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अथ त्रिसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः
प्रायश्चित्तं
अग्निरुवाच
प्रायश्चित्तं ब्रह्मणोक्तं वक्ष्ये
पापोपशान्तिदं ।
स्यात्प्राणवियोगफलो व्यापारो हननं
स्मृतं ॥०१॥
रागाद्द्वेषात्प्रमादाच्च स्वतः परत
एव वा ।
ब्राह्मणं घातयेद्यस्तु स
भवेद्ब्रह्मघातकः ॥०२॥
बहूनामेककार्याणां सर्वेषां
शस्त्रधारिणां ।
यद्येको घातकस्तत्र सर्वे ते घातकाः
स्मृताः ॥०३॥
आक्रोशितस्ताडितो वा धनैव्वा
परिपीडितः ।
यमुद्दिश्य
त्यजेत्प्राणांस्तमाहुर्ब्रह्मघातकं ॥०४॥
औषधाद्युपकारे तु न पापं स्यात्कृते
मृते ।
पुत्रं शिष्यन्तथा भार्यां शासते न
मृते ह्यघं ॥०५॥
देशं कालञ्च यः शक्तिं
पापञ्चावेक्ष्य यत्नतः ।
प्रायश्चित्तं प्रकल्प्यं
स्याद्यत्र चोक्ता न निष्कृतिः ॥०६॥
गवार्थे ब्राह्मणार्थे वा सद्यः
प्राणान् परित्यजेत् ।
प्रास्येदात्मानमग्नौ वा मुच्यते
ब्रह्महत्यया ॥०७॥
शिरःकपाली ध्वजवान् भैक्षाशी कर्म
वेदयन् ।
ब्रह्महा द्वादशाब्दानि
मितभुक्शुद्धिमाप्नुयात् ॥०८॥
षड्भिर्वर्षैः शुद्धचारी ब्रह्महा
पूयते नरः ।
विहितं यदकामा मां कामात्तु
द्विगुणं स्मृतं ॥०९॥
प्रायश्चित्तं प्रवृत्तस्य वधे
स्यात्तु त्रिवार्षिकं ।
ब्रह्मघ्नि क्षत्रे द्विगुणं
विट्च्छूद्रे द्विगुणं त्रिधा ॥१०॥
अन्यत्र विप्रे सकलं पादोनं
क्षत्रिये मतं ।
वैश्येऽर्धपादं क्षत्रे
स्याद्वृद्धस्त्रीबालरोगिषु ॥११॥
अग्निदेव कहते हैं—
वसिष्ठ! अब मैं ब्रह्मा के द्वारा वर्णित पापों का नाश करनेवाले
प्रायश्चित्त बतलाता हूँ। जिससे प्राणों का शरीर से वियोग हो जाय, उस कार्य को 'हनन' कहते हैं।
जो राग, द्वेष अथवा प्रमादवश दूसरे के द्वारा या स्वयं
ब्राह्मण का वध करता है, वह 'ब्रह्मघाती'
होता है। यदि एक कार्य में तत्पर बहुत से शस्त्रधारी मनुष्यों में
कोई एक ब्राह्मण का वध करता है, तो वे सब-के-सब 'घातक' माने जाते हैं। ब्राह्मण किसी के द्वारा निन्दित
होनेपर, मारा जाने पर या बन्धन से पीड़ित होनेपर जिसके
उद्देश्य से प्राणों का परित्याग कर देता है, उसे 'ब्रह्महत्यारा' माना गया है। औषधोपचार आदि उपकार
करने पर किसी की मृत्यु हो जाय तो उसे पाप नहीं होता। पुत्र, शिष्य अथवा पत्नी को दण्ड देने पर उनकी मृत्यु हो जाय, उस दशा में भी दोष नहीं होता। जिन पापों से मुक्त होने का उपाय नहीं
बतलाया गया है, देश, काल, अवस्था, शक्ति और पाप का विचार करके यत्नपूर्वक
प्रायश्चित्त की व्यवस्था देनी चाहिये। गाँ अथवा ब्राह्मण के लिये तत्काल अपने
