अक्ष्युपनिषत्
अक्ष्युपनिषद् अथवा अक्ष्युपनिषत् अथवा
अक्षि उपनिषद् यह उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद से सम्बद्ध है। इसमें महर्षि सांकृति एवं
आदित्य के बीच प्रश्नोत्तर के माध्यम से चाक्षुष्मती विद्या एवं योगविद्या पर
प्रकाश डाला गया है। यह उपनिषद् दो खण्डों में प्रविभक्त है।
प्रथम खण्ड में चाक्षुष्मती विद्या
का विवेचन है। द्वितीय खण्ड में सर्वप्रथम ब्रह्मविद्या का स्वरूप वर्णित है,
तदुपरान्त ब्रह्मविद्या प्राप्ति के लिए योग की विविध भूमिकाओं का
क्रमशः विवेचान किया गया है। योग की कुल सात भूमिकाएँ हैं, जिनके
माध्यम से साधक योग विद्या के क्षेत्र में क्रमिक उन्नति करता हुआ आगे बढ़ता है।
सातवीं भूमिका में पहुँचने पर वह ब्रह्म साक्षात्कार की स्थिति में पहुँच जाता है।
अन्त में ओंकार ब्रह्म के विषय में वह विवेचन प्रस्तुत किया गया है, जिसको जानकर और उस विधि से साधना करके व्यक्ति ब्रह्मपद प्राप्त कर लेता
है। अपने को परम आनन्दमय-प्रज्ञानघन आनन्द की स्थिति में पाता हुआ- मैं ब्रह्म
हूँ- ऐसी अनुभूति करने लगता है। यही उपनिषद् का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय है।
अक्ष्युपनिषद् अथवा अक्ष्युपनिषत् अथवा अक्षि उपनिषद्
॥शान्तिपाठः॥
यत्सप्तभूमिकाविद्यावेद्यानन्दकलेवरम्
।
विकलेवरकैवल्यं रामचन्द्रपदं भजे ॥
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु
सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै
॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
भावार्थ: इसका भावार्थ नारायण उपनिषद् शान्तिपाठ में देखें।
अक्ष्युपनिषत्
॥प्रथमः खण्डः ॥
अथ ह सांकृतिर्भगवानादित्यलोकं
जगाम।
तमादित्यं नत्वा चाक्षुष्मती
विद्यया तमस्तुवत्॥
ॐ नमो भगवते श्रीसूर्यायाक्षितेजसे
नमः।
ॐ खेचराय नमः । ॐ महासेनाय नमः। ॐ
तमसे नमः।
ॐ रजसे नमः । ॐ सत्त्वाय नमः ।
ॐ असतो मा सद्गमय।तमा पो मा
ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्माऽमृतं गमय। हंसो
भगवाञ्छुचिरूप: प्रतिरूपः।
विश्वरूपं घृणिनं जातवेदसं हिरण्मयं
ज्योतीरूपं तपन्तम्।
सहस्ररश्मिः शतधा वर्तमानः पुरुषः
प्रजानामुदयत्येष सूर्यः।
ॐ नमो भगवते
श्रीसूर्यायादित्यायाक्षितेजसेऽहोऽवाहिनि वाहिनि स्वाहेति।
एवं चाक्षुषमातीविद्यया स्तुतः
श्रीसूर्यनारायण:
सुप्रीतोऽब्रवीच्चाक्षुष्मतीविद्यां
ब्राह्मणो यो नित्यमधीते न तस्याक्षिरोगो भवति।
न तस्य कुलेऽन्धो भवति।
अष्टौ ब्राह्मणान्ग्राहयित्वाथ
विद्यासिद्धिर्भवति।
य एवं वेद स महान्भवति॥१॥
एक समय की कथा है कि भगवान् सांकृति
आदित्य लोक गये। वहाँ पहुँच कर उन्होंने भगवान् सूर्य को नमस्कार कर चाक्षुष्मती
