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- और्ध्वदैहिक स्तोत्र
- मूर्तिरहस्यम्
- वैकृतिकं रहस्यम्
- प्राधानिकं रहस्यम्
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 13
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 12
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 11
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 10
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 9
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- दुर्गा सप्तशती अध्याय 4
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 3
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 2
- दुर्गा सप्तशती अध्याय 1
- स्तोत्र संग्रह
- दकारादि श्रीदुर्गा सहस्रनाम व नामावली स्तोत्र
- श्रीराधा परिहार स्तोत्रम्
- श्रीराधिकातापनीयोपनिषत्
- श्रीराधा स्तोत्र
- श्रीराधा कवचम्
- सरस्वती स्तोत्र
- श्रीराधाकवचम्
- पितृ सूक्त
- पितृ पुरुष स्तोत्र
- रघुवंशम् सर्ग 7
- श्रीराधा स्तोत्रम्
- श्रीराधास्तोत्रम्
- श्रीराधाष्टोत्तर शतनाम व शतनामावलि स्तोत्रम्
- श्रीराधोपनिषत्
- रोगघ्न उपनिषद्
- सूर्य सूक्त
- ऋग्वेदीय सूर्य सूक्त
- भ्रमर गीत
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- श्रीगणपति स्तोत्र
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- विनायक स्तुति
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- एकदंत गणेशजी की कथा
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रूद्र सूक्त Rudra suktam ' रुद्र ' शब्द की निरुक्ति के अनुसार भगवान् रुद्र दुःखनाशक , पापनाशक एवं ज्ञानदाता हैं। रुद्र सूक्त में भ...
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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
दीपदुर्गा कवचम्
माँ दुर्गा का श्री रुद्रयामलतन्त्र में श्रीभैरव और देवि संवाद अंतर्गत दिया गया श्रीदीपदुर्गा मन्त्रगर्भ कवच स्तोत्रम् अति ही गोपनीय है इस कवच के पाठ करने से त्रिलोकी को अपने वश में तथा विजय प्राप्त किया जा सकता है ।
श्रीदीपदुर्गा कवचम्
श्रीभैरव उवाच ।
श्रृणु देवि जगन्मातर्ज्वालादुर्गां
ब्रवीम्यहम् ।
कवचं मन्त्रगर्भं च
त्रैलोक्यविजयाभिधम् ॥ १॥
अप्रकाश्यं परं गुह्यं न कस्य कथितं
मया ।
विनामुना न सिद्धिः स्यात्कवचेन
महेश्वरि ॥ २॥
अवक्तव्यमदातव्यं दुष्टाया साधकाय च
।
निन्दकायान्यशिष्याय न वक्तव्यं
कदाचन ॥ ३॥
श्री देव्युवाच ।
त्रैलोक्यनाथ वद मे बहुधा कथितं मया
।
स्वयं त्वया प्रसादोऽयं कृतः
स्नेहेन मे प्रभो ॥ ४॥
श्री भैरव उवाच ।
प्रभाते चैव मध्याह्ने
सायङ्कालेऽर्धरात्रके ।
कवचं मन्त्रगर्भं च पठनीयं
परात्परम् ॥ ५॥
मधुना मत्स्यमांसादिमोदकेन समर्चयेत्
।
देवतां
परया भक्त्या पठेत्कवचमुत्तमम् ॥ ६॥
ॐ ह्रीं मे पातु मूर्धानं ज्वाला
द्व्यक्षरमातृका ।
ॐ ह्रीं श्रीं मेऽवतात्फालं
त्र्यक्षरी विश्वमातृका ॥ ७॥
ॐ ऐं क्लीं सौः ममाव्यात्सा देवी
माया भ्रुवौ मम ।
ॐ अं आं इं ईं सौः पायान्नेत्रा मे
विश्वसुन्दरी ॥ ८॥
ॐ ह्रीं ह्रीं सौः पुत्र नासां उं
ऊं कर्णौ च मोहिनी ।
ऋं ॠं लृं लॄं सौः मे बाला
पायाद्गण्डौ च चक्षुषी ॥ ९॥
ॐ ऐं ओं औं सदाऽव्यान्मे मुखं श्री
भगरूपिणी ।
अं अः ॐ ह्रीं क्लीं सौः पायद्गलं
मे भगधारिणी ॥ १०॥
