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मदालसा
मदालसा विश्वावसु गन्धर्वराज की
पुत्री तथा ऋतुध्वज की पटरानी थी। इनका ब्रह्मज्ञान जगद्विख्यात है। पुत्रों को
पालने में झुलाते-झुलाते इन्होंने ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया था। वे अनासक्त होकर
अपने कर्तव्य का पालन करती जिसके फल स्वरुप उनके पुत्र बचपन से ही ब्रह्मज्ञानी
हुए। यह ज्ञान उपदेश या लोरी उल्लापनगीतम् या बालोल्लापनगीतम् नाम से प्रसिद्ध है।
आज भी वे एक आदर्श माँ हैं क्योंकि वैष्णव शास्त्रों में वर्णन आता हैं की पुत्र
जनना उसी का सफल हुआ जिसने अपने पुत्र की मुक्ति के लिय उसे भक्ति और ज्ञान दिया।
मदालसा को हर (चुरा) ले जाने पर
पातालकेतु तथा इनके पति ऋतुध्वज से घोर संग्राम हुआ। अंत में पातालकेतु परास्त
होकर मारा गया और ऋतुध्वज ने इन्हें उसके बंधन से मुक्त किया।
मदालसा
मदालसा एक पौराणिक चरित्र है जो
ऋतुध्वज की पटरानी थी और विश्वावसु गन्धर्वराज की पुत्री थी। शत्रुजित नामक एक
राजा था। उसके यज्ञों में सोमपान करके इंद्र उस पर विशेष प्रसन्न हो गये। शत्रुजित
को एक तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम ऋतुध्वज था। उस राजकुमार के
विभिन्न वर्णों से संबंधित अनेक मित्र थे। सभी इकटठे खेलते थे। मित्रों के अश्वतर
नागराज के दो पुत्र भी थे जो प्रतिदिन मनोविनोद क्रीड़ा इत्यादि के निमित ऋतुध्वज
के पास भूतल पर आते थे। राजकुमार के बिना रसातल में वे रात भर अत्यंत व्याकुल
रहते। एक दिन नागराज ने उनसे पूछा कि वे दिन-भर कहाँ रहते हैं?
उनके बताने पर उनकी प्रगाढ़ मित्रता से अवगत होकर नागराज ने फिर
पूछा कि उनके मित्र के लिए वे क्या कर सकते हैं। दोनों पुत्रों ने कहा ऋतुध्वज
अत्यंत संपन्न है किंतु उसका एक असाध्य कार्य अटका हुआ है। कथा एक बार राजा
शत्रुजित के पास गालब मुनि गये थे। उन्होंने राजा से कहा था, कि एक दैत्य उनकी तपस्या में विघ्न प्रस्तुत करता है। उसको मारने के
साधनस्वरूप यह कुवलय नामक घोड़ा आकाश से नीचे उतरा और आकाशवाणी हुई, राजा शत्रुजित का पुत्र ऋतुध्वज घोड़े पर जाकर दैत्य को मारेगा। यह घोड़ा
बिना थके आकाश, जल, पृथ्वी, पर समान गति से चल सकता है। राजा ने हमारे मित्र ऋतुध्वज को गालब के साथ
कर दिया। ऋतुध्वज उस घोड़े पर चढ़कर राक्षस का पीछा करने लगा। राक्षस सूअर के रुप
में था। राजकुमार के वाणों से बिंधकर वह कभी झाड़ी के पीछे छुप जाता, कभी गड्ढे में कूद जाता। ऐसे ही वह एक गड्ढे में कूदा तो उसके पीछे-पीछे
घोड़े सहित राज कुमार भी वहीं कूद गया। वहाँ सूअर तो दिखायी नहीं दिया किंतु एक
सुनसान नगर दिखायी पड़ा। एक सुंदरी व्यस्तता में तेज़ी से चली आ रही थी। राजकुमार
उसके पीछे चल पड़ा। उसका पीछा करता हुआ राजा एक अनुपम सुंदर महल में पहुँचा वहाँ
सोने के पलंग पर एक राजकुमारी बैठी थी। जिस सुंदरी को उसने पहले देखा था, वह उसकी दासी कुंडला थी। राजकुमारी का नाम मदालसा था। कुंडला ने बताया-'मदालसा प्रसिद्ध गंधर्वराज विश्वावसु की कन्या है। व्रजकेतु दानव का पुत्र
