गीतगोविन्द सर्ग १० चतुर चतुर्भुज

गीतगोविन्द सर्ग १० चतुर चतुर्भुज

कवि श्रीजयदेवजीकृत गीतगोविन्द के सर्ग १ से सर्ग  तक को पिछले अंक में आपने पढ़ा । अब गीतगोविन्द सर्ग १० जिसका नाम चतुर चतुर्भुज है। साथ ही उन्नीसवें सन्दर्भ अथवा उन्नीसवें प्रबन्ध अथवा अष्ट पदि १९ का वर्णन किया गया है। इस उन्नीसवें प्रबन्ध का नाम 'चतुर्भुजरागराजिचन्द्रोद्योत' है।

गीतगोविन्द सर्ग १० चतुर चतुर्भुज

श्रीगीतगोविन्दम्‌ दशमः सर्गः चतुरचतुर्भुजः

गीतगोविन्द सर्ग १० चतुर चतुर्भुज

Shri Geet govinda sarga 10 Chatur chaturbhuj

श्रीगीतगोविन्द दसवाँ सर्ग - चतुर चतुर्भुज

अथ दशमः सर्गः

चतुरचतुर्भुजः

अत्रान्तरे मसृण - रोष-वशामसीम-

निःश्वासनिः सहमुखीं सुमुखीमुपेत्य ।

सव्रीडमीक्षितसखीवदनां प्रदोषे

सानन्दगद्गदपदं हरिरित्युवाच ॥ १ ॥

अन्वय- अत्रान्तरे (अस्मिन्नवसरे) प्रदोषे (रजनीमुखे) हरिः (श्रीकृष्णः ) असीम - निःश्वास- निःसहमुखीं (असीमनिःश्वासेन पुनः पुनः निःश्वासेन निःसहं कान्तवचनादिरहितं मुखं यस्याः तां) [तथा] मसृणरोषवशाम् (मसृणस्य अनुताप – शिथिलस्य रोषस्य वशाम् अधीनाम् शिथिलमानेन सख्यायत्तामित्यर्थः) [अतएव] सब्रीड़ (किमधुना विधेयमिति सलज्जं यथास्यात् तथा) ईक्षितसखीवदनां (ईक्षितं दृष्टं सख्याः वदनं यया तादृशीं) सुमुखीं (किञ्चित्- कोपोशमेन प्रसन्नवदनां) राधाम् उपेत्य (प्राप्य) सानन्दगदगदपदं (सानन्दानि गदगदानी गलदक्षराणि पदानि यत्र तद् यथा स्यात् तथा) इति (वक्ष्यमाणं वचनम्) उवाच ॥ १ ॥

पद्यानुवाद-

लजती लखती सखी ओर औ लेतीं श्वासें रीते ।

रोषमयी राधासे बोले प्रमुदित हरि दिन बीते ॥

अनुवाद - इसी समय दिवस का अवसान होने पर मसृण रोषमयी दीर्घ निःश्वासों को सहन करने में असमर्थ मलिन मुखवाली, लज्जापूर्वक सखी के मुख को देखनेवाली सुवदना श्रीराधा के समीप आकर आनन्द से उत्फुल्लित हुए श्रीहरि श्रीराधा से गद्गद स्वर में कहने लगे।

बालबोधिनी – प्रियसखी ने कोप दूर करने के लिए श्रीराधा को विविध प्रकार से समझाया। पर किशोरीजी का क्रोधावेश क्षीण नहीं हुआ, इतने में दिन भी ढलने लगा, विरह-ताप से दीर्घ श्वास चल रहे हैं, मुख कमल अतिशय मलिन हो रहा है, सखी उसके मान प्रशमन करने के सारे उपाय कर शान्त हो चुकी है, स्वयं ने भी अभी-अभी श्रीकृष्ण की उपेक्षा की है, फिर उनको पाने की अभिलाषा कैसे करे। अतः बार-बार अत्यन्त लज्जा के साथ सखी की ओर देख रही है। प्रेम की उद्विग्नता है, उदासी छाई है। इसी प्रदोषकाल में श्रीकृष्ण ने विचार किया कि श्रीराधा हृदय में पछता रही होंगी। चलो, उसने जो आरोप लगाया है, उसे स्वीकार कर उसी की बात रखकर क्षमा याचना कर लूँ । अतः वे सुवन्दना श्रीराधा के समीप आकर आनन्द से प्रफुल्लित होकर प्रणय से गद्गद स्वर में निवेदन करने लगे।

गीतगोविन्द सर्ग १० अष्ट पदि १९ - चतुर्भुजरागराजिचन्द्रोद्योत

ऊनविंश सन्दर्भः

गीतम् ॥१९॥

देशवराडीरागाष्टतालीतालाभ्यां गीयते ।

अनुवाद - गीतगोविन्द काव्य का यह उन्नीसवाँ प्रबन्ध देशवराडी राग तथा अष्टताली ताल में गाया जाता है।

वदसि यदि किञ्चिदपि दन्त रुचि - कौमुदी

हरति दर - तिमिरमति धोरम् ।

स्फुरदधर - शीधवे तव वदन- चन्द्रमा

रचयतु लोचन चकोरम् ॥१ ॥

प्रिये ! चारुशीले !

मुञ्च मयि मानमनिदानम् ।

सपदि मदनानलो दहति मम मानसं

देहि मुखकमल - मधुपानम् ॥ध्रुवपदम् ॥

अन्वय- अयि चारुशीले (मनोज्ञस्वभावे) प्रिये (प्रेयसि) मयि अनिदानं (अकारणं) मानं (कोप) मुञ्च (चारुशीलायास्ते अकारणमानोऽयुक्त इति भावः) । मदनानलः (कामाग्निः ) सपदि (झटिति तव मान-समकालमेव इत्यर्थः), मम मानसं दहति ; [तस्मात् ] मुखकमल-मधुपानं (मुखमेव कमलं पद्मं तस्य मधु तस्य पानं) देहि (अन्तर्दाहस्य पानेनैव शान्तिः, अतो मां मुखपद्ममधु पायय इत्यर्थः ) ( ध्रु) ॥

[दुरापमिदं दूरेऽस्तु] - यदि किञ्चिदपि वदसि तदा [तव] दन्तरुचिकौमुदी (दन्तानां रुचिः दीप्तिरेव कौमुदी ज्योत्स्ना) [म] अतिघोरं (भयजनकं) दरतिमिरं ( प्रगाढ़ हृदय - निहितं तिमिरम् अन्धकार) हरति। [किञ्च] तव वदनचन्द्रमाः (मुखचन्द्रः) स्फुरदधर-सीधवे (स्फुरतः उच्छलितस्य अधरस्य सीधवे अमृता अमृतपानार्थमित्यर्थः) [मम] लोचनचकोरं (लोचनं नेत्रमेव चकोरस्तं) रोचयति (साभिलाषं करोति ) [ नयनस्य चकोरत्वेन त्वदेकजीवनत्वमुक्तम् ] ॥ १ ॥

पद्यानुवाद-

प्रिये! चारुशीले! तजो मान प्यारा,

अधर - पद्म-रस दे हरो ताप सारा ।

तनिक बोल बोलो, खिले दन्त ज्योत्स्ना,

हरो घोर तम-मय, भरो प्राण-कोना,

सुधा सम अधर मधु, वदन चन्द्रमा से-

लगे लोल लोचन, चकोरक बने से

प्रिये! चारुशीले! तजो मान प्यारा,

अधर पद्म-रस दे हरो ताप सारा ।।

अनुवाद - हे प्रिये! हे सुन्दर स्वभावमयी राधे ! मेरे प्रति इस प्रकार अकारण मान का परिहार करो, मदनानल मेरे हृदय को दग्ध कर रहा है, मुझे अपने मुखकमल का मधुपान करने दो, यदि तुम मुझसे कुछ भी बात करोगी तो तुम्हारी दशन पंक्ति की किरणों की ज्योति से मेरा भय रूपी घोर अंधकार दूर हो जायेगा, तुम्हारा मुखचन्द्र मेरे नयन-चकोर को तुम्हारी अधर – सुधा का पान करने के लिए अभिलाषी बना दे ।