प्राणों का परित्याग कर दे, अथवा अग्नि में अपने शरीर की आहुति
दे डाले तो मनुष्य ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है। ब्रह्महत्यारा मृतक के
सिर का कपाल और ध्वज लेकर भिक्षान्न का भोजन करता हुआ 'मैंने
ब्राह्मण का वध किया है'- इस प्रकार अपने पापकर्म को
प्रकाशित करे। वह बारह वर्ष तक नियमित भोजन करके शुद्ध होता है अथवा शुद्धि के
लिये प्रयत्न करनेवाला ब्रह्मघाती मनुष्य छः वर्षों में ही पवित्र हो जाता है।
अज्ञानवश पापकर्म करनेवालों की अपेक्षा जान-बूझकर पाप करनेवाले के लिये दुगुना
प्रायश्चित्त विहित है। ब्राह्मण के वध में प्रवृत्त होने पर तीन वर्षतक
प्रायश्चित्त करे। ब्रह्मघाती क्षत्रिय को दुगुना तथा वैश्य एवं शूद्र को छः गुना
प्रायश्चित्त करना चाहिये । अन्य पापों का ब्राह्मण को सम्पूर्ण, क्षत्रिय को तीन चरण, वैश्य को आधा और शूद्र,
वृद्ध, स्त्री, बालक एवं
रोगी को एक चरण प्रायश्चित्त करना चाहिये ॥ १-११ ॥
तुरीयो ब्रह्महत्यायाः क्षत्रियस्य
बधे स्मृतं ।
वैश्येऽष्टमांशो वृत्तस्थे शूद्रे
ज्ञेयस्तु षोडशः ॥१२॥
अप्रदुष्टां स्त्रियं हत्वा
शूद्रहत्याव्रतं चरेत् ।
पञ्चगव्यं पिवेद्गोघ्नो मासमासीत
संयतः ॥१३॥
गोष्ठे शयो गोऽनुगामी गोप्रदानेन
शुद्ध्यति ।
कृच्छ्रञ्चैवातिकृच्छ्रं वा
पादह्रासो नृपादिषु ॥१४॥
अतिवृद्धामतिकृशामतिबालाञ्च रोगिणीं
।
हत्वा पूर्वविधानेन चरेदर्धव्रतं
द्विजः ॥१५॥
ब्राह्मणान् भोजयेच्छक्त्या
दद्याद्धेमतिलदिकं ।
मुष्टिचपेटकीलेन तथा शृङ्गादिमोटने
॥१६॥
लगुडादिप्रहारेण गोवधं तत्र
निर्दिशेत् ।
दमेन दामने चैव शकटादौ च योजने ॥१७॥
स्तम्भशृङ्खलपाशैर्वा मृते
पादोनमाचरेत् ।
काष्ठे शान्तपनं
कुर्यात्प्राजापत्यन्तु लोष्ठके ॥१८॥
तप्तकृच्छ्रन्तु पाषाणे शस्त्रे
चाप्यतिकृच्छ्रकं ।
मार्जारगोधानकुलमण्डूकश्वपतत्रिणः
॥१९॥
हत्वा त्र्यहं पिवेत्क्षीरं
कृच्छ्रं चान्द्रायणं चरेत् ।
क्षत्रिय का वध करने पर ब्रह्महत्या
का एकपाद,
वैश्य का वध करने पर अष्टमांश और सदाचार परायण शूद्र का वध करने पर
षोडशांश प्रायश्चित्त माना गया है। सदाचारिणी स्त्री की हत्या करके शूद्र हत्या का
प्रायश्चित्त करे। गोहत्यारा संयतचित्त होकर एक मासतक गोशाला में शयन करे, गौओं का अनुगमन करे और पञ्चगव्य पीकर रहे। फिर गोदान करने से वह शुद्ध हो
जाता है। 'कृच्छ्र' अथवा 'अतिकृच्छ्र' कोई भी व्रत हो, क्षत्रियों
को उसके तीन चरणों का अनुष्ठान करना चाहिये। अत्यन्त बूढ़ी, अत्यन्त
