मनुस्मृति अध्याय ९

मनुस्मृति अध्याय ९  

मनुस्मृति अध्याय ९ के भाग-१ श्लोक १ से १६५ में स्त्री- रक्षा, सन्तानधर्म, क्षेत्र-बीजनिर्णय, स्त्रियों का आपद्धर्म, कन्या- विवाह, दायभाग-व्यवस्था का वर्णन किया गया है।

मनुस्मृति अध्याय ९

मनुस्मृति नौवाँ अध्याय

Manu smriti chapter 9

मनुस्मृति अध्याय ९     

॥ श्री हरि ॥

॥ मनुस्मृति ॥

मनुस्मृति नवमोऽध्यायः

॥ अथ नवमोऽध्यायः नवां अध्याय ॥

मनुस्मृति अध्याय ९- स्त्री-रक्षा

पुरुषस्य स्त्रियाश्चैव धर्मे वर्त्मनि तिष्ठतोः ।

संयोगे विप्रयोगे च धर्मान् वक्ष्यामि शाश्वतान् ॥ ॥१॥

सनातन धर्म में स्थित पुरुष और स्त्रियों के संयोग और 'वियोग समय के धर्मों को मैं आगे कहता हूँ, सुनोः ॥१॥

अस्वतन्त्राः स्त्रियः कार्याः पुरुषैः स्वैर्दिवानिशम् ।

विषयेषु च सज्जन्त्यः संस्थाप्या आत्मनो वशे ॥ ॥ २ ॥

पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने ।

रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ॥ ॥३॥

कालेऽदाता पिता वाच्यो वाच्यश्चानुपयन् पतिः ।

मृते भर्तरि पुत्रस्तु वाच्यो मातुररक्षिता ॥ ॥४॥

सूक्ष्मेभ्योऽपि प्रसङ्गेभ्यः स्त्रियों रक्ष्या विशेषतः ।

द्वयोर्हि कुलयोः शोकमावहेयुररक्षिताः ॥ ॥ ५ ॥

इमं हि सर्ववर्णानां पश्यन्तो धर्ममुत्तमम् ।

यतन्ते रक्षितुं भार्यां भर्तारो दुर्बला अपि ॥ ॥ ६ ॥

पुरुष को अपनी स्त्रियों को कभी स्वतन्त्र न होने देना चाहिए । विषयों में आसक्त स्त्रियों को सदैव अपने वश में रखना चाहिए। बालकपन में पिता, युवावस्था में पति और बुढ़ापा में पुत्र को स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए, स्त्री स्वतन्त्र होने योग्य नहीं है। समय पर कन्यादान न करने से पिता, ऋतुकाल में सहवास न करने से पति और पिता के बाद माता की रक्षा न करने से पुत्र निन्दा का पात्र होता है। साधारण कुसंगों से भी स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि अरक्षित स्त्रियां दोनों कुलों को दुःख देती हैं। इस प्रकार यह संपूर्ण वर्णों का धर्म है। दुर्बल पति भी अपनी स्त्रियों की रक्षा का उपाय करना चाहिए ॥ २-६॥

स्वां प्रसूतिं चरित्रं च कुलमात्मानमेव च ।

स्वं च धर्मं प्रयत्नेन जायां रक्षन् हि रक्षति ॥ ॥७॥

पतिर्भार्यां सम्प्रविश्य गर्भो भूत्वैह जायते ।

जायायास्तद् हि जायात्वं यदस्यां जायते पुनः ॥ ॥८॥

यादृशं भजते हि स्त्री सुतं सूते तथाविधम् ।

तस्मात् प्रजाविशुद्ध्यर्थं स्त्रियं रक्षेत् प्रयत्नतः ॥ ॥९॥

न कश्चिद् योषितः शक्तः प्रसह्य परिरक्षितुम् ।

एतैरुपाययोगैस्तु शक्यास्ताः परिरक्षितुम् ॥ ॥१०॥

स्त्रियों की रक्षा करने से पुरुष अपनी संतान को वर्णसङ्कर होने से बचाता है, अपने चरित्र को निर्दोष रखता है, अपने कुल की मर्यादा बढ़ाता है, तथा अपनी और अपने धर्म की रक्षा करता है। पति स्त्री में वीर्यरूप से प्रवेश करके जगत् में पुत्ररूप से जन्म लेता है। अपनी स्त्री में फिर जन्मता है इसी कारण से स्त्री को जाया कहा जाता है। जैसे पुरुष को स्त्री सेवन करती है उसी भांति का पुत्र पैदा करती है। इसलिए प्रजा की पवित्रता के लिए स्त्री की रक्षा यत्नपूर्वक करे। कोई बलपूर्वक स्त्रियों की रक्षा नहीं कर सकता, किन्तु इन उपायों से उनकी रक्षा कर सकता है। ॥७-१०॥

अर्थस्य सङ्ग्रहे चैनां व्यये चैव नियोजयेत् ।

शौचे धर्मेऽन्नपक्त्यां च पारिणाह्यस्य वेक्षणे ॥ ॥ ११ ॥

अरक्षिता गृहे रुद्धाः पुरुषैराप्तकारिभिः ।

आत्मानमात्मना यास्तु रक्षेयुस्ताः सुरक्षिताः ॥ ॥१२॥

पानं दुर्जनसंसर्गः पत्या च विरहोऽटनम् ।

स्वप्नोऽन्यगेहवासश्च नारीसंदूषणानि षट् ॥ ॥ १३ ॥

नैता रूपं परीक्षन्ते नासां वयसि संस्थितिः ।

सुरूपं वा विरूपं वा पुमानित्येव भुञ्जते ॥ ॥ १४ ॥

धन-संग्रह, खर्च, सफाई, पतिसेवा, धर्म, रसोई और घर को सँभालने के कार्य में स्त्री को लगाना चाहिए। विश्वास पात्र मनुष्यों से घर में रखवाली कराने से रक्षित नहीं होती किन्तु जो अपनी रक्षा अपने आप ही करे, वही सुरक्षित हो सकती हैं। मद्यपान, दुर्जनसंग, पति से वियोग, घूमना, सोना, दूसरे के घर रहना यह छ: प्रकार के स्त्रियों में दूषण होते हैं। व्यभिचारिणी स्त्रियां रूप और अवस्था को नहीं देखती केवल पुरुष देखकर ही मोहित हो जाती हैं; वह कुरूप हो अथवा सुरूप ॥११- १४॥

पौंश्चल्याच्चलचित्ताच्च नैस्नेह्याच्च स्वभावतः ।

रक्षिता यत्नतोऽपीह भर्तृष्वेता विकुर्वते ॥ ॥ १५ ॥

एवं स्वभावं ज्ञात्वाऽसां प्रजापतिनिसर्गजम् ।

परमं यत्नमातिष्ठेत् पुरुषो रक्षणं प्रति ॥ ॥ १६ ॥

शय्याऽऽसनमलङ्कारं कामं क्रोधमनार्जवम् ।

द्रोहभावं कुचर्यां च स्त्रीभ्यो मनुरकल्पयत् ॥ ॥ १७ ॥

नास्ति स्त्रीणां क्रिया मन्त्रैरिति धर्मे व्यवस्थितिः ।

निरिन्द्रिया ह्यमन्त्राश्च स्त्रीभ्यो अनृतमिति स्थितिः ॥ ॥१८॥

व्यभिचारिणी होने से, चित्त की चञ्चलता से, स्वभाव से रूखापन से स्त्रियाँ रक्षित होने पर भी अपने पति मे विकार कर बैठती हैं। ब्रह्मा के रचे ऐसे स्त्रियों के स्वभाव जानकर उनकी रक्षा का परं यत्न करना चाहिए। सोना, बैठे रहना, गहने पर प्रेम, काम, क्रोध, उद्वत पना, दूसरों से द्रोह और दुराचार ये स्त्रियों में स्वभाव से ही पैदा हैं - ऐसा मनु ने कहा है। स्त्रियों के जात कर्मादि संस्कार मन्त्रों से नहीं होते इसलिए वे धर्मरहित होती है। असत्य के समान हैं - यह धर्म शास्त्र की मर्यादा है ॥१५- १८ ॥