पातालकेतु उसे हरकर यहाँ ले आया है। मदालसा के दुखी होने पर कामधेनु ने प्रकट होकर
आश्वासन दिया था कि जो राजकुमार उस दैत्य को अपने वाणों से बींध देगा, उसी से इसका विवाह होगा। ऋतुध्वज ने उस दानव को बींधा है, यह जानकर कुंडला ने अपने कुलगुरु का आवाहन किया। कुलगुरु तंबुरु ने प्रकट
होकर उन दोनों का विवाह संस्कार करवाया। मदालसा की दासी कुंडला तपस्या के लिए चली
गयी तथा राजकुमार मदालसा को लेकर चला तो दैत्यों ने उस पर आक्रमण कर दिया।
पातालकेतु सहित सबको नष्ट करके वह अपने पिता के पास पहुँचा। निविंध्न रुप से समस्त
पृथ्वी पर घोड़े से घूमने के कारण वह कुवलयाश्व तथा घोड़ा (अश्व) कुवलय नाम से
प्रसिद्ध हुआ। पिता की आज्ञा से वह प्रतिदिन प्रात: काल उसी घोड़े पर बैठकर
ब्राह्मणों की रक्षा के लिए निकल जाया करता था। एक दिन वह इसी संदर्भ में एक आश्रम
के निकट पहुँचा। वहाँ पाताल केतु का भाई तालकेतु ब्राह्मण वेश में रह रहा था। भाई
के द्वेष को स्मरण करके उसने यज्ञ में स्वर्णार्पण के निमित्त राजकुमार से उसका
स्वर्णहार मांग लिया। तदनंतर उसे अपने लौटने तक आश्रम की रक्षा का भार सौंपकर उसने
जल में डुबकी लगायी। जल के भीतर से ही वह राजकुमार के नगर में पहुँच गया। वहाँ
उसने दैत्यों से युद्ध और राजकुमार की मृत्यु के झूठी खबर की पुष्टि हार दिखा कर
की। ब्राह्मणों ने उनका अग्नि-संस्कार कर दिया। मदालसा ने भी अपने प्राण त्याग
दिये। तालकेतु पुन: जल से निकलकर राजकुमार के पास पहुँचा और धन्यवाद कर उसने
राजकुमार को विदा किया। घर आने पर ऋतुध्वज को समस्त समाचार विदित हुए, अत: मदालसा के चिरविरह से आतप्त वह शोकाकुल है। वह हम लोगों के साथ थोड़ा
मन बहला लेता है। पुत्रों की बात सुनकर उनके मित्र का हित करने की इच्छा से नागराज
ने तपस्या से सरस्वती को प्रसन्न कर अपने तथा अपने भाई कंबल के लिए संगीतशास्त्र
की निपुणता का वर प्राप्त किया। तदनंतर शिव को तपस्या से प्रसन्न कर अपने फन से
मदालसा के पुनर्जन्म का वर प्राप्त किया। अश्वतर के मध्य फन से मदालसा का जन्म
हुआ। नागराज ने उसे गुप्त रुप से अपने रनिवास में छुपाकर रख दिया। तदनंतर अपने
दोनों पुत्रों से ऋतुध्वज को आमंत्रित करवाया। ऋतुध्वज ने देखा कि दोनों
ब्राह्मणवेशी मित्रों ने पाताल लोक पहुँचकर अपना छद्मवेश त्याग दिया। उनका नाग रूप
तथा नागलोक का आकर्षक रुप देख वह अत्यंत चकित हुआ। आतिथ्योपरांत नागराज से उससे
मनवांछित वस्तु मांगने के लिए कहा। ऋतुध्वज मौन रहा। नागराज ने मदालसा उसे समर्पित
कर दी। उसने अत्यंत आभार तथा प्रसन्नता के साथ अश्वतर को प्रणाम किया तथा अपने
घोड़े कुवलय का आवाहन कर वह मदालसा सहित अपने माता-पिता के पास पहुँचा। पिता की
मृत्यु के उपरांत उसका राज्याभिषेक हुआ। मदालसा से उसे चार पुत्र प्राप्त हुए।
पहले तीन पुत्रों के नाम क्रमश: विक्रांत, सुबाहु तथा
अरिमर्दन रखा गया। मदालसा प्रत्येक बालक के नामकरण पर हंसती थी। राजा ने कारण पूछा