बालबोधिनी - श्रीकृष्ण श्रीराधाजी से कहते हैं - हे प्रिये ! तुम्हारा स्वभाव तो अति शोभन है। तुमने मेरे विषय में जो अकारण मान ठान लिया है, वह तो उचित नहीं है। जब से तुमने मान किया हैं, तब से कामदाह मुझे जलाये जा रहा हैं, मान का कोई कारण भी तो नहीं है, व्यर्थ ही परस्त्री – रमण की शंका कर रही हो तुम्हारे ही आश्रय से काम मुझे व्यथित कर रहा है। अपने मुखकमल का मुझे मधुपान कराओ, जिससे मेरा अन्तर्दाह प्रशमित हो जायेगा - यह अति दुर्लभ है। इसे जाने दो, पर कुछ बोलो तो सही, अनुकूल अथवा प्रतिकूल पर कुछ तो कहो- जब तुम कुछ कहोगी तो तुम्हारा मुखकमल विलसित - विकसित होगा । इससे तुम्हारे दन्त की कान्ति कौमुदी प्रकाशित होगी और इससे मेरे अन्तःकरण में निहित भय तिमिर विनष्ट हो जायेगा। राधे तुम्हारे चन्द्रवदन से ऐसी अधर सुधा छलक रही है कि मेरे नयन चकोर तो इस आसव का पान करना चाहते हैं। प्रिये चारुचरित्रे! तुम ही तो मेरे नयन-चकोर की जीवन-स्वरूपा हो ।

सत्यमेवासि यदि सुदति मयि कोपिनी देहि खरनयनशरघातम् ।

घटय भुजबन्धनं जनय रदखण्डनं येन वा भवति सुखजातम् ॥ प्रिये.... ॥२॥

अन्वय - अयि सुदति (प्रसन्नवदने) यदि [ त्वदेकजीवने] मयि सत्यमेव कोपिनी (क्रुद्धा) असि, [तदा] खरनयन - शरघातं (खरैः तीक्ष्णैः नयन - शरैः घातं प्रहार) देहि (कुरु इत्यर्थः ), [एतेनापि यदि न तुष्यसि] भुजबन्धनं (भुजाभ्यां बन्धनं) घटय (विधेहि); [तेनापि असन्तोषश्चेत्] रदखण्डनं (रदैः दन्तैः खण्डनं दंशन) जनय (कुरु); [किं बहुना] येन वा (अन्येन) [तव] सुखजातं ( सुखसमूहः ) भवति [ तत्कुरु इति शेषः ] [ अत्र गूढोऽभिप्रायः स्वीयेऽपराधिनि दण्डएवोचितो नोपेक्षा कर्त्तव्या इति] ॥२॥

पद्यानुवाद-

अगर रोष है, खर-नखर वाण छेदो

भुजपाश बाँधो, अधर दन्त भेदो ।

अनुवाद - हे शोभन - दन्ते! यदि तुम यथार्थ में ही मुझपर कुपित हो रही हो तो मुझपर तीक्ष्ण नख-वाणों का आघात करो, अपने भुजबन्धन में मुझे बाँध लो दाँतों के आघात से मेरे होठों को काटो, जिससे तुम्हें सुख मिले- तुम वही करो ।

बालबोधिनी - श्रीकृष्ण श्रीराधा को मनाते हुए कह रहे हैं - हे शोभनदन्ते ! सुन्दर दन्तराजि से विलसित प्रियतमे राधे ! तुम मेरे प्रति रोष मत करो। यदि वस्तुतः मुझपर क्रोध प्रकाशित ही करना चाहती हो, तो मुझपर अपने तीक्ष्ण नेत्र-वाणों का प्रहार करो, फिर भी तुम्हारे क्रोध की शान्ति नहीं होती है, तो मुझे और भी दण्ड दो। अपनी भुजाओं के बन्धन में मुझे बाँध लो कैद कर लो, फिर भी सन्तुष्टि नहीं होती है तो अपने दन्त आघात से मुझे खण्डित कर दो, मेरे शरीर को काट डालो, इससे भी तुम्हें सन्तोष नहीं होता हो तो तुम्हें जो उपाय उचित लगे, वही करो। मैं अपराध योग्य हूँ, दण्डनीय अपने सुख के लिए मुझपर किसी भी दण्ड का विधान करो। यहाँ ताड़न-बन्धन, खंडन आदि के व्याज से नखक्षत, आलिङ्गन एवं चुम्बन आदि की प्रार्थना की जा रही है।

त्वमसि मम भूषणं त्वमसि मम जीवनं,

त्वमसि मम भव - जलधि-रत्नम् ।

भवतु भवतीह मयि सततमनुरोधिनी,

तत्र मम हृदयमतियत्नम् ॥

प्रिये.... ॥३॥

अन्वय - [ननु या तव प्रियतमा सैव दण्डं विदधातु चेत् तत्राह] - अयि प्रियतमे त्वं भूषणम् (अलङ्कारः) असि; त्वं मम जीवनं (प्राणभूता) असि [त्वद्व्यतिरेकेण अन्यज्जीवना- दिकमपि मे नास्ति तर्हि अन्याङ्गनानां का वार्त्ता इति भावः ]; [ किञ्च ] त्वं मम भवजलधिरत्नं (भवः संसारः स एव जलधिः तत्र त्वमेव रत्नरूपा सर्वप्रेयसीश्रेष्ठा इत्यर्थः) असि; [यथा कश्चित् रत्नाकरात् विचित्ररत्नं लब्ध्वा आत्मानं पूर्णमनोरथं मनुते तथा स्त्रीरत्नभूतां त्वां प्राप्य कृतार्थोऽस्मीति भावः ]; [अतएव ] भवती इह (अस्मिन् त्वन्मात्रशरणे) मयि सततम् (सदा) अनुरोधिनी (अनुकूला) भवतु । तत्र ( तव आनुकूल्ये) मम हृदयम् (चित्तम्) अतियत्नं (अतिशयेन यत्नो यस्य तत् अतीव यत्नवदित्यर्थः) [तवानुकूल्यलाभार्थमेव हृदयं मे सततं यतते इति भावः ] ॥३ ॥

पद्यानुवाद-

सखी, प्राण, भूषण तुम्हीं रत्न भव की ।

द्रवो आज रानी ! हरो आग हिय की ॥

प्रिये ! चारुशीले ! तजो मान प्यारा ।

अधर पद्म-रस दे हरो ताप सारा ॥

अनुवाद - तुम ही मेरी भूषण स्वरूप हो, तुम ही मेरा जीवन हो, तुम ही मेरे संसार समुद्र के रत्नस्वरूप हो, अब तुम ही सतत मेरे प्रति अनुरोधिनी बनी रहो यही मेरा एकान्तिक प्रयास है।

बालबोधिनी - यदि श्रीराधा कहे कि हे श्रीकृष्ण ! मैं तो तुम्हें दण्ड भी नहीं दे पाती, तुम्हारी और भी प्रियाएँ हैं, उन्हीं से जाकर निवेदन करो। तो इस आशंका पर श्रीकृष्ण कहते हैं- प्रिये ! तुम ही मेरा सम्पूर्ण श्रृंगार हो, तुमसे ही अलंकृत होकर तो मैं सर्वत्र सौभाग्यवान हूँ, बाह्य आभूषण की बात तो दूर रहे तुम ही मेरे जीवन का आधार हो, मेरी प्राण! तुम्हारे बिना तो मैं जी भी नहीं सकता। दूसरी रमणियों की तब बात ही कहाँ ? तुम ही मुझे इस भवसागर में मिली अनुपम रत्नराशि हो । जैसे कोई रत्नाकर से विचित्र रत्न प्राप्तकर अपने को कृतार्थ मानता है वैसे ही मैं तुम जैसी रमणी – रत्न को प्राप्तकर कृत्कृत्य हो रहा हूँ। अतः मेरे ऊपर सदैव अनुकूल बनी रहो-यही मेरा हृदय निरन्तर यत्न कर रहा है। मेरा सम्पूर्ण प्रयास तुम्हारी कृपा प्राप्ति के लिए ही है।