तथाच श्रुतयो बह्व्यो निगीता निगमेष्वपि ।

स्वालक्षण्यपरीक्षार्थं तासां शृणुत निष्कृतीः ॥ ॥ १९ ॥

यन् मे माता प्रलुलुभे विचरन्त्यपतिव्रता ।

तन् मे रेतः पिता वृङ्क्तामित्यस्यैतन्निदर्शनम् ॥ ॥ २० ॥

ध्यायत्यनिष्टं यत् किं चित् पाणिग्राहस्य चेतसा ।

तस्यैष व्यभिचारस्य निह्नवः सम्यगुच्यते ॥ ॥२१॥

यादृग्गुणेन भर्त्रा स्त्री संयुज्येत यथाविधि ।

तादृग्गुणा सा भवति समुद्रेणैव निम्नगा ॥ ॥ २२ ॥

व्यभिचारिणी स्त्रियों के स्वभाव की परीक्षार्थ वेदों में बहुत श्रुतियां पठित हैं। उनमें जो व्यभिचार के प्रायश्चित्तभूत हैं उनको सुनो। कोई पुत्र माता का मानस व्यभिचार जानकर कहता है कि जो मेरी माता अपतिव्रता हुई परपुरुष को चाहने वाली थी, उस दुष्टत का मेरा पिता शुद्ध वीर्य से शोधन करे यह एक नमूना है। स्त्री अपने मन में पति के लिए जो अशुभ चिन्तन करती है (मानसिक व्यभिचार) उसका प्रायश्चित्तरूप मन्त्र पुत्र को शुद्ध करने वाला है, माता को नहीं। जिस गुणवाले पति के साथ स्त्री विवाह करके रहती है वैसे ही गुणवाली वह हो जाती है, जैसे समुद्र के साथ नदी के मिलने पर नदी खारी हो जाती है ॥१९-२२॥

अक्षमाला वसिष्ठेन संयुक्ताऽधमयोनिजा ।

शारङ्गी मन्दपालेन जगामाभ्यर्हणीयताम् ॥ ॥२३॥

एताश्चान्याश्च लोकेऽस्मिन्नपकृष्टप्रसूतयः ।

उत्कर्षं योषितः प्राप्ताः स्वैः स्वैर्भर्तगुणैः शुभैः ॥ ॥ २४ ॥

एषोदिता लोकयात्रा नित्यं स्त्रीपुंसयोः शुभा ।

प्रेत्यैह च सुखोदर्कान् प्रजाधर्मान्निबोधत ॥ ॥२५॥

अक्षमाला नाम की अधम जाति की स्त्री वशिष्ठ को विवाहित होने से पूज्य हुई। शारंगी पक्षी जाति की स्त्री मन्दपाल को विवाहित होने से पूज्य हुई। यह और दूसरी भी स्त्रियां इस लोक में अपने पतियों गुणों के कारण उन्नति को पहुँची है। इस प्रकार स्त्री-पुरुषों का उत्तम लौकिक आचार कहा गया है। अब लोक, परलोक में सुख देनेवाले सन्तानधर्म को सुनों ॥ २३-२५ ॥

मनुस्मृति अध्याय ९- सन्तानधर्म

प्रजनार्थं महाभागाः पूजार्हा गृहदीप्तयः ।

स्त्रियः श्रियश्च गेहेषु न विशेषोऽस्ति कश्चन ॥ ॥२६॥

उत्पादनमपत्यस्य जातस्य परिपालनम् ।

प्रत्यहं लोकयात्रायाः प्रत्यक्षं स्त्री निबन्धनम् ॥ ॥२७॥

अपत्यं धर्मकार्याणि शुश्रूषा रतिरुत्तमा ।

दाराधीनस्तथा स्वर्गः पितॄणामात्मनश्च ह ॥ ॥२८॥

पतिं या नाभिचरति मनोवाग्देहसंयता ।

सा भर्तृलोकानाप्नोति सद्भिः साध्वीइति चोच्यते ॥ ॥२९॥

व्यभिचारात् तु भर्तुः स्त्री लोके प्राप्नोति निन्द्यताम् ।

सृगालयोनिं चाप्नोति पापरोगैश्च पीड्यते ॥ ॥३०॥

यह स्त्रियाँ पुत्र उत्पन्न करने के लिए बड़ी भाग्यवती, सत्कार योग्य और घर की शोभा हैं । स्त्रियों में और लक्ष्मी में कोई भेद नहीं है, दोनों समान हैं। सन्तान पैदा करना, उनका पालन, अतिथि, मित्र आदि का लौकिक आदर-भोजन का निर्वाह स्त्री से ही हो सकता है, यह प्रत्यक्ष है । सन्तान, धर्मकार्य, अतिथि सेवा, अच्छा काम सुख, अपने और पितरों को स्वर्ग-प्राप्ति स्त्री के अधीन है। जो स्त्री मन, और शरीर को वश में रखकर पति के अनुकूल रहती है वह पतिलोक पाती है और जगत् में साध्वी कही जाती है। और पति के विरुद्ध करने से लोक में निन्दा पाती है। सियार की योनि में जन्म लेती है और बुरे रोगों से दुःखी होती है ॥२६-३०॥

पुत्रं प्रत्युदितं सद्भिः पूर्वजैश्च महर्षिभिः ।

विश्वजन्यमिमं पुण्यमुपन्यासं निबोधत ॥ ॥३१॥

भर्तरि पुत्रं विजानन्ति श्रुतिद्वैधं तु कर्तरि ।

आहुरुत्पादकं के चिदपरे क्षेत्रिणं विदुः ॥ ॥३२॥

क्षेत्रभूता स्मृता नारी बीजभूतः स्मृतः पुमान् ।

क्षेत्रबीजसमायोगात संभवः सर्वदेहिनाम् ॥ ॥३३॥

विशिष्टं कुत्र चिद् बीजं स्त्रीयोनिस्त्वेव कुत्र चित् ।

उभयं तु समं यत्र सा प्रसूतिः प्रशस्यते ॥ ॥ ३४ ॥

बीजस्य चैव योन्याश्च बीजमुत्कृष्टमुच्यते ।

सर्वभूतप्रसूतिर्हि बीजलक्षणलक्षिता ॥ ॥३५॥

यादृशं तूप्यते बीजं क्षेत्रे कालोपपादिते ।

तादृग् रोहति तत् तस्मिन् बीजं स्वैर्व्यञ्जितं गुणैः ॥ ॥३६॥

इयं भूमिर्हि भूतानां शाश्वती योनिरुच्यते ।

न च योनिगुणान् कांश्चिद् बीजं पुष्यति पुष्टिषु ॥ ॥३७॥

भूमावप्येककेदारे कालोप्तानि कृषीवलैः ।

नानारूपाणि जायन्ते बीजानीह स्वभावतः ॥३८ ॥

प्राचीनकाल के महात्मा-महर्षियों ने जो पुत्र को कहा था, उस विश्वहितकारी, पवित्र विचार को सुनो-

मनुस्मृति अध्याय ९- क्षेत्र-बीजनिर्णय

मुनिगण उत्पन्न पुत्र को भर्ता का मानते हैं। परन्तु भर्ता के विषय में दो प्रकार की श्रुति हैं। पहला मत है-पुत्र जिसके वीर्य से उत्पन्न हुआ हो उसका माना जाता है। दूसरा मत है जिसकी स्त्री में पैदा हो उसका होता है। स्त्री क्षेत्ररूप और पुरुष बीज रूप कहा है, इस क्षेत्र और बीज के संयोग से सब प्राणियों की उत्पत्ति है। कहीं बीज और कहीं क्षेत्र श्रेष्ठ माना जाता है परन्तु जिसमें दोनों समान हों वह सन्तान श्रेष्ठ है। बीज और क्षेत्र में बीज उत्तम गिना जाता है, क्योंकि सभी प्राणियों की उत्पत्ति में बीज के रूप, रंग देखने में आते हैं। समय पर जैसा बीज खेत में बोया जाता है, उसी भांति का गुण पैदा होकर आता है। यह भूमि प्राणियों की सनातन-योनि कही जाती है । परन्तु स्वयं अपने खेत के गुणों को धारण नहीं कर सकता। किसान एक ही खेत में समयानुसार अलग अलग बीज बोते हैं और वह अपने स्वभाव के अनुसार विभिन्न प्रकार के उत्पन्न होते हैं अर्थात् एक ही भूमि होने से एक जैसे नहीं होते ॥३१-३८ ॥

व्रीहयः शालयो मुद्रास्तिला माषास्तथा यवाः ।

यथाबीजं प्ररोहन्ति लशुनानीक्षवस्तथा ॥ ॥ ३९ ॥

अन्यदुप्तं जातमन्यदित्येतन्नोपपद्यते ।

उप्यते यद् हि यद बीजं तत् तदेव प्ररोहति ॥ ॥४०॥

तत् प्राज्ञेन विनीतेन ज्ञानविज्ञानवेदिना ।

आयुष्कामेन वप्तव्यं न जातु परयोषिति ॥ ॥४१॥

अत्र गाथा वायुगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः ।

यथा बीजं न वप्तव्यं पुंसा परपरिग्रहे ॥ ॥४२॥

धान, साठा, मूंग, तिल, उड़द, जों, लसुन और ईख बोने पर अपने बीज के अनुसार ही उगते हैं। बीज दूसरा हो और वृक्ष दूसरा उगे ऐसा नहीं होता। जो बीज बोया जाता है, वही उत्पन्न होता है। इसलिए बुद्धिमान्, विनीत, ज्ञान-विज्ञान - विशारद को परस्त्री में बीज नहीं बोना चाहिए। प्राचीन इतिहास के ज्ञाता ऋषि इस विषय में वायु की गाई गाथाएँ गाते हैं-परस्त्री में पुरुष को बीज नहीं बोना चाहिए ॥६९-४२॥