कृश, बहुत छोटी उम्रवाली अथवा रोगिणी स्त्री की हत्या करके
द्विज पूर्वोक्त विधि के अनुसार ब्रह्महत्या का आधा प्रायश्चित्त करे। फिर
ब्राह्मणों को भोजन कराये और यथाशक्ति तिल एवं सुवर्ण का दान करे। मुक्के या
थप्पड़ के प्रहार से, सींग तोड़ने से और लाठी आदि से मारने पर
यदि गौ मर जाय तो उसे 'गोवध' कहा जाता
है। मारने, बाँधने, गाड़ी आदि में
जोतने, रोकने अथवा रस्सी का फंदा लगाने से गौ की मृत्यु हो
जाय तो तीन चरण प्रायश्चित्त करे। काठ से गोवध करनेवाला 'सांतपनव्रत',
ढेलेसे मारनेवाला 'प्राजापत्य', पत्थर से हत्या करनेवाला 'तप्तकृच्छ्र' और शस्त्र से वध करनेवाला 'अतिकृच्छ्र' करे। बिल्ली, गोह, नेवला,
मेढक, कुत्ता अथवा पक्षी की हत्या करके तीन
दिन दूध पीकर रहे; अथवा 'प्राजापत्य'
या ' चान्द्रायण' व्रत
करे ॥ १२ – १९अ ॥
व्रतं रहस्ये रहसि प्रकाशेऽपि
प्रकाशकं ॥२०॥
प्राणायामशतं कार्यं
सर्वपापापनुत्तये ।
पानकं द्राक्षमधुकं
खार्जरन्तालमैक्षवं ॥२१॥
मध्वीकं टङ्कमाध्वीकं मैरेयं नारिकेलजं
।
न मद्यान्यपि मद्यानि पैष्टी मुख्या
सुरा स्मृता ॥२२॥
त्रैवर्णस्य निषिद्धानि पीत्वा
तप्त्वाप्यपः शुचिः ।
कणान् वा भक्षयेदब्दं पिण्याकं वा
सकृन्निशि ॥२३॥
सुरापाणापनुत्यर्थं बालवामा जटी
ध्वजी ।
अज्ञानात्प्राश्य विण्मूत्रं
सुरासंस्पृष्टमेव च ॥२४॥
पुनः संस्कारमर्हन्ति त्रयो वर्णा
द्विजातयः ।
मद्यमाण्डस्थिता आपः पीत्वा
सप्तदिनं व्रती ॥२५॥
चाण्डालस्य तु पानीयं पीत्वा
स्यात्षड्दिनं व्रती ।
चण्डालकूपभाण्डेषु पीत्वा शान्तपनं
चरेत् ॥२६॥
पञ्चगव्यं त्रिरान्ते पीत्वा
चान्त्यजलं द्विजः ।
मत्स्यकण्टकशम्बूकशङ्खशुक्तिकपर्दकान्
॥२७॥
पीत्वा नवोदकं चैव पञ्चगव्येन
शुद्ध्यति ।
शवकूपोदकं पीत्वा त्रिरात्रेण
विशुद्ध्यति ॥२८॥
अन्त्यावसायिनामन्नं भुक्त्वा
चान्द्रायणं चरेत् ।
आपत्काले शूद्रगृहे मनस्तापेन
शुद्ध्यति ॥२९॥
शूद्रभाजनभुक्विप्रः
पञ्चगव्यादुपोषितः ।
कन्दुपक्वं स्नेहपक्वं स्नेहं च
दधिशक्तवः ॥३०॥
शूद्रादनिन्द्यान्येतानि
गुडक्षीररसादिकं ।
अस्नातभुक्चोपवासी दिनान्ते तु
जपाच्छुचिः ॥३१॥
मूत्रोच्चार्यशुचिर्भुक्त्वा
त्रिरात्रेण विशुद्ध्यति ।
केशकीटावपन्नं च पादस्पृष्टञ्च
कामतः ॥३२॥
भ्रूणघ्नावेक्षित्तं चैव सस्पृष्टं
वाप्युदक्यया ।
काकाद्यैरवलीढं च शुनासंस्पृष्टमेव
च ॥३३॥
गवाद्यैरन्नमाघ्रातं भुक्त्वा
त्र्यहमुपावसेत् ।
रेतोविण्मूत्रभक्षी तु प्राजापत्यं
समाचरेत् ॥३४॥
चान्द्रायण नवश्राद्धे पराको मासिके
मतः ।
पक्षत्रयेऽतिकृच्छ्रं स्यात्षण्मासे
कृच्छ्रमेव च ॥३५॥