नीलनलिनाभमपि तन्वि तव लोचनं धारयति कोकनद-रूपम् ।

कुसुमशरबाणभावेन यदि रञ्जयसि कृष्णमिदमेतदनुरूपम् ॥ प्रिये.... ॥४ ॥

अन्वय - [स्वगुणपरीक्षणोपकरणत्वेन चेन्मामङ्गीकरोषि तथापि चरितार्थः स्याम् इत्यत आह] - अयि तन्वि (कृशाङ्गि) नील- नलिनाभमपि (नीलात्पलतुल्यमपि) तव लोचनं [सम्प्रति अभिमान - रोषात्] कोकनदरूपं (रक्तोत्पलरूपं) धारयति [एतेन त्वयि अनुरञ्जिनी विद्यास्ति इत्यवधारितम् एषा विद्या मयि परीक्ष्यताम्]; [परीक्षाप्रकारमाह] - यदि [त्वं] कृष्णं (कृष्णरूपं मां) [तेन लोचनेन] कुसुमशरबाणभावेन (कुसुमशरस्य मदनस्य यः सम्मोहनाख्यः बाणः तस्य भावः उत्पत्तिः यस्मात् तथाभूतेन सानुरागकटाक्षावलोकनेन इत्यर्थः) रञ्जयसि, [तर्हि ] इदं ( कार्यमेव ) एतदनुरूपं ( एतस्य लोचनस्य योग्यं ) [ स्यात् ] शिक्षिता विद्या प्रयोगेणैव साफल्यं व्रजतीति भावः ] ॥ ४ ॥

पद्यानुवाद-

नलिन नेत्र नीले, बने कोकनद से ।

हुआ कृष्ण रञ्जित, अगर बाण- स्मर से ॥

तभी सिद्ध होगा नयन-रूप सुन्दर ।

तभी सिद्ध होगा, वदन-रूप सुन्दर ॥

प्रिये! चारुशीले! तजो मान प्यारा ।

अधर पद्म-रस दे हरो ताप सारा ॥

अनुवाद - हे कृशाङ्गि ! तुम्हारे इन्दीवर के समान नेत्रों ने इस समय रक्तोपल का रूप धारण किया है। मदन – भाव से परिपूर्ण कटाक्ष बाण से कृष्णवर्ण इस शरीर को यदि रञ्जित कर दोगी तो अनुरूप होगा।

बालबोधिनी - श्रीकृष्ण कह रहे हैं-राधे ! तुम्हारी आँखें तो स्वाभाविक ही नीलकमल के समान हैं, तुम अपने नेत्रों को नये-नये अनुराग-रंग में रञ्जित करने में सुनिपुण हो। अपने इन गुणों को उपकरण रूप में बनाकर यदि मुझे अङ्गीकार करती हो तो मेरा जीवन चरितार्थ हो जायेगा, पर अधुना तुम्हारे नेत्रों ने सहजता का परित्याग कर रक्तकमल की आरक्तता धारण कर ली है। यह तो तुम्हारी कोई अनुरञ्जिनी विद्या है । ऐसा स्पष्ट हो रहा है कि कृष्णवर्ण की वस्तुओं को रक्त वर्ण की बना देने की तुममें सामर्थ्य है, अतएव तुम यदि इन कटाक्षरूपी मदन- शरों से मुझे बेध दो, तब तो मैं समझूँगा कि तुमने विद्या का समुचित प्रयोग किया है। राधे, क्रोध न कर मुझसे प्रेम करो एवं काम-क्रीड़ाव्यातृप्त हो जाओ । यही तुम्हारी स्वाभाविकता है।

स्फुरतु कुचकुम्भयोरुपरि मणिमञ्जरी रञ्जयतु तव - हृदयदेशम् ।

रसतु रसनापि तव घन - जघनमण्डले घोषयतु - मन्मथनिदेशम् ॥ प्रिये.... ॥५ ॥

अन्वय - [एतच्छ्रवणेन किञ्चित् प्रसन्नामवलोक्य आह] - प्रिये, तव कुचकुम्भयोः (स्तनकलसयोः) उपरि मणिमञ्जरी (मणिमाला) स्फुरतु (दोदुल्यमाना भवतु ); तव हृदयदेशं रञ्जयतु (शोभयतु) च, [किञ्च] तव घनजघनमण्डले (घने निविड़े जघनमण्डले) रसनापि (काञ्ची अपि) रसतु ( शब्दायताम्); मन्मथनिदेशं (मन्मथस्य कामस्य निदेशम् आज्ञां) घोषयतु च (प्रचारयतु) च [वचनभङ्गया प्रार्थनाविशेषोऽयम् ] ॥५ ॥

पद्यानुवाद-

कनक- कुम्भ पर हार, धारो न अपना,

लसे आज जिससे, हृदय- देश दुगुना,

सघन री जघन पर रशन मंजु डोले,

करें घोष किणकिण, मदन-बोल बोले ।

प्रिये चारुशीले! तजो मान प्यारा,

अधर पद्म-रस दे हरो ताप सारा ।

अनुवाद- तुम्हारे कुच कुम्भ के ऊपर मणिमय मञ्जरी देदीप्यमान होकर तुम्हारे हृदय देश को सुशोभित करें, तुम्हारे परस्पर अविरल जघन युगल के ऊपर विराजमान काञ्चि कन्दर्प के आदेश का उद्घोष करे।

बालबोधिनी - वचन – भङ्गी के द्वारा श्रीकृष्ण श्रीराधा से रति – केलि की प्रार्थना कर रहे हैं। मेरे साथ काम-केलि रूप शुभ कार्य का शुभारम्भ किया जाय, लाज छोड़, तुम रति-क्रीड़ा के लिए कटिबद्ध हो गयी हो। सुरतारम्भ से पूर्व पूर्ण कलशों की प्रतिष्ठा आवश्यक है। कलशवत् विपुलाकार स्तन - कलशों पर मणि- मञ्जरी प्रकाशित हो, अर्थात् यह मणिमय हार दोलायमान होकर तुम्हारे वक्षस्थल को सुशोभित करे, विशाल मध्य भाग मांसल जांघों को घेरे हुए तुम्हारी करधनी, केलि-क्रीड़ा करते हुए किण किण मधुर ध्वनि निनादित करती हुई कामदेव की उमड़ती हुई आकांक्षाओं के आदेशों की उदघोषणा करे। आदेश यह है कि इस वसन्त ऋतु की मादक बेला में सभी विलास-प्रवण नर-नारी विलास क्रिया में व्याप्त हो जायें, मानिनी जन मान का त्याग करके रति-क्रीड़ा में प्रवृत्त हो जायें।

स्थल - कमलगञ्जनं मम हृदय-रञ्जनं जनित-रति-रङ्गपर भागम् ।

भ्रण मसृण वाणि करवाणि चरणद्वयं सरस- लसदलक्तकरागम् ॥ प्रिये.... ॥ ६ ॥

अन्वय - हे मसृणवाणि (स्निग्धभाषिणि) भण (कथय, आज्ञापय इत्यर्थः); स्थल-कमल-गञ्जनं (स्थलकमलानां स्थलपद्मानां गञ्जनं तिरस्कारकम् आरक्तत्वात् कोमलत्वाच्च) मम हृदयरञ्जनं (हृदयरञ्जनं) (हृदयपरितोषकर ) जनित-रति- रङ्ग-परभागं (जनितः कृतः रतिरङ्गे सुरतोत्सवे परभागः परमशोभा येन तादृशं) तव चरणद्वयं (पादयुगलं ) सरस - लसदलक्तक - रागं ( सरसेन आर्द्रेण लसता दीप्तिमता उज्ज्वलेन इत्यर्थः अलक्तकेन रागं लौहित्यं यत्र तादृशं सुरञ्जितमित्यर्थः) करवाणि (विदधामि ॥६॥

