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मनुस्मृति अध्याय १०- संकीर्ण
जातिभेद
अधीयीरंस्त्रयो वर्णाः स्वकर्मस्था
द्विजातयः ।
प्रब्रूयाद् ब्राह्मणस्त्वेषां
नेतराविति निश्चयः ॥ ॥१॥
सर्वेषां ब्राह्मणो विद्याद्
वृत्त्युपायान् यथाविधि ।
प्रब्रूयादितरेभ्यश्च स्वयं चैव तथा
भवेत् ॥ ॥२॥
वैशेष्यात् प्रकृति
श्रेष्ठ्यान्नियमस्य च धारणात् ।
संस्कारस्य विशेषाच्च वर्णानां
ब्राह्मणः प्रभुः ॥ ॥३॥
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो
वर्णा द्विजातयः ।
चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रो नास्ति तु
पञ्चमः ॥ ॥४॥
अपने अपने धर्म कर्मों के अनुसार
रहकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को वेदों को
पढना चाहिए। इन में ब्राह्मण को सब को पढ़ना चाहिए और क्षत्रिय, वैश्य को पड़ना चाहिए, पढ़ाना नहीं चाहिए, यह निर्णय है । ब्राह्मण को सब वर्गों को उनकी जीविका के उपायों को बताना
चाहिए और स्वयं भी अपने कर्तव्यों को जानना चाहिए। जाति की विशेषता, परमात्मा के मुख से उत्पत्ति, नियमों का धारण और
जातकर्मादि संस्कारों की विशेषता से ब्राह्मण सभी वर्णों का स्वामी है। ब्राह्मण,
क्षत्रिय और वैश्य ये तीन द्विजाति कहलाते हैं और चौथा शूद एकजाति
कहलाता है। पाँचवा वर्ण: कोई नहीं है ॥ १-४ ॥
सर्ववर्णेषु तुल्यासु
पत्नीष्वक्षतयोनिषु ।
आनुलोम्येन संभूता जात्या ज्ञेयास्त
एव ते ॥ ॥५॥
स्त्रीष्वनन्तरजातासु
द्विजैरुत्पादितान् सुतान् ।
सदृशानेव
तानाहुर्मातृदोषविगर्हितान् ॥ ॥६॥
अनन्तरासु जातानां विधिरेष सनातनः ।
कान्तरासु जातानां धर्म्यं
विद्यादिमं विधिम् ॥ ॥७॥
ब्राह्मणादि वर्णों की अक्षतयोनि
स्त्रियों में क्रम से जो पुत्र पैदा हो, उनको
उसी जाति का मानना चाहिए। ब्राह्मणादि के अपने से एक श्रेणी नीचे जाति की स्त्री
में पैदा हुए पुत्र, माता के दोष से निन्दित, पिता के समान ही माने जाते हैं। अपने से एक एक श्रेणी नीचे की जाति में
उत्पन्न पुत्रों की यह सनातन विधि है और अपने से दो दो जाति नीचे की स्त्रियों में
पैदा पुत्रों की विधि इस प्रकार है:- ॥५-७ ॥
ब्राह्मणाद् वैश्यकन्यायामम्बष्ठो
नाम जायते ।
निषादः शूद्रकन्यायां यः पारशव
उच्यते ॥ ॥८॥
क्षत्रियात्शूद्रकन्यायां
क्रूराचारविहारवान् ।
क्षत्रशूद्रवपुर्जन्तुरुग्रो नाम
प्रजायते ॥ ॥९॥
विप्रस्य त्रिषु वर्णेषु
नृपतेर्वर्णयोर्द्वयोः ।
वैश्यस्य वर्णे चैकस्मिन्
षडेतेऽपसदाः स्मृताः ॥ ॥१०॥
क्षत्रियाद् विप्रकन्यायां सूतो
भवति जातितः ।
वैश्यान् मागधवैदेहौ
राजविप्राङ्गनासुतौ ॥ ॥११॥
शूद्रादायोगवः क्षत्ता
चण्डालश्चाधमो नृणाम् ।
वैश्यराजन्यविप्रासु जायन्ते
वर्णसङ्कराः ॥ ॥ १२ ॥
ब्राह्मण से वैश्य कन्या में 'अम्बष्ट' जाति का पुत्र होता है औ शूद्रकन्या में
निषाद ओर पारशव कहा जाता है। क्षत्रिय से शुद्रकन्या में क्रूर आचारवाला पुत्र 'उग्र' जाति का कहलाता है, क्योंकि
उसका शरीर क्षत्रिय और शूद्रा से हुआ है। ब्राह्मण के क्षत्रिय वैश्य - शूद्र जाति
की कन्या से, क्षत्रिय के वैश्य - शूद्र कन्या से और वैश्य
के शूद्र जाति की कन्या से उत्पन्न हुए पुत्र 'अपसद' कहलाते हैं । क्षत्रिय से ब्राह्मणकन्या में पैदा हुआ पुत्र जाति से 'सूत' होता है। वैश्य से ब्राह्मणी में 'वैदेह' जाति का और वैश्य से क्षत्रिया में 'मागध' जाति का होता है । शूद्र से वैश्या, क्षत्रिया ओर ब्राह्मणो में क्रम से से 'अयोगव',
'क्षत्ता' और 'चांडाल'
जाति के पुत्र उत्पन्न होते हैं और वे मनुष्यों में अधम- वर्णसङ्कर
कहलाते हैं । ॥८-१२ ॥
एकान्तरे त्वानुलोम्यादम्बष्ठोग्रौ
यथा स्मृतौ ।
क्षत्तृवैदेहको तद्वत्
प्रातिलोम्येऽपि जन्मनि ॥ ॥१३॥
पुत्रा येऽनन्तरस्त्रीजाः
क्रमेणोक्ता द्विजन्मनाम् ।
ताननन्तरनाम्नस्तु मातृदोषात्
प्रचक्षते ॥ ॥१४॥
ब्राह्मणादुग्रकन्यायामावृतो नाम
जायते ।
आभीरोऽम्बष्ठकन्यायामायोगव्यां तु
धिग्वणः ॥ ॥ १५॥
एक एक जाति के अन्तर से अर्थात्
ब्राह्मण से वैश्या में अनुलोम से उत्पन्न पुत्र जैसे अम्बष्ट और उन कहे हैं वैसे
प्रतिलोम से अर्थात् शुद्ध से क्षत्रिया में उत्पन्न पुत्र क्षत्ता और वैदेह
कहलाते हैं। द्विजों के नीचे जाति की स्त्री में माता के दोष से उत्पन्न पुत्र 'अनन्तर' कहलाते हैं । ब्राह्मण से उनकी कन्या में 'आवृत' जाति का अम्बष्ठकन्या में 'आमीर' जाति का और आयोगवी में 'धिन्वण'
जाति का पुत्र कहलाता है ॥ १३-१५ ॥
आयोगवश्च क्षत्ता च चण्डालश्चाधमो