नश्यतीषुर्यथा विद्धः खे विद्धमनुविध्यतः ।

तथा नश्यति वै क्षिप्रं बीजं परपरिग्रहे ॥ ॥ ४३ ॥

पृथोरपीमां पृथिवीं भार्यां पूर्वविदो विदुः ।

स्थाणुच्छेदस्य केदारमाहुः शाल्यवतो मृगम् ॥ ॥४४॥

एतावानेव पुरुषो यत्जायाऽत्मा प्रजेति ह ।

विप्राः प्राहुस्तथा चैतद् यो भर्ता सा स्मृताङ्गना ॥ ॥४५॥

न निष्क्रयविसर्गाभ्यां भर्तुर्भार्या विमुच्यते ।

एवं धर्मं विजानीमः प्राक् प्रजापतिनिर्मितम् ॥ ॥४६॥

जैसे दूसरे के बेधे हुए मृग को फिर मारने से बाण निष्फल होता है, ऐसे परस्त्री में बोया बीज शीघ्र निष्फल हो जाता है। इस पृथिवी को जो पहले राजा पृथु की भार्या थी, अभी भी लोग पृथु की भार्या ही जानते हैं। जो वृक्ष काटकर साफ़ करता है उसका खेत और जिसका बाण पहले लगे उसका वह मृग कहलाता है। स्त्री आप और सन्तान यह तीनों मिलकर एक पुरुष कहलाता है। वेदज्ञ ब्राह्मण भी कहते हैं कि जो भर्ता है वही भार्या है। बेचने वा छोड़ने से भार्या अपने पति से नहीं छूटती । ऐसी धर्म मर्यादा, प्रजापति की रची हुई है जिसे हम जानते हैं ॥४३-४६ ॥

सकृदंशो निपतति सकृत् कन्या प्रदीयते ।

सकृदाह ददानीति त्रीण्येतानि सतां सकृत् ॥ ॥४७॥

यथागोऽश्वोष्टदासीषु महिष्यजाविकासु च ।

नोत्पादकः प्रजाभागी तथैवान्याङ्गनास्वपि ॥ ॥ ४८ ॥

येऽक्षेत्रिणो बीजवन्तः परक्षेत्रप्रवापिणः ।

ते वै सस्यस्य जातस्य न लभन्ते फलं क्व चित् ॥ ॥ ४९ ॥

यदन्यगोषु वृषभो वत्सानां जनयेत्शतम् ।

गोमिनामेव ते वत्सा मोघं स्कन्दितमार्षभम् ॥ ॥५०॥

तथैवाक्षेत्रिणो बीजं परक्षेत्रप्रवापिणः ।

कुर्वन्ति क्षेत्रिणामर्थं न बीजी लभते फलम् ॥ ॥ ५१ ॥

भाइयों का बँटवारा एक बार ही होता है। कन्यादान एक बार होता है और दान भी एक ही बार कहने से हो जाता है-सत्पुरुष इन तीन बातों को एकबार ही करते हैं। जैसे गौ, घोड़ी, ऊंटनी, दासी, भैंस, बकरी और भेड़ आदि में सन्तान पैदा करने वाला उस सन्तान का स्वामी नहीं माना जाता, ऐसे ही परस्त्री में सन्तान का भागी नहीं होता। जो क्षेत्र का स्वामी न होकर, केवल बीज बोनेवाले हो, उसका खेत के अन्नादि फल पर कोई अधिकार नहीं होता । एक बैल जो दूसरे की गायों में सैकड़ों बछड़े पैदा करता है, वह गौ वाले के होते हैं और बैल का वीर्य निष्फल जाता है, वैसे ही दुसरे के क्षेत्र में बोनेवाले खेत वाले का काम करते हैं, बीज वाले को फल प्राप्त नहीं होता ॥४७-५१ ॥

फलं त्वनभिसंधाय क्षेत्रिणां बीजिनां तथा ।

प्रत्यक्षं क्षेत्रिणामर्थो बीजाद् योनिर्गलीयसी ॥ ॥ ५२ ॥

क्रियाभ्युपगमात् त्वेतद् बीजार्थं यत् प्रदीयते ।

तस्यैह भागिनौ दृष्टौ बीजी क्षेत्रिक एव च ॥ ॥५३॥

ओघवाताहृतं बीजं यस्य क्षेत्रे प्ररोहति ।

क्षेत्रिकस्यैव तद् बीजं न वप्ता लभते फलम् ॥ ॥५४॥

खेत और बीज वालों में कोई ठहराव न हो तब तक सन्तान खेतवाले की प्रत्यक्ष मानी जाती है। क्योंकि बीज से खेत ही प्रधान है। क्षेत्र में जो सन्तान होगी, वह हम दोनों की होगी ऐसा ठहराव हुआ हो तो सन्तान क्षेत्र और बीज दोनों की होगी। जो बीज जल के वेग अथवा वायु के वेग से गिरकर दूसरे के खेत में पैदा हो, उसके फल का भागी खेतवाला होता है बोनेवाला नहीं ॥ ५२-५४ ॥

मनुस्मृति अध्याय ९- स्त्रियों का आपद्धर्म

एष धर्मो गवाश्वस्य दास्युष्ट्राजाविकस्य च ।

विहङ्गमहिषीणां च विज्ञेयः प्रसवं प्रति ॥ ॥ ५५ ॥

एतद् वः सारफल्गुत्वं बीजयोन्योः प्रकीर्तितम् ।

अतः परं प्रवक्ष्यामि योषितां धर्ममापदि ॥ ॥५६॥

भ्रातुर्ज्येष्ठस्य भार्या या गुरुपत्न्यनुजस्य सा ।

यवीयसस्तु या भार्या स्नुषा ज्येष्ठस्य सा स्मृता ॥ ॥५७॥

ज्येष्ठो यवीयसो भार्यां यवीयान् वाऽग्रजस्त्रियम् ।

पतितौ भवतो गत्वा नियुक्तावप्यनापदि ॥ ॥ ५८ ॥

देवराद् वा सपिण्डाद् वा स्त्रिया सम्यक्नियुक्तया ।

प्रजेप्सिताऽऽधिगन्तव्या संतानस्य परिक्षये ॥ ॥ ५९ ॥

विधवायां नियुक्तस्तु घृताक्तो वाग्यतो निशि ।

एकमुत्पादयेत् पुत्रं न द्वितीयं कथं चन ॥ ॥ ६० ॥

द्वितीयमेके प्रजनं मन्यन्ते स्त्रीषु तद्विदः ।

अनिर्वृतं नियोगार्थं पश्यन्तो धर्मतस्तयोः ॥ ॥६१ ॥

विधवायां नियोगार्थे निर्वृत्ते तु यथाविधि ।

गुरुवत्व स्रुषावत्व वर्तेयातां परस्परम् ॥ ॥६२॥

यह व्यवस्था गौ, घोड़ी, दासी, ऊंटनी, वकरी, भेड़, पक्षी और भैस की संतति में जाननी चाहिए। इस प्रकार बीज और योनि की प्रधानता और अप्रधानता का विषय कहा गया अब स्त्रियों का आपद्धर्म कहा जाता है। बड़े भाई की स्त्री छोटे भाई को गुरुपत्नी के समान और छोटे भाई की स्त्री बड़े भाई को पुत्रवधू के समान कही गयी है। आपत्तिकाल न हो अर्थात् पुत्र हो तो बड़ा भाई छोटे भाई की स्त्री के साथ और छोटा भाई बड़े भाई की स्त्री के साथ नियोग विधि से भी गमन करे तो दोनों पतित होते हैं । सन्तान न हो तो पुत्र की इच्छा से नियोग की हुई स्त्री को देवर अथवा सपिण्डपुरुष से भी अभीष्ट सन्तान प्राप्त करनी चाहिए। विधवा स्त्री के साथ नियोग करनेवाला शरीर में घी लगाकर मौन होकर रात्रि में भोग करे और इस भांति एक ही पुत्र पैदा करे, दूसरा कभी नही करना चाहिए। नियोगविधि के ज्ञाता कोई ऋषि क पुत्र से नियोग का प्रयोजन सिद्ध न होते देखकर दूसरा पुत्र पैदा करना भी धर्म मानते हैं । शास्त्र की रीति से विधवा स्त्री में नियोग का प्रयोजन हो जाने पर छोटे भाई को बड़े भाई की स्त्री से माता और बड़े भाई को छोटे को स्त्री से पुत्रवधू के समान व्यवहार करना चाहिए ॥५५-६२ ॥