आब्दिके पादकृच्छ्रं स्यादेकाहः
पुनराव्दिके ।
पूर्वेद्युर्वार्षिकं श्राद्धं
परेद्युः पुनराव्दिकं ॥३६॥
निषिद्धभक्षणे भुक्ते प्रायश्चित्तमुपोषणं
।
भूस्तृणं लशुनं भुक्त्वा शिशुकं
कृच्छ्रमाचरेत् ॥३७॥
अभोज्यानान्तु भुक्त्वान्नं
स्त्रीशूद्रोच्छिष्टमेव च ।
जग्ध्वा मांसमभक्ष्यञ्च सप्तरात्रं
पयः पिवेत् ॥३८॥
मधु मांसञ्च योऽश्नीयाच्छावं
सूतकमेव वा ।
प्राजापत्यं चरेत्कृच्छ्रं
ब्रह्मचारी यतिर्व्रती ॥३९॥
गुप्त पाप होने पर गुप्त और प्रकट
पाप होने पर प्रकट प्रायश्चित्त करे। समस्त पापों के विनाश के लिये सौ प्राणायाम
करे। कटहल, द्राक्षा, महुआ, खजूर, ताड़, ईख और मुनक्के का रस तथा टंकमाध्वीक, मैरेय और
नारियल का रस- ये मादक होते हुए भी मद्य नहीं हैं। पैटी ही मुख्य सुरा मानी गयी
है। ये सब मदिराएँ द्विजों के लिये निषिद्ध हैं। सुरापान करनेवाला खौलता हुआ जल
पीकर शुद्ध होता है अथवा सुरापान के पाप से मुक्त होने के लिये एक वर्षतक जटा एवं
ध्वजा धारण किये हुए वन में निवास करे। नित्य रात्रि के समय एक बार चावल के कण या
तिल की खली का भोजन करे। अज्ञानवश मल-मूत्र अथवा मदिरा से छूये हुए पदार्थ का
भक्षण करके ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य - तीनों वर्णों के
लोग पुनः संस्कार के योग्य हो जाते हैं। सुरापात्र में रखा हुआ जल पीकर सात दिन
व्रत करे। चाण्डाल का जल पीकर छः दिन उपवास रखे तथा चाण्डालों के कूएँ अथवा पात्र का
पानी पीकर 'सांतपन व्रत' करे । अन्त्यज
का जल पीकर द्विज तीन रात उपवास रखकर पञ्चगव्य का पान करे। नवीन जल या जल के साथ
मत्स्य, कण्टक, शम्बूक, शङ्ख, सीप और कौड़ी पीने पर पञ्चगव्य का आचमन करने से
शुद्धि होती है। शवयुक्त कूप का जल पीने पर मनुष्य 'त्रिरात्रव्रत'
करने से शुद्ध होता है। चाण्डाल का अन्न खाकर चान्द्रायणव्रत'
करे। आपत्काल में शूद्र के घर भोजन करने पर पश्चात्ताप से शुद्धि हो
जाती है। शूद्र के पात्र में भोजन करनेवाला ब्राह्मण उपवास करके पञ्चगव्य पीने से
शुद्ध होता है। कन्दुपक्व (भूजा), स्नेहपक्व (घी- तैल में
पके पदार्थ), घी-तैल, दही, सत्तू, गुड़, दूध और रस आदि-ये
वस्तुएँ शूद्र के घर से ली जाने पर भी निन्दित नहीं हैं। बिना स्नान किये भोजन
करनेवाला एक दिन उपवास रखकर दिनभर जप करने से पवित्र होता है। मूत्र त्याग करके
अशौचावस्था में भोजन करने पर 'त्रिरात्रव्रत' से शुद्धि होती है। केश एवं कीट से युक्त, जान-बूझकर
पैर से छूआ हुआ, भ्रूणघाती का देखा हुआ, रजस्वला स्त्री का छूआ हुआ, कौए आदि पक्षियों का