नृणाम् ।
प्रातिलोम्येन जायन्ते
शूद्रादपसदास्त्रयः ॥ ॥ १६ ॥
वैश्यान् मागधवैदेहौ क्षत्रियात्
सूत एव तु ।
प्रतीपमेते जायन्ते
परेऽप्यपसदास्त्रयः ॥ ॥ १७ ॥
जातो निषादात्शूद्रायां जात्या भवति
पुक्कसः ।
शूद्राज् जातो निषाद्यां तु स वै
कुक्कुटकः स्मृतः ॥ ॥१८॥
क्षत्तुर्जातस्तथोग्रायां श्वपाक
इति कीर्त्यते ।
वैदेहकेन त्वम्बष्ठ्यामुत्पन्नो वेण
उच्यते ॥ ॥ १९ ॥
द्विजातयः सवर्णासु
जनयन्त्यव्रतांस्तु यान् ।
तान् सावित्रीपरिभ्रष्टान्
व्रात्यानिति विनिर्दिशेत् ॥ ॥२०॥
व्रात्यात् तु जायते विप्रात्
पापात्मा भूर्जकण्टकः ।
आवन्त्यवाटधानौ च पुष्पधः शैख एव च
॥ ॥ २१ ॥
झल्लो मल्लश्च राजन्याद्
व्रात्यात्निच्छिविरेव च ।
नटश्च करणश्चैव खसो द्रविड एव च ॥ ॥
२२ ॥
वैश्यात् तु जायते व्रात्यात्
सुधन्वाऽचार्य एव च ।
कारुषश्च विजन्मा च मैत्रः सात्वत
एव च ॥ ॥ २३ ॥
आयोगव,
क्षत्ता और चाण्डाल में शूद्र से प्रतिलोम भाव से पैदा तीन मनुष्यों
में अधम हैं, अपसद हैं। वैश्य से मागध और वैदेह और क्षत्रिय
सूत, ये तीन भी प्रतिलोम भाव से पैदा होते हैं इसलिए अपसद
हैं। निषाद से शूद्रा में उत्पन्न पुत्र 'पुक्कस जाति का और
शूद्र से निषादकन्या में 'कुककुटक' जाति
का पुत्र होता है। इसी प्रकार क्षत्ता से उग्रकन्या से ' श्वपाक'
और वैदेह से अम्बष्ठी में 'वेण' कहलाता है। द्विजाति अपनी सवर्णा स्त्री में उत्पन्न पुत्रों का संस्कार
जो न करें तो वे गायत्रीभ्रष्ट 'व्रात् ' कहलाते हैं । व्रात्य ब्राह्मण से पापी 'भूर्जकंटक' उत्पन्न होते हैं, उनको देशभेद से आवन्त्य, वाटवान पुष्पव और शैल भी कहा जाता है। व्रात्य क्षत्रिय से उत्पन्न पुत्र 'झल्ल', 'मल्ल', 'निच्छिवि',
'नट', 'करण', 'खस'
और द्रविद्व कहलाते हैं। व्रात्य वैश्य से उत्पन्न पुत्र 'सुधन्वाचार्य', 'कारुष', 'विजन्मा',
'मैत्र' और 'सात्वत'
कहलाते हैं ॥ १६-२३ ॥
व्यभिचारेण वर्णानामवेद्यावेदनेन च
।
स्वकर्मणां च त्यागेन जायन्ते
वर्णसङ्कराः ॥ ॥ २४ ॥
सङ्कीर्णयोनयो ये तु
प्रतिलोमानुलोमजाः ।
अन्योन्यव्यतिषक्ताश्च तान्
प्रवक्ष्याम्यशेषतः ॥ ॥२५॥
सूतो वैदेहकश्चैव चण्डालश्च नराधमः
।
मागधः तथाऽयोगव एव च क्षत्रजातिश्च
॥ ॥२६॥
एते षट् सदृशान् वर्णाञ्जनयन्ति
स्वयोनिषु ।
मातृजात्यां प्रसूयन्ते प्रवारासु च
योनिषु ॥ ॥२७॥
यथा त्रयाणां वर्णानां
द्वयोरात्माऽस्य जायते ।
आनन्तर्यात् स्वयोन्यां तु तथा
बाह्येष्वपि क्रमात् ॥ ॥२८॥
ब्राह्मणादि वर्गों में आपस के
व्यभिचार से, अपने सगोत्रा के साथ विवाह न
करने से और अपने वर्णाश्रम धर्मों को छोड़ने से वर्णसङ्कर उत्पन्न होते हैं । जो
सङ्कीर्णयोनि, प्रतिलोम और अनुलोम के परस्पर सम्बन्ध से
उत्पन्न होती हैं उनको विशेषरीति से कहते हैं। सूत, वैदेह,
चाण्डाल, मागध, क्षत्ता
और प्रायोगव यह छह पुरुष अपनी माता की जाति में और अपने से ऊंची जाति में जो
सन्तान पैदा करें वे अपनी जाति की होती हैं। जैसे ब्राह्मण का तीनों वर्णों में से
क्षत्रिय और वैश्यकन्या में और अपनी जाति की कन्या में पैदा पुत्र द्विज कहा जाता
है, वैसे क्षत्रिय से ब्राह्मणी, वैश्य
से क्षत्रिया और ब्राह्मणी कन्या में उत्पन्न पुत्र उत्तम माने जाते हैं । ॥२५-२८
॥
ते चापि बाह्यान् सुबहंस्ततोऽप्यधिकदूषितान्
।
परस्परस्य दारेषु जनयन्ति
विगर्हितान् ॥ ॥ २९ ॥
यथैव शूद्रो ब्राह्मण्यां बाह्यं
जन्तुं प्रसूयते ।
तथा बाह्यतरं बाह्यश्चातुर्वर्ण्य
प्रसूयते ॥ ॥३०॥
प्रतिकूलं वर्तमाना बाह्या
बाह्यत्रान् पुनः ।
हीना हीनान् प्रसूयन्ते वर्णान्
पञ्चदशैव तु ॥ ॥३१॥
आयोगव आदि छः प्रतिलोम पुत्र परस्पर
में अपने से अधम जाति के पुत्रों को पैदा करते हैं। जैसे शूद्र ब्राह्मण की कन्या
में वर्णसंकर चाण्डाल पुत्र पैदा करता है वैसे चाण्डाल चारों वर्ण की कन्याओं अपने
से भी नीच जाति के पुत्रों को उत्पन्न करता है । चाण्डाल इत्यादि अपनी दूसरी पाँच
प्रतिलोम जातियों में अति अधम पुत्रों को उत्पन्न करते हैं और प्रतिलोम जाति के
वर्ण संकर अपने से उत्तम जाति की कन्या में हीन जाति के पन्द्रह पुत्रों को
उत्पन्न करता अर्थात् चारों वर्ण को स्त्रियों में तीन अधमों के तीन तीन पुत्र बारह
और उनके पिता तीन अधम मिलकर १५ होते हैं ॥२९-३१ ॥
प्रसाधनोपचारज्ञमदासं दासजीवनम् ।
सैरिन्धं वागुरावृत्तिं सूते
दस्युरयोगवे ॥ ॥३२॥
मैत्रेयकं तु वैदेहो माधूकं
सम्प्रसूयते ।
नृन् प्रशंसत्यजस्रं यो
घण्टाताडोऽरुणोदये ॥ ॥३३॥
निषादो मार्गवं सूते दासं नौकर्मजीविनम्
।