पद्यानुवाद-

चरण युग तुम्हारे, कमलमान गंजन ।

रमण-राग कारी हृदय-भाग- रंजन ॥

लगा दूँ उन्हीं में, इन्हीं हाथसे सब ।

सजीला रसीला महावर सजनि ! अब ॥

प्रिये! चारुशीले! तजो मान प्यारा ।

अधर पद्म-रस दे तरो ताप सारा ॥

अनुवाद - हे सुमधुरवचने ! स्थल- कमल को पराजित करनेवाले, मेरे हृदय की शोभा बढ़ानेवाले तुम्हारे ये चरण-युगल रतिकाल में कामोद्रेक को अभिवर्द्धित करनेवाले हैं। तुम आदेश करो, ऐसे चरणों को मैं अलक्तक - रस (महावर) से रञ्जित कर दूँ।

बालबोधिनीश्रीराधा अभी भी कोई उत्तर नहीं दे रही हैं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- हे स्निग्धवचने, अतिशय मधुर वाणी बोलने वाली! कोमल वचनों से ही बाण चला लेती हो, तुम अपनी कोमल काकली से आज्ञा करो। स्थल- कमल की शोभा को तिरस्कृत करनेवाले, मेरे हृदय को अनुरञ्जित करनेवाले इन चरण द्वय को अलता (महावर) रंग से और रञ्जित कर दूँ, जिससे सुरतक्रीड़ा की बेला में ये चरण-युगल और शोभा धारण कर कामोद्रेक कर सकें। ये रंगमय होकर मेरे हृदय का राग बन जाएँ। हे प्रियभाषिणी । ये अनुरञ्जित चरण-युगल राति केलिरस में एक अनिर्वचनीय सुषमा को धारण करेंगे। ये चरण श्रृंगार रस के सरस आधार हैं, श्रृंगार उत्पत्ति के द्वार हैं, स्पृहा की उत्पत्ति करानेवाले हैं। चारुचरित्रे! प्रसन्न हो, मान त्याग करो। रमणी के अलक्तक रसरञ्जित मनोहर चरणयुगल को देखकर युवाओं के मन में काम भावना का उद्रेक होता ही है।

स्मर - गरल - खण्डनं मम शिरसि मण्डनं देहि पद - पल्लवमुदारम् ।

ज्वलति मयि दारुणो मदन- कदनानलो* हरतु तदुपाहितविकारम् ॥

प्रिये चारुशीले.... ॥७ ॥

*  मदनकदनारूनः हति क्वचितः कामक्लेश एव दारुणोऽरुणः सूर्य: मयि ज्वलतिव्यर्थः ।

अन्वय - [अतस्तदङ्गीकारेणैव मे तापोपशमनमिति तद्गुण-स्फुर्तिपरवशः सन् प्रार्थयते] - [अयि प्राणेश्वरि] मम शिरसि (मदीयमस्तके) स्मरगरलखण्डनं (काम - कालकूट - दमनं) उदारं (वाञ्छितप्रदत्वात् महत्) मण्डनं (भूषणरूपं) पदपल्लवं देहि (अर्पय); दारुणः (भीषणः) मदनकदनानलः (कामसन्तापाग्निः) मयि ज्वलति तदुपाहित-विकारं (तेन मदनतापानलेन उपाहितः उत्पादितः विकारः तम्) [ममेति शेषः] हरतु (शमयतु) [पदपल्लवधारण-मात्रेणैव तापोऽपयास्यतीति भावः] ॥७॥

पद्यानुवाद-

धरो पाद- पल्लव, मदन - ताप हर्ता ।

इसी तप्त शिर पर हृदय शान्ति कर्ता ॥

चटुल चाटु पटु हरि, भुला राधिका को ।

सुलावे हृदय पर झुला साधिका को ॥

प्रिये! चारुशीले! तजो मान प्यारा ।

अधर पद्म-रस दे हरो ताप सारा ॥

अनुवाद - हे प्रिये! अपने मनोहर चरण किसलय को मेरे मस्तक पर आभूषण स्वरूप अर्पण कराओ। जिससे मुझे जर्जरित करनेवाला यह अनङ्गरूप गरल प्रशमित हो जाय, मदन यातना रूप निदारुण जो अनल मुझे संतप्त कर रहा हैं, उससे वह दाहजन्य उत्पन्न विकार भी शान्त हो जाय ।

बालबोधिनी - हे राधे ! मुझे अङ्गीकार करोगी, तभी मेरा ताप दूर होगा। सर्वविजयी तुम्हारे गुणों की स्फूर्ति होने से मैं विवश होकर तुमसे प्रार्थना कर रहा हूँ कि अपने पद – पल्लव को मेरे मस्तक पर अर्पित करो। ये पद - पल्लव अति उदार हैं, ये प्रार्थीजनों के मनोभीष्ट को पूर्ण करनेवाले हैं। नव पल्लव के समान लालिमा, कोमलता और शैत्य आदि गुणों से विभूषित होने के कारण अलङ्कार-स्वरूप हैं। इन चरणों को मेरे मस्तक पर अर्पण करने से कामजन्य गरल का खण्डन तो होगा ही मेरा मस्तक भी समलंकृत हो जायेगा। यहाँ काम में सर्पविष की उत्प्रेक्षा की गयी है। तुम्हारे पैरों का संस्पर्श पाकर कामगरल उसी प्रकार समाप्त हो जायेगा जिस प्रकार गरुड़ का चरण-स्पर्श प्राप्त कर सर्पविष समाप्त हो जाता है। कामजन्य संताप सम्बन्ध से अन्तर्मन में उदित मनोविकार आदि दोष भी तुम्हारे चरणों के अर्पण करने से समाप्त हो जायेंगे। यह कामक्लेश अति निदारुण है, अनल के समान मेरे हृदय को जला रहा है। एक-एक मर्म अंगार बन रहा है। भीतर-बाहर ज्वलनशील यह काम - ज्वर तुम्हारे पद-पल्लव के सिर पर रखने से ही दूर होगा । इस सम्पूर्ण प्रबन्ध की नायिका श्रीराधा प्रौढ़ा तथा मानवती है और नायक श्रीकृष्ण अनुकूल हैं।

इति चटुल-चाटु- पटु- चारु मुरवैरिणो राधिकामधि वचन - जातम् ।

जयति पद्मावती रमण जयदेवकवि भारती भणितमतिशातम् ॥

प्रिये चरुशीले.... ॥८ ॥

अन्वय - इति (उक्तप्रकारं) पद्मावतीरमण-जयदेव-कवि- भारती - भणितं (पद्मावती श्रीराधा-परतया तथानाम्नी श्रीजयदेवपत्नी; तद्गुण-वर्णनादिना तस्याः रमणः स चासौ जयदेवकविश्चेति; तस्य भारत्या वाण्या भणितं वर्णितं) राधिकाम् अधि (राधिकां लक्ष्यीकृत्य इत्यर्थः) चटुल-चाटु-पटु-चारु (चटुलं चातुर्ययुक्तं चाटु प्रीतिकरं पटु कौशलपूर्ण चारु मनोहरं यद्वा चटुलं चञ्चलं नानाविधमितियावत् चटुल-चाटुना पटु मानापनयनसमर्थं चारु शोभनं ) अतिशातं (परमसुखप्रदमित्यर्थः) सुरवैरिणः (मुरारेः) वचनजातं (वाक्यसमूहः) जयति (सर्वोत्कर्षेण वर्त्तताम् ॥८॥

अनुवाद पद्मावती के प्रिय श्रीजयदेव कवि द्वारा विरचित राधिका को सम्बोधित करके श्रीकृष्ण द्वारा उक्त चाटुयुक्त सुकुमार, मान हरण में कुशल, मोहन माधुरीपूर्ण वचन समुदाय की जय हो ।

बालबोधिनी - इस प्रकार मुरवैरी श्रीकृष्ण की यह वचनावली जो श्रीराधा को अभिलषित करके सर्वोत्कृष्ट रूप से प्रकाशित हुई है, वे सब प्रकार से जययुक्त हों। अपनी परम प्रेयसी श्रीराधा के मान-अपमान हेतु ये वाक्य समूह अति समर्थ एवं परम सुखप्रद हैं। इस मनोहर अष्टपटी में चतुर एवं प्रिय मीठी बातों का ही संकलन है, पद्मावती अर्थात् श्रीराधा – श्रीकृष्ण के ऊपर विजयिनी हों और विजयी हों। भारती से भूषित, पद्मावती-पति जयदेव, इसी अष्टपदी में कवि जयदेव की स्फूर्ति को श्रीकृष्ण ने जयदेव के वेश में स्वयं लिपिबद्ध किया है - देहि पदपल्लवं मे उदारम्.... ।