नियुक्तौ यौ विधिं हित्वा वर्तेयातां तु कामतः ।

तावुभौ पतितौ स्यातां स्नुषागगुरुतल्पगौ ॥ ॥६३॥

नान्यस्मिन् विधवा नारी नियोक्तव्या द्विजातिभिः ।

अन्यस्मिन् हि नियुञ्जाना धर्मं हन्युः सनातनम् ॥ ॥६४॥

नोद्वाहिकेषु मन्त्रेषु नियोगः कीर्त्यते क्व चित् ।

न विवाहविधावुक्तं विधवावेदनं पुनः ॥ ॥ ६५ ॥

अयं द्विजैर्हि विद्वद्भिः पशुधर्मो विगर्हितः ।

मनुष्याणामपि प्रोक्तो वेने राज्यं प्रशासति ॥ ॥६६॥

स महीमखिलां भुञ्जन् राजर्षिप्रवरः पुरा ।

वर्णानां सङ्करं चक्रे कामोपहतचेतनः ॥ ॥६७॥

ततः प्रभृति यो मोहात् प्रमीतपतिकां स्त्रियम् ।

नियोजयत्यपत्यार्थं तं विगर्हन्ति साधवः ॥ ॥ ६८ ॥

यस्या म्रियेत कन्याया वाचा सत्ये कृते पतिः ।

तामनेन विधानेन निजो विन्देत देवरः ॥ ॥ ६९ ॥

यदि नियोग करनेवाले दोनों शास्त्रविधि को छोड़कर मन माना व्यवहार करें तो पतित होते हैं तथा पुत्रवधू गुरुपत्नी के साथ गमन करनेवाले माने जाते हैं । द्विजातियों को विधवा स्त्री का नियोग दूसरे वर्णवाले से नहीं कराना चाहिए। अन्य जाति से नियोग की हुई स्त्रियाँ धर्म का नाश कर डालती हैं। विवाहसम्बन्धी मन्त्रों में कहीं नियोग नहीं कहा है और विधवा का पुनर्विवाह भी कहीं नहीं कहा है। यह नियोगविधि राजा वेन के राज्य में प्रचलित हुई थी। परन्तु विद्वान द्विजों ने इस पशुधर्म की निंदा की है। राजर्षि वेन जब सारी पृथ्वी पर राज्य करता था, उस समय कामवासना से नष्ट बुद्धि होकर वर्णसङ्करता फैलाई थी। तब से जो पुरुष विधवा स्त्री का संतान के लिए नियोग करता है उसकी साधु पुरुष निंदा करते हैं। जिस कन्या का पति वाग्दान करने के बाद मर जाय तो उसके देवर को इस प्रकार उसे स्वीकार करना चाहिए ॥ ६३-६९ ॥

यथाविध्यधिगम्यैनां शुक्लवस्त्रां शुचिव्रताम् ।

मिथो भजेता प्रसवात् सकृत्सकृद् ऋतावृतौ ॥ ॥ ७० ॥

न दत्त्वा कस्य चित् कन्यां पुनर्दद्याद् विचक्षणः ।

दत्त्वा पुनः प्रयच्छन् हि प्राप्नोति पुरुषानृतम् ॥ ॥७१॥

विधिवत् प्रतिगृह्यापि त्यजेत् कन्यां विगर्हिताम् ।

व्याधितां विप्रदुष्टां वा छद्मना चोपपादिताम् ॥ ॥७२॥

यस्तु दोषवतीं कन्यामनाख्यायोपपादयेत् ।

तस्य तद् वितथं कुर्यात् कन्यादातुर्दुरात्मनः ॥ ॥ ७३ ॥

विधाय वृत्तिं भार्यायाः प्रवसेत् कार्यवान्नरः ।

अवृत्तिकर्शिता हि स्त्री प्रदुष्येत् स्थितिमत्यपि ॥ ॥ ७४ ॥

विधाय प्रोषिते वृत्तिं जीवेन्नियममास्थिता ।

प्रो षिते त्वविधायैव जीवेत्शिल्पैरगर्हितैः ॥ ॥७५॥

प्रोषितो धर्मकार्यार्थं प्रतीक्ष्योऽष्टौ नरः समाः ।

विद्यार्थी षड् यशोऽर्थं वा कामार्थं त्रींस्तु वत्सरान् ॥ ॥ ७६ ॥

संवत्सरं प्रतीक्षेत द्विषन्तीं योषितं पतिः ।

ऊर्ध्वं संवत्सरात् त्वेनां दायं हृत्वा न संवसेत् ॥ ॥७७॥

श्वेत वस्त्र पहन कर मन, वाणी, शरीर से शुद्ध होकर उस कन्या के साथ उसका देवर गमन करे और सन्तान होने तक ऋतुकाल में उक्तरीति से एक एक बार गमन करे। चतुर पुरुष एक बार कन्या देकर फिर दूसरे को न दें, क्योंकि एक बार वाग्दान करके दूसरे को देने से चोरी का पाप लगता है। जो कन्या रोगी, दुष्ट और छल से दी गई हो, उसको विधिपूर्वक ग्रहण करके भी त्याग देना चाहिए। जो दोषवाली कन्या का बिना दोष कहे विवाह कर दे उस दुरात्मा पुरुष के दान को त्याग देना चाहिए। कार्यवश विदेश जाने वाला मनुष्य को स्त्री के भरण पोषण का प्रबन्ध करके जाना चाहिए। क्योंकि सदाचारी स्त्री भी अन्न-वस्त्र के लिए दुखी होकर बिगड़ जाती हैं। प्रबन्ध करके विदेश जाने पर स्त्री नियम से रहना चाहिए शृङ्गार आदि नहीं करना चाहिए। और प्रबंध किए बिना चला गया हो तो सीना, कातना आदि उद्यम से निर्वाह करना चाहिए । पति, धर्मकार्य के लिए विदेश गया हो तो आठ वर्ष, विद्या, यश के लिए गया हो तो छः वर्ष और सुख के लिए गया हो तो तीन वर्ष प्रतीक्षा करने के पश्च्यात के पास चले जाना चाहिए। दुःखदायी स्त्री के पति को एक वर्ष प्रतीक्षा करनी चाहिए, उसके बाद आभूषणादि छीनकर उस स्त्री के साथ नहीं रहना चाहिए ॥ ७०-७७ ॥

अतिक्रामेत् प्रमत्तं या मत्तं रोगार्तमेव वा ।

सात्रीन् मासान् परित्याज्या विभूषणपरिच्छदा ॥ ॥७८॥

उन्मत्तं पतितं क्लीबमबीजं पापरोगिणम् ।

न त्यागोऽस्ति द्विषन्त्याश्च न च दायापवर्तनम् ॥ ॥ ७९ ॥

मद्यपाऽसाधुवृत्ता च प्रतिकूला च या भवेत् ।

व्याधिता वाऽधिवेत्तव्या हिंस्राऽर्थघ्नी च सर्वदा ॥ ॥८०॥

वन्ध्याष्टमेऽधिवेद्याब्दे दशमे तु मृतप्रजा ।

एकादशे स्त्रीजननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी ॥ ॥८१॥

या रोगिणी स्यात् तु हिता सम्पन्ना चैव शीलतः ।

साऽनुज्ञाप्याधिवेत्तव्या नावमान्या च कर्हि चित् ॥ ॥८२॥

अधिविन्ना तु या नारी निर्गच्छेद् रुषिता गृहात् ।

सा सद्यः संनिरोद्धव्या त्याज्या वा कुलसंनिधौ ॥ ॥८३॥

प्रतिषिद्धाऽपि चेद् या तु मद्यमभ्युदयेष्वपि ।

प्रेक्षासमाजं गच्छेद् वा सा दण्ड्या कृष्णलानि षट् ॥ ॥ ८४ ॥

यदि स्वाश्चापराश्चैव विन्देरन् योषितो द्विजाः ।

तासां वर्णक्रमेण स्याज् ज्येष्ठ्यं पूजा च वेश्म च ॥ ॥८५॥

जो स्त्री अपने जुआरी, मद्यप और रोगातुर पति की सेवा न करे उसके भूषण आदि लेकर तीन महीने तक त्याग करने योग्य हैं। परन्तु जो पागल, पतित, नपुंसक, बीजहीन, पापरोगी भी अपने पति की सेवा करे उसको त्यागना नहीं चाहिए और इन ही उससे कोई धन, आभूषण इत्यादि छीनना चाहिए। जो स्त्री मद्यप, दुराचारिणी, उलटा बर्ताव करनेवाली, रोगिणी, मार पीट करनेवाली, फिजूल खर्च करनेवाली हो उसके जीते ही दूसरा विवाह कर लेना चाहिए । ऋतुकाल से आठ वर्ष तक वंध्या रहे, दस वर्ष तक बालक होकर मरते जायँ, कन्या उत्पन्न होते ग्यारह वर्ष होजायँ और स्त्री कटुभाषी हो तो भी दूसरा विवाह कर लेना चाहिए। परन्तु जो रोगी होकर भी पति का हित करे, सुशीला हो तो उसकी सम्मति से दूसरा विवाह करना चाहिए और उसका अपमान कभी भी नहीं करना चाहिए। दूसरी स्त्री के आने पर पहली स्त्री रूठकर घर से निकल जाती हो तो उसको रोकना चाहिए अथवा सब के समक्ष त्याग देना चाहिए। उत्सवों के समय मना करने पर भी जो स्त्री मद्यपान करे, गाने आदि में शामिल हो, उस पर छः कृष्णल दण्ड राजा को करना चाहिए। द्विज अपनी या दूसरी जाति की स्त्री से विवाह करे तो उस की जाति मर्यादा के अनुसार आदर, आभूषण, घर इत्यादि का प्रबन्ध करना चाहिए ॥ ७८-८५ ।।