कैवर्तमिति यं
प्राहुरार्यावर्तनिवासिनः ॥ ॥३४॥
मृतवस्त्रभृत्स्वनारीषु
गर्हितान्नाशनासु च ।
भवन्त्यायोगवीष्वेते जातिहीनाः
पृथक् त्रयः ॥ ॥३५॥
कारावरो निषादात् तु चर्मकारः
प्रसूयते ।
वैदेहिकादन्ध्रमेदौ
बहिर्ग्रामप्रतिश्रयौ ॥ ॥ ३६ ॥
चण्डालात्
पाण्डुसोपाकस्त्वक्सारव्यवहारवान् ।
आहिण्डिको निषादेन वैदेह्यामेव
जायते ॥ ॥३७॥
चण्डालेन तु सोपाको
मूलव्यसनवृत्तिमान् ।
पुक्कस्यां जायते पापः सदा
सज्जनगर्हितः ॥ ॥ ३८ ॥
निषादस्त्री तु चण्डालात्
पुत्रमन्त्यावसायिनम् ।
श्मशानगोचरं सूते बाह्यानामपि
गर्हितम् ॥ ॥ ३९ ॥
दस्यु से आयोगवी में 'सैरिन्ध्र जाति का पुत्र होता है। वह दास न होकर भी केश सँभालना हाथ-पैर
दबाना इत्यादि काम कर सकता है और जाल से मृग इत्यादि को पकड़ सकता है। वैदेह से
आयोगवी स्त्री में 'मैत्रेयक' जाति का
पुत्र होता है । उस मधुरभाषी को सूर्योदय के समय घंटा आदि का शब्द करके राजा आदि
भद्र पुरुषों की प्रशंसा का काम करना चाहिए। निषाद, आयोगवी
में मार्गाव जाति का पुत्र पैदा करता है वह दास भी कहलाता है, नौका से जीविका चलाता है और आर्यावर्त देश निवासी उसको 'कैवर्त' भी कहते हैं। इसी प्रकार मृत मनुष्य के
वस्त्र पहनने वाली, क्रूर स्वभाव, जूठनखाने
वाली आयोगवी में अपने पिता के भेद से अधम जातीय सरिन्ध्र मैत्रेय और मार्गावजाति
के तीन पुत्र पैदा होते हैं। निषाद से वैदेही कन्या में चर्मकार जाति का पुत्र
होता है, उसको मोची का काम करना चाहिए। वैदेहिक से वैदेही
में अंध्र और मेदजाति के पुत्र होते हैं, उनको गांव के बाहर
रहना चाहिए। चाण्डाल से वैदेही में 'पाण्डुसोपाक' पैदा होता है, उसको वृक्षों की छाल से पंखा, सूप इत्यादि बनाने का कार्य करना चाहिए। निषाद से वैदेही में 'आहिणडक', चाण्डाल से पुक्कली में, 'सोपाक' और चांडाल से निषादत्री में 'अत्यावसायी' जाति के पुत्र होते हैं। इन सभी को
जल्लाद वृत्ति से जीविका करनी चाहिए अथवा मरघट मे निवास, मरघट
से ही वृत्ति करनी चाहिए। यह सभी महादूषित होते हैं ॥३२-३६॥
सङ्करे जातयस्त्वेताः
पितृमातृप्रदर्शिताः ।
प्रच्छन्ना वा प्रकाशा वा
वेदितव्याः स्वकर्मभिः ॥ ॥ ४० ॥
स्वजातिजानन्तरजाः षट् सुता
द्विजधर्मिणः ।
शूद्राणां तु सधर्माणः
सर्वेऽपध्वंसजाः स्मृताः ॥ ॥४१॥
तपोबीजप्रभावैस्तु ते गच्छन्ति युगे
युगे ।
उत्कर्षं चापकर्षं च मनुष्येष्विह
जन्मतः ॥ ॥४२॥
शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः
।
वृषत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन
च ॥ ॥४३॥
पौण्ड्रकाचो द्रविडाः काम्बोजा
यवनाः शकाः ।
पारदापह्नवाश्चीनाः किराता दरदाः
खशाः ॥ ॥४४॥
मुखबाहूरुपद्जानां या लोके जातयो
बहिः ।
म्लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते
दस्यवः स्मृताः ॥ ॥ ४५ ॥
ये द्विजानामपसदा ये चापध्वंसजाः
स्मृताः ।
ते निन्दितैर्वर्तयेयुर्द्विजानामेव
कर्मभिः ॥ ॥ ४६ ॥
सूतानामश्वसारथ्यमम्बष्ठानां
चिकित्सनम् ।
वैदेहकानां स्वीकार्यं मागधानां
वणिक्पथः ॥ ॥ ४७ ॥
इस प्रकार वर्णसंकरों की जातियां
उनके माता-पिता के साथ कही गई है। इन में छिपी या प्रकट जातियों को उनके कर्मों से
जानना चाहिए । अपनी जाति और पिछली जाति की स्त्री में द्विज के पैदा किए छः पुत्र
उपनयन संस्कार के योग्य होते हैं। और प्रतिलोम से उत्पन्न हुए सभी शुद्र के समान
माने जाते हैं। तप के प्रभाव से (विश्वामित्र) और बीज के प्रभाव से (ऋष्यशृङ्ग) सब
युगों में मनुष्यजन्म की ऊँचाई और निचाई को प्राप्त होते हैं। पुंड,
उडु, द्रविड, कम्बोज,
यवन, शक, पारद, अपहव, चीन, किरात, दरद और रूसदेश के क्षत्रियगण धीरे धीरे धर्म क्रियाओं को छोड़ देने से और
धर्मोपदेशक ब्राह्मणों का संग न करने से वृषल- म्लेच्छपने को प्राप्त हो गये। इस
जगत् में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और
शूद्र जाति के पुरुष जो क्रिया के लोप से पतित जाति के हो गए हों, वे आर्य भाषा बोलें अथवा म्लेच्छभाषा, उन सभी को 'दस्यु' चोर समझना चाहिए। द्विजों में जिनको अपसद वा
वर्णसंकर कहा है उनको द्विजों के ही दूषित कामों से जीविका चलानी चाहिए। सूतों का
काम, घोड़े का सारथि होना, अम्बष्ठों
का चिकित्सा, वैदहों का अन्तःपुर का काम और मागधों का कर्म
व्यापार है ॥४०-४७ ॥
मत्स्यघातो निषादानां
त्वष्टिस्त्वायोगवस्य च ।
मेदान्ध्रचुञ्चुमद्गूनामारण्यपशुहिंसनम्
॥ ॥४८॥
क्षत्र्युग्रपुक्कसानां तु
बिलौकोवधबन्धनम् ।
धिग्वणानां चर्मकार्यं वेणानां
