बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय ४

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय ४

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय ४ में लग्नों का वर्णन हुआ है।

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय ४

बृहत्पाराशर होराशास्त्र अध्याय ४

Vrihat Parashar hora shastra chapter 4

बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् चतुर्थोंऽध्यायः

अथ बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् लग्नाध्यायः भाषा-टीकासहितं

तत्रादौ गुलिकादिकालज्ञानमाह-

रविवारादिशन्यन्तं गुलिकादि निरूप्यते ।

दिवसानष्टधा कृत्वा वारेशाद्गणयेत्क्रमात् ॥ १ ॥ ॥

रवि से शनि पर्यन्त वारों में गुलिक आदि का निरूपण कर रहे हैं । (जिस दिन इनका विचार करना हो उस दिन के) दिनमान में आठ का भाग देने से जो लब्ध हो उतना ही एक खंड का मान होता है; वारेश से (जिस दिन विचार कर रहे हों उस बार से खंडों के अनुसार अपने इष्टकाल तक ) गिनने से । । १ । ।

अष्टमांशो निरीशः स्याच्छन्यंशो गुरिकः स्मृतः ।

रात्रिरप्यष्टधा भक्त्वा वारेशात् पञ्चमादितः ॥२॥

आठवें भाग का स्वामी कोई नहीं होता और शनि का खंड गुलिक होता है। इसी प्रकार रात्रिमान का भी (यदि रात्रि का जन्म हो तो) आठ भाग करके वारेश से पाँचवें वार से गिनने से ।।२।।

गणयेदष्टम खण्डो निष्पत्तिः परिकीर्त्तितः ।

शन्यंशो गुलिकः प्रोक्तो गुर्वशो यमघण्टकः ॥ ३ ॥

शनि का अंश (खंड) गुलिक होता है और आठवें खंड का कोई स्वामी नहीं होता है। शनि का अंश गुलिक, गुरु का अंश यमघंट होता है । । ३ । ।

भौमांशो मृत्युरादिष्टो रव्यंशो कालसंज्ञकः ।

सौम्यांशोऽर्धप्रहरकः स्पष्टकर्मप्रदेशकः ।।४।।

भौम का मृत्यु, रवि का काल और बुध का अर्धप्रहर होता है ।।४ ।।

उदाहरण - जैसे संवत् २०३१ श्रावण कृष्ण १३ शनिवार को दिनमान ३२/५० है और इसी के बराबर इष्टकाल भी है। इसमें आठ का भाग देने से ४ ।६। १५ यह लब्धि हुई । यहाँ वारेश शनि से गणना करने प्रथम खंड ही गुलिक हुआ। इसी को इष्टकाल मानकर सूर्य को स्पष्ट कर लग्न लाने से गुलिक लग्न ४ । ९ । २६ । २५ हुआ ।

अथ गुलिकध्रुवाङ्कचक्रम्

रवि

चन्द्र

भौम

बुध

गुरु

शुक्र

शनि

वारा:

दिवा

रात्रौ

अथ प्राणपदसाधनम्-

घटी चतुर्गुणा कार्या तिथ्याप्तैश्च पलैर्युताः ।

दिनकरेणापहृतं शेषं प्राणपदं स्मृतम् ।।५।।

यहाँ प्राणपद साधन के दो प्रकार दिये हैं-

(१) इष्टकाल के घटी को ४ से गुणा कर एक जगह रख देवें । पलों में १५ का भाग देकर लब्धि को चतुर्गुणित इष्ट घटी में जोडकर १२ भाग देनें से जो शेष बचे, वह प्राणपद की राशि होती है ।।५।।.

