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अथ षोडशवर्गेषु चिन्ता लग्नं
वदाम्यहम् ।
लग्नं देहस्य विज्ञानं होरायां
सम्पदादिकम् ॥ १ ॥
अब मैं षोडश वर्गों से विचारणीय
विषयों को कह रहा हूँ। लग्न से शरीर सम्बंधी शुभ-अशुभ का विचार करना चाहिए,
होरा से द्रव्य का ।।१।।
द्रेष्काणे भ्रातृजं सौख्यं
तुर्यांशे भाग्यचिन्तनम् ।
पुत्रपौत्रादिकानां वै चिन्तनं
सप्तमांशके ।। २।।
द्रेष्काण से भाई का,
चतुर्थांश से भाग्य का, सप्तमांश से
पुत्र-पौत्रादि का ।।२।।
नवमांशे कलत्राणां दशमांशे महत्फलम्
।
द्वादशांशे तथा पित्रोश्चिन्तनं
षोडशांशके । । ३ । ।
नवमांश से स्त्री का,
दशमांश से बड़े कार्यों का ( राजसम्बंधी), द्वादशांश
से माता पिता का, षोडशांश से वाहन के सुख-दुःख का ।। ३ ।।
सुखासुखस्य विज्ञानं वाहनानां तथैव
च ।
उपासनाया विज्ञानं साध्यं
विंशतिभागके । । ४ । ।
विंशांश से उपासना के विज्ञान का
विचार करना चाहिए । ।४ ।।
विद्याया वेदवाहवंशे भांशे चैव
बलाऽबलम् ।
विंशाशके रिष्टफलं खवेदांशे
शुभाशुभम् ।।५।।
चतुर्विंशांश से विद्या का,
सप्तविंशांश से बलाबल का त्रिंशांश से अरिष्ट का, खवेदांश से शुभ-अशुभ का ।। ५ ।।
अक्षवेदांशभागे च
षष्ठ्यंशेऽखिलमीक्षयेत् ।
यत्र कुत्रापि सम्प्राप्तः
क्रूरषष्ठ्यंशकाधिपः । । ६।।
अक्षवेदांश और षष्ठ्यंश से सभी
वस्तुओं का विचार करना चाहिए । जहाँ पर (जिस भाव में) क्रूरग्रह षष्ठ्यंशपति होता
है ।। ६ ।।
तत्र नाशो न सन्देहो प्राचीनानां
वचो यथा ।
यत्र कुत्रापि सम्प्राप्तः
कालांशाधिपतिः शुभः ।।७।।
तत्र वृद्धिश्च पुष्टिश्च
प्राचीनानां वचो यथा ।
इति षोडशवर्गाणां भेदास्ते
प्रतिपादिताः । । ८ । ।
उस भाव के फलों की हानि होती है।
जिस किसी भाव में शुभग्रह षष्ठ्यंशपति होता है वहाँ उस भाव संबंधी फलों की वृद्धि
होती है । इस प्रकार सोलह ग्रहों के भेद को मैंने कहा । । ७-८ ।।
बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय ६- अथ विंशोपकबल
उदयादिषु भावेषु खेटस्य भवनेषु वा ।
वर्गविश्वाबलं वीक्ष्य
ब्रूयात्तेषां शुभाशुभम् ।।९।।
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि
वर्गविश्वाबलं द्विज ।
यस्य विज्ञानमात्रेण विपाकं
दृष्टिगोचरम् ।।१०।।
लग्न आदि भावों का और ग्रहों के
राश्यादि से वर्गविश्वाबल को देखकर उनके शुभ-अशुभ फलों को कहना चाहिए। अब मैं वर्ग
विश्वाबल कह रहा हूँ, जिसके ज्ञानमात्र
से फल साक्षात् दिखाई देता है।। ९-१० ।।
गृहं विशोषकं वीक्ष्य सूर्यादीनां