भाण्डवादनम् ॥ ॥ ४९ ॥
चैत्यद्रुमश्मशानेषु शैलेषूपवनेषु च
।
वसेयुरेते विज्ञाता वर्तयन्तः
स्वकर्मभिः ॥ ॥ ५० ॥
चण्डालश्वपचानां तु बहिर्ग्रामात
प्रतिश्रयः ।
अपपात्राश्च कर्तव्या धनमेषां
श्वगर्दभम् ॥ ॥५१॥
वासांसि मृतचैलानि भिन्नभाण्डेषु
भोजनम् ।
कार्ष्णायसमलङ्कारः परिव्रज्या च
नित्यशः ॥ ॥ ५२ ॥
न तैः समयमन्विच्छेत् पुरुषो
धर्ममाचरन् ।
व्यवहारो मिथस्तेषां विवाहः सदृशैः
सह ॥ ॥ ५३ ॥
अन्नमेषां पराधीनं देयं स्याद्
भिन्नभाजने ।
रात्रौ न विचरेयुस्ते ग्रामेषु
नगरेषु च ॥ ॥ ५४ ॥
दिवा चरेयुः कार्यार्थं चिह्निता
राजशासनैः ।
अबान्धवं शवं चैव निर्हरेयुरिति
स्थितिः ॥ ॥५५॥
निषादों का काम मछली मारना,
आयोगव का लकड़ी काटना, मेद, अंध्र, चंचु और मद्गु का वनपशुओं को मारना, क्षत्ता, उग्र और पुक्कस का बिलों में रहनेवाले साँप,
नेवला इत्यादि को मारना अथवा पकड़ना । धिग्ववणों का मोची का काम और
वेणों का बाजा बनाने का काम है। क्षत्ता आदि जातिवाले गाँव के पास प्रसिद्ध वृक्ष
के नीचे, श्मशान में, पर्वत पर बगीचे
में रहकर अपनी अपनी जीविका चलानी चाहिए। चाण्डाल और श्वपच को गाँव के बाहर रहना
चाहिए, इनके पात्रों को कभी काम में नहीं लाना चाहिए। कुत्ता,
गधा आदि इनके धन हैं। मृत मनुष्यों के वस्त्र, फूटे पात्रों में भोजन करना, लोहे के गहने पहनाना और
गावों में घूमना, यह इन्क्का स्वाभाव अथवा चिन्ह है। पुरुष
को धर्माचरण के समय इन चाण्डालों का दर्शन भी नहीं करना चाहिए, इनका व्यवहार और विवाह समान जातिवालों में ही होना चाहिए। इनका भोजन
पराधीन होना चाहिए, इनको फुटे पात्रों में खाने को अन्न देना
चाहिए और इन लोगो को लोग रात में गाँव अथवा नगर में घूमने नहीं देना चाहिए। वह
राजा की आज्ञा से चिन्ह पाए हुए काम के लिए दिन में घूमें और लावारिस मुरदों को ले
जाएँ, यही मर्यादा है। ॥४८-५५॥
वध्यांश्च हन्युः सततं यथाशास्त्रं
नृपाज्ञया ।
वध्यवासांसि गृह्णीयुः
शय्याश्चाभरणानि च ॥ ॥५६॥
वर्णापेतमविज्ञातं नरं कलुषयोनिजम्
।
आर्यरूपमिवानार्यं कर्मभिः
स्वैर्विभावयेत् ॥ ॥ ५७ ॥
अनार्यता निष्ठुरता क्रूरता
निष्क्रियात्मता ।
पुरुषं व्यञ्जयन्तीह लोके
कलुषयोनिजम् ॥ ॥५८॥
पित्र्यं वा भजते शीलं
मातुर्वोभयमेव वा ।
न कथं चन दुर्योनिः प्रकृतिं स्वां
नियच्छति ॥ ॥५९ ॥
कुले मुख्येऽपि जातस्य यस्य स्याद्
योनिसङ्करः ।
संश्रयत्येव तत्शीलं नरोऽल्पमपि वा
बहु ॥ ॥ ६० ॥
यत्र त्वेते परिध्वंसाज् जायन्ते
वर्णदूषकाः ।
राष्ट्रिकैः सह तद् राष्ट्रं
क्षिप्रमेव विनश्यति ॥ ॥६१॥
ब्राह्मणार्थे गवार्थे वा
देहत्यागोऽनुपस्कृतः ।
स्त्रीबालाभ्युपपत्तौ च बाह्यानां
सिद्धिकारणम् ॥ ॥६२॥
जिनको राजाज्ञा से फाँसी का दण्ड
हुआ हो उनको शास्त्रानुसार मृत्युदण्ड देना चाहिए और उनके वस्त्र,
शय्या, आभूषणों को ले लेना चाहिए। जातिभ्रष्ट,
वर्णसङ्कर, अपरिचित और आर्य मालूम होनेवाला
ऐसे अनायों को उनके कमों से पहचाना चाहिए। असभ्यता, कठोरपन,
क्रूरता और अनाचार से लोक में पुरुष की वर्णसंकरता प्रकट होती है।
वर्णसंकर अपने पिता का या माता का अथवा दोनों के स्वभाव को प्राप्त करता है। वह
अपने स्वभाव- शील को किसी भांति छिपा नहीं सकता। वर्णसंकर उत्तम कुल में पैदा होने
पर भी अपने उत्पादक के स्वभाव को कुछ न कुछ पाता ही है। जिस देश में वर्ण सन्तान
होते हैं वह देश प्रजा के साथ जल्द ही नष्ट हो जाता है । ब्राह्मण, गौ, स्त्री और बालरक्षा के लिए निष्कामभाव से प्राण
छोड़ने से प्रतिलोमजों को उत्तम जाति में जन्म मिलता है ॥५६- ६२॥
मनुस्मृति अध्याय १०- चारों
वर्णों के धर्म-कर्म-जीविका आदि
अहिंसा सत्यमस्तेयं
शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
एतं सामासिकं धर्मं
चातुर्वर्ण्येऽब्रवीन् मनुः ॥ ॥ ६३ ॥
अहिंसा,
सत्य, चोरी न करना, पवित्रता
और इन्द्रिय-निग्रह यह चारों वर्णों का संक्षिप्त-धर्म मनुजी ने कहा है ॥६३॥
शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातः श्रेयसा
चेत् प्रजायते ।
अश्रेयान् श्रेयसीं जातिं गच्छत्या
सप्तमाद् युगात् ॥ ॥६४॥
शूद्रो ब्राह्मणतामेति
ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम् ।
क्षत्रियाज् जातमेवं तु विद्याद्
वैश्यात् तथैव च ॥ ॥६५॥
अनार्यायां समुत्पन्नो ब्राह्मणात्
तु यदृच्छया ।
ब्राह्मण्यामप्यनार्यात् तु
श्रेयस्त्वं क्वेति चेद् भवेत् ॥६६॥
जातो नार्यामनार्यायामार्यादार्यो
भवेद् गुणैः ।
जातोऽप्यनार्यादार्यायामनार्य इति
निश्चयः ॥ ॥६७॥
