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कर्मकाण्ड

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मनुस्मृति नौवाँ अध्याय

मनुस्मृति नौवाँ अध्याय

मनुस्मृति नौवाँ अध्याय के अंतिम भाग-२ श्लोक १६६ से ३३६ में पुत्रों की संज्ञा, स्त्रीधन आदि,द्युत-जुआ, चोर-दुष्टों का निग्रह, ब्राह्मण माहात्म्य, वैश्यशूद्रकर्तव्य का वर्णन किया गया है।

मनुस्मृति नौवाँ अध्याय

मनुस्मृति अध्याय ९     

Manu smriti chapter 9

मनुस्मृति नवमोऽध्यायः

॥ श्री हरि ॥

॥ मनुस्मृति ॥

मनुस्मृति नौवाँ अध्याय

॥अथ नवमोऽध्यायः ॥

मनुस्मृति अध्याय ९- पुत्रों की संज्ञा

स्वक्षेत्रे संस्कृतायां तु स्वयमुत्पादयेद् हि यम् ।

तमौरसं विजानीयात् पुत्रं प्राथमकल्पिकम् ॥ ॥१६६॥

यस्तल्पजः प्रमीतस्य क्लीबस्य व्याधितस्य वा ।

स्वधर्मेण नियुक्तायां स पुत्रः क्षेत्रजः स्मृतः ॥ ॥ १६७॥

माता पिता वा दद्यातां यमद्भिः पुत्रमापदि ।

सदृशं प्रीतिसंयुक्तं स ज्ञेयो दत्त्रिमः सुतः ॥ ॥ १६८ ॥

सदृशं तु प्रकुर्याद्यं गुणदोषविचक्षणम् ।

पुत्रं पुत्रगुणैर्युक्तं स विज्ञेयश्च कृत्रिमः ॥ ॥ १६९॥

उत्पद्यते गृहे यस्तु न च ज्ञायेत कस्य सः ।

गृहे गूढ उत्पन्नस्तस्य स्याद् यस्य तल्पजः ॥ ॥ १७० ॥

मातापितृभ्यामुत्सृष्टं तयोरन्यतरेण वा ।

यं पुत्रं परिगृह्णीयादपविद्धः स उच्यते ॥ ॥ १७१ ॥

पितृवेश्मनि कन्या तु यं पुत्रं जनयेद् रहः ।

तं कानीनं वदेन्नाम्ना वोढुः कन्यासमुद्भवम् ॥ ॥ १७२ ॥

या गर्भिणी संस्क्रियते ज्ञाताऽज्ञाताऽपि वा सती ।

वोढुः स गर्भो भवति सहोढ इति चोच्यते ॥ ॥१७३॥

विवाह-संस्कार से सवर्णा स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसको औरस कहते हैं - वह मुख्य है। मृत, नपुंसक और रोगी की स्त्री में नियोग से जो पुत्र होता है वह 'क्षेत्रज' है। माता पिता प्रसन्नता से जल लेकर आपत्ति में जिसको देदें - वह दत्रिम (दत्तक) पुत्र कहलाता है। जो सजातीय, गुण-दोषज्ञ और पुत्र गुणों से युक्त हो, वह पुत्र कर लिया जाय तो 'कृत्रिम ' कहलाता है। जिसके घर पुत्र पैदा हो, पर यह न मालूम हो किसका है ? वह घर में गुप्तरीति से पैदा 'गूढोत्पन्न' जिसकी स्त्री में हो, उसका है। माता-पिता अथवा एक ही ने जिसको त्याग दिया हो उसका जो पालन करे वह उसका 'अपविद्ध' पुत्र कहलाता है। अपने पिता के घर, सजातीय पुरुष से, एकान्त में कन्या जो पुत्र पैदा करे उसको 'कानीन' कहते हैं। यह उस कन्या से विवाह करनेवाले का होता है। जो ज्ञात अथवा, अज्ञात गर्भिणी के साथ विवाह किया जाय वह उसी पति का गर्भ है और उसको 'सहोढ' कहते हैं ॥ १६६-१७३ ॥

क्रीणीयाद् यस्त्वपत्यार्थं मातापित्रोर्यमन्तिकात् ।

क्रीतः सुतस्तस्य सदृशोऽसदृशोऽपि वा ॥ ॥ १७४॥

या पत्या वा परित्यक्ता विधवा वा स्वयेच्छया ।

उत्पादयेत् पुनर्भूत्वा स पौनर्भव उच्यते ॥ ॥ १७५ ॥

सा चेदक्षतयोनिः स्याद् गतप्रत्यागताऽपि वा ।

पौनर्भवेन भर्त्रा सा पुनः संस्कारमर्हति ॥ ॥ १७६ ॥

मातापितृविहीनो यस्त्यक्तो वा स्यादकारणात् ।

आत्मानमर्पयेद् यस्मै स्वयंदत्तस्तु स स्मृतः ॥ ॥ १७७॥

ब्राह्मणस्तु शूद्रायां कामादुत्पादयेत् सुतम् ।

स पारयन्नेव शवस्तस्मात् पारशवः स्मृतः ॥ ॥ १७८ ॥

दास्यां वा दासदास्यां वा यः शूद्रस्य सुतो भवेत् ।

सोऽनुज्ञातो हरेदंशमिति धर्मे व्यवस्थितः ॥ ॥१७९॥

जो अपनी उत्तर क्रिया के लिए माता-पिता से जिस पुत्र को खरीदता है, चाहे वह खरीददार के समान हो अथवा न हो, वह उसका 'क्रीतक पुत्र' होता है। पति की त्यागी या विधवा स्त्री दूसरे की स्त्री होकर पुत्र जने उसको 'पौनर्भव' कहते हैं। वह पति की त्यागी अथया विधवा स्त्री अक्षतयोनि हो तो, प्रायश्चित्त करके दूसरे - पुनर्भू पति के पास रह सकती है । जो माता-पिता से हीन हो, बिना कारण ही जिस पुत्र को माता-पिता ने त्याग दिया हो, वह अपने को जिसे दे दे वह "स्वयंदत्त" पुत्र कहता हैं । ब्राह्मण कामना से शूद्रा में जिस पुत्र को पैदा करे, वह जीता ही मुर्दा के सामन है इसलिये उसे पारशव' कहते हैं। शुद्र का दासी में या दास की स्त्री में जो पुत्र हो, वह पिता की आज्ञा से अपना भाग ले - यह धर्ममर्यादा है ॥ १७४ - १७९ ॥

क्षेत्रजादीन् सुतानेतानेकादश यथोदितान् ।

पुत्रप्रतिनिधीनाहुः क्रियालोपान् मनीषिणः ॥ ॥ १८० ॥

य एतेऽभिहिताः पुत्राः प्रसङ्गादन्यबीजजाः ।

यस्य ते बीजतो जातास्तस्य ते नैतरस्य तु ॥ ॥१८१ ॥

यह क्षेत्रज आदि जो ग्यारह पुत्र कहे हैं, उनको पितर क्रिया का लोप न हो इस कारण पुत्र- प्रतिनिधि आचार्यों ने कहा है । ये औरस पुत्र के प्रसङ्ग से जो दूसरे के वीर्य से उत्पन्न हुए पुत्र कहे गए है, वह जिन के वीर्य से पैदा हुए है उन्ही के हैं - दूसरों के नहीं हैं ॥ १८०-१८१ ॥

भ्रातृणामेकजातानामेकश्चेत् पुत्रवान् भवेत् ।

सर्वांस्तांस्तेन पुत्रेण पुत्रिणो मनुरब्रवीत् ॥ ॥१८२॥

सर्वासामेकपत्नीनामेका चेत पुत्रिणी भवेत् ।

सर्वास्तास्तेन पुत्रेण प्राह पुत्रवतीर्मनुः ॥ ॥१८३॥

श्रेयसः श्रेयसोऽलाभे पापीयान् रिक्थमर्हति ।

बहवश्चेत् तु सदृशाः सर्वे रिक्थस्य भागिनः ॥ ॥ १८४ ॥

न भ्रातरो न पितरः पुत्रा रिक्थहराः पितुः ।

पिता हरेदपुत्रस्य रिक्थं भ्रातर एव च ॥ ॥१८५॥

सहोदर भाइयों में यदि एक भी पुत्रवान् हो तो उस पुत्र से सभी भाई पुत्रवान हैं- ऐसा मनुजी कहते हैं। एक पुरुष की कई स्त्रियों में जो एक भी पुत्रवाली हो तो उससे सभी पुत्रवाली कहलाती हैं। औरस आदि पहले पहले पुत्र न हो तो अगले अगले पुत्र, पिता के धन के अधिकारी होते हैं और यदि बहुत से पुत्र समान ही हों तो, सभी धन के अधिकारी हैं। पिता के धन को लेने वाले पुत्र ही हैं, न सहोदर भाई है न पिता इत्यादि ही हैं। परन्तु पुत्र हीन का धन उसका पिता अथवा भाई ले सकता है ॥१८२-१८५ ॥