जूठा किया हुआ, कुत्ते का स्पर्श किया हुआ अथवा गौ का सूँघा
हुआ अन्न खाकर तीन दिन उपवास करे। वीर्य, मल या मूत्र का
भक्षण करने पर 'प्राजापत्य व्रत' करे।
नवश्राद्ध में 'चान्द्रायण', मासिक
श्राद्ध में 'पराकव्रत', त्रिपाक्षिक
श्राद्ध में 'अतिकृच्छ्र', षाण्मासिक
श्राद्ध में 'प्राजापत्य' और वार्षिक
श्राद्ध में एकपाद प्राजापत्य- व्रत' करे। पहले और दूसरे
दोनों दिन वार्षिक श्राद्ध हो तो दूसरे वार्षिक श्राद्ध में एक दिन का उपवास करे।
निषिद्ध वस्तु का भक्षण करने पर उपवास करके प्रायश्चित्त करे। भूतॄण (छत्राक),
लहसुन और शिग्रुक् (श्वेत मरिच) खा लेने पर 'एकपाद
प्राजापत्य' करे । अभोज्यान्न, शूद्र का
अन्न, स्त्री एवं शूद्र का उच्छिष्ट या अभक्ष्य मांस का
भक्षण करके सात दिन केवल दूध पीकर रहे। जो ब्रह्मचारी, संन्यासी
अथवा व्रतस्थ द्विज मधु, मांस या जननाशौच एवं मरणाशौच का अन्न
भोजन कर लेता है, वह 'प्राजापत्य-कृच्छ्र'
करे ॥ २० - ३९ ॥
अन्ययेन परस्वापहरणं स्तेयमुच्यते ।
मुसलेन हतो राज्ञा स्वर्णस्तेयी
विशुद्ध्यति ॥४०॥
अधःशायी जटाधारी पर्णमूलफलाशनः ।
एककालं समश्नानो द्वादशाब्दे
विशुद्ध्यति ॥४१॥
रुक्मस्तेयी सुरापश्च ब्रह्महा
गुरुतल्पगः ।
स्तेयं कृत्वा सुरां पीत्वा
कृच्छ्रञ्चाब्दं चरेन्नरः ॥४२॥
मणिमुक्ताप्रवालानां ताम्रस्य
रजतस्य च ।
अयस्कांस्योपलानाञ्च द्वादशाहं
कणान्नभुक् ॥४३॥
मनुष्याणान्तु हरणे स्त्रीणां
क्षेत्रगृहस्य च ।
वापीकूपतडागानां
शुद्धिश्चान्द्रायणं स्मृतं ॥४४॥
भक्ष्यभोज्यापहरणे यानशय्यासनस्य च
।
पुष्पमूलफलानाञ्च पञ्चगव्यं विशोधनं
॥४५॥
तृणकाष्ठद्रुमाणाञ्च शुष्कान्नस्य
गुडस्य च ।
चेलचर्मामिषाणाञ्च त्रिरात्रं
स्यादभोजनं ॥४६॥
पितुः पत्नीञ्च
भगिनीमाचार्यतनयान्तथा ।
आचार्याणीं सुतां स्वाञ्च गच्छंश्च
गुरुतल्पगः ॥४७॥
गुरुतल्पेऽभिभाष्यैनस्तप्ते
पच्यादयोमये ।
शूमीं ज्वलन्तीञ्चाश्लिष्य मृतुना स
विशुद्ध्यति ॥४८॥
चान्द्रायणान् वा त्रीन्मासानभ्यस्य
गुरुतल्पगः ।
एवमेव विधिं कुर्याद्योषित्सु
पतितास्वपि ॥४९॥
यत्पुंसः परदारेषु तच्चैनां
कारयेद्व्रतं ।
रेतः सिक्त्वा कुमारीषु चाण्डालीषु
सुतासु च ॥५०॥
सपिण्डापत्यदारेषु प्राणत्यागो
विधीयते ।
यत्करोत्येकरात्रेण वृषलीसेवनं
द्विजः ॥५१॥
तद्भैक्ष्यभुग् जपन्नित्यं
त्रिभिर्वर्षैर्व्यपोहति ।
पितृव्यदारगमने भ्रातृभार्यागमे तथा
॥५२॥
चाण्डालीं पुक्कसीं वापि स्नुषाञ्च
भगिनीं सखीं ।
मातुः पितुः स्वसारञ्च निक्षिप्तां
शरणागतां ॥५३॥