भर्तुः शरीरशुश्रूषां धर्मकार्यं च नैत्यकम् ।

स्वा चैव कुर्यात् सर्वेषां नास्वजातिः कथं चन ॥ ॥८६॥

यस्तु तत् कारयेन् मोहात् सजात्या स्थितयाऽन्यया ।

यथा ब्राह्मणचाण्डालः पूर्वदृष्टस्तथैव सः ॥ ॥ ८७ ॥

उन स्त्रियों में जो अपनी जाति की हो वे पतिसेवा और धर्मकर्म करें दूसरी जाति की स्त्रियों को यह कर्म कभी नहीं करना चाहिए। पर जो मूर्खता से अपनी जाति की स्त्री रहते दूसरी से कर्म कराता है उसको चाण्डाल समान जाने यह ऋषियों ने कहा है ॥८६-८७ ॥

मनुस्मृति अध्याय ९- कन्या-विवाह

उत्कृष्टायाभिरूपाय वराय सदृशाय च ।

अप्राप्तामपि तां तस्मै कन्यां दद्याद् यथाविधि ॥ ८८ ॥

काममामरणात् तिष्ठेद् गृहे कन्यार्तुमत्यपि ।

न चैवैनां प्रयच्छेत् तु गुणहीनाय कर्हि चित् ॥ ॥८९॥

त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कुमार्यर्तुमती सती ।

ऊर्ध्वं तु कालादेतस्माद् विन्देत सदृशं पतिम् ॥ ॥ ९० ॥

अदीयमाना भर्तारमधिगच्छेद् यदि स्वयम् ।

नैनः किं चिदवाप्नोति न च यं साऽधिगच्छति ॥ ॥ ९१ ॥

अलङ्कारं नाददीत पित्र्यं कन्या स्वयंवरा ।

मातृकं भ्रातृदत्तं वा स्तेना स्याद् यदि तं हरेत् ॥ ॥९२॥

पित्रे न दद्यात्शुल्कं तु कन्यां ऋतुमतीं हरन् ।

स च स्वाम्यादतिक्रामेद् ऋतूनां प्रतिरोधनात् ॥ ॥९३॥

कुलीन, सुंदर और समान जाति का वर मिले तो पिता विवाह योग्य अवस्था न होने पर भी शास्त्ररीति से कन्यादान कर दे। चाहे कन्या को ऋतुमती होने पर भी मरणपर्यन्त पिता के घर बैठी रहे परन्तु गुणहीन वर को कभी दान नहीं करना चाहिए। यदि पिता गुणी वर मिलने पर विवाह न करे सके और कन्या ऋतुमती होती हो तो वह तीन वर्ष तक प्रतीक्षा करके अपनी इच्छानुसार पति से विवाह कर सकती है। जिस कन्या का विवाह पिता न करता हो वह यदि स्वयं विवाह कर ले तो कन्या पुरुष को कोई दोष नहीं लगता। स्वयं वर को स्वीकार करनेवाली कन्या पिता-माता या भाई के दिए आभूषण नहीं लेना चाहिए, अगर ले तो चोर समान समझी जाती है। ऋतुमयी कन्या का विवाह करनेवाले को उसके पिता को धन नहीं देना चाहिए। क्योंकि ऋतुकाल में सन्तान को रोकने के कारण पिता का स्वामित्व जाता रहता है ॥ ८८-९३ ॥

त्रिंशद्वर्षो वहेतु कन्यां हृद्यां द्वादशवार्षिकीम् ।

यष्टवर्षोऽष्टवर्षां वा धर्मे सीदति सत्वरः ॥ ॥ ९४ ॥

देवदत्तां पतिर्भार्यां विन्दते नेच्छयाऽत्मनः ।

तां साध्वीं बिभृयान्नित्यं देवानां प्रियमाचरन् ॥ ॥९५॥

प्रजनार्थं स्त्रियः सृष्टाः संतानार्थं च मानवः ।

तस्मात् साधारणो धर्मः श्रुतौ पत्न्या सहोदितः ॥ ॥९६॥

कन्यायां दत्तशुल्कायां म्रियेत यदि शुल्कदः ।

देवराय प्रदातव्या यदि कन्याऽनुमन्यते ॥ ॥ ९७ ॥

तीस वर्ष का पुरुष बारह वर्ष की सुन्दर कन्या से विवाह करना चाहिए। अथवा चौबीस वर्ष की आयु के पुरुष को आठ वर्ष की कन्या से विवाह करना चाहिए। और यदि अग्निहोत्रादि धर्म का नाश होता हो तो शीघ्र भी विवाह किया जा सकता है। पति देवताओं की दी हुई स्त्री को पाता है अपनी इच्छा से नहीं, इसलिए देवताओं के प्रीत्यर्थ उस सती का पालन पोषण नित्य करना चाहिए । ईश्वर ने गर्भ धारणार्थ स्त्रियों को रचा और सन्तान पैदा करने के लिए पुरुष को रचा है। इसलिए स्त्री-पुरुष को साथ में धर्माचरण करना चाहिए यह वेदों में कहा गया है। आतुरविवाह के लिए कन्या का मूल्य दिया हो और उसका पति मर जाय तो कन्या की इच्छा से देवर का विवाह कर देना चाहिए ॥९४-९७॥

आददीत न शूद्रोऽपि शुल्कं दुहितरं ददन् ।

शुल्कं हि गृह्णन् कुरुते छन्नं दुहितृविक्रयम् ॥ ॥९८ ॥

एतत् तु न परे चक्रुर्नापरे जातु साधवः ।

यदन्यस्य प्रतिज्ञाय पुनरन्यस्य दीयते ॥ ॥ ९९ ॥

नानुशुश्रुम जात्वेतत् पूर्वेष्वपि हि जन्मसु ।

शुल्कसंज्ञेन मूल्येन छन्नं दुहितृविक्रयम् ॥ ॥१००॥

अन्योन्यस्याव्यभिचारो भवेदामरणान्तिकः ।

एष धर्मः समासेन ज्ञेयः स्त्रीपुंसयोः परः ॥ ॥ १०१ ॥

कन्यादान में शूद्र को भी धन ग्रहण नहीं करना चाहिए। शुल्क ग्रहण करने वाला छिप कर कन्या बेंचने वाला माना जाता है। यह कर्म पहले सत्पुरुषों ने नहीं किया था और न इस समय भी शिष्ट पुरुष ऐसा करते हैं जोकि एक को कन्यादान करके दूसरे को कन्या दी जाए। पूर्व कल्पों में भी कन्या- विक्रय नहीं सुना गया। स्त्री पुरुष को मरण पर्यन्त आपस में प्रेमपूर्वक रहकर धर्म आदि चतुर्वर्ग फल को प्राप्त करना चाहिए। इस प्रकार स्त्री-पुरुषों का परम धर्मसंक्षेप कहा गया है। ॥ ९८- १०१ ॥

तथा नित्यं यतेयातां स्त्रीपुंसौ तु कृतक्रियौ ।

यथा नाभिचरेतां तौ वियुक्तावितरेतरम् ॥ ॥१०२॥

एष स्त्रीपुंसयोरुक्तो धर्मो वो रतिसंहितः ।

आपद्यपत्यप्राप्तिश्च दायधर्मं निबोधत ॥ ॥ १०३ ॥

स्त्री-पुरुष को विवाह करके ऐसा व्यवहार करना चाहिए, जिसमें धर्माचरण में अलग होने की अवांछित घटना नहीं हो। यह स्त्री-पुरुषों का धर्म और आपदकाल में सन्तान विधि कही गई है। अब दायभाग की व्यवस्था सुनो ॥ १०२-१०३ ॥