वह बोली कि नामानुरूप गुण बालक में होने आवश्यक नहीं हैं। नाम तो मात्र चिह्न है।
आत्मा का नाम भला कैसे रखा जा सकता है। साभार bhartdiscovery.org
मदालसा
मदालसा द्वारा शिशुओं को सच्चा
ज्ञान देना
मृत्यु के पश्चात मिले पुनर्जीवन ने
मदालसा को मानव शरीर की नश्वरता और जीवन के सार-तत्व का ज्ञान करा दिया था,
अब वो पहले वाली मदालसा नहीं थी लेकिन उसने अपने व्यवहार से इस बात
को प्रकट नहीं होने दिया। पति से वचन लिया कि होने वाली संतानों के लालन-पालन का
दायित्व उसके ऊपर होगा और पति उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगें। मदालसा गर्भवती
हुई तो अपने गर्भस्थ शिशु को संस्कारित करने लगी। उसे भी वो ज्ञान देने लगी जिस
ज्ञान से वो स्वयं परिपूर्ण थी। वो अपने गर्भस्थ शिशु को लोरी सुनाते हुये कहती थी
कि ऐ मेरे बेटे, तू शुद्ध है, बुद्ध है,
संसार की माया से निर्लिप्त है। एक के बाद एक तीन पुत्र हुए,
पिता क्षत्रिय थे, उनकी मान्यता थी कि पुत्रों
का नाम भी क्षत्रिय-गुणों के अनुरूप हो इसलिये उस आधार पर अपने पुत्रों का नाम रखा,
विक्रांत, सुबाहू और शत्रुमर्दन। उसके सारे
पुत्र मदालसा से संस्कारित थे, मदालसा ने उन्हें माया से
निर्लिप्त निवृतिमार्ग का साधक बनाया था इसलिये सबने राजमहल त्यागते हुये संन्यास
ले लिया। पिता बड़े दु:खी हुये कि ऐसा हुआ तो कैसे चलेगा।
मदालसा फिर से गर्भवती हुई तो पति
ने अनुरोध किया कि हमारी सब संतानें अगर निवृतिमार्ग की पथिक बन गई तो ये विराट
राज-पाट को कौन संभालेगा इसलिये कम से कम इस पुत्र को तो राजकाज की शिक्षा दो।
मदालसा ने पति की आज्ञा मान ली। जब चौथा पुत्र पैदा हुआ तो पिता अपने पहले तीन
पुत्रों की तरह उसका नाम भी क्षत्रियसूचक रखना चाहते थे जिस पर मदालसा हँस पड़ी और
कहा,
आपने पहले तीन पुत्रों के नाम भी ऐसे ही रखे थे उससे क्या अंतर पड़ा
फिर इसका क्षत्रियोचित नाम रखकर भी क्या हासिल होगा। राजा ऋतुध्वज ने कहा, फिर तुम ही इसका नाम रखो। मदालसा ने चौथे पुत्र को अलर्क नाम दिया और उसे
राजधर्म और क्षत्रियधर्म की शिक्षा दी।
महान प्रतापी राजा अलर्क
अलर्क दिव्य माँ से संस्कारित थे
इसलिये उनकी गिनती सर्वगुणसंपन्न राजाओं में होती है। उन्हें राजकाज की शिक्षा के
साथ माँ ने न्याय, करुणा, दान इन सबकी भी शिक्षा दी थी। वाल्मीकि रामायण में आख्यान मिलता है कि एक
नेत्रहीन ब्राह्मण अलर्क के पास आया था और अलर्क ने उसे अपने दोनों नेत्र दान कर
दिये थे। इस तरह अलर्क विश्व के पहले नेत्रदानी हैं। इस अद्भुत त्याग की शिक्षा
अलर्क को माँ मदालसा के संस्कारों से ही तो मिली थी।
बालक क्षत्रिय कुल में जन्मा हो तो
ब्रह्मज्ञानी की जगह रणकौशल से युक्त होगा, नाम
शूरवीरों जैसे होंगें तो उसी के अनुरूप आचरण करेगा इन सब स्थापित मान्यताओं को
मदालसा ने एक साथ ध्वस्त करते हुए दिखा दिया कि माँ अगर चाहे तो अपने बालक को
शूरवीर और शत्रुंजय बना दे और वो अगर चाहे तो उसे धीर-गंभीर, महात्मा, ब्रह्मज्ञानी और तपस्वी बना दे। अपने पुत्र