त्रयाणामुदकं कार्यं त्रिषु पिण्डः प्रवर्तते ।

चतुर्थः सम्प्रदातैषां पञ्चमो नोपपद्यते ॥ ॥१८६॥

अनन्तरः सपिण्डाद् यस्तस्य तस्य धनं भवेत् ।

अत ऊर्ध्वं सकुल्यः स्यादाचार्यः शिष्य एव वा ॥ ॥ १८७॥

सर्वेषामप्यभावे तु ब्राह्मणा रिक्थभागिनः ।

विद्याः शुचयो दान्तास्तथा धर्मो न हीयते ॥ ॥१८८ ॥

अहार्यं ब्राह्मणद्रव्यं राज्ञा नित्यमिति स्थितिः ।

इतरेषां तु वर्णानां सर्वाभावे हरेन्नृपः ॥ ॥ १८९ ॥

बाप, दादा और परदादा इन तीन को जल और पिण्डदान होता । पिण्ड देनेवाला चौथा होता है-पाँचवें का सम्बन्ध नहीं है। जो सपिण्डों में अधिक समीप हो, उसका धन होता है। वह न हो तो कुलपुरुष, वह भी न हो तो आचार्य, वह भी न हो तो शिष्य अधिकारी होता है। यह सब भी न हो तो धन ब्राह्मण पाते हैं, परन्तु वह ब्राह्मण तीनों वेदों के ज्ञाता, भीतर - बाहर से पवित्र जितेन्द्रिय होने चाहिए, जिससे श्राद्धादि कर्मों में हानि नहीं पहुँचे। कोई लेने वाला न भी हो, तब भी ब्राह्मण का धन राजा को नहीं लेना चाहिए धर्ममर्यादा है। परन्तु दूसरे वर्णों का धन कोई लेनेवाला न हो तो राजा ले सकता है ॥१८६-१८९ ॥

संस्थितस्यानपत्यस्य सगोत्रात् पुत्रमाहरेत् ॥

तत्र यद् रिक्थजातं स्यात् तत् तस्मिन् प्रतिपादयेत् ॥ ॥ १९० ॥

द्वौ तु यौ विवदेयातां द्वाभ्यां जातौ स्त्रिया धने ।

तयोर्यद् यस्य पित्र्यं स्यात् तत् स गृह्णीत नैतरः ॥ ॥१९१॥

जन्यां संस्थितायां तु समं सर्वे सहोदराः ।

भजेरन् मातृकं रिक्थं भगिन्यश्च सनाभयः ॥ ॥ १९२॥

यास्तासां स्युर्दुहितरस्तासामपि यथार्हतः ।

मातामह्या धनात् किं चित् प्रदेयं प्रीतिपूर्वकम् ॥ ॥१९३॥

कोई पुत्रहीन मर जाय तो उसके सगोत्र में सें पुत्र ले कर उस पुरुष के धन हो, उसे सौंप देना चाहिए। एक स्त्री में दो पुरुषों से पैदा 'दो पुत्र, औरस- पौनर्भव यदि धन के लिए विवाद करें तो, जिसके का जो धन हो उसको वही लेना चाहिए, दूसरा को वह धन नहीं मिलना चाहिए। माता पिता के मरने पर सभी सहोदर भाई और कुमारी बहनों को माता के धन को एक समान बाँट लेना चाहिए और उन लड़कियों की जो अविवाहित हों उनको नानी के धन में से कुछ प्रसन्नता पूर्वक दे देना चाहिए ॥१९०-१९३॥

मनुस्मृति अध्याय ९- स्त्रीधन आदि

अध्यग्न्यध्यावाहनिकं दत्तं च प्रीतिकर्मणि ।

भ्रातृमातृपितृप्राप्तं षड् विधं स्त्रीधनं स्मृतम् ॥ ॥ १९४ ॥

अन्वाधेयं च यद् दत्तं पत्या प्रीतेन चैव यत् ।

पत्यौ जीवति वृत्तायाः प्रजायास्तद् धनं भवेत् ॥ ॥ १९५॥

ब्राह्मदेवार्षगान्धर्वप्राजापत्येषु यद् वसु ।

अप्रजायामतीतायां भर्तुरेव तदिष्यते ॥ ॥ १९६ ॥

यत् त्वस्याः स्याद् धनं दत्तं विवाहेष्वासुरादिषु ।

अप्रजायामतीतायां मातापित्रोस्तदिष्यते ॥ ॥ १९७ ॥

विवाह काल में अग्नि के समीप पिता आदि का दिया, ससुराल में पाया हुआ आभूषण इत्यादि, पति का दिया, पिता का दिया, भाई का दिया और माता से पाया ये छः प्रकार के स्त्रीधन कहे हैं। विवाह में पति की तरफ से मिला धन और खुशी से पति का दिया धन, पति के जीते स्त्री मर जाय तो वह धन उसके पुत्र का होता है । ब्राह्म, देव, आर्ष, गान्धर्व और प्राजापत्य नामक विवाहों में स्त्रियों को जो धन मिलता है वह स्त्री सन्तानहीन मर जाय तो उसके पति का होता है। और आसुरादि विवाहों में जो स्त्री को धन मिले वह स्त्री सन्तानहीन मर जाय तो उसके माता-पिता का होता है । १९४-१९७ ॥

स्त्रियां तु यद् भवेद् वित्तं पित्रा दत्तं कथं चन ।

ब्राह्मणी तद् हरेत् कन्या तदपत्यस्य वा भवेत् ॥ ॥ १९८ ॥

न निर्हारं स्त्रियः कुर्युः कुटुम्बाद् बहुमध्यगात् ।

स्वकादपि च वित्ताद् हि स्वस्य भर्तुरनाज्ञया ॥ ॥ १९९ ॥

पत्यौ जीवति यः स्त्रीभिरलङ्कारो धृतो भवेत् ।

न तं भजेरन् दायादा भजमानाः पतन्ति ते ॥ ॥ २०० ॥

अनंशौ क्लीबपतितौ जात्यन्धबधिरौ तथा ।

उन्मत्तजडमूकाश्च ये च केचिन्निरिन्द्रियाः ॥ ॥ २०१ ॥

सर्वेषामपि तु न्याय्यं दातुं शक्त्या मनीषिणा ।

ग्रासाच्छादनमत्यन्तं पतितो ह्यददद् भवेत् ॥ ॥ २०२ ॥

स्त्री के पास किसी भी प्रकार का धन जो पिता का दिया हो, वह उसकी ब्राह्मणी कन्या को ग्रहण करना चाहिए अथवा उसकी सन्तान को ग्रहण करना चाहिए। बहुत कुटुम्बवाले परिवार में स्त्री धन संचय नहीं करना चाहिए और पति की आज्ञा बिना अपने धन में से भी आभूषण इत्यादि भी नहीं बनवाने चाहिए। पति के जीते स्त्रियों का जो गहना हो, उसको हिस्सेदार न बांटे ऐसा करने वाले पतित हो जाते हैं । नपुंसक, पतित, जन्मान्ध, बधिर, उन्मत्त, जड़, मूक, और जो जन्म से निरिन्द्रिय हो, यह सभी पिता के धन में भाग नहीं होते। इन सबको जीवनभर यथाशक्ति भोजन वस्त्र इत्यादि जीवन निर्वाह खर्च देना चाहिए, न देने से पतित होता है॥१९८-२०२॥

यद्यर्थिता तु दारैः स्यात् क्लीवादीनां कथं चन ।

तेषामुत्पन्नतन्तूनामपत्यं दायमर्हति ॥ ॥२०३॥

यत् किं चित् पितरि प्रेते धनं ज्येष्ठोऽधिगच्छति ।

भागो यवीयसां तत्र यदि विद्यानुपालिनः ॥ ॥ २०४ ॥

अविद्यानां तु सर्वेषामीहातश्चेद् धनं भवेत् ।

समस्तत्र विभागः स्यादपित्र्य इति धारणा ॥ ॥ २०५ ॥

यदि नपुंसक आदि के किसी प्रकार विवाह से क्षेत्रज सन्तान पैदा हों तो उनके सन्तान धन के भागी होते हैं। पिता की मृत्यु के बाद ज्येष्ठ पुत्र धन मिलना चाहिए यदि छोटा भाई विद्वान् हो तो उस में भी उसका भाग होता है। सभी भाइयों का यदि व्यापार आदि से कमाया संयुक्त धन हो तो उसमें पिता का धन छोड़कर समान भाग करना चाहिए, यह धर्मशास्त्र को मर्यादा है ॥२०३ - २०५ ॥