विद्या द्वारा उनकी अर्चना की-नेत्रेन्द्रिय के प्रकाशक भगवान् श्रीसूर्य को
नमस्कार है। आकाश में विचरणशील सूर्य देव को नमस्कार है। हजारों किरणों की विशाल
सेना रखने वाले महासेन को नमस्कार है। तमोगुण रूप भगवान् सूर्य को प्रणाम है।
रजोगुण रूप भगवान् सूर्य को प्रणाम है। सत्त्वगुणरूप सूर्यनारायण को प्रणाम है। हे
सूर्यदेव! हमें असत् से सत्पथ की ओर ले चलें। हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले
चलें। हमें मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलें। भगवान् भास्कर पवित्ररूप और प्रतिरूप
(प्रतिबिम्ब प्रकटकर्ता) हैं। अखिल विश्व के रूपों के धारणकर्ता,
किरण समूहों से सुशोभित, जातवेदा (सर्वज्ञाता),
सोने के समान प्रकाशमान, ज्योतिःस्वरूप तथा
तापसम्पन्न भगवान् भास्कर को हम स्मरण करते हैं। ये हजारों रश्मिसमूह वाले,
सैकड़ों रूपों में विद्यमान सूर्यदेव सभी प्राणियों के समक्ष प्रकट
हो रहे हैं। हमारे चक्षुओं के प्रकाशरूप अदितिपुत्र भगवान् सूर्य को प्रणाम है।
दिन के वाहक, विश्व के वहनकर्ता सूर्यदेव के लिए हमारा
सर्वस्व समर्पित है। इस चाक्षुष्मती विद्या से अर्चना किये जाने पर भगवान्
सूर्यदेव अति हर्षित हुए और कहने लगे-जिस ब्राह्मण द्वारा इस चाक्षुष्मती विद्या
का पाठ प्रतिदिन किया जाता है, उसे नेत्ररोग नहीं होते और न
उसके वंश में कोई अंधत्व को प्राप्त करता है। आठ ब्राह्मणों को इस विद्या का ज्ञान
करा देने पर इस विद्या की सिद्धि होती है। इस प्रकार का ज्ञाता महानता को प्राप्त
करता है॥१॥
[सूर्यदेव को प्रतिरूप और
विश्वरूप कहा गया है। विज्ञान के अनुसार हम जो कुछ भी देखते हैं, उसका रूप उसके द्वारा किए जा रहे प्रकाश के परावर्तन (रिफलैक्शन) के कारण
ही है। इसलिए उन्हें प्रतिरूप कहा जाता है। दिन में सूर्य के प्रकाश में हम जो भी
रूप देखते हैं, वे सब प्रकारान्तर से सूर्य के प्रकाश के ही
विविध रूप हैं। इसलिए सूर्य को विश्वरूप कहा गया है। ]
अक्ष्युपनिषद् अथवा अक्ष्युपनिषत् अथवा अक्षि उपनिषद्
॥द्वितीयः खण्डः॥
अथ ह सांकृति रादित्यं पप्रच्छ
भगवन्ब्रह्मविद्यां मे ब्रूहीति।
तमादित्यो होवाच। सांकृते शृणु
वक्ष्यामि तत्त्वज्ञानं सुदुर्लभम्।
येन विज्ञातमात्रेण जीवन्मुक्तो
भविष्यसि॥१॥
उसके बाद सांकृति ऋषि ने भगवान्
सूर्य से कहा-भगवन् ! मुझे ब्रह्मविद्या का उपदेश करें। आदित्य देव ने उनसे
कहा-सांकृते! आपसे अति दुर्लभ तत्त्वज्ञान का विवेचन मैं करने जा रहा हूँ,
उसे ध्यान से सुनें, जिसका ज्ञान प्राप्त कर
लेने पर आप जीवन्मुक्त हो जाएँगे॥१॥
सर्वमेकमजं शान्त मनन्तं
ध्रुवमव्ययम्।
पश्यन्भूतार्थचिद्रूपं शान्त आस्व
यथासुखम्॥२॥
अवेदनं विदुर्योगं
चित्तक्षयमकृत्रिमम्।
