अग्निपुराण अध्याय १८४

अग्निपुराण अध्याय १८४                  

अग्निपुराण अध्याय १८४ में अष्टमी-सम्बन्धी विविध व्रत का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय १८४

अग्निपुराणम् चतुरशीत्यधिकशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 184                 

अग्निपुराण एक सौ चौरासीवाँ अध्याय

अग्निपुराणम्/अध्यायः १८४                

अग्निपुराणम् अध्यायः १८४ – अष्टमीव्रतानि

अथ चतुरशीत्यधिकशततमोऽध्यायः

अग्निरुवाच

ब्रह्मादिमातृयजनाज्जपेन्मातृगणाष्टमीं ।

कृष्णाष्टाभ्यां चैत्रमासे पूज्याब्दं कृष्णमर्थभाक् ॥०१॥

अग्निदेव कहते हैंमुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ ! चैत्रमास के शुक्लपक्ष की अष्टमी को व्रत करे और उस दिन ब्रह्मा आदि देवताओं तथा मातृगणों का जप-पूजन करे। कृष्णपक्ष की अष्टमी को एक वर्ष श्रीकृष्ण की पूजा करके मनुष्य संतानरूप अर्थ की प्राप्ति कर लेता है ॥ १ ॥

कृष्णाष्टमीव्रतं वक्ष्ये मासे मार्गशिरे चरेत् ।

नक्तं कृत्वा शुचिर्भूत्वा गोमूत्रं प्राशयेन्निशि ॥०२॥

भूमिशायी निशायाञ्च शङ्करं पुजयेद्व्रती ।

पौषे शम्भुं घृतं प्राश्य माघे क्षीरं महेश्वरम् ॥०३॥

महादेवं फाल्गुने च तिलाशी समुपोषितः ।

चैत्रे स्थाणुं यवाशी च वैशाखेऽथ शिवं यजेत् ॥०४॥

कुशोदशी पशुपतिं ज्येष्ठे शृङ्गोदकाशनः ।

आषाढे गोमयाश्युग्रं श्रावणे सर्वकर्मभुक् ॥०५॥

त्र्यम्बकं च भाद्रपदे बिल्वपत्राशनो निशि ।

तण्डुलाशी चाश्वयुजे चेशं रुद्रं तु कार्त्तिके ॥०६॥

दध्याशी होमकारी स्याद्वर्षान्ते मण्डले यजेत् ।

गोवस्त्रहेम गुरवे दद्याद्विप्रेभ्य ईदृशं ॥०७॥

प्रार्थयित्वा द्विजान् भोज्य भुक्तिमुक्तिमवाप्नुयात् ।

अब मैं 'कालाष्टमी' का वर्णन करता हूँ। यह व्रत मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को करना चाहिये। रात्रि होने पर व्रत करनेवाला स्नानादि से पवित्र हो, भगवान् 'शंकर' का पूजन करके गोमूत्र से व्रत का पारण करे। रात्रि को भूमि पर शयन करे। पौष मास में 'शम्भु' का पूजन करके घृत का आहार तथा माघ में 'महेश्वर' की अर्चना करके दुग्ध का पान करे। फाल्गुन में 'महादेव' की पूजा करके अच्छी प्रकार उपवास करने के बाद तिल का भोजन करे। चैत्र में 'स्थाणु' का पूजन करके जौ का भोजन करे। वैशाख में 'शिव' की पूजा करे और कुशजल से पारण करे। ज्येष्ठ में 'पशुपति' का पूजन करके शृङ्गजल (झरने के जल) का पान करे। आषाढ़ में 'उग्र' की अर्चना करके गोमय का भक्षण और श्रावण में 'शर्व' का पूजन करके मन्दार के पुष्प का भक्षण करे। भाद्रपद में रात्रि के समय ' त्र्यम्बक' का पूजन करके बिल्वपत्र का भक्षण करे। आश्विन में 'ईश' की अर्चना करके चावल और कार्तिक में 'रुद्र' का पूजन करके दधि का भोजन करे। वर्ष की समाप्ति होनेपर होम करे और सर्वतो (लिङ्गतो)- भद्र का निर्माण करके उसमें भगवान् शंकर का पूजन करे। तदनन्तर आचार्य को गौ, वस्त्र और सुवर्ण का दान करे। अन्य ब्राह्मणों को भी उन्हीं वस्तुओं का दान करे। ब्राह्मणों को आमन्त्रित करके भोजन कराकर मनुष्य भोग और मोक्ष प्राप्त कर लेता है॥२-७अ॥

