तुत हो रही हो । ठीक ही तो है जिस तरह युद्ध के लिए प्रयाण के समय विविध वाद्य बजाये जाते हैं। उसी तरह जब रति- रण के लिए तुम प्रस्थान करोगी तो उस समय करधनी में संलग्न घुँघरू बजने लगेंगे। उसी डिण्डिम घोष को करती हुई तुम लाज छोड़कर रस के प्रवाह में प्रवाहित होकर श्रीहरि के सन्निकट अनुराग के साथ अभिसरण करो । चलो, हे चण्डि ! संकेत स्थल की ओर उन्मुख हो ।

रण के लिए उद्यत श्रीराधा के लिए चण्डी विशेषण उचित ही है।

स्मर-शर- सुभग-नखेन सखीमवलम्ब्य करेण सलीलम् ।

चल वलय - क्वणितैरवबोधय हरिमपि निजगतिशीलम् ॥

मुग्धे.... ॥७ ॥

अन्वय- स्मर-शर- सुभग-नखेन (स्मरस्य कामस्य शराइव सुभगाः शोभना नखा यस्य तादृशेन तव पञ्च नखा एव सम्मोहनादीनि कामास्त्राणि इतिभावः) करेण (हस्तेन) सलीलं (सविलासं यथा तथा) सखीम् अवलम्ब्य चल (गच्छ) [गत्वाच] वलयक्वणितैः (कङ्कणसिञ्जनैः) निजगतिशीलं (निजगतौ त्वत्प्राप्तौ शीलं समाधिः चित्तैकाग्रतेति यावत् यस्य तादृशं हरिमपि (हरिञ्च) अवबोधय ( ज्ञापय, रणाय सावधानं कुरु इति भावः) [समीचीनो योद्धाहि प्रतिभटमवहितं कृत्वैव युध्यते इत्यर्थः]॥७॥

अनुवाद- तुम्हारे करकमल के रमणीय पञ्चनख रति- रणोपयोगी मदन के पंचबाण स्वरूप हैं। इनसे अपनी सखी का आश्रय करके तुम लीलापूर्वक चलो। प्रख्यात शीलमय श्रीहरि को भी अपने वलय की क्वणित ध्वनि से अवबोध करा दो।

पद्यानुवाद-

स्मर-शर-सम नख, कर निज सुन्दर,

दे हाथोंमें सखिके सत्वर,

खन-खन वलय बजा शैया पर ।

चल हारे हरि शील दयनमें,

चल सखि ! चल घनश्याम सदन में ॥

बालबोधिनी - सखी श्रीराधाजी से कहती है- हे सुभगे ! तुम्हारे इन कोमल मनोहर हाथों के नाखून कामदेव के पंच- बाणरूपी पुष्प हैं। इन सुन्दर नखवाले हाथों से बड़े हाव-भावपूर्वक सखी का हाथ पकड़कर लीलापूर्वक चलो। ये नख काम के बाण के समान ही बेधक हैं। इस रतिरण में ये मनोहर नख ही तुम्हारे शस्त्रास्त्र हैं। जिस प्रकार कोई योद्धा अपने प्रतिद्वन्द्वी को सूचित करके ही युद्ध में प्रवृत्त होता है। उसी प्रकार तुम भी अपने हाथों के कंकण की ध्वनि से, अपनी चूड़ियों की झंकार से कामदेव के वशीभूत प्रतीक्षारत श्रीकृष्ण को अपने आगमन को जता दो। वे अपनी तैयारी में लगे हैं, अपने मन की अभिलाषापूर्ण करना चाहते हैं। उन्हें सूचित करके ही तुम रतिरण में प्रवृत्त होओ।