योगस्थः कुरु कर्माणि नीरसो वाथ मा
कुरु॥३॥
आप समस्त प्राणिमात्र को एक,
अजन्मा, शान्त, अनन्त,
ध्रुव, अव्यय तथा तत्त्वज्ञान से चैतन्यरूप
देखते हुए शान्ति और सुख पूर्वक रहें। अवेदन अर्थात् आत्मा-परमात्मा के अतिरिक्त
अन्य किसी का आभास न हो इसी का नाम योग है, यही यथार्थ
चित्तक्षय है। इसलिए योग में स्थित होकर कर्त्तव्य कर्मों का निर्वाह करें,
कर्म करते हुए नीरसता-विरक्तता न आने पाए॥२-३॥
विरागमुपयात्यन्तर्वासनास्वनुवासरम्
।
क्रियासूदाररूपासु क्रमते
मोदतेऽन्वहम् ॥४॥
ग्राम्यासु जडचेष्टासु सततं
विचिकित्सते ।
नोदाहरति मर्माणि पुण्यकर्माणि
सेवते॥५॥
(अवेदना- योग की पहली भूमिका इस
प्रकार है-)
योग की ओर प्रवृत्त होने पर
अन्तःकरण दिन प्रतिदिन वासनात्मक चिन्तन से दूर होता जाता है। साधक नित्य ही
परमार्थ कर्मों को करता हुआ हर्ष का अनुभव करता है । जड़ मनुष्यों की अशील भोग
प्रवृत्तियों (ग्राम्य चेष्टाओं) से वह हमेशा जुगुप्सा (घृणा) करता है। किसी के
गुप्त रहस्य प्रसंग को अन्यों के समक्ष नहीं कहता, अपितु वह पुण्य कृत्यों में ही हमेशा संलग्न रहता है॥ ४-५॥
अनन्योद्वेगकारीणि मृदुकर्माणि
सेवते ।
पापाद्विभेति सततं न च भोगमपेक्षते
॥६॥
स्नेहप्रणयगर्भाणि पेशलान्युचितानि
च ।
देशकालोपपन्नानि वचनान्यभिभाषते ॥७॥
जिन कृत्यों से किसी प्राणी को
उत्तेजित न होना पड़े, ऐसे दया और
उदारतापूर्ण सौम्य कर्मों को वह करता है। वह पाप से भयभीत रहता और भोग साधनों की
अभिलाषा नहीं करता। वह ऐसी वाणी का प्रयोग करता है, जिसमें
सहज स्नेह और प्रेम का प्राकट्य हो तथा जो मृदुल और औचित्यपूर्ण होने के साथ-साथ
देश, काल, पात्र के अनुकूल हो॥६-७॥
मनसा कर्मणा वाचा सज्जनानुपसेवते ।
यतःकुतश्चिदानीय नित्यं
शास्त्राण्यवेक्षते॥८॥
मन से,
वचन से और कर्म से श्रेष्ठ पुरुषों का सत्संग करते हुए जहाँ कहीं से
भी प्राप्त हो सके, प्रतिदिन सद्ग्रन्थों का अध्ययन करता
है॥८॥
तदासौ प्रथमामेकां प्राप्तो भवति
भूमिकाम्।
एवं विचारवान्यः
स्यात्संसारोत्तारणं प्रति॥९॥
स भूमिकावानित्युक्तः शेषस्त्वार्य
इति स्मृतः।
विचारनाम्नीमितरामागतो
योगभूमिकाम्॥१०॥
इस स्थिति में ही वह प्रथम भूमिका
वाला कहलाता है। भवसागर से उस पार जाने की जो अभिलाषा करता है,
वही इस प्रकार के विचार को प्राथमिकता देता है। वह भूमिकावान् कहा
जाता है और शेष 'आर्य'(दूसरों की तुलना
में श्रेष्ठ) कहे जाते हैं। जो योग की दूसरी विचार भूमिका से युक्त हैं, (उनके लक्षण इस प्रकार से हैं-)॥९-१०॥
श्रुतिस्मृतिसदाचारधारणाध्यानकर्मणः।
मुख्यया व्याख्ययाख्याताञ्छ्यति
श्रेष्ठपण्डितान्॥११॥
वह ऐसे ख्यातिलब्ध श्रेष्ठ
विद्वानों का आश्रय ग्रहण करता है, जो
