संसारमोहन गणेशकवचम्

संसारमोहन गणेशकवचम्

यह संसारमोहन गणेशकवचम् अपने नाम के ही अनुरूप पुरे संसार को आकर्षित करने की शक्ति रखता है। यदि पूरी श्रद्धा के साथ इसका पुरश्चरण किया जाय तो यह तुरंत ही फल देता है और यदि नित्य-प्रति भी इसका पाठ किया जाय तो पाठक के अन्दर आकर्षित शक्ति आ जाता है। इसे शनि देव को विष्णुजी ने कहा है। यह कवच श्रीब्रह्मवैवर्त्त पुराण के गणपतिखण्ड में वर्णित है।

शनैश्चर बोलेवेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ भगवन! सम्पूर्ण दुःखों के विनाश और दुःख की पूर्णतया शान्ति के लिये विघ्नहन्ता गणेश के कवच का वर्णन कीजिये। प्रभो! हमारा मायाशक्ति के साथ विवाद हो गया है। अतः उस विघ्न के प्रशमन के लिये मैं उस कवच को धारण करूँगा।

तदनन्तर भगवान विष्णु ने कवच की गोपनीयता और महिमा बतलाते हुए कहासूर्यनन्दन! दस लाख जप करने से कवच सिद्ध हो जाता है। जो मनुष्य कवच सिद्ध कर लेता है, वह मृत्यु को जीतने में समर्थ हो जाता है। सिद्ध-कवच वाला मनुष्य उसके ग्रहणमात्र से भूतल पर वाग्मी, चिरजीवी, सर्वत्र विजयी और पूज्य हो जाता है। इस माला मन्त्र को तथा इस पुण्यकवच को धारण करने वाले मनुष्यों के सारे पाप निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं। भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस, डाकिनी, योगिनी, बेताल आदि, बालग्रह, ग्रह तथा क्षेत्रपाल आदि कवच के शब्दमात्र के श्रवण से भयभीत होकर भाग खड़े होते हैं। जैसे गरुड़ के निकट सर्प नहीं जाते, उसी तरह कवचधारी पुरुषों के संनिकट आधि (मानसिक रोग), व्याधि (शारीरिक रोग) और भयदायक शोक नहीं फकटते। इसे अपने सरल स्वभाव वाले गुरु भक्त शिष्य को ही बतलाना चाहिये।

संसारमोहन गणेशकवचम्

संसारमोहनं गणेशकवचम्

श्रीविष्णुरुवाच ।

संसारमोहनस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः ।

ऋषिश्छन्दश्च बृहती देवो लम्बोदरः स्वयम् ॥ १॥

धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः ।

सर्वेषां कवचानान्ऽच सारभूतमिदं मुने ॥ २॥

ॐ गं हुं श्रीं गणेशाय स्वाहा मे पातु मस्तकम् ।

द्वात्रिंशदक्षरो मन्त्रो ललाटं मे सदाऽवतु ॥ ३॥

ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं गमिति च सन्ततं पातु लोचनम् ।

तालुकं पातु विघ्नेशः सन्ततं धरणीतले ॥ ४॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीमिति सन्ततं पातु नासिकाम् ।