मनुस्मृति अध्याय ९- दायभाग-व्यवस्था

ऊर्ध्वं पितुश्च मातुश्च समेत्य भ्रातरः समम् ।

भजेरन् पैतृकं रिक्थमनीशास्ते हि जीवतोः ॥ ॥ १०४ ॥

ज्येष्ठ एव तु गृह्णीयात् पित्र्यं धनमशेषतः ।

शेषास्तमुपजीवेयुर्यथैव पितरं तथा ॥ ॥ १०५ ॥

ज्येष्ठेन जातमात्रेण पुत्री भवति मानवः ।

पितॄणामनृणश्चैव स तस्मात् सर्वमर्हति ॥ ॥१०६॥

यस्मिनृणं संनयति येन चानन्त्यमश्नुते ।

स एव धर्मजः पुत्रः कामजानितरान् विदुः ॥ ॥ १०७॥

पितेव पालयेत् पूत्रान् ज्येष्ठो भ्रातॄन यवीयसः ।

पुत्रवत्वापि वर्तेरन् ज्येष्ठे भ्रातरि धर्मतः ॥ ॥ १०८ ॥

ज्येष्ठः कुलं वर्धयति विनाशयति वा पुनः ।

ज्येष्ठः पूज्यतमो लोके ज्येष्ठः सद्भिरगर्हितः ॥ ॥ १०९ ॥

पिता और माता की मृत्यु के बाद, भाई आपस में पिता की सम्पत्ति बाँट ले पर उनके जीवित रहते हुए पुत्रों का अधिकार नहीं होता। बड़े भाई को पिता का समस्त धन ग्रहण करना चाहिए और शेष भाई जैसे पिता की आज्ञा में जीविका चलाते थे, वैसे ही भाई के वश में रहकर करना चाहिए करें। बड़े पुत्र का जन्म होने से मनुष्य पुत्रवान होता है और पितृऋण से छूटता है, इसलिए वह समस्त धन लेने योग्य है । जिस के उत्पन्न होने से, पितृऋण दूर होता है और मोक्ष प्राप्त होता है वही धर्म पुत्र है। दूसरों को काम से उत्पन्न जानना चाहिए। बड़े भाई को छोटे भाइयों का पालन पिता के समान करना चाहिए और छोटे भाई को बड़े भाई के साथ पिता के समान धर्मानुसार व्यवहार करना चाहिए। ज्येष्ठ कुल को बढ़ाता है और ज्येष्ठ ही कुल का नाश करता है, ज्येष्ठ गुणवान् जगत् में पूज्य है और कभी सत्पुरुषों में निंदा नहीं पाता है ॥१०४-१०९ ॥

यो ज्येष्ठो ज्येष्ठवृत्तिः स्यान् मातैव स पितैव सः ।

अज्येष्ठवृत्तिर्यस्तु स्यात् स सम्पूज्यस्तु बन्धुवत् ॥ ॥११०॥

एवं सह वसेयुर्वा पृथग् वा धर्मकाम्यया ।

पृथग् विवर्धते धर्मस्तस्माद् धर्म्या पृथक्क्रिया ॥ ॥ १११ ॥

ज्येष्ठस्य विंश उद्धारः सर्वद्रव्याच्च यद् वरम् ।

ततोऽर्थं मध्यमस्य स्यात् तुरीयं तु यवीयसः ॥ ॥ ११२ ॥

ज्येष्ठश्चैव कनिष्ठश्च संहरेतां यथोदितम् ।

येऽन्ये ज्येष्ठकनिष्ठाभ्यां तेषां स्यान् मध्यमं धनम् ॥ ॥ ११३ ॥

जो बड़ा भाई पिता के समान पोषण और व्यव्हार करे वह माता- पिता के समान है। और जो वैसा व्यवहार न करे तो बन्धुवत् पूज्य है। भाइयों ने यदि विभाग नहीं किया हो तो साथ रहना चाहिए और यदि विभाग कर लिया हो तो अलग अलग रहना चाहिए। अलग रहने से धर्म-कर्म अधिक होता है, इसलिए अलग रहना धर्मानुकूल है। बड़े भाई को बीसवां भाग अधिक भाग हैं और सभी पदार्थों में जो उत्तम हो वह भी देना चाहिए । मध्यम भाई को इसका आधा चालीसवां भाग और छोटे को अस्सीवाँ भाग देना चाहिए और जो बच जाए वह सभी भाइयों मे बराबर बाँट लेना चाहिए। बड़ा और सबसे छोटा भाई इस प्रकार अपना भाग ले और दूसरे भाइयों का मध्यम भाग होना चाहिए ॥ ११०-११३ ॥

सर्वेषां धनजातानामाददीताग्र्यमग्रजः ।

यच्च सातिशयं किं चिद् दशतश्चाप्नुयाद् वरम् ॥ ॥११४॥

उद्धारो न दशस्वस्ति सम्पन्नानां स्वकर्मसु ।

यत् किं चिदेव देयं तु ज्यायसे मानवर्धनम् ॥ ॥ ११५ ॥

एवं समुद्धृतोद्धारे समानंशान् प्रकल्पयेत् ।

उद्धारेऽनुद्धृते त्वेषामियं स्यादंशकल्पना ॥ ॥ ११६॥

एकाधिकं हरेज् ज्येष्ठः पुत्रोऽध्यर्थं ततोऽनुजः ।

अंशमंशं यवीयांस इति धर्मे व्यवस्थितः ॥ ॥ ११७ ॥

बड़ा गुणवान हो और दूसरे गुणहीन हो तो समस्त सम्पत्ति में जो श्रेष्ठ वस्तु हैं वह बड़े भाई को मिलनी चाहिए और गौ इत्यादि वगैरह दस पशुओं में जो श्रेष्ठ हो वह भी बड़े भाई को ही मिलनी चाहिए। यदि सभी भाई गुणी हो तो बड़े भाई को दसों से श्रेष्ठ वस्तु न देकर, उसके सन्मानार्थ कुछ वस्तु अधिक दे देनी चाहिए। इस प्रकार बीसवां भाग निकालकर बाकी का बराबर भाग करना चाहिए। और बीसवां अलग न किया हो तो इस प्रकार बंटवारा करना चाहिए- बड़े भाई का एक भाग अधिक अर्थात् दो भाग उससे छोटा डेढ़ भाग और उससे छोटे भाई सबको एक एक भाग ग्रहण करना चाहिए - यह धर्म व्यवस्था है ॥११४- ११७ ॥

स्वेभ्योंशेभ्यस्तु कन्याभ्यः प्रदद्युर्भ्रातरः पृथक् ।

स्वात् स्वादंशाच्चतुर्भागं पतिताः स्युरदित्सवः ॥ ॥ ११८ ॥

अजाविकं सैकशफं न जातु विषमं भजेत् ।

अजाविकं तु विषमं ज्येष्ठस्यैव विधीयते ॥ ॥ ११९ ॥

यवीयान्ज्येष्ठभार्यायां पुत्रमुत्पादयेद् यदि ।

समस्तत्र विभागः स्यादिति धर्मो व्यवस्थितः ॥ ॥ १२० ॥

उपसर्जनं प्रधानस्य धर्मतो नोपपद्यते ।

पिता प्रधानं प्रजने तस्माद् धर्मेण तं भजेत् ॥ ॥१२१॥

पुत्रः कनिष्ठो ज्येष्ठायां कनिष्ठायां च पूर्वजः ।

कथं तत्र विभागः स्यादिति चेत् संशयो भवेत् ॥ ॥ १२२ ॥

एकं वृषभमुद्धारं संहरेत स पूर्वजः ।

ततोऽपरे ज्येष्ठवृषास्तदूनानां स्वमातृतः ॥ ॥१२३॥

ज्येष्ठस्तु जातो ज्येष्ठायां हरेद् वृषभषोडशाः ।

ततः स्वमातृतः शेषा भजेरन्निति धारणा ॥ ॥ १२४ ॥

सदृशस्त्रीषु जातानां पुत्राणामविशेषतः ।

न मातृतो ज्यैष्ठ्यमस्ति जन्मतो ज्यैष्ठयमुच्यते ॥ ॥ १२५ ॥

प्रत्येक भाई को अपने भाग में से चौथा भाग अपनी कुमारी बहन को देना चाहिए। जो नहीं देते वह पतित होते हैं। बकरी, भेंड़, घोड़ा आदि एक खुरवाले पशुओं का समान भाग करना चाहिए और कम हो तो न नहीं बांटने चाहियें, क्योंकि वह सभी बड़े भाई के ही होते हैं। छोटा भाई बड़े की स्त्री में नियोग विधि से पुत्र पैदा करे तो उस पुत्र और चाचा का समान भाग करे यह धर्म है। क्षेत्रज पुत्र गौण होता है, इसलिए वह पिता का समस्त भाग धर्मानुसार नहीं ले सकता। पुत्र पैदा करने में पिता मुख्य है, इस कारण क्षेत्रज पुत्र का भाग पूर्वरीति से करना चाहिए। प्रथम स्त्री में पुत्र पीछे और द्वितीय स्त्री में प्रथम हो तो, उनका भाग कैसे होना चाहिए ? प्रथम स्त्री का पुत्र एक बैल अधिक ले और उसी माता से पैदा हुए छोटे भाईयों को मामूली बैल लेंने चाहिए। यदि ज्येष्ठ पुत्र, दूसरी स्त्री का हो तो एक बैल और पन्द्रह गौ लेनी चाहिए और दूसरे भाइयों को अपनी माता के अधिकारनुसार बाँट लेना चाहिए परन्तु एक जाति की स्त्रियों में पुत्र पैदा हो तो उनको समान मानना चाहिए, माता के बड़ी होने से पुत्र बड़े नहीं होते, किन्तु जन्म से बड़ाई होती है ॥११८-१२५ ॥