श्रुति, स्मृति, सदाचार, धारणा और ध्यान की उत्तम व्याख्या के लिए अधिक चर्चित हों ॥११॥
पदार्थप्रविभागज्ञः
कार्याकार्यविनिर्णयम्।
जानात्यधिगतश्चान्यो गृहं
गृहपतिर्यथा ॥१२॥
मदाभिमानमात्सर्यलोभमोहातिशायिताम्।
बहिरप्यास्थितामीपत्त्यजत्यहिरिव
त्वचम्॥१३॥
इत्थंभूतमतिः शास्त्रगुरुसजनसेवया ।
सरहस्यमशेषेण यथावदधिगच्छति ॥१४॥
वह पदार्थों के विभाग और पद को उचित
रीति से जानता है तथा श्रवण करने योग्य सत्शास्त्रों में पारंगत हो जाने पर
कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य के निर्णय में कुशल हो जाता है। मद,
अहंकार, मात्सर्य, लोभ
और मोहादि की अधिकता उसके चित्त को डाँवा-डोल नहीं करती, बाह्य
आचरण में यत्किंचित् यदि उसकी स्थिति रहती है, तो उसका भी
उसी प्रकार परित्याग कर देता है, जैसे साँप अपनी केंचुल को
छोड़ देता है। इस प्रकार का सद्ज्ञान सम्पन्न साधक शास्त्र, गुरु
और सत्पुरुषों के सेवा-सहयोग द्वारा रहस्यपूर्ण गूढज्ञान को भी प्रयत्नपूर्वक
स्वाभाविक रूप में हस्तगत कर लेता है ॥१२-१४॥
असंसर्गाभिधामन्यां तृतीयां
योगभूमिकाम्।
ततः पतत्यसौ कान्तः
पुष्पशय्यामिवामलाम्॥१५
यथावच्छास्त्रवाक्यार्थे मतिमाधाय
निश्चलाम्।
तापसाश्रमविश्रान्तरध्यात्मकथनक्र
मैः ॥१६॥
शिलाशय्याऽऽसनासीनो
जरयत्यायुराततम्।
वनावनिविहारेण चित्तोपशमशोभिना॥१७॥
असङ्गसुखसौख्येन कालं नयति
नीतिमान्।
अभ्यासात्साधुशास्त्राणां
करणात्पुण्यकर्मणाम्॥
जन्तोर्यथावदेवेयं वस्तुदृष्टिः
प्रसीदति।
तृतीयां भूमिकां प्राप्य
बुद्धोऽनुभवति स्वयम्॥१९॥
इसके पश्चात् वह योग की
असंसर्गनाम्नी तीसरी भूमिका में प्रवेश करता है-
ठीक उसी प्रकार,
जैसे कोई सुन्दर मनुष्य साफ-सुथरे फूलों के बिछौने पर अवस्थित होता
है। शास्त्र जैसा अभिमत व्यक्त करते हैं, उसमें अपनी स्थिर
मति को संयुक्त करके, तपस्वियों के आश्रम में वास करता हुआ
अध्यात्म शास्त्र की चर्चा करते हुए (कष्टकर) पाषाण-शय्या पर आरूढ़ होते हुए ही वह
सम्पूर्ण आयु बिता देता है। वह नीति पुरुष चित्त को शान्ति पहुँचाने वाले अधिक
शोभाप्रद वन भूमि के विहार द्वारा विषयोपभोग से विरत होकर स्वाभाविक रूप में
उपलब्ध सुख-साधनों को भोगता हुआ अपना जीवन-यापन करता है। सद्ग्रन्थों के अभ्यास और
पुण्य कर्मों के किये जाने से प्राणी की वास्तविक पर्यवेक्षण दृष्टि पवित्र होती
है। इस तृतीय भूमिका को प्राप्त करके साधक स्वयमेव ज्ञानवान् होकर इस स्थिति का
अनुभव करता है। १५-१९॥
द्विप्रकारमसंसर्गं तस्य भेदमिमं
शृणु ।
द्विविधोऽयमसंसर्गः सामान्यः
श्रेष्ठ एव च॥२०॥
नाहं कर्त्ता न भोक्ता च न बाध्यो न
च बाधकः।
इत्यसंजनमर्थेषु
सामान्यासङ्गनामकम्॥२१॥
प्राक्कर्मनिर्मितं
सर्वमीश्वराधीनमेव वा ।
सुखं वा यदि वा दुःखं कैवात्र मम