विद्याधनं तु यद्यस्य तत् तस्यैव धनं भवेत् ।

मैत्र्यमोद्वाहिकं चैव माधुपर्किकमेव च ॥ ॥ २०६ ॥

भ्रातॄणां यस्तु नैहेत धनं शक्तः स्वकर्मणा ।

स निर्भाज्यः स्वकादंशात् किं चिद् दत्त्वोपजीवनम् ॥ ॥ २०७॥

अनुपघ्नन् पितृद्रव्यं श्रमेण यदुपार्जितम् ।

स्वयमीहितलब्धं तन्नाकामो दातुमर्हति ॥ ॥ २०८ ॥

पैतृकं तु पिता द्रव्यमनवाप्तं यदाप्नुयात् ।

न तत् पुत्रैर्भजेत् सार्धमकामः स्वयमर्जितम् ॥ ॥ २०९ ॥

विभक्ताः सह जीवन्तो विभजेरन् पुनर्यदि ।

समस्तत्र विभागः स्याज् ज्यैष्ठ्यं तत्र न विद्यते ॥ ॥ २१० ॥

येषां ज्येष्ठः कनिष्ठो वा हीयेतांशप्रदानतः ।

म्रियेतान्यतरो वाऽपि तस्य भागो न लुप्यते ॥ ॥२११ ॥

सोदर्या विभजेरंस्तं समेत्य सहिताः समम् ।

भ्रातरो ये च संसृष्टा भगिन्यश्च सनाभयः ॥ ॥ २१२ ॥

यो ज्येष्ठ विनिकुर्वीत लोभाद् भ्रातृन् यवीयसः ।

सोऽज्येष्ठः स्यादभागश्च नियन्तव्यश्च राजभिः ॥ २१३ ॥

जिसको जो धन विद्या से प्राप्त हो वह उसी का है। मित्र से, विवाह में और मधुपर्क में जो धन जिसको मिले वह उसी का है। जो अपने पुरुषार्थ से धन कमा सकता है और भाइयों के साधारण धन को न चाहता हो उसको कुछ निर्वाह योग्य देकर अलग कर देना चाहिए। पिता के धन को हानि न पहुँचाकर, अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त हो यदि उसमे इच्छा न हो तो भाइयों को भाग नहीं देना चाहिए। पिता के पिता का धन जिसको कोई नहीं पा सका हो उसको पिता को प्राप्त करना चाहिए यदि इच्छा न उअका बंटवारा नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह उसने स्वयं प्राप्त किया है। भाई एक बार अलग होकर फिर साथ रहें और दुबारा बंटवारा करना चाहे तो समान भाग करना चाहिए, उस समय बड़े भाई का भाग अधिक नहीं होना चाहिए। जिन भाइयों में बड़ा वा छोटा भाई बंटवारे के समय संन्यासी हो गया हो अथवा मर गया हो तो भी उसका भाग नष्ट नहीं होता। यादे उसके पुत्र, पुत्री, स्त्री, माता-पिता न हो तो सगे भाई या सहोदर बहनों को आपस में विभाग कर लेना चाहिए। यदि बड़ा भाई, छोटे भाई को लोभ से धोखा दे तो उसको बड़ा नहीं मानना चाहिए, अधिक भाग नहीं देना चाहिए और राजा को उसको दण्ड देना चाहिए ॥२०६-२१३ ॥

सर्व एव विकर्मस्था नार्हन्ति भ्रातरो धनम् ।

न चादत्त्वा कनिष्ठेभ्यो ज्येष्ठः कुर्वीत योतकम् ॥ २१४॥

भ्रातृणामविभक्तानां यद्युत्थानं भवेत् सह ।

न पुत्रभागं विषमं पिता दद्यात् कथं चन ॥ ॥ २१५ ॥

ऊर्ध्वं विभागात्जातस्तु पित्र्यमेव हरेद् धनम् ।

संसृष्टास्तेन वा ये स्युर्विभजेत स तैः सह ॥ ॥ २१६ ॥

अनपत्यस्य पुत्रस्य माता दायमवाप्नुयात् ।

मातर्यपि च वृत्तायां पितुर्माता हरेद् धनम् ॥ ॥ २१७ ॥

ऋणे धने च सर्वस्मिन् प्रविभक्ते यथाविधि ।

पश्चाद् दृश्येत यत् किं चित् तत् सर्वं समतां नयेत् ॥ ॥२१८॥

वस्त्रं पत्रमलङ्कारं कृतान्नमुदकं स्त्रियः ।

योगक्षेमं प्रचारं च न विभाज्यं प्रचक्षते ॥ ॥ २१९ ॥

मुक्त विभागो वः पुत्राणां च क्रियाविधिः ।

क्रमशः क्षेत्रजादीनां द्यूतधर्मं निबोधत ॥ ॥ २२० ॥

भाई यदि विरुद्ध कुकर्म में पड़े हों तो वह धन प्राप्त करने योग्य नहीं होता। बड़े भाई हो छोटे भाई का भाग बिना दिये स्वामी नहीं बनना चाहिए। भाई बाँटकर अलग न हुए हों और सभी साथ रहकर व्यापारादि करते हो तो पिता को पुत्रों को न्यूनाधिक भाग कभी नहीं देना चाहिए। यदि अपने जीवन में ही पिता विभाग कर दे और दूसरा पुत्र उत्पन्न हो जाय तो वह पिता के ही धन का अधिकारी होता है अथवा जो पिता के साथ रहते हो उनसे साथ विभाग करना चाहिए। पुत्र का पुत्र मर जाय और उसकी स्त्री न हो तो धाय माता को धन प्राप्त करना चाहिए और माता भी न रहे तो पिता की माता को वह भाग प्राप्त होना चाहिए। माता-पिता के धन और ऋण का यथाविधि विभाग कर लेने पर यदि कुछ दूसरी सम्पत्ति का पता लगे तो उसको सभी को समान रूप से बांट लेना चाहिए। वस्त्र, सवारी, गहने आभूषण, पकवान, जल, दासी, मंत्री, पुरोहित और गौ चरने का स्थान इनका विभाग धर्मशास्त्री नहीं करते अर्थात् जो जिसके काम में आए वही उसको रखना चाहिए। इस प्रकार विभाग और क्षेत्रज आदि पुत्र उत्पन्न करने की रीति क्रम से कही गई है । अब द्युत जुए की व्यवस्था सुनो ॥ २१४-२२० ॥

मनुस्मृति अध्याय ९- द्युत-जुआ

द्यूतं समाह्वयं चैव राजा राष्ट्रात्निवारयेत् ।

राजान्तकरणावेतौ द्वौ दोषौ पृथिवीक्षिताम् ॥ ॥२२१॥

प्रकाशमेतत् तास्कर्यं यद् देवनसमाह्वयौ ।

तयोर्नित्यं प्रतीघाते नृपतिर्यत्नवान् भवेत् ॥ ॥ २२२ ॥

अप्राणिभिर्यत् क्रियते तल्लोके यूतमुच्यते ।

प्राणिभिः क्रियते यस्तु स विज्ञेयः समाह्वयः ॥ ॥ २२३ ॥

द्यूतं समाह्वयं चैव यः कुर्यात् कारयेत वा ।

तान् सर्वान् घातयेद् राजा शूद्रांश्च द्विजलिङ्गिनः ॥ ॥ २२४ ॥

कितवान् कुशीलवान् क्रूरान् पाषण्डस्थांश्च मानवान् ।

विकर्मस्थान शौण्डिकांश्च क्षिप्रं निर्वासयेत् पुरात् ॥ ॥२२५॥

एते राष्ट्रे वर्तमाना राज्ञः प्रच्छन्नतस्कराः ।

विकर्मक्रियया नित्यं बाधन्ते भद्रिकाः प्रजाः ॥२२६॥

द्यूतमेतत् पुरा कल्पे दृष्टं वैरकरं महत् ।

तस्माद् द्यूतं न सेवेत हास्यार्थमपि बुद्धिमान् ॥ ॥२२७॥

राजा को अपने देश में जुआ और समाह्वय को दूर करना चाहिए क्योंकि ये दोनों दोष राजा के राज्य का नाश करने वाले होते हैं । जुआ और समाह्वय प्रत्यक्ष लूट हैं, इस कारण राजा को इन दोनों के नाश का यत्न करना चाहिए। जो रुपया पैसा-कौड़ी आदि निर्जीव से खेला जाय उसको जुआ कहते हैं और तीतर, बटेर आदि जीवों पर जो बाजी लगाई जाती है उसको ' समाहृय कहते हैं। जो पुरुष जुआ और समय करें या करावें उन सब को और ब्राह्मण वेषधारी शूद्रों को राजा को खूब पिटवाना चाहिए। जुआरी, धूर्त, क्रूरकर्मा, पाखण्डी, मर्यादा के खिलाफ़ चलनेवाले और शराबी को राजा अपने नगर से निकलवा देना चाहिए। क्योंकि राजा के राज्य में यह सभी छिपे चोर के समान हैं अपने कुकर्म से प्रजा को दुःख देते हैं। यह जुआ, पहले कल्प में बड़ा वैर बढ़ानेवाला देखा गया है। इस कारण बुद्धिमान मनुष्यों को हँसी के लिए भी जुआ नहीं खेलना चाहिए ॥२२१-२२७॥