नक्ताशी त्वष्टमीषु स्याद्वत्सरान्ते च धेनुदः ॥०८॥

पौरन्दरं पदं याति स्वर्गतिव्रतमुच्यते ।

अष्टमी बुधवारेण पक्षयोरुभयोर्यदा ॥०९॥

तदा व्रतं प्रकुर्वीत अथवा सगुडाशिता ।

तस्यां नियमकर्तारो न स्युः खण्डितसम्पदः ॥१०॥

तण्डुलस्याष्टमुष्टीनां वर्जयित्वाङ्गुलीद्वयं ।

भक्तं कृत्वा चाम्रपुटे सकुशे सकुलाम्बिकां ॥११॥

सात्त्विकं पूजयित्वाङ्गं भुञ्जीत च कथाश्रवात् ।

शक्तितो दक्षिणान्दद्यात्कर्कटीन्तण्डुलान्वितां ॥१२॥

प्रत्येक मास के दोनों पक्षों की अष्टमी तिथियों को रात्रि में भोजन करे और वर्ष के पूर्ण होनेपर गोदान करे। इससे मनुष्य इन्द्रपद को प्राप्त कर लेता है। यह 'स्वर्गति व्रत' कहा जाता है। कृष्ण अथवा शुक्ल - किसी भी पक्ष में अष्टमी को बुधवार का योग हो, उस दिन व्रत रखे और एक समय भोजन करे। जो मनुष्य अष्टमी का व्रत करते हैं, उनके घर में कभी सम्पत्ति का अभाव नहीं होता। दो अँगुलियाँ छोड़कर आठ मुट्ठी चावल ले और उसका भात बनाकर कुशयुक्त आम्रपत्र के दोने में रखे। कुलाम्बिकासहित बुध का पूजन करना चाहिये और 'बुधाष्टमी व्रत की कथा सुनकर भोजन करे। तदनन्तर ब्राह्मण को ककड़ी और चावलसहित यथाशक्ति दक्षिणा दे ॥ ८-१२ ॥