यह गीत गीतगोविन्द का उन्नीसवाँ प्रबन्ध है। इस प्रबन्ध का नाम चतुर्भुजरागराजिचन्द्रोद्योत है।

इति एकोनविंश: सन्दर्भः ।

गीतगोविन्द सर्ग १० चतुर चतुर्भुज

परिहर कृतात ! शङ्कां त्वया सततं घन

स्तनजघनया क्रान्ते स्वान्ते परानवकाशिनि ।

विशति वितनोरन्यो धन्यो न कोऽपि ममान्तरं

प्रणयिनि ! परीरम्भारम्भे विधेहि विधेयताम् ॥ १ ॥

अन्वय - [अपरमपि कृत्यं विज्ञापयितुमाह] - अयि कृतात (कृतः आतङ्कः सन्देहः अन्यस्त्रीसम्भोगवितर्क इत्यर्थः यया तत्सम्बुद्धौ) शङ्कां परिहर (त्यज); सततं (निरन्तरं नतु क्षणमिति भावः) घनस्तनजघनया (घनं निविडं स्तनजघनं यस्याः तादृश्या) [त्वया] क्रान्ते (निरन्तरं व्याप्ते) [अतः] परानवकाशिनि (अन्यावकाश-शून्ये) स्वान्ते (मदीये मनसि)वितनोः (तनुशून्यात् कामात्) अन्यः कोऽपि धन्यः (तादृक् सौभाग्यवान्) अन्तरं (अभ्यन्तरं) न विशति [मनोद्वारेणैव एतदभ्यन्तरं प्रविश्यते; मनस्तु मे त्वया परिव्याप्तं तर्हि केन पथा प्रवेष्टव्यमन्येन शरीरिणा जनेन, कामस्तु मनोभवः अतस्तत्र तस्यैव प्रवेशेऽधिकारोऽस्तीत्यर्थः]; [शङ्कां त्यक्त्वा यत् कर्त्तव्यं तदाह] - हे प्रणयिनि परीरम्भारम्भे (परीरम्भस्य आश्लेषस्य आरम्भे उपक्रमे) विधेयतां (इतिकर्त्तव्यतां विधेहि (व्यवस्थापय) ॥ १ ॥

पद्यानुवाद-

घन उर जघन सतत आक्रांते! स्वान्ते। मम मन सूना ।

तज शंका भुजमें भर जाओ, जो हुलास हिय दूना ॥

अनुवाद - दूसरी नायिका के प्रति मुझे आसक्त समझकर व्यर्थ की शंकाओं का परित्याग कर दो। परस्पर अविरल स्तन एवं जघन युगल शालिनी हे प्रणयिनी राधे! मेरे मन में किसी दूसरी नायिका के लिए अवकाश ही नहीं है। मदन के अतिरिक्त दूसरे किसी के प्रवेश करने का सौभाग्य नहीं है। परिरम्भण के लिए अब मुझे आदेश दो ।

बालबोधिनी - अब श्रीकृष्ण श्रीराधा से कह रहे हैं- क्यों यह शंका अपने मन में व्यर्थ ही पैदा कर ली है। अन्य वनिता-सङ्ग का आरोप मुझपर मत लगाओ। मेरा तो अन्तःस्थल और हृदय तुम्हारे कुच कलशों एवं जघनों के भार से इस तरह आक्रान्त है कि कहीं दूसरों की स्मृति का अवकाश ही नहीं है। मेरे हृदय में तुम्हारे प्यार ने सम्पूर्ण रूप से व्याप्त होकर आक्रमण कर लिया है, वहाँ दूसरे के लिए किञ्चित् मात्र भी स्थान नहीं है। वहाँ कोई कैसे प्रवेश कर सकता है। तुम्हारे रहने से मेरे हृदय में मदन के अतिरिक्त अन्य किसी को प्रवेश करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं है। हे प्रणयिनि राधे! अब मान का परित्याग भी करो। अब तुम ऐसा करो कि मैं तुम्हारे स्तनमण्डल का आलिङ्गन कर सकूँ। अपना किंकर बनाकर मुझे तदर्थ अनुमति दो ।

प्रस्तुत श्लोक में हरिणी नामक वृत्त तथा काव्यलिंग नामक अलंकार है । श्रीराधा प्रौढ़ नायिका हैं और श्रीकृष्ण प्रगल्भ नायक हैं।

मुग्धे विधेहि मयि निर्दय - दन्तदंश

दोर्वल्लि - बन्ध - निबिडस्तन - पीडनानि ।

चण्डि ! त्वमेव मुदमुञ्च न पञ्चबाण-

चाण्डाल-काण्ड-दलनादसवः प्रयान्तु ॥ २ ॥

अन्वय - [यदि मद्वचनात् न प्रत्येषि तर्हि स्वयमेव दण्डमाचरेत्याह] - अयि मुग्धे, मयि निर्दय दन्तदंश:-दोर्वल्लि- बन्ध - निविड़ - स्तनपीड़नानि (निर्दयं, निष्ठुरं यथा तथा दन्तदंशः दशनाघातः तथा दोर्वल्लिबन्धः भुजलता बन्धनं तथा निविड़ाभ्यां स्तनाभ्यां पीड़नञ्च तानि) विधेहि (घटय)। अयि चण्डि (कोपने) त्वमेव मूदम् (सुखं) अञ्च (प्राप्नुहि) (तव सुखोत्पादनाय ईदृग्विधेन दण्डेन यदि मे प्राणा यान्ति यान्तु, परं] पञ्चबाण-चाण्डाल-काण्ड-दलनात् (पञ्चबाण एव चाण्डालः दुष्टचेष्टत्वादिति भावः तस्य काण्डदलनात् बाणप्रहारात्) मम असवः (प्राणाः) न प्रयान्तु (गच्छन्तु) ॥ २ ॥

पद्यानुवाद-

पञ्चबाण - चाण्डाल बाणसे, प्राण न जायें मेरे ।

निज अपराधीको रदसे, अब छेदो तुम्हीं सबेरे ॥

और बाँध लो बाहुलताके, बन्धनमें अति मुझको ।

दृढ़ कुच-पीड़ा दे हँस बोलो, बन्दी मुक्ति न तुझको ॥

अनुवाद - हे विमुग्धे ! यदि मैं अपराधी हूँ तो मुझे दण्ड देने में विलम्ब क्यों कर रही हो? दण्ड दो-अपने दाँतो के दंशन से निर्दय होकर आघात करो, भुज-लता द्वारा प्रगाढ़ रूप से मुझे बाँध लो । कठिन स्तनों से प्रबल निपीड़न करो। हे कोपमयि ! मुझको इस प्रकार कठोर दण्ड देकर तुम्हीं सुखी होओ। ऐसे कठोर दण्ड से यदि मेरे प्राण निकल जायँ तो भले निकल जायँ परन्तु मदनरूप चाण्डाल के बाण प्रहार से मेरे प्राण न जायें ॥ २ ॥

बालबोधिनी - श्रीकृष्ण श्रीराधा से कहते हैं- हे मुग्धे ! यदि तुम्हें मेरे वचनों पर विश्वास नहीं है, तो मुझे दण्ड दे सकती हो। क्रोध के आवेश में तुम मुझे समझने का प्रयास ही नहीं कर रही हो। अतः तुम यथेच्छ रूप से मुझपर शासन करो। कन्दर्प - चाण्डाल अपने पञ्चबाणों से मुझे मारने की चेष्टा कर रहा है, पर इतनी कृपा करना कि मेरे प्राण न चले जायें। हे आत्माहितानभिज्ञे ! चण्डित्व का परित्याग करो। तुम्हारे ही सम्बन्ध से इस चाण्डाल कामदेव के बाणों से विदीर्ण हो मेरे प्राण निकले जा रहे हैं। इससे मेरी रक्षा करो। मुझे दण्ड देकर तुम सुखी हो जाओ, निर्दयता से दांतों द्वारा काट डालो, निविड़ स्तनों से मुझे पीस डालो, भुजलताओं से कसकर बाँध लो मुझसे हँसकर कह दो-अब तुम मेरे बन्दी हो, मेरे बन्धन से अब कभी भी तुम मुक्त न हो सकोगे।