प्रच्छन्नं वा प्रकाशं वा तन्निषेवेत यो नरः ।

तस्य दण्डविकल्पः स्याद् यथेष्टं नृपतेस्तथा ॥ ॥ २२८ ॥

क्षत्रविद् शूद्रयोनिस्तु दण्डं दातुमशक्नुवन् ।

आनृण्यं कर्मणा गच्छेद् विप्रो दद्यात्शनैः शनैः ॥ ॥ २२९ ॥

स्त्रीबालोन्मत्तवृद्धानां दरिद्राणां च रोगिणाम् ।

शिफाविदलरज्ज्वाद्यैर्विदध्यात्नृपतिर्दमम् ॥ ॥ २३० ॥

ये नियुक्तास्तु कार्येषु हन्युः कार्याणि कार्यिणाम् ।

धनौष्मणा पच्यमानास्तान्निः स्वान् कारयेन्नृपः ॥ ॥२३१॥

कूटशासनकर्तृश्च प्रकृतीनां च दूषकान् ।

स्त्रीबालब्राह्मणघ्नांश्च हन्याद् द्विष् सेविनस्तथा ॥ ॥ २३२ ॥

तीरितं चानुशिष्टं च यत्र क्वचन यद् भवेत् ।

कृतं तद् धर्मतो विद्यान्न तद् भूयो निवर्तयेत् ॥ ॥ २३३ ॥

जो कोई छिपकर अथवा प्रकटरीति से जुआ खेले उसे राजा को इच्छानुसार दण्ड देना चाहिए। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र दण्ड न दे सकता हो तो उसको मज़दूरी करके दण्ड चुकाना चाहिए और ब्राह्मण को धीरे धीरे दण्ड चुका देना चाहिए। स्त्री, बालक, पागल, बूढा, निर्धन और रोगियों को चाबुक, बेंत और रस्सी से शिक्षा देनी चाहिए। जिन कर्मचारियों को राज्यकार्य सौंपा हो, वह यदि धन के अहंकार से लोगों के काम बिगाड़े तो राजा को उनके समस्त धन हरण कर लेना चाहिए। राजा की तरफ से बनावटी आज्ञा करने वाले, मंत्रियों में भेद करानेवाले, स्त्री, बालक, ब्राह्मण और घातक शत्रु से मिलनेवाले को राजा को दण्ड देना चाहिए। जिस मामले का न्यायानुसार दण्ड तक निर्णय हो चुका हो उसको पूरा समझ कर पुन: नहीं दोहराना चाहिए ॥२२८-२३३॥

मनुस्मृति अध्याय ९- चोर-दुष्टों का निग्रह

अमात्यः प्राग्विवाको वा यत् कुर्युः कार्यमन्यथा ।

तत् स्वयं नृपतिः कुर्यात् तान् सहस्रं च दण्डयेत् ॥ ॥२३४॥

ब्रह्महा च सुरापश्च स्तेयी च गुरुतल्पगः ।

एते सर्वे पृथग् ज्ञेया महापातकिनो नराः ॥ ॥ २३५॥

मन्त्री और न्यायाधीश जिस मुकदमे को अनदेखा करें उसको राजा को स्वयं देखना और अपराध साबित होने पर उन पर हज़ार पण दण्ड करना चाहिए। ब्रह्मघाती, मद्यप, चोर और गुरुपत्नी से समागम करने वाला इन सबको महापातकी मनुष्य जानना चाहिए ॥२३४- २३५॥

चतुर्णामपि चैतेषां प्रायश्चित्तमकुर्वताम् ।

शारीरं धनसंयुक्तं दण्डं धर्म्यं प्रकल्पयेत् ॥ ॥ २३६ ॥

गुरुतल्पे भगः कार्यः सुरापाने सुराध्वजः ।

स्तेये च श्वपदं कार्यं ब्रह्महण्यशिराः पुमान् ॥ ॥२३७॥

असंभोज्या ह्यसंयाज्या असम्पाठ्याऽविवाहिनः।

चरेयुः पृथिवीं दीनाः सर्वधर्मबहिष्कृताः ॥ ॥ २३८ ॥

ज्ञातिसंबन्धिभिस्त्वेते त्यक्तव्याः कृतलक्षणाः ।

निर्दया निर्नमस्कारास्तन् मनोरनुशासनम् ॥ ॥ २३९ ॥

प्रायश्चित्तं तु कुर्वाणाः सर्ववर्णा यथोदितम् ।

नाक्या राज्ञा ललाटे स्युर्दाप्यास्तूत्तमसाहसम् ॥ ॥ २४०॥

आगःसु ब्राह्मणस्यैव कार्यो मध्यमसाहसः ।

विवास्यो वा भवेद् राष्ट्रात् सद्रव्यः सपरिच्छदः ॥ २४१ ॥

इतरे कृतवन्तस्तु पापान्येतान्यकामतः ।

सर्वस्वहारमर्हन्ति कामतस्तु प्रवासनम् ॥ ॥ २४२ ॥

नाददीत नृपः साधुर्महापातकिनो धनम् ।

आददानस्तु तत्लोभात् तेन दोषेण लिप्यते ॥ ॥ २४३ ॥

ये चारों यदि प्रायश्चित्त न करें तो राजा को धर्मानुसार शारीरिक शिक्षा और धन-दण्ड भी करना चाहिए। गुरुपत्नी- गामी के मस्तक में भग- चिह्न, शराबी के मस्तक में मद्यपात्र के आकार का चिन्ह, चोर के कुत्ते के पैर का चिह्न और ब्रह्मघाती के मस्तक में सिरहीन धड़ का चिह्न अंकित करना चाहिए। ऐसे मनुष्य सहभोजन, यज्ञ, वेदाध्ययन और विवाह-सम्वन्ध के अयोग्य होते हैं और इनका श्रौत स्मार्त कमों से बहिष्कृत हो, निर्धन पृथिवी पर विचारना ही उचित है। इन चिह्नवाले पातकियों को सम्बन्धि और जातिवालों को त्याग देना चाहिए। उन पर दया नहीं करनी चाहिए, नमस्कार नहीं करना चाहिए, यही मनुजी की आज्ञा है । परन्तु जो महापातकी प्रायश्चित्त कर लें उन के मस्तक में चिह्न अंकित नहीं करके, केवल उत्तम साहस दण्ड करना चाहिए। इन अपराधों में ब्राह्मण को भी 'मध्यम साहस' दण्ड करना चाहिए अथवा धन परिवार के साथ राज्य से बाहर निकाल देना चाहिए और दूसरे लोग इन पापों को अज्ञानता वश करें तो उनका सर्वस्व छीन लेना चाहिए और यदि जान समझ कर करें तो देश से निकाल देना चाहिए। धार्मिक राजा को महापातकी का धन ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि लोभ से ग्रहण करे तो राजा उस पाप से लिप्त हो जाता है ॥२३६-२४३॥

अप्सु प्रवेश्य तं दण्डं वरुणायोपपादयेत् ।

श्रुतवृत्तोपपन्ने वा ब्राह्मणे प्रतिपादयेत् ॥ ॥ २४४ ॥

ईशो दण्डस्य वरुणो राज्ञां दण्डधरो हि सः ।

ईशः सर्वस्य जगतो ब्राह्मणो वेदपारगः ॥ ॥ २४५ ॥

यत्र वर्जयते राजा पापकृद्भ्यो धनागमम् ।

तत्र कालेन जायन्ते मानवा दीर्घजीविनः ॥ ॥ २४६ ॥

निष्पद्यन्ते च सस्यानि यथोप्तानि विशां पृथक् ।

बालाश्च न प्रमीयन्ते विकृतं च न जायते ॥ ॥ २४७ ॥

महापातकी के दण्ड-धन को राजा जल में डालकर वरुण को अर्पण कर देना चाहिए अथवा वेदज्ञ-सदाचारी ब्राह्मण को दे देना चाहिए। पातकी के दण्ड का स्वामी वरुण है क्योंकि वह राजाओं को भी दण्ड देनेवाला है और वेदज्ञ ब्राह्मण सारे जगत् का प्रभु है । जिस देश में राजा पापियों का दण्ड लेकर उसका भोग नहीं करता उस देश में मनुष्य दीर्घजीवी होते हैं और प्रजाओं के धान्य ठीक ठीक पैदा होते हैं, बालक नहीं मरते और उस राज्य मे कोई विकार नहीं होता । ॥२४४-२४७॥

