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कर्मकाण्ड

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विनायक स्तुति

विनायक स्तुति 

भगवान् श्री विनायक जी (गणेश) का स्तुति विशेष महत्व का है,अगर आपकी श्रद्धा सच्ची है तो श्री विनायक जी आपकी मनोकामना अवश्य पूर्ण करेंगे, गणपति भगवान सभी विघ्नों का नाश करने वाले एक मात्र सक्षम भगवान हैं सभी कार्यो को सिद्ध करने वाले हैं यदि किसी भी पूजा या अनुष्ठान में भगवान् श्रीविनायक (गणेश) का स्तुति कर लिया जाये तो पूजन या अनुष्ठान सफल होता है। यहाँ श्रीगणेश-पुराण में वर्णित विनायक की स्तुति जिसके लिए स्वयं भगवान् गणेश देवताओं से कहते हैं कि-

"हनिष्ये सिन्दूरं देवा मा चिन्ता कर्तुमर्हथ ।

दुःखप्रशमनं नाम स्तोत्रं वः ख्यातिमेष्यति ॥"

"हे देवगण ! मैं सिन्दूर नामक उस असुर को अवश्य मार दूंगा । तुम चिन्ता न करो । तुम्हारे द्वारा किया गया यह स्तोत्र 'दुःखप्रशमन' के नाम से विख्यात होगा।''इस स्तोत्र का माहात्म्य सुनो-इसका दिन में एक बार, दो बार या तीन बार पाठ करने वाले के तीनों प्रकार के ताप नष्ट होंगे ।

यहाँ इस विनायक स्तुति  के अतिरिक्त भी एक अन्य देवीपुराणान्तर्गत विनायक स्तुति पाठकों के लाभार्थ दिया जा रहा है।

विनायक स्तुति

'दुःखप्रशमन' विनायक स्तुति

जगतः कारणं योऽसौ रविनक्षत्रसम्भवः ।

सिद्धसाध्यगणाः सर्वे यत एव च सिन्धवः ॥१॥  

गन्धर्वाः किन्नरा यक्षाः मनुष्योरगराक्षसाः ।

यतश्चराचरं विश्वं तं नमामि विनायकम् ॥२॥

अन्यं कं शरणं यामः को नु पास्यति नोऽखिलान् ।

जह्येनं दुष्टबुद्धिं त्वमवतीर्य शिवालये ॥३ ॥

'दुःखप्रशमन' विनायक स्तुति(स्तोत्र) भावार्थ सहित

बृहस्पति से प्रेरणा प्राप्त कर समस्त देवगण एकत्र होकर शान्त, विकार-रहित, भय-रहित एवं भक्तिभाव सहित बैठ गए। और भगवान् विनायक देव की स्तुति करने लगे-

"जगतः कारणं योऽसौ रविनक्षत्रसम्भवः ।

सिद्धसाध्यगणाः सर्वे यत एव च सिन्धवः ॥

गन्धर्वाः किन्नरा यक्षाः मनुष्योरगराक्षसाः ।

यतश्चराचरं विश्वं तं नमामि विनायकम् ॥"

'जो विनायकदेव संसार के कारण, सूर्य और नक्षत्रों को भी उत्पन्न करने वाले, सभी सिद्धगण, साध्यगण, समुद्र, गन्धर्व, किन्नर, यक्ष, मनुष्य, नाग, राक्षस आदि को प्रकट करने वाले तथा जिनसे इस चराचर रूप सम्पूर्ण विश्व का प्रादुर्भाव हुआ है, उन्हें हम नमस्कार करते हैं।

हे प्रभो ! आप जैसे अधीश्वर के सदैव जाग्रत् रहते हुए भी एक तुच्छ असुर ने समस्त विश्व को संकट में डाल रखा है । इस स्थिति से हमें केवल आपका ही भरोसा है । क्योंकि-

अन्यं कं शरणं यामः को नु पास्यति नोऽखिलान् ।

जह्येनं दुष्टबुद्धिं त्वमवतीर्य शिवालये ॥"