खचारिणाम् ।
स्वगृहच्चे बलं पूर्णं शून्यं
तत्सप्तमस्थिते । । ११ ।।
भावों की राशियों का और सूर्य आदि
ग्रहों के विंशोपक बल को देखना चाहिए। अपने गृह उच्च में पूर्ण बल तथा नीच में
शून्य बल तथा मध्य में अनुपात से बल ले आना चाहिए । । ११ । ।
ग्रहस्थितिवशाज्ज्ञेयं
द्विराश्याधिपतिस्तथा ।
मध्येऽनुपाततो ज्ञेया
ओजयुग्मर्क्षभेदतः । । १२ । ।
ग्रहों की स्थितिवश दो राशियों के
अधिपति तथा विषम समराशि के स्थितिवश से बल ले आना चाहिए।।१२।।
सूर्य: होराफलं
दद्युर्जीवार्कवसुधात्मजाः ।
चन्द्रास्फुजिदर्कपुत्राश्चन्द्रहोराफलप्रदाः
।।१३।।
होरावर्ग केवल रवि चन्द्रमा का ही
होता है,
अतः शेष ग्रहों के फल विचार के लिए विशेष कह रहे हैं। गुरु, सूर्य, भौम ये सूर्य होराफल और चन्द्रमा, शुक्र, शनि ये चन्द्र के होरा का फल देते हैं ।। १३
।।
फलद्वयं बुधो दद्यात्समे चान्द्रं
तदन्यके ।
रवेः फलं स्वहोरादौ फलहीनं विरामके
। । १४ ।।
बुध दोनों के होरा का फल देता है।
समराशि में चन्द्र के होरा का फल और विषम राशि में सूर्य के होरा का फल होता है।
रवि के होरा आदि में पूर्ण फल, अन्त में
शून्य फल होता है । । १४ ।।
मध्येऽनुपातात्सर्वत्र
द्रेष्काणेऽपि विचिन्तयेत् ।
गृहवत्तुर्यभागेऽपि नवांशादावपि
स्वयम् ।। १५ ।।
मध्य में सर्वत्र अनुपात से फल लाना
चाहिए। इसी प्रकार द्रेष्काण आदि से भी फल लाना चाहिए । गृह के ही समान चतुर्थांश
में तथा नवांश आदि में भी फल समझना चाहिए । । १५ ।।
सूर्य: कुफलं धत्ते भार्गवस्य
निशापतिः ।
त्रिंशांशके विचिन्त्येवमत्रापि
गृहवत्स्मृतम् ।।१६।।
त्रिंशांश में सूर्य भौम का और
चन्द्रमा शुक्र का फल देता है। इसमें गृह के समान ही फल होता है ।। १६ ।।
बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय ६- अथ षट्-सप्त-वर्ग विंशांपक
लग्नहोरादृकाणाङ्कभागाः सूर्यांशका
इति ।
त्रिंशांशकाश्च षड्वर्गास्तेषां
विंशोपकाः क्रमात् ।। १७ ।।
लग्न (गृह),
होरा, द्रेष्काण, नवमांश,
द्वादशांश और त्रिंशांश ये ही षड्वर्ग कहे जाते हैं । । १७ ।।
रसनेत्राब्धिपञ्चाश्विभूमयः
सप्तवर्गके ।
स्थूलं फलं च संस्थाप्य तत्सूक्ष्मं
च ततस्ततः ।। १८ ।। ·
इनका विशोपक बल क्रम से ६,
२, ४, ५, २, १ है । यह स्थूल है, सूक्ष्म
के लिए अनुपात करना चाहिए । । १८ ।
सप्तमांशकं तत्र विश्वङ्का
पञ्चलोचनम् ।
त्रयं सार्धद्वयं सार्थवेदं
द्वौराशिनायकाः ।। १९ ।।
ये ही सप्तमांश के साथ मिलकर