ब्राह्मणान् बाधमानं तु कामादवरवर्णजम् ।

हन्याच्चित्रैर्वधोपायैरुद्वेजनकरैर्नृपः ॥ ॥ २४८ ॥

यावानवध्यस्य वधे तावान् वध्यस्य मोक्षणे ।

अधर्मो नृपतेर्दृष्टो धर्मस्तु विनियच्छतः ॥ ॥२४९॥

उदितोऽयं विस्तरशो मिथो विवदमानयोः ।

अष्टादशसु मार्गेषु व्यवहारस्य निर्णयः ॥ २५० ॥

एवं धर्म्याणि कार्याणि सम्यक कुर्वन् महीपतिः ।

देशानलब्धान्लिप्सेत लब्धांश्च परिपालयेत् ॥ ॥२५१ ॥

जानकर ब्राह्मण को कष्ट देनेवाले, नीचजाति के पुरुष को राजा अनेक उपायों ले शारीरिक दण्ड़ देवे । अदण्ड्य को दण्ड देने से राजा को जितना अधर्म होता है उतना ही अपराधी को छोड़ने से होता है। न्यायकारी को धर्म प्राप्त होता है। अठारह प्रकार के दावों में प्रत्येक के परस्पर-विवाद का निर्णय विस्तार से कहा गया है । राजा इस प्रकार व कार्यों का धर्मानुसार निर्णय करे। अप्राप्त देशों को लेना और प्राप्त देशों की रक्षा करना, राजा का धर्म है ॥ २४८ - २५१ ॥

सम्यग्निविष्टदेशस्तु कृतदुर्गश्च शास्त्रतः ।

कण्टकोद्धरणे नित्यमातिष्ठेद् यत्नमुत्तमम् ॥ ॥ २५२ ॥

रक्षनादार्यवृत्तानां कण्टकानां च शोधनात् ।

नरेन्द्रास्त्रिदिवं यान्ति प्रजापालनतत्पराः ॥ २५३ ॥

अशासंस्तस्करान् यस्तु बलिं गृह्णाति पार्थिवः ।

तस्य प्रक्षुभ्यते राष्ट्रं स्वर्गाच्च परिहीयते ॥ ॥२५४॥

निर्भयं तु भवेद् यस्य राष्ट्रं बाहुबलाश्रितम् ।

तस्य तद् वर्धते नित्यं सिच्यमान इव द्रुमः ॥ ॥ २५५ ॥

द्विविधांस्तस्करान् विद्यात् परद्रव्यापहारकान् ।

प्रकाशांश्चाप्रकाशांश्च चारचक्षुर्महीपतिः ॥ ॥ २५६ ॥

प्रकाशवञ्चकास्तेषां नानापण्योपजीविनः ।

प्रच्छन्नवञ्चकास्त्वेते ये स्तेनाटविकादयः ॥ ॥ २५७ ॥

उत्कोचकाश्चोपधिका वञ्चकाः कितवास्तथा ।

मङ्गलादेशवृत्ताश्च भद्राश्चैक्षणिकैः सह ॥ ॥२५८॥

असम्यक्कारिणश्चैव महामात्राश्चिकित्सकाः ।

शिल्पोपचारयुक्ताश्च निपुणाः पण्ययोषितः ॥ ॥२५९॥

अच्छे प्रकार देश बसाने वाला और शास्त्रानुसार किला बनाने वाले राजा को नित्य चोरों के नाश का पूरा उपाय करना चाहिए। प्रजापालक राजा सदाचारियों की रक्षा और दुष्टों को दण्ड करने से स्वर्ग गामी होता है। जो राजा चोरों को दण्ड न देकर प्रजा से कर लेता है उसकी प्रजा अप्रसन्न रहती है और वह स्वर्ग से पतित होता है । जिस राजा का देश निर्भय होता है वह देश जल से सींचे वृक्ष की भांति नित्य उन्नति करता है। चार दूतरूपी आँखवाले राजा दो प्रकार के परद्रव्य हरने वाले चोरों को जानना चाहिए। एक प्रकट, दूसरे अप्रकट । उन में अनेकों प्रकार के व्यापार वाले प्रत्यक्ष चोर हैं और वन में रहने वाले छिपे चोर हैं। रिश्वतखोर, भय दिखाकर धन लेनेवाले, ठग, जुआरी, तुमको धन मिलेगा ऐसी मीठी बातों से बहकानेवाले, ऊपर धार्मिक हृदय में पापी, हाथरेखा देखनेवाले, राजकर्मचारी, धूर्त वैद्य, कारीगर इत्यादि और वेश्या ॥२५२-२५६ ॥

एवमादीन् विजानीयात् प्रकाशांल्लोककण्टकान् ।

निगूढचारिणश्चान्याननार्यानार्यलिङ्गिनः ॥ २६० ॥

तान् विदित्वा सुचरितैर्गूढैस्तत्कर्मकारिभिः ।

चारैश्वानेकसंस्थानैः प्रोत्साद्य वशमानयेत् ॥ ॥ २६१ ॥

तेषां दोषानभिख्याप्य स्वे स्वे कर्मणि तत्त्वतः ।

कुर्वीत शासनं राजा सम्यक् सारापराधतः ॥ ॥२६२॥

न हि दण्डाद् ऋते शक्यः कर्तुं पापविनिग्रहः ।

स्ते नानां पापबुद्धीनां निभृतं चरतां क्षितौ ॥ ॥ २६३ ॥

सभाप्रपाऽपूपशालावेशमद्यान्नविक्रयाः ।

चतुष्पथांश्चैत्यवृक्षाः समाजाः प्रेक्षणानि च ॥ ॥ २६४ ॥

जीर्णोद्यानान्यरण्यानि कारुकावेशनानि च ।

शून्यानि चाप्यगाराणि वनान्युपवनानि च ॥ ॥ २६५॥

एवंविधान्नृपो देशान् गुल्मैः स्थावरजङ्गमैः ।

तस्करप्रतिषेधार्थं चारैश्चाप्यनुचारयेत् ॥ ॥ २६६ ॥

तत्सहायैरनुगतैर्नानाकर्मप्रवेदिभिः ।

विद्यादुत्सादयेच्चैव निपुणैः पूर्वतस्करैः ॥ ॥ २६७ ॥

इस तरह के इन प्रत्यक्ष ठगों को राजा दूत द्वारा जाने और ब्राह्मणवेश में छिपे फिरनेवाले शूद्रों पर भी दृष्टि रखनी चाहिए। गुप्त, प्रकट, अनेक वेष, और चालाकी से दूतलोग चोरों को पकड़ना चाहिए। राजा सब के अपराधों को जगत् में प्रकट करके उनको उचित दण्ड देना चाहिए। बिना दण्ड के पाप को रोकना असंभव है, पापियों को वश में नहीं रख सकते। सभा, प्याऊ, हलवाई की दुकान, रण्डी का घर, कलाल का घर, अन्न बिकने का स्थान, चौराहा, प्रसिद्ध वृक्ष, समाज, नाच गान और नाटक के स्थान, पुराने बगीचे, जंगल, कारीगर के घर, खण्डहर, वन और उपवन ऐसे स्थानों की जांच दूतों द्वारा सदा राजा को करवानी चाहिए। चोरों के सहायक, उनका कर्म करनेवाले, चोरी के कामों को जानने वाले और पुराने चोर ऐसे चतुर दूतों से चोरों को पकड़वाकर दण्ड देना चाहिए ॥ २६०-२६७ ॥

भक्ष्यभोज्योपदेशैश्च ब्राह्मणानां च दर्शनैः ।

शौर्यकर्मापदेशैश्च कुर्युस्तेषां समागमम् ॥२६८॥

ये तत्र नोपसर्पेयुर्मूलप्रणिहिताश्च ये ।

तान् प्रसह्य नृपो हन्यात् समित्रज्ञातिबान्धवान् ॥ ॥ २६९ ॥

न होढेन विना चौरं घातयेद् धार्मिको नृपः ।

सहोढं सोपकरणं घातयेदविचारयन् ॥ ॥ २७० ॥

ग्रामेष्वपि च ये केचिच्चौराणां भक्तदायकाः ।

भाण्डावकाशदाश्चैव सर्वांस्तानपि घातयेत् ॥ ॥२७१ ॥

राष्ट्रेषु रक्षाधिकृतान् सामन्तांश्चैव चोदितान् ।

अभ्याघातेषु मध्यस्थाञ् शिष्याच्चौरानिव द्रुतम् ॥ ॥ २७२ ॥

यश्चापि धर्मसमयात् प्रच्युतो धर्मजीवनः ।

दण्डेनैव तमप्योषेत् स्वकाद् धर्माद् हि विच्युतम् ॥ ॥ २७३॥

ग्रामघाते हिताभङ्गे पथि मोषाभिदर्शने ।

शक्तितो नाभिधावन्तो निर्वास्याः सपरिच्छदाः ॥ ॥ २७४ ॥

राज्ञः कोशापहर्तृश्च प्रतिकूलेषु च स्थितान् ।

घातयेद् विविधैर्दण्डैररीणां चोपजापकान् ॥ ॥ २७५॥

दूतो को उन चोरों को खाने-पीने के बहाने, ब्राह्मण दर्शन के उपाय से और वीरता के काम के ढंग से राजद्वार में लाकर पकडवा देना चाहिए। जो वहां पकड़े जाने की डर से न जाएँ और गुप्त राजदूतों के साथ चालाकी करके अपने को बचाते हों, उनको राजा बल पूर्वक पकड़ कर मित्र - जाति भाइयों सहित वध कर देना चाहिए। गांवों में भी जो चोरों का भोजन, उनको ठहरने का स्थान देते हैं अथवा चोरी का माल रखते हैं उनको भी राजा को दण्ड देना चाहिए। चोरों के उपद्रवों में देश और सीमा के रक्षक उदासीन रहें तो उनको भी दण्ड करे देना चाहिए। दान या यज्ञ से निर्वाह करनेवाला ब्राह्मण, मर्यादा से भ्रष्ट हो जाएँ तो उसको भी राजा को दण्ड देना चाहिए। ग्राम लुटता हो, पौ तोड़ी जाती हो, मार्ग में चोर देखने में आयें, उस समय रक्षावाले सिपाही आदि अपराधियों के पकड़ने की चेष्टा न करें तो उनका सर्वस्व छीन कर देश से निकाल देना चाहिए। राजा के खजाना में चोरी करनेवाले, राजा की आज्ञा भंग करनेवाले, शत्रुत्रों में मिले हुए मनुष्यों के हाथ-पैर कटवा कर अनेक कठोर दण्ड देना चाहिए।॥२६८-२७५॥