शेषात्पलान्ताद्द्विगुणी विधाय राश्यंशसूर्यर्क्षनियोजिताय ।

तत्रापि तद्राशिचरान् क्रमेण लग्नांशप्राणांशपदैक्यता स्यात् ।। ६ ।।

शेष बचे पलों को दूना करने से अंश होता है। इस प्रकार से राशि और अंश मध्यम प्राणपद के होते हैं । । ६ । ।

अथच - स्वेष्टकालं पलीकृत्य तिथ्याप्तं भादिकं च यत् ।

चरागद्विभके भानी योज्यं स्वे नवमे सुते ॥

स्फुटं प्राणपदं तस्मात् पूर्ववच्छोधयेत्तनुम् ।।७।।

इसमें सूर्य की राशि चर - स्थिर - द्विस्वभाव के अनुसार सूर्य की राशि अंश, सूर्य की राशि से नवीं राशि और अंश तथा सूर्य की राशि से पाँचवीं राशि और अंश को जोड़ देने से राश्यादि स्पष्ट प्राणपद होता है । ऐसा करने से यदि जन्मलग्न का अंश और प्राणपद का अंश बराबर हो तो इष्टकाल शुद्ध होता है।

(२) इष्टकाल को पलात्मक बनाकर उसमें १५ का भाग देकर लब्धि राशि और अंश लाकर उसमें ऊपर कहें हुए अनुसार सूर्य की राशि के 'अनुसार राशि- अंश जोड़ने से स्पष्ट राश्यादि प्राणपद होता है। इससे जन्म-लग्न को शुद्ध करना चाहिए। अर्थात् लग्न का अंश और प्राणपद का अंश समान होना चाहिए ।। ७ ।।

विना प्राणपदाच्छुद्धो गुलिकाद्वा निशाकराद् ।

तदशुद्धं विजानीयात्स्थावराणां तदेव हि ।। ८ ।।

जो जन्मलग्न प्राणपद या गुलिक या चन्द्रमा से शुद्ध न की गई हो वह अशुद्ध होती है और वह स्थावर की जन्मलग्न होती है ॥ ८ ॥

द्वयोर्हीनबलेऽप्येवं गुलिकात्परिचिन्तयेत् ।

तस्मात्तत्सप्तमस्थात्तदंशाच्च कलत्रतः ।। ९ ।।

इसलिए उससे सप्तम से या उसके अंश से लग्न का संशोधन करना चाहिए। दोनों निर्बल हों तो गुलिक (माँदी) विचार करे ।। ९ ।।

तथैव तत्त्रिकोणे वा जन्मलग्नं विनिर्दिशेत् ।

मनुष्याणां पशूनां य द्वितीये दशमे रिपौ । । १० ।।

प्राणपद की राशि से त्रिकोण (५।९।१) राशि में मनुष्यों के जन्मलग्न की राशि होती है । २, , १०वीं राशि पशुओं की है । । १० ।।

तृतीये मदने लाभे विहङ्गानां विनिर्दिशेत् ।

कीटसर्पजलस्थानां शेषस्थानेषु संस्थितः ।। ११ ।।

३।७ वीं राशि में चिडियों का और शेष राशियों में कीट, सर्प, जल में रहनेवाले जीवों का जन्म होता है ।।११।।

उदाहरण-जैसे संवत् २०१३ श्रावण कृष्ण १३ शनिवार को इष्ट- ३२।५० पर लग्न ९।१७ में जन्म हुआ। इष्टकालिक सूर्य ३ । १८ है ।

श्लोक ६१-६२ के अनुसार प्रथम प्रकार से प्राणपद का साधन-

इष्टघटी X ४= ३२ x ४ = १२८

इष्टपल ÷ १५ = ५० ÷ १५ = ३ शेष ५

१२८ + ३ = १३१

१३१÷१२=१० लब्धि का त्याग कर देने से शेष ११ प्राणपद की राशि और पल शेष को दूना करने से १० अंश यह मध्यम प्राणपद हुआ। सूर्य चर राशि में है अतः सूर्य के राशि - अंश में जोड़ने से ११ ।१०°+३।१८।२२।२८ यह स्पष्ट प्राणपद हुआ।

श्लोक ६३ के अनुसार-

इष्टकाल ३२ । २८ । ३०

इसका पल = १९४९ । ३० इसमें १५ का भाग देने से १२९ लब्धि- राशि हुई और शेष १३/३० को दूना करने से २७ अंश हुआ। सूर्य को चर राशि में होने से सूर्य में जोड देने से १२९ ।२७