कर्तृता॥२२॥
भोगाभोगा महारोगा: संपदः परमापदः।
वियोगायैव संयोगा आधयो
व्याधयोऽधियाम्॥२३॥
कालश्च कलनोद्युक्तः
सर्वभावाननारतम्।
अनास्थयेति भावानां यदभावनमान्तरम्।
वाक्यार्थलब्धमनसः
सामान्योऽसावसङ्गमः ॥२४॥
असंसर्ग-सामान्य और श्रेष्ठ भेद से
दो तरह का है। (उनके इस प्रकार के भेदों पर अब प्रकाश डालते हैं-)
मैं न तो कर्ता,
न भोक्ता, न बाध्य और न बाधक ही हैं- इस
प्रकार से विषयोपभोग में आसक्ति से रहित होने की भावना ही सामान्य असंसर्ग कहलाती
है। सब कुछ पूर्वजन्म कृत कर्मों का प्रतिफल है या सब कुछ परमात्मा के अधीन है-ऐसी
मान्यता रखना, सुख हो या दुःख इसमें मेरे किये गये कार्यों
का अस्तित्व ही क्या है? भोगसाधनों का अतिसंग्रह महारोगरूप
है और समस्त वैभव परम आपत्तियों के स्वरूप हैं। सभी संयोगों की अन्तिम परिणति
वियोग के रूप में है। मानसिक चिन्ताएँ अज्ञानग्रस्तों के लिए व्याधिरूप हैं। सभी
क्षणभंगुर पदार्थ अनित्य हैं, सभी को काल-कराल अपना ग्रास
बनाने में संलग्न है। (शास्त्रवचनों को जान लेने से उत्पन्न) अनास्था से मन में
उनके अभाव की भावना को पैदा करता है, यह सामान्य असंसर्ग
कहलाता है। २०-२४॥
अनेन क्रमयोगेन संयोगेन महात्मनाम्
।
नाहं कर्तेश्वरः कर्ता कर्म वा
प्राक्तनं मम॥२५॥
कृत्वा दूरतरे नूनमिति
शब्दार्थभावनम्।
यन्मौनमासनं शान्तं तच्छ्रेष्ठासङ्ग
उच्यते॥२६॥
इस प्रकार महान् पुरुषों के निरन्तर
सत्संग से जो यह कहे कि मैं कर्ता नहीं, ईश्वर
ही कर्ता है या मेरे पूर्व जन्म में किए गये कर्म ही कर्ता हैं। इस प्रकार से
समस्त चिन्ताओं और शब्द-अर्थ के भाव को विसर्जित कर देने के पश्चात् जो मौन
(मन-इन्द्रियों का संयम), आसन (आन्तरिक अवस्था) और शान्त भाव
(बाहरी भावों के विस्मरण) की प्राप्ति होती है, वह श्रेष्ठ
असंसर्ग कहा जाता है ।। २५-२६ ॥
संतोषामोदमधुरा प्रथमोदेति भूमिका ।
भूमिप्रोदितमात्रोऽन्तरमृताङ्करिकेव
सा ॥२७॥
एषा हि परिमृष्टान्तरन्यासां
प्रसवैकभूः।
द्वितीयां च तृतीयां च भूमिकां
प्राप्नुयात्ततः॥२८॥
श्रेष्ठा सर्वगता ह्येषा तृतीया
भूमिकात्र हि।
भवति प्रोज्झिताशेषसंकल्पकलनः
पुमान्॥२९॥
भूमिकात्रितयाभ्यासादज्ञाने
क्षयमागते ।
समं सर्वत्र पश्यन्ति चतुर्थी
भूमिकां गताः॥३०॥
अद्वैते स्थैर्यमायाते द्वैते च
प्रशमं गते।
पश्यन्ति स्वप्रवल्लोकं चतुर्थी
भूमिकां गताः॥३१॥
अन्त:करण की भूमि में अमृत के छोटे
अंकुर के प्रस्फुटन की तरह ही सन्तोष और आह्लादप्रद होने से मधुर प्रतीत होने वाली
प्रथम भूमिका का अभ्युदय होता है। इसके उत्पन्न होते ही अन्तरंग में शेष भूमिकाओं
के लिए भूमि तैयार हो जाती है। इसके बाद होने वाली दूसरी एवं तीसरी भूमिका में भी
साधक कुशलता प्राप्त कर लेता है। इस तीसरी भूमिका को इसलिए सर्वोत्कृष्टता की