तावुभावप्यसंस्कार्याविति धर्मों
व्यवस्थितः ।
वैगुण्याज्जन्मनः पूर्व उत्तरः
प्रतिलोमतः ॥ ॥६८॥
ब्राह्मण से शुद्रा में कन्या हो,
वह कन्या ब्राह्मण को विवाहित हो, उसके भी
कन्या हो और वह भी ब्राह्मण को दी जाय इस प्रकार सातवीं पुश्त में जो पुरुष
उत्पन्न होगा, उसका पूर्वज पारशव होने पर भी वह पुरुष
ब्राह्मण माना जाता है। शुद्र जैसे ब्राह्मणता को पाता है वैसे ही ब्राह्मण
शुद्रता को पाता है। ऐसे ही क्षत्रिय से शूद्रा में उत्पन्न पुत्र छठी पीढ़ी में
शूद्र होता है और वैश्य से शूद्रा में उत्पन्न पांचवीं पीढ़ी में शूद्र होता है।
ब्राह्मण से शुद्रा में और शूद्र से ब्राह्मणी में देवेच्छा से पुत्र पैदा हो,
उनमें श्रेष्ठता इस प्रकार है ब्राह्मण से शुद्रा में उत्पन्न पुत्र
यज्ञादि कर्म करता हो तो 'आर्य' कहलाता
है। और शूद्र से ब्राह्मणी उत्पन्न हुआ, 'अनार्य' कहलाता है। पहला नीच जाति में होने से और दूसरा प्रतिलोम होने से दोनों
संस्कार के अयोग्य हैं । यह धर्म की मर्यादा है ॥६४-६८॥
सुबीजं चैव सुक्षेत्रे जातं
सम्पद्यते यथा ।
तथाऽर्याज़ जात आर्यायां सर्वं
संस्कारमर्हति ॥ ॥६९ ॥
बीजमेके प्रशंसन्ति क्षेत्रमन्ये
मनीषिणः ।
क्षेत्रे तथैवान्ये तत्रैयं तु
व्यवस्थितिः ॥ ॥७०॥
क्षेत्रे बीजमुत्सृष्टमन्तरैव
विनश्यति ।
अबीजकमपि क्षेत्रं केवलं स्थण्डिलं
भवेत् ॥ ॥७१॥
अच्छा बीज अच्छे खेत में बोने से
जैसे अच्छा होता है, वैसे आर्य से आर्या
में पैदा हुआ पुत्र सभी संस्कारों के योग्य होता है। कोई विद्वान् बीज की प्रशंसा
करते हैं, कोई क्षेत्र की प्रशंसा करते हैं, कोई बीज और क्षेत्र दोनों की प्रशंसा करते हैं, उसमें
व्यवस्था इस प्रकार है, ऊसर में बोया बीज बीच में ही नष्ट हो
जाता है और बिना बीज के खेत कोरा-सपाट पड़ा रहता है ॥ ६९-७१ ॥
यस्माद् बीजप्रभावेण तिर्यग्जा
ऋषयोऽभवन् ।
पूजिताश्च प्रशस्ताश्च तस्माद् बीजं
प्रशस्यते ॥ ॥ ७२ ॥
अनार्यमार्यकर्माणमार्यं
चानार्यकर्मिणम् ।
सम्प्रधार्याब्रवीद् धाता न समौ
नासमाविति ॥ ॥ ७३ ॥
ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था ये
स्वकर्मण्यवस्थिताः ।
ते सम्यगुपजीवेयुः षट् कर्माणि
यथाक्रमम् ॥ ॥७४॥
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा ।
दानं प्रतिग्रहश्चैव षट्
कर्माण्यग्रजन्मनः ॥ ॥ ७५ ॥
षण्णां तु कर्मणामस्य त्रीणि
कर्माणि जीविका ।
याजनाध्यापने चैव विशुद्धाच्च
प्रतिग्रहः ॥ ॥ ७६ ॥
त्रयो धर्मा निवर्तन्ते ब्राह्मणात्
क्षत्रियं प्रति ।
अध्यापनं याजनं च तृतीयश्च
प्रतिग्रहः ॥ ॥७७॥
वैश्यं प्रति तथैवैते
निवर्तेरन्निति स्थितिः ।
न तौ प्रति हि तान् धर्मान् मनुराह
प्रजापतिः ॥ ॥७८॥
शस्त्रास्त्रभृत्त्वं क्षत्रस्य
वणिक्पशुकृषिर्विषः ।
आजीवनार्थं धर्मस्तु दानमध्ययनं
यजिः ॥ ॥७९॥
क्योंकि बीज के ही प्रभाव से हरिणी
आदि में ऋष्यङ्ग उत्पन्न हुए और माननीय-पूज्य हुए इसलिए बीज उत्तम माना जाता है।
शुद्ध द्विज का कर्म और द्विज शुद्र का कर्म करता हो तो दोनों की तुलना करके
ब्रह्मा ने कहा है- शूद्र द्विज कर्म में अनधिकारी होने से और ब्राह्मण निषिद्ध
आचरण करने से समान नहीं है। क्योंकि गुण स्वभाव के बिना केवल कर्म से अनार्य,
आर्य नहीं हो सकते । जो ब्रह्मयोनिज ब्राह्मण हैं, वे अच्छे प्रकार इन छः कर्मों का अनुष्ठान करें पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना,
दान देना और दान लेना । ब्राह्मण के ये छः कर्म है । इनमें यज्ञ
कराना, पढ़ाना और शुद्धदान लेना ये तीन कर्म जीविका हैं।
ब्राह्मण के धर्मों से क्षत्रिय के तीन धर्म छूटे हैं पढ़ाना, यज्ञ कराना और दान लेना अर्थात् इन कामों को क्षत्रिय को नहीं करना चाहिए
और वैश्य भी नहीं करना चाहिए, यही शास्त्रमर्यादा है।
क्योंकि प्रजापति ने क्षत्रिय, वैश्य के लिए यह धर्म नहीं
कहे हैं। शस्त्र, अस्त्र धारण करना क्षत्रिय की और व्यापार,
पशुपालन, खेती वैश्य की आजीविका के लिए हैं और
दान देना, वेद पढ़ना, यज्ञ कराना,
इन दोनों का धर्म है | ॥७२-७६ ॥
वेदाभ्यासो ब्राह्मणस्य क्षत्रियस्य
च रक्षणम् ।
वार्ताकर्मेव वैश्यस्य विशिष्टानि
स्वकर्मसु ॥ ॥८०॥
अजीवंस्तु यथोक्तेन ब्राह्मणः स्वेन
कर्मणा ।
जीवेत् क्षत्रियधर्मेण स ह्यस्य
प्रत्यनन्तरः ॥ ॥ ८१ ॥
उभाभ्यामप्यजीवंस्तु कथं स्यादिति
चेद् भवेत् ।
कृषिगोरक्षमास्थाय जीवेद् वैश्यस्य
जीविकाम् ॥ ॥८२॥
वैश्यवृत्त्याऽपि जीवंस्तु
ब्राह्मणः क्षत्रियोऽपि वा ।
हिंसाप्रायां पराधीनां कृषिं यत्नेन