जन्मज्येष्ठेन चाह्वानं सुब्रह्मण्यास्वपि स्मृतम् ।

ययोश्चैव गर्भेषु जन्मतो ज्येष्ठता स्मृता ॥ ॥ १२६ ॥

अपुत्रोऽनेन विधिना सुतां कुर्वीत पुत्रिकाम् ।

यदपत्यं भवेदस्यां तन् मम स्यात् स्वधाकरम् ॥ ॥ १२७॥

अनेन तु विधानेन पुरा चक्रेऽथ पुत्रिकाः ।

विवृद्धयर्थं स्ववंशस्य स्वयं दक्षः प्रजापतिः ॥ ॥ १२८ ॥

ददौ स दश धर्माय कश्यपाय त्रयोदश ।

सोमाय राज्ञे सत्कृत्य प्रीतात्मा सप्तविंशतिम् ॥ ॥ १२९ ॥

जिसका जन्म पहले हुआ हो उस पुत्र का नाम लेकर, 'अमुक का पिता यजन करता है' ऐसा ज्योतिष्टोम में 'सुब्रह्मण्य मन्त्र' बोलकर इन्द्र का आवाहन होता है। और दो साथ ही पैदा हुए हो, तो भी पहला ज्येष्ठ कहलाता है। जिसके पुत्र न हो वह कन्या दान के समय जामाता से नियम करे की इस कन्या ले जो पुत्र होगा वह मेरा श्राद्ध आदि कर्म करेगा। पहले दक्षप्रजापति ने अपने वंश की वृद्धि के लिए इसी विधि से कन्या को पुत्रिकाएं की थी। दक्ष ने प्रसन्न होकर धर्म को दस, कश्यप को तेरह और राजा सोम को सत्ताईस पुत्री दान में दी थीं ॥१२६-१२६॥

यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा ।

तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धनं हरेत् ॥ ॥ १३० ॥

मातुस्तु यौतकं यत् स्यात् कुमारीभाग एव सः ।

दौहित्र एव च हरेदपुत्रस्याखिलं धनम् ॥ ॥१३१॥

दौहित्रो ह्यखिलं रिक्थमपुत्रस्य पितुर्हरेत् ।

स एव दद्याद् द्वौ पिण्डौ पित्रे मातामहाय च ॥ ॥ १३२ ॥

पौत्रदौहित्रयोर्लोक न विशेषोऽस्ति धर्मतः ।

तयोर्हि मातापितरौ संभूतौ तस्य देहतः ॥ ॥ १३३ ॥

जैसी आत्मा है वैसा ही पुत्र है और पुत्र और पुत्री समान हैं। इसलिए पिता की आत्मारूप-पुत्री वैठी हो तो दूसरा धन कैसे ले जाय ? जो धन माता को दहेज में मिला हो वह कन्या' का ही भाग है। और पुत्रहीन का सब धन दौहित्र का ही है। जिसको पुत्रिका किया हो उसके पुत्र को अपुत्र - पिता का धन लेना चाहिए और उसी को पिता और नाना को पिण्डदान करना चाहिए। लोक में धर्मानुसार पौत्र और दौहित्र में कुछ भेद नहीं है। क्योंकि दोनों के माता-पिता एक ही देह से उत्पन्न हुए हैं ॥। १३०-१३३ ॥

पुत्रिकायां कृतायां तु यदि पुत्रोऽनुजायते ।

समस्तत्र विभागः स्यात्ज्येष्ठता नास्ति हि स्त्रियाः ॥ ॥ १३४ ॥

अपुत्रायां मृतायां तु पुत्रिकायां कथं चन ।

धनं तत् पुत्रिकाभर्ता हरेतैवाविचारयन् ॥ ॥१३५॥

अकृता वा कृता वाऽपि यं विन्देत् सदृशात् सुतम् ।

पौत्री मातामहस्तेन दद्यात् पिण्डं हरेद् धनम् ॥ ॥ १३६ ॥

पुत्रेण लोकान्जयति पौत्रेणानन्त्यमश्नुते ।

अथ पुत्रस्य पौत्रेण ब्रध्नस्याप्नोति विष्टपम् ॥ ॥१३७॥

पुन्नाम्नो नरकाद् यस्मात् त्रायते पितरं सुतः।

तस्मात् पुत्र इति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयंभुवा ॥ ॥ १३८ ॥

यदि पुत्रिका करने के बाद अपने पुत्र हो जाय तो पुत्र और दौहित्र का समान भाग करना चाहिए। उसमें कन्या की श्रेष्ठता नहीं मानी जाती। पुत्रिका होने वाली, कन्या मर जाय तो उसके पति को उसका समस्त धन लेना चाहिए। पुत्रिका विधान किया हो अथवा न किया हो, समान जाति वाले जामाता से जिस पुत्र को प्राप्त करें उसी से नाना पौत्रवान होता है, उसी को पिण्डदान करना चाहिए और धन लेना चाहिए। पुरुष पुत्र से स्वर्गलोक को जीतता है, पौत्र से धनन्त सुख पाता है और पुत्र के पौत्र से सूर्यलोक को पाता है । पुत्र 'पुन्नाम' नामक नरक से पिता को बचाता है इसलिए ब्रह्मा ने स्वयं 'पुत्र' संज्ञा की है ॥ १३४-१३८ ॥

पौत्र दौहित्रयोर्लोके विशेषो नोपपद्यते ।

दौहित्रोऽपि ह्यमुत्रैनं संतारयति पौत्रवत् ॥ ॥१३९॥

मातुः प्रथमतः पिण्डं निर्वपेत् पुत्रिकासुतः ।

द्वितीयं तु पितुस्तस्यास्तृतीयं तत्पितुः पितुः ॥ ॥१४०॥

उपपन्नो गुणैः सर्वैः पुत्रो यस्य तु दत्तिमः ।

स हरेतैव तद्रिक्थं सम्प्राप्तोऽप्यन्यगोत्रतः ॥ ॥ १४१ ॥

लोक में पौत्र और दौहित्र में कुछ अन्तर नहीं है । दौहित्र भी नाना को पौत्र की भांति स्वर्ग पहुँचाता है। पुत्रिका-पुत्र को पहला पिण्ड माता को देना चाहिए, दूसरा माता के पिता को देना चाहिए, तीसरा- नाना के पिता को देना चाहिए। जिसका दत्तक (गोद लिया) पुत्र, सर्वगुण संपन्न हो, वह दूसरे गोत्र से आकर भी उसकी सम्पत्ति का अधिकारी होता है ॥ १३६-१४१ ॥

गोत्र रिक्थे जनयितुर्न हरेद् दत्त्रिमः क्व चित् ।

गोत्ररिक्थानुगः पिण्डो व्यपैति ददतः स्वधा ॥ ॥ १४२ ॥

अनियुक्तासुतश्चैव पुत्रिण्याऽप्तश्च देवरात् ।

उभौ तौ नार्हतो भागं जारजातककामजी ॥ ॥ १४३ ॥

नियुक्तायामपि पुमान्नार्यां जातोऽविधानतः ।

नैवार्हः पैतृकं रिक्थं पतितोत्पादितो हि सः ॥ ॥ १४४ ॥

हरेत् तत्र नियुक्तायां जातः पुत्रो यथौरसः ।

क्षेत्रिकस्य तु तद् बीजं धर्मतः प्रसवश्च सः ॥ ॥ १४५ ॥

धनं यो बिभृयाद् भ्रातुर्मृतस्य स्त्रियमेव च ।

सो ऽपत्यं भ्रातुरुत्पाद्य दद्यात् तस्यैव तद्धनम् ॥ ॥१४६॥

दत्तक पुत्र अपने उत्पादक पिता के गोत्र और धन को नहीं पा सकता। जिसका गोत्र और धन पाता है, उसी को पिण्डदान दे सकता है। बिना नियोगविधि से पैदा पुत्र और पुत्रवाली के देवर से उत्पन पुत्र ये दोनों भी पिता के धन के अधिकारी नहीं होते क्योकि यह जारज और काम हैं। नियुक्त स्त्री में भी विधान के बिना पैदा हुआ पुत्र, पिता का धन नहीं पा सकता क्योंकि वह पतित से पैदा हुआ है परन्तु विधि से नियुक्त स्त्री मे उत्पन्न पुत्र औरस पुत्र के समान है। यह क्षेत्रवाले का बीज है-धर्म से उत्पन्न हुआ है। जो पुरुष मृत भाई की स्त्री और उस के धन का ग्रहण करे, उसको नियोग विधि से पुत्र उत्पन्न करके उसको भाई का समस्त धन उस पुत्र को दे देना चाहिए ॥ १४२-१४६॥