ॐ गौं गं शूर्पकर्णाय स्वाहा पात्वधरं मम ॥ ५॥

दन्ताणि तालुकां जिह्वां पातु मे षोडशाक्षरः ॥ ६॥

ॐ लं श्रीं लम्बोदरायेति स्वाहा गण्डं सदाऽवतु ।

ॐ क्लीं ह्रीं विघ्ननाशाय स्वहा कर्णं सदाऽवतु ॥ ७॥

ॐ श्रीं गं गजाननायेति स्वाहा स्कन्धं सदाऽवतु ।

ॐ ह्रीं विनायकायेति स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु ॥ ८॥

ॐ क्लीं ह्रीमिति कङ्कालं पातु वक्षःस्थलन्ऽच गं ।

करौ पादौ सदा पातु सर्वाङ्गं विघ्ननिघ्नकृत् ॥ ९॥

प्राच्यां लम्बोदरः पातु आग्नेय्यां विघ्ननायकः ।

दक्षिणे पातु विघ्नेशो नैरृत्यान्तु गजाननः ॥ १०॥

पश्चिमे पार्वतीपुत्रो वायव्यां शङ्करात्मजः ।

कृष्णस्यांशश्चोत्तरे तु परिपूर्णतमस्य च ॥ ११॥

ऐशान्यामेकदन्तश्च हेरम्बः पातु चोर्द्ध्वतः ।

अधो गणाधिपः पातु सर्वपूज्यश्च सर्वतः ॥ १२॥

स्वप्ने जागरणे चैव पातु मे योगिनां गुरुः ॥ १३॥

इति ते कथितं वत्स ! सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।

संसारमोहनं नाम कवचं परमाद्भुतम् ॥ १४॥

श्रीकृष्णेन पुरा दत्तं गोलोके रासमण्डले ।

वृन्दावने विनीताय मह्यं दिनकरात्मज ॥ १५॥

मया दत्तन्ऽच तुभ्यन्ऽच यस्मै कस्मै न दास्यसि ।

परं वरं सर्वपूज्यं सर्वसङ्कटतारणम् ॥ १६॥

गुरुमभ्यर्च्य विधिवत् कवचं धारयेत्तु यः ।

कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ सोऽपि विष्णुर्न संशयः ॥ १७॥

अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च ।

ग्रहेन्द्रकवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ १८॥

इदं कवचमज्न्ऽआत्वा यो भजेच्छङ्करात्मजम् ।

शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥ १९॥

इति ब्रह्मवैवर्ते गणपतिखण्डे संसारमोहनं नाम गणेशकवचं सम्पूर्णम् ॥

संसार मोहन गणेश कवच भावार्थ

विष्णुरुवाच

संसारमोहनस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः ।

ऋषिश्छन्दश्च बृहती देवो लम्बोदरः स्वयम् ।।१।।

भावार्थ :- विष्णु ने कहा- शनैश्चर ! इस संसार-मोहननामक कवच के प्रजापति ऋषि हैं, बृहती छन्द है और स्वयं लम्बोदर गणेश देवता हैं ।

धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः ।

सर्वेषां कवचानां च सारभूतमिदं मुने ।।२।।

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में इसका विनियोग कहा गया है । मुने ! यह सम्पूर्ण कवचों का सारभूत है ।

ॐ गं हुं श्रीगणेशाय स्वाहा मे पातु मस्तकम् ।

द्वात्रिंशदक्षरो मन्त्रो ललाटं मे सदावतु ।।३।।

ॐ गं हुं श्रीगणेशाय स्वाहायह मेरे मस्तक की रक्षा करे । बत्तीस अक्षरों वाला मन्त्र* सदा मेरे ललाट को बचावे।

ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं गमिति च संततं पातु लोचनम् ।

तालुकं पातु विघ्नेशः संततं धरणीतले ।।४।।

ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं गंयह निरन्तर मेरे नेत्रों की रक्षा करे । विघ्नेश भूतल पर सदा मेरे तालु की रक्षा करें ।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीमिति च संततं पातु नासिकाम् ।

ॐ गौं गं शूर्पकर्णाय स्वाहा पात्वधरं मम ।।५।।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लींयह निरन्तर मेरी नासिका की रक्षा करे तथा ॐ गौं गं शूर्पकर्णाय स्वाहायह मेरे ओठ को सुरक्षित रखे ।

दन्तानि तालुकां जिह्वां पातु मे षोडशाक्षरः ।।६।।

षोडशाक्षर-मन्त्र मेरे दाँत, तालु और जीभ को बचावे ।

ॐ लं श्रीं लम्बोदरायेति स्वाहा गण्डं सदावतु ।

ॐ क्लीं ह्रीं विघ्न-नाशाय स्वाहा कर्ण सदावतु ।।७।।

ॐ लं श्रीं लम्बोदराय स्वाहासदा गण्ड-स्थल की रक्षा करे । ॐ क्लीं ह्रीं विघ्न-नाशय स्वाहासदा कानों की रक्षा करे ।

ॐ श्रीं गं गजाननायेति स्वाहा स्कन्धं सदावतु ।

ॐ ह्रीं विनायकायेति स्वाहा पृष्ठं सदावतु ।।८ ।।

ॐ श्री गं गजाननाय स्वाहासदा कंधों की रक्षा करे । ॐ ह्रीं विनायकाय स्वाहासदा पृष्ठभाग की रक्षा करे ।

ॐ क्लीं ह्रीमिति कङ्कालं पातु वक्ष:स्थलं च गम् ।

करौ पादौ सदा पातु सर्वाङ्गं विघ्ननिघ्नकृत् ।।९।।

ॐ क्लीं ह्रींकंकाल की और गंवक्ष:स्थल की रक्षा करे । विघ्ननिहन्ता हाथ, पैर तथा सर्वाङ्ग को सुरक्षित रखे।