श्रेणी में गिना गया है; क्योंकि इसमें साधक
सभी संकल्पजन्य वृत्तियों को पूर्णत: त्याग देता है। अद्वैतभाव की दृढ़भावना से
द्वैतभाव स्वत: समाप्त हो जाता है। चौथी भूमिका को प्राप्त साधक इस लोक को स्वप्न
की तरह स्वीकार करता है ॥ २७-३१॥
भूमिकात्रितयं जाग्रच्चतुर्थी
स्वप्न उच्यते ।
चित्तं तु शरदभ्रांशविलयं
प्रविलीयते॥३२॥
सत्त्वावशेष एवास्ते पञ्चमी भूमिकां
गतः।
जगद्विकल्पो नोदेति चित्तस्यात्र
विलापनात्॥३३॥
पञ्चमी भूमिकामेत्य
सुषुप्तपदनामिकाम् ।
शान्ताशेषविशेषांशस्तिष्ठत्यद्वैतमात्रकः
॥३४॥
गलितद्वैतनि सो
मुदितोऽन्तःप्रबोधवान् ।
सुषुप्तघन एवास्ते पञ्चमी भूमिकां
गताः॥ ३५॥
अन्तर्मुखतया
तिष्ठन्बहिर्वृत्तिपरोऽपि सन् ।
परिश्रान्ततया नित्यं निद्रालुरिव
लक्ष्यते॥३६॥
कुर्वन्नभ्यासमेतस्यां भूमिकायां
विवासनः ।
षष्ठीं तुर्याभिधामन्यां
क्रमात्पतति भूमिकाम्॥३७॥
यत्र नासन्नसद्रूपो नाहं
नाप्यनहंकृतिः ।
केवलं क्षीणमननमास्तेऽद्वैतेऽतिनिर्भयः
॥३८॥
निर्ग्रन्थिः शान्तसंदेहो
जीवन्मुक्तो विभावनः।
अनिर्वाणोऽपि निर्वाणश्चित्रदीपइव
स्थितः॥३९॥
षष्ठयां भूमावसौ स्थित्वा सप्तमी
भूमिमाप्नुयात्।
विदेहमुक्तताऽत्रोक्ता सप्तमी
योगभूमिका॥४०॥
प्रारम्भिक तीन भूमिकायें जाग्रत्
स्वरूपा हैं तथा चौथी भूमिका स्वप्न कही जाती है। पंचम भूमिका में आरूढ़ होने पर
साधक का चित्त शरऋतु के बादलों की तरह विलीन हो जाता है,
मात्र सत्त्व ही शेष बचता है। चित्त के विलीन हो जाने से जागतिक
विकल्पों का अभ्युदय नहीं होता। सुषुप्तपद नाम की इस पंचम भूमिका में सम्पूर्ण
विभेद शान्त हो जाने पर साधक मात्र अद्वैत अवस्था में ही अवस्थित रहता है। द्वैत
के समाप्त हो जाने से आत्मबोध से युक्त हर्षित हुआ साधक पंचम भूमिका में जाकर
सुषुप्तघन (आनन्दप्रद अवस्था) को प्राप्त कर लेता है। वह बहिर्मुखी व्यवहार करते
हुए भी हमेशा अन्तर्मुखी ही रहता है तथा सदा थके हुए की तरह निद्रातुर सा दिखता
है। इस भूमिका में कुशलता हासिल करते हुए वासना विहीन होकर वह साधक क्रमशः तुर्या
नाम वाली छठी भूमिका में प्रविष्ट होता है। जहाँ सत्-असत् का अभाव है, अहंकार-अनहंकार भी नहीं है तथा विशुद्ध अद्वैत स्थिति में मननात्मक वृत्ति
से रहित होने पर वह अत्यन्त निर्भयता को प्राप्त करता है। हृदय ग्रन्थियों के
उद्घाटित होने पर संशय मिट जाते हैं। जीवन्मुक्त होकर उसकी भावशून्यता की सी
स्थिति रहती है। निर्वाण को उपलब्ध न किये जाने पर भी उसकी स्थिति निर्वाण पद को
प्राप्त साधक जैसी हो जाती है। उस समय वह निश्चेष्ट दीपक की तरह निश्चल रहता है।
छठी भूमिका के पश्चात् वह सातवीं भूमिका की स्थिति प्राप्त करता है: विदेह-मुक्त