सप्तवर्ग कहे जाते हैं। इसका विंशोपक बल क्रम से ५, २, ३, २ १/२, ४ १/२, २, २, १ है ।।१९।।
बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय ६- अथ दशवर्ग विंशोपक
दशवर्गादिगंशाख्या कलांशाः
षष्ठिनायकाः ।
. त्रयं क्षेत्रस्य
विज्ञेया पञ्च षष्ठ्यंशकस्य च ।। २० ।।
पूर्वोक्त सप्तवर्ग में दशमांश,
षोडशांश, षष्ठ्यंश को मिला देने से दशवर्ग
होता है। इसमें गृह का ३, षष्ठ्यंश का ५ और शेष वर्गों का
डेढ़ (१ १/२) विशोपक बल होता है ।। २० ।।
बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय ६- अथ षोडशवर्ग विंशोपक
सार्धैकभागाः शेषाणां विश्वङ्काः
परिकीर्त्तिताः ।
अथ वक्ष्ये विशेषेण विश्वका मम
सम्मतम् ।। २१ ।।
अब मैं षोडश वर्गों का विशेषतः
विश्वाबल को कह रहा हूँ ।। २१ । ।
क्रमात् षोडश वर्गाणां
क्षेत्रादीनां पृथक् पृथक् ।
होरांशभागदृक्काणकुचन्द्रशशिनः
क्रमात् ।। २२ ।।
होरा का १,
अंशंभाग (त्रिशांश) का १, द्रेष्काण का १ ।।
२२ ।।
कलांशस्य द्वयं ज्ञेयं त्र्यं नन्दांशकस्य
च ।
क्षेत्रे सार्धं च त्रितयं चतुः
षष्ठ्यंशकस्य हि ।। २३ ।।
षोडशांश का २,
नवमांश का ३, गृह का १ १/२, षष्ठ्यंश का ४ ।। २३ ।।
अर्धमर्धं तु शेषाणां ह्येतत्
स्वीयमुदाहृतम्।
पूर्णं विश्वाबलं विंशो धृतिः
स्यादधिमित्रके । । २४ । ।
और शेष वर्गों का आधा आधा (१/२)
विंशोपक बल होता है। यह विंशोपक बल अपने वर्ग में पूर्ण २० होता है। अधिमित्र के
वर्ग में १८ ।।२४ ।।
मित्रे पञ्चदश प्रोक्तं समे दश
प्रकीर्त्तितम् ।
शत्रौ सप्ताधिशत्रौ च पञ्च
विश्वाबलं भवेत् । । २५ ।
मित्र के वर्ग में १५,
सम के वर्ग में १०, शत्रु के वर्ग में ७ और
अधिशत्रु के वर्ग में ५ विंशोपक बल होता है।।२५।।
बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय ६- अथ विंशोपकबल स्पष्टीकरण
वर्गविश्वास्वविश्वघ्नाः
पुनर्विंशतिभाजिताः ।
विश्वफलोपयोग्यं तत्पञ्चोनं फलदो न
हि ।। २६ ।।
वर्ग के विश्वा को उसी में गुणा कर
उसमें २० का भाग देने से स्पष्ट विंशोपक फल कहने योग्य होता है । वह ५ से कम हो तो
फल कहने योग्य नहीं होता है ।। २६ ।।
तदूर्ध्वं स्वल्पफलदं दशोर्ध्वं
मध्यमं स्मृतम्।
तियूर्ध्वं पूर्णफलदं बोध्यं सर्वं
खचारिणाम् ।।२७।।
इसके ऊपर १० तक अल्प फल देने वाला,
दश के ऊपर १५ तक मध्यम फल, इसके ऊपर २० तक
पूर्ण फल देने वाला होता है । ऐसा सभी ग्रहों का समझना चाहिए ।। २७।।
बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय ६- अथ फलकथन
अथान्यदपि वक्ष्येऽहं मैत्रेय !