श्रीजयदेव - भणितमधरीकृत - हारमुदासितरामम् ।

हरि - विनिहित - मनसामधितिष्ठतु कण्ठतटीमविरामम् ॥

मुग्धे.... ॥८ ॥

अन्वय- अधरीकृतहारं (अधरीकृतः तिरस्कृतः हारः येन इदमेवगीतं परमं कण्ठभूषणमित्यर्थः) उदासितरामं (उदासिता तिरस्कृता रामा उत्तमा रमणी येन तथाविधं सुन्दर्या रमण्या अपि सुन्दरतरमित्यर्थः) श्रीजयदेवभणितं (श्रीजयदेवभाषितं) हरि-विनिहित-मनसां (हरौ कृष्णे विनिहितम् अर्पितं मनो येषां तादृशानां कृष्णभक्तानामित्यर्थः कण्ठतर्टी (कण्ठदेश) अविरामम् (निरन्तरम्) अधितिष्ठतु (कृष्णार्पितचित्ताः सततं जयदेवगीतं कीर्त्तयन्तु इति भावः) ॥८॥

अनुवाद - श्रीजयदेव कथित यह गीत भूषण स्वरूप मनोहर हार तथा मनमोहिनी वराङ्गना को तिरस्कृत करनेवाला है, जिनका मन श्रीकृष्ण के प्रति समर्पित हो गया है, ऐसे भक्तों के कण्ठ में यह गीत अविरल रूप से विराजित हो ।

पद्यानुवाद-

श्रीजयदेव कथित यह कविता कण्ठहार हो जिनकी ।

रहे न इच्छा हार ग्रहण की वामा यौवन धनकी ॥

बालबोधिनी - श्रीजयदेव कवि द्वारा कहा गया यह गीत रत्नों के हार को तिरस्कृत करनेवाला, युवतियों को उदासीन बनानेवाले भगवद्भक्तों के कण्ठ में सदा निवास करे। यह हार अधरीकृत है। जो मुक्तादि से ग्रथित हार को अवदोलित करनेवाला है। जिन पराशर आदि वैष्णवों का चित्त भगवान में लगा हुआ है, वे लोग रत्नों के हार को नहीं, जयदेव कथित इस हार को धारण करेंगे। वे ही वैष्णव इस गीत को अपने कण्ठ से आलिङ्गित करेंगे-किसी रमणी को नहीं। यह हार इन्हीं वैष्णवों के गले में विराजेगा। हार और रमणी तो सांसारिक रागियों के गले को अलंकृत करते हैं, और वे भी सभी अवस्थाओं में नहीं बल्कि तारुण्यावस्था में ही। जयदेव कवि कृत यह गीत श्रीहरि विषयक होने से भगवद्भक्तों के कण्ठ को सभी अवस्थाओं में समलंकृत करे।

प्रस्तुत अष्टपदी में शृङ्गार विप्रलम्भ नामक रस है । उत्तम नायक है। श्रीहरितालराजिजलधरविलसित नामका यह बीसवाँ प्रबन्ध सम्पूर्ण हुआ ।

गीतगोविन्द सर्ग ११ सामोद दामोदर

सा मां द्रक्ष्यति वक्ष्यति स्मरकथां प्रत्यङ्गमालिङ्गनैः ।

प्रीतिं यास्यति रंस्यते सखि समागत्येति संचिन्तयन् ॥

स त्वां पश्यति वेपते पुलकयत्यानन्दति स्विद्यति ।

प्रत्युद्गच्छति मूर्च्छति स्थिर तमःपुञ्जे निकुञ्जेप्रियः ॥१ ॥

अन्वय - [अथ सखी श्रीराधां त्वरयितुं श्रीकृष्णस्य अत्युत्कण्ठामाह] -सा (प्रिया मे) समागता मां द्रक्ष्यति; [दृष्ट्वा च] स्मरकथां (प्रेमालापं) वक्ष्यति [ततश्च] प्रत्यङ्गं (अङ्ग अङ्गे) आलिङ्गनैः प्रीतिं यास्यति (प्राप्स्यति); [प्रीतियुक्ता सती] [मया सह] रंस्यते (विहरिष्यति) - इति चिन्ताकुलः [सन्] अयि सखि, स्थिरतमःपुञ्जे (स्थिरं गाढं तमःपुञ्ज यस्मिन् तादृशे तमाल-वनान्धकार- निविड़े) निकुञ्जे सः [तव] प्रियः (श्रीकृष्णः ) त्वां पश्यति (स्वहृदये त्वामेव निरीक्षते ) [दृष्ट्वाच] वेपते ( स्मरावेशेन कम्पते) पुलकयति (तत्तत्स्मरणात् सञ्जातरोमाञ्चो भवति) [तव सुरतप्राप्त्याशया] आनन्दति; स्विद्यति (त्वच्चिन्तया घर्मातो भवति) [सैषा प्रिया मे आगतेति सम्भाव्य] प्रत्युद्गच्छति [ततश्च] मूर्च्छति ॥ १ ॥