को एक साथ साधक और शासक दोनों गुणों से युक्त करने का दुर्लभ काम केवल माँ का
संस्कार कर सकता है जो अलर्क में माँ मदालसा ने भरे थे।
मन्दालसा स्त्रोत
उल्लापनगीतम्
मदालसोपाख्यान - बालोल्लापनगीतम्
सिद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि,
संसारमाया परिवर्जितोऽसि ।
शरीरभिन्नस्त्यज सर्व चेष्टां,
मन्दालसा वाक्यमुपास्व पुत्र! ।।१।।
अर्थ :- मन्दालसा अपने पुत्र
कुन्दकुन्द को लोरी सुनाती हुई कहती है कि हे पुत्र! तुम सिद्ध हो,
तुम बुद्ध हो, केवलज्ञानमय हो, निरंजन अर्थात् सर्व कर्ममल से रहित हो, संसार की
मोह-माया से रहित हो, इस शरीर से सर्वथा भिन्न हो, अत: सभी चेष्टाओं का परित्याग करो। हे पुत्र! मन्दालसा के वाक्य को सेवन
कर अर्थात् हृद्य में धारण कर। यहाँ पर कुन्दकुन्द की माँ अपने पुत्र को जन्म से
ही लोरी सुनाकर उसे शुद्धात्म द्रव्य का स्मरण कराती है, अत:
यह कथन शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा है। जो उपादेय है।
ज्ञाताऽसि दृष्टाऽसि परमात्म-रूपी,
अखण्ड-रूपोऽसि ।
जितेन्द्रियस्त्वं त्यज मानमुद्रां,
मन्दालसा वाक्यमुपास्व पुत्र! ॥२॥
अर्थ :- हे पुत्र! तुम ज्ञाता हो,
दृष्टा हो, जो रूप परमात्मा का है तुम भी उसी
रूप हो, अखण्ड हो, गुणों के आलय हो
अर्थात् अनन्त गुणों से युक्त हो, तुम जितेन्द्रिय हो,
अत: तुम मानमुद्रा को छोड़ो, मानव पर्याय की
प्राप्ति के समय सर्वप्रथम मान कषाय ही उदय में आती है उस कषाय से युक्त मुद्रा के
त्याग के लिए माँ ने उपदेश दिया है। हे पुत्र! मन्दालसा के इन वाक्यों को हृदय में
धारण करो।
शान्तोऽसि दान्तोऽसि विनाशहीनः,
सिद्धस्वरूपोऽसि कलंकमुक्त:।
ज्योतिस्वरूपोऽसि विमुञ्च मायां,
मन्दालसा वाक्यमुपास्व पुत्र! ।।३॥
अर्थ :- माँ मन्दालसा अपने पुत्र
कुन्दकुन्द को उसके स्वरूप का बोध कराती हुई उपदेश करती है कि हे पुत्र! तुम शान्त
हो अर्थात् राग-द्वेष से रहित हो, तुम
इन्द्रियों का दमन करने वाले हो, आत्म-स्वरूपी होने के कारण
अविनाशी हो, सिद्ध स्वरूपी हो, कर्म
रूपी कलंक से रहित हो, अखण्ड केवलज्ञान रूपी ज्योति-स्वरूप
हो, अत: हे पुत्र! तुम माया को छोड़ो। मन्दालसा के इन
वाक्यों को हृदय में धारण करो।
एकोऽसि मुक्तोऽसि चिदात्मकोऽसि,
चिद्रुपभावोऽसि चिरंतनोऽसि ।
अलक्ष्यभावो जहि देहमोहं,
मन्दालसा वाक्यमुपास्व पुत्र! ।।४।।
अर्थ :- माँ मन्दालसा लोरी गाती हुई
अपने पुत्र कुन्दकुन्द को कहती है कि हे पुत्र! तुम एक हो,
सांसारिक बन्धनों से स्वभावत: मुक्त हो, चैतन्य
स्वरूपी हो, चैतन्य स्वभावी आत्मा के स्वभावरूप हो, अनादि अनन्त हो, अलक्ष्यभाव रूप हो, अत: हे पुत्र! शरीर के साथ मोह परिणाम को छोड़ो। हे पुत्र! मन्दालसा के इन
वाक्यों को हृदय में धारण करो।
निष्काम-धामासि विकर्मरूपा,
रत्नत्रयात्मासि परं पवित्रम् ।
वेत्तासि चेतोऽसि विमुंच कामं,
मन्दालसा वाक्यमुपास्व पुत्र! ।।5।।
अर्थ :- जहाँ कोई कामनायें नहीं हैं
ऐसे मोक्ष रूपी धाम के निवासी हो, द्रव्यकर्म