                                                                              ३ ।१८

                                                                          १३३ ।१५

१ ।५° यह स्पष्ट प्राणपद हुआ, जिससे 'प्राणत्रिकोणे प्रवदन्ति लग्नम्' और 'लग्नांशप्राणांशपदैक्यता स्यात् ' यह सिद्ध होता है।

प्राणपद की राशि मिथुन से जन्मलग्न की राशि तक गिनने से जन्मलग्न की राशि आठवीं आती है। अतः इष्टशोधन करना आवश्यक है, जिससे दोनों का परस्पर त्रिकोणत्व हो जाय। इसलिए इष्टकाल में १५ पल कम करने से ३२।३५ इष्टमान कर उपर्युक्त विधि से प्राणपद बनाने से १।२८ आया । यहाँ राशि तो ठीक आई, यानि वृषराशि, जिससे जन्मलग्न ९वीं राशि है किन्तु लग्नांश और प्राणांश एक नहीं हुए । अतः ६ पल और ३० विपल और घटा देने से शुद्ध इष्टकाल ३२।२८।३० हुआ। इस पर से प्राणपद बनाने से १ / १५ आया, जो कि उक्त वाक्य के अनुसार शुद्ध है।

विशेष - वस्तुतः प्राणपद शब्द का अर्थ है- प्राण देनेवाला पद (स्थान) या अंश। यह सूर्योदय से १५ पल में एक राशि का होता है। अतः ३ दंड में १२ राशि की पूर्ति हो जाती है और १ पल में २ अंश प्राणपद का होता है। इस नियम को ध्यान में रखकर इष्ट शुद्ध कर लेना चाहिए। उपर्युक्त शुद्ध किये हुए इष्टकाल द्वारा जन्माङ्ग का स्वरूप निम्नलिखित होगा ।

संवत् २०१३ शके १८७८ श्रावणकृष्ण १३ शनिवासरे पुनर्वसुभे प्रथम-चरणे इष्टम् ३२। २८ । ३० भयातम् १० । ३२ भभोगः ५५ । ३३ लग्नम् ९।१५।२२।३७ शुभम् ।

स्पष्टग्रहाः

सू.

चं.

मं.

बु.

गु.

शु.

श.

रा.

१०

१८

२२

२२

१२

१३

२६

३०

३२

२२

५०

४८

२७

३४

४७

५९

५४

५२

२६

जन्माङ्गम्

बृहत् पाराशर होरा शास्त्र अध्याय ४-जन्माङ्गम्

अथ निषेकलग्नानयनमाह-

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि शृणुष्वं मुनिपुङ्गव ।

. जन्मलग्नं च संशोध्य निषेकं परिशोधयेत् । । १२ । ।

हे मुनिश्रेष्ठ मैत्रेय ! अब मैं जन्मलग्न की शुद्धि के अनंतर निषेक (गर्भाधान) लग्न की शुद्धि को कहता हूँ, इसे धारण करो ।। १२ ।।

तदहं सम्प्रवक्ष्यामि मैत्रेय त्वं विचारय ।

जन्मलग्नात् परिज्ञानं निषेकं सर्वजन्तुषु । । १३ ।।

सभी जन्मलग्न के ज्ञान से सभी जन्तुओं के गर्भाधान लग्न का ज्ञान हो जाता है । । १३ ।।

यस्मिन् भावे स्थितो कोणस्तस्य मान्देर्यदन्तरम् ।

लग्नभाग्यन्तरं योज्यं यच्च राश्यादि जायते । । १४ । ।

जिस भाव में शनि हो उस भाव और मान्दि (गुलिक) लग्न का अन्तर कर उसमें लग्न और भाग्य भाव के अन्तर को जोड़ देने से जो राश्यादि होती है ।।१४।।

मासादिस्तन्मितं ज्ञेयं जन्मतः प्राक् निषेकजम् ।

यदादृश्यदलेऽङ्गेशस्तदेन्दोर्भुक्तभागयुक् । ।१५ । ।

जन्म से पूर्व के (निषेक काल के) मासादि का ज्ञान होता है। यदि लग्नेश अदृश्य चक्रार्ध (लग्न से सप्तम के बीच) में हो तो पूर्वोक्त मासादि में चन्द्रमा के भुक्त अंशादि को जोड़ने से मासादि होता है । । १५ ।।