की स्थिति ही सातवीं भूमिका कही गयी है॥ ३२-४० ॥
अगम्या वचसां शान्ता सा सीमा
सर्वभूमिषु।
लोकानुवर्तनं त्यक्त्वा त्यक्त्वा
देहानुवर्तनम्॥४१॥
शास्त्रानुवर्तनं त्यक्त्वा
स्वाध्यासापनयं कुरु।
ओंकारमात्रमखिलं
विश्वप्राज्ञादिलक्षणम्॥४२॥
वाच्यवाचकताभेदात्
भेदेनानुपलब्धितः।
अकारमानं विश्वः स्यादुकारस्तैजसः
स्मृतः॥४३॥
प्राज्ञो मकार इत्येवं
परिपश्येत्क्रमेण तु।
समाधिकालात्प्रागेव विचिन्त्यातिप्रयत्नतः॥४४॥
स्थूलसूक्ष्मक्रमात्सर्वं चिदात्मनि
विलापयेत् ।
चिदात्मानं
नित्यशुद्धबुद्धमुक्तसदद्वयः॥ ४५॥
परमानन्दसंदोहो वासुदेवोऽहमोमिति ।
आदिमध्यावसानेषु दुःखं सर्वमिदं यतः
॥४६॥
तस्मात्सर्वं परित्यज्य
तत्त्वनिष्ठो भवानघ।
अविद्यातिमिरातीतं सर्वाभासविवर्जितम्॥४७॥
आनन्दममलं शुद्धं मनोवाचामगोचरम्।
प्रज्ञानघनमानन्दं ब्रह्मास्मीति
विभावयेत् ।
इत्युपनिषत् ॥४८॥
यह भूमिका परम शान्त की है तथा वाणी
की सामर्थ्य से अवर्णनीय है। यह सब भूमिकाओं की सीमारूप है तथा यहाँ सम्पूर्ण योग
भूमिकाओं की समाप्ति है। लोकाचार, देहाचार और
शास्त्रानुगमन को छोड़कर अपने अध्यास को नष्ट करे। विश्व, प्राज्ञ
और तैजस के रूप में यह समस्त विश्व'ॐ कार' स्वरूप ही है। वाच्य और वाचक में अभेदता रहती है और भेद होने पर इसकी
उपलब्धि सम्भव नहीं। इन्हें क्रमश: इस प्रकार जाने-प्रणव की प्रथम मात्रा 'अकार विश्व, उकार तैजस और मकार प्राज्ञ रूप है।
समाधिकाल से पहले विशेष प्रयासपूर्वक इस सम्बन्ध में चिन्तन-मनन करके स्थूल और
सूक्ष्म से क्रमश: सब कुछ चिदात्मा में विलीन करे। चिदात्मा का स्व-स्वरूप स्वीकार
करते हुए ऐसा दृढ़ विश्वास करे-मैं ही नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्तारूप,
अद्वितीय, परम आनन्द सन्दोह रूप एवं वासुदेव
प्रणव ॐ कार हूँ। चूँकि आदि, मध्य और अन्त में यह सम्पूर्ण
प्रपञ्च दुःख देने वाला ही है, इसलिए हे निष्पाप! सबका
परित्याग करके तत्त्वनिष्ठ बने। मैं अज्ञानरूपी अन्धकार से अतीत, सभी प्रकार के आभास से रहित, आनन्दरूप, मलरहित, शुद्ध, मन और वाणी से
अगोचर, प्रज्ञानघन, आनन्दस्वरूप ब्रह्म
हूँ,ऐसी भावना करे। यही उपनिषद् (रहस्यमयी विद्या) है॥ ४१-४८
॥
अक्ष्युपनिषद् अथवा अक्ष्युपनिषत् अथवा
अक्षि उपनिषद्
॥शान्तिपाठः॥
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु
सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै
॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
भावार्थ: इसका भावार्थ कलिसंतरण उपनिषद शान्तिपाठ में देखें।
इति अक्ष्युपनिषत्समाप्ता॥
इस प्रकार अक्ष्युपनिषद् अथवा अक्ष्युपनिषत् अथवा अक्षि उपनिषद् समाप्त हुआ॥
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