या नियुक्ताऽ न्यतः पुत्रं देवराद् वाऽप्यवाप्नुयात् ।

तं कामजमरिक्थीयं वृथोत्पन्नं प्रचक्षते ॥ ॥ १४७ ॥

एतद् विधानं विज्ञेयं विभागस्यैकयोनिषु ।

बह्वीषु चैकजातानां नानास्त्रीषु निबोधत ॥ ॥ १४८ ॥

ब्राह्मणस्यानुपूर्व्येण चतस्रस्तु यदि स्त्रियः ।

तासां पुत्रेषु जातेषु विभागेऽयं विधिः स्मृतः ॥ ॥ १४९ ॥

जो नियुक्त - स्त्री दूसरे पुरुष से पुत्र पैदा करे यह पुत्र कामज कहलाता है और पिता की सम्पत्ति के अयोग्य है। एक जाति की स्त्रियों में पैदा हुए पुत्रों के विभाग की यह रीति है। अब एक पुरुष से अनेक जाति की स्त्रियों में उत्पन्न पुत्रों का विभाग सुनो। ब्राह्मण के यदि क्रम से चारों वर्ण की स्त्रियाँ हों तो उनमें पुत्र पैदा होने पर इस प्रकार विभाग करे ॥ १४७-१४६ ॥

कीनाशो गोवृष यानमलङ्कारश्च वेश्म च ।

विप्रस्यौद्धारिकं देयमेकांशश्च प्रधानतः ॥ ॥ १५० ॥

त्र्यंशं दायाद् हरेद् विप्रो द्वावंशी क्षत्रियासुतः ।

वैश्याजः सार्धमेवांशमंशं शूद्रासुतो हरेत् ॥ ॥ १५१ ॥

सर्वं वा रिक्थजातं तद् दशधा परिकल्प्य च ।

धर्म्य विभागं कुर्वीत विधिनाऽनेन धर्मवित् ॥ ॥ १५२ ॥

चतुरानंशान् हरेद् विप्रस्त्रीनंशान् क्षत्रियासुतः ।

वैश्यापुत्रो हरेद् द्व्यंशमंशं शूद्रासुतो हरेत् ॥ ॥ १५३ ॥

यद्यपि स्यात् तु सत्पुत्रोऽप्यसत्पुत्रोऽपि वा भवेत् ।

किं दशमाद्दद्यात्शूद्रापुत्राय धर्मतः ॥ ॥ १५४ ॥

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्रापुत्रो न रिक्थभाक् ।

यदेवास्य पिता दद्यात् तदेवास्य धनं भवेत् ॥ ॥ १५५ ॥

'खेती का बैल, सांड़, सवारी का घोड़ा, गहना, रहने का स्थान और जो कीमती चीज़ हो उनको ब्राह्मणो के पुत्र को देना चाहिए। ब्राह्मणी पुत्र में तिहाई हिस्सा मिलना चाहिए, क्षत्रिया के पुत्र को दो भाग, वैश्या के पुत्र को डेढ़ भाग और शूद्रा के पुत्र को एक भाग मिलना चाहिए। अथवा समस्त सम्पत्ति का दस भाग करके धर्मज्ञ पुरुष धर्मानुसार इस प्रकार भाग करे - ब्राह्मणीपुत्र को चार भाग, क्षत्रियापुत्र को तीन भाग, वैश्यापुत्र को दो भाग और शूद्रापुत्र को एक भाग। यद्यपि सत्पुत्र हो अथवा असत्पुत्र हो पर धर्म से शूद्रापुत्र को दशभाग से अधिक नहीं देना चाहिए। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के शुद्रा से पुत्र हो तो वह धन का भागी नहीं होता। जो कुछ पिता उसको प्रेमपूर्वक दे वही उसका धन होता है॥५०- २५५॥

समवर्णासु वा जाताः सर्वे पुत्रा द्विजन्मनाम् ।

उद्धारं ज्यायसे दत्त्वा भजेरन्नितरे समम् ॥ ॥ १५६ ॥

शूद्रस्य तु सवर्णैव नान्या भार्या विधीयते ।

तस्यां जाताः समांशाः स्युर्यदि पुत्रशतं भवेत् ॥ ॥ १५७ ॥

समान वर्ण की स्त्रियों में जो पुत्र उत्पन्न हों, उनमें बड़े भाई को कुछ अधिक देकर, बाकी सम्पत्ति को समान रूप से बाँट लेना चाहिए। शुद्र की समान जाति ही की भार्या होती है, दूसरे वर्ण की विधि नहीं है । उसमें यदि सौ पुत्र भी हो तो भी वह समान भाग के ही अधिकारी होंगे ॥१५६-१५७॥

पुत्रान् द्वादश यानाह नृणां स्वायंभुवो मनुः ।

तेषां षड् बन्धुदायादाः षडदायादबान्धवाः ॥ ॥ १५८ ॥

औरसः क्षेत्रजश्चैव दत्तः कृत्रिम एव च ।

गू ढोत्पन्नोऽपविद्धश्च दायादा बान्धवाश्च षट् ॥ ॥ १५९ ॥

कानीनश्च सहोढश्च क्रीतः पौनर्भवस्तथा ।

स्व यंदत्तश्च शौद्रश्च षडदायादबान्धवाः ॥ १६० ॥

यादृशं फलमाप्नोति कुप्लवैः संतरञ्जलम् ।

तादृशं फलमाप्नोति कुपुत्रैः संतरंस्तमः ॥ ॥ १६१ ॥

यद्येकरिक्थिनौ स्यातामौरसक्षेत्रजौ सुतौ ।

यस्य यत् पैतृकं रिक्थं स तद् गृह्णीत नैतरः ॥ ॥ १६२ ॥

एक एवौरसः पुत्रः पित्र्यस्य वसुनः प्रभुः ।

शेषाणामानृशंस्यार्थं प्रदद्यात् तु प्रजीवनम् ॥ ॥ १६३ ॥

षष्ठं तु क्षेत्रजस्यांशं प्रदद्यात् पैतृकाद् धनात् ।

औरसो विभजन् दायं पित्र्यं पञ्चममेव वा ॥ ॥ १६४ ॥

औरसक्षेत्रजौ पुत्रौ पितृरिक्थस्य भागिनौ ।

दशापरे तु क्रमशो गोत्ररिक्यांशभागिनः ॥ ॥ १६५ ॥

स्वायम्भुव मनु ने मनुष्यों के जो बारह पुत्र कहे हैं, उनमें छः बान्धव और दायाद कहलाते हैं और छः अदायाद - अबान्धव हैं। औरस, क्षेत्र, दत्तक, कृत्रिम, गूढोत्पन्न और अपविद्ध ये छः दायाद् (सम्पत्ति के भागी) बांधव हैं। कानीन, सहोढज, क्रीतक, पौनर्भव, स्वयंदत्त और शौद्र ये छः अदायाद-अबान्धव हैं। टूटी फूटी नाव से जल तैरता हुआ जैसा फल पाता है, वैसा ही फल कुपुत्रों से नरकपार होने में पिता आदि को भी प्राप्त होता है। यदि अपुत्र के क्षेत्र में नियोगविधि से एक पुत्र हो, और किसी प्रकार दूसरा औरस पुत्र भी हो जाय तो दोनों क्षेत्र-औरस अपने अपने पिता की सम्पत्ति के भागी है। एक पतन का भागी होता है, शेष सभी को दयावश, अन्न-वस्त्र इत्यादि दे देना चाहिए। औरस पुत्र पिता की सम्पत्ति का विभाग करे तो क्षेत्र को छठां या पांचवां भाग देना चाहिए। औरस और क्षेत्र उक्त रीति से पितृधन के अधिकारी हैं। बाकी दस पुत्र, क्रम से गोधन के भागी हैं ।१५८-१६५॥

आगे जारी..........मनुस्मृति अध्याय 9 भाग 2  

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