मातुलानीं स्वसारञ्च सगोत्रामन्यमिच्छतीं
।
शिष्यभार्यां गुरोर्भार्यां गत्वा
चान्द्रायणञ्चरेत् ॥५४॥
अन्यायपूर्वक दूसरे का धन हड़प लेने
को 'चोरी' कहते हैं। सुवर्ण की चोरी करनेवाला राजा के
द्वारा मूसल से मारे जाने पर शुद्ध होता है। सुवर्ण की चोरी करनेवाला, सुरापान करनेवाला, ब्रह्मघाती और गुरुपत्नीगामी बारह
वर्ष तक भूमि पर शयन और जटा धारण करे। वह एक समय केवल पत्ते और फल मूल का भोजन
करने से शुद्ध होता है। चोरी अथवा सुरापान करके एक वर्ष तक 'प्राजापत्य
व्रत' करे। मणि, मोती, मूँगा, ताँबा, चाँदी, लोहा, काँसा और पत्थर की चोरी करनेवाला बारह दिन
चावल के कण खाकर रहे। मनुष्य, स्त्री, क्षेत्र,
गृह, बावली, कूप और
तालाब का अपहरण करने पर 'चान्द्रायण व्रत' से शुद्धि मानी गयी है । भक्ष्य एवं भोज्य पदार्थ, सवारी,
शय्या, आसन, पुष्प,
मूल अथवा फल की चोरी करनेवाला पञ्चगव्य पीकर शुद्ध होता है। तृण,
काष्ठ, वृक्ष, सूखा अन्न,
गुड़, वस्त्र, चर्म या
मांस चुरानेवाला तीन दिन निराहार रहे। सौतेली माँ, बहन,
गुरुपुत्री, गुरुपत्नी और अपनी पुत्री से
समागम करनेवाला 'गुरुपत्नीगामी ' माना
गया है। गुरुपत्नीगमन करने पर अपने पाप की घोषणा करके जलते हुए लोहे की शय्या पर
तप्त – लौहमयी स्त्री का आलिङ्गन करके प्राणत्याग करने से शुद्ध होता है। अथवा
गुरुपत्नीगामी तीन मास तक 'चान्द्रायण व्रत' करे। पतित स्त्रियों के लिये भी इसी प्रायश्चित्त का विधान करे। पुरुष को
परस्त्रीगमन करेने पर जो प्रायश्चित्त बतलाया गया है, वही
उनसे करावे। कुमारी कन्या, चाण्डाली, पुत्री
और अपने सपिण्ड तथा पुत्र की पत्नी में वीर्यसेचन करनेवाले को प्राणत्याग कर देना
चाहिये । द्विज एक रात शूद्रा का सेवन करके जो पाप संचित करता है, वह तीन वर्षतक नित्य गायत्री-जप एवं भिक्षान्न का भोजन करने से नष्ट होता
है। चाची, भाभी, चाण्डाली, पुक्कसी, पुत्रवधू, बहन,
सखी, मौसी, बुआ, निक्षिप्ता ( धरोहर के रूप में रखी हुई), शरणागता,
मामी, सगोत्रा बहिन, दूसरे
को चाहनेवाली स्त्री, शिष्यपत्नी अथवा गुरुपत्नी से गमन करके,
'चान्द्रायण व्रत' करे ॥ ४० - ५४ ॥
इत्याग्नेये महापुराणे
प्रायश्चित्तानि नाम त्रिसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'अनेकविध प्रायश्चित्तों का वर्णन' नामक एक सौ
तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७३॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 174
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