शशिमुखि ! तव भाति भङ्गर भ्रू,

युवजनमोह - कल कालसर्पी ।

तदुदित-भय-भञ्जनाय यूनां

त्वदधर-सीधु-सुधैव सिद्धमंत्रः ॥ ३ ॥

अन्वय - [मम कोपो नास्त्येव चेत् तत्राह] - अयि शशिमुखि (चन्द्रानने), तव भङ्गुरभ्रूः (भङ्गुरा कुटिला भ्रूः) [यदि कोपिना नासि तत् कुतस्ते भ्रुवोर्भरत्वम्?], युवजन- मोह कराल- कालसर्पी (युवजनानां तरुणानाम् अस्माकं मोहाय मूर्च्छाविधानाय कराला भीषणा कालसर्पा भाति विराजते), तदुदित-भय-भञ्जनाय तस्याः भ्रुवः उदितस्य भयस्य भञ्जनाय नाशाय) यूनां [अस्माकं] त्वदधर-सीधु-सुधैव (तव अधर - मधुरूपा सुधा एव मादकत्वात् सीधु इति मधुरत्वाच्च सुधेत्युक्तम्) सिद्धमन्त्रः [नान्यत् किञ्चिदित्यर्थः] [अमृतपानेनैव विषभयं निवर्त्तते इति भावः] ॥३॥

पद्यानुवाद-

बंकिम भौंहें नागिन तेरी इस लेती जब जन को ।

अधर सुधा ही विष हरता है, विरुज बनाता तन को ॥

अनुवाद - हे शशिमुखि ! तुम्हारी कुटिल भ्रूलता युवजन विह्नलकारी कराल कालजयी सर्पिणी के समान है। इससे उत्पन्न भय को भञ्जन हेतु तुम्हारे अधर से विगलित मदिरा सुधा ही एकमात्र सिद्धमन्त्र स्वरूप है।

बालबोधिनी - श्रीकृष्ण वात्स्यायन न्याय का आश्रय लेकर कहते हैं - हे चन्द्रमुखि ! तुम्हारा मुखमण्डल तो चन्द्रमा सरीखा है, परन्तु तुम्हारे मुख पर विद्यमान भौंहें अति कुटिल हैं, जो मेरे जैसे युवजनों के लिए महाभयंकर काल सर्पिणी के समान मोहित करनेवाली, अत्यन्त भय का उत्पादन कर रही हैं, अरे जो हिंस्रमुखी होती हैं, परन्तु तुम तो चन्द्रमुखी हो । तरुणों के प्रति कोप प्रकाशित मत करो। इस काल नागिनी के काटने पर कोई युवक बच नहीं सकता, न ही कोई ऐसी औषध है, जिससे गरल की ज्वाला शान्त हो जाय। हाँ, तुम्हारी अधर - सुधा ही तुम्हारी भ्रू-रूपिणी सर्पिणी के हँसने से उत्पन्न विष को शान्त करने के लिए सिद्धमन्त्र स्वरूप है।

प्रस्तुत श्लोक में पुष्पिताग्रा छंद है। कल्पितोपमा एवं रूपक अलंकार है ।

व्यथयति वृथा मौनं तन्वि ! प्रपञ्च पञ्चमं,

मधुरालापैस्तापं विनोदय दृष्टिभिः ।

तरुणि सुमुखि ! विमुखी भावं तावद्विमुञ्च न मुञ्च

मां स्वयमतिशयस्निग्धो मुग्धे । प्रियोऽयमुपस्थितः ॥ ४ ॥

अन्वय - [एवमुक्तेऽपि अनुत्तरामाह] - अयि तन्वि (कृशाङ्गि ! मामप्राप्य त्वमपि कृशासीति भावः), [यस्मात् तव] वृथा (अकारणं) मौनं (तुष्णीम्भावः) मां व्यथयति (सन्तापयति) [तस्मात्] पञ्चमं (स्वर) प्रपञ्चय (विस्तारय); [ मधुरमालप इति भावः] । हे तरुणि (किशोरि) मधुरालापैः (मधुरैः आलापैः भाषितैः) तापं (मन्मथसन्तापं) विनोदय (प्रशमय) । हे सुमुखि (सुवदने), दृष्टिभिः (कृपास्निग्धावलोकनैः) विमुखीभावं (वैमुख्यां प्रत्याख्यान कार्कश्यमिति यावत्) विमुञ्च (त्यज) मां न मुञ्च (मा त्याक्षीः) [सुमुख्यास्ते विमुखीभावो न युक्त इत्यर्थः] । [कथमेवं करोमीत्याह] - हे मुग्धे (विचारमूढ़े) प्रियः अयम् अतिशयस्निग्धः (अतिप्रेमवान्), [ कथं स्निग्धज्ञानम् अत आह] - स्वयम् [ अनाहूत एव] उपस्थितः (आगतः), [अतस्त्यागे मूढ़ता एवेत्यर्थः] ॥४॥

पद्यानुवाद-

तन्वि ! मौन हो मार रही क्यों ? पंचम स्वरमें बोलो।

तरल दीठसे देख हृदयके, सारे बन्धन खोलो ॥

विमुख भाव यह सुमुखि ! तुम्हारा अनुचित आज बड़ा है।

स्वयं स्निग्ध अतिशय तव प्रिय, यह मुग्धे ! सजल खड़ा है ॥

अनुवाद - हे कृशाङ्गि ! तुम्हारा यह व्यर्थ मौन अवलम्बन मुझे व्यथित कर रहा है। हे तरुणि! पञ्चम स्वर का विस्तार करो। मधुर आलापों तथा कृपा अवलोकन के द्वारा मेरे संताप का विमोचन करो। हे सुमुखि ! अपनी विमुखता के भाव का परित्याग करो, मेरा त्याग नहीं। हे अविचारकारिणि ! तुमसे अतिशय स्नेह करनेवाला तुम्हारा प्रिय यहाँ उपस्थित है।

बालबोधिनी – श्रीराधा ने अब भी कोई उत्तर न दिया, तब श्रीकृष्ण अत्यन्त अनुनय भरे वचनों से उनसे कहने लगे - हे तन्वि ! कितनी कृशता को प्राप्त हो गयी हो ? तुम्हारी चुप्पी तुम्हें व्यर्थ ही अन्दर ही अन्दर कुतर रही है, मुझे इतना कष्ट दे रही है, पञ्चम राग छेड़ो कोमलता धारण करो। इस वसन्त ऋतु में तो कामिनियाँ अपने प्रियतमों का अनुकरण किया करती हैं, तुम तो कोयल से भी अधिक मधुर संलापिनी हो, मधुर आलाप करो, अपनी दृष्टि से रस- वृष्टि करो। हे तरुणि! कृपा अवलोकन द्वारा मेरा संताप दूर करो। हे सुमुखि ! तुम्हारे लिए मेरे प्रति वैमुख्य उचित नहीं है । उदासीनता का अपरिग्रह करो, दम्भ छोड़ दो, मेरा परित्याग मत करो। हे मुग्धे ! हे विचाररहिते ! मैं तुम्हारा प्रिय हूँ । अतिशय स्निग्ध स्नेहपरायण हूँ। अनाहूत ही यहाँ उपस्थित हुआ हूँ। यह देखो साश्रु होकर खड़ा हूँ। अपनी स्नेह दृष्टि से मुझे बाँध लो । प्रस्तुत श्लोक में हरिणी वृत्त, यथासंरत्न अलङ्कार, अनुकूल नायक, प्रसाद गुण, कैशिकी वृत्ति, वैदर्भी रीति तथा मागधी गीति है।

बन्धकद्युति- बान्धवोऽयमधरः स्निग्धो मधूकच्छवि

चकास्ति नील-नलिन श्रीमोचने लोचनम् ।

गण्डश्चण्डि ! नासाभ्येति तिल- प्रसून पदवीं कुन्दाभदन्ति !