अनुवाद - हे सखि ! तुम्हारे प्रियतम श्रीकृष्ण निकुञ्ज में निविड़ अंधकार से आवृत्त हो चिन्तातुर हो रहे हैं कि श्रीराधा कब आकर मुझे प्रीतिपूर्ण नेत्रों से देखेगी। मदन- अभिलाषा सूचक रसपूर्ण बातें कहेगी । अङ्ग-प्रत्यङ्ग का आलिङ्गन कर प्रसन्न होगी, रमण करेगी। इस प्रकार आपको प्रत्यक्ष की भाँति देख रहे हैं, आवेश में कम्पित हो रहे हैं, विपुल पुलक और असीम आनन्द से उत्फुल्ल हो रहे हैं। पसीने से परिप्लुत हो रहे हैं, तुम्हें आया जान उठकर खड़े हो रहे हैं और प्रबल आनन्दावेश से मूर्च्छित हो रहे हैं।

पद्यानुवाद- 

स्थिरतम पुंजे वेतस कुंजे चिन्तातुर हरि राधे ।

"वह देखेगी मुझे कहेगी स्मरवणी भुज बाँधे ॥

चाहेगी क्रीडारत होगी" कह यों भ्रममें भूले।

तुझे देखते कँपते-हँसते रोते गिर हिय हूले ॥

बालबोधिनी - सखी कह रही है-राधे ! श्रीहरि सघन अंधकार में बैठे हुए हैं। उस निकुंज में अति विचित्र राग- अनुरागमय क्रिया-कलाप कर रहे हैं। उमड़ उमड़ कर शृङ्गारिक चेष्टाएँ कर रहे हैं। उस लताकुंज में अति चिन्ताकुल होकर सोच रहे हैं। सोच-सोचकर विलस रहे हैं- राधा मुझे देखेगी। मेरे साथ मधुर मंदिर उन्मादमयी रसीली बातें करेगी। मेरे अंग-अंग का आलिंगन कर प्रसन्न हो जायेगी । तदनन्तर मेरे साथ रतिक्रीड़ा हेतु उद्यत होगी । इस प्रकार अनेकों मनोरथों से उल्लसित होकर हुलस रहे हैं। श्रीकृष्ण आपको ध्यान में देखते हैं। आपका अवलोकन कर सिहर उठते हैं, पुलकायमान हो जाते हैं। स्वप्निल समागम रस मुख की अनुभूति करने लगते हैं। रतिकेलि क्रम विकास में उमगते हुए स्वेदपूर्ण हो जाते हैं। भाव-स्वप्न में तुमको देखकर उठ खड़े होते हैं और यथार्थ में तुम्हें न देखकर मूर्च्छित हो जाते हैं।

प्रस्तुत श्लोक में शार्दूल विक्रीडित छन्द, दीपक अलंकार एवं अष्ट सात्त्विक विभाग हैं-

(१) स्तम्भ तथा वैवर्ण्य - निविड़ अन्धकार में शृङ्गारिक चेष्टाएँ तथा चिन्ताकुल होकर श्रीराधा को दूर-दूर तक

देखना ।

(२) वेपथु तथा रोमाञ्च– सुप्तभाव में श्रीराधा का कामकेलिवर्द्धक वार्तालाप का चिन्तन कर काँपना एवं पुलकित होना।