संधिंछित्त्वा तु ये चौर्यं रात्रौ कुर्वन्ति तस्कराः ।

तेषां छित्त्वा नृपो हस्तौ तीक्ष्णे शूले निवेशयेत् ॥ ॥२७६॥

अङ्गुलीग्रन्थिभेदस्य छेदयेत् प्रथमे ग्रहे ।

द्वितीये हस्तचरणौ तृतीये वधमर्हति ॥ ॥ २७७॥

अग्निदान् भक्तदांश्चैव तथा शस्त्रावकाशदान् ।

संनिधातॄंश्च मोषस्य हन्याच्चौरमिवेश्वरः ॥ ॥२७८॥

तडागभेदकं हन्यादप्सु शुद्धवधेन वा ।

यद् वाऽपि प्रतिसंस्कुर्याद् दाप्यस्तूत्तमसाहसम् ॥ ॥ २७९ ॥

जो चोर रात को सेंध लगाकर चोरी करते हैं उनका हाथ कटवा कर तीखी शूलों पर चढवा देना चाहिए। जेब तराश पहली बार पकड़ जावे तो उसकी अंगुली कटवा देना चाहिए। दूसरी बार हाथ-पैर कटवा देना चाहिए। तीसरी बार में वध की आज्ञा दे देनी चाहिए। चोरों को आग, भोजन, शस्त्र और ठहरने का स्थान देनेवाले को और चोरी का माल रखने वाले को चोर की भांति दण्ड देना चाहिए। जो तालाब बिगाड़े उसको जल में डूबवा देना चाहिए अथवा प्रत्यक्ष मरवा देना चाहिए अथवा उससे फिर तालाब बनवाना चाहिए और एक हज़ार पण दण्ड करना चाहिए ॥२७६-२७६॥

कोष्ठागारायुधागारदेवतागारभेदकान् ।

हस्त्यश्वरथहर्तृश्च हन्यादेवाविचारयन् ॥ ॥२८०॥

यस्तु पूर्वनिविष्टस्य तडागस्योदकं हरेत् ।

आगमं वाऽप्यपां भिन्द्यात् स दाप्यः पूर्वसाहसम् ॥ ॥२८१ ॥

समुत्सृजेद् राजमार्गे यस्त्वमेध्यमनापदि ।

द्वौ कार्षापण दद्यादमेध्यं चाशु शोधयेत् ॥ ॥ २८२ ॥

आपद्गतोऽथ वा वृद्धा गर्भिणी बाल एव वा ।

परिभाषणमर्हन्ति तच्च शोध्यमिति स्थितिः ॥ ॥ २८३ ॥

राजा का अन्न भण्डार, शस्त्रशाला और देवमंदिर तोड़नेवाले को और हाथी, घोड़ा, रथ चुरानेवाले को बिना विचार मृत्युदंड दे देना चाहिए। जो पूर्व से सब के काम में आनेवाले, जलाशय के जल को अपने वश में कर लेना चाहिए अथवा जल के प्रवाह को रोकना चाहे उसपर ढाई सौ पण दण्ड करना चाहिए। जो नीरोग होकर भी मुख्य सड़कों पर मल आदि अपवित्र वस्तु डाले उस पर दो कार्षापण दण्ड करना चाहिए और वह मल उसी से उठवाना चाहिए। परन्तु रोगी, बूढा, गर्भिणी, बालक ऐसा करे तो उनको मना कर देना चाहिए और वह स्थान शुद्ध करवाना चाहिए, यही मर्यादा है ॥२८०-२८३ ॥

चिकित्सकानां सर्वेषां मिथ्याप्रचरतां दमः ।

अमानुषेषु प्रथमो मानुषेषु तु मध्यमः ॥ ॥ २८४ ॥

सङ्क्रमध्वजयष्टीनां प्रतिमानां च भेदकः ।

प्रतिकुर्याच्च तत् सर्वं पञ्च दद्यात्शतानि च ॥ ॥२८५॥

अदूषितानां द्रव्याणां दूषणे भेदने तथा ।

मणीनामपवेधे च दण्डः प्रथमसाहसः ॥ ॥ २८६ ॥

समैर्हि विषमं यस्तु चरेद् वै मूल्यतोऽपि वा ।

समाप्नुयाद् दमं पूर्वं नरो मध्यममेव वा ॥ ॥ २८७ ॥

बन्धनानि च सर्वाणि राजा मार्गे निवेशयेत् ।

दुःखिता यत्र दृश्येरन् विकृताः पापकारिणः ॥ ॥ २८८ ॥

प्राकारस्य च भेत्तारं परिखाणां च पूरकम् ।

द्वाराणां चैव भङ्क्तारं क्षिप्रमेव प्रवासयेत् ॥ ॥ २८९ ॥

अभिचारेषु सर्वेषु कर्तव्यो द्विशतो दमः ।

मूलकर्मणि चानाप्तेः कृत्यासु विविधासु च ॥॥ २९० ॥

अबीजविक्रयी चैव बीजोत्कृष्टा तथैव च ।

मर्यादाभेदकश्चैव विकृतं प्राप्नुयाद् वधम् ॥ ॥ २९१ ॥

चिकित्सा करनेवाले उलटी चिकित्सा करें तो पशु आदि के विषय में ढाई सौ पण और मनुष्यों के विषय में पांच सौ पण दण्ड करना चाहिए। नदी के पुल का काठ, राज पताका का डंडा और मर्तियों को तोड़ने वाले को उन सबको फिर बनवा देना चाहिए और पांच सौ पण दण्ड देना चाहिए। अच्छी वस्तु को दूषित करने, तोड़ने और मणियों के बुरा बेधने में, ढाई सौ पण दण्ड करना चाहिए। जो समान- मूल्य की वस्तुओं से न्यूनाधिक मूल्य की वस्तुओं का व्यवहार करे, ऐसे मनुष्य को पूर्व अथवा मध्यम साहस का दण्ड देना चाहिए। राजा को मार्ग में बंदीघर बनवाना चाहिए, जिससे दुःखी और पापी सबको दिखाई देने चाहिए। परकोटे को तोड़नेवाले और उसकी खाई को भरनेवाले और राजद्वारों को तोड़नेवालों को तुरंत देश से निकाल देना चाहिए। सब तरह के अभिचारों मारण आदि जिस के ऊपर किया गया हो और वह न मरे, और वशीकरण, उच्चाटन आदि से भी कोई काम न सिद्ध होता हो तो उस पर दो सौ पण दण्ड करना चाहिए। खराब बीजों को बेंचनेवाला या अच्छे में बुरे मिलाकर बेचनेवाला और हद तोड़नेवाले को अंगच्छेद का दण्ड देना चाहिए। ॥२८४-२९१ ॥

सर्वकण्टकपापिष्ठं हेमकारं तु पार्थिवः ।

प्रवर्तमानमन्याये छेदयेत्लवशः क्षुरैः ॥ ॥ २९२ ॥

सीताद्रव्यापहरणे शस्त्राणामौषधस्य च ।

कालमासाद्य कार्यं च राजा दण्डं प्रकल्पयेत् ॥ ॥ २९३ ॥

सब चोरों में महापापी सुनार यदि कोई दुराचार करे तो राजा को उसको टुकड़े टुकड़े करवा देना चाहिए। खेती के हल, कुदाल आदि शस्त्र और पौधे चुराने पर राजा को देश काल के अनुसार दण्ड देना के चाहिए॥२९२-२९३॥