वर्जयेत् ॥ ॥८३॥
कृषिं साधुइति मन्यन्ते सा वृत्तिः
सद्विगर्हिताः ।
भूमिं भूमिशयांश्चैव हन्ति
काष्ठमयोमुखम् ॥ ॥८४॥
इदं तु वृत्तिवैकल्यात् त्यजतो
धर्मनैपुणम् ।
विट्पण्यमुद्धृतोद्धारं विक्रेयं
वित्तवर्धनम् ॥ ॥८५॥
सर्वान् रसानपोहेत कृतान्नं च तिलैः
सह ।
अश्मनो लवणं चैव पशवो ये च मानुषाः
॥ ॥८६॥
सर्वं च तान्तवं रक्तं
शाणक्षौमाविकानि च ।
अपि चेत् स्युररक्तानि फलमूले
तथौषधीः ॥ ॥८७॥
ब्राह्मण का वेदाभ्यास करना,
क्षत्रिय का रक्षा करना और वैश्य का व्यापार करना यह अपने अपने
कर्मों में विशेष कर्म हैं। ब्राह्मण यदि वेद पढ़ाकर अपनी जीविका न कर सके तो
क्षत्रिय के कर्म से जीविका कर सकता है। यदि ब्राह्मण, अपने
और क्षत्रिय दोनों के कर्मों से जीविका न कर सके तो खेती, गोरक्षा
आदि वैश्यजीविका से निर्वाह कर सकता है। ब्राह्मण को क्षत्रिय और वैश्य जीविका
निर्वाह करता हुए भी खेती कभी नहीं करनी चाहिए। कोई खेती को अच्छी मानते हैं,
पर यह सत्पुरुषों में निन्दित है । क्योंकि इसमें हल से जीव हिंसा,
अवर्षा सूखा आदि का डर है और यह पराधीन कर्म है । ब्राह्मण और
क्षत्रिय की जीविका अपने कर्मों से न चले तो निन्दित कर्मों को छोड़कर, उनको वैश्य वृत्ति, व्यापार इत्यादि का आश्रय ले
लेना चाहिए। ब्राह्मण को सभी प्रकार के रस, लवन, अन्न, तिल, पत्थर, नमक, पशुओं को नहीं बेचना चाहिए। सभी प्रकार के लाल
वस्त्र, सन- अलसी ऊन के बिना रंगे वस्त्र, फल, कंद, औषधों को भी नहीं
बेचना चाहिए ॥८०-८७ ॥
अपः शस्त्रं विषं मांसं सोमं
गन्धांश्च सर्वशः ।
क्षीरं क्षौद्रं दधि घृतं तैलं मधु
गुडं कुशान् ॥ ॥८८॥
आरण्यांश्च पशून् सर्वान्
दंष्ट्रिणश्च वयांसि च ।
मद्यं नीलिं च लाक्षां च
सर्वांश्चैकशफांस्तथा ॥ ॥ ८९ ॥
काममुत्पाद्य कृष्यां तु स्वयमेव
कृषीवलः ।
विक्रीणीत तिलांशूद्रान् धर्मार्थमचिरस्थितान्
॥ ॥९०॥
भोजनाभ्यञ्जनाद् दानाद् यदन्यत्
कुरुते तिलैः ।
कृमिभूतः श्वविष्ठायां पितृभिः सह
मज्जति ॥ ॥९१॥
सद्यः पतति मांसेन लाक्षया लवणेन च
।
त्र्यहेण शूद्रो भवति ब्राह्मणः
क्षीरविक्रयात् ॥ ॥ ९२ ॥
इतरेषां तु पण्यानां विक्रयादिह
कामतः ।
ब्राह्मणः सप्तरात्रेण वैश्यभावं
नियच्छति ॥ ॥ ९३ ॥
जल, हथियार, विष, मांस, सोमरस, सब तरह की सुगन्धि, दूध,
शहद, दही, घी, तेल, मद्य, गुड़, कुश, जंगली पशु, दाढ़वाले पशु,
पक्षी, भांग, गांजा,
नील, लाख और एक खुर के पशु, इन सबका व्यापार नहीं करना चाहिए। ब्राह्मण किसान ने खेती करके तिल पैदा
किये हो तो उसको यज्ञादि के लिए बेच देना चाहिए। जो पुरुष भोजन, दान और स्नान के सिवा, दूसरे कामों में तिल का उपयोग
करता है वह कीड़ा होकर पितरों के साथ कुत्ते की विष्टा में डूबता है। मांस,
बाख और नमक बेचने से ब्राह्मण तुरंत पतित हो जाता है और दूध बेचने
से तीन दिन में शुद्र हो जाता है। ॥८८-९३ ॥
रसा रसैर्निमातव्या न त्वेव लवणं
रसैः ।
कृतान्नं च कृतान्नेन तिला धान्येन
तत्समाः ॥ ॥९४॥
जीवेदेतेन राजन्यः सर्वेणाप्यनयं
गतः ।
न त्वेव ज्यायंसीं वृत्तिमभिमन्येत
कर्हि चित् ॥ ॥९५॥
ऊपर बताये गए पदार्थों को छोड़कर,
दूसरे शास्त्र में निषिद्ध पदार्थों को यदि ब्राह्मण इच्छा से बेचता
है, तो वह सात रात्रि के बाद, वैश्य हो
जाता है। गुड़ आदि रस का, घी आदि रसों से बदला करे, किन्तु नमक का रसों से बदला नहीं करना चाहिए। पका अन्न, कच्चा अन्न से और तिल दूसरे अन्न से बदल लेने चाहिए। इन विधियों से आपत्ति
में पड़ा क्षत्रिय भी वैश्यवृत्ति से जीवन निर्वाह कर सकता है परन्तु क्षत्रिय को
ब्राह्मण की जीविका से कभी जीविका नहीं करनी चाहिए॥ ९४-९५ ॥
यो लोभादधमो जात्या
जीवेदुत्कृष्टकर्मभिः ।
तं राजा निर्धनं कृत्वा क्षिप्रमेव
प्रवासयेत् ॥ ॥९६॥
वरं स्वधर्मो विगुणो न पारक्यः
स्वनुष्ठितः।
परधर्मेण जीवन् हि सद्यः पतति
जातितः ॥ ॥ ९७ ॥
वैश्योऽजीवन् स्वधर्मेण
शूद्रवृत्त्याऽपि वर्तयेत् ।
अनाचरन्नकार्याणि निवर्तेत च
शक्तिमान् ॥ ॥९८ ॥
अशक्नुवंस्तु शुश्रूषां शूद्रः
कर्तुं द्विजन्मनाम् ।
पुत्रदारात्ययं प्राप्तो जीवेत्
कारुककर्मभिः ॥ ॥९९॥
यैः कर्मभिः प्रचरितैः
शुश्रूष्यन्ते द्विजातयः ।
तानि कारुककर्माणि शिल्पानि
विविधानि च ॥ ॥ १०० ॥
वैश्यवृत्तिमनातिष्ठन् ब्राह्मणः
स्वे पथि स्थितः ।
अवृत्तिकर्षितः सीदन्निमं धर्मं
समाचरेत् ॥ ॥ १०१ ॥
सर्वतः प्रतिगृह्णीयाद्
ब्राह्मणस्त्वनयं गतः ।
पवित्रं दुष्यतीत्येतद् धर्मतो
नोपपद्यते ॥ ॥ १०२ ॥
नाध्यापनाद्याजनाद् वा गर्हिताद् वा