तत्काले साधयेल्लग्नं शोधयेत्पूर्ववत्तनुम् ।

तस्माल्लग्नात्फलं वाच्यं गर्भस्थस्य विशेषतः । । १६ ।।

इसे जानकर तात्कालिक लग्न को बनावे, वही गर्भाधान की लग्न होती है । उस लग्न से गर्भस्थ प्राणी के शुभ-अशुभ फल कहते हैं ।। १६ ।।

शुभाशुभं वदेत् पित्रोर्जीवतं मरणं तथा ।

एवं निषेकलग्नेन सम्यक् ज्ञेयं स्वकल्पनात् ।।१७।।

माता-पिता के जीवन-मरण के शुभ-अशुभ फलों का विचार अपनी कल्पनावश करे ।। १७ ।।

उदाहरणजैसे पूर्वोक्त जन्माङ्ग में शनि कर्मभाव की सन्धि में है, अतः सन्धि ७ । ११ । ५८ 1३३ और गुलिक लग्न ४ । ९ । २६ । ३५ का अन्तर ३।२।३१।५८ हुआ । इसमें लग्न ९ । १५ । ३१ । ५ और भाग्य भाव ५।२४।४१।२५ का अन्तर ४। २०।५१।२६ जोड़ देने से ७।२३।२३।२४.अर्थात् जन्म से पूर्व ७ माह २३ दिन २३ घटी २४ पल पूर्व गर्भाधान हुआ था ।

अथ भावलग्नानयनमाह-

सूर्योदयात्समारभ्य घटीपञ्च प्रमाणतः ।

जन्मेष्टकालपर्यन्तं गणनीयं प्रयत्नतः ।। १८ ।।

सूर्योदय से पाँच घटी के बराबर एक लग्न बीतती है। इसे भावलग्न या घटीलग्न कहते हैं ।। १८ ।।

ओजलग्ने यदा जन्म सूर्यराश्वनुसारतः ।

समलग्ने जन्मलग्नात्यत्संख्या प्राप्यते द्विज ।

भावलग्नं विजानीयात् होरालग्नं तदुच्यते । । १९ ॥

इसलिए इष्ट घटी पर्यन्त जितनी लग्न बीती हो उसमें यदि जन्मलग्न विषम राशि में हो तो सूर्य राशि से और यदि समराशि में हो तो जन्मलग्न से उक्त संख्या गिनने से जो लग्न हो वही भावलग्न होती है ।। १९ ।।

उदाहरण - इष्ट घटी ३२।२८।३० सूर्य ३ । ९८ । २६ है । इष्ट घटी में ५ से भाग देने से ६ । २९ । ४२ लब्धि हुई। इसे सूर्य में जोडने से १० । २८ । ८ यह भावलग्न हुई ।

विशेष- इष्टकाल और लग्न की प्रवृत्ति सूर्योदय से होने के कारण सूर्य में ही जोड़ना चाहिए। यह युक्तिसंगत मालूम होता है ।

अथ होरालग्नानयनमाह-

सार्वद्विघटिका विप्र कालादिति विलग्नभात् ।

प्रयान्ति लग्नं तन्नाम होरालग्नं द्विजोत्तम । ।२० ।।

जन्मलग्न से ढाई घटी के तुल्य एक लग्न होती है, जिसे होरालग्न कहते हैं ।। २० ।।

यज्जन्म विधमर्क्षेषु सूर्यादि गणयेत्क्रमात् ।

समलग्ने थदा जन्म गणयेज्जन्मभाद्विज ।। २१ ।।

अतः इसके अनुसार इष्ट घटी पर्यन्त गिनने से जो संख्या हो उसमें यदि जन्म विषम लग्न में हो तो सूर्य की राशि से अन्यथा जन्मलग्न से गणना करने से जो राशि हो वही होरालग्न होती है । । २१ । ।