प्रिये ! प्रायस्त्वन्मुख - सेवया विजयते विश्वं स पुष्पायुधः ॥ ५ ॥

अन्वय - [अतः पञ्चपुष्पाञ्चितमास्यं ते पुष्पायुधविलासेन मां दुनोतीति भङ्गयास्तदङ्गानि स्तौति] - अयि चण्डि (कोपने) अयि प्रिये, अयं स्निग्धः (लावण्यमयः) तव अधरः बन्धुकद्युतिवान्धवः (बन्धुकस्य पुष्पविशेषस्य बाँधुलि फुल इति भाषा या द्युतिः कान्तिः तस्या वान्धवः बन्धुककुसुम सदृश इत्यर्थः, लोहितत्वात् साम्यम्) गण्डे (कपोले) मधुच्छविः (मधुकपुष्पस्य महुयाफुल इति भाषा छविर्दीप्तिः) चकास्ति [ पाण्डुत्वात् अत्रापि साम्यम्] [तथा] नील-नलिन - श्रीमोचने (नीलनलिनयोः नीलोत्पलयोः श्रीमोचने शोभा तिरस्कारके) लोचने [चकास्तः] [कार्यादत्र साम्यम्] अयि कुन्दाभ-दन्ति (कुन्दकुसुमदशने)। अत्रापि शौक्लात् साम्यम्] [तव] नासा (नासिका) तिलप्रसूनपदवीं (तिलप्रसूनस्य तिलपुष्पस्य पदवीं) अभ्येति (तिल-कुसुम - सदृशी भातीत्यर्थः) [अत्र आकृत्या साम्यम्]; [अतएव] सः (प्रसिद्धः) पुष्पायुध (कामः) प्रायः (बाहुल्येन) त्वन्मुखसेवया (तव मुखाराधनेन) [त्वन्मुखस्थितानि एतानि कुसुमानि लब्ध्वा तैरेवायुधैः] विश्वं विजयते (अभिभवति) ॥५ ॥

पद्यानुवाद-

अधर सुमन बन्धूक सरस सम, कल कपोल रस भीने ।

फूल मधूक बन्धुसे दर्शित, नेत्र नलिन- छवि लीने ॥

तिल - प्रसून - पदवी सी नासा दन्त कुन्द सम भासे ।

मुख आश्रित पुष्पायुध तेरे, जग विजयी हो हासे ॥

अनुवाद - हे प्रिये ! चण्डि ! तुम्हारा अधर बन्धूक- पुष्प की भाँति मनोहर अरुण वर्ण के हैं, तुम्हारे सुशीतल कपोल मधूक पुष्प की छवि को धारण किये हुए हैं, तुम्हारे लोचन इन्दीवर की शोभा को तिरस्कृत कर रहे हैं, तुम्हारी नासिका तिल के फूल के समान है, तुम्हारे दशन कुन्द पुष्प की भाँति शुभ्रवर्णीय हैं। हे प्रिये! पुष्पायुधने अपने पाँच पुष्प रूपी बाणों के द्वारा तुम्हारे मुख की सेवा करके सारे संसार को जीत लिया है।

बालबोधिनी - हे प्रिये ! तुम्हारे मुखकमल पर पुष्पधन्वा कामदेव के समान पञ्च आयुध विलसित हो रहे हैं-हे चण्डि ! यह सुविख्यात विश्व विजेता कामदेव तुम्हारे इन पुष्प आयुधों को लेकर ही समस्त विश्व को विजय कर रहा है। विश्व - विजय करने के बाद ये आयुध तुम्हारे मुखमण्डल पर शोभा प्राप्त कर रहे हैं। 'चण्डि - इस संबुद्धि पद से तात्पर्य है कि अब तक क्रोध का परित्याग नहीं किया है। चण्डि अर्थात् कोपने! पञ्चबाणों का सवैशिष्ट्य वर्णन इस प्रकार है-

(१) तुम्हारे अधर बन्धूक अर्थात् दुपहरिया के फूल के समान लाल वर्ण के हैं। ये कामदेव के रक्तवर्ण के आकर्षण बाण हैं।

(२) तुम्हारे सुशीतल कपोल मधूक अर्थात् महुये के समान सरस सुनहली पाण्डूवर्ण कान्तिमय हैं। मानो अभी-अभी उसमें से रस चू पड़ेगा। ये कामदेव के पीतवर्ण के वशीकरण बाण हैं।

(३) तुम्हारी नीली आँखें समस्त सौन्दर्य का सार अपने साथ ही सन्निहित किये हुए हैं। इन्होंने नील कमलों की

सुन्दरता का तिरस्कार कर दिया है। ये कामदेव के कृष्णवर्णीय उन्मादन बाण हैं।

(४) तुम्हारी नासिका तिल के फूल के सदृश है। ये कामदेव के पीतवर्णीय द्रावण बाण हैं।

(५) तुम्हारे दाँत कुन्द पुष्प के समान हैं। ये कामदेव के श्वेतवर्णीय शोषण बाण हैं।

इस प्रकार अपने सम्पूर्ण पञ्च आयुधों द्वारा कामदेव तुम्हारे मुख की सेवा के प्रसाद से विश्व विजय कर रहा है। प्रस्तुत श्लोक में शार्दूलविक्रीडित छन्द एवं उत्प्रेक्षा अलंकार है।

दृशौ तव मदालसे वदनमिन्दु- सन्दीपनं

गतिर्जन - मनोरमा विजितरम्भमूरुद्वयम् ।

रतिस्तव कलावती रुचिरचित्रलेखे भ्रुवा-

वह विबुध-यौवतं वहसि तन्वि ! पृथ्वीगता ॥ ६ ॥

अन्वय- अयि तन्वि (कृशाङ्गि), तव दृशौ (नयने) मदालसे (मदजन्यहर्षेण अलसे मन्थरे) [स्वर्गे तु एकैव मदालसानाम्नी अङ्गना; ममाङ्गना त्वं तु दृग्रूपे द्वे मदालसे धारयसि]; वदनम् इन्दुसन्दीपनं (इन्दुः चन्द्रः तस्य सन्दीपनं शोभावृद्धिकरं चन्द्रादपि समधिक- शोभासम्पन्नमित्यर्थः) [स्वर्गेऽपि इन्दुसन्दीपनी - नाम्नी काचिदस्ति]; (तव) गतिः (गमनं) जनमनोरमा (जनस्य मम मनोहारिणी) [स्वर्गेऽपि जनमनोरमा इति काचित्] ऊरुद्वयं (जघन - युगलं) विजितरम्भम् (विजिता तिरस्कृता रम्भा कदली येन तत् कदल्या अपि समधिकशोभामयम्) [स्वर्गेऽपि रम्भानाम्नी काचित्]; तव रतिः (सुरतविहारः) कलावती (सुकौशलवती) [स्वर्गेऽपि कलावतीनाम्नी काचित् विद्यते]; भ्रुवौ च रुचिरचित्रलेखे (रुचिरा मनोज्ञा चित्रा चमत्कारिणी लेखा ययोस्तादृशौ) [स्वर्गेतु एका एव चित्र लेखा] ; अह त्वं [क्षीणापि] पृथ्वीगता (भूतलस्था) [अपि] विवुध-यौवतं (देवयुवतीसमूहम्) बहसि (धारयसि)॥६॥

पद्यानुवाद-

अवनी- अप्सरी! अलस नेत्रमयि! वदन इन्दु तव शोभे ।

गति मनहर, रति पटु, रम्भा-उरु, चित्रलिखित भौं लोभे ॥

अनुवाद - हे तन्वि ! आश्चर्य है, धरणि तल में अवस्थिता होकर भी तुम स्वर्गस्था विद्याधरियों के समान प्रतीत हो रही हो, तुम्हारे नयन सिन्धु मदालसा के मद से अलस हो रहे हैं। तुम्हारा वदन विवुध - रमणी इन्दु सन्दीपनी के समान है। तुम्हारा गमन देववनिता मनोरमा के समान मनोहर है, तुम्हारे उरुद्वय ने सुरयोषिता रम्भा को भी पराजित कर दिया है। तुम्हारा रति-कौशल स्वर्गस्था कलावती के समान विविध कौशलयुक्ता है और तुम्हारे भ्रूयुगल चित्रलेखा के समान मनोहारी एवं विचित्र हैं।