स्वाम्य्ऽमात्यो पुरं राष्ट्रं कोशदण्डौ सुहृत् तथा ।

सप्त प्रकृतयो ह्येताः सप्ताङ्ग राज्यमुच्यते ॥ ॥ २९४ ॥

सप्तानां प्रकृतीनां तु राज्यस्यासां यथाक्रमम् ।

पूर्वं पूर्वं गुरुतरं जानीयाद् व्यसनं महत् ॥ ॥ २९५ ॥

सप्ताङ्गस्यैह राज्यस्य विष्टब्धस्य त्रिदण्डवत् ।

अन्योन्यगुणवैशेष्यात्न किं चिदतिरिच्यते ॥ ॥२९६॥

तेषु तेषु तु कृत्येषु तत् तदङ्गं विशिष्यते ।

येन यत् साध्यते कार्यं तत् तस्मिंश्रेष्ठमुच्यते ॥ ॥ २९७ ॥

चारेणोत्साहयोगेन क्रिययैव च कर्मणाम् ।

स्वशक्तिं परशक्तिं च नित्यं विद्यान्महीपतिः ॥ ॥२९८॥

पीडनानि च सर्वाणि व्यसनानि तथैव च ।

आरभेत ततः कार्यं सञ्चिन्त्य गुरुलाघवम् ॥ ॥ २९९ ॥

राजा, मन्त्री, राज्य, देश, खजाना, दण्ड और मित्र, राज्य शक्ति ये सात प्रकृतियों में क्रम से पहली से अगली श्रेष्ठ है । इसलिए पहले अङ्ग की हानि होने से आगे के अङ्ग पर बड़ा दुःख आ पड़ता है। जैसे तीन दण्ड, एक दूसरे के आधार पर रुके रहते हैं, वैसे सात अंग वाला राज्य भी प्रत्येक अंग के आधार पर टिका रहता है। प्रत्येक अंग अपनी विशेषता से समान हैं। जिससे जो काम सधता है, उसमें वही श्रेष्ठ कहा जाता है। राजा को नित्य दूतों के द्वारा सेना को उत्साह देना चाहिए, सभी कार्यों को ठीक रखना चाहिए और अपने शत्रु की शक्ति को जानना चाहिए। सभी प्रकार की पीड़ा और व्यसनों के उंच नीच पर करके कार्य का प्रारम्भ करना चाहिए॥२९४-२९९॥

आरभेतैव कर्माणि श्रान्तः श्रान्तः पुनः पुनः ।

कर्माण्यारभमाणं हि पुरुषं श्रीर्निषेवते ॥ ॥३०० ॥

कृतं त्रेतायुगं चैव द्वापरं कलिरेव च ।

राज्ञो वृत्तानि सर्वाणि राजा हि युगमुच्यते ॥ ॥३०१ ॥

कलिः प्रसुप्तो भवति स जाग्रद् द्वापरं युगम् ।

कर्मस्वभ्युद्यतस्त्रेता विचरंस्तु कृतं युगम् ॥ ॥३०२ ॥

इन्द्रस्यार्कस्य वायोश्च यमस्य वरुणस्य च ।

चन्द्रस्याग्नेः पृथिव्याश्च तेजोवृत्तं नृपश्चरेत् ॥ ॥३०३॥

राजा को राज्यवृद्धि के कार्यों को धीरे धीरे करते ही रहना चाहिए क्योंकि कर्म करनेवाले को ही लक्ष्मी प्राप्त होती है सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग, सभी राजा के कार्यों पर ही आधार रखते हैं क्योकि राजा ही भले-बुरे समय का कारण है: युगस्वरुप है। जब राजा आलस्य, निद्रा में समय बिताता है तो कलियुग, जब "सावधानी से राज्य करता है तो द्वापर, जब अपने कार्यों में लगा रहता है तब त्रेता और जब शास्त्रानुसार कर्मों का संपादन करता है तब सतयुग होता है । इन्द्र, सूर्य, वायु, यम, वरुण, चन्द्र, अग्नि और पृथ्वी के तेजोमय प्रकाशमान आचरणों से राजा को जगत में व्यवहार करना चाहिए ॥३००-३०३ ॥

वार्षिकांश्चतुमासान् यथेन्द्रोऽभिप्रवर्षति ।

तथाऽभिवर्षेत् स्वं राष्ट्रं कामैरिन्द्रव्रतं चरन् ॥ ॥३०४ ॥

अष्टौ मासान् यथाऽदित्यस्तोयं हरति रश्मिभिः ।

तथा हरेत् करं राष्ट्रात्नित्यमर्कव्रतं हि तत् ॥ ॥ ३०५ ॥

प्रविश्य सर्वभूतानि यथा चरति मारुतः ।

तथा चारैः प्रवेष्टव्यं व्रतमेतद् हि मारुतम् ॥ ३०६ ॥

यथा यमः प्रियद्वेष्यौ प्राप्ते काले नियच्छति ।

तथा राज्ञा नियन्तव्याः प्रजास्तद् हि यमव्रतम् ॥ ॥३०७॥

जैसे इन्द्र वर्षाऋतु के चार मास जल वर्षा करके प्रजा का मनोरथ पूर्ण फरता है वैसे ही राजा को इन्द्र के आचरण से अपने देश की प्रजा को सन्तुष्ट रखना चाहिए। जैसे आठ मास सूर्य अपने तेज से पृथ्वी का जल खींच लेता है, वैसे राजा को सूर्य की भांति आचरण करके प्रजा को दुःख न देते हुए राज्य करना चाहिए। जैसे वायु प्राणरूप से सब प्राणियों में विचरण करता है वैसे ही राजा को भी द्वतों से अपने देश का समाचार लेते रहना चाहिए। जैसे यम समय पर मित्र शत्रु सबको शिक्षा देता है, वैसे राजा को यम के समान सारी प्रजा पर शासन करना चाहिए ॥ ३०४-३०७॥

वरुणेन यथा पाशैर्बद्ध एवाभिदृश्यते ।

तथा पापान्निगृह्णीयाद् व्रतमेतद् हि वारुणम् ॥ ॥ ३०८ ॥

परिपूर्ण यथा चन्द्रं दृष्ट्वा हृष्यन्ति मानवाः ।

तथा प्रकृतयो यस्मिन् स चान्द्रव्रतिको नृपः ॥ ॥३०९॥

प्रतापयुक्तस्तेजस्वी नित्यं स्यात् पापकर्मसु ।

दुष्टसामन्तहिंस्रश्च तदाग्नेयं व्रतं स्मृतम् ॥ ॥३१० ॥

यथा सर्वाणि भूतानि धरा धारयते समम् ।

तथा सर्वाणि भूतानि बिभ्रतः पार्थिवं व्रतम् ॥ ॥३११ ॥

एतैरुपायैरन्यैश्च युक्तो नित्यमतन्द्रितः ।

स्ते नान् राजा निगृह्णीयात् स्वराष्ट्रे पर एव च ॥ ॥३१२ ॥

जैसे वरुण अपराधियों को अपने पाशों से बाँधता है, वैसे राजा को वरुण होकर पापियों को दण्ड देना चाहिए। जैसे मनुष्य पूर्ण चन्द्रविम्ब को देखकर खुश होते हैं, वैसे प्रजामण्डल जिस राजा को देख कर खुश होता हो तो उस राजा को चन्द्रव्रतधारी मानना चाहिए। पापियों पर अग्नि के समान प्रताप रखना, दुष्ट मन्त्रियों को मरवा देना यह अग्निव्रत है। जैसे पृथ्वी समस्त प्राणियों को समभाव से धारण करती है, वैसे ही राजा को भी समभाव से प्राणियों का पालन करना चाहिए। इन सभी और दूसरे भी उपायों से राजा को व्यवहार करते हुए स्वराज्य अथवा परराज्य के चोरों को दण्ड देना चाहिए ॥३०८-३१२ ॥

मनुस्मृति अध्याय ९- ब्राह्मण माहात्म्य

परामप्यापदं प्राप्तो ब्राह्मणान्न प्रकोपयेत् ।

तेह्येनं कुपिता हन्युः सद्यः सबलवाहनम् ॥ ॥३१३ ॥

यैः कृतः सर्वभक्ष्योऽग्निरपेयश्च महोदधिः ।

क्षयी चाप्यायितः सोमः को न नश्येत् प्रकोप्य तान् ॥ ॥३१४ ॥

लोकानन्यान् सृजेयुर्ये लोकपालांश्च कोपिताः ।

देवान् कुर्युरदेवांश्च कः क्षिण्वंस्तान् समृध्नुयात् ॥ ॥३१५॥

कोषक्षय आदि बड़ी विपत्ति में पड़कर भी राजा को ब्राह्मणों को कष्ट नहीं देना चाहिए क्योंकि वह लोग कुपित होकर राजा और राज्य का नाश कर देते हैं। जिन ब्राह्मणों ने कुपित होकर अग्नि को सर्वभक्षक, समुद्र को न पीने योग्य और चन्द्रमा को क्षयरोगी कर दिया उन ब्राह्मणों को कुपित करके कौन नष्ट न हो जायगा ? जो ब्राह्मण रुष्ट होकर दूसरे लोक और लोकपालों को रच सकते हैं और देवताओं को शाप देकर नीचयोनि में डाल सकते है उन को दुःख देकर कौन उन्नति कर सकता है ? ॥ ३१३-३१५ ॥