प्राच्यां लम्बोदरः पातु आग्नेय्यां विघ्न-नायक: ।

दक्षिणे पातु विघ्नेशो नैर्ऋत्यां तु गजाननः ।।१०।।  

पूर्वदिशा में लम्बोदर और आग्नेय में विघ्न-नायक रक्षा करें । दक्षिण में विघ्नेश और नैर्ऋत्यकोण में गजानन रक्षा करें ।

पश्चिमे पार्वतीपुत्रो वायव्यां शंकरात्मजः ।

कृष्णस्यांशश्चोत्तरे च परिपूर्णतमस्य च ।।११।।  

पश्चिम में पार्वतीपुत्र, वायव्यकोण में शंकरात्मज, उत्तर में परिपूर्णतम श्रीकृष्ण का अंश रक्षा करें ।

ऐशान्यामेकदन्तश्च हेरम्बः पातु चो‌र्ध्वतः ।

अधो गणाधिपः पातु सर्वपूज्यश्च सर्वतः ।।१२ ।।

ईशानकोण में एकदन्त और ऊर्ध्व भाग में हेरम्ब रक्षा करें । अधोभाग में सर्वपूज्य गणाधिप सब ओर से मेरी रक्षा करें ।

स्वप्ने जागरणे चैव पातु मां योगिनां गुरु: ।।१३ ।।

शयन और जागरणकाल में योगियों के गुरु मेरा पालन करें।

इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।

संसारमोहनं नाम कवचं परमाद्भुतम् ।।१४ ।।

वत्स ! इस प्रकार जो सम्पूर्ण मन्त्रसमूहों का विग्रहस्वरूप है, उस परम अद्भुत संसारमोहन नामक कवच का तुमसे वर्णन कर दिया ।

श्रीकृष्णेन पुरा दत्तं गोलोके रासमण्डले ।

वृन्दावने विनीताय मह्यं दिनकरात्मजः ।।१५।।   

सूर्यनन्दन ! इसे प्राचीनकाल में गोलोक के वृन्दावन में रासमण्डल के अवसर पर श्रीकृष्ण ने मुझ विनीत को दिया था ।

मया दत्तं च तुभ्यं च यस्मै कस्मै न दास्यसि ।

परं वरं सर्वपूज्यं सर्वसङ्कटतारणम् ।।१६ ।।

वही मैंने तुम्हें प्रदान किया है । तुम इसे जिस किसी को मत दे डालना । यह परम श्रेष्ठ, सर्वपूज्य और सम्पूर्ण संकटों से उबारनेवाला है ।

गुरुमभ्य‌र्च्य विधिवत् कवचं धारयेत्तु यः ।

कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ सोऽपि विष्णुर्न संशयः ।।१७।।

जो मनुष्य विधिपूर्वक गुरु की अभ्यर्चना करके इस कवच को गले में अथवा दक्षिण भुजा पर धारण करता है, वह निस्संदेह विष्णु ही है ।

अश्वमेधसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च ।

ग्रहेन्द्र-कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।१८ ।।

ग्रहेन्द्र ! हजारों अश्वमेध और सैकडों वाजपेय-यज्ञ इस कवच की सोलहवीं कला की समानता नहीं कर सकते।

इदं कवचमज्ञात्वा यो भजेच्छंकरात्मजम् ।

शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ।।१९ ।।

जो मनुष्य इस कवच को जाने बिना शंकर-सुवन गणेश की भक्ति करता है, उसके लिये सौ लाख जपने पर भी मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता ।

श्रीब्रह्मवैवर्त्ते शनैश्चरं प्रति विष्नोपदिष्टं संसारमोहनं गणेशकवचं।। (गणपतिखण्ड 13/78-96)

बत्तीस अक्षर गणेश मन्त्र*

ऊँ श्रीं ह्रीं क्लीं गणेश्वराय ब्रह्मरूपाय चारवे।

सर्वसिद्धिप्रदेशाय विघ्नेशाय नमो नमः।।

इस मन्त्र में बत्तीस अक्षर हैं। यह सम्पूर्ण कामनाओं का दाता, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का फल देने वाला और सर्वसिद्धप्रद है। इसके पाँच लाख जप से ही जापक को मन्त्रसिद्धि प्राप्त हो जाती है। जिसे मन्त्रसिद्धि हो जाती है, वह विष्णु-तुल्य हो जाता है। उसके नाम-स्मरण से सारे विघ्न भाग जाते हैं। निश्चय ही वह महान वक्ता, महासिद्ध, सम्पूर्ण सिद्धियों से सम्पन्न, श्रेष्ठ कवियों में भी श्रेष्ठ गुणवान, विद्वानों के गुरु का गुरु तथा जगत के लिये साक्षात वाक्पति हो जाता है। 

About कर्मकाण्ड

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.

0 $type={blogger} :

Post a Comment