बालबोधिनी - हे तन्वि राधिके ! यद्यपि तुम इस पृथ्वी पर अवस्थित हो, फिर भी ऐसा लगता है जैसा समस्त देवस्त्रियों का समूह तुम्हारे भीतर निवास कर रहा है। तुम्हारी आँखें सौभाग्यमद से अलसायी हुई हैं कि अब तो प्रिय तुम्हारे चरणों में हैं। इस प्रकार मदजनित हर्ष के कारण मेरी अङ्गना होकर भी तुमने स्वर्ग की अप्सरा मदालसा को अपने नेत्रों में धारण किया है। तुम्हारा मुखमण्डल विबुधरमणी इन्दुमती का आवास है, जहाँ चन्द्रमा से भी अधिक आवश्यकता है। तुम्हें देखकर चन्द्रमा के मन में ईर्ष्या उत्पन्न होती है, क्योंकि उसमें इतनी शक्ति कहाँ है ? तुम्हारी गति जन-जन के मन को आह्लादित करनेवाली है। अतएव तुममें मनोरमा नामक अप्सरा का निवास है। तुम्हारी जाँघ कदली वृक्ष को भी अनादृत कर रही है, जहाँ मानों रम्भा का निवास है। तुम्हारी गति हाव, भाव, विलास किलकिञ्चित् आदि कलाओं से युक्त है। अतएव तुममें कलावती नामक अप्सरा का निवास है । तुम्हारे भ्रूयुगल मनोहर चित्ररचना के समान हैं। वहाँ लगता है कि तुम पृथ्वी पर रहती हुई भी इस पृथ्वी छन्द में उतरकर देवताओं के यौवन का वितान बनी हुई हो, तुम्हारा यौवन दिव्य हो ।

प्रस्तुत श्लोक में पृथ्वी छन्द तथा कल्पितोपमालंकार है ।

प्रीतिं वस्तनुतां हरिः कुवलयापीडेन सार्धं रणे

राधा - पीन - पयोधर - स्मरण कृत्कुम्भेन सम्भेदवान् ।

यत्र स्विद्यति मीलति क्षण क्षिप्ते द्विपे तत्क्षणात्

कंसस्यालमभूत् जितं जितमिति व्यामोह - कोलाहलः ॥७ ॥

अन्वय - [एवं स्वप्रिया - गुण कीर्त्तनावेशान्महासङ्कट - स्थानानुभूत- तत्स्पर्श - सुख - स्मरण - परवशं श्रीकृष्णं वर्णयन् भक्तानाशास्ते] - [यः हरिः] राधा - पीन - पयोधर- स्मरणकृत् कुम्भेन (राधायाः पीनयोः पयोधरयोः स्मरणकृते) सादृश्येन संस्कारोद्- बोधकतया स्मारकौ कुम्भौ यस्य तादृशेन) कुवलयापीडेन (तदाख्येन कंसहस्तिना) सार्द्धं (सह) रणे (युद्धे) सम्भेदवान् (आसङ्गवान्) [ कुवलयापीड़स्य कुम्भस्पर्शेन राधास्तनस्पर्श-स्मृतिवशात् सात्त्विक भाववान् सन् इति भावः] [तथा च] यत्र (सम्भेदे) [तत्स्पर्शसुखेन सात्त्विकोदयात्] क्षणं (क्षणं व्याप्य) [कृष्णे] स्विद्यति (कान्ताकुचयुगस्मरणात् सात्त्विकभावोदयेन स्वेदं मुञ्चति सति) [तथा] मीलति (आवेशभरात् नेत्रे संकोचयति सति) [कंसस्य कंसपक्षीय- जनसमूहस्य अस्माभिः जितं जितमिति व्यामोह - कोलाहलः अलमभूत्] अथ [तेन श्रीकृष्णेन ] तत्क्षणात् द्विपे (हस्तिनि कुवलयापीड़े) क्षिप्ते (हत्वा दूरं प्रक्षिप्ते सति) कंसस्य (कंसपक्षीयस्य जनसमूहस्य) [अनेन] जितं जितमिति व्यामोह- कोलाहलः (व्यामोहेन शोकज-पीड़या यः कोलाहलः कलरवः) अलमभूत् (प्रादुरासीत्) सः (तद्विधः) हरिः वः (युष्माकं) प्रीतिं (आनन्द) अनुताम् (विस्तारयतु); [पूर्वत्र व्यामोहः आनन्देन, उत्तरत्र तु शोकेनेति ज्ञेयम्] । [अतएव सर्गोऽयं श्रीराधास्मरण-विकार - वर्णने मनोहरो माधवो यत्र स मुग्धो इति दशमः] ॥७॥

अनुवाद - वे भगवान् श्रीहरि सम्पूर्ण जगत का आनन्द वर्द्धन करें; जिन्हें कुवलयापीड़ हाथी के उत्तुंग कुम्भ को देखकर श्रीराधा के पीन पयोधरों का स्मरण हो आया, जो युद्धकाल में उसके स्पर्श मात्र से अनङ्ग रसावेश के कारण स्वेदपूर्ण हो पड़ा, पुनः जिनके नयन युगल निमीलित हो गये, जिसे कंसपक्षीय जीत गये, जीत गये (हम जीत गये) और अन्ततः उसको मार देनेपर कृष्णपक्ष जीत गये, जीत गये इस प्रकार का व्यामोहयुक्त आनन्दसूचक महाकोलाहल हुआ था।

बालबोधिनी - इस प्रकार अपनी प्रिया के गुण-कीर्तन के आवेश में अत्यन्त संकटपूर्ण स्थिति में श्रीराधाजी के स्पर्श- सुखानुभूति का स्मरण श्रीकृष्ण के द्वारा होने पर कवि जयदेव सभी को आशीर्वाद प्रदान कर रहे हैं कि श्रीहरि आपलोगों का प्रीतिवर्द्धन करें। जब भगवान् श्रीकृष्ण का कंस के हाथी कुवलयापीड़ के साथ युद्ध हुआ, तब उस युद्ध-स्थल में उस हाथी के कुम्भस्थल को देखकर उन्हें श्रीराधाजी के पीन पयोधरों का स्मरण हो आया। उस हाथी के स्पर्श से उन्हें श्रीराधाजी के स्पर्शानुभूति जन्य सात्त्विक भाव का उदय हुआ। उस शृङ्गारिक आनन्द में विह्वल हो जाने से अर्थात् श्रीराधाजी के मिलन-जन्य आनन्द के स्मरण से उन्होंने अपने नेत्र बन्द कर लिये। तब कंस के सभासदों को यह समझकर आनन्द हुआ कि हमारी जीत हो गयी है, श्रीकृष्ण ने भयभीत होकर अपनी आँखें बन्द कर ली हैं। पर जैसे ही श्रीकृष्ण ने व्यामोह वाक्यों की उच्च ध्वनि का श्रवण किया, तब अतिशीघ्र स्वयं को संभाल लिया और क्षणभर में ही उस हाथी को पछाड़कर मार गिराया। तब उसी शत्रु पक्ष में उन्हीं सभासदों के मुख से अचानक यह ध्वनि निकल पड़ी श्रीकृष्ण जीत गये, जीत गये। यह ध्वनि आनन्ददायक कोलाहल बन गई।

इस प्रकार यह सर्ग श्रीराधा के स्मरण-जनित विकार के वर्णन से युक्त है। इस विकार भाव द्वारा माधव अत्यन्त मनोहर वेश धारण किये हुए हैं।

इति श्रीगीतगोविन्दे महाकाव्ये मानिनी वर्णने चतुरचतुर्भुजः नाम दशमः सर्गः ।

इस प्रकार श्रीगीतगोविन्द महाकाव्य में चतुर चतुर्भुज नामक दसम सर्ग की बालबोधिनी वृत्ति समाप्त ।

आगे जारी........ गीतगोविन्द सर्ग 11

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