(३) अश्रु तथा स्वेद- कल्पना में श्रीराधा द्वारा प्रत्येक अंग- आलिङ्गन के आनन्द की अनुभूति करना और रतिक्रम विकास में पसीने से तर होना ।

(४) स्वरभङ्ग तथा प्रलय-रमण हेतु श्रीराधा को बुलाने में असमर्थ होना और श्रीराधा के न मिलने पर मूर्च्छित हो जाना।

अक्ष्णोर्निक्षिपदञ्जनं श्रवणयोस्तापिच्छ गुच्छावलीं ।

मूर्द्धिन् श्यामसरोजदामकुचयोः कस्तूरिका - पत्रकम् ॥

धूर्त्तानामभिसार-सत्वर - हृदां विष्व‌निकुञ्जे सखि ।

ध्वान्तं नील - निचोल - चारु सुदृशां प्रत्यङ्गमालिङ्गति ॥ २ ॥

अन्वय - [अथान्धकारे अभिसारोचितवेशोपकरणमपि एतदेवेत्याह] - अयि सखि निकुञ्जे विष्वक् (सर्वतोव्यापि) नीलनिचोलचारु (नीलनीचोलादपि चारु मनोज्ञः सर्वाङ्गावरकत्वेन आलिङ्गनमुत्प्रेक्षितम्) ध्वान्तं (तमः) धूर्त्तानाम् (परवञ्चकानाम्) अभिसार-सत्वर - हृदां (अभिसारे सत्वरं त्वरान्वितं हृत् हृदयं यासां तथाभूतानां); [परवञ्चकतया कदाचित् सत्वरम् अभिसरेत् इत्यतो विलम्बो न कार्य इति भावः ] सुदृशां (सुलोचनानां रमणीनां) अक्ष्णोः (नेत्रयोः) अञ्जनं (कज्जलं ) श्रवणयोः (कर्णयोः) तापितच्छ-गुच्छावलीं (तापिच्छानां तमालानां गुच्छावलीं कुसुमस्तवकश्रेणीं कर्णभूषण भूतामित्यर्थः) मूर्द्धनि (शिरसि) श्याम सरोज दाम (नीलोत्पलरचितां मालां) [तथा] कुचयोः (स्तनयोः) कस्तूरिकापत्रकं (मृगनाभि रचित पत्र - भङ्ग-लेखा ) निक्षिपत् (दूरं प्रेरयत् स्वयं तत्तद्रूपेण परिणमदिति भावः) प्रत्यङ्गं (अङ्गे अङ्गे) आलिङ्गति (प्रियाभिसारानुकूल्येन सुखं ददातीत्यर्थः) ॥ २ ॥

अनुवाद - हे सखि ! देखो, निकुंज में चारों ओर घिरा हुआ अंधकार अभिसार में चंचलमना सुनयना कामिनियों का अञ्जन हैं, कानों में तमाल की गुच्छावली है, मस्तक पर विराजित श्याम-कमल की माला है, कुच-कुम्भ में विरचित कस्तूरि का चित्र बना है। रमणीयतर रूप से आवृत यह अंधकार नीले वसन से भी मनोहरतर आवरण रूप में धूर्तों के साथ अभिसार के उत्साह से युक्त रमणियों के प्रत्येक अङ्ग-प्रत्यङ्ग को कैसे आलिङ्गित कर रहा है ॥ २ ॥