यानुपाश्रित्य तिष्ठन्ति लोका देवाश्च सर्वदा ।

ब्रह्म चैव धनं येषां को हिंस्यात् ताञ्जिजीविषुः ॥ ३१६॥

अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत् ।

प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाऽग्निर्देवतं महत् ॥ ॥३१७॥

श्मशानेष्वपि तेजस्वी पावको नैव दुष्यति ।

हूयमानश्च यज्ञेषु भूय एवाभिवर्धते ॥ ॥३१८ ॥

एवं यद्यप्यनिष्टेषु वर्तन्ते सर्वकर्मसु ।

सर्वथा ब्राह्मणाः पूज्याः परमं दैवतं हि तत् ॥ ॥३१९॥

स्वर्गादि लोक और देवता, जिनके आश्रय से टिके रहते हैं और वेद ही जिन का धन है उन ब्राह्मणों को जीने की इच्छा रखने वाला कौन दुखी करेगा? जैसे अग्नि चाहे वेदमन्त्रों से चाहे दूसरे प्रकार से प्रकट होने पर महान् देवता है, वैसे ब्राह्मण विद्वान् या मूर्ख हो महान् देवता है। तेजस्वी अग्नि श्मशान में भी दूषित नहीं होता किन्तु यज्ञ में हवन किया हुआ फिर वृद्धि को प्राप्त होता है। इसी प्रकार ब्राह्मण सब निंदित कर्मों के करने पर भी सर्वथा पूज्य हैं, महान् देवता है ॥३१६-३१९ ॥

क्षत्रस्यातिप्रवृद्धस्य ब्राह्मणान् प्रति सर्वशः ।

ब्रह्मैव संनियन्तृ स्यात् क्षत्रं हि ब्रह्मसंभवम् ॥ ॥३२०॥

अद्भ्योऽग्निर्ब्रह्मतः क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम् ।

तेषां सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिषु शाम्यति ॥ ॥३२१ ॥

नाब्रह्म क्षत्रं ऋनोति नाक्षत्रं ब्रह्म वर्धते ।

ब्रह्म क्षत्रं च सम्पृक्तमिह चामुत्र वर्धते ॥ ॥ ३२२ ॥

दत्त्वा धनं तु विप्रेभ्यः सर्वदण्डसमुत्थितम् ।

पुत्रे राज्यं समासृज्य कुर्वीत प्रायणं रणे ॥ ॥ ३२३ ॥

क्षत्रिय यदि ब्राह्मण को दुःख दे तो ब्राह्मणों को ही उनको किसी उपाय से अपने वश में रखना चाहिए क्योंकि ब्राह्मणों से ही क्षत्रिय उत्पन्न हुए हैं। जल से अग्नि, ब्राह्मण से क्षत्रिय, पत्थर ले लोहा पैदा हुआ है । इनको पैदा करनेवाला व्यापक तेज अपने कारण में शान्त हो जाता है । ब्राह्मण की सहायता के बिना क्षत्रिय वृद्धि को प्राप्त नहीं होता और क्षत्रिय की सहायता बिना ब्राह्मण की उन्नति नहीं होती इसलिये दोनों मिलकर रहें तभी लोक-परलोक में वृद्धि पाते हैं। राजा को दण्ड का सम्पूर्ण धन ब्राह्मणों को देकर और पुत्र को राज्य समर्पण करके रण में प्राण त्यागने चाहिए ॥३२०-३२३॥

एवं चरन् सदा युक्तो राजधर्मेषु पार्थिवः ।

हितेषु चैव लोकस्य सर्वान् भृत्यान्नियोजयेत् ॥॥३२४॥

एषोऽखिलः कर्मविधिरुक्तो राज्ञः सनातनः ।

इमं कर्मविधिं विद्यात् क्रमशो वैश्यशूद्रयोः ॥ ॥ ३२५ ॥

इस प्रकार राजा सदा आचरण कर राजधर्मों का पालन करना चाहिए और लोकहित के कामों में सभी सव कर्मचारियों को नियुक्त करना चाहिए। यह सभी राजा का सनातन कर्तव्य कहा गया है, अब वैश्य और शूद्र के कर्तव्यों को क्रम से सुनो ॥ ३२४-३२५।।

मनुस्मृति अध्याय ९- वैश्य-शूद्रकर्तव्य

वैश्यस्तु कृतसंस्कारः कृत्वा दारपरिग्रहम् ।

वार्तायां नित्ययुक्तः स्यात् पशूनां चैव रक्षणे ॥ ॥ ३२६॥

प्रजापतिर्हि वैश्याय सृष्ट्वा परिददे पशून् ।

ब्राह्मणाय च राज्ञे च सर्वाः परिददे प्रजाः ॥ ॥ ३२७॥

न च वैश्यस्य कामः स्यान्न रक्षेयं पशूनिति ।

वैश्ये चेच्छति नान्येन रक्षितव्याः कथं चन ॥ ॥ ३२८ ॥

मणिमुक्ताप्रवालानां लोहानां तान्तवस्य च ।

गन्धानां च रसानां च विद्यादर्घबलाबलम् ॥ ॥ ३२९ ॥

बीजानामुप्तिविद् च स्यात् क्षेत्रदोषगुणस्य च ।

मानयोगं च जानीयात् तुलायोगांश्च सर्वशः ॥ ॥३३० ॥

वैश्य को यज्ञोपवीत संस्कार के बाद विवाह करके नित्य व्यापार और पशुरक्षा में तत्पर रहना चाहिए। प्रजापति ने पशुओं की सृष्टि करके उनकी रक्षा का भार वैश्यों को सौंपा और ब्राह्मण, क्षत्रिय को प्रजा का भार सौंपा। इसलिए पशुपालन न करने की इच्छा वैश्य को नहीं करनी चाहिए, जब तक वैश्य पशु पालन करे, तब तक दूसरे वर्ण को पशुपालन कभी नहीं करना चाहिए। मणि, मोती, मूंगा, लोहा, सूत की वस्तु कपूर और मीठा, घी आदि रसपदार्थों का भाव पर वैश्य को सदा विचार करना चाहिए। सभी बीजों के बोने की विधि, खेतों गुण-दोष और सब तरह की नाप-तौल को भी जानना चाहिए। ॥३२६-३३० ॥

सारासारं च भाण्डानां देशानां च गुणागुणान् ।

लाभालाभं च पण्यानां पशूनां परिवर्धनम् ॥ ॥३३१ ॥

भृत्यानां च भृतिं विद्याद् भाषाश्च विविधा नृणाम् ।

द्रव्याणां स्थानयोगांश्च क्रयविक्रयमेव च ॥ ॥ ३३२ ॥

धर्मेण च द्रव्यवृद्धावातिष्ठेद् यत्नमुत्तमम् ।

दद्याच्च सर्वभूतानामन्नमेव प्रयत्नतः ॥ ॥ ३३३ ॥

विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम् ।

शुश्रूषैव शूद्रस्य धर्मो श्रेयसः परः ॥ ॥३३४ ॥

शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुर्मृदुवागनहङ्कृतः ।

ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्रुते ॥ ॥३३५॥

एषोऽनापदि वर्णानामुक्तः कर्मविधिः शुभः ।

आपद्यपि हि यस्तेषां क्रमशस्तन्निबोधत ॥ ॥ ३३६ ॥

व्यापर के अच्छे-बुरे का हाल, देशों में पदार्थों का भाव, गुण आदि, समय में खरीदने, बेचने में मुनाफा इत्यादि और पशुओं के बढ़ने की, रीति वैश्य को जाननी चाहिए। नौकरों की नौकरी का परिमाण, अनेक भाषा, माल ठीक रखने रहने की विधि, खरीदने-बेचने का ढंग भी जानना चाहिए। धर्मानुसार धन बढ़ाने में परमयत्न करना चाहिए और सभी प्राणियों को अन्न देना, यह सब वैश्यों का कर्तव्य है । वेदविशारद विद्वान्, गृहस्थ, यशस्वी ब्राह्मण आदि की सेवा ही शूद्र का परम सुखदायी धर्म है। जो शूद्र भीतर बाहर से पवित्र, उत्तमजाति का सेवक, मधुरभाषी, निरहंकार और ब्राह्मणों के आश्रय में रहता है, वह क्रम से उत्तम जाति को प्राप्त करता है। इस प्रकार सुख के समय में चारों वर्णों के कर्तव्य शुभकर्म कहे गये हैं। अब आपत्तिकाल में चारों वर्गों का व्यवहार कहा जाता है ॥ ३३१-३३६ ॥

॥ इति मानवे धर्मशास्त्रे भृगुप्रोक्तायां स्मृतौ नवमोऽध्यायः समाप्तः ॥

महर्षि भृगु द्वारा प्रवचित मानव धर्म शास्त्र स्मृति का नवां अध्याय समाप्त ॥॥९॥

आगे जारी..........मनुस्मृति अध्याय 10

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