उदाहरण - इष्ट घटी ३२।२८।३० है, इसमें ढाई ५/२ का भाग देने से लब्धि राश्यादि ० । २९ । ४२ हुई। इसमें सूर्य की राश्यादि जोड़ने से ४ । १८ । १८ यह राश्यादि होरालग्न हुआ ।

घटीलग्नानयनमाह-

घटीलग्नं प्रवक्ष्यामि शृणु त्वं द्विजसत्तम ।

सूर्योदयात्समारभ्य जन्मकालावधि क्रमात् ।। २२ ।।

हे द्विजश्रेष्ठ ! मैं घटीलग्न को कह रहा हूँ, उसे सुनो। सूर्योदय से आरम्भ कर जन्म समय पर्यन्त क्रम से ।। २२ ।।

एकैकं घटिकामानाल्लग्नं राश्यादिकं च यत् ।

तदेव घटिकालग्नं कथितं ऋषिभिः पुरा ।। २३ ।।

एक-एक घटी के तुल्य एक राशि के हिसाब से जो राशि हो वही घटीलग्न होती है, ऐसा पूर्वाचार्यों ने कहा है ।। २३।।

राशीन् तत्र घटीतल्या द्विभागाः पलसम्मिताः ।

योज्यं सदा स्पष्टभानौ घटीलग्नं स्फुटं भवेत् ॥ २४ ॥

क्रमाल्लग्नादि भावाश्च संलिखेत् द्विजसत्तम ।

सूर्यादि यत्र ऋक्षे च जन्मवत्संलिखेद्विज ।। २५ ।।

इसमें इष्ट-घटी के तुल्य राशि होती है और एक पल में दो अंश होते हैं। इसके अनुसार जो राशि और अंश हो उसमें सदा सूर्य के राशि- अंश को जोड़ देने से स्पष्ट घटी लग्न होती है। इसे लग्न मानकर द्वादशभाव चक्र लिखकर जन्मकालिक सूर्य आदि ग्रह जिन-जिन राशियों में हों, उन्हें उन्हीं उन्हीं राशियों में देवें ।। २४-२५।।

उदाहरणइष्टकाल ३२ । २८ । ३० हैं और सूर्य ३ । १८ । २६ है, उक्त प्रकार से ३२ राशि १४ अंश हुआ। इसमें सूर्य के राश्यादि को जोड़ने से ० राशि २ अंश यह घटीलग्न हुई ।

अथ वर्णदलग्नानयनमाह-

जन्महोराख्यलग्नर्क्षसंख्या ग्राह्या पृथक् पृथक् ।

ओजे लग्ने त्वेकयुग्मे चक्रशुद्धैकसंयुता ।। २६ ।।

जन्मलग्न की राशि और होरालग्न की राशि संख्या विषम हों तो अथवा दोंनो सम हों तो, दोनों का योग करने से यदि विषम राशि हो तो वही वर्णद राशि होती है। दोनों में एक विषम और दूसरी सम हो तो सम को १२ राशि में घटाकर शेष को पहले में घटाने से शेष वर्णद राशि होती है।।२६।।

युग्मौजसाम्ये संयोज्य वियोज्यान्योनमन्यथा ।

मेषादितः क्रमादोजे मीनादेरुत्क्रमात्समे ।। २७ ।।

विषम राशि में मेषादि क्रम से और सम राशि में मीनादि से उत्क्रम गणना से है ।। २७ ।।

एवं यल्लग्नमायाति वर्णदं तत् प्रकीर्त्तितम् ।

एवं द्वादशभावानां वर्णदं लग्नमानयेत् ।। २८ ।।

जो लग्न हो वही वर्णद लग्न होती है। इस प्रकार सभी भावों की वर्णद लग्न बनानी चाहिए ।। २८ ।।

विशेष - १. जन्मलग्न और होरालग्न दोनों विषम हों तो दोनों का योग यदि विषम राशि हो तो वही वर्णद राशि होती है।

२. यदि दोनों सम हों तो दोनों को १२ राशि में घटाकर शेषों का योग करने से यदि विषम राशि हो तो वही वर्णद राशि होती है।