तज्जन्य भावकर्म एवं नोकर्म आदि सम्पूर्ण कर्मकाण्ड से रहित हो, रत्नत्रमय आत्मा हो, शक्ति की अपेक्षा केवलज्ञानमय
हो, चेतन हो, अत: हे पुत्र! सांसारिक
इच्छाओं व एन्द्रियक सुखों को छोड़ो। मन्दालसा के इन वाक्यों को हृदय में धारण
करो।
प्रमादमुक्तोऽसि सुनिर्मलोऽसि,
अनन्तबोधादि-चतुष्टयोऽसि।
ब्रह्मासि रक्ष स्वचिदात्मरूपं,
मन्दालसा वाक्यमुपास्व पुत्र! ॥६॥
अर्थ :- अपने पुत्र को शुद्धात्मा
के प्रति इंगित करती हुई कुन्दकुन्द की माँ मन्दालसा लोरी के रूप में फिर कहती है-
तुम प्रमाद रहित हो, क्योंकि प्रमाद
कषाय जन्य है, सुनिर्मल अर्थात् अष्टकर्मों से रहित सहजबुद्ध
हो, चार घातियाकर्मो के अभाव में होने वाले अनन्त
ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्यरूप चतुष्टयों से युक्त हो, तुम ब्रह्म
तथा शुद्धात्मा हो, अत: हे पुत्र! अपने चैतन्यस्वभावी शुद्ध
स्वरूप की रक्षा कर! माँ मदालसा के इन वाक्यों को अपने हृदय में सदैव धारण करो।
कैवल्यभावोऽसि निवृत्तयोगी,
निरामयी ज्ञात-समस्त-तत्त्वम् ।
परात्मवृत्तिस्स्मर चित्स्वरूपं,
मन्दालसा वाक्यमुपास्व पुत्र! ।।७॥
अर्थ :- तुम कैवल्यभाव रूप है,
योगों से रहित हो, जन्म-मरण जरा आदि रोगों से
रहित होने के कारण निरामय हो, समस्त तत्वों के जाता हो,
सर्वश्रेष्ठ निजात्म तत्त्व में विचरण करने वाले हो, हे पुत्र! अपने चैतन्य स्वरूपी आत्मा का स्मरण करो। हे पुत्र! माँ
मन्दालसा के इन वाक्यों को सदैव अपने हृदय में धारण करो।
चैतन्यरूपोऽसि विमुक्तभावो
भावाविकर्माऽसि समग्रवेदी ।
ध्यायप्रकामं परमात्मरूपं,
मन्दालसा वाक्यमुपास्व पुत्र! ।।८।।
अर्थ :- माँ मन्दालसा झूले में
झूलते हुए पुत्र कुन्दकुन्द को शुद्धात्म स्वरूप की घुट्टी पिलाती हुई लोरी कहती
है - हे पुत्र! तुम चैतन्य स्वरूप हो, सभी
विभाव-भावों से पूर्णतया मुक्त हो, सभी कर्मों से रहित हो,
सम्पूर्ण लोकालोक के ज्ञाता हो, परमोत्कृष्ट
एक अखण्ड ज्ञान-दर्शनमय सहजशुद्धरूप जो परमात्मा का स्वरूप है वह तुम स्वयं हो,
अत: अपने परमात्मस्वरूप का ध्यान करो। हे पुत्र! मन्दालसा के इन
वाक्यों को अपने हृदय में धारण करो।
इत्यष्टकैर्या पुरतस्तनूजम्,
विबोधनार्थ नरनारिपूज्यम् ।
प्रावृज्य भीताभवभोगभावात्,
स्वकैस्तदाऽसौ सुगतिं प्रपेदे ।।९।।
अर्थ :- इन आठ श्लोकों के द्वारा
माँ मन्दालसा ने अपने पुत्र कुन्दकुन्द को सद्बोध प्राप्ति के लिए उपदेश किया है,
जिससे वह सांसारिक भोगों से भयभीत होकर समस्त नर-नारियों से पूज्य
श्रमण दीक्षा धारण कर सद्गति को प्राप्त करे।
इत्यष्टकं पापपराड्ंमुखो यो,
मन्दालसायाः भणति प्रमोदात् ।
स सद्गतिं श्रीशुभचन्द्रमासि,
संप्राप्य निर्वाण गतिं प्रपेदे ॥१०॥
अर्थ :- इस प्रकार जो भव्य जीव
मन्दालसा द्वारा रचित इन आठ श्लोक मय स्तोत्र को पापों से पराडग्मुख होकर व
हर्षपूर्वक पढ़ता है वह श्रीशुभचन्द्ररूप सद्गति को प्राप्त होकर क्रमश: मोक्ष को
प्राप्त करता है।
।इति मदालसोपाख्यान - बालोल्लापनगीतम् या उल्लापनगीतम् या मन्दालसा स्तोत्रम् ।
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