त्वं विधारय ।
खेटा: पूर्णफलं दद्युः
सूर्यात्सप्तमके स्थिताः ।। २८ ।।
हे मैत्रेय ! और भी प्रकारों को
कहता हूँ,
तुम सुनो ! सूर्य से सातवें भाव में ग्रह हो तो पूर्ण फल देता है ।।
२८ ।।
फलाभावं विजानीयात्समे सूर्यनभश्चरे
।
मध्येऽनुपातात्सर्वत्र
ह्युदयास्तविंशोपकाः ।।२९।।
सूर्य के समान ही राशि - अंशादि हो
तो शून्य फल देता है और इसके मध्य में हो तो अनुपात से फल समझना चाहिए। ग्रहों के
उदय अस्त का भी विचार कर लेना चाहिए ।। २९ ।।
वर्गविश्वसमं ज्ञेयं फलमस्य
द्विजर्षभ ।
यत्र यत्र फलं बद्ध्वा तत्फलं
परिकीर्त्तितम् ।। ३० ।।
हे द्विजश्रेष्ठ ! वर्गविशोपक के
अनुसार जो ग्रह जैसा फल देता हो उसके अनुसार ही उसके फल की कल्पना करें ।। ३० ।।
वर्गविश्वाफलं चादावुदयास्तमः परम्
।
पूर्णं पूर्णेति पूर्वं स्यात्
सर्वं दैवं विचिन्तयेत् । । ३१ ।।
पूर्ण,
मध्यम हीन और अल्प में दो-दो भेद हैं। श्लोक २६-२७ के अनुसार
प्रत्येक पूर्ण आदि फलों में ५ का भेद है। अतः १५ से १७ ।। तक पूर्ण १७ ।। से २०
तक अतिपूर्ण, १० से १२ तक मध्यमं, १२
।। से १५ तक अति मध्यम ।। ३१ ।।
हीनं हीनेऽतिहीनं
स्यात्स्वल्पाल्पेऽत्यल्पकं स्मृतम् ।
मध्यं मध्येऽतिमध्यं
स्याद्यावत्तस्य दशास्थितिः । । ३२ । ।
३ ।। से ४ तक हीन, ० से २ ।। तक अतिहीन, ७ ।। से १० तक - स्वल्प और ५ से ७ ।। तक अतिस्वल्प होता है। इस प्रकार विंशोपक - बल के अनुसार ग्रहों की दशा का फल समझना चाहिए ।। ३२ ।।
बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय ६- अथ भाव केन्द्रादिसंज्ञा
अथान्यदपि वक्ष्यामि मैत्रेय ! शृणु
सुव्रत !
लग्नतुर्यास्तवियतां केन्द्रसंज्ञा
विशेषतः ।।३३।।
मैत्रेय ! सुव्रत ! लग्न,
चतुर्थ, सप्तम और दशम भावों की केंन्द्र
संज्ञा है ।।३३।।
द्विपञ्चरन्थलाभाख्यं ज्ञेयं
पणफराभिधम् ।
त्रिषड्ंभाग्यंव्ययादीनामापोक्लिममिति
द्विज ।। ३४ ।।
दूसरे,
पाँचवें, आठवें और ग्यारहवें भाव की पणफर
संज्ञा है । तीसरे, छठें, नवें और
बारहवें भाव की आपोक्लिम संज्ञा है ।। ३४ ।।
लग्नात्पञ्चमभाग्यस्य कोणसंज्ञा
विधीयते ।
षष्ठाष्टव्ययभावानां
दुःसंज्ञास्त्रिकसंज्ञकाः ।।३५।।
लग्न, पंचम और नवम भाव को कोण कहते हैं। छठें, आठवें और
बारहवें भाव को दुष्ट स्थान और त्रिक कहते हैं ।।३५।।
चतुरस्रं तुर्यरन्ध्रं कथयन्ति
द्विजोत्तम ।
स्वस्थादुपचयर्क्षाणि त्रिषडायां
वराणि हि ।। ३६ ।।
चौथे और आठवें को चतुरस्र कहते हैं।