३. यदि जन्मलग्न होरालग्न दोनों में एक विषम और दूसरी सम हो तो सम राशि को १२ राशि में घटाकर दोनों का अन्तर करने से शेष विषम राशि हो तो वर्णद राशि होती है।

उपर्युक्त तीन प्रकारों से यह स्पष्ट है कि योग वा अन्तर करने से सम राशि आवे तो उसे १२ राशि में पुनः घटा देने से वर्णद राशि होती है अर्थात् वर्णद राशि हमेशा विषम ही होती है।

उदाहरण - जन्मलग्न ९ । १५ ।२२।३७ और होरालग्न ४ । १८ । १८ है । यहाँ जन्मलग्न सम और होरालग्न विषम है, अतः नियम तीन के अनुसार जन्मलग्न को १२ राशि में घटाने से शेष २ । १४ । ३७ । २३ हुआ । यही लग्न की वर्णद राशि है।

यदि द्वावोजराशौ वा समराशौ यदा द्विज ।

द्वयं संयोजनीयं वै संज्ञे या वर्णदा भवेत् । । २९ ।।

यदि दोनों विषम बा समराशि हों तो दोनों का योग करने से वर्णद राशि होती है ।। २९ । ।

एकस्थाने ओजराशावपरे समभे द्विज ।

समं तु चक्रतः शोध्यं न्यूनसंख्यां विशोधयेत् । । ३० ।।

एक विषम राशि हो और दूसरी सम राशि हो तो सम राशि को १२ राशि में घटाने से जो न्यून हो उसे पुनः घटाने से वर्णद होती है ।। ३० ।।

मेषादिकेन गणयेत्कममार्गेण वै द्विज ।

यल्लब्धमन्तिमो राशिः स राशिर्वर्णदो भवेत् ॥ ॥३१ ॥

मेष से क्रममार्ग से गणना करने से अंतिम राशि पर्यन्त जो राशि आवे वही वर्णद होती है ।। ३१ ।।

युग्मलग्नेषु यज्जन्म मीनादेरपसव्यतः ।

क्रमेण लग्नहोरान्तं गणयेत् द्विजसत्तम ।। ३२ ।।

समलग्न में जन्म होने से मीनादि अपसव्य मार्ग से गिनने से लग्न पर्यन्त गणना करनी चाहिए ।। ३२ ।।

ओजराशौ द्वयं लब्धं तथा द्वौ समराशिगो ।

साजात्ये योजनं कार्यं जायते वर्णदा दशा ।। ३३ ।।

यदि दोनों विषम राशि में अथवा दोनों समराशि में हों तो दोनों के सजातीय होने से दोनों का योग करने से वर्णद दशा हेती है ।। ३३ ।।

वैजात्ये पूर्ववत्कार्याधिक्ये न्यूनं विशोधयेत् ।

मेषादि सव्यमार्गेण गणनीयं प्रयत्नतः ।। ३४ ।।

दोनों विजातीय हों तो पूर्ववत् विषम में न्यून को घटाकर मेषादि से सव्यमार्ग से गणना करना चाहिए ।। ३४ ।।

यल्लब्धमन्तिमो राशिस्तद्राशिर्वर्णदो भवेत् ।

वर्षसंख्या विजानीयात् चरपर्याप्रमाणतः ।। ३५ ।।

जो लग्न से अंतिम राशि हो वही वर्णद राशि होती है। वही वर्णद संख्या चराति क्रम से होती है ।। ३५ ।।

होरालग्नभयोर्नेया दुर्बला वर्णदा दशा ।

यत्संख्या वर्णदा लग्नात्तत्र संख्या क्रमेण तु ।। ३६ ।।

होरालग्न से आई हुई वर्णद दशा दुर्बल होती है, वहाँ पर जन्मलग्न से लाई हुई दशा की संख्या लेनी चाहिए ।। ३६ ।।