प्रतिग्रहात् ।
दोषो भवति विप्राणां ज्वलनाम्बुसमा
हि ते ॥ ॥ १०३ ॥
जो नीच जाति का पुरुष लोभ से,
उत्तम जाति के कर्म से जीविका करे, उसका धन
छीनकर राजा देश से निकाल देना चाहिए। अपना धर्म किसी अंश में न्यून हो तो भी अच्छा
है परन्तु दूसरे का धर्म सर्वांग पूर्ण होने पर भी अच्छा नहीं होता। क्योंकि दूसरे
के धर्म से जीविका करने वाला तत्काल जाति से भ्रष्ट हो जाता है। यदि वैश्य अपनी
वृत्ति से जीविका न कर सके तो शूद्रवृत्ति से भी निर्वाह कर सकता है। पर वैश्य को
जूठा खाना आदि नहीं खाना चाहिए और दुःख के दिन बीत जाने पर उसको छोड़ देना चाहिए।
यदि शूद्र द्विजों की सेवा न कर सके और उसके पुत्र, स्त्री
भूखों मरते हों तो शिल्प कार्य से जीविका करना चाहिए। जिन कार्यों के करने से
द्विजातियों की सेवा के लिए, अवकाश मिल सके, ऐसे शिल्प कार्यों को करना चाहिए। यदि ब्राह्मण धर्ममार्ग में स्थित,
जीविका की कमी से दुःखी हो तो सब से दान ले लेना चाहिए क्योंकि
पवित्र दान दूषित होता हो, यह धर्म से सिद्ध नहीं होता। आपत्तिकाल
में, निन्दित को वेद पढ़ाने, यज्ञ
कराने और उनसे दान लेने से ब्राह्मणों को दोष नहीं लगता क्योंकि वह अग्नि और जल के
समान पवित्र हैं ॥९६- ९०३ ॥
जीवितात्ययमापन्नो योऽन्नमत्ति
ततस्ततः ।
आकाशमिव पङ्केन न स पापेन लिप्यते ॥
॥ १०४ ॥
अजीगर्तः सुतं हन्तुमुपासर्पद्
बुभुक्षितः।
न चालिप्यत पापेन
क्षुत्प्रतीकारमाचरन् ॥ ॥ १०५ ॥
श्वमांसमिच्छनार्तोऽत्तुं
धर्माधर्मविचक्षणः ।
प्राणानां परिरक्षार्थं वामदेवो न
लिप्तवान् ॥ ॥ १०६ ॥
भरद्वाजः क्षुधार्तस्तु सपुत्रो
विजने वने ।
बह्वीर्गाः प्रतिजग्राह
वृधोस्तक्ष्णो महातपाः ॥ ॥ १०७ ॥
क्षुधार्तश्चात्तुमभ्यागाद्
विश्वामित्रः श्वजाघनीम् ।
चण्डालहस्तादादाय धर्माधर्मविचक्षणः
॥ ॥ १०८ ॥
प्राणान्त को प्राप्त हुआ जो पुरुष
मनमाना अन्न खाता है, वह कीचड से आकाश के
समान, पाप से लिप्त नहीं होता। भूख से दुःखी अजीगर्त ऋषि
अपने पुत्र मारने को तैयार हुआ पर उन्हें दोष नहीं लगा। धर्माधर्म के ज्ञाता
वामदेव ऋषि क्षुधा से प्राणरक्षार्थ कुत्ते का मांस खाना की इच्छा करता हुआ पाप से
लिप्त नहीं हुआ था। महातपस्वी भरद्वाज पुत्र सहित निर्जन वन में क्षुधा से पीड़ित
होकर, वृधु नामक बढ़ई की बहुत सी गायों को ग्रहण किया था।
धर्माधर्म के ज्ञाता, विश्वामित्र भूख से दुःखी होकर,
चाण्डाल के हाथ से कुत्ते की जाँघ लेकर, खाने
को उद्यत हुए थे। ॥ १०४- १०८ ॥
प्रतिग्रहाद् याजनाद् वा
तथैवाध्यापनादपि ।
प्रतिग्रहः प्रत्यवरः प्रेत्य
विप्रस्य गर्हितः ॥ ॥ १०९ ॥
याजनाध्यापने नित्यं क्रियेते
संस्कृतात्मनाम् ।
प्रतिग्रहस्तु क्रियते
शूद्रादप्यन्त्यजन्मनः ॥ ॥ ११० ॥
जपहोमैरपेत्येन याजनाध्यापनैः कृतम्
।
प्रतिग्रहनिमित्तं तु त्यागेन तपसैव
च ॥ ॥ १११ ॥
दान लेना,
यज्ञ कराना और वेद पढ़ाना इनमें दान लेना अधम है और ब्राह्मण को
मृत्यु के बाद परलोक में दुःख देता है। क्योंकि याजन और अध्यापन संस्कार वालों को
कराये जाते हैं और प्रतिग्रह शूद्र से भी लिया जाता है। अनुचित याजन और अध्यापन का
पाप जप, होम से दूर होता है और प्रतिग्रह का पाप वस्तु के
त्याग से अथवा तप से दूर होता है ॥१०९-१११ ॥
शिलौञ्छमप्याददीत विप्रोऽजीवन्
यतस्ततः ।
प्रतिग्रहात् शिलः
श्रेयांस्ततोऽप्युञ्छः प्रशस्यते ॥ ॥ ११२ ॥
सीदद्भिः कुप्यमिच्छद्भिर्धने वा
पृथिवीपतिः।
याच्यः स्यात्
स्नातकैर्विप्रैरदित्संस्त्यागमर्हति ॥ ॥ ११३ ॥
अकृतं च कृतात् क्षेत्राद्
गौरजाविकमेव च ।
हिरण्यं धान्यमन्नं च पूर्वं
पूर्वमदोषवत् ॥ ॥ ११४ ॥
सप्त वित्तागमा धर्म्या दायो लाभः
क्रयो जयः ।
प्रयोगः कर्मयोगश्च सत्प्रतिग्रह एव
च ॥ ॥ ११५ ॥
विद्या शिल्पं भृतिः सेवा गोरक्ष्यं
विपणिः कृषिः ।
धृतिर्भेक्षं कुसीदं च दश जीवनहेतवः
॥ ॥ ११६ ॥
ब्राह्मणः क्षत्रियो वाऽपि वृद्धि
नैव प्रयोजयेत् ।
कामं तु खलु धर्मार्थं दद्यात्
पापीयसेऽल्पिकाम् ॥ ॥११७॥
चतुर्थमाददानोऽपि क्षत्रियो
भागमापदि ।
प्रजा रक्षन् परं शक्त्या
किल्बिषात् प्रतिमुच्यते ॥ ॥११८॥
स्वधर्मो विजयस्तस्य नाहवे स्यात्
पराङ्मुखः ।
शस्त्रेण वैश्यान् रक्षित्वा
धर्म्यमाहारयेद् बलिम् ॥ ॥ ११९ ॥
किसी उपाय से जीविका न कर सके,
तो ब्राह्मण, शिलोंछों को भी ग्रहण कर लेना
चाहिए क्योंकि प्रतिग्रह से शिल श्रेष्ठ है और उच्छ उससे भी श्रेष्ठ माना जाता है।
जो स्नातक ब्राह्मण निर्धनता से दुःख भोगता हो यह राजा से अन्न, वस्त्र अथवा धन मांगे परन्तु यदि राजा न दे तो उसको त्याग देना चाहिए।