अपने स्थान से तीसरे, छठें, ग्यारहवें और दशम भाव को उपचय कहते हैं ।।३६।।
बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय ६- अथ तन्वादिभाव संज्ञा
तनुर्धनं च सहजो
बन्धुपुत्रालयस्तथा।
युवती रन्ध्रधर्माख्यं
कर्मलाभव्ययाः क्रमात् ।। ३७।।
तनु, धन, सहज, बन्धु, पुत्र, अरि, युवती (जाया),
रंध्र, धर्म, कर्म,
लाभ और व्यय ये क्रम से बारह भावों के नाम हैं ।। ३७ ।।
संक्षेपेणैतदुदितमन्यद्बुध्यानुसारतः।
किञ्चिद्विशेषं वक्ष्यामि यथा
ब्रह्ममुखाच्छ्रुतम् ।। ३८ ।।
यह संक्षेप से कहा है,
अन्य बुद्धि के अनुसार जानना । जैसा मैंने ब्रह्माजी के मुख से सुना
है उन विशेषों को कह रहा हूँ ।। ३८ ।।
नवमे च पितुर्ज्ञानं सूर्याच्च
नवमेऽथवा ।
यत्किञ्चिद्दशमे लाभे
तत्सूर्याद्दशमे शिवे । । ३९ ।।
लग्न से नवम स्थान में पिता का
विचार किया जाता है। उसे सूर्य से नवम में भी करना चाहिए। इसी प्रकार लग्न से १०
वें और ग्यारहवें में जो विचार किया जाता है वही सूर्य से १० । ११ भावों में भी
करना चाहिए ।। ३९ ।।
तुर्ये तंनौ धने लाभे भाग्ये
यच्चिन्तनं च तत् ।
चन्द्रात्तु तनौ लाभे भाग्ये
तच्चिन्तयेद्ध्रुवम् ।। ४० ।।
लग्न से चौथे,
दूसरे, ग्यारहवें और भाग्य में जो फल विचार
किये जाते हैं वही चन्द्रमा से भी उन्हीं चौथे, दूसरे,
ग्यारहवें और भाग्य भावों में करने चाहिए ।। ४० ।।
लग्नादुश्चिक्यभवने
तत्कुजाद्विक्रमे स्थितात् ।
विचार्यं षष्ठ भावस्य बुधात्षष्ठे
विचिन्तयेत् । । ४१ ।।
लग्न से तीसरे भाव में जो विचार
होता है उसे भौम से तीसरे भाव में भी विचारना चाहिए । लग्न से छठें भाव में जो
विचार होता है वही बुध से छठें भाव में भी होता है । । ४१ । ।
पञ्चमस्य गुरोः पुत्रे जायाया:
सप्तमे भृगोः ।
अष्टमस्य व्ययस्यापि मन्दान्मृत्यौ
व्यये तथा ।। ४२ ।।
गुरु से पाँचवें भाव में पुत्र का
और शुक्र से सातवें भाव में स्त्री का, शनि
से आठवें और बारहवें भाव में उन भावों का विचार करना चाहिए ।। ४२ ।।
यद्भावाद्यत्फलं चिन्त्यं
तदीशात्तत्फलं विदुः ।
ज्ञेयं तस्य फलं तद्धि
तत्तच्चिन्त्यं शुभाशुभम् ।।४३।।
जिन-जिन भावों का विचार करना हो वह
उन उन भावों के स्वामियों से भी करना चाहिए ।। ४३ ।।
इति बृहत्पाराशरहोरायाः पूर्वखण्डे
सुबोधिन्यां राशिस्वभावषोडश- वर्गादिकथनं तृतीयोऽध्यायः ।। ३ ।।
आगे जारी............. बृहत्पाराशरहोराशास्त्र अध्याय 7
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