क्रमव्युत्क्रमभेदेन दशा स्यात् पुरुषस्त्रियोः ।

वर्णदा राशिमेषादि मीनादि गणयेत्क्रमात् ।। ३७ ।।

क्रम-उत्क्रम भेद से पुरुष और स्त्री की दशा होती है। और वर्णद राशि मेषादि और मीनादि से गिनना चाहिए ।। ३७ ।।

फलविचारमाह-

वर्णदात्स्यात् त्रिकोणे च पापयुक् पापराशिकः ।

पापयोगकृते विप्र दशापर्यन्तजीवनम् ।। ३८ ।।

हे विप्र ! वर्णद राशि से त्रिकोण में पापग्रह की युति हो अथवा पापग्रह की राशि हो, उसमें पापग्रह की युति हो तो उसके दंशा पर्यन्त आयु होती है ।। ३८ ।।

रुद्रशूले यथैवायुर्निर्विशङ्कं द्विजोत्तम ।

तथैव वर्णदादप्यायुश्चन्त्यं द्विजोत्तम ।। ३९ ।।

जिस प्रकार रुद्रशूल पर्यन्त आयु होती है उसी प्रकार वर्णद से भी आयु का विचार करना चाहिए ।।३९।।

वर्णदात्सप्तमाद्राशेः कलत्रायुः विचिन्तयेत् ।

पञ्चमे तनयस्यायुर्मातुः स्यात्तुर्यभावके ।।४० ॥

वर्णद से पाँचर्वी राशि से पुत्र की, चौथी राशि से माता की । । ४० ॥

तृतीये भ्रातुरायुः स्याज्ज्येष्ठभ्रातुर्भवेद्विज ।

'पितुस्तु नवमाद् भावादायुर्ज्ञेयं विचक्षणैः ।। ४१ ।।

तीसरी राशि से भाई की और ग्यारहवीं राशि से ज्येष्ठ भाई की, नवीं राशि से पिता की आयु का विचार करना चाहिए । । ४१ । ।

शूलराशिदशायां वे प्रबलायामरिष्टकम् ।

वर्णदाल्लग्नवच्चिन्त्यं फलं सर्वं विचक्षणैः ।। ४२ ।।

शूलराशि की दशा में उन लोगों को प्रबल अरिष्ट होता है । वर्णद लग्न से लग्नभाव के समान ही सभी बातों का विचार करना चाहिए ।। ४२ ।।

एवं तन्वादिभावानां कारयेद्वर्णदा दशा ।

पूर्ववच्च फलं ज्ञेयं शुभाशुभं द्विजोत्तम ।। ४३ ।।

इसी प्रकार लग्न आदि सभी भावों की वर्णद राशि बनाना चाहिए। उस पर से प्रत्येक भावों के शुभ-अशुभ फलों का विचार पूर्ववत् करना चाहिए ।। ४३ ।।

ग्रहाणां वर्णदा नैव राशीनां वर्णदा दशा ।

यल्लब्धं पूर्वमब्दानां भानुभागं च कारयेत् ।। ४४ ।।

ग्रहों की वर्णद राशि नहीं होती है। इस प्रकार वर्णद राशि के दशा का जो वर्ष मिले, उसमें १२ का भाग देकर ।। ४४ ।।

क्रमव्युत्क्रमभेदेन संलिखेद्वै दशान्तरम् ।

चरस्थिरदशायां वै वर्णदायास्तथैव च ।। ४५ ।।

जैसे चर आदि दशा में क्रम-उत्क्रम से अन्तर्दशा लिखी जाती है उसी प्रकार यहाँ भी अन्तर्दशा लिखें ।। ४५ ।।

पूर्णायां कारकस्यैव केन्द्रस्थानां दशा भवेत् ।

ततः पणफरस्थानामापोक्लिम दशां ततः ।। ४६ ।।

पहले केन्द्रस्थ की दशा, इसके बाद पणफरस्थ की और इसके बाद अपोक्लिमस्थ की दशा होती है । । ४६ ।।

इति पाराशरहोरायां पूर्वखण्डे सुबोधिन्यां लग्नाध्याय चतुर्थः ।।४।।

आगे जारी............. बृहत्पाराशरहोराशास्त्र अध्याय 5

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