बालबोधिनी - सखी कह रही है-राधे श्याम सघन केलि-कुंज में बैठे हैं, जहाँ सारे संसार का अंधकार मानो वहीं सिमट गया हो। कितनी उत्कण्ठा है उन्हें कितनी आकुलता है और कितनी बेवसी, अब विलम्ब मत करो। रात्रिकाल में अभिसारिकाओं के लिए अंधकार उत्तम नीले वस्त्रों के प्रिय मिलन हेतु हलन चलन-गमन को कोई भी तो नहीं जान पाता। नील वर्णवत् यह अंधकार भी नील वर्ण होने के कारण अभिसारिकाओं को अति प्रिय होता है। यह अंधकार ही धूर्त नायकों के साथ अभिसार की तथा रमण की इच्छा रखनेवाली नायिकाओं का चारों ओर से आलिङ्गन करता है, निकुंजों में धूर्तों के साथ रमण की महा उत्कण्ठा उद्भूत कर देता है । यही अंधकार उन अभिसारिकाओं का अञ्जन है। कानों में कृष्णवर्ण का मयूरपिच्छ-पुच्छ कर्णाभिराम है और तमालपत्र का काम भी यही करता है। उन नायिकाओं के हृदयों में नील कमलों का हार है और कुचों पर कस्तूरी के रस की चित्र रचना है। इस प्रकार यह नील वर्ण का अंधकार आपके प्रत्येक अंग का आलिङ्गन करते हुए आपको अलंकरण प्रदान कर अलंकृत कर रहा है। अतः संकेत स्थल के उपयुक्त आभूषणों को धारण कर गाढ़ अंधकार में ही आप चलें, विलम्ब न करें। हर एक मुरमुट में अत्यन्त चतुर रसिकों के अभिसार के लिए पूरा वातावरण अनुकूल है। यह रात ही नील वसन है अपने निस्सीम विस्तार में अंग-अंग को लपेटी सी है। चलो शीघ्र चलो। कहीं विपक्ष आदि की अन्य अभिसार का वहाँ अभिसार न कर ले उससे पूर्व ही तुम्हें वहाँ उपस्थित हो जाना चाहिए। इस समय नेत्रों में काजल कानों में कर्णभूषण, गले में हार, कुचों पर कस्तूरीपत्र - भङ्ग रचना आदि की आवश्यकता नहीं। शीघ्र चलो ॥ २ ॥

काश्मीर - गौर - वपुषामभिसारिकाणा-

माबद्ध-रेखमभितो रुचिमञ्जरीभिः ।

एतत्तमालदल - नील- तमं तमिस्त्रं

तत्प्रेम - हेम- निकषोपलतां तनोति ॥ ३ ॥

अन्वय - [किञ्च प्रेमपरीक्षण कारणमप्येतदेवेत्याह]- एतत् तमाल-दल-नीलतमं (तमालदलवत् नीलतमम् अतिनीलम्; एतेन अन्धकारस्य निविड़ता प्रतिपादिता तमालवन विहारश्च) तमिस्रं (तिमिरं) काश्मीर- गौर-वपुषाम् (काश्मीरं कुङ्कुमं काश्मीरगौरवत् गौरं वपुः शरीरं यासां तासाम्) अभिसारिकाणां (कान्तसङ्केतं गच्छन्तीनां नारीणां) रुचिमञ्जरीभिः (लावण्यकिरणैः) अभितः (सर्वतः) आवद्धरेखं (संलग्नरेखं सत्) तत्प्रेम-हेम- निकषोपलतां (तासां प्रेम एव हेम काञ्चनं तस्य निकषोपलतां परीक्षापाषाणतां कष्टि पाथर इति भाषा) तनोति (विस्तारयति; तद्वत् शोभते) [यथा निकष-पाषाणे सुवर्णशुद्धि -जिज्ञासा, तथा तासां घनान्धकारे निःसाध्वसतया गमनेऽपि जिज्ञासा इति भावः] ॥ ३ ॥

अनुवाद निकुञ्ज में सर्वत्र प्रसरित तमाल वृक्ष के पत्र सदृश नीलतम, यह निविड़ अन्धकार कुङ्कुम की भाँति सुवर्ण-वर्णा गौर देहमयी अभिसारिका नायिकाओं के रमणीय आलोकरूपी मञ्जरी के रूप में इस प्रकार प्रतीयमान हो रहा हैं, मानो श्रीकृष्ण के प्रेम रूप स्वर्ण की निकष (पाषाण) हो ।