बिना जोता खेत, गौ, बकरा, मेढ़ा, सोना, कच्चा और अन्न
इनमें अगले दे पहले पहले निर्दोष माने जाते है। धर्म से प्राप्त यह सात प्रकार की
धन की प्राप्ति धर्मानुकूल है: पहला दायभाग का दावा आदि से मिला धन, दूसरा भूमि आदि में दबा धन मिलना, तीसरा बेचने से
मिला धन, चौथा विजय से मिला धन, पांचवां
ब्याज में मिला धन, छठा परिश्रम से मिला धन और सातवाँ
सत्पुरुषों से दान मे मिला धन। यह दस जीविका के साधन हैं विद्या, कारीगरी, नौकरी, सेवा, पशुपालन, व्यापार, खेती,
सन्तोष, भिक्षा और ब्याज । ब्राहाण और
क्षत्रिय को आपत्ति काल में भी ब्याज पर धन नहीं देना चाहिए परन्तु धर्मार्थ किसान
वगैरह को थोड़े ब्याज पर कुछ द्रव्य दे देना चाहिए। राजा आपत्ति काल में भी चौथा
भाग लेकर यदि पूरी प्रजा की रक्षा करे तो पातक से छूट जाता है। युद्ध करना
क्षत्रिय का स्वधर्म है, इसलिए युद्ध से क्षत्रिय को युद्ध
से पीठ नहीं दिखानी चाहिए। वैश्यों की शस्त्र से रक्षा करके, अपने राजकीय-कर को ग्रहण करना चाहिए ॥ ११२-११६ ॥
धान्येऽष्टमं विशां शुल्कं विंशं
कार्षापणावरम् ।
कर्मोपकरणाः शूद्राः कारवः
शिल्पिनस्तथा ॥ ॥ १२० ॥
शूद्रस्तु वृत्तिमाकाङ्क्षन्
क्षत्रमाराधयेद् यदि ।
धनिनं वाऽप्युपाराध्य वैश्यं शूद्रो
जिजीविषेत् ॥ ॥१२१॥
स्वर्गार्थमुभयार्थं वा
विप्रानाराधयेत् तु सः ।
जातब्राह्मणशब्दस्य सा ह्यस्य
कृतकृत्यता ॥ ॥ १२२ ॥
विप्रसेवैव शूद्रस्य विशिष्टं कर्म
कीर्त्यते ।
यदतोऽन्यद् हि कुरुते तद् भवत्यस्य
निष्फलम् ॥ ॥ १२३॥
प्रकल्प्या तस्य तैर्वृत्तिः
स्वकुटुम्बाद् यथार्हतः ।
शक्तिं चावेक्ष्य दाक्ष्यं च
भृत्यानां च परिग्रहम् ॥ ॥ १२४ ॥
उच्छिष्टमन्नं दातव्यं जीर्णानि
वसनानि च ।
पुलाकाश्चैव धान्यानां जीर्णाश्चैव
परिच्छदाः ॥ ॥ १२५॥
न शूद्रे पातकं किं चिन्न च
संस्कारमर्हति ।
नास्याधिकारो धर्मेऽस्ति न धर्मात्
प्रतिषेधनम् ॥ ॥ १२६ ॥
राजा को वैश्यों से अन्न का आठवां
भाग लेना चाहिए और कार्षापण तक सर्राफ के लाभ पर बीसवां भाग लेना चाहिए और शुद्र
मज़दूर,
कारीगरों से केवल काम करा लेना चाहिए। ब्राह्मण की सेवा से शुद्र
जीविका न कर सके तो क्षत्रिय अथवा धनी वैश्य की सेवा करके, जीविका
करना चाहिए । परन्तु लोक परलोक दोनों में सुख चाहनेवाला शूद्र ब्राह्मण की सेवा
करनी चाहिए। अमुक शूद्र अमुक ब्राह्मण का आश्रित है, ऐसा
कहलाने से ही शुद्र कृतार्थ होता है। ब्राह्मण सेवा ही शूद्र का प्रधान कर्म है।
इसके सिवा उसके कर्म निष्फल है। ब्राह्मण सेवकों की काम करने की शक्ति, बुद्धिमानी और परिवार को देखकर योग्यतानुसार अन्न, वस्त्र,
पुराने ओढ़ने, बिछौने इत्यादि दे देनी चाहिए।
सेवक शूद्र को द्विजों के घर का कोई पातक नहीं लगता क्योंकि न तो उन द्विजों के
धर्म में इसको अधिकार है। और न अपने धर्म से इसको निषेध है ॥ १२०-१२६ ॥
धर्मेप्सवस्तु धर्मज्ञाः सतां
वृत्तमनुष्ठिताः ।
मन्त्रवर्ण्यं न दुष्यन्ति प्रशंसां
प्राप्नुवन्ति च ॥ ॥ १२७ ॥
यथा यथा हि
सद्वृत्तमातिष्ठत्यनसूयकः ।
तथा तथैमं चामुं च लोकं
प्राप्नोत्यनिन्दितः ॥ ॥ १२८ ॥
शक्तेनापि हि शूद्रेण न कार्यो
धनसञ्चयः ।
शूद्रोहि धनमासाद्य ब्राह्मणानेव
बाधते ॥ ॥ १२९ ॥
एते चतुर्णां वर्णानामापद्धर्माः
प्रकीर्तिताः ।
यान् सम्यगनुतिष्ठन्तो व्रजन्ति
परमं गतिम् ॥ ॥ १३० ॥
एष धर्मविधिः
कृत्स्नश्चातुर्वर्ण्यस्य कीर्तितः ।
अतः परं प्रवक्ष्यामि
प्रायश्चित्तविधिं शुभम् ॥ ॥ १३१ ॥
धर्मज्ञ शुद्ध धर्म संपादन की इच्छा
से मन्त्र के बिना सत्पुरुषों के प्राचरण करते हुए दोष नहीं किन्तु प्रशंसा को
प्राप्त होते हैं। शूद्र जैसे जैसे सदाचार का पालन करता है वैसे वैसे लोक में
प्रशंसा प्राप्त करता है और मरकर उत्तम लोक का भागी होता है। समर्थ शूद्र को भी
धनसंग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि शुद्र धन
पाकर ब्राह्मणों को दुःख देता है । इस प्रकार यह सब चारों वर्गों के आपत्काल के
धर्म कहे गए हैं। जो अपने अपने धर्म का भलीभांति सेवन करते हैं वह परमगति को
प्राप्त करते हैं । यह चारों वर्णों की धर्मविधि पूरी हुई। अब प्रायश्चित्त की
विधि कहेंगे ॥१२७-१३१ ॥
॥ इति मानवे धर्मशास्त्रे
भृगुप्रोक्तायां स्मृतौ दशमोऽध्यायः समाप्तः॥ १० ॥
॥ महर्षि भृगु द्वारा प्रवचित मानव
धर्म शास्त्र स्मृति का दसवां अध्याय समाप्त ॥
आगे जारी..........मनुस्मृति अध्याय 11
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