धीरो द्विजोऽस्य भार्यास्ति रम्भा पुत्रस्तु कौशिकः ।

दुहिता विजया तस्य धीरस्य धनदो वृषः ॥१३॥

कौशिकस्तं गृहीत्वा तु गोपालैश्चारयन् वृषं ।

गङ्गायां स्नानकृत्येऽथ नीतश्चौरैर्वृषस्तदा ॥१४॥

स्नात्वा वृषमपश्यन् स वृषं मार्गितुमागतः ।

विजयाभगिनीयुक्तो ददर्श स सरोवरे ॥१५॥

दिव्यस्त्रीयोषितां वृन्दमब्रवीद्देहि भोजनं ।

स्त्रीवृन्दमूचे व्रतकृद्भुङ्क्ष्व त्वमतिथिर्यतः ॥१६॥

व्रतं कृत्वा स बुभुजे प्राप्तवान् वनपालकं ।

गतो धीरः सवृषभो विजयासहितस्तदा ॥१७॥

धीरेण विजया दत्ता यमायान्तरितः पिता ।

व्रतभावात्कौशिकोऽपि ह्ययोध्यायां नृपोऽभवत् ॥१८॥

पित्रोस्तु नरके दृष्ट्वा विजयार्तिं यमे गता ।

मृगयामागतं प्रोचे मुच्यते नरकात्कथं ॥१९॥

व्रतद्वयाद्यमः प्रोचे प्राप्य तत्कौशिको ददौ ।

बुधाष्टमीद्वयफलं स्वर्गतौ पितरौ ततः ॥२०॥

विजया हर्षिता चक्रे व्रतं भुक्त्यादिसिद्धये ।

 ('बुधाष्टमी व्रत की कथा निम्नलिखित है ) धीर नामक एक ब्राह्मण था उसकी पत्नी का नाम था रम्भा और पुत्र का नाम कौशिक था। उसके एक पुत्री भी थी, जिसका नाम विजया था। उस ब्राह्मण के धनद नाम का एक बैल था। कौशिक उस बैल को ग्वालों के साथ चराने को ले गया। कौशिक गङ्गा में स्नानादि कर्म करने लगा, उस समय चोर बैल को चुरा ले गये। कौशिक जब नदी से नहाकर निकला, तब बैल को वहाँ न पाकर अपनी बहिन विजया के साथ उसकी खोज में चल पड़ा। उसने एक सरोवर में देवलोक की स्त्रियों का समूह देखा और उनसे भोजन माँगा । इस पर उन स्त्रियों ने कहा - 'आप आज हमारे अतिथि हुए हैं, इसलिये व्रत करके भोजन कीजिये।' तदनन्तर कौशिक ने 'बुधाष्टमी का व्रत करके भोजन किया। उधर धीर वनरक्षक के पास पहुँचा और अपना बैल लेकर विजया के साथ लौट आया। धीर ब्राह्मण ने यथासमय विजया का विवाह कर दिया और स्वयं मृत्यु के पश्चात् यमलोक को प्राप्त हुआ। परंतु कौशिक व्रत के प्रभाव से अयोध्या का राजा हुआ। विजया अपने माता-पिता को नरक की यातना भोगते देख यमराज के शरणापन्न हुई। कौशिक जब मृगया के उद्देश्य से वन में आया, तब उसने पूछा- 'मेरे माता-पिता नरक से मुक्त कैसे हो सकते हैं ?' उस समय यमराज ने वहाँ प्रकट होकर कहा - 'बुधाष्टमी के दो व्रतों के फल से। ' तब कौशिक ने अपने माता-पिता के उद्देश्य से दो बुधाष्टमी व्रतों का फल दिया। इससे उसके माता- पिता स्वर्ग में चले गये। तदनन्तर विजया ने भी हर्षित होकर भोग- मोक्षादि की सिद्धि के लिये इस व्रत का अनुष्ठान किया ॥१३२०अ ॥

अशोककलिकाश्चाष्टौ ये पिबन्ति पुनर्वसौ ॥२१॥

चैत्रे मासि सिताष्टम्यां न ते शोकमवाप्नुयुः ।

वसिष्ठ ! चैत्र मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी को जब पुनर्वसु नक्षत्र का योग हो, उस समय जो मनुष्य अशोक-पुष्प की आठ कलिकाओं का रस- पान करते हैं, वे कभी शोक को प्राप्त नहीं होते । (कलिकाओं का रसपान निम्नलिखित मन्त्र से करना चाहिये) -

त्वामशोकहराभीष्ट मधुमाससमुद्भगव ॥२२॥

पिबामि शोकसन्तप्तो मामशोकं सदा कुरु ।

'चैत्र मास में विकसित होनेवाले अशोक! तुम भगवान् शंकर के प्रिय हो। मैं शोक से संतप्त होकर तुम्हारी कलिकाओं का पान करता हूँ। अपनी ही तरह मुझे भी सदा के लिये शोकरहित कर दो।'

चैत्रादौ मातृपूजाकृदष्टम्यां जयते रिपून् ॥२३॥

चैत्रादि मासों की अष्टमी को मातृगण की पूजा करनेवाला मनुष्य शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेता है ॥२१-२३॥

इत्याग्नेये महापुराणे अष्टमीव्रतानि नाम चतुरशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'अष्टमी के विविध व्रतों का वर्णन' नामक एक सौ चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १८४ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 185

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