बालबोधिनी - सखी कह रही हैं हे प्रिये! केसर की कांति के समान शरीरवाली अभिसारिकाओं के लिए मणिमञ्जरियों से चारों ओर रेखांकित हो तमालपत्रों के समान अत्यन्त नीला यह अन्धकार प्रेमरूपी स्वर्ण की कसौटी है। यह अन्धकार कसौटी का प्रस्तर बन स्वयं को प्रस्तुत कर रहा है। इसी अन्धकार निकष पर सुन्दरियों का इन केसरदल सरीखी रमणी-बालाओं के प्रेम का सोना परखा जायेगा। सोने का रंग ही कसौटी पर परखा जाता है। कसौटी का रंग सोने पर नहीं चढ़ता। श्रीराधा तुम और यह अन्धकार मानो सुवर्णपट्टिका के ऊपर नीली नीली कसौटी है न कि प्रेम स्वर्ण के ऊपर कसौटी- अब शीघ्र अति शीघ्र अभिसरण स्थल पर चलो।

प्रस्तुत पद में उपमा अलंकार तथा वसन्ततिलका छंद है।

हारावली - तरल-काञ्चन - काञ्चि- दाम

मञ्जीर - कङ्कण- मणि-द्युति-दीपितस्य ।

द्वारे निकुञ्ज - निलयस्य हरिं विलोक्य

व्रीडावतीमथ सखीमियमित्युवाच ॥४॥

अन्वय- अथ इयं (सखी) हारावली- तरल-काञ्चन- काञ्चिदाम - मञ्जीर कङ्कण-मणिद्युति-दीपितस्य (हारावल्याः तरलानां मध्यगानां मणीनां) (धुकधुकी इति भाषा) तथा काञ्चन - काञ्चिदाम्नोः मञ्जीरयोः कञ्चणयोश्च मणीनां राधा- परिहितानामिति शेषः द्युतिभिः किरणैः दीपितस्य (प्रोज्ज्वलीकृतस्य ) निकुञ्ज - निलयस्य (लतागृहस्य) द्वारे [अत्युत्सुकं] हरिं विलोक्य ब्रीड़ावत (रन्तुमुद्यतामपि लज्जया तत्पार्श्वमभजमानां) सखीम् (राधाम्) इति (वक्ष्यमाणं वचनं) निजगाद ॥४॥

अनुवाद – हारों के मध्य में विराजित धुकधुक (मणि) से सुवर्णमयी काञ्ची (करधनी) से कुण्डलों तथा कंकणों में संलग्ना मणियों की कान्ति से निकुञ्जवन समुद्भासित हो गया, वहाँ केलिगृह द्वार पर विद्यमान श्रीहरि को देखकर श्रीराधा लज्जावती हो गईं, तभी सखी श्रीराधा से कहने लगी-

बालबोधिनी - लजायी सी श्रीराधा सखी के प्रोत्साहित करने पर जब निकुंज गृह में पहुँचती है तो श्रीहरि को वहाँ विद्यमान देखकर और भी लज्जित हो जाती है । निकुञ्ज द्वार उनके आभूषण की कान्ति से उनके मुक्ताहार की उज्ज्वलता से, उनकी सोने की करधनी की दीप्ति से, उनके पुखराज और कान की मणियों की द्युति से दीपित हो उठता है। उसी आलोक में उसे प्रतीक्षारत श्रीकृष्ण दीख जाते हैं- देखते ही लाज से भर जाती है। उचित ही तो है कामवती युवतियों के प्रथम सङ्गम में लज्जा किसी कामातिशयता का ही विधान करती है। अब सखि उन्हें आगे पैर रखने के लिए अनुरोध करती है।

प्रस्तुत पद में वसन्ततिलका छंद है।

इति विंश: सन्दर्भः ।

इस प्रकार श्रीगीतगोविन्द महाकाव्य में चतुर चतुर्भुज नामक सर्ग ११ की बीसवाँ सन्दर्भ 'श्रीहरितालराजिजलधर विलसित' नामक अष्ट पदि २० की बालबोधिनी वृत्ति समाप्त ।

आगे जारी........ गीतगोविन्द सर्ग 11 सामोद दामोदर अष्ट पदि 21  

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