कं खं गं घं (ओं ह्रीं) सौः स्कन्धौ
मे त्रिपुरेश्वरी ।
ङं चं छं जं (ह्रीं) सौः वक्षः
पायाच्च बैन्दवेश्वरी ॥ ११॥
झं ञं टं ठं सौः ऐं क्लीं हूं
ममाव्यात्सा भुजान्तरम् ।
डं ढं णं तं स्तनौ पायाद्भेरुण्डा
मम सर्वदा ॥ १२॥
थं दं धं नं कुक्षिं पायान्मम ह्रीं
श्रीं परा जया ।
पं फं बं श्रीं ह्रीं सौः पार्श्वं
मृडानी पातु मे सदा ॥ १३॥
भं मं यं रं श्रीं सौः लं वं नाभिं
मे पान्तु कन्यकाः ।
शं
षं सं हं सदा पातु गुह्यं मे गुह्यकेश्वरी ॥ १४॥
वृक्षः पातु सदा लिङ्गं ह्रीं श्रीं
लिङ्गनिवासिनी ।
ऐं क्लीं सौः पातु मे मेढ्रं पृष्ठं
मे पातु वारुणी ॥ १५॥
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं हुं हूं पातु
ऊरू मे पात्वमासदा ।
ॐ ऐं क्लीं सौः यां वात्याली जङ्घे
पायात्सदा मम ॥ १६॥
ॐ श्रीं सौः क्लीं सदा पायाज्जानुनी
कुलसुन्दरी ।
ॐ श्रीं ह्रीं हूं कूवली च गुल्फौ
ऐं श्रीं ममाऽवतु ॥ १७॥
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौः
पायात्कुण्ठी क्लीं ह्रीं ह्रौः मे तलम् ।
ॐ ह्रीं श्रीं पादौ सौः पायद् ह्रीं
श्रीं क्लीं कुत्सिता मम ॥ १८॥
ॐ ह्रीं श्रीं कुटिला ह्रीं क्लीं
पादपृष्ठं च मेऽवतु ।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं च मे पातु
पादस्था अङ्गुलीः सदा ॥ १९॥
ॐ ह्रीं सौः ऐं कुहूः मज्जां ॐ
श्रीं कुन्ती ममाऽवतु ।
रक्तं कुम्भेश्वरी ऐं क्लीं शुक्लं
पायाच्च कूचरी ॥ २०॥
पातु मेऽङ्गानि सर्वाणि ॐ ह्रीं
श्रीं क्लीं ऐं सौः सदा ।
पादादिमूर्धपर्यन्तं ह्रीं क्लीं
श्रीं कारुणी सदा ॥ २१॥
मूर्धादिपादपर्यन्तं पातु क्लीं
श्रीं कृतिर्मम ।
ऊर्ध्वं मे पातु ब्रां ब्राह्मीं
अधः श्रीं शाम्भवी मम ॥ २२॥
दुं दुर्गा पातु मे पूर्वे वां
वाराही शिवालये ।
ह्रीं क्लीं हूं श्रीं च मां पातु
उत्तरे कुलकामिनी ॥ २३॥
नारसिंही सौः ऐं (ह्रीं) क्लीं
वायाव्ये पातु मां सदा ।
ॐ श्रीं क्लीं ऐं च कौमारी पश्चिमे
पातु मां सदा ॥ २४॥
ॐ ह्रीं श्रीं निरृतौ पातु मातङ्गी
मां शुभङ्करी ।
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं सदा पातु
दक्षिणे भद्रकालिका ॥ २५॥
ॐ श्रीं ऐं क्लीं
सदाऽग्नेय्यामुग्रतारा तदाऽवतु ।
ॐ वं दशदिशो रक्षेन्मां ह्रीं
दक्षिणकालिका ॥ २६॥
सर्वकालं सदा पातु ऐं सौः
त्रिपुरसुन्दरी ।
मारीभये च दुर्भिक्षे पीडायां
योगिनीभये ॥ २७॥
ॐ ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरी पातु देवी
ज्वालामुखी मम ।
इतीदं
कवचं पुण्यं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ॥ २८॥
त्रैलोक्यविजयं नाम मन्त्रगर्भं
महेश्वरी ।
अस्य
प्रसादादीशोऽहं भैरवाणां जगत्त्रये ॥ २९॥
सृष्टिकर्तापहर्ता च पठनादस्य
पार्वती ।
कुङ्कुमेन लिखेद्भूर्जे
आसवेनस्वरेतसा ॥ ३०॥
स्तम्भयेदखिलान् देवान् मोहयेदखिलाः
प्रजाः ।
मारयेदखिलान् शत्रून् वशयेदपि
देवताः ॥ ३१॥
बाहौ धृत्वा चरेद्युद्धे शत्रून्
जित्वा गृहं व्रजेत् ।
प्रोते रणे विवादे च कारायां
रोगपीडने ॥ ३२॥
ग्रहपीडादि कालेषु पठेत्सर्वं शमं
व्रजेत् ।
इतीदं कवचं देवि मन्त्रगर्भं
सुरार्चितम् ॥ ३३॥
यस्य कस्य न दातव्यं विना शिष्याय
पार्वति ।
मासेनैकेन भवेत्सिद्धिर्देवानां या
च दुर्लाभा ।
पठेन्मासत्रयं
मर्त्यो देवीदर्शनमाप्नुयात् ॥ ३४॥
इति श्री रुद्रयामलतन्त्रे श्रीभैरवदेवि संवादे श्रीदीपदुर्गा कवचस्तोत्रम् ।
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