'हे नाथ ! अब हम किसकी शरण में जायें? हमारी रक्षा अन्य कौन कर सकता है ? प्रभो ! अब आप स्वयं ही भगवान् शंकर के गृह में अवतरित होकर असुर को समाप्त कीजिए।'

देवीपुराणान्तर्गतम् विनायकस्तुतिः 

विष्णुरुवाच-

स्तोष्ये सुरारिदमनं दमनं रिपूणां

वैरिहाणं गजवक्त्रमुदन्तशोभम् ।

तं भाति कुन्दहिमशङ्खशशाङ्कदन्तं

ताम्राभकान्तिवपुषं रुचिरारुणाभम् ॥ १॥

तां भस्मव्यापितजगच्छशिसूर्यमार्गं 

गां गच्छतीव मेरुसुरारिहन्तुम् ।

तमहं नमामि भगवन् प्रमथेशजातं

तर्जन् सुरारिभयदं दनुदर्पहन्तुम् ॥ २॥

ताराभमौक्तिककृतं वनमालग्रीवं

वाराहवक्त्रदृढदंष्ट्र इवांशुशोभम् । 

भृङ्गोपगीतमदगण्डसुसेव्यमानं

तमहं नमामि वरदं वरदायकं तम् ॥ ३॥

तारारिणं प्रमथभ्रातृवरं सुरेशं 

शम्भोर्द्वितीय इव मूर्तिसुचारुवेशम् ।

नानाविचित्ररूपशोभितचारुहारं

जम्भकान्तकं च तमहं महाप्रमाणम् ॥ ४॥

नागेन्द्रभोगकृतशेखरमूर्द्धिमानं

लम्बन्तचारुचमरं रणकार्यवीरम् ।

स्तम्भन्तशत्रुवनकान्तमहान्तमन्तं

तं मातृयोगिगणमर्चितसुष्टमिष्टम् ॥ ५॥

टङ्कारहाररचनादितघण्टशब्दं

हुङ्कारकारवरनादघटाकलापम् ।

पङ्काङ्करेणुरजपङ्कजचारुकवर्यं

चामीकराखचितमरकतसंसेव्यमानम् ॥ ६॥

लम्बन्तकर्णपर्णशङ्खञ्च सुचारुचामरं

रक्तास्तनेत्रकर्णायतचारुतुङ्गम् ।

गम्भीरगर्जितमहारवमेघशब्दं 

दण्डाङ्कुशपरशुमेखलसूत्रधारम् ॥ ७॥

राराजते सकलपर्वतसानुकण्ठं

चण्डातिनूपुरध्वनिमुखं विश्रान्तम् ।                            

तस्मै नमामि सततं जगतो हिताय

विघ्नेश्वराय वरदाय वरप्रदाय ॥ ८॥

वामैकहस्तसततं कृतलड्डुकाय

सिद्धार्थकं सुरभिगन्धविलेपनाय ।

ब्रह्मेन्द्रचन्द्रवसुशङ्करसंस्तुताय

गङ्गाजलौघ इव दानमहाप्रदाय ॥ ९॥

इच्छार्थमीहितफलप्रदाय शिवाय

सम्पूजयस्व मम देवशुभं शुभाय ।

विघ्नं विनाशाय प्रभो सुरसिद्धशत्रुं

शक्रस्य व्याधितदिवस्य शुभं प्रयच्छ ॥ १०॥

स्तुत्वा तु शक्तितनयं प्रयतेन विष्णो

स्तुष्टः समीहितवरं ददते च तस्य ।

विष्णोस्तवार्थमिदं शैलवरं हरेण

सम्प्रेषितो रिपुहराय पुरन्दरस्य ॥ ११॥        

मयोच्यतां वद भवान् किमहं करोमि

त्रैलोक्यनिर्जितरिपुं त्वमहं ददामि ।

स्तुत्वैवं तदा देवं विष्णुना प्रभविष्णुना

तुतुष्ट वरदीभूतो विघ्नस्य निधनाय च ॥ १२॥

इति श्रीदेवीपुराणे विनायकस्तवो नाम त्रयोदशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११३॥

विनायक स्तुति समाप्त।

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